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( २३८ ) वेद की एक प्रार्थना में राष्ट्र की विभूति का चित्र खींचा गया है। पर उसके रंग इतने गहरे नहीं हैं, उसकी रेखाएं इतनी और स्पष्ट नहीं हैं, जितनी सत्तनिपात के वर्णन की। इतना होते हुए भी सुखी कृषक के जीवन का वर्णन सुत्त-निपात में केवल एक पृष्ठभूमि के रूप में है, वह स्वयं अपना लक्ष्य नहीं है। उसका वर्णन यहाँ उससे बड़े एक अन्य सुख की केवल अभिव्यक्ति के रूप में किया गया है। उस सुख का उपभोग भगवान् बुद्ध कर रहे है। उनके उद्गारों को कृपक के उद्गारों से पंक्तिशः मिलाइये । मही नदी के तट पर खुले आकाश में बैठे हुए भगवान् उमड़ते हुए बादलों को देख कर प्रसन्न उद्गार कर रहे हैं :--
मै क्रोध और राग से रहित हूँ। एक रात के लिए मही नदी के तीर पर ठहरा हॅ। मेरी कुटी खुली है। अग्नि (रागाग्नि, द्वेषाग्नि, मोहाग्नि) बुझ चुकी है। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरमो !
मैने एक अच्छी तरणी बना ली है। भव सागर को तर कर पार चला आया। अब तरणी की आवश्यकता नहीं । हे देव ! चाहो तो खूब बरमो।
मेरा मन वशीभूत और विमुक्त है, चिर काल से परिभावित और दान्त है। मुझ में कोई पाप नहीं। हे देव ! चाहो तो खूब बरसो !
मै किसी का चाकर नहीं। स्वच्छन्द सारे संसार में विचरण करता हूँ। मुझे चाकरी से मतलब नहीं । हे देव ! चाहो तो खव बरसो !
१. "आ ब्रह्मन्ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम् . . . . . . दोग्धी धेनुर्वोढाऽन
ड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा . . . . . . निकाम-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु । फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् । योगक्षेमो नः कल्पताम्" । यजुर्वेद २२।२२