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चुआङ को भी यही बात मान्य थी। वृद्धघोष या यूआन्-चुआङ के माथ इस हद तक सहमत न हो सकने पर भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुद्ध-वचनों का जो स्वरूप राजगृह की सभा में स्वीकार और संग्रह किया गया, उसी पर वर्तमान पालि त्रिपिटक आधारित है। इस सभा के एक महत्वपूर्ण प्रसंग का यहाँ उल्लेख कर देना और आवश्यक होगा। जिस समय यह सभा हो ही रही थी या समाप्त हो चुकी थी, पुराण नामक एक भि वहाँ विचरता हुआ आ निकला। उससे जब संगायन में भाग लेने के लिये कहा गया तो उसने कहा, "आवुस ! स्थविरों ने धम्म और विनय को सुन्दर तौर से संग्नयन किया है। किन्तु जैसा मैने स्वयं शास्ता के मुख से सुना है, मुख से ग्रहण क्रिया है, मैं तो वैसा ही धारण करूँगा"।' पुराण की इस उक्ति में राजगृह के सभासदों के द्वारा संगायन किये हुए धम्म और विनय के प्रति अप्रामाणिकता का भाव नहीं है, जैसा कुछ विद्वानों ने भ्रमवश सोचा है । संघ के लिये यह कोई खतरे की घंटी भी नहीं थी, जैसा एक विद्वान् को भ्रम हुआ है। पुगण तो एक साधक पुरुष था । एकान्त-साधना का भाव उसमें अवश्य अधिक था, जिसके कारण वह अपनी उस ध्यान-भावना में, जो उसे गास्ता के प्रत्यक्ष सम्पर्क से मिली थी, किसी प्रकार का विक्षेप नहीं आने देना चाहता था। दूसरो ने बुद्धमुख से जो कुछ सुना है, वह सब ठीक रहे, सत्य रहे। किन्तु पुराण को तो अपना जीवन-यापन उसी से करना, जो उसकी आवश्यकता देखते हुए स्वयं भगवान् ने उसे दिया है। इस दृष्टि से न तो पुराण की उक्ति में राजगृह की सभा में संगायन किये हुए वृद्ध-वचनों की अप्रमाणिकता की ओर संकेत है और और न वह भिक्षु-संघ के लिये कोई खतरे को घंटी ही थी। इस प्रकार के स्वतन्त्र विचारों के प्रकाशन पर भिक्षु-संघ ने कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया। यह उसकी एक विशेषता है। अतः हम कह सकते हैं कि धर्मवादी भिक्षुओं ने धर्म का वैसा ही मंगायन किया, जैसा उन्होंने स्वयं भगवान् से सुना था और जो उन्होंने मगायन किया उसके ही दर्शन हमें पालि सुत्त और विनय पिटको में मिलते हैं, यद्यपि उसके साथ कुछ और भी मिल गया है। 3 ।
१. विनय-पिटक-चुल्लवग्ग; देखिये बुद्धचर्या, पृष्ठ ५५२ भी। २. डा. रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है "This was a danger sis nai
for the Church " बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ४४ ।। ३. बुद्धघोष को भी यह मत आंशिक रूप से मान्य था। देखिये बुद्धिस्टिक
स्टडीज़ पृष्ठ २२१