________________
( १५१ ) १३. महादुक्खक्खन्ध-सुत्त--दुःख, उसका हेतु और निरोध । १४. चूल दुक्खक्खन्ध-सुत्त--उपर्युक्त के समान ही विषय । १५. अनुमान-सुत्त-महामौद्गल्यायन का प्रवचन। सावधानी पूर्वक आत्म
प्रत्यवेक्षण करते हुए सदाचारी जीवन बिताने का उपदेश। १६. चेतोखिल-सुत्त-चित्त के पाँच काँटों का भगवान् के द्वारा वर्णन। १७. वनपत्थ-सत्त--वनप्रस्थ में विहरने का उपदेश । १८. मधुपिडिक-सुत्त-भगवान के द्वारा धर्म की रूपरेखा का वर्णन । कच्चान
(कात्यायन) द्वारा उसकी विस्तार से व्याख्या। १९. द्वेधावितक्क-सुत्त-भगवान् द्वारा अपने पूर्व अनुभवों का वर्णन । चित्तमलों
का शमन, ध्यान, आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग, अभिसम्बोधि-प्राप्ति का वर्णन ! २०. वितक्क सण्ठान-सुत्त--वितर्कों को वश में करने का उपाय। (३) ओपम्म वग्ग २१. ककचूपम-सुत्त--आरे से चीरे जाने पर भी जो चित्त को बिना दूषित किये
शान्त न रह सके, वह बुद्ध का शिष्य नहीं है। २२. अलगद्पम-सुत्त--धर्म के विषय में मिथ्या धारणायें रखना सर्प को पूंछ
से पकड़ना है। २३. वम्मिक-सुत्त--नर-देह की असारता एवं निर्वाण-प्राप्ति की बाधाएँ। २४. रथविनीत -सुत्त--ब्रह्मचर्य के उद्देश्य और विशुद्धियाँ । २५. निवाप-सुत्त-मार से कैसे बचें ? २६. अरियपरियेसन-सुत्त--बुद्ध के द्वारा अपने महाभिनिष्क्रमण एवं
(पासरासि-सुत्त)--अभिसम्बोधि-प्राप्ति का वर्णन । धर्म-चक्र-प्रवर्तन का भी
वर्णन। २७. चलहत्थिपदोपम-सत्त--सत्य-प्राप्त मनि के आश्चर्य ! २८. महाहत्थिपदोपम-सुत्त-उपादान-स्कन्धों से विमुक्ति, प्रतीत्यसमुत्पाद ।
सभी कुशल धर्म चार आर्य सत्यों में निहित हैं। २९. महासारोपम-सुत्त--देवदत्त के संघ को छोड़ जाने के बाद भगवान् का
भिक्षु जीवन के उद्देश्यों पर उपदेश ३०. चूलसारोपम-सुत्त--पूर्वोक्त के समान ही। इस सुत्त में छह नैर्थिकों या
तत्कालीन आचार्यों का वर्णन भी है।