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उसके लिए वर्षा अपने सम्पूर्ण आकर्षण और भय के साथ ही आती थी। उसके रौद्र रूप का भी वह उसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव करता था जैसे उमके मधुर गीत के समान प्रवित होने का। अकेला ध्यानस्थ भिक्षु भयंकर गुफा में बैठा है । बादल बरस रहा है और आकाश में गड़गड़ा रहा है। भयंकर मुसलाधार वा
और आकाश में निरन्तर बिजली की गड़गड़ाहट ! पर भिक्ष को भय कहाँ ? निर्भयता उसका स्वभाव है, उसकी 'धम्मता' है। अत: उसे न भय है, न स्तम्भ है और न रोमांच ! स्थविर मम्बुल कच्चान के अनुभव को उनके शब्दों में ही मुनिये :
देवो च वस्सति देवो च गळंगळायति एकको चाहं भेरवे बिले विहरामि। तस्स महं एककस्स भेरवे बिले विहरतो नत्थि भयं वा छम्भितत्तं वा लोमहंसो वा॥ धम्मता ममेसा यस्स मे एककस्स भेरवे बिले विहरतो नत्थि भयं वा
छम्भितत्तं वा लोमहंसो वा॥ भिक्षुओं की वृत्ति वर्षाकालीन प्राकृतिक सौन्दर्य और विशेषतः ध्यान के लिए उसकी उपयुक्तता पर बहुत रमी है । सुन्दर ग्रीवा वाले मोरों का बोलना
और एक दूसरे को बुलाना भिक्षुओं के लिए ध्यान का निमंत्रण है। शीत वायु में कलित विहार करते हुए मोर भिक्षु को ध्यान के लिए उद्बोधन करते हैं :
नीला सुगीवा मोरा कारंवियं अभिनदन्ति।
ते सीतवातकलिता सुत्तं झायं निबोधेन्ति ॥२ ___ इमी प्रकार सप्पक स्थविर का भी वर्षाकालीन सौन्दर्य मे प्रेरणा प्राप्त कर ध्यान के लिए बैठ जाना एक पवित्रताकारी वस्तु है। महास्थविर अपने
१.गाथाएँ १८९-१९०; निर्भयता-विहार के लिए देखिये स्थविर न्यग्रोध का
का उद्गार भी "नाहं भयस्स भायामि सत्था नो अमतस्स कोविदो। यत्थ भयं नावतिट्ठति तेन मग्गेन वजन्ति भिक्खवो ॥ गाथा २१ २.गाथा २२