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( १६५ ) उसने ३३ देवताओं के ऊपर आधिपत्य प्राप्त किया है। इसी प्रसंग में देवासुरसंग्राम का भी इस संयुत्त में वर्णन आया है।
२-निदान-वग्ग
१. निदान-संयुत्त-प्रतीत्य समुत्पाद का विशद वर्णन है। किस प्रकार अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम-रूप, नाम-रूप से सळायतन, सळायतन से स्पर्श और इस प्रकार क्रमशः वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा-मरण-शोक-परिदेव-दुःख आदि की उत्पत्ति होती है और किस प्रकार इनका क्रमश: निरोध होता है, इसी का उपदेश यहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को दिया है। विषय-निरूपण प्रायः महानिदान-सुत्त (दीघ-२।२) के समान ही है।
२. अभिसमय-संयुत्त-अणुमात्र भी चित्त-मलिनता रहते निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं। अतः भिक्षु को उत्तरोत्तर अनवरत अध्यवसाय करते हुए अ-प्रहीण चित्त-मलों को नष्ट करना चाहिये और सदाचरण की वृद्धि करनी चाहिये।
३. धातु-संयुत्त--चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय, मन, आदि इन्द्रियों, रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य और धर्म उनके विषयों एवं चक्षु-विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घ्राण-विज्ञान, जिह्वा-विज्ञान, काय-विज्ञान एवं मनोविज्ञान उनके विज्ञानों, इस प्रकार इन अठारह धातुओं का यहाँ विवरण दिया गया है।
४. अनमतग्ग-संयुत्त-"भिक्षुओ ! इस संसार का आदि पूर्णत: अज्ञात (अनमतग्ग) है। तृष्णा और अविद्या से संचालित, भटकते-फिरते प्राणियों के आरम्भ का पता नहीं चलता।" यही इस संयुत्त की मूल भावना है।
५. कस्सप-संयुत्त-भगवान् बुद्ध ने महाकाश्यप की सन्तोष-वृत्ति की प्रशंसा की है । महाकाश्यप यथा-प्राप्त भोजन, यथा-प्राप्त वस्त्र, यथा-प्राप्त शयनासन (निवास-स्थान) और यथा-प्राप्त पथ्य-औषध आदि की सामग्री से सन्तुष्ट हो जाने वाले हैं। भगवान् ने दूसरे भिक्षुओं को भी ऐसा ही होने का उपदेश दिया है।
६. लाभ-सक्कार-संयुत्त-लाभ और सत्कार से विरत रहने का भिक्षुओं को भगवान् के द्वारा उपदेश दिया गया है। उन्होंने कहा है कि लाभ और