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( १२३ ) बहुत परिवर्तन कहीं हुए भी हों तो वे इतने महत्वपूर्ण कभी नही कहे जा मकते कि उसके प्राचीन रूप को ही ढंकलें । पालि-त्रिपिटक में अशोक मे पहले की परम्पराओं का तारतम्य तो हो सकता है, किन्तु उसके बाद की परम्पराओं का भी उसके अन्दर समावेश हो, यह तो पहले आक्षेप का निराकरण हो जाने के बाद ही नहीं माना जा सकता। ततीय संगीति के समय ही हमें पालि-त्रिपिटक के स्वरूप को अन्तिम रूप से निश्चित और पूर्ण समझ लेना चाहिये, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। अस्तु, सुत्त-पिटक में भगवान् के उपदेश निहित हैं। 'सुत्त-पिटक' शब्द का क्या अर्थ है, यह भी हमें यहाँ समझ लेना चाहिये । सुत्त का अर्थ है सूत या धागा और पिटक का अर्थ है पिटारी' या परम्परा । चूंकि पिटारी का प्रयोग लिखित ग्रन्थों को रखने के लिये ही हो सकता है और बुद्ध-वचन ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी से पहले लिखे नहीं गये थे, अतः इस समय से पहले उनके लिये 'पिटारी' शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं हो सकता था। मौलिक रूप में इस अर्थ में बुद्ध-वचनों के विशिष्ट ग्रन्थों के लिये 'पिटक' शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता था। पूर्वकाल में लाक्षणिक अर्थ में 'पिटक' शब्द का प्रयोग परम्परा के लिये होता था। जैसे पिटारी में रखकर कोई वस्तु एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचाई जाती है, उसी प्रकार पहले धार्मिक सम्प्रदाय अपने विचार और सिद्धान्तों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहँचाया करते थे। मज्झिम-निकाय के चंकि-सुत्तन्त (मज्झिम-२।५।५) में वैदिक परम्परा के लिये इमी अर्थ में 'पिटक-सम्प्रदाय' शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ 'पिटक' शब्द का अर्थ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने वेद की परम्परा' या 'वचन-समूह' किया है। अतः 'सत्त-पिटक' शब्द का अर्थ, इस लाक्षणिक प्रयोग के अनुसार होगा, धागे रूपी (बुद्ध-वचनों की) परम्परा। जिस प्रकार सूत के गोले को फेंक देने पर वह खुलता हआ चला जाता है,उसी प्रकार बुद्ध-वचन सुत्त-पिटक में प्रकाशित होते है।
१. देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज (डा० लाहा द्वारा सम्पादित ) पृष्ठ ८४६ २. श्रीमती रायस डेविड्सः शाक्य और बुद्धिस्ट औरीजिन्स, परिशिष्ट १,
पृष्ठ ४३१; प्रो० टी० डबल्यू रायस डेविड्सः सेक्रेड वुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द ३५, पृष्ठ २८ का पद-संकेत; जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०८, पृष्ठ ११४ ३. मिलाइये कीथः बुद्धिस्ट फिलॉसफी, पृष्ठ २४, पद-संकेत २