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( २५१ ) का दर्शन ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति के लिए किया है। एक भिक्षु ने हमें बताया है कि भिक्षु होने से पहले वह एक गज-पुरोहित का पुत्र था और जाति-मद और भोग और ऐश्वर्य के मद मे मतवाला रहता था, किन्तु अब उसका सब मान, मद और अस्मिमान छूट चुका है और वह प्रमन्न और मान्त है। इमी प्रकार एक अन्य भिक्ष ने हमें बताया है कि पहले राजा होते समय किम प्रकार उसके हाथी की ग्रीवाओं में सूक्ष्म वस्त्र लटकने थे, पर वही आज परिग्रह-रहित मग्न मे ध्यान करता है। उच्च मंडलाकार दृढ़ अट्टलिकाओं और कोठों में वह पहले हाथ में खुडग धारण किये सिपाहियों और पहरेदारों द्वाग रक्षित होते हए भी वासपूर्वक मोता था, पर आज वही विना किमी त्रास के, सम्पूर्ण भयों से विमक्त हो कर वन में प्रवेश कर ध्यान करता है। एक दूसरे भिक्षु (गीलव) ने हमें बताया है कि वह पहले नीच कुल में उत्पन्न हुआ था। दरिद्र था और भोजन भी नहीं पाता था । मुखे फूलों को बीन बीन कर वह बेचता था और अपनी जीविका कमाता था। उसका कर्म हीन था। अपने मन को नीचा कर के वह अनेक मनुष्यों की वन्दना करता था। एक दिन भिक्ष-संघ के साथ मगध के उत्तम नगर (राजगृह) में प्रवेश करते हुए भगवान् मम्यक सम्बुद्ध को उमने देखा। वह आगे
दुग्गन्धे . . .' आदि गाथा २७९ तथा गाथा ११५० भी। १. धम्मादासं गहेत्वान जाणदस्सनपत्तिया । पच्चवेक्खिं इमं कायं तुच्छं
सन्तरबाहिरं ॥ गाथा ३९५ २. जातिमदेन मत्तोहं भोगैसरियेन च ।. . . . . . . . . मानं मदञ्च छड्डेत्वा विप्पसन्नेन चेतसा। अस्मिमानो समुच्छिन्नो सब्बे मानविधा हता ॥४२३
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३. या तं मे हथिगीवाय सुखमा वत्था पधारिता । सोज्ज भद्दो. झायति अनुपदानो. . . . . . उच्चे मण्डलियाकारे दल्हमट्टालकोट्टके । रक्खितो खग्गहत्थेहि उत्तसं विहरि पुरे ॥ सोज्ज भद्दो अनुत्रासी पहीनभयभेरवो। झायति वनमोगह य . . . . . . . . ." ८४२-८६४