________________
( १२४ )
अतः उसकी 'सत्त-पिटक' संज्ञा सार्थक ही है। पालि 'सत्त' का संस्कृत अनुरूप 'सूत्र' है। वैदिक साहित्य की परम्परा में 'सूत्र' शब्द से तात्पर्य ऐसे स्वल्पाक्षर कथन से होता है जिसमें से सूत के धागे की तरह महान् अर्थ की परम्परा निकलती चली जाय । इस प्रकार के सूत्र-साहित्य का उद्भावन वैदिक साहित्य के विकास के अन्तिम युग की घटना है, जब कि बढ़ते हुए विशाल वैदिक वाङमय को संक्षिप्त रूपदेने की आवश्यकता प्रतीत हुई। परिणामतः प्रत्येक ज्ञान-शाखापर सूत्र-साहित्य की रचना हुई। श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र, धर्म-सूत्र, व्याकरण-सूत्र, नाट्य-सूत्र, अलंकार-सूत्र, न्याय-सूत्र, वैशेषिक-मूत्र, सांख्य-सूत्र, योग-सूत्र, मीमांसा-सूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि इस विशाल सूत्र-साहित्य के कुछ उदाहरण हैं। संस्कृत का सूत्रसाहित्य विश्व-साहित्य के इतिहास में निश्चय ही एक विस्मयकारी वस्तु है। शब्द-संक्षेप किस हद तक जा सकता है, यह उसमें देखा जा सकता है । संस्कृतभाषा की अपूर्व शक्ति वहाँ दृष्टिगोचर होती है। सूत्र' की परिभाषा संस्कृतसाहित्य में इस प्रकार की गई है “सूत्रज्ञ पुरुष, उस स्वल्पाक्षर कथन को, जो असंदिग्ध, महत्वपूर्ण अर्थ का प्रख्यापक, विश्वजनीन उपयोग वाला और विस्तार और व्याकरण की अशुद्धि से रहित हो, सूत्र कहते हैं।"१ पालि के 'सुत्त' इस अर्थ में सूत्र कभी नहीं कहे जा सकते । वे विस्तार में काफी लम्बे हैं। कुछ तो छोटी छोटी पुस्तकों के समान ही हैं। उनके पुनरावृत्तिमय विस्तारों को देखकर कौन उन्हें 'सूत्र' कहेगा ? पालि के सूत्रों से भी अधिक लम्बे महायानी संस्कृत साहित्य के मूत्र हैं। वहाँ जिन्हें 'सूत्र' कहा गया है वे तो अनावश्यक विस्तार-पूर्ण सहस्रों पृष्ठों के विशालकाय ग्रन्थ हैं। अतः बौद्ध और वैदिक परम्परा के इस 'मूत्र' सम्बन्धी अर्थ-विभेद को हमें समझ लेना चाहिये।
सुत्त-पिटक का विषय, जैसा अभी कहा गया, भगवान् बुद्ध के उपदेश ही हैं। साथ ही भगवान् के कुछ प्रधान शिष्यों के उपदेश भी सुत्त-पिटक में मन्निहित हैं, जिनके आधार भी स्वयं बुद्ध-वचन ही हैं। अक्सर ऐसा होता था कि भगवान् द्वारा उपदिष्ट किसी विषय को लेकर भिक्षुओं में संलाप हो उठता था। बाद में वे अपने संलाप की सूचना भगवान् को देते थे। यदि उनको कोई तथ्य स्पष्ट नहीं
१. स्वल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम ।
अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥ शब्दकल्पद्रुम