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के लिये है, घटाने के लिये नहीं, असन्तोप के लिये हैं, सन्तोष के लिये नहीं, भीड़ के लिये हैं, एकान्त के लिये नही, अनद्योगिता के लिये है, उद्योगिता के लिये नही, कठिनाई के लिये हैं, मुगमता के लिये नहीं, तो तू गोतमी ! सोलहो आने जानना कि वह न धर्म है, न विनय है, न शास्ता का शासन है। किन्तु गोतमी ! जिन बातों को तू जाने कि वे विराग के लिये है, सगग के लिये नहीं . . . . . इच्छाओं को घटाने के लिये हैं, बढ़ाने के लिये नहीं . . . . . .सुगमता के लिये है कटिनाई के लिये नहीं, तो गोतमी ! तू मोलहो आने जानना वही विनय है, वही शास्ता का शासन है।"
सत्तक-निपात में भगवान् बुद्ध का ब्रह्मचर्य-सम्बन्धी गम्भीर उपदेश है जो अपनी सूक्ष्मता और मार्मिकता में अद्वितीय है। उसे यहाँ उद्धृत करना उपयोगी सिद्ध होगा। "ब्राह्मण ! यहाँ कोई एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सहवाम नहीं भी करता, किन्तु वह स्त्री के द्वारा (स्नान-चूर्ण आदि) उबटन किये जाने, मले जाने, स्नान कराये जाने और मालिग किये जाने को स्वीकार करता है । वह उसमें रस लेता है, उसकी इच्छा करता है, उसमें प्रमन्नता अनुभव करता है। ब्राह्मण ! यह भी ब्रह्मचर्य का टूटना है, छिद्रयुक्त होना है, चितकबरा होना है, धब्बेदार होना है। ब्राह्मण! इम पुरुष के लिये कहा जायगा कि वह मैथुन (स्त्री-सहवास) से युक्त होकर ही मलिन ब्रह्मचर्य का सेवन कर रहा है। वह मनुष्य जन्म से, जरा से, मरण से नहीं छूटता ...... नहीं छूटता दुःख से भी--मैं कहता हूँ। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सहवास नहीं भी करता और न स्त्री के द्वारा अपने उबटन आदि किये जाने को ही स्वीकार करता है, किन्तु वह स्त्री के साथ हँसी-मजाक करता है, क्रीड़ा करता है, खेलता है, वह उसमें रस लेता है . . . . . . दुःख से नहीं छूटता--मै कहता हूँ। पुनः ब्राह्मण ! यहाँ एक श्रमण या ब्राह्मण सम्यक् ब्रह्मचारी होने का दावा करता है और वह स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सहवास नही भी करता, उसके द्वारा उबटन आदि किये जाने को भी स्वीकार नही करता, उसके साथ हमी मजाक भी नहीं करता, किन्तु वह स्त्री को आँख गड़ाकर देखता है, नजर भर कर देखता है, वह उसमें रस लेता है . . . . . . दुःख से नहीं छूटता