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( २३७ ) धनिय-सुत्त में गृहस्थ-सुख और ध्यान-सुख की तुलना की गई है, जिसके उद्धरण का मोह संवरण नहीं किया जा सकता। धनिय गोप पुत्र, स्त्री, धन, धान्यादि से ममृद्ध है । वह एक सुखी गृहस्थ किसान है । वर्षा-काल में वह उद्गार कर रहा है :--
भात मेरा पक चुका। दूध दुह लिया। मही (गंडक) नदी के नीर पर स्वजनों के साथ वास करता हूं। कुटी छा ली है। आग सलगा ली है। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो !
मक्खी मच्छर यहाँ पर नहीं है। कछार में उगी घास को गौवें चरती है। पानी भी पड़े तो वे उसे सह लें। अब हे देव ! चाहो तो खुब बरसो !
. . . . . . . . मेरी ग्वालिन आज्ञाकारी और अचंचला है । वह चिरकाल की प्रिय संगिनी है। उसके विषय में कोई पाप भी नहीं सुनता। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो !
में आप अपनी ही मजदूरी करता हूँ। मेरी सन्तान अनुकूल और नीरोग है। उनके विषय में कोई पाप भी नहीं सनता। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो।
__ मेरे तरुण बैल और बछड़े हैं। गाभिन गायें है और तरुण गायें भी, और सब के बीच वृषभराज भी है। अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो ! . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . __खुटे मजबून गड़े है, मंज के पगहे नये और अच्छी तरह बटे है, बैल-भी उन्हें नहीं तोड़ सकते । अब हे देव ! चाहो तो खूब बरसो ।'
पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसवी पूर्व के मगध-कोसल के किमान के सुखी जीवन का कैमा सुन्दर चित्रण है, उसकी आगा-आकांक्षाओ का कैसा सुन्दर निरूपण है ! ग्रामीण जीवन का यह चित्र, उमके मुख का यह आदर्श, आज भी उतना ही सत्य है जितना बुद्ध-काल में।
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१. भिक्षु धर्मरत्न का अनुवाद, पृष्ठ ७-१० (कुछ अल्प परिवर्तनों के सिहत)