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( १६० ) पीडाजनक तपश्चर्यायें प्रचलित थीं और जिनका अभ्यास गोतम ने भी अपने ज्ञान की खोज में किया था, महासीहनाद-सुत्त, कुक्कुरवतिक-सुत्त बोधि-राजकुमार-सुत्त और कन्दरक-सुत्त में वर्णित हैं। पासरासि-सुत्त, बोधि-राजकुमार सत्त और महासच्चक-सुत्त में भगवान् बुद्ध की आत्मकथा है, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। ब्रह्मायु-सुत्त में उनके ईर्यापथ का वर्णन है जो उनकी दैनिक चर्या तथा साधारण शारीरिक चाल-ढाल को समझने के लिये बहुत आव- श्यक है। इसी प्रकार महाराहुलोवाद सुत्त, महावच्छगोत्त-सुत्त तथा महासकुलुदायिसत्त में संघ के नियम और जीवन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सामग्री है। कन्दरक-सुत्त और धानंजानि-सुत्त भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। पियजातिक-सुत्त, धम्मचेतिय-सुत्त, तथा कण्णत्थलक-सुत्त में तत्कालीन राजाओं का कुछ विवरण है। मागन्दिय सुत्त में तत्कालीन आयुर्वेद की अवस्था का कुछ परिचय मिलता है। यहाँ ऊर्व विरेचन, अबो विरेचन आदि का वर्णन है। वाहीतिय-सुत्त में महीन कपडे के बनने का वर्णन है और उपालि-सुत्त में रंगने की कला का निर्देश आया है। सारांश यह कि मज्झिम निकाय में तत्कालीन समाज, धर्म, कला-कौशल आदि का एक अच्छा चित्र हमें मिलता है।
__ इ-संयुत्त-निकाय संयुत्त-निकाय (संयुक्त-निकाय) छोटे-बड़े सभी प्रकार के सुत्तों का संग्रह है। इसीलिये इसका यह नाम पड़ा है। विशेषतः संयुत्त-निकाय में छोटे आकार के सुत्त ही अधिक हैं। संयुत्त निकाय के सुत्तों की कुल संख्या २८८९ है। प्रायः प्रत्येक सुत्त संक्षिप्त गद्यात्मक वुद्ध-प्रवचन के रूप में ही है। बुद्धकालीन
१. लियोन फियर द्वारा पाँच जिल्दों में रोमन-लिपि में सम्पादित एवं पालिटैक्स्ट सोसायटी, लन्दन, १८८४-९८, द्वारा प्रकाशित । अमरसिंह का सिंहली संस्करण वलीतारा, १८९८, प्रसिद्ध है। इस निकाय का हिन्दी-अनुवाद भिक्षु जगदीश काश्यप ने किया है, किन्तु वह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। २. 'दीघ,' 'भज्झिम' और 'खुद्दक' शब्दों की पृष्ठभूमि में तो 'संयत्त' (संयक्त, मिश्रित) शब्द का यही अर्थ हो सकता है । बौद्ध परम्परा को भी प्रधानतः यही अर्थ लान्य है। गायगर ने अवश्य 'संयुत्त' शब्द की सार्थकता को उस निकाय में विषय वार सुत्तों के संयुक्त या वर्गीकृत करने के कारण माना है। देखिये उनका पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ १८