Book Title: Shatkhandagama Pustak 04 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati Catalog link: https://jainqq.org/explore/001398/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला-टीका-समन्वितः हालय षट्खंडागमः जीवस्थान-क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगम खंड १ भाग ३, ४, ५. पुस्तक ४ सम्पादक हीरालाल जैन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः षटखंडागमः श्रीवीरसेनाचार्य विरचित-धवला-टीका-समन्वितः । तस्य प्रथम-खंडे जीवस्थाने हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-गणितोदाहरण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादिताः क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगमाः ४ 500000000000 सम्पादकः अमरावतीस्थ-किंगएडवर्डकालेज-संस्कृताध्यापकः, एम्. ए., एल् एल्. बी., इत्युपाधिधारी हीरालालो जैनः सहसम्पादकः पं. हीरालालः सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थः संशोधने सहायको व्या. वा., सा. सू., पं देवकीनन्दनः * डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथ: सिद्धान्तशास्त्री उपाध्यायः, एम्. ए., डी. लिट. प्रकाशक: श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालयः अमरावती ( बरार ) वि. सं. १९९८ ] [ ई. स. १९४२ वीर-निर्वाण-संवत् २४६८ मूल्यं रूप्यक-दशकम् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र, जैन - साहित्योद्धारक - फंड-कार्यालय अमरावती ( बरार ) मुद्रक- टी. एम्. पाटील, मॅनेजर, सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती (बरार ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE ŞAȚKHAŅDĀGAMA OF PUSPADANTA AND BHŪTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VIRASENA VOL. IV KSETRA-SPARSANA-KALANUGAMA Edited with introduction, translation, notes, and indexes BY HIRALAL JAIN, M. A., LL. B., C. P. Educational Service, King Edward College, Amraoti. ASSISTED BY Pandit Hiralal Sidhānta Shastri, Nyāyatirtha. With the cooperation of Pandit Devakinandana Sidhanta Shăstri Dr. A. N. Upadhye, M. A., D. Litt. Publish by Shrimanta Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Udhāraka Fund Karyalaya. AMRAOTI [ Berar ). 1942 Price rupees ten only. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published byShrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddläraka Fund Karyalaya, AMRAOTI ( Berar ). Printed by T. M. Patil, Manager, Saraswati Printing Press, AMRAOTI (Berar,). Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाकर ठोकका सामान्य दृश्य. आ.नं. ९ (पृ. १२) आ. नं. ४ आ.नं. २ मृदंगाकार लोक का १* - २- *१ ३ सृ. लो. का तल विन्यास. (पृ. १२ ) आ.नं.२. यथादर्शन चित्र. (पृ. १२ ) २२ अधोलोक का सूपकार विन्यास. (पृ. १३) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tue आ. नं. ५ ३.२८ अ.ली. सूर्याकार विन्यास का - ९-४१* यथादर्शन चित्र. (पृ. १३) आ.नं. ७ ३ अधोलोक सूर्याकारका उपरितम दृश्य. (पृ. १३ ) आ.नं. ९ · खंड नं. २ और ५ का यथा दर्शन चित्र. (पृ. १४ ) आ.नं. ११. खंड नं. १-३-६-७ के. यथादर्शन चित्रमे त्रिकोणाकार और चतुरस्कार संद. (पृ. १४ ) ७-६ आ.नं. ६. अधोलोक सूपकार विन्यास. ( समीकृत ) (पृ. १३) -३-२८ अ.लो. सूपकारविन्यास का खंड दर्शनचित्र १ ३ आ. नं. १०४ खंडनं. २-५ 2. आनं.ट. (पृ. १३-१४) ९-४१* २ का एक पर एक रखनेयर दृश्य. (पृ. १४ ) आ.नं. १२ . -७- मध्यखंड नं. ४ का यथावदर्शन चित्र. (पृ. १३ ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ.नं.१५: -- --+ ५ + आ.नं. - - - - ७ रस्कारलोकका पूर्वपश्चिम दृश्य ---- (पृ. १९-२०) ------ चतुररथाकारलोकका यथावनिचिभर (पृ. १९-२०) आ.नं.१५ आ.नं.९. | -२ -२- १-*-- चतुरस्त्राकारलोकका तलविन्यास. (पृ. १९-२०) (पृ. ३४) आ.नं.१८. आ.नं.१७ १६- शंख. (पृ. ३४) (पृ. ३५) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामत्स्य महातम प्रभा रत्नप्रभा शर्करा प्रभा बालुका प्रभा पंक प्रभा धूमप्रभा तमप्रभा ४ (पृ. ३६ ) १५ १६ १३ १४ ११ १२ ९ १० ८ ७ ५ ६ ३ ४ ર *N *"*" .. - आ.नं. १९ (१८०००० योजन (३२००० योजन २८००० योजन २४००० योजन लोकाकाशमें स्वर्ग-नरक विभाग, (1977..20.) (पृ. ८८-९९ ) २०००० योजन १६००० योजन ८००० योजन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक् कथन १ प्रस्तावना Introduction i-iv Mathematics of Dhavala i-xxiv ( with index ) ( by Dr. A. N. Singh ) अधिकार १ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका २ शंका-समाधान ३ विषय - परिचय ४ विषय-सूची विषय सूची पृष्ठ १-४ १ मृदंगाकार लोकका सामान्य दृश्य २ मृदंगाकार लेाकका यथादर्शन चित्र १ .१६ ३ मृदंगाकार लेाकका तलविन्यास ४ अधोलोकका सूर्पाकार विन्यास ५ अधोलोक सूर्पाकार विन्यासका यथादर्शन चित्र ६ अधोलोक सूर्पाकार विन्यासका (समीकृत) चित्र "" मुख पृष्ठ .....२३ ....३० ५ शुद्धिपत्र ....५९ ४ ग्रंथोल्लेख ६ क्षेत्र–स्पर्शन-कालप्रमाणदर्शक चार्ट २९ अ आ ५ पारिभाषिक शब्दसूची चित्र सूची " "" "" " का उपरितन दृश्य ७ "" " ८ अधोलोक सूर्पाकार विन्यासका खंड दर्शन चित्र ९ खंड नं. २ और ५ का यथादर्शन चित्र, " १० खंड नं. २ और ५ का एकपर एक रख नेपर दृश्य "" "" मूल, अनुवाद और टिप्पण क्षेत्रानुगम स्पर्शनानुगम कालानुगम "" १ क्षेत्रप्ररूपणा सूत्रपाठ स्पर्शनप्ररूपणा सूत्रपाठ कालप्ररूपणा सूत्रपाठ २ अवतरण-गाथासूची ३ न्यायोक्तियां "" .... ,, चित्र ३ परिशिष्ट "" .... " 33 ११ खंड नं. १, ३, ६ व ७ के यथादर्शन चित्र में त्रिकोणाकार और चतुरस्राकार 33 .... खंड १२ मध्यखंड नं. ४ का यथादर्शन चित्र | १३ चतुरस्राकार लोकका पूर्व-पश्चिम दृश्य यथादर्शन चित्र का तलविन्यास १४ १५ १६ भ्रमर १७ गोम्ही १८ शंख १९ महामत्स्य २० लोकाकाशमें स्वर्ग-नरक विभाग "" १-४८८ १-१३८ ...१३९-३०९ ...३११- ४८८ १-४२ १ ५ पृष्ठ १३ २६ २७ २८ ३०-४२ .... www. मुख पृष्ठ "" 33 22 "" "" "" "" "" "" "2 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाकू कथन पखंडागमका तीसरा भाग अप्रेल १९४१ में प्रकाशित हुआ था। वर्ष पूरा होते होते उसका चौथा भाग भी तैयार होकर पाठकोंके हाथमें पहुंच रहा है। इन सिद्धान्त ग्रन्थोंका समाजमें आदर और प्रचार देखकर हमें अपने ध्येयकी सफलताका संतोष है। विद्वत्समाज अब इस ओर कितना उत्सुक और तत्पर हो उठा है इसका अनुमान इसीसे किया जा सकता है कि इसी अल्पकालमें हमें इस सिद्धान्तोद्धारके कार्यमें पंडिताचार्यवर्य भट्टारक चारुकीर्तिजी स्वामी तथा पंचोंकी कृपासे मूडबिद्री संस्थानका पूर्ण सहयोग प्राप्त हो गया है, जिससे अब सिद्धान्तग्रंथका मूल पाठ वहांकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके मिलान परसे ही निश्चित किया जाता है। इस कारण अब इतर प्रतियोंके मिलान प्रकाशित करनेकी आवश्यकता नहीं रही। इसी बीच द्वितीय सिद्धान्तग्रंथ कषायप्राभृत और उसकी टीका जयधवलाके प्रकाशनके लिये भी एक नहीं अनेक संस्थाएं उत्सुक हो उठी हैं, और जैनसंघ, मथुरा, ने उस ओर कार्य प्रारंभ भी कर दिया है। उधर शोलापुरवाले खर्गीय सेठ रावजी सखारामजी दोशीके संरक्षणमें जो सिद्धान्तोद्धारसंबंधी फंड था, उसकी उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी सेठ गुलाबचंद्रजीने सुव्यवस्था करके महाधवलके निमित्त एक समिति सुसंगठित कर दी है। यही नहीं, श्रीयुक्त मंजैयाजी हेगडेने तीनों सिद्धान्तोंके मूलपाठको ताड़पत्रीय प्रतियोंके अनुसार प्रकाशित करानेकी भी एक स्कीम प्रस्तुत की है। साहित्योद्धारके महत्त्व और उसकी आवश्यकताको अनुभव करके शोलापुरके अत्यन्त धर्मानुरागी ब्रह्मचारी जीवराज गौतमचंदजी दोशीने गम्भीर विचार और विद्वत्परामर्शके पश्चात् — जैन संस्कृति संरक्षक संघ' का आयोजन किया है, और उसके लिये अपनी ओरसे तीस हजारका दान भी दे दिया है । इस संघका ध्येय बहुत विशाल और सर्वांगव्यापी है, जिसकी पूर्ति धीरे धीरे ही हो सकती है तथा समाजके सहयोगपर अवलम्बित है। किन्तु उसके अन्तर्गत जो एक 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' के संचालनका निश्चय किया गया था, उसका मेरे प्रियमित्र डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय और मेरे सम्पादकत्वमें कार्य प्रारंभ होगया है, और उस मालाका प्रथम पुष्प, उक्त सिद्धान्तग्रंथोंकी ही कोटिका प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ 'तिलोयपण्णत्ति' (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) मुद्रणाधीन है। इस प्रकार यह सिद्धान्तोद्धारका अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य अब अनेक कंधोंद्वारा सम्हाला जा रहा है, जिससे हमें अब अपना बोझ कुछ हलका हुआ प्रतीत होने लगा है । इसकी हमें प्रसन्नता है । किन्तु गतिके साथ गति-अवरोधोंके प्रयत्नोंका भी सर्वथा अभाव नहीं है। प्रकाशित सिद्धान्त ग्रन्थोंकी धार्मिक ज्ञानवृद्धिमें बड़ी भारी उपयोगिताका अनुभव करके बंबईकी माणिकचंद्र जैन परीक्षालय समितिने अपनी गत बैठकमें धवलसिद्धान्तके प्रथम भाग सत्प्ररूपणाको अपनी सर्वोच्च शास्त्री परीक्षाके पाठ्यक्रममें सम्मिलित करना आवश्यक समझा । इसका अधिकांश पाठकों और विद्याथियोंने बड़ा हर्ष मनाया। किन्तु, मोरेना जैन सिद्धान्त विद्यालयके प्रधान अध्यापक पं मक्खनलालजी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक् कथन शास्त्रीने इसका घोर विरोध प्रारंभ कर दिया है। उन्होंने ' सिद्धान्तशास्त्र और उनके अध्ययनका अधिकार' शीर्षक एक पुस्तिका लिखी है जिसमें उन्होंने यह बतलानका प्रयत्न किया है कि गृहस्थ जैनियोंको इन सिद्धान्तग्रंथोंके पढ़नेका बिलकुल अधिकार नहीं है और इसलिये इनका पढ़ना पढ़ाना व छपाना एकदम बंद कर देना चाहिये । इस पुस्तिकाके आधारसे जैन पाठशालाओंके अध्यापकोंके ऐसे मत संग्रह करनेका भी प्रयत्न किया जा रहा है कि वे धवल, जयधवल, महाधवल, इन सिद्धान्त ग्रंथोंका पठन-पाठन नहीं करेंगे। अपनी अपनी समझ और विवेकके अनुसार तो प्रत्येकको अपना मत बनाने और उसका प्रचार करनेका अधिकार है, किन्तु उक्त पुस्तिकामें जो इस मतके लिये प्राचीन प्रमाण दिये गये हैं, उनसे साधारण पाठकोंको एक भ्रम पैदा हो जानेकी संभावना है । अतएव हमने यह आवश्यक समझा कि हम अपने पाठकोंके लिये उन प्राचीन प्रमाणोंकी जांच पड़ताल करके अपना निष्कर्ष उनके सन्मुख रख दें, ताकि वे उक्त मतकी सारहीनताको समझ जावें। हमारे इस विवेचनको पाठक प्रस्तुत भागकी प्रस्तावनामें 'सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार' शीर्षक लेखमें देखेंगे जिससे उन्हें पता चल जायगा कि कुंदकुंद, समन्तभद्र आदि जैसे अत्यन्त प्राचीन और प्रामाणिक आचार्योंने गृहस्थोंको सिद्धान्त शास्त्र पढ़नका प्रतिषेध नहीं किया, किन्तु खूब उपदेश दिया है । तथा सिद्धान्त अध्ययनका प्रतिषेध करनेवाले जो ग्रंथ हैं वे बहुत पीछेके १२ हवीं शताब्दि और उसके पश्चात्के अत्यन्त साधारण लेखकों द्वारा रचे गये हैं; और उन्होंने भी यह कहीं नहीं कहा कि धवल-जयववल ग्रंथ ही सिद्धान्त ग्रंथ हैं, व गोम्मटसारादि सिद्धान्त ग्रंथ नहीं हैं । यह सब उक्त पुस्तिकाके लेखककी ही मौलिक कल्पना है जिसका यथार्थ मर्म वे ही जानें । स्वयं धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंमें बार बार यह कहा गया है कि इन ग्रन्थोंकी रचना, सर्व प्राणियोंके हितके लिये, मनुष्यमात्रके उपयोगके लिये, मूर्खसे मूर्ख और बुद्धिमान् से बुद्धिमान् पुरुषोंके उपकारार्थ हुई है । अतएव उनके पठन-पाठनका सभीको पूरा अधिकार है । पूर्व-प्रकाशित द्रव्यप्रमाणानुगममें जो गणित आया है, और उसके संबंधमें हमें जो कुछ सहायता लखनऊ विश्वविद्यालयके गणिताध्यापक डॉ. अवधेश नारायण सिंह जीसे मिली थी उसका हम उसी भागमें उल्लेख कर आये हैं । वहां हमारे अंग्रेजी नोटमें हमने यह भी कहा था कि डॉ. साहब उस गणितका विशेष अध्ययन कर रहे हैं। हमें बड़ा हर्ष है कि डॉ. सिंहजीने अब अपने अध्ययनका फल इस भागमें पाठकोंके सन्मुख उपस्थित कर दिया है। उन्होंने उस भागकी गणित पर अंग्रेजीमें एक विद्वत्तापूर्ण लेख लिखकर हमें भेजा है जो इस भागमें प्रकट हो रहा है। उससे पाठक समझ सकेंगे कि जैनियोंके द्वारा भारतीय गणितशास्त्रमें कितनी उन्नति हुई है, और धवलाके अन्तर्गत गणितशास्त्र किस कोटिका है। अगले भागमें हम इस लेखका पूरा हिन्दी अनुवाद भी अपने पाठकोंको भेंट करेंगे, और उसमें प्रस्तुत भागके क्षेत्रमिति संबंधी गणित पर भी ऐसा ही विद्वत्तापूर्ण लेख सम्मिलित करेंगे । इस सहयोगके लिये हम डॉ. सिंहके बहुत ऋणी हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रां कथन ३ प्रस्तुत खंडांश में जीवट्टाणकी तीन प्ररूपणाएं आईं हैं— क्षेत्र, स्पर्शन और काल । इनमें क्रमशः ९२, १८५ और ३४२ सूत्र पाये जाते हैं । इनकी टीकामें क्रमशः लगभग १०९, १२४ और ११५ शंका-समाधान आये हैं । हिन्दी अनुवाद में अर्थको स्पष्ट करने के लिये क्रमशः ३५, १७ और ८ विशेषार्थ, तथा २७ और २५ गणितके उदाहरण जोड़े गये हैं । तुलनात्मक व पाठ-भेद संबंधी टिप्पणियोंकी संख्या क्रमशः १९७, १४८ और २७६ है । इस प्रकार इस ग्रंथभागमें लगभग ३४० शंका-समाधान, ६० विशेषार्थ, ५२ गणितोदाहरण, तथा ६२१ टिप्पण पाये जायेंगे । इनमें और विशेषतः प्रथम I दो प्ररूपणओंमें द्रव्यप्रमाणप्ररूपणाके सदृश बहुतसा गणित भाग आया है । विशेषता यह है कि यहांका गणित प्राय: क्षेत्रमिति [ Geometry ] से संबंध रखता है, जब कि द्रव्यप्रमाणका गणित अंकगणितसंबंधी था । लोकके आकारसंबंधी मान्यताओंमें मतभेद और उनमें तथ्यातथ्य निर्णय के लिये उनके घनप्रमाण लाने की प्रक्रियाएं जैन करणानुयोगकी बिलकुल नई चीजें हैं । उसी प्रकार शंखक्षेत्र, गोझीक्षेत्र, भ्रमरक्षेत्र व मत्स्यक्षेत्र के घनफलकी प्रक्रियाएं भी ध्यान देने योग्य हैं । स्पर्शनप्ररूपणा में द्वीपसागरों के विस्तार और तत्संबंधी चंद्रोंके प्रमाणका गणित भी बड़ा सूक्ष्म है और अनेक गणितसूत्रों से संबंध रखता है । 1 इस सत्र गणितको विधिवत् समझने व समझाने में हमें पुनः हमारे कालेजके गणित अध्यापक प्रोफेसर काशीदत्तजी पांडे से बहुत सहायता मिली है । जैसे परिश्रम से उन्होंने द्रव्यप्रमाणके गणितको व्यवस्थित करा दिया था, वैसे ही उन्होंने यहां भी बड़ा योग दिया । लोकाकार संबंधी मतभेद व प्रमाणके गणित को समझने के लिये हमें उस उस आकार के काष्ठादर्शों ( wooden models ) की आवश्यकता पड़ी जो हमारे प्रियमित्र, श्रद्धेय पं. सूरजभानुजी वकीलके सुपुत्र, कुलवंतरायजी जैनी के परिश्रमसे तैयार हो गये । उन्होंने उनके कुछ चित्रादि बनाकर भी दिये जिनसे विषय के स्पष्टीकरण में हमें बड़ी सहायता मिली। उन्हीं काष्ठादर्शों व चित्रोंके आधारसे तथा अन्य गणित परसे हमारे नगरके 'न्यू हाइस्कूल' के ड्राइंग मास्टर श्रीयुक्त एस. वाय. पतकी, डी. टी. सी, ने हमें वे वीस चित्र बनाकर दिये जिनके ब्लाक इस भाग में प्रकट किये जा रहे हैं, तथा जिनकी सहायता से तत्संबंधी गणित हमारे पाठकों को भी सुग्राह्य हो सकेगा । इस सब सहायता के लिये हम उक्त सज्जनोंके बहुत कृतज्ञ हैं । हमारी प्रतियों की साधन-सामग्री पूर्ववत् कायम है जिसके लिये हम अमरावती जैन मंदिर, सिद्धान्तभवन आरा, तथा कारंजा ब्रह्मचर्याश्रमके अनुगृहीत हैं । हमारे संशोधन सहायक भी पूर्ववत् स्थिर हैं । गत भागकी प्रस्तावना के भीतर हमने एक शंका समाधानका स्तम्भ भी रखा था जिसमें उस समय तक आई हुई चौवीस शंकाओं के उत्तर दिये गये थे । समालोचकोंने इस स्तम्भ पर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्राक्कथन प्रकट किया, और आगे भी उसे नियत रखनेकी प्रेरणा की । किन्तु इस बार हमारे पास कोई विशेष शंकाएं नहीं आईं। तब हमने इसके लिये पत्रोंमें एक सूचना निकाली, जिसके फलस्वरूप जो शंकाएं हमारे पास आईं उनका हमने पूरा उपयोग किया है, और प्रस्तुत भागकी प्रस्तावना के अन्तर्गत शंका-समाधान, एवं शुद्धिपत्र में पूर्वभागों के पाठका संशोधन उसाकी सुपरिणाम है । इस ओर विशेषरूप से रुचि दिखलाने के लिये श्रीयुक्त नानकचंदजी, खतौली, श्रीयुक्त रतनचंदजी मुख्तार, सहानपुर, और श्रीयुक्त नेमिचंदजी वकील, सहारनपुर, को हम धन्यवाद देते हैं । यदि उनकी भेजी गई कोई शंकाएं या शुद्धियां, यहां सम्मिलित नहीं की गईं हैं तो समझना चाहिये कि उनका संकलन पूर्वभागों में हो चुका है जिनका पाठकोंको सदैव ध्यान रखना चाहिये | कभी कभी शंकाकार हमसे ऐसा प्रश्न भी कर बैठते हैं कि अमुक बात अमुक प्रकार से क्यों नही कहीं या अमुक बात क्यों नहीं जोड़ी गई ? इसके उत्तर में हम अपने पाठकों का ध्यान केवल हमारे इस आदर्श की ओर आकर्षित करते हैं कि नामूलं लिख्यते किञ्चित्, नानपेक्षितमुच्यते ' इस महान् कार्यमें हमें अब उत्तरोत्तर कठिनाइयों का अनुभव हो रहा है। जैसा कि हम पूर्व भागमें प्रकट कर चुके हैं, हमारे एक सहयोगी पं. फूलचंद्रजी शास्त्री उस भाग के सम्पूर्ण हो सकने के पूर्व ही आकस्मिक विपत्ति के कारण यहांसे चले गये थे। तबसे वे फिर वापिस नहीं आसके । अतएव इस भागका संपूर्ण कार्य केवल पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीकी सहायतासे हुआ है । प्रूफ और प्रति मिलान में तिलोयपण्णत्ति-विभाग के कार्यकर्ता पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीका साहाय्य रहा है । इधर यूरोपीय युद्धके कारण कागज आदिका भाव बेहद बढ़ता गया । यथेष्ट कागज ठीक समय पर मिलना भी अशक्य हो गया । इतने पर अमरावती नगरमें साम्प्रदायिक झगड़ेने कुछ समय के लिये ऐसा भीषणरूप धारण किया कि आफिस और प्रेसका कार्य बंद रखना पड़ा । पुस्तकोंकी बिक्री भी इतनी नहीं होरही जिससे आगेका कार्य चलता जावे। इससे हमारा फंड भी कुछ कुछ कम होता जा रहा है । इन सिद्धान्त ग्रंथोंके प्रचारको रोकने का भी जो प्रयत्न हो रहा है उसका हम ऊपर उल्लेख कर ही आये हैं । किन्तु इन सब कठिनाइयों के होते हुए भी किसी अज्ञात शक्तिके प्रभावसे कार्य अग्रसर होता ही गया। हम कहां तक अपने आदर्शको स्थिर रख सके हैं, इसका निर्णय करना हमारे मर्मज्ञ पाठकोंके अधिकारमें है । किंग एडवर्ड कालेज, अमरावती १५-१२०४१ हीरालाल जैन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTORY The present volume contains three prarūpaņās, namely, Kshetra, Sparsana and Kala, out of