________________
( २२७ )
जला दिया। संस्कार शान्त हो गए, विज्ञान अस्त हो गया ।" विंटरनित्ज़ का कहना है कि ऐसे गम्भीर प्रवचन के लिए उपर्युक्त अवसर ठीक नहीं था । कम ही लोग डा० विंटरनित्ज़ के इस मत से सहमत हो सकते हैं। जिन-जिन अवसरों पर या जिस-जिस पृष्ठभूमि में बुद्ध के उद्गारों का 'उदान' में निकलना दिखलाया गया है, उन्हें हम ऐतिहासिक रूप मे अधिकतर ठीक ही मानने के पक्षपाती हैं। अब हम प्रत्येक वर्ग की विषय-वस्तु का संक्षिप्त निर्देश करेंगे ।
"बोधि वर्ग” (वर्ग १) में भगवान् बुद्ध की सम्मोधि प्राप्ति के बाद के कुछ सप्ताहों के जीवन का वर्णन है । उस समय भगवान् विमुक्ति-सुख का अनुभव करते हुए विहर रहे थे । इसी समय उन्होंने अनुलोम और प्रतिलोम प्रतीत्यसमुत्पाद का चिन्तन किया था । कुछ ब्राह्मणों को देख कर उन्होंने वास्तविक ब्राह्मण पर उद्गार किये। स्नान और होम में रत कुछ व्यक्तियों को देख कर भगवान् ने यह उद्गार भी किया, “स्नान तो सभी लोग करते हैं, किन्तु पानी से कोई शुद्ध नहीं होता । जिसमें सत्य है और धर्म है, वही शुद्ध है, वही ब्राह्मण है !" " मुचलिन्द वर्ग " ( वर्ग २ ) में भी भगवान् की सम्बोधि प्राप्ति के कुछ सप्ताहों बाद तक की जीवनी का वर्णन है, किन्तु यहा कुछ अलौकिकता मे अधिक काम लिया गया है। मुचलिन्द नामक सर्पराज समाधिस्थ भगवान् बुद्ध के शरीर की वर्षा से रक्षा करने के लिए जो उस समय होने लगी थी, उनके शरीर को सात बार लपेट कर उनके ऊपर अपना फन फैला कर खड़ा हो गया, ताकि भगवान् को वर्षा का कष्ट न होने पावे । जिन घटनाओं का प्रथम और इस दूसरे वर्ग में वर्णन है, उनमें काल-क्रम का कोई तारतम्य नहीं है, क्योंकि प्रथम वर्ग के कुछ सूत्र भगवान् की सम्बोधि प्राप्ति की बाद की अवस्था का वर्णन करते हैं और उसके बाद ही कुछ सूत्र सूचना देते हैं " एक समय भगवान् आवस्ती में अनाथपिंडिक के जेतवन आराम में विहार करते थे" । ( ११५; १८ : १।१० ) । इसी प्रकार दूसरे वर्ग में भी प्रथम सूत्र में तो भगवान् उरुवेला में नेरंजना नदी के तीर पर ही विहार करते हैं, किन्तु दूसरे सूत्र में वे श्रावस्ती में अनाथपिडिक के जेतवन आराम में विहार कर रहे हैं । बुद्धत्व के तीसरे वर्ष जेतवन- आराम का दान किया गया था । अतः ये घटनायें काफी बाद की हैं। इसी प्रकार भगवान् अन्य स्थानों में भी विहार