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( २२८ ) करते दिखाये गए हैं, जैसे मृगारमाता के पूर्वाराम प्रासाद में (२।९) या कुंडिया नगर के कुंडिधान वन में (२८)। दूसरे वर्ग में हम भिक्षुओं को इस निरर्थक बात पर विवाद करते हुए पाते है कि “मगधगज बिम्बिसार और कोशलराज प्रमेनजित् में कौन अधिक धनी, सम्पत्तिशाली या अधिक सेनाओं वाला है।" भगवान् इसे सन कर उन्हें कहते हूँ "भिक्षओ ! तुम श्रद्धापूर्वक घर से वेघर होकर प्रव्रजित हुए हो। तुम कुलपुत्रों के लिए यह अनुचित है कि तुम ऐमी चर्चा में पड़ो। भिक्षुओ! इकट्ठे हो कर तुम्हें दो ही काम करने चाहिए, या तो धार्मिक कथा या उत्तम मौन भाव ।” इसी वर्ग में मप्रवासा की कथा भी है। यह स्त्री गर्भ की असह्य पीड़ा में पड़ी थी। प्रसव न होता था। उसने सन रक्खा था भगवान् दुःखों के प्रहाण के लिये धर्मोपदेश करने है । पति मे कहा--भगवान् के चरणो में मेग शिर से प्रणाम कहना, उनका कुशल-मंगल पूछना और मेरी दशा से अवगत कराना। उसके पति ने ऐसा किया। भगवान ने अनुकम्पापूर्वक आगीर्वाद देते हुए कहा, “कोलिय पुत्री सुप्रवासा सुखी हो जाय. चंगी हो जाय, बिना किसी कष्ट के पुत्र प्रसव करे ।" पति घर लौटा तो सुप्रवासा को सुखी
और चंगी पाया, जिसने बिना किमी कष्ट के पुत्र प्रसव कर दिया था। सारा घर मन्तोष और प्रमोद से भर गया। कृतज्ञता से भर कर सुप्रवासा ने एक सप्ताह भर तक बुद्ध-प्रमुख भिक्षु-संघ को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। भगवान शिष्यों सहित उपस्थित हा। मात दिन बीत जाने पर भगवान् ने सुप्रवासा से कहा, "सप्रवासे ! ऐसा ही एक और भी पुत्र लेना चाहती है ?" सप्रवासा ने प्रमोद में भर कर कहा “भगवन् । में एमे सात पुत्रों को लेना चाहेंगी।" भगवान् के मुह मे उस समय उदान के ये शब्द निकल पड़े, "बरे को अच्छे के रूप में, अप्रिय को प्रिय के रूप में, दुःख को सुख के रूप में प्रमत्त लोग समझा करते है ।" बद्ध के जीवन-दर्शन को समझने के लिये यह कहानी एक अच्छा उदाहरण है। विटरनित्ज़ ने कहा है कि यह कहानी यह भी दिखाती है कि बुद्ध-काल में ही बुद्ध-भक्ति के द्वारा लोग अपने कल्याण की कामना करने लगे थे। महात्माओं के वचनों और आशीर्वादों में मङ्गल प्रमविनी शक्ति होती है. ऐसा विश्वास भारतीय जनता में प्रायः सदा से ही रहा है। अतः इसमें कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। विशेषता उस बात में है जो भगवान ने बाद में प्रवासा की सात पूत्रों