the eight prarüpanas of Jivaṭṭhāna, of which two, namely, Sat and Dravya-pramāņa have already been published in the previous three volumes, while the last three, namely, Antara, Bhava and Alpa-bahutva are going to be included in the next volume. The Kshetra prarupana contains 92 Sutras and concerns itself with the determination of the volume of space that living beings occupy under the various conditions of life and existence. The Sutras confine themselves to the treatment of the subject under the usual fourteen spiritual stages (Gunasthanas) and the fourteen soul-quests (Margaṇā-sthānas ). But the commentator introduces ten other conditions of life which have to be taken into consideration. These fall under three main classes, namely, the place of habitation of the beings (Svasthana), their expansion (Samudghata) and their journey for rebirth (Upapada). The first of these includes the usual place of habitation (Svasthäna-svasthäna) and places of occasional visits (Vihāravat-svasthana). The expansion of the soul-substance beyond its usual volume (Samudghata) may be due to pain (Vedanā), or passion (Kashaya), or for a temporary transformation of personality(Vikriyä), or for a visit to the next place of birth just before death (Maraṇantika), or by effulgence of lustre for evil or good (Taijasa), or for reaching a learned person for the removal of a doubt in knowledge in the case of saints (Aharaka), or for getting rid of the remnant karmic bonds in the case of an all-knowing saint (Kevali-samudghata ). Thus, the commentator calcu. lates the volume of space occupied by the living beings in these ten different conditions under the different spiritual stages and soul-quests. The spatial units adopted for these measurements are five, namely, (1) the entire universe (Sarva-loka), (2) the lower universe (Adholoka), (3) the upper universe (Urdhva-loka), (4) the middle world (Madhyaloka), and (5) the human world (Manusa-loka ). To make these standards definite and precise, the commentator divides the limitless space into two, namely, the Alokakaśa which is pure void and limitless, and the Lokakasa which is situated in the middle of the former, where life and matter subsist and which is limited. It is this Lokakasa which has been adopted as the largest measure in the treatment of volumes. As regards the shape and Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ volume of this universe, the commentator is confronted with two divergent views. According to one view it is in the form of three conical frusta with a common cricular section in the middle; while according to the other view it is in the form of three frusta of pyramids with a common rectangular base in the middle. Virasena with his philosophic insight, discriminating genius and mathematical skill ultimately rejects the former view and adopts the latter. His conclusions are that the entire universe ( Lokakaśa ) has a total height of 14 rajjus and is in its volume 79=343 cubic rajjus, consisting of the lower universe which is 196 cubic rajjus and the upper universe which is 147 cubic rajjus. Between the lower and the upper universe is the rectangular section calied the middle world which is 1x7=7 square rajjus, and which contains in its middle the human world which is a circular area of 45 lakhs of yojanas in diameter. The rajju is thus the standard unit of this spatial measurement and it is only determined as innumerable yojanas long, equal to the smaller side, and of the larger side of the rectangular middle world, of the height of the lower or upper world and of the total height of the entire universe. This discussion as well as similar others bring to light several geometrical problems that confronted our ancient thinkers, and their solutions throw a considerable light upon the evolution of mathematical processes and theories in this country. We have tried to illustrate some of these by twenty diagrams in addition to a large number of examples, Under the Sparśana-prarupana wich contains 185 Sutras, we find the volumes of space similarly considered from the point of view of the past as well as the future status of those beings, in addition to the present to which Kshetra-prarupana confines itself. The question here is the volume of space which beings of different spiritual stages and soul-quests ever happen to touch under one of the ten conditions mentioned above. In this connection the determination of the number of heavenly luminaries shining above the innumerable islands and seas gives rise to a number of interesting mathematical excercises, ( see pp 150-161 of the text ). ! In the Kala-prarupana which contains 342 Sutras, the consideration is of the minimum and maximum periods of time spent by the souls, singly or in aggregates, in the various spiritual stages and soul-quests, The smallest period of time comprehended is an instant (Samaya ) of which innumerable are included in an avali and a breath (Prana ) which is equal to 18 of a second ( see Vol. III, Introduction p. 34). The series Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of periods of time rises on to a Muhurta ( 48 Minutes), a day, a fortnight, a month, a year, a Yuga a Purvanga, a Purva, and so on to a Palyopama and a Sagaropama and ultimately to an Utsarpini and Avasarpini which constitute a Kalpa. The longest period of timo conceived and denominated is a Pudgala-parivartana (for which see p. 330 text and explanatory note). In interpreting the mathematical part of these texts I again received very valuable assistance from my colleague Mr. K. D. Panday, professor of mathematics in King Edward College, Amraoti. Without his help here, as in the previous volume, it would have been almost an impossible task for me to explain adequately the mathematical portions. As I mentioned in the previous volume, Dr. Avadhesh Narain singh, professor of Mathematics in the Lucknow University and author of the History of Hindu Mathematics, has taken a keen interest in the mathematical contents of these texts. He has now studied the mathematical portions of the III volume and has obliged me by writing out a dissertation on the mathema. tical contents of that volume. The same is being published hore under the caption " Mathematics of Dhavala.” It is expected that he would continue his valuable study of these texts and the readers might look forward to a very interesting note on the geometrics of the present volume in the volume to be issued next. Another topic dealt with in the Hindi Introduction of this volurne is an answer to the objection raised in a certain quarter that Jaina traditions prohibit the study of these Sacred Texts by layınen, and therefore these texts should neither be published in a printed form, nor should they be taught in Jaina Pathasalas, nor should they be allowed to be read anywhere by any body except by the Jaina ascetics. A critical examination of all the traditions bearing on this subject shows that an injunction against the study of Siddhanta by the laymer is found in a few books dealing with the duties of Jaina house-holders. But all these books are found to have been written by a few obscure and insignificant writers belonging to a period subsequent to the 12th century A. D. Again, they either do not make clear what is meant by Siddhanta, or explain it in a manner so as to make the present texts, as well as all other available books, fall outside the sphere of Siddhanta. The injunction is, moreover, in direct conflict with the statements of the most ancient and authoritative Jaina writers who have strongly recommended the study of the Jaina texts of the highest kind by all, laymen as well as ascetics. The author of the Dhavala himself lays down in clear and unmistakable terms at every step of his commentary that the Sutras as well as the commentary are so designed Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ir as to be useful to all mankind, dull as well as intelligent. The tradition is thus found to be a very late one invented by some man of narrow outlook and small brain during the age of decadence, and it is altogether incompatible with the whole spirit and idealogy of Jainism and with the clear and definite recommendations of all other writers of far greater importance and authority, A number of queries concerning the meaning and significance of certain statements in the previous volumes have also been answered in the Hindi Introduction. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MATHEMATICS OF DHAVALĀ Introductory Remarks It has been known that in India the study of Ganita - arithmetic, algebra. mensuration etc -was carried on at a very early date. It is also well known that the ancient Indian mathematicians made substantial and solid contributions to mathematics. In fact they were the originators of modern arithmetic and algebra We have been accustomed to think that amongst the vast population of India only the Hindus studied mathematics and were interested in the subject, and that the other sections of the population of India, e.g the Bhuddhists and the Jainas, did not pay much attention to it. This view has been held by scholars because mathematical works written by Buddhist or Jaina mathematicians had been unknown until quite recently. A study of the Jaina canonical works, however, reveals that mathematics was held in high esteem by the Jainas. In fact the knowledge of mathematics and astronomy was considered to be one of the principal accomplishments of the Jaina ascetics.1 We know now that the Jainas had a school of mathematics in South India, and at least one work-the Ganita-sara-samgraha by Mahāvīrācărya-of this school was in many ways superior to any other existing work of that time. Mahāvírācārya wrote in 850 A. D. and his work although similar in general outline to the works of the Hindu mathematicians like Brahmagupta, Sridharācārya, Bhāskara and others, is entirely different in details, e. g., the problems in the Ganita-sara-samgraha ure almost all different from those in the other works, From the mathematical literature available at present we can say that important schools of mathematics flourished at Pataliputra ( Patna ), Ujjain, Mysore, Malabar, and probably also at Benares, Taxila and some other places. Until further evidence is available, it is not possible to say precisely what the relation between these schools was. At the same time we find that works coming from the different schools resemble each other in their general outline, although they differ in details. This shows that there was intercommunication between the various schools-that scholars and students travelled from one school to another, and that discoveries made at one place were soon communicated throughout the length and breadth of India. It seems that the spread of Buddhism and Jainism gave an impetus to the study of the various sciences and arts. The religious literature of India in general and of Buddhism and Jainism in particular is full of big numbers. The use of big numbers necessitated the development of a simple symbolism for writing those numbers, and 1. Cf. Bhagavatî-sūtra with the commentary of Abhayadeva Sūri edited by Âgamodayasamiti of Mehesana, 1919, Sutra 90; English translation by Jacobi of the Uttarādhyayana-sútra, Oxford, 1895, Ch. 7, 8, 38. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ii has been responsible for the invention of the decimal place value notation. It is now established beyond doubt that the place value system of notation was invented in India about the beginning of the Christian Era - the brightest period of Buddhism and Jainism. The new notation was an instrument of great power and accelerated the development of mathematics from the crude Vedic stage - as found in the Sulba sutras to the finished stage of the fifth century-as found in the works of Aryabhata and Varahamihira. One very significant fact which has escaped the notice of historians of mathematics is the following: whilst the general literature of the Hindus, the Buddhists, and the Jainas is continuous from the third or the fourth century B. C. right up to the middle ages, in the sense that works representing each century are found, there is a gap in the mathematical literature. In fact there is hardly any mathematical text earlier than the Aryabhatiya which was composed in 499 A. D. The only exception is a fragmentary manuscript known as the Bakhshali manuscript, which probably belongs to the second or the third century A. D. This manuscript, however, fails to give us any detailed information regarding the state of mathematical knowledge at the time of its composition for the reason that is not strictly speaking a Mathematical text as the treatises of Aryabhata, Brahmagupta or Sridhara etc. It is of the nature of notes on some selected mathematical problems. All that we can infer from the manuscript is that the piace value numerals as well as the fundamental operations of arithmetic with them were well known, and that some types of problems treated by later mathematicians were also known. It has already been pointed out that mathematics as found in the Aryabhatiya is highly developed, for we find in it a treatment of the entire elementary arithmetic of today including the rules of proportion, interest, barter and exchange, and of algebra up to the solution of the simple and the quadratic equations, simple. indeterminate equations etc. The question arises: Did Aryabhata borrow from some foreign source or is the material contained in the Aryabhatiya indigenous and of Indian origin? Aryabhata writes: Having paid reverence to Brahman, the Earth, the Moon, Mercury, Venus, the Sun, Mars, Jupiter, Saturn, and the asterisms, Aryabhata sets forth the science which is honoured here at Kusumapura "1 This shows that he did not borrow from a foreign source. The study of the history of mathematics in other countries leads to the same conclusion, for the mathematics of the Aryabhatiya was far in advance of what was known at that time in any other country of the world. The possibility of borrowing from some foreign source having been ruled out, the question arises: How is it that practically no mathematical work anterior to that of Aryabhata is available? The explanation is simple enough. The place value system of notation was invented some time about the beginning of the Christian Era. It must have taken four or five hundred years to come into general use. Aryabhata's work seems to be the first good text book employing the new arithmetic of the place value numerals. Works anterior 1. Aryabhatiya, ii, 1. