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तो नहीं हुई ? भिक्षा के लिये कष्ट तो नहीं उठाना पड़ा' ? आदि। भगवान् को जब कोई व्यक्ति निमंत्रण देने आता है तो प्रायः यही वाक्य रहता है “भन्ते ! भिक्षु-संघ सहित आप कल के लिये मेरा भोजन स्वीकार करें"। उसके बाद "भगवान् ने मौन से स्वीकार किया।" भगवान् के भिक्षाचर्या के लिये जाने का प्रायः इन शब्दों में वर्णन रहता है “तब भगवान् पूर्वाह्न समय चीवर पहन, भिक्षापात्र ले, जहाँ ...... था, वहाँ गये। जाकर भिक्षु-संघ सहित बिछे आसन पर बैठे।......ने अपने हाथ से बद्ध-प्रमुख भिक्ष-संघ को उत्तम खाद्य-भोज्य से मन्तर्पित किया। खाकर पात्र से हाथ हटा लेने पर......एक नीचा आसन ले, एक ओर बैठ गया। भगवान् ने उपदेश से समुत्तेजित, सम्प्रहर्षित किया। धर्मउपदेश कर भगवान् आसन से उठकर चल दिये।" जब कोई महाप्रभावशाली व्यक्ति भगवान के दर्शनार्थ जाता है तो "जितनी यान की भूमि थी, उतनी यान से जा कर, यान से उतर, पैदल ही जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे. . . . . .को भगवान् ने धर्म-सम्बन्धी कथा से समुत्तेजित किया' आदि । इस प्रकार बुद्धकालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र हमें सुत्त-पिटक में मिलता है।
भगवान् बुद्ध के उपदेश करने का क्या ढंग था, यह भी सुत्तों से स्पष्ट दिखाई पड़ता है। पहले भगवान् दान, शील, सदाचार-प्रशंसा, दुराचार-निन्दा आदि सम्बन्धी साधारण प्रवचन देते थे। फिर 'वुद्धों की उठाने वाली आदेशना' (बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना) आरम्भ होती थी, जिसमें चार आर्य सत्यों आदि का गंभीर धर्मोपदेश होता था। दीघ-निकाय के अम्बठ्ठ सुत्त, कुटदन्त-सुत्त आदि में इसी तरह उपदेश का विधान किया गया है। भगवान् एक मनोवैज्ञानिक की तरह उपदेश करते थे। पहले वे देख लेते थे कि जो व्यक्ति उनके पास दर्शनार्थ आया है वह किसान है, या सिपाही है, या राजा है या परिव्राजक है। फिर उससे परिचित जीवन से ही उपमाएँ आदि लेकर वे उसे धर्म का स्वरूप समझाते थे। परिव्राजकों या अन्य मतावलम्बी साधुओं के साथ वार्तालाप करते समय वे उनके मान्य सिद्धान्तों से ही प्रारम्भ करते थे और उत्तरोत्तर विचार पर उसे अग्रसर करते हुए अपने मन्तव्य तक लाते थे। दीघ-निकाय के सामफल-सुत्त, सोणदंड-सुत्त, पोपाद-सुत्त और तेविज्ज-सुत्त तथा मज्झिम-निकाय के वेखणस-सुत्त, सुभ-सुत्त, चंकि-सुत्त आदि इसके अच्छे उदाहरण हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश करने के ढंग या उनकी आदेशना-विधि का बड़ा अच्छा विश्लेषण 'पेटकोपदेस' नामक ग्रन्थ में