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उसके हाथ मे दर्पण ले कर मैं अपने शरीर का प्रत्यवेक्षण करने लगा। काया की तुच्छता को मैने देखा। मेरा अन्धकार वहीं विदीर्ण हो गया ! अहंकार का वस्त्र फाड़ डाला गया। सारे आवरणों से मैं अब विमुक्त हो गया ! अब मेरे लिए पुनर्जन्म होना नहीं है।"१ एक विषयी पुरुप बद्ध-शासन को सुन कर किस प्रकार प्रवजित हो गया है, यह स्थविर किम्बिल के शब्दों में मनिये, “वरे चिन्तन में लगा हुआ में पहले इम काया के शृंगार-साधन में लगा रहता था। मैं उद्धत था, चपल था, एवं काम-वासना से बुरी तरह व्यथित था। सौभाग्यवश आदित्यवन्धु भगवान बुद्ध ने, जो मेरे जैमों का उपाय करने में कुशल हैं, अपने उपदेश से मुझे सत्पथ पर लगा दिया। अब संसार से मेरा चित्त अनासक्त हो चुका है।"२ स्थविर नन्द का गम्भीर अनामक्त भाव देखिये, “चित्त समाधि-मग्न नहीं है और दूसरे इसकी प्रशंमा करते है। यदि चित्त समाधि-मग्न नहीं है तो दूसरों की प्रशंसा व्यर्थ ही है। चित्त अच्छी प्रकार समाधि-मग्न है और दूसरे इसकी निन्दा करते हैं। यदि चिन अच्छी प्रकार ममाधि-मग्न है, तो दूसरे की निन्दा व्यर्थ ही है।"3
वस्तुतः 'थेरगाथा' की दो बड़ी विशेषताएँ हैं, भिक्षुओं के आन्तरिक अनभव का वर्णन और उनका प्रकृति-दर्शन । भिक्षओं ने संस्कारों की अनित्यता को देख कर मांसारिक जीवन से वैगग्य लिया है। चित्त की गान्ति ही उनके लिए सब से बड़ा सुख है। जीवन के प्रति न उनमें उत्सुकता है और न विषादमय दृष्टिकोण।
१. फेसे मे ओलिखिस्सन्ति कप्पको उपसंकमि । ततो आदासं आदाय सरीरं पच्च
वेक्खिसं। तुच्छो कायो अदिसित्थ, अन्धकारे तमो व्यगा। सब्बे चोला समुच्छिन्ना नत्थि दानि पुनभवो' ति" ॥ गाथाएँ १६९-१७० २. अयोनिसोमनसीकारा मण्डनं अनुयुञ्जिसं । उद्धतो चपलो चासि कामरागेन अट्टितो। उपायकुसलेनाहं बुद्धनादिच्चबन्धुना। योनिसो पटिपज्जित्वा भवे चित्तं उदबहिन्ति ॥ गाथाएँ १५७-१५८ ३. परे च नं पसंसन्ति अत्ता चे असमाहितो। मोघं परे पसंसन्ति अत्ता हि अस
माहितो॥ परे च नं गरहन्ति अत्ता चे सुसमाहितो । मोघं परे गरहन्ति अत्ता हि सुसमाहितो॥ गाथाएँ १५९-१६०