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iii to Aryabhata's either used the old type of numerals or were not good enough to stand the test of time. I think that Aryabhata's great popularity as a mathematician was, in a great measure, due to his being the first to write a good text book employing the place value numerals. Aryabhata was responsible for driving out and killing all previous text books. This explains why we get a series of works from 499 A. D. onwards while no works belonging to earlier times are available. Thus we have practically no material to trace the development and growth of mathematies in India before 500 A. D. It becomes a question of paramount importance to hunt and trace out works which may give information regarding the knowledge of mathematics in India anterior to Aryabhata. Mathematical works having been lost, we have to scan and analyse Hindu, Buddhist and Jaina literatures in general, and their religious literatures in particular, to find what material we can in order to reconstruct the history of mathematics in India before 500 A. D. In several of the Puranas we have portions dealing with mathematics and astronomy. Likewise in most of the Jains canonical works there is to be found some mathematical or astronomical material. This material represents the traditional mathematics of India, and such material is generally about three to four centuries older than the age of the work in which it is contained. Thus if we examine a religious or philosophical work written in the period 400 to 800 A. D., its mathematical content will belong to O. A. D. to 400 A. D. It is in the light of the above remarks that we regard the discovery of the Dhavala, a commentary on the Satchandagama, written in the beginning of the ninth century as very important. Mr. H. L. Jaina has placed scholars under a permanent debt of gratitude by editing the work and getting it published. The Jaina school of mathematics. Since the discovery and publication of the Ganita-sara samgraha by Rangacarya, in 1912, scholars have suspected the existence of a school of mathematics run exclusively by Jaina scholars. A recent study of some of the Jaina canonical works has brought to light vering references to Jains mathematicians and mathematical works. The religious literature of the Jainas is classified into four groups, called anuyoga, meaning " the exposition of the principles (of Jainism )." One of them is called karananuyoga or ganitanuyoga, i. e. the exposition of the principles dependent upon mathematics. This shows the high position accorded to mathematics in Jaina religion and philosophy. Although the names of several Jaina mathematicians are known, their works have been lost. The earliest among them is Bhadrabahu who died in 278 B. C. He is known to be the author of two astronomical works: (i) a commentary on the See the Introduction by D. E. Smith to the Ganita-sara-samgrahs ed. by Rangacarya Madras, 1912. 2. B. Datta: The Jaina school of Mathematics, Bulletin, Cal. Math. Soc., Vol. XXI (1929), pp. 115-145. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . iv Suryaprajnapti and (ii) an original work called the Bhadrabahavi Samhita. He is mentioned by Malayagiri (c. 1150) in his commentary on the Suryaprajnapti, and has been quoted by Bhattotpala ( 966 )! Another Jaina astronomer of the name of Siddhasena has been quoteri by Varähamihira (505) and Bhattotpala. Mathematical quotations in Ardha-magadhi and Prakrit are met with in several works. The Dhavala contains a large number of such quotations. These quotations will be considered at their proper places, but it must be noted here that they prove beyond doubt the existence of mathematical works written by Jaina scholars which are now lost. Works written by Jaina scholars under the litle of Ksetra-sa masa and Karana-bhavana dealt with mathematics, but no such works are available to us now. Our knowledge of Jaina mathematics which is of an extremely fragmentary character is gleaned from a few non-mathematical works such as Sthananga-sutra, Tattvarthadhigamasutra-bhasya of Umasvati, Suryaprajnapti, Anuyogadvara-sutra, Triloka Prajnapti, Trilokasara, etc. To these may now be added the Dhavala. The importance of the Dhavala. The Dhavala was written by Virasena in the beginning of the ninthcentury. Virasena was a philosopher and religious divine. He certainly was not & mathematician. The mathematical material contained in the Dhavala may therefore be attributed to previous writers, especially to the previous commentators of whom five have been mentioned by ludranandi in the Srutavatara. These commentators were Kundakunda, Shamakunda, Tumbulura, Samantabhadra and Bappadeva, of whom the first flourished about 200 A. D. and the last about 600 A. D. Most of the mathematical material in the Dhavala may therefore be taken to belong to the period 200 to 600 A, D. Thus the Dhavala becomes a work of first rate importance to the historian of Indian mathematics, as it supplies information about the darkest period of the history of Indian Mathematics--the period preceding the fifth century A. D. The view that the mathematical material in the Dhavala belongs to the period before 500 A. D. is corroborated by detailed study. For instance, many of the processes described in the Dhavala are not be found in any known mathematical work. Furthermore, there is a certain imperfection which, one acquainted with the later Indian mathematical works, can easily discern. The mathematics in the Dhavala lacks the finish and the refinement of the Aryabhatiya and later works. Mathematical Content of the Dhavala Numbers and Notation-The author of the Dhavala is fully conversant with the place value system of notation. Evidence of this is to be found everywhere: We quote some methods of expressing numbers taken from quotations given in the Dhavala 1. 2. Brhat Samhita, ed. by S. Dvivedi, Benares, 18.5, p. 226. Silanka in his commentary on the Sutrakrtanga Sutra, smnyadhyayana, Sanuyogndvara, verse 28, quotes three rules regarding permutations and combinations. These rules are apparently taken from some Jaina mathematical work. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (i) 79999998 is expressed as a number which has 7 in the beginning, 8 at the end, and 9 repeated six times in between1. (ii) 46666664 is expressed as sixty-four, six hundreds, sixty-six thousands sixty-six hundred-thousands, and four kotis2. (iii) 22799498 is expressed as two kotis, twenty-seven, ninety-nine thousands four and ninety-eight". The method used in (i) is found elsewhere also in Jaina literature and at : some places in the Ganita-sara-samgraha. It shows familiarity with the place In (ii) the smaller denominations are expressed first. This is not in accordance with the general practice current in Sanskrit literature. Likewise, the scale of notation is hundred and not ten as is generally found in Sanskrit literature,5 In Pali and Prakrit, however, the scale of hundred is generally used. In (iii) the highest denomination is expressed first. Quotations (ii) and (iii) are evidently from different sources. Big numbers-It is well known that big numbers occur frequently in Jaina literature. In the Dhavala also the various kinds of jiva-rasi, dravya-pramāņa etc. are discussed. The biggest number that is definitely stated is the number of developable human souls. In the Dhavala" it is stated to lie between the sixth-square of two and the seventh square of two; or to be more precise, between koti-koti-koti and kotikoti-koti-koti, i. e., 6 2 2 between and 2 and more definitely, between (1,00,00,000 )3 and (1,00,00,000) The actual number of such souls known from other works? is 79,22,81,62,51,42,64,33,75 93,54,39,50,336. This number occupies twety-nine notational places. It has the same, number of notational places as (1,00,00,000 )4 but is greater. This is known to the author of Dhavala who calculates the area of the world inhabited by men and shows that the larger number of men can not be contained in it, and hence that view was wrong. The Fundamental Operations-Mention is found of all the fundamental operations addition, subtraction, division, multiplication, the extraction of square and cube-roots, the raising of numbers to given powers, etc. These operations are mentioned 6. Dhavala III, p. 253. 7. el Gommatasara, Jivakanda S. B. J. Series, p. 104. 7 1. Dhavala III, p. 98, quoted verse 51. cf. Gommata-sâra, Jiva kanda, p. 633. 2. Dhavala III, p. 99, quoted verse 52. 3. Dhavala III, p. 100, quoted verse 53. 4. of Ganita-sara-samgraha. i, 27. See also History of Hindu Mathematics by Datta and Singh, Vol. I, Lahore, 1935, p. 16. 5. Datta and Singh, 1, c, p. 14. 2 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi both with respect to integers and fractions. The theory of indices as described in the Dhavalā is somewhat different from what is found in the mathematical works. This theory is certainly primitive and is earlier than 500 A. D. The fundamental ideas seem to be those of (i) the square, (ii) the cube, (iii) the successive square, (iv) the successive cube ( v ) the raising of a number to its own power, (vi) the squareroot (vii) the oube:root (viii) the successive square-root, (ix) the successive cuberoot, etc. All other powers are expressed in terms of the above. For example, 83/3 is expressed as the first square-root of the cube of a; 89 is expressed as the cube of the cube of a; a6 is expressed as the square of the cube or the cube of the square of a; ebo. The successive squares and square-foots are as below lat square of a means 2nd equare, of & means ord square of a means (al )2 = af = 22 nth square of a means Similarly a 1/2 1st square-roof of a means 2nd square-root of a means 3rd square-root of a means a 1/2 alla ........ nth square-root of a means al Vargita-samvargita-The technical term vargita-samvargita has been used for the raising of a number to its own power. For instance, ma is the vargitasamvargita of n. In connection with this the Dhavata mentions an operation called Viralana-deya-" spread and give ". The Viralana (spreading) of a number means the separating of the number into its unities, i. e, the viralana of n is 11111 ......n times. Deya ( giving ) means the substitution of n in the place of 1 everywhere in the above. The vargita-samvargita of n is obtained by multiplying together the n’s obtained by the viralana-deya. The result is the first vargita-samvargita of n, i.e., lat wargita-samvargita af n is na The application of the process of viralana-deya once again, i. e., to ng gives the Ind vargita-samvargita of n (n ) . A further application of the same procedure gives the 1. Dhavala Vol. III, p. 53. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3rd vargita-samvargita of n (na) The Dhavala does not contemplate the application of the above more than thrice. The third vargita-samvargita has been used very often! in connection with the theory of very large or infinite numbers. That the process yields very big numbers can be soon from the fact that the 3rd vargita-samvargita of 2 is 256266, (έλ από από (ii) aman (iii) (am vii The laws of indices-From the above description it is obvious that the author of the Dhavala was fully conversant with the laws of indices, viz., 7 6 23 / 22 = 22 nn 22o. am+n am -D amn Instances of the use of the above laws are numerous. To quote one interesting case, it is stated that the 7th varga of 2 divided by the 6th varga of 2 gives the 6th varga of 2. That is nn {} í na "The operations of duplation and mediation were considered important when the place value numerals were unknown. There is no trace of these operations in the Indian mathematical works. But these processes were considered to be important by the Egyptians and the Greeks and were recognised as such in their works on arithmetic. The Dhavala contains traces of these operations. The consideration of the successive squares of 2 or other numbers was certainly inspired by the operation of duplation. which must have been current in India before the advent of the place value numerals. Similarly, there are traces of the method of mediation. In the Dhavala we find generalisation of this operation into a theory of logarithms to the base 2, 3, 4, etc. Logarithms-The following terms have been defined in the Dhavala3: (i) Ardhaccheda of a number is equal to the number of times that it can be halved, Thus the ardhaceheds of 2mm. Denoting ardhaecheda by the abbreviation Ac, we can write in modern notation Ac of x (or Ac x) = log x, where the logarithm is to the base 2. (ii) Vargasalaka of a number is the ardhsccheda of the ardhaccheda of that number, i. e., Vargasalaka of x = Vax Ac Aex log log x, where the logarithm is to the base two. (iii) Frkaccheda of a number is equal to the number of times that it can be divided by 3. Thus 1. Dhavala III, p. 20 H. 2. ibid p. 253 ft. 3. ibid p. 21. 4. ikid p. 56. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viji Trkaccheda of x = Tex = log 3x, where the logarithm is to the base 3. (iv) Caturthaccheda of a number is the number of times that it can be divided by 4. Thus Caturtha-ccheda of s = Ce x = Log 45, where the logarithm is to the base 4. The following results regarding logarithms have been used in the Dhavala: (1) Log (min) = log m - log n. (2) Log (m. n ) = log m + log n. ( 3 )3 2log m = m, where the logarithm is to the base 2. ( 4 )4 Log ( ** )2 = 2x log x. (5)5 Log log ( x ) = log x + 1 + log log , ( for the left side = log ( 2x log x) = log x + log 2 + log log x = log x + 1 + log log x. as log 2 to the base 2 is 1 ). ( 6 )6 Log ( x* )** = x* log xx (7) Let a be any number, then 1st vargita-samvargita of a = 24 = B say] 2nd vargita-samvargita of a = BB = y say ) 3rd vargita-samvargita of a = yy =D [ eay ) The Dhavala gives the following results7 -- (i) Log B = a log a (ii) Log log B = log a + log log a. (iii) log y = Blog B (iv) log log y = log B + log log B = log a + log log a + a log a. (v) log D = y log y (vi) log log D = log y + log log y. and so on. ( 8 )8 Log log D < B2 This inequality gives the inequality Blog B + log B + log log B < B2 1. ibid p. 56. 2. ibid p. 60. 3, ibid p. 55. 4. ibid p. 21 ff. 5. 1. e. . 6. 1. c. It should be mentioned here that now here in the text are these logarithms restricted to be integral. The number x is any number. xx is the first vargita-samvargita rasi. and ( xx ** is the second vargita-samvargita rasi. 7. Dhavală III, p. 21-24. i . . 8. ibid p. 24. : Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ix Fractions- Besides the fundamental arithmetical operations with fractions, knowledge of which has been assumed in the Dhavala, we find a number of interesting formulae relating to fractions, which are not found in any known mathematical work. Amongst these may be mentioned the following: - [1]1 + [2] Let a number m be divided by the divisors d and d', and let q and q' be the quotients (or the fractions). The following formula gives the result when. m is divided by d d' [3] If [4] I and n2 n(n/p) [ 5 ] If and [6] If m d+ ď or 8 b & b = ¶ d (q-q) + m' A a b+ b 8 b a b 8 b+c q, then n b n -C q' (979)±1 q 1 (9/9) and q, 1. Dhavala p. 46. 3. ibid p. 47, quoted verse 27. 4. ibid p. 46, quoted verse 24. 5. ibid p. 46, quoted verse 24. 6. ibid p. 46, quoted verse 25. = = q = = 9, and . - q', then = = m. then 9+ q n P1 q+ & b' q n+1 q n-1 b C = q + q b ; ; 1 q+c, then 2. ibid p. 46. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o q+1 and if a olo = q - e, then— b b + [7.J! If = Ö - If ŏ = 4, and † is another fraction, then = gribe 4, and 6+ x = q – c, then [ 8 ] + olo te ole me ole ole ole bc 9-C [ 9 ]3 = q, and his = q + c, then— 1 bc q + c [10 * If 5 = 4 and 5+ 6 = , then– [11] If = , and be = g', then, Q = q + 626 The above results are all found in quotations given in the Dhavalā. They are not found in any known mathematical work. The quotations are from Ardha-Măgadhi or Prakrit works. The presumption is that they are taken from Jaina works on mathematics or from previous commentaries. They do not represent any essential arithmetical operation. They are relics of an age when division was considered & difficult and tedious operation. These rules certainly belong to an age when the placevalue notation was not in common use for arithmetical operations. The rule of three-The rule of three is mentioned and used at several 1. ibid p 46, quoted verse 28. 