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( २४६ ) (२) उरग पेतवत्थु, (३) उब्बरी पेतवत्थु और (४) धातु विवण्ण पेतवत्थु। 'पतवत्थु' में प्रेतों की कहानियों के द्वारा यह दिखाया गया है कि किस किस दुष्कर्म के कारण परलोक में क्या क्या दुःख भोगने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए एक भिक्षु की कथा देखिए। भिक्ष नारद किसी प्रेत से पूछते हैं--"तेरी सम्पूर्ण काया शुभ्र है। तु सारी दिशाओं को अपने कान्त वर्ण से आलोकित भी कर रहा है। किन्तु तेरा मुख शुकर का है। नूने पूर्व जन्म में क्या कर्म किया था ?' १ प्रेत उत्तर देता है “नारद ! मै काया से संयत था, किन्तु वाणी से असंयत था। इसी लिये नारद ! मेरा यह ऐसी अवस्था है जिसे तू देखता है । हे नारद ! जैसा तुमने स्वयं देखा है, मैं भी तुम्हें कहता हूँ--मुख में पाप न करना, ताकि तुम्हें भी कहीं शूकर के मख वाला न होना पड़े।"२ इस प्रकार शुभ कर्म का परिणाम मरने के बाद शुभ और अशुभ कर्म का अशुभ होता है, इमी नैतिक सत्य को क्रमशः 'विमानवत्थु' और 'पेतवत्थ' में दिखलाया गया है । थेरगाथा और थेरीगाथा
थेरगाथा और थेरीगाथा खुद्दक-निकाय के दो महत्त्वपर्ण ग्रन्थ हैं। इन दो ग्रन्थों में क्रमशः बुद्धकालीन भिक्षु और भिक्षुणियों के पद्य-बद्ध जीवन-संस्मरण हैं।
१. कायो ते सब्बसोवण्णो सब्बा ओभासते दिसा । मुखं ते सूकरास्स एव कि
कम्मं अकरी पुरे। . २. कायेन सञतो आसि वाचा आसि असतो । तेन में तादिसो वण्णो यथा
पस्ससि नारद। तं त्यहं नारद ब्रूमि सायं दिखें इदं तया । मा कासि मुखसा पापं मा खो सुकरमुखो अहू ति । पेतवत्थु (खेतूपमा पेतवत्थु) ३. ४. महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन तथा भिक्ष
जगदीश काश्यप ने इन दोनों ग्रन्थों का सम्पादन देवनागरी लिपि में किया है जिसे भिक्षु उत्तम ने बुद्धाब्द २४८१ (१९३७ ई०) में प्रकाशित किया है। प्रोफेसर भागवत ने भी थेरीगाथा का सम्पादन नागरी लिपि में किया है, जिसे बम्बई विश्व विद्यालय ने सन् १९३७ में प्रकाशित किया है। 'थेरीगाथा'