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गौरवमय अंश के कारण ही हम उसके सारे रूप को भी 'बुद्ध-वचन' कहते है, जो यद्यपि अक्षरशः सत्य नहीं, किन्तु सत्य की महिमा और अनुभूति से व्याप्त अवश्य है।
सुत्त-पिटक का विषय, शैली और महत्त्व पालि-त्रिपिटक का सब से अधिक महत्वपूर्ण भाग मुत्त-पिटक ही है। बुद्ध के धम्म का याथातथ्य रूप में परिचय कराना ही सुत्त-पिटक का एक मात्र विषय है। हम जानते हैं कि बुद्ध के परिनिर्वाण तक धम्म और विनय अथवा अधिक ठीक कहें तो सामासिक 'धम्म-विनय' की ही प्रधानता थी। उसी की शरण में शास्ता ने भिक्षुओं को छोड़ा था। बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद उनके शिष्यों ने बुद्धवचनों के नाम से जिसका संगायन किया वह धम्म और विनय ही थे। “धम्मं च विनयं च संगायेय्याम'। अतः पालि-त्रिपिटक में अधिक महवत्त्वपूर्ण तो धम्म
और विनय ही हैं। इनमें भी संघ-अनुशासन की दृष्टि से विनय मुख्य है, किन्तु साहित्य और इतिहास की दृष्टि से सुत्त-पिटक का ही महत्त्व अधिक मानना पड़ेगा । पालि-साहित्य के कुछ विवेचकों ने विनय-पिटक को ही अपने अध्ययन के लिये पहले चुना है। यह भिक्षु-संघ की परम्परा के सर्वथा अनुकूल है। किन्तु हम यहाँ सुत्त-पिटक के विवेचन को पहले ले रहे हैं। इसका कारण उसका साहित्यिक, ऐतिहासिक और अन्य सभी दृष्टियों से प्रभूत महत्त्व ही है। जिन पाश्चात्य विद्वानों ने पालि-त्रिपिटक की प्रामाणिकता में सन्देह किया है उनमें मिनयेफ, बार्थ, स्मिथ और कीथ के नाम अधिक प्रसिद्ध है। इनमें भी मिनयेक सव से अधिक उग्र हैं। उन्होंने दीघ और मज्झिम जैसे
१. "आनन्द ! मैंने जो धर्म और विनय उपदेश किये हैं, प्रज्ञप्त किये है, __ वही मेरे बाद तुम्हारे शास्ता होंगे" महापरिनिब्बाण-सत्त (दोघ-२॥३) २. गायगर, विटरनित्ज, और लाहा ने विनय-पिटक को ही पहले लिया
है। पूज्य भदन्त आनन्द जी के आदेशानुसार मैने यहाँ सुत्त-पिटक
को पहले लिया है, जो साहित्यिक दृष्टि से अधिक समुचित भी है। ३. इनके ग्रन्थ-संकेतों के लिये देखिये विटरनित्तः हिस्ट्री आँव इन्डि यन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १, पद-संकेत १; गायगरः पालि लिटरेचर एण्ड लेंग्वेज, पृष्ठ ९, पद-संकेत २