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एकादसक-निपात तक पहुंच जाती है, जिसमें भगवान बुद्धदेव के उन उपदेशों का संग्रह है जिनके विषय का सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार संख्या ग्यारह से है। यही कारण इस निकाय के अंगत्तर-निकाय (अंकोनर-निकाय) नामकरण का भी है। 'मिलिन्दपव्ह' में इसी निकाय का नाम ‘एकुत्तर-निकाय' (एकोत्तर-निकाय) भी कहा गया है। उसका भी यही अर्थ है। सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय के संस्कृत-त्रिपिटक में भी यह निकाय एकोनरागम' के नाम से ही प्रसिद्ध था, यह उसके चीनी अनवाद से विदित होता है। अंगत्तर-निकाय की संख्या-बद्ध शैली उस के लिये कोई नहीं है। थोड़ी बहुत यह प्रत्येक निकाय में पाई जाती है। अत: उसके आधार पर इस संग्रह को प्रथम तीन निकायों की अपेक्षा काल-क्रम में बाद का ठहराना ठीक नहीं माना जा सकता। वास्तव में तो प्रत्येक निकाय में ही, वल्कि कहीं कहीं प्रत्येक मुत्त में ही, पूर्व और उत्तरकालीन परम्पराओं के साक्ष्य साथ साथ दिखाई पड़ते है । यही बात अंगुत्तर-निकाय में भी है। अत: गणनात्मक शैली की बहुलता होने के कारण ही अंगुत्तरनिकाय को बाद का संग्रह नहीं माना जा सकता। जैमा अभी कहा गया, गणनात्मक प्रणाली थोड़ी-बहुत मात्रा में प्रत्येक निकाय में पाई जाती है। दीघनिकाय के संगीति-परियाय-मुत्त और दसुत्तर-सुत्त एवं खुद्दक-निकाय के खुद्दकपाठ (कुमारपञ्ह) थेरगाथा, थेरीगाथा, इतिवृत्तक आदि में वस्तु-विन्यास संख्यात्मक वर्गीकरण को के शैली आधार पर ही किया गया है। बाद में चल कर अभिधम्म-पिटक में तो यह प्रणाली पूरे सात महाग्रंथों का ही आधार बन जाती है। चूंकि अंगत्तर-निकाय की अभिधम्म-पिटक से इस विषय में सब से अधिक समानता है, बल्कि उसके ग्यारह निपातों से अभिधम्म-पिटक के एक ग्रन्थ (पुग्गल पञत्ति) की तो सारी विषय-वस्तु ही निकाली जा सकती है, अंगुत्तर-निकाय के इस प्रकार वर्गीकृत बुद्ध-वचनों को उत्तरकालीन संग्रह नहीं माना जा सकता। जैसा हम पहले भी दिखा चुके है, बुद्ध-वचनों का संरक्षण, उस युग में , सुनने वालों की स्मति में ही किया जाने के कारण, उसकी सहायतार्थ संख्यात्मक संविधान की आवश्यकता पड़ती थी। इसलिये कभी कभी स्वयं शास्ता भी अपने उपदेशों में इस प्रकार के तत्त्व का संमिश्रण कर देते थे।
१. पृष्ट ३५४ (बम्बई विश्वविद्यालय का देव-नागरी संस्करण)