2. ibid p 48, quoted verse 29. 3. ibid p. 49, quoted verse 30. 4, ibid p, 49, quoted verse 31. 5. ibid p. 49, quoted verse 32. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ places, The technical terms in connection with the process are phala, iccha and pramana, the same as found in the known mathematical works. This suggests that the rule of three was known and used in India even before the invention of the place-value notation. The Infinite. Use of big numbers-The word infinite used in various senses is found in the literature of all ancient peoples. A correct definition and appreciation of the idea, however, came much later. It is natural that the correct definition was evolved by people who used big numbers, or were accustomed to such numbers in their philosophy. The following will show that in India the Jaina philosophers succeeded in classifying the various notions connected with the term infinite, and in evolving the correct definition of the numerical infinite. The evolution of suitable notation for expressing big numbers as well as of the idea of the infinite arise when abstract reasoning and thinking reach a certain high standard. In Europe, Archimedes tried to estimate the number of sand particles on the sea-shore and the Greek philosophers speculated about the infinite and the limit. They, however, did not possess suitable symbols for the expression of big numbers. In India, the Hindu, Jaina and Buddhist philosophers used very big numbers and evolved suitable symbolism for the purpose. In particular, the Jainas tried to form an estimate of all living beings in the Universe, of time instants, of locations I points or places ] in the Universe and so on. Three methods of expressing big numbers were employed: (1) The place-value notation using the scale of ten. In this connection it may be noted that number-names based on the scale of ten2 were coined to express numbers as large as 10140. xi (2) The law of indices (varga-samvarga) was employed to give compact -expressions for big numbers, e. g. (1) (2") = 4, (i) (2,29 = 4 = 256, 22 {(2) **} 2.2 {(2 256 256 (iii) is called the third Vargila-samvargita of 2. This number is greater than the number of protons and electrons in the Universe. 1. See, for example, Dhavala III, p. 69 and 100 etc. 2. For details of big numbers and numèrical denominations, see Datta and Singh, History of Hindu Mathematics ( Published by Motilal Banarsi Dass, Lahore) Part 1, pp. 11 f. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) The logarithm ( ardhaccheda ) or the logarithm of & logarithm ( ardhaccheda-salaka ) was used to reduce the consideration of big numbers to those of smaller ones, e. g. (i) Logg 2 = 2 (ii) Log, log, 44 = 3, (iii) Log, log, 256256 = 11. It is no wonder to find that today we take recourse to one or the other of the above three methods of expressing numbers. The decimal place-value notation has become the common property of all nations. Logarithms are used whenever cal. culations with big numbers have to be made. Instances of the use of the law of indices to express magnitudes in modern physics is common. For instance, the number of protons in the Universe has been calculated and expressed as 136.2256 And Skewes' number which gives information regarding the distribution of primes is expressed in the form-- All the above methods of expressing numbers have been used in the Dhavală. It follows that the methods were commonly knowa before the seventh century A. D. in India. ........ 1. The number 136. 2256 expressed in the decimal notation is 15,747,724,136,275,002,577 605,653,961,181,555.468,044,717,914, 572,116,709,366,231,425,076,185,631,031,296. It will be observed that the third vargita-samvargita of 2, i. e., 256256 is greater than the number of protons in the Universe. If we imagine the entire Universe as a chess-board, and the protons in it as chessmen, and if we agree to call any interchange in the position of two protons a' move' in this cosmic game, then the total number of possible moves would be the number - 84 10 10 10 This number is also connected with the theory of the distribution of primes. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiii Classification of the infinite. The Dhavalā gives a classification of the infinite. The term infinity has been used in literature in several senses. The Jaina classification takes into account all these. According to it there are eleven kinds of infinity as follows: (1) Namananta - Infinite in name. An aggregate of objects which may or may not really be infinite might be called as such in ordinary conversation, or by or for ignorant persons, or in literature to denote greatness. In such a context the term infinite means infinite in name only, i. e., Nämänanta. (2) Sthapanananta-Attributed, or associated infinity. This too is not the real infinite. The term is used in case infinity is attributed to or associated with some object. (3) Dravyananta-Infinite in relation to knowledge which is not used. This term is used for persons who have knowledge of the infinite, but do not for the time being use that knowledge. (4) Gananananta-The numerical infinite. This term is used for the actual infinite as used in mathematica. (5) Apradesik ananta-Dimensionless, i. e., infinitely small. (6) Ekananta-One directional infinity. It is the infinite as observed by looking in one direction along a straight line. (7) Ubhayananta-Two directional infinite. This is illustrated by a line continued to infinity in both directions. (8) Vistarananta--Two dimensional or superficial infinity. This means an infinite plane area. (9) Sarvananta-Spatial infinity. This signifies the three dimensional infinity, i. e. the infinite space. (10) Bhavananta-Infinite in relation to knowledge which is utilised. This term is used for a person who has knowledge of the infinite, and who uses that knowledge. (11) Saswatananta-Everlasting or indestructible. The above classification is a comprehensive one, including all senses in which the term ananta is used in Jaina literaturel. Gananananta (numerical infinite ) The Dhavalā clearly lays down that, in the subject-matter under discussion, by the term ananta ( infinite ) we always mean the numerical infinite, and not any 1. 2. Dhavala III, p. 11-16. ibid p. 16. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiv of the other infinities enumerated above. For, in the other kinds of infinity " the idea of enumeration is not found "l. It has also been stated that the numerical infinite is describable at great length and is simpler". This statement probably means that in Jaina literature ananta (infinite ) was defined more thoroughly by different writers and had become commonly used and understood. The Dhavalā, however, does not contain a definition of ananta. On the other hand, operations on and with the ananta are frequently mentioned along with numbers called samkhyata and asamkhyata. The number samkhyata, asamkhyata and ananta have been used in Jaina literature from the earliest known times, but it seems that they did not always carry the same meaning. In the earlier works ananta was certainly used in the sense of infinity as we define it now, but in the later works anantananta, takes the place of ananta. For example, according to the Trilokasara, & work written in the 10th century by Nemicandra, Parita-ananta, Yuktananta and even Jaghanya-anantananta is a very big number, but is finite. According to this work, numbers may be divided into three broad classes: (i) Samkbyāta, which we shall denote by- s; (ii) Asamkhyāta, which we shall denote by- a; (iii) Ananta, which we shall denote by- A. The above three kinds of numbers are further sub-divided into three classes as below:1. Samkhyata (numerable ) numbers are of three kinds: (i) Jaghanya-samkhyāta (smallest numerable ) which we shall denote by sj; (ii) Madhyama-samkhyāta (intermediate numerables ) which we shall depote by-sm; (iii) Utkrsta-samkhyāta ( the highest numerable ) which we shall denote by-su. II. Asamkhyāta (un-numerable ) numbers are divided into three classeg:(i) Parita-asamkhyāta ( first order unnumerable ) which we shall denote by- ap; (ii) Yukta-asamkhyāta (medium unnumerable ) which we shall denote by- ay; (iii) Asamkhyāta-asamkhyāta (unnumerably-unnumerable ) which we shall denote by-aa. Each of the above three classes is further sub-divided into three classes, viz. Jaghanya ( smallest ), Madhyama (intermediate ) and Utkrsta (highest). Thus we 1. ibid p. 17. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV have the following numbers included under Asamkhyāta: 1. Jaghanya-parita-asamkhyata 2. Madhyama-parita-asamkhyata 3. Utkrsta-parita-asamkhyata api apin ара Api Jaghanya-yukta-asa mkhyata ayj 2. Madhyama-yukta-asamkhyata aym 3. Utkrsta-yukta-asamkhyata ayu 1. Jaghanya-asam khyata-asamkhyata aaj 2. Madhyama-asamkhyata-asamkhyata aam 3. Utkrsta-asamkhyata-asamkhyata aau III, Ananta, which we denote by A, is divided in to three classes (i) Parita-Ananta ( first order infinite ) which we shall denote by- Ap; (ii) Yukta--Ananta (medium infinite ) which we shall denote- Ay; (iii) Ananta-Ananta (infinitely infinite ) which we shall depote by- AA. As in the case of the asamkhyāta numbers, each of these is further subdivided into three classes- Jaghanya, Madhyama and Utkrsta- so that we have the following numbers in the Ananta class: 1. Jaghanya-parita-ananta 2. Madhyama-parita-ananta Apm 3. Utkrsta-parita-ananta Apu 1. Jaghanya-yukta-ananta Ayj 2. Madhyama-yukta-ananta Aym 3. Utkrsta-yukta-ananta Ayu 1. Jaghanya-ananta-ananta ААj 2. Madhyama-anantil-ananta A Am 3. Utkrsta-ananta-ananta A Au Numerical value of the Samkhyata ---According to all Jaina authorities, the Jaghanga-samkhyata is the number 2. being, according to them, the smallest number that represents multiplicity. Unity was not counted as a member of the aggregate of Samkhyata numbers. The Madhayama-samkhyata includes all numbers between 2 and the Utkrsta-samkhyata ( the highest numerable ) su, which itself is the number immediately preceding the Jaghanya-parita-asımkhyata apj, i, e., su = apj - 1. And apj is defined in the Trilokasara as follows: According to Jaina cosmology the Universe is composed of alternate rings of land and water whose boundaries are concentric circles with increasing radii. 1. See, Trilokn-sára, 35. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvi The width of any ring, whether land or water, is double that of the preceding ring.. The central core (i. e., the initial circle) is of 100,000 yojanas in diameter and is called Jambudvipa. Consider four cylindrical pits each of 100,000 yojanas in diameter and 1,000 yojanas deep. Call these A, B, C, and D. Imagine that A, is filled with rape-seedsand further rape-seeds are piled over it in the form of a conical heap, the topmost. layer consisting of one seed. The total number of seeds required for the operation is-For the cylinder: 19791209299968. 101 For the superincumbent cone: 1790200845451636363636363636363636363636363636. The totel numbar of seeds is 1997112938451316363636363636363636363636363636. We shall call the process described above by the term "overfilling" a cylinder with rape-seeds. Now, take the seeds from the above over-filled pit and drop them, beginning from Jambudvipa, one on each concentric ring of land or water of the Universe. The number of seeds being even, the last seed would fall on a ring of water. Let one rapeseed be put in B, to denote the end of this operation. Now, imagine a cylinder with the diameter of the boundary of the ring of 1 water into which the last rape-seed was dropped in the above operation, and 1000yojanas deep. Call this cylinder A. Imagine A, to be overfilled with rape-seeds. Drop the seeds, beginning after the last ring of watar attained in the previous operation, successively on the rings of land and water. This second dropping of seeds will lead toa ring of water on which the last seed is dropped. Place one more seed in B, to denote the end of this operation. Imagine now a cylinder with diameter that of the last ring of water attained above, and 1000 yojanas deep. Call this cylinder As. Let As be over-filled with. rape seeds and let these seeds be dropped on the rings of land and water as before, and let at the end of the process a seed be dropped in Bi. Imagine the above process continued tiil B1 is overfilled. The above process leads to cylinders of increasing volumes: A1, A2, ......... .... Let A' be the last cylinder obtained when B, is over-full. Now, begin with A' as the first over-full pit and continue the above process dropping one rape-seed on each ring of land and water, beginning after the water ring into which the last seed in the previous operation was dropped. Then drop one seed in C. Continue the process till C, is over-filled. Let A" be the last cylinder obtained by the above process. Then begin with with A" and proceeding as before over-fill D. Let A" be the last pit obtained at the termination of this operation. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Then, the Jaghanya-parita-asamkhyata, apj, is equal to the number of rapeseeds contained in A". And Utkrsta-samkhyāta = su = apj – 1. xvii Remarks:-The central iden in dividing numbers into three classes seems to be this:-The extent to which numeration, i. e., counting, can proceed depends on the number-names available in the language or on other methods of expressing numbers. In order, therefore, to extend the bound of numbers which may be counted or expressed in speech, a long series of names of numerical denominations, based primarily on the scale of ten, was coined in India. The Hindus contented themselves with eighteen denominations by the help of which numbers up to 1017 could be expressed in speech. Numbers greater than 1017 could be expressed by repetition, as we do now when we say million million, etc. But it was realised that repetition was cumbersome. The Buddhists and the Jainas who needed numbers much bigger than1017 in their philosophy and cosmology coined denominational names for still greater numbers. We do not possess Jaina denominational names, but the following series of denominational names which is of 1 The Jainas prossess in their old literature a list of names denoting long periods of time with the year as the unit. The series is as follows: 1 Varsa (q) = 1 Year 2 Yuga () = 5 Years 3 Purvanga (a) = 84 Lakhs of years 4 Purva (q) = 84 Lakhs of Purvāngas 18 Atata () = 84 Lakhs of Aṭatangas 19 Amamanga (T) = 84 Atatas 20 Amama (3H) = 84 Lakhs of Amamangas 21 Hahanga (reter) =84 Amamas 5 Nayutanga (agat) = 84 Purvas 22 Haha () = 84 Lakhs of Hahangas 6 Nayata (g)= 84 Lakhs of Nayutangas 23 Huhanga (ET) = 84 Hahas 7 Kumudānga (F) 84 Nayutas 8 Kumud () = 84 Lakhs of Kumudangas 9 Padmanga (T) = 84 Kumudas 24 Hoha ()= 84 Lakhs of Hohangas 25 Latanga () = 84 Huhus 10 Padma (44) = 84 Lakhs of Padmangas 11 Nalinanga (fat)= 84 Padmas 26 Lata () = 84 Lakhs of Lalitangas 27 Mahalatanga (great) = 84 Latas 12 Nalina () 84 Lakhs of Nalinangas 28 Mahalata(g)-84 Lakhs of Mahalatangas 18 Kamalanga ()=84 Nalinas 29 S'rikalpa (a) = 84 14 Kamala () = 84 Lakhs of kamalangas 30 Hastaprahelita (fa) 15 Trutitanga (fat)= 84 Kamalas Mahalatas 84 Lakhs of Srikalpa 16 Trutita (f) = 84 Lakhs of Trutitanga 31 Acalapra () = 84 Lakhs of 17 Aṭatanga (j) = 84 Trutitas Hastaprahelita This list is found in the Triloka-prajnapti [4th-6th cent], Harivansa-purana (8th cent.) and Rajavartlika [ 8th cent ], with a few variations in the names only. According to a statement found in Triloka-prajnapti, the value of Acalapra is obtainable by multiplying 31 times 84 i e. 39 Acalapra 8431, and that the value will lead us to 90 decimal places. According to Logarithmic tables, however, 8431 gives us only sixty decimal places of notation. (See Dhavala III, introduction and footnote, p. 34). Editor. