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( १४८ ) सिगालोवाद-सुत्त (दीघ. ३८)
सिगाल (शृगाल) नामक गृहपति-पुत्र (वैश्य-पुत्र) को भगवान द्वारा पूरे गृहस्थ-धर्म का उपदेश। चार पाप के स्थान, छह सम्पत्ति-नाश के कारण, मित्र
और अमित्र की पहचान तथा छह दिशाओं की पूजा करने का बौद्ध विधान, आदि बातों का विवरण है। आचार्य बुद्धघोष ने कहा है कि गृहस्थ सम्बन्धी कर्तव्यों में कोई ऐसा नहीं है जो यहाँ छोड़ दिया गया हो। यह सुत्त बौद्ध धर्म ने गृहस्य धर्म के स्वरूप और महत्व को समझने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। अशोक ने इस सुत्त की भावना को अपने अभिलेखों में बार बार ग्रहण किया है। आटानाटिय-सुत्त ( दीघ. ३३९) __ बौद्ध रक्षा-मन्त्र । सात बुद्धों को नमस्कार आदि और इस प्रकार भूत-यक्षों से रक्षा करने का उपाय । यह सुत्त बुद्ध की शिआओं से मेल नहीं खाता। वह बाद का परिवर्द्धन ही जान पड़ता है, जैसा अन्य अनेक विद्वानों का भी विचार है। संगीति परियाय-सुत्त ( दीघ. ३।१०)
एक संख्या से लेकर दस संख्या तक के वर्गीकरणों में बुद्ध-मन्तव्यों की सूची। दसुत्तर-सुत्त ( दीघ. ३११) ___ एक से लेकर दस संख्या तक के धर्मों में कौन कौन से उपकारक, भावनीय, परिज्ञेय (त्याज्य) प्रहातव्य, हानभागीय (पतनकारक), विशेष भागीय, दुष्प्रतिवेध्य, उत्पादनीय, अभिज्ञेय, या साक्षात्करणीय हैं, इसका विवरण ।
आ-मज्झिम-निकाय' मज्झिम-निकाय में मध्यम आकार के सुतों का संग्रह है । इसलिये इसका यह नाम पड़ा है। सुत्त-पिटक में इस निकाय का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस निकाय को 'बुद्ध वचनामृत' कहा है जो इसमें निहित वुद्ध-वचनों की सर्वविध महत्ता को देखते हुए विलकुल ठीक ही है। फैक जैसे सन्देहवादी विद्वान् को भी मझिम-निकाय की मौलिक सुगन्ध के सामने
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१. केवल मज्झिम-पण्णासक अर्थात् सुत्त ५१-१०० देवनागरी लिपि में दे भागों में बम्बई विश्व विद्यालय द्वारा प्रकाशित, भाग प्रथम सुत्त ५१-७०; भाग द्वितीय सुत्त ७१-१०० (डा० भागक्त द्वारा संपादित) हिन्दी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इसे अनुवादित किया है। यह अनुमान महाबोधि सभा, सारनाथ, द्वारा सन् १९३३ में प्रकाशित किया गया है।