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( १९३ ) हो जाना है, टूट जाना है, छिद्र-युक्त हो जाना है, चितकबरा हो जाना है, धब्बेदार हो जाना है। इसीलिये कहा जाता है कि इस प्रकार के ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाला पुरुष मलिन मैथुन के संयोग से यक्त ब्रह्मचर्य का ही आचरण करता है और वह जन्म मे, जरा से, मरण से नहीं छूटना, नहीं छूटता दुःख से-म कहता है।" साधना के इतिहास में इसमे गम्भीर प्रवचन ब्रह्मचर्य पर नहीं दिया गया।
तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिये कितनी महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक सामग्री हमें अंगुत्तर-निकाय में मिलती है, इसका कुछ दिग्दर्शन किया जा चुका है। तत्कालीन इतिहास की झलक भी उसमें कितनी मिलती है, यह अब हमें देखना है। सिंह सेनापति (लिच्छवि सरदार ) वुद्ध-यग का एक आकर्षक व्यक्ति है ।' अट्ठक-निपात में हम सिंह सेनापति को भगवान् से भेंट करते हुए देखते है । सिंह पहले निगण्ठों (निर्ग्रन्थों-जैन साधुओं) का शिष्य रहा है वह अपनी कुछ आपत्तियों को लेकर भगवान् बुद्ध के पास आता है । वह उन्हें पूछता है कि वे कहाँ तक अक्रियावादी, उच्छेदवादी है या नहीं। भगवान् एक-एक कर उसको बतला देते हैं कि किन-किन अर्थों में उनको ऐसा (अक्रियावादी,उच्छेदवादी आदि) कहा भी जा सकता है । सिंह सेनापति संतुष्ट होकर उपामक बनना चाहता है। भगवान् उसे कहते है "सिंह! सोच-समझ कर करो। तुम्हारे जैसे सम्भ्रान्त मनप्यों का सोच-समझ कर निश्चय करना ही अच्छा है।" सिंह मेनापति जब अपनी दृढ़ श्रद्वा दिखाता है तो भगवान् उसे उपासक के रूप में स्वीकार कर लेते है, किन्तु चूंकि वह पहले निर्ग्रन्थों का शिष्य रहा है और वे उससे दान पाते रहे हैं, इसलिये उदार शाम्ता सिंह को यह भी आदेश देना नहीं भूलते, “सिंह ! तुम्हारा कुल दीर्घ-काल मे निगंठों के लिये प्याऊ की तरह रहा है। उनके आने पर उन्हें पहले की ही तरह तुम्हारे घर से दान मिलता रहना चाहिये।" बुद्ध के विरुद्ध किस प्रकार मिथ्या प्रचार किया जाता था इसका विवरण हम इमो निकाय के वेरंजक-मुत्न में पाते है । वेरंजक नामक ब्राह्मण भगवान् के पाम जाकर कहता है, “हे गोतम ! मैने सना है कि आप गोतम अ-रस
१. देखिये महापंडित राहुल सांकृत्यायन का सिंह सेनापति' शीर्षक उपन्यास ।