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भगवान् के परिनिर्वाण के १०० वर्ष बाद (वस्ससतपरिनिब्बुते भगवति-- चुल्लवग्ग) किन्तु यूआन् चुआङ् द्वारा निर्दिष्ट परम्परा के अनुसार ११० वर्ष वाद, वैशाली में 'धम्म' और, विनय' का, जैसा कि वह प्रथम संगीति में संगृहीत किया गया था, पुनः संगायन किया गया। यह बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी संगीति थी, जिसमें ७०० भिक्षुओं ने भाग लिया। इसीलिये यह ‘सप्तशतिका' भी कहलाती है। यह सभा वास्तव में विनय-सम्बन्धी कुछ विवाद-ग्रस्त प्रश्नों का निर्णय करने के लिये बुलाई गई थी। वैशाली के भिक्षु दस बातों में विनय-विपरीत आचरण करने लगे थे, जिनमें एक सोने-चांदी का ग्रहण भी था। अनेक भिक्षुओं के मत में उनका यह आचरण विनय-विपरीत और निषिद्ध था। इसी का निर्णय करने के लिये वैशाली में यह सभा हुई, जो आठ मास तके चलती रही। पालि साहित्य के विकास की दृष्टि से भी इस सभा का बड़ा महत्व है । एक बात इस सभा से यह निश्चित हो जाती है कि इस समय तक भिक्षु-संघ के पास एक ऐसा सुनिश्चित संगृहीत साहित्य अवश्य था जिसके आधार पर भिक्षु विवाद-ग्रस्त प्रश्नों का निपटारा कर सकते थे, फिर चाहे वह साहित्य मौखिक परम्परा के रूप में ही भले क्यों न हो।' वैशाली की सभा ने वैशालिक भिक्षुओं के दस बातों सम्बन्धी व्यवहार को विनय-विपरीत ठहराया। इससे एक महत्वपूर्ण समस्या पालि-साहित्य, विशेषतः विनय-पिटक, के सम्बन्ध में उत्पन्न हो जाती है । आज जिस रूप में विनय
१. ऐसा ही आधार स्वयं भगवान् बुद्ध के समय में भी विद्यमान था।
"भिक्षुओ! यदि कोई भिक्षु ऐसा कहे 'मैने इसे भगवान् के मुख से सुना है,' ग्रहण किया है, यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का शासन है, तो भिक्षुओ! उस दिन उस भिक्षु के भाषण का न अभिनन्दन करना, न निन्दा करना। बल्कि .....सूत्र से तुलना करना, विनय में देखना। यदि वह सत्र से तुलना करने पर, विनय में देखने पर, न सूत्र में उतरे, न विनय में दिखाई दे, तो विश्वास करना यह भगवान् का वचन नहीं है। किन्तु यदि वह सूत्र में भी उतरे, विनय में भी दिखाई दे, तो विश्वास करना अवश्य यह भगवान् का वचन है।" महापरिनिब्बाण सुत्त (दोघ. २।३) मिलाइये अंगुत्तर-निकाय, जिल्द ६, पृष्ठ ५१; जिल्द ४, पृष्ठ १८० (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण)