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'वस्पति देवो यथा सुगीनं' ( सुन्दर गीत के समान देव बरसता है ! ) कैसी सुन्दर उपमा है ! प्राकृतिक सौन्दर्य का कैसा मनोज प्रत्यक्षीकरण है ! झड़ी लगाकर बरसते हुए बादल के समान सुन्दर गीत की वर्षा के सौन्दर्य को भी देखने की क्षमता वीतराग भिक्षु में है । पर ध्यान का सुख तो इसमें भी बड़ा है : पञ्चङ्गिन तुरियन न रति होति तादिसी ।
यथा एकग्गचित्तस्स सम्मा धम्मं विपस्सतो ||
( पञ्चविध तूर्यध्वनि (सङ्गीत ) से भी वैसा आनन्द प्राप्त नहीं होता, जैसा एकाग्र चित्त पुरुष का धर्म के सम्यक् दर्शन करने से उत्पन्न होता है) अत: ध्यान का सुख ही भिक्षु के लिए सब से बड़ा सुख है और प्राकृतिक सौन्दर्य उसके लिए इसी ध्यान का उद्दीपन बनता है ।
वर्षाकाल है । सुन्दर नीली ग्रीवा वाले, कलंगीवारी मोर अपने सुन्दर मुखां से बोल रहे हैं। • कितनी मधुर है उनकी गर्जन ! विस्तृत पृथ्वी चारों ओर हरियाली से भरी हुई है । सारी सृष्टि जल से व्याप्त है । आकाश में जल-पूरित कृष्ण मेघ छाये हुए हैं । ध्यान के लिए यह उपयुक्त अवसर है । भिक्षु को प्रसन्नता
कि उसका ध्यान अत्यन्त सुचारु रूप से चल रहा है । बुद्ध-शासन के अभ्यास में वह सुन्दर रूप से अप्रमादी । यदि प्रकृति में उल्लास और उत्साह है, तो भिक्षु का मन भी सुन्दर है । उसे भी उत्साह होता है अत्यन्त पवित्र, कुशल, दुर्दर्श, उत्तम, अच्युत पद (निर्वाण ) का साक्षात्कार करने के लिए । वर्षाकालीन सौन्दर्य के बीच ध्यानस्थ भिक्षु के इस पराक्रम को देखिये :--
नन्दन्ति मोरा सुसिखा सुपेखुणा सुनीलगीवा सुमुखा सुगज्जिनो । सुसद्दला चापि महा मही अयं सुव्यापितम्बु सुवलाहकं नभं ॥ • सुकल्लरूपो सुमनस्स झायितं सुनिक्खमो साधु सुबुद्धसासने । सुसुक्कसुक्कं निपुणं सुदुद्दसं फुसाहितं उत्तममच्चतपदं ॥ २
छत के नीचे बैठे हुए, मित्र परिजनादि से घिरे हुए, सांसारिक मनुष्यके समान वर्षा का सौन्दर्य केवल दूर से अवलोकन करने की वस्तु भिक्षु के लिए नहीं थी ।
१. गाथा ३९८, मिलाइये गाथा १०७१
२. गाथाएँ २११-२१२
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