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( स्मृति - सम्प्रजन्य ) चित्त - शान्ति ( शमथ), आन्तरिक ज्ञान - दर्शन ( विपश्यना ) चार स्मृति - प्रस्थान और आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग, यही उसकी प्राप्ति के सर्वोत्तम साधन हैं ।
१०. अव्याकत - संयुत्त -- कोशलराज प्रसेनजित् ने क्षेमा (खेमा) नाम की भिक्षुणी से पूछा है " क्या मृत्यु के बाद तथागत रहते हैं या नहीं रहते ? या रहते भी हैं और नहीं भी रहते ?" । क्षेमा ने इसके उत्तर स्वरूप केवल यह कहा है कि तथागत ने इसे अ-व्याकृत कर दिया है अर्थात् उन्होंने इसे ब्रह्मचर्य के लिये आवश्यक न समझकर अकथनीय कर दिया है । साथ में वह यह भी कहती है कि तथागत का ज्ञान गम्भीर समुद्र के समान है, जिसकी थाह नहीं ली जा सकती । जब अनिरुद्ध, सारिपुत्र और मौद्गल्यायन जैसे बुद्ध के अन्य शिष्यों से यह प्रश्न पूछा जाता है तो वे भी उसका उसी प्रकार उत्तर देते हैं जैसे क्षेमा भिक्षुणी ने दिया है। दीघ और मज्झिम निकायों के 'दस अव्याकृत' ( अकथनीय) धर्मों के समान यहाँ भी बुद्ध - मन्तव्य विमल जल के समान स्वच्छ दिखलाई पड़ता है । पासादिकसुत ( दीघ. ३।६ ) और चूल मालुंक्य- सुत्त ( मज्झिम. २१२३) के समान ही इस संयुक्त की विषय-वस्तु है ।
५ - महावग्ग
१. मग्ग-संयुत्त -- आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग ( सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि) का पूरे विवरण के साथ वर्णन किया गया है।
२. बोभंग-संयुत्त - परम ज्ञान ( बोधि ) के सात अङ्गों यथा स्मृति, धर्म - गवेषणा ( धम्मविचय) वीर्य, प्रीति, प्रश्रब्धि ( चित्त प्रसाद ) समाधि और . उपेक्षा का विस्तृत वर्णन किया गया है ।
३. सतिपट्ठान - संयुक्त्त -- काया में कायानुपश्यी होना, वेदनाओं में वेदमानुपश्यी होना, चित्त में चित्तानुपश्यी होना और धर्मो ( पदार्थों) में धर्मानुपश्यी होना, इन चार स्मृति - प्रस्थानों (सतिपट्ठान ) का यहाँ दीघ' और मज्झिमनिकायों के समान शब्दों में विस्तृत वर्णन किया गया है ।
१. देखिये महासतिपट्ठान - सुत्त ( दीघ. २१९ )
२. सतिपट्ठान-सुत ( मज्झिम. १1१1१० )