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में त्रिपिटक प्रायः अपने उसी वर्गीकरण और नामकरण के साथ विद्यमान था जैसा वह आज है। कम से कम त्रिपिटक के प्राचीनतम अंशों (सुत्त-पिटक और विनय-पिटक) के विषय में तो ऐसा कहा ही जा सकता है । अशोक के बाद माँची और भारहुत (तीसरी या दूसरी शताब्दी ई० पू०) के स्तूपों के लेखों का माक्ष्य भी यही है। इन लेखों में 'पंचनेकायिक' (पाँच निकायों का ज्ञाता) भाणक (पाठ करने वाला) सुत्तन्तिक (मुत्त-पिटक का ज्ञाता) पेटकी (पिटकों का ज्ञाता) आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है और जातक के कुछ दृश्य भी दिखाये गये हैं, जिनसे विद्वानों ने ठीक ही यह निष्कर्ष निकाला है कि बुद्ध-वचनों का तीन पिटकों और पांच निकायों में आज का सा विभाजन इन अभिलेखों के युग से पहले ही निश्चित हो चुका था।' भाणकों और निकायों एवं त्रिपिटक के उपर्युक्त विभाजन की जो परम्परा अशोक के काल से बहुत पहले से चली आ रही थी, उसके बाद भी अबाध गति से चलती रही। साँची के लेखों के अलावा मिलिन्द प्रश्न (प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्वं) और बाद में बुद्धघोष की अर्थकथाओं, दीपवंस, महावंस आदि में उसके पूर्ण साक्ष्य मिलते हैं। बुद्ध-वचनों का नौ अंगों में विभाजन स्वयं त्रिपिटक को भी ज्ञात है और बाद में न केवल मिलिन्द प्रश्न, अपितु बुद्धघोष
१. रायस डेविड्सः बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १६७; बुहलरः एपीग्रेफका ___ इंडिका , जिल्द दूसरी , पृष्ठ ९३; २. तेपिटकं बुद्धवचनं, पृष्ठ १९; तेपिटका भिक्खु पंचनेकायिका पि च, ___ चतुनेकायिका चेव, पृष्ठ २३ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण) ३. धम्मपदट्ठकथा जिल्द पहली, पृष्ठ १२९ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का ___ संस्करण) देखिये विन्टरनित्त ; इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी,
पृष्ठ १७, पद-संकेत ३ भी। ४. ८१६; १२१८४; १३७ (ओल्डनबर्ग का संस्करण) ५. १२।२९; १४१५८; १४।६३, १५।४ (गायगर का संस्करण) ६. अलगद्दपम सुत्तन्त (मज्झिम. १।३।२) अंगुत्तर-निकाय, जिल्द दूसरी,
पृष्ठ ७; १०३; १०८ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण)। ७. नवंगजिनसासनं, पृष्ठ २२; नवङ्ग बुद्ध-वचने पृष्ठ १६३; । नवंगमन
मज्जन्तो, पृष्ठ ९३ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण)