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के साथ । 'उदान' में गाथा भाग मुख्य प्रामाणिक बुद्ध वचन है । उसकी पृष्ठभूमि के रूप में ही वहां के गद्य-भाग का उपयोग है । कुछ कुछ इमी प्रकार 'इतिवृत्तक' में गद्य भाग मुख्य प्रमाणिक बुद्ध वचन है, जिसकी व्याख्या स्वरूप ही गाथा-भाग की अवतारणा की गई है। अतः 'इतिवृत्तक' के पद्य-भाग की अपेक्षा उसके गद्य-भाग की ही प्रमाणवत्ता और प्राचीनता हमें अधिक मान्य होगी । शैली की दृष्टि से भी यही निष्कर्ष ठीक जान पड़ता है । 'इतित्तक' का गद्य सरल, स्वाभाविक और आलङ्कारिक कृत्रिमताओं से रहित है । अतः उसको मूल बुद्ध वचन मानना अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है । निःसन्देह यह भाग शास्ता के मुख से ही निकला हुआ है । एक एक शब्द यहाँ 'धर्म-मेघ' (धर्म रूपी मेघ - बुद्ध) की वर्षा से अभी तक आई है । ए० जे० एडमंड्स के इस कथन से हम अक्षरश: सहमत हैं कि "यदि 'इतिवृत्तक' बुद्ध-वचन न हो तो और कुछ भी बुद्ध वचन नहीं है ।" हमें 'इतिवृत्तक' इसी गौरव दृष्टि से देखना है ।
'इतिवृत्तक' के पहले निपात में, जैसा पहले कहा जा चुका है, उन सुत्तों का संग्रह है जिनका सम्बन्ध एक संख्या वाली वस्तुओं में है । इमी निपात में से एक पूरे सुत्त का उद्धरण पहले दिया भी जा चुका है । इसी प्रकार राग द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या आदि पर भी सूत्र हैं । यह निपात तीन वर्गों में विभक्त है, जिनमें से प्रत्येक में क्रमशः १०, १० और 3 सूत्र हैं । इस निपात का मेनभाव-सुत (मैत्रीभाव सत्र - - १1३1७ ) तो भाषा और भाव की दृष्टि से बड़ा ही सुन्दर है । उसके गद्य-भाग को उद्धृत करना यहाँ उपयुक्त होगा । भगवान् कहते हैं, “भिक्षुओ ! पुनर्जन्म के आधारभूत सब पुण्यकर्म मिलकर भी उस मैत्री भावना के जो चित्त की विमुक्ति है, सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं होते । भिक्षुओ ! मैत्री भावना ही सब पुण्यकारी कर्मों से अधिक चमकती है, प्रभासित होती है, क्योंकि वह चित्त की विमुक्ति ही है। भिक्षुओ ! जैसे तारागणों का सारा प्रकाश मिलाकर भी एक चन्द्रमा के प्रकाश के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं होता .. . . -- जैसे वर्षा के अन्त में शरद् ऋतु में जब अकाश साफ और मेघों से रहित होता है तो सूर्य वहाँ आरोहण कर अन्धकार-समूह को विच्छिन्न कर चमकता है. . जैसे भिक्षुओ ! रात के पिछले पहर में प्रत्युष काल के समय, शुक्र