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तम जान पड़ता है, कोई मौलिक विभिन्नताएँ नहीं हैं। बल्कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। उनमें से अधिकांश 'चुल्लवग्ग' के वर्णन को ही विस्तृत रूप देते हैं । उपर्युक्त वर्णनों के आधार पर बौद्ध अनुश्रुति राजगृह की सभा के ऐतिहासिक तथ्य को मानती है। आधुनिक विद्यार्थी भी इसमें सन्देह करने का कोई कारण नहीं देखता । ओल्डनबर्ग ने अवश्य इसमें सन्देह प्रकट किया था। उनका कहना था कि सुभद्र वाला प्रकरण, जिसे 'चुल्लवग्ग' में राजगृह की सभा के बुलाने का कारण बतलाया गया हैं, ‘महापरिनिब्बाण - सुत्त' ( दीघ २।३) में भी उन्हीं शब्दों में रक्खा हुआ है, किन्तु वहाँ इस सभा का कोई उल्लेख नहीं है । इस मौन का कारण उन्होंन यह माना है कि 'महापरिनिब्बाण-सुत्त' के संग्राहक या सम्पादक को इस सभा का कुछ पता नहीं था । यदि यह सभा हुई होती तो 'महापरिनिब्बाण-सुत्त' के संग्राहक को भी इसका अवश्य पता होता और उस हालत में सुभद्र वाले प्रकरण के साथ साथ उसने इस सभा का भी अवश्य उल्लेख किया होता । चूँकि यह उल्लेख वहाँ नहीं है, इसलिये हम मान ही सकते हैं कि यह सभा हुई ही नहीं । १ कितना भयावह और इतिहास की प्रणाली से असिद्ध है डा० ओल्डनवर्ग का यह तर्क ! किन्तु यह भी बहुत दिनों तक विद्वानों को भ्रम में डाले रहा । वास्तव में डा० ओल्डनबर्ग के तर्क का कोई आधार नहीं है । 'महापरिनिब्बाण -सुत्त' का विषय भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के दृश्य का वर्णन करता है, संघ के इतिहास का निर्देश करना नहीं । संघ के इतिहास का सम्वन्ध 'विनय' से है। अतः भगवान् के परिनिर्वाण के बाद भिक्षुओं की विह्वल दशा का वर्णन करते हुए 'महापरिनिब्बाण-सुत्त' के संगायक या संगायकों ने सुभद्र जैसे असंयमी भिक्षु के विपरीत व्यवहार का तो उल्लेख कर दिया है, किन्तु उससे आगे जाना वहाँ ठीक नहीं समझा गया। इसके विपरीत 'विनय-पिटक' में संघ-शासन की दृष्टि से इस तथ्य को लेकर संघ के इतिहास पर भी उसका प्रभाव दिखलाया गया है । यदि यह भी समाधान पर्याप्त न माना जाय, तो यह भी द्रष्टव्य है कि 'दीपवंस' में भी सुभद्र वाले प्रकरण का उल्लेख नहीं है, किन्तु वहाँ प्रथम संगीति का वर्णन उपलब्ध है । इसलिये 'दीपवंस' के लेखक को जब हम सुभद्र के प्रकरण में मौन रखते हुए भी प्रथम संगीति के विषय में अभिज्ञान देखते
१. विनय टैक्सट्स्, जिल्द पहली, पृष्ठ २६ (भूमिका) ( - सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द तेरहवीं)