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के लिये, न संबोधि के लिये, न निर्वाण के लिये हैं, इसलिये मैंने इन्हें अव्याकृत कहा है।" सुभ-सुत्त ( दीघ. १११०)
भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद यह प्रवचन उनके उपस्थाक शिष्य आनन्द के द्वारा दिया गया। शुभ नामक माणवक को एक प्रश्न का उत्तर देते हुए आनन्द बताते है कि भगवान् बुद्ध शील, समाधि और प्रज्ञा, इन तीन धर्म-स्कन्धों के बड़े प्रशंसक थे और इन्हें ही वे जनता को सिखाते थे । आनन्द द्वारा इन तीनों धर्मों का बुद्ध-मन्तव्य के अनुसार यहाँ विवरण दिया गया है। केवट्ट सुत्त ( दीघ. ११११) ___केवट्ट नामक गृहपति-पुत्र के साथ भगवान् का संवाद। ऋद्धियों का दिखाना भगवान् ने निषिद्ध कर दिया है। उनके मतानुसार सब से बड़ा चमत्कार तो उपदेश का ही चमत्कार है, आदेशना-प्रातिहार्य या अनुशासनी-प्रातिहार्य (अनुशासन रूपी चमत्कार) ही है। देवताओं और ब्रह्मा को भी यहाँ उस तत्त्व के विषय में जहाँ पृथ्वी, जल, तेज और वायु का निरोध हो जाता है, अनभिज्ञ बताया गया है, जब कि बुद्ध उससे अभिज्ञ हैं। लोहिच्च-सुत्त ( दीघ. १११२)
लोहिच्च (लौहित्य) नामक ब्राह्मण के साथ भगवान् का संवाद । झूठे और सच्चे शास्ताओं के विषय में भगवान् ने लोहिच्च को उपदेश दिया है। तेविज्ज-सुत्त ( दीघ. १११३) ___वाशिष्ट और भारद्वाज नामक दो ब्राह्मणों के साथ भगवान् का संवाद । अपरोक्ष-अनुभूति और सत्य-साक्षात्कार के बिना तीनों वेदों का ज्ञान व्यर्थ है, यह इस सुत्त की मूल भावना है। इस सुत्त में ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, छन्दोग ब्राह्मण, छन्दावा ब्राह्मण, इन ग्रन्थों या परम्पराओं का उल्लेख हुआ है जो मम्भवतः उस नाम की उपनिपदों की ओर संकेत करते हैं। अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अंगिरा, भरद्वाज, वशिष्ट, कश्यप और भृग, इन दस ऋषियों को यहाँ मन्त्रों का कर्ता या वेदों का रचयिता बताया गया है । तीनों १. ये किन किन मन्त्रों के द्रष्टा या रचयिता हैं, इसके लिये देखिये राहुल
सांकृत्यायनः दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ ५२७-५२८