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( २४४ ) (भगवान्) "हे कप्प । तुझे द्वीप बतलाता हूँ । अकिंचनता ही सर्वोत्तम द्वीप है।
इसे में जरा-मृत्यु-विनाश रूप निर्वाण कहता हूँ।" आदि, आदि। विमानवत्थु और पेतवत्थु
विमानवत्थु (विमानवस्तु) का अर्थ है विमानों या देव-आवामों की कथाएँ। इसी प्रकार पेतवत्थु का अर्थ है प्रेतों की कथाएँ। विमानवत्थु और पेतवत्थु में क्रमशः देवताओं और प्रेतों की कहानियों के द्वारा कर्म-फल के सिद्धान्त का प्राकृतजनोपयोगी दिग्दर्शन कराया गया है। देवता प्रकाश-रूप है। वे मन्दर आवासों में रहते हैं । स्वर्ग-लोक नाना प्रकार के आमोद-प्रमोदों से पूरित है। इसके विपरीत प्रेत-योनि दुःखमय है। प्रेतों को नाना प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं। इस जन्म में जो नाना प्रकार के शुभ या अशुभ कर्म किये जाते है, उन्हीं के परिणामस्वरूप मृत्य के उपरान्त क्रमशः देवताओं या प्रेतों की गतियाँ प्राप्त होती हैं, यह दिखाने के लिए ही विमानवत्थु और पेतवत्थु की रचना की गई है। इस प्रकार बौद्ध नैतिकवाद ने यहाँ पौराणिक परिधान ग्रहण कर लिया है। ऐसा लगता है नैतिक प्रयोजन के लिए बौद्धों ने स्वर्ग-नरक मय प्राचीन पौराणिकवाद को स्वीकार कर लिया है। किन्तु स्वर्ग का लक्ष्य उन्होंने गृहस्थ-जनों के लिए ही रक्खा है। भिक्षु का पद इससे बहुत अधिक ऊँचा है। वह तो निर्वाणका अभिलापी है। स्वर्ग-लोक भी उसके लिए एक बन्धन है, कामनाओं की तृप्ति का ही एक साधन है। वह तो कामनाओं से ऊपर उठ कर, मनुष्य और देवता सव का ही अनुशासक है। अतः यह ठीक ही है कि किसी भी भिक्षु को शुभ कर्म के परिणामस्वरूप स्वर्ग प्राप्त करते 'विमानवत्थु' में नहीं दिखाया गया। केवल सदगृहस्थ ही शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप स्वर्ग प्राप्त करते है और वहाँ नाना प्रकार के रमण, क्रीड़ा दिव्य माल्य-धारण आदि का उपभोग करते है। विमानवत्थु'' में ८५ देव-आवासों
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१. महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा बुद्धचर्या, पृष्ठ ३७३-३८४ में अनुवादित । २. देवनागरी लिपि में महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन
तथा भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा सम्पादित (भिक्षु उत्तम द्वारा प्रकाशित, बुद्धाब्द २४८१ (१९३७ ई०)