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उनके धर्म के साथ उनके सम्बन्धों पर भी प्रकाश डालने वाले काफी वर्णन हैं। इस प्रकार संयुत्त-निकाय के खन्ध-संयुत्त में हम उस काल के छः प्रसिद्ध आचार्यों यथा पूर्ण काश्यप, मक्खली (मस्करी) गोशाल, संजय वेलिठ्ठिपुत्त, प्रक्रुधकात्यायन' आदि का वर्णन पाते हैं। इसी प्रकार मोग्गल्लान-संयत्त के असिबन्धकपुत्त-सुत्त और निगण्ठ-सुत्त से हमें बुद्ध-धर्म और तत्कालीन जैन धर्म के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में पर्याप्त सूचना मिलती है । तत्कालीन याज्ञिक ब्राह्मणों के यज्ञवाद और बुद्ध के नैतिक आदर्शवाद में क्या ऐतिहासिक सम्बन्ध है, और किस प्रकार एक के सामने दूसरे को झुकना पड़ा, यह देखने के लिये संयुत्त-निकाय का सुन्दरिक-भारद्वाज सुत्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कोशलदेश में सुन्दरिका. नदी पर भारद्वाज नामक ब्राह्मण हवन कर रहा है। भगवान् भी उधर चारिका करते हुए निकल पड़ते हैं। वह उन्हें देख कर यज्ञ से बचा हुआ अन्न देना चाहता है, किन्तु पहले पूछता है “आप कौन जाति हैं ?" भगवान् का ज्ञान उभाड़ पाता है “जाति मत पूछ। आचरण पूछ। काठ से आग पैदा होती है। नीच कुल का भी पुरुष धृतिमान्, ज्ञानी, पाप-रहित मुनि हो सकता है। जो सत्य का आचरण करने वाला, जितेन्द्रिय
और ज्ञान के अन्त को पहुंचा हुआ है और जिसने ब्रह्मचर्य-वास समाप्त कर लिया है, वह यज्ञ में उपनीत ही है और वह काल से दक्षिणा देने योग्य है। जो उसे देता है, वह दक्षिणाग्नि में ही हवन करता है ।" भारद्वाज को ऐसे उदारातिशय वचन सुन कर श्रद्धा उत्पन्न होती है। वह कहता है “निश्चय ही यह मेरा यज्ञ सुहुत है जो ऐसे ज्ञान को प्राप्त (वेदगू) पुरुष को मैंने देखा। तुम्हारे जैसे को न देखने से ही दूसरे जन हव्य-शेष खाते हैं। हे गोतम! आप भोजन करें। आप ब्राह्मण हैं।” भारद्वाज ब्राह्मण की यह बुद्ध-प्रशंसा दिखलाती है कि यज्ञवादी होते हुए भी ब्राह्मण ज्ञान और सदाचरण की प्रतिष्ठा को समझते थे और उसे देखकर उसके सामने नतमस्तक होना भी जानते थे। भारद्वाज ब्राह्मण का बुद्ध को ब्राह्मण तक मानने को उद्यत हो जाना और उनकी प्रशंसा करना उसकी उदारता का सूचक है। कुछ भी हो, यज्ञ को ही सर्वस्व मानने वाले
१. सुत्त-पिटक के प्रक्रुध कात्यायन को डा० हेमचन्द्र रायचौधरी ने उप
निषद् के कबन्धी कात्यायन से मिलाया है। देखिये उनका पोलिटिकल हिस्ट्री ऑव एशियेन्ट इन्डिया, पृष्ट २१ (तृतीय संस्करण, १९३२)