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Buddhist origin is interesting = 1 H 1 Eka 2 dasa 3 sata 4 sahassa 5 dasu sahassa 6 sata sahassa 7 dasa-sata-sahassa 8 koti 9 pakoti 10 kotippakoti 11 nahuta 12 13 14 bindu ninnahuta akhobhini 1,000,000 10,000,000 (10,000,000 2 (10,000,000)8 (10,000,000) (10,000,000 y (10,000,000 )6 26 mahākathāna = (10,000,000 )10 (10,000,000 )7 27 asamkhyeya = (10,000,000 )20 It will be observed that in the above series asamkhyeya is the last denomination. This probably implies that numbers beyond the asamkhyeya are beyond numeration, i. e, unnumerable. where = 100,000 where 10 100 1,000 10,000 = = Jaghanya-parita-asamkhyata Madhyama-parita-asamkhyata Utkrsta-parita-asamkhyata xviii Let Jaghanya-yukta-asamkhyata Madhyama-yukta-asamkhyata Utkrsta-yukta-asamkhyata 15 abbuda 16 nirabbuda 17 ahaha 18 ababa 19 atata 20 sogandhika 21 uppala 22 kumuda The value of asamkhyeya must have varied from time to time. Nemicandra's asamkhyata is certainly different from the asamkhyeya difined above, which is 10140, Asamkhyata-As already mentioned, the asamkhyata numbers are divided into three broad classes, and each of these again into three sub-classes. Using the notation given above, we have, according to Nemieandra 23 pundarika 24 paduma 25 kathāna [aaj] (apj) is (apm) (apu) [aaj] {[anj] *=[] [" [anj] B (ayj) (aym) is (ayu) (10,000,000)8 ( 10,000,000 )9 (10,000,000, 10 (10,000 000 11 (10,000,000 12 (10,000,000 13 (10,000,000 14 (10,000,000 )15 = (10,000,000 )16 (10,000,000 )17 (10,000,000 18 [{ [naj] = = Jaghanya-asamkhynta-asamkhyata (naj) Madhyama-samkhyata-asamkhyata (aam) is > anj, butapj. but Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Let CB six dravyas1. Let D = Then, where where Jaghanya parita-ananta [ Apj ] = Madhyama-parita-ananta [Apm ] is > Apj, but Apu; Utkrsta-parita-ananta [ Apu ] Ayj 1; where » y {(0°,0° {(0° "} {{ c° 0° } xix + [ Ayj ] Jaghanya-yukta-ananta (apj)(api) Madhyama-yukta-ananta [Aym] is > Ayj, but << Ayu; Utkrsta-yukta-ananta [ Ayu ] AAj 1; four aggregates. {000,00 % 100000} =-[{(AAS) ANS | |CAA; AND AAj } {(++)+*} = {(x*)**} = Jaghanya-ananta-ananta [AAj] (Ayj)2 Madhyama-ananta-ananta [AAm] is > AAj, but < AAu; = = AAu stands for Utkrsta-ananta-ananta, which. according to Nemicandra, is obtained as follows: Let - = AAAA 11] [{CANDANS} {CANJANS}] + six rasis3; ( ] هزه + two rasist; 1. The six dravyas are the spatial points of: (1) Dharma, (2) Adharma, (3) one Jiva (4) Lokākāsa, (5) apratisthita (vegetable souls) and (6) Pratisthita (vegetable souls ). 2. The four aggregates are: (1) instants of a kalpa, (2) spatial units of the Universe, (3) anubhagabandha-adhyavasaya-sthāna, and (4) avibhāga praticcheda of Yoga. 3. These are: (1) siddha, (2) sadhārana-vanaspati-nigoda, (3) vanaspati, (4) pudgala (5) vyavahara kala, and (6) alokakasa. 4. These are: (1) Dharma dravya, (2) adharma dravya, (aguru-laghu-guna-avibhāga praticcheda of both, ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = {(x))"} XX M {(x)} Now, the aggregate known as kevalajnana is greater than a, and- AAu Kevalajnana - z + z Kevalajnana Remarks-From the above it follows that [i] Jaghanya-parita-ananta [api] is not infinite unless one or more of the six dravyas or the one of the four aggregates, which have been added to obtain it, is infinite. [ii] Utkrsta-ananta-ananta [ AAu ] is equivalent to the aggregate called Kevalajnana. The description above seems to imply that the utkrsta-ananta-onanta can not be reached by any arithmetical operation, however far it may be carried. In fact it is greater than any number z which can be reached by arithmetical operations. It seems to me, therefore, that Kevalajnana is infinite, and hence that utkrsta-ananta-ananta is infinite. Thus, the description found in the Trilokasara leaves us in doubt as to whether any of the three classes of parita-ananta and the three classes of yukta-ananta and the jaghanya-ananta-anants is actually infinity or not, in as much as they are all said to be the multiples of asamkhyata and even the aggregates that have been added are also asamkhyata only. But the Ananta of the Dhavala is actual infinity, for it is clearly stated that "a number which can be exhausted by subtraction cannot be called ananta." It is further stated in the Dhavala that by ananta-ananta is always meant the madhyama-ananta-anaata. So the madhyama-ananta-ananta, according to the Dhavala, is infinite. The following method of comparing two aggregates given in the Dhavala is very interesting. Place on one side the aggregate of all the past Avasarpinis and Utsarpinis (ie, the time-instants in a kalpa, which are supposed to form a coutinuum and are consequently infinite) and on the other the aggregate of Mithyadrsli jiva-rasi. Then taking one element of the one aggregate and a corresponding element from the other, discard them both, Proceeding in this manner the first aggregate is exhausted, whilst the other is not 3 The Dhavala, therefore, concludes that the aggregate of mithyadrsti-rasi is greater than that of all the past time-instants. The above is nothing but the method of one-to-one correspondence which forms the basis of the modern theory of infinite cardinals. It may be argued that the method is applicable to the comparison of finite cardinals also, and so was taken recourse to for comparing two very big finite aggregates, so big that their elements 1. Dhavala III, p. 25. 2. ibid p. 28. 3. ibid p. 28, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxi could not be counted in terms of any known numerical denomination. This view-point is further supported by the fact that the Jains works fix the duration of a time-instant, and so the number of time-instants in a Kalpa (Avasarpini and Utsarpini) must be finite, as the Kalpa itself is not an infinite interval of time. According to this latter view the Jaghanya-parita-ananta (which according to definition is greater than the aggregate of time instants) is finite. As already pointed out, the method of one-to-one correspondence has proved to be the most powerful tool for the study of infinite cardinals, and the discovery and first use of the principle must be ascribed to the Jainas. In the above classification of numbers I see a primitive attempt to evolve a theory of infinite cardinal numbers. But there are some serious defects in the theory. These defects would lead to contradictions. One of these is the assumption of the existence of the number c1, where c is infinite and a limiting number of a class. On the other hand, the Jaina conception that the vargita-samvargita of a cardinale (i. e., e°) would lead to a new number is justifiable. If it be true that the Utkrsta-asamkhyata of the early Jains literature corresponds to infinity, then the creation of the numbers of the ananta class anticipated to some extent the modern theory of infinite cardinals. Any such attempt at such an early age and stage in the growth of mathematics was bound to be a failure. The wonder is that the attempt was made at all. The existence of several kinds of infinity was first demonstrated by George Cantor about the middle of the nineteenth century. He gave a theory of transfinite numbers. Cantor's researches in the domain of infinite aggregates, have provided a sound basis for mathematics, a powerful tool for research, and a language for correctly expressing the most abstruse mathematical ideas. The theory of transfinite numbers however, is at present in an elementary stage. We do not as yet possess a calculus of these numbers, and so have not been able to bring them effectively in mathematical analysis. A. N. Singh, D. Sc., Lucknow University. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDEX (Owing to deficiency of types, proper diacritical marks could not be used in the Mathematics of Dhavala'. The following index will be helpful in reading the Sanskrit and Prakrit technical terms correctly. ) Ababa ( 3779 ) xviii Bhadrabahu (मद्रबाहु ) iii Abbuda ( अब्बुद, sk. अर्बुद) xviii Bhagavati-sutra (vaatus ) i fo Abhayadeva Suri ( अभयदेवसूरि) ifn Bhaskara (भास्कर)i Acalapra ( 37701 ) xvii fn Bhattotpala (भट्टोत्पल ) iv Adharma ( 39 ) xix fn Bhavananta ( HITEC) xiii Agamodaya samiti ( THIGH Aa ) i fn Bindu (fr) xviii Aguru-laghu-guņa ( 317 T) xix fa Brahmagupta (TT) iii. Ahaha ( 3767 ) xviii Brhat Samhita ( ar) iv fn Akhobhini ( अखोभिनी, sk. अक्षोहिणी) xviii Caturthachheda ( area ) viii Alokakasa ( 370 FIT ) xix fa Dasa ( दस, sk दश) xviii Amama ( H ) xvii fa Deya ( at ) vi Ama manga (374#**T ) xvii fn Dharma ( T ) xix fo Ananta ( arta ) xiv,xv etc. Dhavala ( 1 ) ,iv, etc. Anantananta ( 3 ) xiv etc. Dravyananta ( द्रव्यानन्त )xili Anubhagabandha-adhyasaya-sthana Dravya pramana ( TTT) v ( THTTİT-3747741TETT) xix fn Eka ( 57 ) xviii Anuyoga ( अनुयोग) iii Ekananta ( एकानन्त ) xiii Anuyogadvar&-sutra ( 37TTEET ) iv Ganita ( pora) i Apradesik ananta ( 379afe tra ) xiii Gananananta (गणनानन्त ) xiii Apratişthita (water) xix fn Ganitanuyoga ( गणितानुयोग ) iii Arddhaccheda ( 37efesa ) vii, xii Gauita-sara-samgraha (TOAT-HAT ) Arddhaccheda-salaka ( 378TSUS(+7) xii iiii,v, Ardha-magadhi ( 37 HTTERT) iv,x Gommatasara (गोम्मटसार) v fn Aryabhata ( BIRTHS ) ii, iii Haha (IEU) xvii fn Aryabhatiya ( आर्यभटीय ) ii,iv Hahapga ( CIENT ) xvii fn Asamkhyata ( The ) xfv,xvii Harivamsa purana (tratar ) xvii fn Asamkhyeya ( असंख्येय ) xviii Hastaprahelita ( m ) xvii fa Atata ( 3722 ) xvii fn, xviji Huhanga ( FİT) xyii fn Atatanga ( BEZİT xvii fa Huhu (B) xvii fn A vibhaga-pratichheda ( 31TITIT Ichha ( 57 ) xi o ) xix fn Indranandi ( 1 ) iv Avasarpini ( 31 iuft) xx, xxi Jaghanyao (To) xiv, xv, xvii Bappadeva (बप्पदेव ) iv Jaghanya-anantananta ( 79-4T-BTTTTTT) Benares ( बनारस )i xiv, xv,xix Bhadrabahavi Samhita (भद्रबाहवी Jaghanya-asaņkhyata.asamkhyata Afeat ) iv (3774-3 -ronta ) xv,xviii etc. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxiii Jaghanya-parita-ananta 59-T-377-7 Madhyama yukta-asamkhyata (HT Xv,xviii etc. TTT-BTTTT) xv, xviii etc. Jaghanya-parita.asamkhyata (5797-na- Mahakathana ( ĦET FATA ) xviii BeTa ) xv,xviii etc. Mahalata ( ESAT ) xvii fo Jaghanya-yukta-ananta (TT--3277) Mahalatanga (HaiSain) xvii fn XV,xix Mahaviracarya ( HEITTTTTT) i Jaghanya-yukta-asamkhyata (577-47- Malabar ( part ) i HETIT ) Xv, xviii etc. Malayagiri ( START ) iv Jambudvipa ( FÅTT) xvi Mithyadrsti Jiva-rasi (PETE GEIT ) Jiva (ofta ) xix fn XX Jivakanda (जीवकाण्ड ) v fn Mysore (मैसूर )i Jiva-rasi ( a ) v Nahuta ( 7 ) xviii Kalpa ( 739 ) xix fo, xx, xxi Nalina ( ) xvii fn Kamala (FH) xvii fn Nalinanga ( fait ) xvii fn Kamalanga ( FHOTT ) xvii fn Namananta ( नामानन्त)xiii Karana-bhavana ( FTTHICET ) ir Nayuta ( a ) xvii fn Karanar uyoga ( FATTITAIT ) iii Nayutanga ( tatt ) xvii fn Kathana ( 74 ) xviii Nemicandra ( 1199-5 ) xiv, xviii, xix Kevala-jnana ( ) xx Ninnahuta (निन्नहुत, sk निर्णहुत ) xviii Koti ( #72 ) v, xviii Nirabbuda (निरब्बुद, sk निरर्बुद) xviii Kotippakoţi (Fifft ) xviii Padma (CET) xpii fn Ksetra-samasa (ATH) iv Padmanga (EIT ) xpii fo Kumuda (945 ) xvii fn, xviii Paduma (पदुम, sk पद्म)xviii Kumudanga ( GİT xvii fn Pakoti (पकोटि, sk प्रकोटि) xviii Kundakunda ( कुंदकुंद ) iv Pali (पाली) Parita-angnta (ga-37777 ) xiv Kusumapura ( कुसुमपुर) ii Lata (al ) xvii fn Pataliputra ( पाटलिपुत्र )i Latanga ( SAT) xvii fn Phala ( 45 ) xi Prakrit (1 ) iv, v, X Lokakasa ( लोकाकाश ) xix fn Pramana (प्रमाण)xi Madhyama-ananta-ananta ( T-TE -P Pratisthita (spaigaxix 34 ) xv, xix Pudgala (55) xix fn Madhyama-asamkhyata-asa mkhyata Pundarika ( gusti) xviii (74-BESTIA-EITT ) xv, xviii etc. Pura18 ( g Tur) iii. Madhyama-parita-ananta ( T-a-lo Purya (e) xpii fn _ अनन्त) xv, xix Puryanga ( EN ) xyii fn Madhyama-parita-asamkhyata (HETH-Rajavarttika (Taifa) xyii fo qfia-piena) xy, xviii etc. Rangacarya( रंगाचार्य ) iii Madhyama-yukta-ananta ( 84H-GER-Sadharana-vanaspati-nigoda (HTETE FT) xv, xix fa laita xix in Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sahassa ( सहस्स, sk सहस्त्र ) xviii Samantabhadra ( समन्तभद्र ) iv Samkhyata () iv, V Sarvananta ( सर्वानन्त ) xiii Saswatananta ( शाश्वतानन्त ) xiii Sata ( सत, sk शत ) xviii Satkhandagama ( ष्ट्खंडागम ) iii Shamakunda ( शामकुंद ) iv Siddha (f ) xix fn Siddhasena ( सिद्धसेन ) iv Silanka ( शीलांक ) iv fn Sogandhika ( सोगंधिक, sk सौन्धिक ) xviii Smayadhyayana ( स्मयाध्ययन ) iv fn Sridharacarya () i, ii Srikalpa ( श्रीकल्प ) xvii fn Srutsvatara ( श्रुतावतार ) iv Sthananga-sutra (i) iv Sthapanananta ( स्थापनानन्त ) xii Sulbasutra (सुल्बसूत्र ) ii Suryaprajnapti ( सूर्य प्रज्ञप्ति ) iv Sutrakitanga sutra (i) iv fn Tathvarthadhigama-sutra-bhasya Taxila ( तक्षशिला ) i Triloka-prajnapti (त्रिलोक- प्रज्ञप्ति ) xxiv ( तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य ) iv iv, xvii fn Trilokasara (fr) iv, xiv, XV, XX Trika chheda (त्रिकछेद ) vii Trutita (a) xvii fn Trutitanga (at) xvii fn Tumbulura (तुम्बुर ) iv Ubhayananta ( उभयानन्त ) xili Ujjain ( उज्जैन ) i Umasvati ( उमास्वाति ) iv Uppala ( उप्पल, sk उत्पल ) xviii Utkrsta ananta ananta ( उत्कृष्ट - अनन्त - अनन्त xv, xix Utkrsta asamkhyata- asamkhyata ( उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात ) xv, xviii etc. Utkrsta-parita-ananta ( उत्कृष्ट परीत- अनन्त ) xv, xix Utkrsta-parita-asamkhyata (-- X, xviii etc. Utkrsta-yukta-ananta-F) XV, xix Utkrsta-yukta-asamkhyata (-- xviii etc. Utsarpini ( उत्सर्पिणी ) xx, xxi | Uttaradhyayana sutra ( उत्तराध्ययनसूत्र ) i fn. Vanaspati ( वनस्पति ) xix fn Varahamihira ( वराहमिहिर ) ii, iv Varga (af) vi Varga-samvarga (af-af ) xi Varga-salaka (-a) vii Vargita samvargita (afia-afia) vi, vii, viii, xi, xii fn, xxi Varsa (af) xvii fn Viralana (fra) vi Viralana.deya (-) vi Virasena (af) iv | Vistarananta ( विस्तारानन्त ) xiii Vyavaharakala () xix fn. Yoga () xix fn Yojana () V Yuga () xvii fa Yuka (g)xiv, xv Yuktananta (a) xiv Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार जैनधर्म ज्ञान और विवेक प्रधान है। यहां मनुष्य के प्रत्येक कार्यकी अच्छाई और बुराईका निर्णय वस्तुस्वरूपके विचार और भावोंकी शुद्धि या अशुद्धिके अनुसार किया गया है | ज्ञानका स्थान यहां बहुत ऊंचा है। मोक्षका मार्ग जो रत्नत्रयरूप कहा गया है उसमें ज्ञानका स्थान चारित्र पूर्व रखा है। जब कुछ ज्ञान हो जायगा तभी तो चारित्र सुधर सकेगा, और