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( १९४ ) रूप है .....आप गोतम निर्भोग .....आप गोतम अक्रियावादी है .....आप गोतम उच्छेदवादी है.....आप गोतम जुगुप्मु (घृणा करने वाले) है........आप गोतम वैनयिक (हटाने वाले) है......आप गोतम तपस्वी है...आप गोतम अपगर्भ है । भगवान् उसे बताते है कि उन्हें किस-किस अर्थ में ऐसा कहा भी जा सकता है।" उदाहरणतः “ब्राह्मण ! मै काया के दुराचार, वाणी के दुराचार, मनके दुराचार को अक्रिया कहता हूँ । अनेक प्रकार के पाप कर्मों को मैं अ-क्रिया कहता हूँ। यही कारण है ब्राह्मण ! जिसमे 'श्रमण गोतम अक्रियावादी है'। ऐमा कहा जा सकता है .........ब्राह्मण ! मैं राग, द्वेप, मोह के उच्छेद का उपदेश करता हूँ। अनेक प्रकार के पाप-कर्मों का उच्छेद कहता हूँ। 'श्रमण गोतम उच्छेदवादी है' ऐमा कहा जा सकता है। ...... ब्राह्मण ! जिसका भविष्य का गर्भ-शयन, आवागमन नष्ट हो गया, जड़मूल से चला गया, उसको मैं अपगर्भ करता हूँ। ब्राह्मण ! तथागत का गर्भशयन, आवागमन, नष्ट हो गया. जड़-मूल से चला गया। 'श्रमण गोतम अपगर्भ है', ऐसा कहा जा सकता है,” आदि, आदि । यहीं भगवान् अपनी जीवनी का भी कुछ वर्णन करने लगते है, "ब्राह्मण ! इस अविद्या में पड़ी, अविद्या रूपी अंडे से जकड़ी प्रजा में, मैं अकेला ही अविद्या रूपी अंड को फोड़ कर, अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि को जानने वाला हूँ। मैं ही ब्राह्मण ! लोक में ज्येष्ठ हूँ, अग्र है। मैने न दवने वाला वीर्यारम्भ किया था, विस्मरण-रहित स्मति मेरे सम्मख थी, अचल और शान्त मेरा शरीर था, एकाग्र समाहित चित्त था। ...... ब्राह्मण ! उम प्रकार प्रमाद-रहित, तत्पर, आत्म-संयम-युक्त होकर विहरते हुए, मुझे रात के पहले याम में, पहली विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, आलोक उत्पन्न हुआ। ब्राह्मण ! अंडे से। मर्गी के बच्चे की तरह यह पहली फट हुई। फिर ब्राह्मण ! रात के बीच के याम में द्वितीय विद्या उत्पन्न हुई. . . . . .गत के पिछले याम में तृतीय विद्या उत्पन्न हई । अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई। तम गया, आलोक उत्पन्न हुआ। ब्राह्मण ! अंडे मे मुर्गी के बच्चे की तरह यह तीसरी फूट हुई।"
कोगल-गज प्रमेनजिन् बुद्ध का श्रद्धावान् उपासक था, यह हम मंयत्त निकाय में देख चुके है । मज्झिम-निकाय (वाहीतिक-मुत्त) में हमने प्रगेन