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की इच्छा उस समय हुई जब वहाँ उन्नीसवीं शताब्दी में सन्देहवाद का बोलबाला था । इसमें सन्देह नहीं कि बिना सन्देह के ज्ञान नहीं हो सकता और प्रत्येक ज्ञान के पहले सन्देह होना आवश्यक है । किन्तु सन्देह ही ज्ञान का रूप धारण कर ले, यह ज्ञान का अपलाप है । अधिकांश पाश्चात्य विद्वान् इस स्थिति से शायद हो ऊपर उठ पाये हैं । उनकी प्रत्येक अभिज्ञा और जानकारी में सन्देह समाया हुआ है । पालि -स्वाध्याय के प्राथमिक युग में बुद्ध के ऐतिहासिक अस्तित्व तक के सम्बन्ध में उनमें से कई ने . (उदाहरणतः फ्रैंक, सेनाँ, बार्थ आदि) सन्देह प्रकट किया। त्रिपिटक के वर्णनों में थोड़े-बहुत विरोध पाये जाते हैं । इन विरोधों का संग्रह फ्रैंक के द्वारा किया गया है । पर उनमें से कई वास्तविक विरोध नहीं भी हैं। अस्तु, जो भी विरोध हैं उनका कारण क्या है ? जैसा पहले दिखाया जा चुका है, बुद्ध-धर्म के प्राथमिक विकास में बुद्ध वचनों की परम्परा बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद कई शताब्दियों तक मौखिक परम्परा में चलती रही। अतः अनेक विरोध ( बुद्ध वचनों का संगायन करने वाले भिक्षुओं की ) स्मृति हानि के कारण ही हैं । उन पर अनावश्यक जोर देना बुद्धवचनों के संरक्षण - प्रकार से ही अपनी अनभिज्ञता दिखाना है । एक ही उपदेश को बुद्ध या उनके किसी शिष्य के मुख से दिया हुआ दिखलाने में या भिन्न भिन्न स्थानों में दिया हुआ दिखलाने में कोई विरोध नहीं है । यह तो ऐतिहासिक रूप से सत्य भी हो सकता था । भगवान् अपनी चारिकाओं में चतुरार्य सत्य जैसे प्रमुख उपदेशों की पुनरावृत्ति भिन्न भिन्न स्थानों में करते ही रहे होंगे और फिर उनके शिष्य भी इसी प्रकार करते हुए विचरते होंगे, यह समझना कठिन नहीं है । भिन्न भिन्न स्थानों के भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा ही बुद्ध वचनों का संगायन और संकलन हुआ है, अतः इसमें अस्वाभाविक क्या है ? बल्कि यह तो उनके सत्य और ऐतिहासिक रूप से प्रमाण होने का एक प्रबल साक्ष्य है । कौन सा उपदेश किस स्थान पर दिया गया, किसके प्रति दिया गया, किस अवसर पर दिया गया, इतनी छानबीन के साथ बुद्ध वचनों को उनके उसी रूप में संरक्षित रखना भिक्षुओं की महती ऐतिहासिक बुद्धि का साक्ष्य देता है । निश्चय ही इतने अधिक ब्यौरों के साथ बुद्ध वचनों का संरक्षण करने में कुशल भिक्षुओं ने जो दक्षता दिखाई है, वह उनके समय को देखते हुए आश्चर्यजनक है। इसके लिये हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिये । उनके द्वारा दी हुई सूचना पर सन्देह करना ही मात्र