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( १३७ ) तत्कालीन भारतीय समाज के उद्योग-व्यवसायों आदि के चित्रण की दृष्टि से यह सुत्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
सामञफल-सुत्त (दीघ. १२)
सामञफल-सुत्त (श्रामण्य फल सम्बन्धी बुद्ध-उपदेश) में हम पितृ-वध के पश्चात्ताप से संतप्त मगध-राज अजातशत्रु को चित्त-शान्ति प्राप्त करने के हेतु भगवान् के पास आता देखते हैं। पहले वह अन्य आचार्यों के पास भी जा चुका है, किन्तु शान्ति नही मिली। इसी कारण यहाँ प्रसंगवश बुद्धकालीन उन छह प्रसिद्ध आचार्यों के मतों का भी निदर्शन कर दिया गया है, जिनका जानना बौद्ध धर्म के प्रत्येक विद्यार्थी के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इन छह आचार्यों के नाम थे पूर्ण काश्यप, मक्खलि गोसाल, अजित केस कम्बलि, प्रऋध कात्यायन, निगण्ठ ज्ञातपुत्र और संजय बेलट्टि पुत्त । मक्खलि गोसाल का मत अक्रियावाद था। उनके मत में पाप-पुण्य कुछ नहीं था। 'छुरे के समान तेज चक्र से कोई इस पृथिवी के प्राणियों के मांस का एक खलियान, मांस का एक पुंज बना दे, तो भी इसके कारण उसे पाप नहीं लगेगा' । दान, दम, संयम, तप में कोई पूण्य नहीं है, हिमा, चोरी आदि में कोई पाप नहीं है, यही इनका मत था। मक्खलि गोसाल पूरे दैववादी थे। वे कहते थे। 'सत्वों के क्लेश का कोई हेतु नहीं है। बिना हेतु के ही सत्व क्लेश पाते है। सत्वों की शद्धि का भी कोई हेतु नही है। बिना हेतु के ही सत्व शुद्ध होते हैं। पुरुष कुछ नहीं कर सकता है । बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष का कोई पराक्रम नहीं है। सभी प्राणी अपने वश में नहीं है । निर्बल, निर्वीर्य, भाग्य और संयोग के फेर से इधर-उधर उत्पन्न हो दुःख भोगते है।" अजित केश कम्बलि का मत था जड़वाद या उच्छेदवाद । वह कहता था 'न दान है, न यज्ञ है, न होम है, न पुण्य या पाप या अच्छा बुरा फल होता है, न यह लोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है” आदि, आदि । प्रक्रुध कात्यायन का मत था अकृततावाद । वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु, सुख, दुःख और जीवन, इन सब को अकृत, अनिर्मित, कूटस्थ, और अचल मानता था। 'यहाँ न हन्ता है, न घातयिता, न सुनने वाला, न सुनाने वाला, न जानने वाला, न जतलाने वाला"। निगण्ठनाटपुत्र (निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र, भगवान् महावीर, जैन-तीर्थङ्कर) के मत में चार प्रकार के मंयमों का विवरण दिया गया है “निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र किस प्रकार के संयमों से संयत रहते है? (१)निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र जल का वारण करते है (जिममें जल के