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था ।अथवा उसके सारे श्रेय को वह उस समय के सबसे अधिक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् और साधक मोग्गलिपुत्त तिस्स को देना चाहता था, जिन्होंने यह सभा बुलाई थी और जो ही इस सभा के सभापति थे। अनेक प्रान्तों के भिक्षुओं ने इस सभा में भाग लिया। इस सभा का मुख्य उद्देश्य यह था कि बौद्ध संघमें जो अनेक अ-बौद्ध लोग सम्राट अशोक के बौद्ध संघ सम्बन्धी दानों से आकृष्ट होकर घुस गये थे उनका निकानन किया जाय और मूल बुद्ध-उपदेशों का प्रकाशन किया जाय । सभा की कार्यवाही में यही काम किया गया। साथ ही पाटलिपुत्र की इस सभा में अन्तिम हप मे बुद्ध-वचनों के स्वरूप का निश्चय किया गया और ९ महीनों के अन्दर भिक्षुओं ने तिस्म मोग्गलिपुत्त के सभापतित्व में बुद्ध-वचनों का संगायन
और पारायण किया । इसी समय तिस्स मोग्गलिपुत्र ने मिथ्यावादी १८ वौद्ध सम्प्रदायों का निराकरण करते हुए 'कथावत्थु' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसे 'अभिधम्म-पिटक' में स्थान मिला ।' जैसा पहले कहा जा चुका है. बुद्धघोष और यूआन्-चुआङ के वर्णन के अनुसार अभिधम्मपिटक का भी संगायन महाकाश्यप ने प्रथम संगीति के अवसर पर ही किया था। किन्तु उनकी इतनी प्राचीनता अपने वर्तमान रूप में विद्वानों को मान्य नहीं है। कम से कम इम तीसरी संगीति के वर्णन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि 'कथा
विभज्यवादी कहा है। स्थविरवादी भिक्षु भी यही दृष्टिकोण रखते थे । विभज्यवाद का एक सूक्ष्म और तात्विक अर्थ भी है, जिसका उपदेश भगवान् बुद्ध ने दिया था। इस अर्थ के अनुसार मानसिक और भौतिक जगत् की सम्पूर्ण अवस्थाओं का स्कन्ध, आयतन और धातु आदि में विश्लेषण किया जाता है, किन्तु फिर भी उनमें 'अत्ता' (आत्मा) या स्थिर तत्त्व जैसा कोई पदार्थ नहीं मिलता। विभज्यवाद के इस सूक्ष्म अर्थ के विवेचन के लिये देखिये भिक्षु जगदीश काश्यपः अभिधम्म फिलासफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १९-२२; स्थविरवाद और विभज्यवाद के पारस्परिक सम्बन्ध के अधिक निरूपण के लिये देखिये गायगर; पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ९ पद-संकेत १, तथा विंटरनित्जः इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६, पद-संकेत २ में निर्दिष्ट साहित्य। १. महावंश ५।२७८ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद)