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। १२८ ) किया गया है, जो त्रिपिटक के संकलन के बाद किन्तु बुद्धघोष के काल से पहले, लिखा गया था। छठे अध्याय में हम उसका विवरण देते समय इस विषय का भी कुछ दिग्दर्शन करेंगे। ___ सुत्तों की शैली की ये विशेषताएँ और द्रष्टव्य है (१) पुनरुक्तियों की अतिशयता (२) संख्यात्मक परिगणन की प्रणाली का प्रयोग (३) उपमाओं के प्रयोग की बहुलता (४) संवादों का प्रयोग (५) इतिहास और आख्यानों का उपदेशों के बीच में समावेश और (६) सुत्तों में नाटकीय क्रियात्मकता की अभिव्याप्ति । चूंकि सुत्तों का संकलन विभिन्न स्रोतों से, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा
और विभिन्न कालों में हआ, अत: उनमें पूनरुक्तियों का होना अवश्यम्भावी है। भिक्षुओं के निरन्तर अभ्यास के लिये स्वयं भगवान् का भी एक ही उपदेश को बार बार देना, कहीं संक्षिप्त रूप से, कहीं विस्तृत रूप से, उसे दुहराना. आसानी से समझा जा सकता है। फिर अध्ययन-अध्यापन की मौखिक परम्परा के कारण इस पुनरुक्तिमय वर्णन-प्रणाली को और भी अधिक प्रश्रय मिला है। अतः सुत्तों में पुनरुक्तियों का होना एक तथ्य है और वह उनकी प्राचीनता और प्रामाणिकता का ही सचक है, अप्रामाणिकता या अर्वाचीनता का नहीं । सुत्तों में इतनी पुनमक्तियाँ भरी पड़ी है कि उनका सामान्य दिग्दर्शन भी सम्भव नहीं है । सुत्तों का 'पेय्यालं' अति प्रसिद्ध है।' वाक्यांशों के वाक्यांशों की पुनरावृत्ति केवल एक-दो शब्दों के हेर-फेर के साथ अनेक सुत्तों में पाई जाती है। सोण-दंड-सत्त का अन्तिम भाग हुबह कूटदन्त-सुत्त में रक्खा हुआ है। चार ध्यानों का वर्णन बिलकुल समान शब्दों में अनेक सुत्तों में रक्खा हुआ है, यथा सामञफल-सुत्त (दीघ-१।२) अम्बह्रसुत्त (दीघ-१।३) सोणदंड-सुत्त (दीघ-१।४) कूटदन्त सुत्त (दीघ-११५) महालि
१. चूंकि पालि-त्रिपिटक में, विशेषतः सुत्त-पिटक में, पुनरुक्तियाँ अधिक हैं, अतः जहाँ कहीं एक पूरे वाक्य 'या वाक्यांश की पुनरावृत्ति हुई, तो उसे पूरा न लिख कर केवल एक-दो आरम्भ के शब्द लिख दिये जाते हैं और फिर उसके बाद लिख दिया जाता है 'पेय्यालं' जिसका अर्थ यह है कि इतने संकेत से ही पूर्वागात वाक्य को समझा जा सकता है। पेय्यालं' शब्द : का अर्थ ही है 'पातुंअलं' अर्थात् इतने से वाक्य समझ लिया जा सकता है
और यह पाठ को बचाये रखने के लिये पर्याप्त है। देखिये भिक्षु जगदीश काश्यप : पालि महाव्याकरण, पृष्ठ तैंतालीस (वस्तुकथा)