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वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण ब्रह्मा की सलोकता के मार्ग का उपदेश करते हैं, किन्तु ब्रह्मा को अपने अनुभव से, अपने साक्षात्कार से, जानते कोई नहीं। भगवान् बद्ध एक मधुर व्यंग्यमयी उपमा करते है “वाशिष्ट ! त्रैविद्य ब्राह्मण जिसे न जानते हैं, जिसे न देखते है, उसकी सलोकता के लिये मार्ग उपदेश करते हैं। जैसे कि वाशिष्ट पुरुष ऐसा कहे--इस जनपद की जो सुन्दरतम स्त्री (जनपद कल्याणी) है मैं उसको चाहता है, उसकी कामना करता हूँ। उससे यदि लोग पूछे 'हे पुरुष ! जिस जनपद कल्याणी को तू चाहता है. तू क्या जानता है कि वह क्षत्राणी है या ब्राह्मणी है या वैश्य स्त्री हैं या शूद्र स्त्री है ?' ऐसा पूछने पर वह नहीं कहे । तब उससे पूछे हे पुरुष ! जिस जनपद-कल्याणी को तू चाहता है वह किस नाम वाली, किस गोत्र वाली, लम्बी, छोटी या मझोली है ? काली, श्यामा, . . . . . . किस ग्राम या नगर में रहती है ? . . . . . वाशिष्ट ! त्रैविद्य ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा..... .उसकी सलोकता के लिये मार्ग उपदेश करते हैं !" उपास्य और उपासक के गुणों के भेद की ओर भी भगवान् ने संकेत किया है। उपास्य (ब्रह्मा) अ-परिग्रही, उपासक (ब्राह्मण) परिग्रही; उपास्य अवैर-चित्त, उपासक वैरबद्ध, उपास्य वशवर्ती, उपासक अवशवर्ती । “वाशिष्ट ! सपरिग्रह विद्य ब्राह्मण काया छोड़ मरने के बाद परिग्रह-रहित ब्रह्मा के साथ सलोकता को प्राप्त कर सकेंगे, यह सम्भव नहीं।" मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की भावना के द्वारा साधक तथागत-प्रवेदित मार्ग का साक्षात्कार कर ब्रह्म-विहार में स्थित हो जाय, तो फिर “वह अपरिग्रह भिक्षु काया छोड़ मरने के बाद अपरिग्रह ब्रह्मा की सलोकता को प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं।" आचरण की सभ्यता को यहाँ भगवान ने सदा के लिये स्मरणीय शब्दों में रख दिया है।
महावग्ग
महापदान-सुत्त ( दीघ. २१)
भगवान् के पूर्ववर्ती छह बुद्धों, यथा विपस्सी (विपश्यी) सिखी (शिखी) बेस्सभू (विश्वभू) भद्रकल्प, ककुसन्ध (ऋकुच्छन्द) और कोणा-गमन की जीवनियों का वर्णन । गोतम बुद्ध की जीवनी के आधार पर ही ये गढ़ लिये गये हैं, जिनमें ऐतिहासिक तत्त्व कुछ नही।