जितनी मात्रा में ज्ञान विशुद्ध होता जायगा उतनी मात्रा में ही चारित्र निर्मल होने की सम्भावना हो सकती है । इसीलिये जैनी देवके साथ ही शास्त्रकी भी पूजा करते हैं । दैनिक आवश्यक क्रियाओं में शास्त्र-स्वाध्यायका स्थान विशेष रूपसे है । चार प्रकारके दानों में शास्त्रदानकी भी बड़ी महिमा है । जैन आचार्योंको ज्ञात था कि धर्मका प्रचार और परिपालन शास्त्रों के आधारसे ही हो सकता है, अतः उन्होंने समय समय पर सभी स्थानों और प्रदेशोंकी भाषाओं में ग्रंथ रचकर उनका प्रचार व पठन-पाठन बढ़ाने का प्रयत्न किया । स्वयं तीर्थंकर भगवान् की दिव्यवाणीकी यह एक विशेषता कही जाती है कि उसे सब प्राणी सुन और समझ सकते तथा उससे लाभ उठा सकते हैं। प्राचीन कालकी शिष्ट भाषा कहलानेवाली संस्कृत को छोड़कर जैन सिद्धान्तको प्राकृत भाषा - निबद्ध करने में यह भी एक हेतु कहा जाता है कि जिससे बाल, स्त्री, मन्द, मूर्ख सभी चारित्र सुधारने की वांछा रखनेवाले उससे लाभ उठा सकें । किन्तु धर्मका उदात्त ध्येय और स्त्ररूप सदैव एकसा नियत नहीं रहने पाता । ज्यों ही उसमें गुरु कहलाने की अभिलाषा रखनेवाले व्यक्तियोंकी वृद्धि हुई, और ज्ञानकी हीनता होते हु भी वे मर्यादासे बाहर की बातें कहने सुनने लगे, त्यों ही उसमें अनेक विवेकहीन और तर्कशून्य बातें व विश्वास भी आ घुसते हैं, जो भोली समाजमें घर करके कभी कभी बड़े अनर्थ के कारण बन जाते हैं । जैनशास्त्र-स्वाध्याय के सम्बन्धमें भी ऐसी ही एक बात उत्पन्न हुई है जिसका हमें यहां 1 विचार करना है । षट्खंडागमकी इससे पूर्व तीन जिल्हें प्रकाशित हो चुकी हैं और अब चौथी जिल्द पाठकों के हाथमें पहुंच रही है । इन सिद्धान्त ग्रंथोंका समाजमें आदर और प्रचार देखकर हमें अपने ध्येयकी सफलताका संतोष हो रहा है । इस ओर समाजके औत्सुक्य और तत्परता का अनुमान इसीसे हो सकता है कि इतने अल्प कालमें हमें सिद्धान्तोद्धार के कार्य में मूडबिद्री संस्थानका पूर्ण सहयोग प्राप्त हो गया है, जयधवल के प्रकाशन के लिये भी अनेक संस्थाएं उत्सुक हो उठीं और जैन संघ, + १ देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने || २ औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान और आहारदान । ३ बालस्त्री मंदमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) खंडागमकी प्रस्तावना मथुरा, की ओरसे उसका कार्य भी प्रारम्भ हो गया, तथा सेठ गुलाबचंदजी शोलापुरकी सद्भावनासे महाधवलके सम्बन्धमें भी एक समिति सुसंगठित हो गई है। श्रीयुक्त मंजैयाजी हेगडेने तीनों सिद्धान्तों के मूलपाठको ताड़पत्रीय प्रतियोंके आधारसे प्रकाशित करनेकी स्कीम भी प्रस्तुत की है । प्रकाशित सिद्धान्तका स्वाध्याय भी अनेक मंदिरों और शास्त्रभंडारों व गृहों में हो रहा है। यही नहीं, बम्बईकी माणिकचंद जैन परीक्षालय समितिने अपनी गत बैठक में धवलसिद्धान्तक प्रथम भाग सत्प्ररूपणाको अपनी सर्वोच्च शास्त्री परीक्षाके पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर इन सिद्धान्तोंके समयोचित पठन-पाठन का मार्ग भी खोल दिया है । इस सब प्रगतिसे विद्वत्संसार को बड़ा हर्ष है । किन्तु एकाध विद्वान् अभी ऐसे भी हैं जिन्हें इन सिद्धान्तों का यह उद्धार प्रचार उचित नही जंचता । उनके विचारसे न तो इन ग्रंथोंका मुद्रण होना चाहिये, और न इन्हें विद्यालयोंनें अध्ययन-अध्यापनका विषय बनाना चाहिये । यहां तक कि गृहस्थमात्रको इनके पढनेका निषेध कर देना चाहिये । उनका यह विवेक निम्नलिखित आगम और युक्ति पर निर्भर है ( १ ) अनेक प्राचीन ग्रंथों में यह उपदेश पाया जाता है कि गृहस्थोंको सिद्धान्तोंके श्रवण, पठन या अध्ययनका अधिकार नहीं है । ( २ ) सिद्धान्तग्रन्थ दो ही हैं जो कि धवल, जयधवल, महाधवल के रूपमें टीका द्वारा उपलब्ध हैं, बाकी सभी शास्त्र सिद्धान्तग्रंथ नहीं हैं । प्रथम बात की पुष्टिमें निम्न लिखित ग्रंथोंके अवतरण दिये गये हैं— ( १ ) वसुनन्दि श्रावकाचार, (२) श्रुतसागरकृत षट्प्राभृतटीका, (३) वामदेवकृत भावसंग्रह, (४) मेधावीकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार ( ५ ) धर्मोपदेशपीयूषवर्षाकर श्रावकाचार, * देखो पं. मक्खनलाल शास्त्री लिखित 'सिद्धान्तशास्त्र और उनके अध्ययनका अधिकार', मोरेना, वी. सं. २४६८. १ दिपडिम वीरचरिया तियालजोगेसु णत्थि अहियारो । सिद्धंत-रहस्साण वि अक्षयणं देसावरदाणं ॥ ३१२ ॥ ( वसुनन्दि- श्रावकाचार ) २ वीरचर्या च सूर्यप्रतिमा त्रैकाल्ययोगनियमश्च । सिद्धान्तरहस्यादिष्वध्ययनं नास्ति देशविरतानाम् ॥ ( श्रुतसागर-षट्प्राभृतटीका ) ३ नास्ति त्रिकालयोगोऽस्य प्रतिमा चार्कसम्मुखा । रहस्यग्रंथ सिद्धान्तश्रवणे नाधिकारिता ॥ ५४७ ॥ ( वामदेव - भावसंग्रह ) ४ कल्प्यन्ते वीरचर्याहः प्रतिमातापनादयः । न श्रावकस्य सिद्धान्तरहस्याध्ययनादिकम् ॥ ७४ ॥ (मेधावी - धर्म संग्रहश्रावकाचार ) ५ त्रिकालयोगनियमो वीरचर्या च सर्वथा । सिद्धान्ताध्ययनं सूर्यप्रतिमा नास्ति तस्य वै ॥ ( धर्मोपदेशपीयूषवर्षाकर-श्रावकाचार ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार (६) इन्द्रनन्दिकृत नीतिसार और ( ७ ) आशाधरकृत सागारधर्मामृत । इन सब ग्रंथोंमें केवल एक ही अर्थका और प्रायः उन्हीं शब्दों में एक ही पद्य पाया जाता है जिसमें कहा गया है कि देशविरत श्रावक या गृहस्थको वीरचर्या, सूर्यप्रतिमा, त्रिकाल - योग और सिद्धान्तरहस्यके अध्ययन करनेका अधिकार नहीं है । जिन सात ग्रंथोंमेंसे गृहस्थको सिद्धान्त - अध्ययनका निषेध करनेवाला पद्य उद्धृत किया गया है उनमें से नं. ५ और ६ को छोड़कर शेष पांच ग्रंथ इस समय हमारे सन्मुख उपस्थित हैं । वसुनन्दिकृत श्रावकाचारका समय निर्णीत नहीं है तो भी चूंकि आशाधरके ग्रंथों में उनके अवतरण पाये जाते हैं और उनके स्वयं ग्रंथोंमें अमितगतिके अवतरण आये हैं, अतः वे इन दोनोंके बीच अर्थात् विक्रमकी १२ वीं १३ हवीं शब्दादिमें हुए होंगे । उनके ग्रंथकी कोई टीका भी उपलब्ध नहीं है, जिससे लेखकका ठीक अभिप्राय समझमें आ सकता। उनकी गाथाकी प्रथम पंक्तिमें कहा गया है कि दिनप्रतिमा, वीरचर्या और त्रिकालयोग इनमें ( देशविरतोंका ) अधिकार नहीं है । दूसरी पंक्ति हैं ' सिद्धंतरहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं ' । यथार्थतः इस पंक्तिकी प्रथम पंक्तिके ' णत्थि अहियारो' से संगति नहीं बैठती, जब तक कि इसके पाठमें कुछ परिवर्तनादि न किया जाय । ' सिद्धंतरहस्लाण ' का अर्थ हिन्दी अनुवादकने ' सिद्धान्तके रहस्यका पढ़ना ' ऐसा किया है, जो आशाधरजीके किये गये अर्थ से भिन्न है । ग्रंथकारका अभिप्राय समझने के लिये जब आगे पीछेके पत्रे उलटते हैं तो सम्यक्त्वके लक्षण में देखते हैं अत्तागमतच्चाणं जं सहणं सुणिम्मलं होदि । संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ।। ६ ।। अर्थात्, जब आप्त आगम और तत्त्वों में निर्मल श्रद्धा हो जाय और शंका आदिक कोई दोष नहीं रहें तब सम्यक्त्व हुआ समझना चाहिये । अब क्या सिद्धान्त ग्रंथ आगमसे बाहर हैं, जो उनका अध्ययन न किया जाय ? या शंकादि सब दोषोंका परिहार होकर निर्मल श्रद्धा उन्हें बिना पढ़े ही उत्पन्न हो जाना चाहिये ! आगमकी पहिचान के लिये आगेकी गाथामें कहा गया हैअत्ता दोसविमुको पुव्वापरदोसवज्जियं वयणं । ( ३ ) अर्थात्, जिसमें कोई दोष नहीं वह आप्त है, और जिसमें पूर्वापर विरोधरूपी दोष न हो वह वचन आगम है । तब क्या आगमको बिना देखे ही उसके पूर्वापर-विरोध राहित्यको स्वीकार कर निःशंक, निर्मल श्रद्धान कर लेनेका यहां उपदेश दिया गया है ? जैसा हम देखेंगे, आगम और सिद्धान्त एक ही अर्थ द्योतक पर्यायवाची शब्द हैं । कहीं इनमें भेद नहीं किया गया । आगे देशविरत के कर्तव्यों में कहा गया है- ६ आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् । न वाचनीयं पुरतः सिद्धान्ताचारपुस्तकम् ॥ ( इन्द्रनंदिनीतिसार ) ७ श्रावको वीरचर्याःप्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥ ७, ५० ॥ (आशाधर - सागारधर्मामृत ) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटखंडागमकी प्रस्तावना णाणे णाणुवयरणे णाणवंताम्म तह य भत्तीय । जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाणविणओ ॥ ३२२ ।। अर्थात् , ज्ञान, ज्ञानके उपकरण अर्थात् शास्त्र, और ज्ञानवान्की नित्य भक्ति करना ही ज्ञानविनय है । और भी-- हियमियपिज्जं सुत्ताणुवचि अफरसमकक्कसं वयण। सजमिजगम्मि जे चाडुभासणं वाचिओ विणओ ॥ ३२७ ।। अर्थात् , हित, मित, प्रिय और सूत्रके अनुसार वचन बोलना.... आदि वचनविनय है। इन गाथाओंमें जो ज्ञान, ज्ञानोपकरण और ज्ञानी का अलग अलग उल्लेख कर उनके विनयका उपदेश दिया गया है, तथा जो सूत्रके अनुसार वचन बोलने का आदेश है, क्या इस विनय और अनुसरणमें सिद्धान्त गर्मित नहीं है ? क्या सूत्रका अर्थ सिद्धान्त वाक्य नहीं है ? हम आगे चलकर देखेंगे कि सूत्रका अर्थ साक्षात् जिन भगवान् की द्वादशांग वाणी है । तब फिर द्वादशांगसे सम्बन्ध रखनेवाले सिद्धान्त ग्रंथोंके पठनका गृहस्थको निषेध किस प्रकार किया जा सकता है ? । अब श्रुतसागरजीकी षट्प्राभृतटीकाको लीजिये । कुंदकुंदाचार्यकृत सूत्रपाहुडकी २१ वीं गाथा है दुइयं च वुत्तलिंग उक्किंट्र अवर सावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीमासेण मोणेण ॥ __ इस गाथामें आचार्यने ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकके लक्षण बतलाये हैं कि वह भाषासमितिका पालन करता हुआ या मौनसहित भिक्षाके लिये भ्रमण करनेका पात्र है । इसी गाथाकी टीका समाप्त हो जाने के पश्चात् 'उक्तं च समन्तभद्रेण महाकविना' कहके चार आर्याएं उद्धृत की गई हैं, जिनमें चौथी गाथा है — वीर्यचर्या च सूर्यप्रतिमा-' आदि । यहां न तो इसका कोई प्रसंग है और न पाहुडगाथामें उसके लिये कोई आधार है । यह भी पता नहीं चलता कि कौनसे समन्तभद्र महाकविकी रचनामेंसे ये पद्य उद्धृत किये गये हैं। जैनसाहित्यमें जो समन्तभद्र सुप्रसिद्ध हैं उनकी उत्कृष्ट और प्रसिद्ध रचनाओंमें ये पद्य नहीं पाये जाते । प्रत्युत इसके उनके रचित श्रावकाचारमें जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, श्रावकों पर ऐसा कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया । अतएव वह अवतरण कहां तक प्रामाणिक माना जा सकता है यह शंकास्पद ही है। स्वयं कुंदकुंदाचार्यकी इतनी विस्तृत रचनाओंमें कहीं भी इस प्रकारका कोई नियंत्रण नहीं है। इसी सूत्रपाहुडकी गाथा ५ और ७ को देखिये । वहां कहा गया है सुत्तस्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अस्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्टी ॥ ५ ॥ सुत्तत्थपयविगट्ठो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्यो ॥ ७ ॥ अर्थात् , जो कोई जिनभगवान्के कहे हुए सूत्रोंमें स्थित जीव, अजीव आदि सम्बन्धी नाना प्रकारके अर्थको तथा हेय और अहेयको जानता है वही सम्यग्दृष्टि है । सूत्रों के अर्थसे अष्ट हुआ मनुष्य मिथ्यादृष्टि है। यहां श्रुतसागरजी अपनी टीकामें कहते हैं 'सूत्रस्यार्थ जिनेन Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार भणितं प्रतिपादितं ... यः पुमान् जानाति वेत्ति स पुमान् स्फुटं सम्यग्दृष्टिर्भवति । ... मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः | ' यहाँ श्रुतसागरजी स्वयं जिनोक सूत्रों के अर्थके ज्ञानको सम्यग्दर्शनका अत्यन्त आवश्यक अंग मान रहे हैं, और उस ज्ञानके बिना मनुष्य मिथ्यादृष्टि रहता है यह भी स्वीकार कर रहे हैं । वे ' पुमान् ' शब्द के उपयोग से यह भी स्पष्ट बतला रहे हैं कि जिनोक्त सूत्रोंका अर्थ समझना केवल मुनिराजोंके लिये ही नहीं, किन्तु मनुष्यमात्र के लिये आवश्यक है । ऐसी अवस्थामें वे सिद्धान्त ग्रंथोंको जिनोक्त सूत्रोंसे बाहर समझकर श्रावकों को उन्हें पढ़नेका निषेध करते हैं, या श्रावकको मिध्यादृष्टि बनाना चाहते ह, यह उनकी स्वयं परस्पर विरोधी बातोंसे कुछ समझ में नहीं आता । इससे स्पष्ट है कि उस निषेधवाली बातका न तो भगवान् कुंदकुंदाचार्य के वाक्योंसे सामञ्जस्य बैठता है, और न स्वयं टीकाकारके ही पूर्व कथनों से मेल खाता है । श्रुतसागरजीका समय विक्रमकी सोलहवीं शताब्दि सिद्ध होता है ' । श्रुतसागरजी कैसे लेखक थे और उनकी पटूपाहुड कैसी कैसी रचना है इसके विषय में एक विद्वान् समालोचकका मत देखिये । 1 "वे ( श्रुतसागरजी ) कट्टर तो थे ही, असहिष्णु भी बहुत ज्यादा थे । अन्य मतका खंडन और विरोध तो औरोंने भी किया है, परन्तु इन्होंने तो खण्डनके साथ बुरी तरह गालियाँ भी दी हैं । सबसे ज्यादा आक्रमण इन्होने मूर्तिपूजा न करनेवाले लोंकागच्छ ( ढूंढियों ) पर किया है । जरूरत गैरजरूरत जहां भी इनकी इच्छा हुई है, ये उनपर टूट पड़े हैं । इसके लिये उन्होंने प्रसंगकी भी परवा नहीं की । उदाहरण के तौरपर हम उनकी षट्पाहुडटीका को पेश कर सकते हैं । षट्पाहुड भगवत्कुंदकुंदका ग्रंथ है, जो एक परमसहिष्णु, शान्तिप्रिय और आध्यात्मिक विचारक थे । उनके ग्रंथों में इस तरहके प्रसंग प्रायः हैं ही नहीं कि उनकी टीकामें दूसरों पर आक्रमण किये जा सकें, परंतु जो पहलेसे ही भरा बैठा हो, वह तो कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेता है | दर्शनपाहुडकी मंगलाचरणके बाद की पहली ही गाथा है ---- (५) सूत्रार्थपद विनष्टः पुमान् दंसणमूलो धम्मो उवहट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं । सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिन्वो ॥ इसका सीधा अर्थ है कि जिनदेवने शिष्योंको उपदेश दिया है कि धर्म दर्शनमूलक है, इसलिये जो सम्यग्दर्शनसे रहित है उसकी वंदना नहीं करनी चाहिये । अर्थात्, चारित्र तभी वन्दनीय है जब वह सम्यग्दर्शन से युक्त हो । इस सर्वथा निरुपद्रव गाथाकी टीकामें कलिकालसर्वज्ञ स्थानकवासियोंपर बुरी तरह बरस पड़ते हैं और कहते हैं १ षट्प्राभृतादिसंग्रह ( मा. अं, मा.) भूमिका पृ. ७. २ जैनसाहिल और इतिहास, पं. नाथूरामप्रेमी कृत पू. ४०७-४०८. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना . Paisa दर्शनहीन इति चेत् तीर्थंकरपरमदेवप्रतिमांन मानयन्ति न पुष्पादिना पूजयन्ति ...... यदि जिनसूत्रमुलंघंते तदाऽऽस्तिकैर्युक्तिवचनेन निषेधनीयाः । तथापि यदि कक्षग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्ति कैरुपानद्भिः गूथालिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः, तत्र पापं नास्ति' । ( ६ ) अर्थात्, दर्शनहीन कौन है, जो तीर्थंकरप्रतिमा नहीं मानते, उसे पुष्पादिसे नहीं पूजते...... जब ये जिनसूत्रका उल्लंघन करें तत्र आस्तिकोंको चाहिए कि युक्तियुक्त वचनोंसे उनका निषेध करें, फिर भी यदि वे कदाग्रह न छोड़ें तो समर्थ आस्तिक उनके मुँहपर विष्टासे लिपटे हुए जूते मारें, इसमें जरा भी पाप नहीं । " यह है श्रुतसागरजी की भाषासमिति और उनकी आप्तता । ऐसे द्वेषपूर्ण अश्लील वाक्य एक प्रामाणिक विद्वान् तो क्या साधारण शिष्ट व्यक्तिके मुखसे भी न निकल सकेंगे । अब वामदेवजीके भाव संग्रहको लीजिये जिसके ५४७ वें श्लोक ' नास्ति त्रिकालयोगो' आदिमें ग्यारहवीं प्रतिमाके धारी श्रावकको ' सिद्धान्त श्रवण ' के अधिकारसे वर्जित किया गया है। वामदेवजीका काल विक्रमकी १५ हवी या १६ हवीं शताब्दि अनुमान किया गया है, ' । उनकी ग्रंथरचना मौलिक नहीं है, किन्तु १० वीं शताब्दि के देवसेनाचार्य के प्राकृत भावसंग्रहका कुछ परिवर्धित संस्कृत रूपान्तर है । उनकी इस कृतिके विषयमें उस ग्रंथकी भूमिका में कहा गया हैयह भावसंग्रह प्रायः प्राकृत भावसंग्रहका ही संस्कृत अनुवाद है, दोनों ग्रंथोंको आमने सामने रखकर पढ़ने से यह बात अच्छी तरह समझमें आ जाती है । यद्यपि पं. वामदेवजीने इसमें जगह जगह अनेक परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन आदि किये हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्वतंत्र ग्रंथ है । शिष्टताकी दृष्टिसे अच्छा होता, यदि पं. वामदेवजीने अपने ग्रंथ में यह बात स्वीकार कर ली होती । " 66 ' इस परसे जाना जा सकता है कि वामदेवजी किस दर्जेके लेखक और विद्वान् थे । एक प्राचीन और प्रामाणिक आचार्यकी रचनाका उसका नाम लिये विना ही चुपचाप उसका रूपान्तर करके उन्होंने ग्रंथकार बनने का यश लूटा है । उसमें यदि उन्होंने कुछ परिवर्धन किया है तो वह उसी प्रकारका है जिसका एक उदाहरण हमारे सन्मुख है । उनसे कोई छहसौ वर्ष प्राचीन उक्त प्राकृत भावसंग्रह में ऐसे निषेधका नाम निशान तक नहीं है । अतएव स्पष्ट है कि वामदेवजीने १६ वीं शताब्दिके लगभग कहींसे यह बात जोड़ी है । अब इन्द्रनन्दिके नीतिसारान्तर्गत उपदेशको लीजिये । इसमें उक्त निषेधने और भी बड़ा उग्ररूप धारण किया है । यहां कहा गया है कि --- आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् । न वाचनीयं पुरतः सिद्धान्ताचारपुस्तकम् ॥ अर्थात्, “ आर्यिकाओंके सामने, गृहस्थोंके सामने और थोड़ी बुद्धिवाले शिष्य मुनियोंके १ भावसंग्रहादि ( मा. दि. जै. मं. ) भूमिका पू. ३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार सामने भी सिद्धान्त शास्त्र नहीं पढने चाहिये ।" इसके अनुसार गृहस्थ ही नहीं, किन्तु मंदबुद्धि मुनि और समस्त अर्जिकाएं भी निषेधके लपेटेमें आगये । इसका उत्तर हम स्वयं सिद्धान्त-ग्रंथकारों के शब्दोंमें ही देना चाहते हैं । पाठक सत्प्ररूपणाके सूत्र ५ और उसकी धवला टीकाको देखें । सूत्र है एदेसिं चेव चोद्दसण्हं जीवसमासाणं परूवणदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णायवाणि भवति ॥५॥ इसकी टीका है 'तत्थ इमाणि अट्ट अणियोगद्दाराणि ' एतदेवालं, शेषस्य नान्तरीयकत्वादिति चेन्नैष दोषः, मन्दबुद्धिसत्त्वानुग्रहार्थस्वात् । ___अर्थात् , 'तत्थ इामणि अट्ठ अणियोगहाराणि' इतने मात्र सूत्रसे काम चल सकता था, शेष शब्दोंकी सूत्रमें आवश्यकता ही नहीं थी, उनका अर्थ वहीं गर्भित हो सकता था ? इस शंकाका धवलाकार उत्तर देते हैं कि नहीं, यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्रकारका अभिप्राय मन्दबुद्धि जीवोंका उपकार करना रहा है । अर्थात्, जिस प्रकारसे मन्दबुद्धि प्राणिमात्र सूत्रका अर्थ समझ सकें उस प्रकार स्पष्टतासे सूत्र-रचना की गई है। यहां दो बातें ध्यान देने योग्य हैं । धवलाकारके स्पष्ट मतानुसार एक तो सूत्रकारका अभिप्राय अपना ग्रंथ केवल मुनियोंको नहीं, किन्तु सत्त्वमात्र, पुरुष स्त्री, मुनि, गृहस्थ आदि सभीको ग्राह्य बनानेका रहा है, और दूसरे उन्होंने केवल प्रतिभाशाली बुद्धिमानोंका ही नहीं, किन्तु मन्दबुद्धियों, अल्पमेधावियोंका भी पूरा ध्यान रखा है। ऐसी बात आचार्यजीने केवल यहीं कह दी हो, सो बात भी नहीं है। आगेका नौवां सूत्र देखिये जो इस प्रकार ह 'ओघेण अस्थि मिच्छादिट्ठी।' यहां धवलाकार पुनः कहते हैं कि यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायात् ओघाभिधानमन्तरेणापि ओघोऽवगम्यते, तस्येहपुनरुचारणमनर्थकमिति न, तस्य दुर्मेधोजनानुग्रहार्थत्वात् । सर्वसत्त्वानुग्रहकारिणो हि जिनाः, नीरागत्वात् । ___ अर्थात् , जिस प्रकार उद्देश होता है, उसी प्रकार निर्देश किया जाता है, इस नियमके अनुसार तो ' ओघ' शब्दको सूत्रमें न रखकर भी उसका अर्थ समझा जा सकता था, फिर उसका यहां पुनरुच्चारण अनर्थक हुआ ! इस शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं कि नहीं, दुर्भध, अर्थात् अत्यन्त मन्दबुद्धिवाले लोगोंके अनुग्रहके ध्यानसे उसका सूत्रमें पुनरुच्चारण कर दिया गया है । जिनदेव तो नीराग होते हैं, अर्थात् किसीसे भी रागद्वेष नहीं रखते, और इस कारण वे सभी प्राणियोंका उपकार करना चाहते हैं केवल मुनियों या बुद्धिमानोंका ही नहीं। (सत्प्र. १, पृ. १६२) और आगे चलिये। सत्प्र. सूत्र ३० में कहा गया है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तिर्यच मिश्र होते हैं । इस सूत्रकी टीका करते हुए आचार्य प्रश्न उठाते हैं कि 'गतिमार्गणाकी प्ररूपणा करने पर इस गतिमें इतने गुणस्थान होते हैं, और इतने नहीं' इस प्रकारके निरूपणसे ही यह जाना जाता है कि इस गतिकी इस गतिके साथ गुणस्थानोंकी अपेक्षा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ). षट्खंडागमकी प्रस्तावना समानता है, इसकी इसके साथ नहीं । अतः फिरसे इसका कथन करना निष्फल है । इस प्रश्नका आचार्य समाधान करते हैं कि ' न, तस्य दुर्मेधसामपि स्पष्टीकरणार्थत्वात् । प्रतिपाद्यस्य बुभुत्सितार्थविषयनिर्णयेोत्पादनं वक्तृवचसः फलम् इति न्यायात् । अर्थात्, पूर्वोक्त शंका ठीक नहीं, क्योंकि, दुर्मेध लोगोंको उसका भाव स्पष्ट हो जाने, य उसका प्रयोजन है । न्याय यही कहता है कि जिज्ञासित अर्थका निर्णय करा देना ही वक्ता के वचनोंका फल है । इसी प्रकार पृ. २७५ पर कहा है कि — अनवगतस्य विस्मृतस्य वा शिष्यस्य प्रश्नवशादस्य सूत्रस्यावतारात् ' अर्थात् उसे जिस बातका अभी तक ज्ञान नहीं है, अथवा होकर विस्मृत हो गया है, ऐसे शिष्य के प्रश्न वश इस सूत्रका अवतार हुआ है । पृ. ३२२ पर कहा है ' द्रव्यार्थिकनयात् सत्त्वानुग्रहार्थं तत्प्रवृत्तेः । ... बुद्धीनां वैचित्र्यात् । ... अस्यार्षस्य त्रिकाल गोचरानन्तप्राण्यपेक्षया प्रवृत्तत्वात् । अर्थात् उक्त निरूपण द्रव्यार्थिक नयानुसार समस्त प्राणियों के अनुग्रह के लिये प्रवृत्त हुआ है । भिन्न भिन्न मनुष्योंकी भिन्न भिन्न प्रकारकी बुद्धि होती है । और इस आर्ष-प्रथकी प्रवृत्ति तो त्रिकालवर्ती अनन्त प्राणियों की अपेक्षासे ही हुई है । पृ. ३२३ पर कहा है कि ' जातारेकस्य भव्यस्यारेकानिरसनार्थमाह ' अर्थात्, अमुक बात किसी भी भव्य जीवकी शंका के निवारणार्थ कही गई है । पू. ३७० पर कहा है- निशितबुद्धिजनानुग्रहार्थं द्रव्यार्थिकनया देशना, मन्दधियामनुग्रहार्थं पर्यायार्थिकनय | देशना । अर्थात्, तीक्ष्ण बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये द्रव्यार्थिकनयका उपदेश दिया गया है, और मन्द बुद्धिबालोंके लिये पर्यायार्थिकनयका । तृतीय भाग पृ. २७७ पर कहा है पुनरुत्तदोसो वि जिणत्रयणे संभवइ, मंदबुद्धिसत्ताणुग्गहट्ठदाए तस्स साफल्लादो । अर्थात्, जिन भगवान् के वचनोंमें पुनरुक्त दोषकी संभावना भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि, मंदबुद्धि जीवोंका उससे उपकार होता है, यही उसका साफल्य है । पृ. ४५३ पर कहा हैसुहुमपरूवणमेव किण्ण वुश्चदे ? ण, मेहावि- मंदाइमंदमेहाविजणाणुग्गहकारणेण तहोवएसा | अर्थात्, अमुक बातका सूक्ष्म प्ररूपणमात्र क्यों नहीं कर दिया, विस्तार क्यों किया ? इसका उत्तर है कि मेधावी, मंदबुद्धि और अत्यंत मंदबुद्धि, इन सभी प्रकार के लोगों का अनुग्रह करने के लिये उस प्रकार उपदेश किया गया है । इसी चतुर्थभागके पृ. ९ पर कहा है किममुभयथा णिद्देसो कीरदे ? न, उभयनयाव स्थित सच्चानुग्रहार्थत्वात् । ण तइओ णिदेसा अस्थि, णयद्दयसंट्ठियजीववदिरित्तसोदाराणं असंभवादो । अर्थात्, प्रश्न होता है कि ओघ और आदेश, ऐसा दो प्रकारसे ही क्यों निर्देश किया गया है ? Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार इसका उत्तर है कि दोनों नयोंवाले नहीं है, क्योंकि, उक्त दो नयों में है । पुनः पू. ११५ पर कहा है जीवोंके उपकारके लिये । तीसरे प्रकारका कोई निर्देश ही : स्थित जीवोंके अतिरिक्त तीसरे प्रकारके श्रोता होना असंभव एदेण दष्वपज्जघट्ठियणयपज्जायपरिणदजीवाणुग्गहकारिणो जिणा इदि जाणाविदं । अर्थात्, अमुक प्रकार कथनसे यह ज्ञात कराया गया है कि जिन भगवान् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नयवर्ती जीवोंका अनुग्रह करनेवाले होते हैं । पू. १२० पर कहा है- " 'किमङ्कं एदेसु तीसु सुत्तेसु पज्जयणयदेसणा' बहूणं जीवाणमणुग्गहङ्कं । संगहरुद्दजीवोहितो बहूणं वित्थररुइजीवाणमुवलंभादो । अर्थात्, इन तीन सूत्रोंमें पर्यायार्थिकनयसे क्यों उपदेश दिया गया है ? इसका उत्तर है कि जिससे अधिक जीवोंका अनुग्रह हो सके । संक्षेपरुचिवाले जीवोंसे विस्ताररुचिवाले जीव बहुत पाये जाते हैं । पृ. २४६ पर पाया जाता है उत्तमेव किमिदि पुणो वि उच्चदे फलाभावा ? ण, मंदबुद्धिभवियजणसंभालणदुवारेण फलोवलं भादो । अर्थात्, एक बार कही हुई बात यहां पुनः क्यों दुहराई जा रही है, इसका तो कोई फल नहीं है ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं- नहीं, मंदबुद्धि भव्यजनोंके संभालद्वारा उसका फल पाया जाता है । ये थोड़े से अवतरण धवल सिद्धान्तके प्रकाशित अंशोंमेंसें दिये गये हैं । समस्त धवल और जयधवलमेंसे दो चार नहीं, सैकडों अवतरण इस प्रकारके दिये जा सकते हैं जहां स्वयं धवलाके रचयिता वीरसेनस्वामीने यह स्पष्टतः विना किसी भ्रान्तिके प्रकट किया है कि यह सूत्र -रचना और उनकी टीका प्राणिमात्रके उपयोगके लिये, समस्त भव्यजनोंके हित के लिये, मन्द से मन्द बुद्धिवाले और महामेधावी शिष्योंके समाधानके लिये हुई है, और उनमें जो पुनरुक्ति व विस्तार पाया जाता है वह इसी उदार ध्येयकी पूर्ति के लिये है । स्वयं धवलाकार के ऐसे सुस्पष्ट आदेशके प्रकाशमें इन्द्रनन्दि आदि लेखकोंका आर्यिकाओं, गृहस्थों और अल्पमेधावी शिष्यों को सिद्धान्तपुस्तकों के न पढ़नेका आदेश आर्ष या आगमोक्त है, या अन्यथा, यह पाठक स्वयं विचार कर देख सकते हैं । अब हमारे सन्मुख रह जाता है पंडितप्रवर आशाधरजीका वाक्य, जो विक्रमकी १३ हवीं शताब्दिका है । उनका वह निषेधात्मक श्लोक सागारधर्मामृतके सप्तम अध्यायका ५० वां पद्म है । इससे पूर्व के ४९ वें श्लोक में ऐलककी स्वपाणिपात्रादि क्रियाओं का विधानात्मक उल्लेख है । तथा आगे के ५१ वे श्लोक में श्रावकोंको दान, शील, उपवासादिका विधानात्मक उपदेश दिया गया हैं । इन दोनों के बीच केवल वही एक श्लोक निषेधात्मक दिया गया है । सौभाग्यसे आशाधरजीने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) पखंडागमकी प्रस्तावना अपने श्लोकोंपर स्वयं टीका भी लिख दी है जिससे उनका लोकगत अभिप्राय खूब सुस्पष्ट हो जाय । उन्होंने अपने 'स्यानाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च' का अर्थ किया है 'सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्र. रूपस्य रहस्यस्य च प्रायश्चित्तशास्त्रस्य अध्ययने पाठे श्रावको नाधिकारी स्यादिति संबंधः। अर्थात्, सूत्ररूप परमागमके अध्ययनका अधिकार श्रावकको नहीं है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सूत्ररूप परमागम किसे कहना चाहिये । क्या वीरसेन-जिनसेन रचित धवला जयधवला टीकाएं सूत्ररूप परमागम हैं, या यतिवृषभके चूर्णिसूत्र परमागम हैं, या भगवत् पुष्पदन्त और भूतबलि तथा गुणधर आचार्योंके रचे कर्मप्राभृत और कषायप्राभृतके सूत्र व सूत्र-गायाएं सूत्ररूप परमागम हैं ? या ये सभी सूत्ररूप परमागम हैं ! सूत्रकी सामान्य परिभाषा तो यह है अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् । अस्तोभमनवधं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः॥ इसके अनुसार तो पाणिनिके व्याकरणसूत्र और वात्स्यायनके कामसूत्र भी सूत्र हैं, और पुष्पदन्त-भूतबलिकृत कर्मप्राभूत या षट्खंडागम और उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र आदि ग्रंथ सभी सूत्र कहे जाते हैं । किन्तु यदि जैन आगमानुसार सूत्रका विशेष अर्थ यहां अपेक्षित है तो उसकी एक परिभाषा हमें शिवकोटि आचार्यके भगवती आराधनामें मिलती है जहां कहा गया है किसुत्तं गणहरकहिय तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहिय अभिण्णदसपुविकहियं च ॥ ३४ ॥ इस गाथाकी टीका विजयोदयामें कहा है कि तीर्थंकरोंके कहे हुए अर्थको जो प्रथित करते हैं वे गणधर हैं, जिन्हें विना परोपदेशके स्वयं ज्ञान उत्पन्न हो जाय, वे स्वयंबुद्ध हैं, समस्त श्रुतांगके धारक श्रुतकेवली हैं और जिन्होंने दशपूत्रों का अध्ययन कर लिया है और विधाओंसे चलायमान नहीं होते, वे अभिन्नदशपूर्वी हैं । इनमें से किसीके द्वारा भी प्रथित प्रथको सूत्र कहते हैं । अब यदि हम इस कसोटी पर षटखंडागम सिद्धान्तको या अन्य उपलब्ध ग्रंथोंको कसे तो ये ग्रंथ 'सूत्र' सिद्ध नहीं होते, क्योंकि, न तो इनके रचयिता तीर्थंकर हैं, न प्रत्येकबुद्ध, न श्रुतकेवली और न अभिन्नदशपूर्वी हैं। धरसेनाचार्यको तो केवल अंग-पूर्वोका एकदेश ज्ञान आचार्यपरम्परासे मिला था। वह उन्होंने ग्रंथविच्छेदके भयसे पुष्पदन्त और भूतबलि आचायोंको सिखा दिया और उसके आधार पर कुछ ग्रंथरचना पुष्पदन्तने और कुछ भूतबलिने की, जो षट्खंडागमके नामसे उपलब्ध है और जिस पर विक्रमकी नौवीं शताब्दिमें वीरसेनाचार्यने धवला टीका लिखी । इस प्रकार यदि हम आशाधरजी द्वारा उक्त सूत्रको सामान्य अर्थमें लेते हैं तो षट्खंडागम सूत्रोंके अनुसार तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भी सूत्र हैं, सर्वार्थसिद्धि भी सूत्र ही ठहरता है, क्योंकि, इसमें षटखंडागमके सूत्रोंका संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है, गोम्मटसार भी सूत्र है, क्योंकि, इसमें भी षटखंडागमके प्रमेयांशका संग्रह, अर्थात् सूत्ररूपसे समुद्धार किया गया है, इत्यादि । पर यदि हम सूत्रका अर्थ भगवती आराधनाकी परिभाषानुसार लें, तो ये कोई भी अन्य सूत्र नहीं सिद्ध होते । इस स्थिति से बचनेका कोई उपाय उपलब्ध नहीं है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार ( ११ ) अब इन्हीं आशाधरजीके इसी सागारधर्मामृत के प्रथम अध्यायके १० वें श्लोक और उन्हीं के : द्वारा लिखी गई उसकी टीकाको देखिये - शलाकयेवाप्तगिराप्तसूत्रप्रवेशमार्गो मणिवच्च यः स्यात् । नोऽपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वद् भायादसौ सांव्यवहारिकाणाम् ॥ अर्थात्, जिस प्रकार एक मोती जो कि कांति-रहित है, उसमें भी यदि सलाईके द्वारा छिद्र कर सूत ( डोरा ) पिरोने योग्य मार्ग कर दिया जाय और उसे कांतिवाले मोतियोंकी माला में पिरो दिया जाय तो वह कांति-रहित मोती भी कांतिवाले मोतियोंके साथ वैसा ही, अर्थात् कांतिसहित ही सुशोभित होता है । इसी प्रकार जो पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं है वह भी यदि सद्गुरुके वचनों के द्वारा अरंहतदेव के कहे हुये सूत्रोंमें प्रवेश करनेका मार्ग प्राप्त कर ले, तो वह सम्यक्त्व - रहित होकर भी सम्यग्दृष्टियों में नयोंके जाननेवाले व्यवहारी लोगोंको सम्यग्दृष्टि के समान ही सुशोभित होता । सागारधर्मामृती टीका भी स्वयं आशाधरजीकी बनाई हुई है । उस लोककी टीका सूत्रका अर्थ परमागम और प्रवेशमार्गका अर्थ ' अन्तस्तत्रपरिच्छेदनोपाय ' किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि आशावरजीके ही मतानुसार अविरतसम्यग्दृष्टिकी तो बात क्या, सम्यक्त्वरहित व्यक्तिको भी परमागम के अन्तस्तत्रज्ञान करनेका पूर्ण अधिकार है । और भी सागारधर्मामृत दूसरे अध्यायके २१ वें श्लोकमें आशाधरजी कहते हैं तस्त्रार्थं प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशवतं तदीक्षाग्रनृता पराजितमहामन्त्रोऽस्तदुर्दैवतः । आंगं पौर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रान्तरः पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन्धन्यो निहन्त्यंहसी ॥ अर्थात्, तीर्थ याने धर्माचार्य व गृहस्थाचार्य के कथनसे जीवादिक पदार्थों को निश्चित करके, एक देशव्रतको धरके, दीक्षा से पूर्व अपराजित महामन्त्रका धारी और मिथ्या देवताओंका त्यागी तथा अंगों (द्वादशांग) व पूत्र ( चौदह पूत्र ) के अर्थसंग्रहका अध्ययन करके अन्य शास्त्रोंका भी अधीता पर्व अन्तमें प्रतिमायोगको धारण करनेवाला पुण्यात्मा जीव पापोंको नष्ट करता है । इस पद्यमें आशाधरजीने अजैनसे जैन बनने के आठ संस्कारों, अर्थात् अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढचर्या और उपयोगिताका संक्षेप में निरूपण किया है, जिसमें उन्होंने जैन बनने से पूर्व ही अर्थात् अपनी अजैन अवस्था में ही जैन श्रुतांगों अर्थात् बारह अंग और चौदह पूर्वके 'अर्थसंग्रह ' के अध्ययन कर लेनेका उपदेश दिया है । पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ और चर्या क्रियाओं का स्वरूप स्वयं वीरसेनस्वाम के शिष्य तथा जयधवला के उत्तरभाग के रचयिता जिनसेन स्वामीने महापुराण में भी इस प्रकार बतलाया है पूजाराध्याख्ययाख्याता क्रियाऽस्य स्यादतः परा । पूजोपवाससम्पत्त्या गृहतोऽङ्गार्थसंग्रहम् ॥ ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी । शृण्वतः पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिणः ॥ तदास्य चर्याख्या क्रिया स्वसमये श्रुतम् । निष्ठाप्य शृण्वतो ग्रंथाम्बायानन्यश्च कश्चन ॥ यहां भी जैन होनेसे पूर्व ही गृहस्थको अंगों के अर्थसंग्रहका तथा पूर्वोकी विद्याओंको सुन छेनेका पूरा अधिकार दिया गया हैं । यद्यपि मेधावीकृत धर्मसंप्रहश्रावकाचार इस समय हमारे सन्मुख नहीं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) षट्खंडागमकी प्रस्तावना है तथापि यह तो सुविदित है कि पं. मेधावी या मीहा जिनचन्द्रभट्टारकके शिष्य थे और उन्होंने अपना यह ग्रन्थ वि. सं, १५४१ में हिसार (पंजाब) नगरमें वसुनन्दि, आशाधर और समन्तभद्रक प्रन्योंके आधारसे बनाया था । धर्मोपदेशपीयूषवर्षाकर श्रावकाचारका तो हमने नाम ही इसी समय प्रथम वार देखा है, और यहां भी न तो उसके कर्ताका कोई नाम-धाम बतलाया गया और न उसकी किसी प्रति मुद्रित या हस्तलिखितका उल्लेख किया गया । अतएव इस अज्ञात कुल-शील "ग्रंथकी हम परीक्षा क्या करें ! यह कोई प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ तो ज्ञात नहीं होता। लेखकने एक वर्तमान रचयिता मुनि सुधर्मसागरजीके लिखे हुए 'सुधर्मश्रावकाचार ' का मत भी उद्धृत 'किया है। किन्तु प्राचीन प्रमाणोंकी ऊहापोहमें उसे लेना हमने उचित नहीं समझा । वह तो पूर्वोक्त ग्रंथोंके आश्रयसे ही आजका उनका मत है। . . इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थको सिद्धान्त-ग्रंथोंका निषेध करनेवाले ग्रंथोंमें जिन रचनाओंका समय निश्चयतः ज्ञात है वे १३ हवीं शताब्दिसे पूर्वकी नहीं हैं। उनमें सिद्धान्तका अर्थ भी स्पष्ट नहीं किया गया और जहां किया गया है वहां पूर्वापर-विरोध पाया जाता है। कोई उचित युक्ति या तर्क भी उनमें नहीं पाया जाता । यह तो सुज्ञात ही है कि जिन ग्रंथोंमें पूर्वापर-विरोध या विवेक वैपरीत्य पाया जावे वे प्रामाणिक आगम नहीं कहे जा सकते । इन्द्रनन्दिके वाक्योंका तो सीधे सिद्धान्त ग्रंथोंके ही वाक्योंसे विरोध पाया जाता है, अतः वह प्रामाणिक किस प्रकार गिना जा सकता है ? यथार्थतः प्रामाणिक जैन शास्त्रोंकी रचना और शासनके प्रवर्तनका चरमोन्नत काल तो उक्त समस्त ग्रंथों की रचनासे पूर्ववर्ती ही है । तब क्या कारण है कि इससे पूर्वके ग्रंथों में हमें गृहस्थ के सिद्धान्त ग्रंथोंके अध्ययनके सम्बन्धमें किसी नियंत्रणका उल्लेख नहीं मिलता ! श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उतम और सुप्रसिद्ध ग्रंथ स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार है, जिसे वादिराजसूरिने — अक्षयसुखावह ' और प्रभाचन्द्रने ' अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला निर्मल सूर्य' कहा है। इस ग्रंथमें श्रावकोंके अध्ययनपर कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया, किन्तु इसके विपरीत सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रको सम्पादन करना ही गृहस्थका सच्चा धर्म कहा है, तथा ज्ञान-परिच्छेदमें, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगसम्बन्धी समस आगमका स्वरूप दिखाकर यह स्पष्ट कर दिया है कि इनका अध्ययन गृहस्थके लिये हितकारी है। द्रव्यानुयोगका अर्थ भी वहां टीकाकार प्रभाचन्द्रजीने ' द्रव्यानुयोग सिद्धान्तसूत्र' ' किया है, जिससे स्पष्ट है कि गृहस्थ के सिद्धान्ताध्ययनमें उन्हें किसी प्रकारकी कैद अभीष्ट नहीं है । इस श्रावकाचारमें उपवासके दिन गृहस्थको ज्ञान-ध्यान परायण' होनेका विशेषरूपसे उपदेश है, तथा उत्कृष्ट श्रावकके लिये समय या आगमका ज्ञान अत्यन्त आवश्यक बतलाया है-समयं यदि जानीते, श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति ॥ ५, २७. ' यदि समयं आग जानीते, आगमज्ञो यदि भवति, तदा ध्रुवं निश्चयेन श्रेयो ज्ञाता स भवति' (प्रभाचंद्रकृत टीका) ...... १ रत्नकरण्डश्रावकाचार ( मा. में, मा.) १, ५. २ रत्नकरण्डावाकचार (मा. अं. मा.) ४, १८. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार (१३) धर्मपरीक्षादि ग्रन्थों के विद्वान् कर्ता अमितगति आचार्य विक्रमकी ११ हवीं शताब्दिमें हुए हैं । इनका बनाया हुआ श्रावकाचार भी खूत्र सुविस्तृत ग्रंथ है । इस ग्रंथ में उन्होंने ' जिनप्रवचनका अभिज्ञ' होना उत्तम श्रावकका आवश्यक लक्षण माना है । यथा- ऋजुभूतमनोबुद्धिर्गुरुशुश्रूषणोद्यतः । जिनप्रवचनाभिज्ञः श्रावकः सप्तधोत्तमः ॥ १३, २. आगे चलकर उन्होंने गृहस्थको आगमका अध्ययन करना भी आवश्यक बतलाया हैआगमाध्ययनं कार्यं कृतकालादिशुद्धिना । विनयारूढचित्तेन बहुमानविधायिना ॥ १३, १०. गृहस्थको स्वाध्यायके उपदेशमें स्वाध्यायके पांच प्रकारोंमें वाचना, आम्नाय और अनुप्रेक्षाका भी विधान है । यथा— वाचना पृच्छनाऽऽम्नायानुप्रेक्षा धर्मदेशना । स्वाध्यायः पंचधा कृत्यः पंचमीं गतिमिच्छता ।। १३, ८१ गृहस्थोंको जहां तक हो सके स्वयं जिनभगवान् के वचनों का पठन और ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि, उनके विना वे कृत्याकृत्य - विवेककी प्राप्ति, व आत्म अहितका त्याग नहीं कर सकते । जानात्यकृत्यं न जनो न कृत्यं जैनेश्वरं वाक्यमबुद्धमानः । करोत्यकृत्यं विजहाति कृत्यं ततस्ततो गच्छति दुःखमुग्रम् ॥ ६३, ८९ अनात्मनीनं परिहर्तुकामा ग्रहीतुकामाः पुनरात्मनीनम् । पठन्ति शश्वज्जिननाथवाक्यं समस्तकल्याणविधायि संतः ॥ १३, ९० यथार्थतः वे मूढ हैं जो स्वयं जिनभगवान् के कहे हुए सूत्रोंको छोड़कर दूसरोंके वचनोंका आश्रय लेते हैं । जिनभगवान् के वाक्यके समान दूसरा अमृत नहीं है— सुखाय ये सूत्रमपास्य जैनं मूढाः श्रयंते वचनं परेषाम् । १३,९१ विहाय वाक्यं जिनचन्द्रदृष्टं परं न पीयूषमिहास्ति किंचित् ॥ १३, ९२ इत्यादि यशः कीर्तिकृत प्रबोधसार भी श्रावकाचारका उत्तम ग्रंथ है । इसमें गृहस्थोंको उपदेश दिया गया है कि श्रुतके अभाव में तो समस्त शासनका नाश हो जायगा, अतः सब प्रयत्न करके श्रुतके सारका उद्धार करना चाहिये । श्रुतसे ही तत्त्वों का परामर्श होता है और श्रुतसे ही शासन की वृद्धि होती है । तीर्थंकरोंके अभाव में शासन श्रुतके ही आधीन है, इत्यादि. नश्यत्येव ध्रुवं सर्व श्रुताभावेऽत्र शासनम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रुतसारं समुद्धरेत् ॥ श्रुतात्तत्वपरामर्शः श्रुतात्समयवर्द्धनम् । तीर्थेशाभावतः सर्वं श्रुताधीनं हि शासनम् ।। ३, ६३-६४. इस प्रकार प्राचीन श्रावकाचार-ग्रंथोंने गृहस्थोंके लिये न केवल सिद्धान्ताध्ययनका निषेध नहीं किया, किन्तु प्रबलतासे उसका उपदेश दिया है । हम ऊपर बतला ही आये हैं कि स्वयं भगवान् कुंदकुंदाचार्य अपने सूत्रपाहुडमें जिनभगवान् के कहे हुए सूत्रके अर्थ के ज्ञानको सम्यग्दर्शनका अत्यन्त आवश्यक अंग कहते हैं, और सूत्रार्थसे जो च्युत हुआ उसे वे मिध्यादृष्टि समझते हैं । सिद्धान्त किसे कहना चाहिये, इस बातकी पुष्टिमें केवल इद्रनंन्दि और विबुधश्रीधरकृत १ सखाराम नेमचंद ग्रंथमाला, सोलापुर, १९२८२ अनन्तकीर्ति जैनग्रंथमाला, बम्बई, १९७९. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) षट्खंडागमको प्रस्तावना श्रुतावतारोंके ऐसे अवतरण दिये गये हैं, जिनमें कर्मप्रामृत और कषायप्राभृतको 'सिद्धान्त ' कहा गया है, तथा अपभ्रंश कवि पुष्पदन्तका वह अवतरण दिया है जहां उन्होंने धवल और जयधवलको सिद्धान्त कहा है। किन्तु इन ग्रन्थोंके सिद्धान्त कहे जानेसे अन्य ग्रंथ सिद्धान्त नहीं रहे, यह कौनसे तर्कसे सिद्ध हुआ, यह समझमें नहीं आता । इस सिलसिलेमें गोम्मटसारको असिद्धान्त सिद्ध करनेके लिये गोम्मटसारकी टीकाके वे अंश उद्धृत किये गये हैं जिनमें कहा गया है कि षट्खंडागमका निरक्शेष प्रमेयांश लेकर गोम्मटसारकी रचना की गई है । लेखकके अनुसार " इस कथनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गोम्मटसार सिद्धान्तग्रंथ नहीं है, किन्तु सिद्धान्तग्रंथोंसे सारे लेकर बनाया गया है। सिद्धान्त ग्रंथ दो ही हैं, यह बात भी इन पंक्तियोंसे सिद्ध हो जाती है।" किन्तु उन पंक्तियोंमें हमें ऐसा व्यवच्छेदक भाव जरा भी दृष्टिगोचर नहीं होता । न तो लेखक सिद्धान्तकी कोई परिभाषा दे सके, जिससे केवल उक्त दो ही सिद्धान्त-ग्रंथ ठहर जायें और अन्य गोम्मटसारादि ग्रंथ सिद्धान्तश्रेणी के बाहर पड़ जायें । और न कोई ऐसा प्राचीन उल्लेख ही बता सके, जहां कहा गया हो कि सिद्धान्त-ग्रंथ केवल दो ही हैं, अन्य नहीं । यथार्थ बात तो यह है कि सिद्धान्त, आगम, प्रवचन ये सब शब्द एक ही अर्थके पर्यायवाची शब्द हैं । स्वयं धवलाकारने कहा है-'भागमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो ' ( सत्प्र. १ पृ. २०) . अर्थात् , आगम, सिद्धान्त, प्रवचन, ये सब एक ही अर्थके बोधक शब्द हैं । लेखकने भी आगम और सिद्धान्तको एकार्थवाची स्वीकार किया है। यही नहीं, किन्तु गृहस्थोंको सिद्धान्ताध्ययनका निषेध करनेवाले पूर्वोक्त साधारण परस्पर-विरोधी कथन करनेवाले और युक्ति-हीन वाक्योंको भी वे 'आगम' करके मानते हैं । किन्तु सिद्धान्तोंके निरवशेष प्रमेयांशका समुद्वार करनेवाले गोम्मटसारको सिद्धान्त माननेमें उन्हें ऐतराज है । षट्खंडागम भी तो महाकर्मप्रकृतिपाहुडका संक्षिप्त समुद्धार है । फिर यह कैसे सिद्धान्त बना रहता है, और गोम्मटसार कैसे सिद्धान्त-बाह्य: हो जाता है; यह युक्ति समझमें नहीं आती । यदि किसीके किन्हीं ग्रंथोंको सिद्धान्त कहनेसे ही अन्य दूसरे ग्रंथ असिद्धान्त हो जाते हों, तो गोम्मटसारादि ग्रंथोंके भी सिद्धान्तरूपसे उल्लिखित किये जानेके प्रमाण दिये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, राजमल्लकृत लाटीसंहिता नामक श्रावकाचार ग्रंथमें उल्लेख हैतदुक्तं गोम्मटसारे सिद्धान्ते सिद्धसाधने । तत्सूत्रं च यथाम्नायात् प्रतीत्य वहिम साम्प्रतम् ॥ ५, १३५. इस प्रकारके उल्लेखोंसे क्या गोम्मटसार सिद्धान्त ग्रंथ सिद्ध नहीं होता ! और क्या उसके सिद्धान्त ग्रंथ सिद्ध हो जानेसे शेष ग्रंथ सिद्धान्तबाह्य सिद्ध हो जाते हैं ? यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो समस्त जैनधर्म और सिद्धान्तका ध्येय जिनोक्त वाक्योंको सर्वव्यापी बनानेका रहा है । वयं तीर्थंकरके समवसरणमें मनुष्यमात्र ही नहीं, पशु-पक्षी आदि तक सम्मिलित होते थे, जो सभी भगवान्के उपदेशको सुन समझ सकते थे। जब द्वादशांग वाणीकी आधारभूत दिव्यप्वनि तकको सुननेका अधिकार समस्त प्राणियोंको है, तब उस वाणीके सारांशको प्रथित करने Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार वाले कोई भी सिद्धान्त ग्रंथ श्रावकोंके लिये क्यों निषिद्ध किये जायंगे, यह समझमें नहीं आता । सम्यग्दर्शनको निर्मल बनानेके लिये सिद्धान्तका आश्रय अत्यंत वांछनीय है। समस्त शंकाओंका निवारण होकर निःशंकिट-अंगकी उपलब्धिका सिद्धान्ताध्ययनसे बढ़कर दूसरा उपाय नहीं। जिन सैद्धान्तिक बातोंके तर्क-वितर्कमें विद्वानोंका और जिज्ञासुओंका न जाने कितना बहुमूल्य समय व्यय हुआ करता है और फिर भी वे ठीक निर्णय पर नहीं पहुंच पाते, ऐसी अनेक गुत्थियां इन सिद्धान्त ग्रंथोंमें सुलझी हुई पडी हैं । उनसे अपने ज्ञानको निर्मल और विकसित बनानेका सीधा मार्ग गृहस्थ जिज्ञासुओं और विद्यार्थियोंको क्यों न बताया जाय ? स्वयं धवलसिद्धान्तमें कहीं भी ऐसा नियंत्रण नहीं लगाया गया कि ये ग्रंथ मुनियोंको ही पढ़ना चाहिये, गृहस्थोंको नहीं। बल्कि, जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, जगह जगह हमें आचार्यका यही संकेत मिलता है कि उन्होंने मनुष्यमात्रका ख्याल रखकर व्याख्यान किया है। उन्होंने जगह जगह कहा है कि 'जिन भगवान् सर्वसत्त्वोपकारी होते हैं, और इसलिये सबकी समझदारीके लिये अमुक बात अमुक रीतिसे कही गई है । यदि सिद्धान्तोंको पढ़नेका निषेध है, तो वह अर्थ या विषय की दृष्टिसे है कि भाषाकी दृष्टिसे, यह भी विचार कर लेना चाहिए । धवलादि सिद्धान्तग्रंथोकी भाषा वही है जो कुंदकुंदाचार्यादि प्राकृत ग्रंथकारोंकी रचनाओंम पाई जाती है, जिसके अनेक व्याकरण आदि भी हैं । अतएव भाषाकी दृष्टिसे नियंत्रण लगानेका कोई कारण नहीं दिखता। यदि विषयकी दृष्टिसे देखा जाय तो यहांकी तत्वचर्चा भी वही है जो हमें तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, गोम्मटसार आदि ग्रंथोंमें मिलती है। फिर उसी चर्चाको गृहस्थ इन ग्रंथोंमें पढ़ सकता है, लेकिन उन ग्रंथोंमें नहीं, यह कैसी बात है ? यदि सिद्धान्त-पठनका निषेध है तो ये सब ग्रंथ भी उस निषेध-कोटिमें आवेंगे। जब सिद्धान्ताध्ययनके निषेधवाले उपर्युक्त अत्यंत आधुनिक पुस्तकोंको सिद्धान्तके पर्यायवाची शब्द आगमसे उल्लिखित किया जा सकता है, तब एक अत्यन्त हीन दलीलके पोषण-निमित्त गोम्मटसार व सर्वार्थसिद्धि जैसे ग्रंथोंको सिद्धान्तबाह्य कह देना चरमसीमाका साहस और भारी अविनय है। यथार्थतः सर्वार्थसिद्धिमें तो कर्मप्राभृतके ही सूत्रोंका अक्षरशः उसी क्रमसे संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है, जैसा कि धवलाके प्रकाशित भागोंके सूत्रों और उनके नीचे टिप्पणोंमें दिये गये सर्वार्थसिद्धिके अवतरणोंमें सहज ही देख सकते हैं। राजवार्तिक आदि ग्रंथोंको धवलाकारने स्वयं बड़े आदरसे अपने मतोंकी पुष्टिमें प्रस्तुत किया है। गोम्मटसार तो धवलादिका सारभूत ग्रंथ ही है, जिसकी गाथाएं की गाथाएं सीधी वहांसे ली गई हैं। उसके सिद्धान्तरूपसे उल्लेख किये जानेका एक प्रमाण भी ऊपर दिया जा चुका है। ऐसी अवस्थामें इन पूज्य ग्रंथोंको ' सिद्धान्त नहीं है ' ऐसा कहना बड़ा ही अनुचित है। ___ मैं इस विषयको विशेष बढ़ाना अनावश्यक समझता हूं, क्योंकि, उक्त निषेधके पक्षमें न प्राचीन ग्रंथोंका बल है और न सामान्य युक्ति या तर्कका । जान पड़ता है, जिस प्रकार वैदिक धर्मके इतिहासमें एक समय वेदके अध्ययनका द्विजोंके अतिरिक्त दूसरोंको निषेध किया गया श्रा, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) षट्खंडागमकी प्रस्तावना उसी प्रकार जैन समाजके गिरतीके समयमें किसी — गुरु ' ने अपने अज्ञानको छुपानेके लिये यह सार-हीन और जैन उदार-नीतिके विपरीत बात चला दी, जिसकी गतानुगतिक थोड़ीसा परम्परा चलकर आज तक सद्ज्ञानके प्रचारमें बाधा उत्पन्न कर रही है। सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र और चामुण्डरायजी के विषयमें जो कथा कही जाती है वह प्राचीन किसी भी ग्रंथमें नहीं पाई जाती और पीछेकी निराधार निरी कल्पना प्रतीत होती है। ऐसी ही निराधार कल्पनाओंका यह परिणाम हुआ कि गत सैकड़ों वर्षों में इन उत्तमोत्तम सिद्धान्त ग्रंथोंका पठन-पाठन नहीं हुआ और उनका जैन साहित्यके निर्माणमें जब जितना उपयोग होना चाहिये था, नहीं हुआ। यही नहीं, इनकी एक मात्र अवशिष्ट प्रतियां भी धीरे धीरे विनष्ट होने लगी थीं। महाधवलकी प्रतिमेंसे कितने ही पत्र अप्राप्य हैं और कितने ही छिद्रित आदि हो जानेसे उनमें पाठ-स्खलन उत्पन्न हो गये हैं। यह जो लिखा है कि इन सिद्धान्त ग्रंथोंकी कापियां करा कराके जगह जगह विराजमान करा दी जानी चाहिए, सो ये कापियाँ कौन करेगा? श्रावक ही तो? या मुनिजनोंको दिया जायगा, सो भी अल्पबुद्धि नहीं, विद्वान् मुनियोंको ? यथार्थतः गृहस्थों द्वारा ही तो उनकी प्रतिलिपियां की गईं, और की जा सकती हैं, तथा गृहस्थों द्वारा ही उनका जो कुछ उद्धार संभव है, किया जा रहा है। इसमें न तो कोई दूषण है, न बिगाड़ । अब तो जैन सिद्धान्तको समस्त संसारमें घोषित करनेका यही उपाय है । हाथ कंकनको आरसी क्या ? २. शंका-समाधान पुस्तक १, पृष्ठ २३४ १. शंका-'तद्भ्रमणमंतरेणाशुभ्रमज्जीवानां भ्रमद्भूम्यादिदर्शनानुपपत्तेः इति' । इस वाक्यका अर्थ मुझे स्पष्ट नहीं हो सका। उसमें पृथ्वीके परिभ्रमणका उल्लेखसा प्रतीत होता है । उसका अर्थ खोलकर समझाने की कृपा कीजिये । (नेमीचंदजी वकील, सहारनपुर, पत्र २४-११-४१) समाधान-प्रस्तुत प्रकरणमें शंका यह उठाई गई है कि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीव-प्रदेशोंका भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों न मान लिया जाय, क्योंकि, सर्व जीव-प्रदेशोंके भ्रमण माननेपर उनके शरीरके साथ सम्बन्ध विच्छेदका प्रसंग आता है ? इस शंकाका उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैं कि 'यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीव-प्रदेशोंका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगतिसे भ्रमण करते हुए जीवोंको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता है।' इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई व्यक्ति शीघ्रतासे चक्कर लेता है तो उसे कुछ क्षणके लिये अपने आस पास चारों भोरका समस्त भूमंडल पृथिवी, पर्वत, वृक्ष, गृहादि घूमता हुआ दिखाई देता है । इसका कारण उपर्युक्त समाधानमें यह सूचित किया गया है, कि उस व्यक्तिक शीघ्रतासे चक्कर लेनेकी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान (१७) अवस्थामें उसके जीवप्रदेश भी शरीरके भीतर ही भीतर शीघ्रतासे भ्रमण करने लगते हैं, जिसके कारण उसे पृथिवी आदि सब घूमते हुए दिखाई देने लगते हैं। यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीवप्रदेशोंको स्थिर माना जाय तो उक्त अवस्थामें भूमंडलादिके घूमते हुए दिखनेका कोई कारण नहीं रह जाता । इसलिये आचार्य कहते हैं कि 'आत्मप्रदेशोंके भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रियप्रमाण आत्मप्रदेशोंका भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिये । आधुनिक मान्यतासम्बन्धी भूभ्रमणका तो दर्शन किसीको किसी अवस्थामें भी होता नहीं है। इसलिये यहां उस भूमिभ्रमणका कोई उल्लेख नहीं प्रतीत होता । पुस्तक २, पृ. ४२३. २ शंका- नकशा नं. २ में प्राणके खानेमें सयोगिकेवलीकी अपेक्षा २ प्राण भी होना चाहिये ? (रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर. पत्र, ३-४-४१.) समाधान-प्रस्तुत प्रकरणमें अपर्याप्त जीवोंके सामान्य आलाप बतलाए गए हैं, जिनमें क्रमशः संज्ञी पंचेन्द्रियसे लगाकर एकेन्द्रिय तकके समस्त जीवोंकी विवक्षा है, केवलिसमुद्धात जैसी विशेष अवस्थाओंकी यहां विवक्षा नहीं है। इसी कारण शंकाकार द्वारा बतलाये गये २ प्राण न मूल टीकामें कहे गये, न अनुवादमें लिये गये, और न उक्त नकशेमें दिखाये गये । किन्तु पृष्ठ नं. ४४४ नकशा नं. २५ पर जहां सयोगिकेवलीके ही आलाप बतलाये गये हैं, वहांपर साधारण अवस्थामें होनेवाले चार प्राणोंका और विशेष अवस्थामें होनेवाले उक्त दो प्राणोंका उल्लेख किया ही गया है। पुस्तक २, पृ. ४३२-४३५ ३ शंका-अर्थमें तथा नकशा नं. १४, १५, १६ और १७ में वेदके आलापमें जो तीन वेद कहे हैं सो वहां ३ भाव वेद कहना चाहिये । ( नानकचंदजी, खतौली, पत्र ता. १०-११-४१. समाधान-नकशा नं. १४, १५, १६, १७ संबंधी आलापोंमें तथा इससे आगे पीछेके सभी आलापोंमें भाववेदकी ही विवक्षा की गई है। धवलाकारने लेश्या आलापमें जैसे द्रव्यलेश्या और भावलेश्याका विभाग कर पृथक् पृथक् वर्णन किया है, वैसा वेद आलापमें द्रव्यवेद और भाववेदका विभाग कर मूलमें कहीं वर्णन नहीं किया है । अतः उक्त नकशोंमें भी भाववेद लिखनेकी आवश्यकता नहीं समझी, यद्यपि तात्पर्य यहां तथा अन्यत्र भाववेदसे ही है। पुस्तक २, पृ. ४३४ ।। ४ शंका-पृष्ठ ४३३ पर जो प्रमत्तसंयत पर्याप्त तथा अपर्याप्तका कथन है, उनके यंत्र क्यों नहीं बनाए गए ? __ (नानकचंदजी, खतौली, पत्र ता. १०-११-४१) ___ समाधान-प्रस्तुत ग्रंथभागमें उन्हीं यंत्रोंको बनाया गया है, जिनका वर्णन धवला टीकामें पाया जाता है । प्रमत्तसंयत पर्याप्त तथा अपर्याप्तके आलापोंका धवला टीकामें कथन नहीं है, अतः उनके पृथक् यंत्र भी नहीं बनाये गये । तो भी विषयके प्रसंगवश विशेषार्थके अन्तर्गत सर्व साधारण Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना पाठकोंके परिज्ञानार्थ पृ. ४३३ पर उनका कथन किया गया है । पुस्तक २, पृ. ४५१ . ५ शंका-पृ. ४५१, यंत्र ३१, में प्राणमें अ, लिखा है सो नहीं होना चाहिये ! ( नानकचंदजी खतौली, पत्र १०-११-४१) समाधान-जिन गुणस्थानों या जीवसमासोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त कालसम्बन्धी आलाप सम्भव हैं, उनके सामान्य आलाप कहते समय पाठकोंको भ्रम न हो, इसलिए पर्याप्त कालमें सम्भव प्राणों के आगे प लिखा गया है । तथा अपर्याप्त कालमें सम्भवित प्राणों के आगे अ लिखा गया है। इसी नियमके अनुसार प्रस्तुत यंत्र नं. ३१ में नारक सामान्य मिथ्यादृष्टियोंके आलाप प्रकट करते समय पर्याप्त अवस्थामें होनेवाले १० प्राणोंके नीचे प और अपर्याप्त अवस्थामें सम्भव ७ प्राणोंके आगे अ लिखा गया है। पुस्तक २, पृ. ६२३ ६ शंका-पृ. ६२३ के विशेषार्थमें यह और होना चाहिए कि चौदहवें गुणस्थानमें पर्याप्तका उदय रहता है, लेकिन नोकर्मवर्गणा नहीं आती ? (रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर, पत्र ३-४-४१) __ समाधान-उक्त विशेषार्थमें जो बात सयोगिकेवलीके लिये कही गई है, वह अयोगिकेवल के लिये भी उपयुक्त होती है । अतएव वहां उक्त भावार्थको लेनेमें कोई आपत्ति नहीं। पुस्तक २, पृ. ६३८ ७ शंका-यंत्र नं. २५३ के प्राणके खानेमें ३, २ भी होना चाहिए, क्योंकि, योगके खानेमें ६ योग लिखे हैं ? ( रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर, पत्र ३-४-४१) समाधान-योगके खानेमें ६ योग लिखे जानेसे ३ और २ प्राण और भी कहनेकी आवश्यकता प्रतीत होना स्वाभाविक ही है। किन्तु, यहांपर ६ योगोंका उल्लेख विवक्षाभेदसे ही किया गया है, जैसा कि मूलके ' अथवा तीन योग ' इस कथन से स्पष्ट है, और जिसका कि अभिप्राय वहीं पर विशेषार्थमें स्पष्ट कर दिया गया है ( देखो पृ. ६३८ )। इसी कारण प्राणोंके खानेमें ३ और २ प्राणोंका उल्लेख नहीं किया गया है। पुस्तक २, पृ. ६४८ ८ शंका-पृ. ६४८ पर काययोगी अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलापमें वेद लिखा है सो यहां भाववेद होना चाहिए ! ( नानकचंदजी खतौली, पत्र १०-११-४१) समाधान- इसका उत्तर शंका नं. ३ में दे दिया गया है। पुस्तक २, पृ. ६५४, ६६० ९ शंका-पृष्ठ ६५४ पर समाधान जो पहला किया गया है, उसमें लिखा है कि 'अपर्याप्त योगमें वर्तमान कपाटसमुद्धातगत सयोगकेवलीका पहलेके शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान ( १९ ) रहता है । यही पृष्ठ ६६० पर समाधान करते हुए लिखा है । यह किस अपेक्षासे कहा है ! क्या समुद्धात पूर्व मूलशरीर से सम्बन्ध छूट जाता है ? ( नानकचंदजी, खतौली, पत्र १०-११-४१ ) समाधान - अपर्याप्त योगमें वर्तमान कपाटसमुद्घातगत सयोगकेवलीका पहले के शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता, ' इसका अभिप्राय यह लेना चाहिये कि उक्त अवस्थामें जो आत्मप्रदेश शरीर से बाहर फैल गए हैं, उनका शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं रहता है । आत्मप्रदेशों के बाहर निकलनेपर भी यदि शरीर के साथ सम्बन्ध माना जायगा, तो जिस परिमाण में जीव- प्रदेश फैले हैं, उतने परिमाणवाला ही औदारिकशरीरको होना पड़ेगा । किन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं, अतः यह कहा गया है कि कपाटसमुद्घातगत सयोगकेवलीका पहले के शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता । किन्तु जो आत्मप्रदेश उस समय शरीर के भीतर हैं, उनसे तो सम्बन्ध बना ही रहता है । इसी प्रकार किसी भी समुद्धातकी दशा में पूर्व मूलशरीरसे सम्बन्ध नहीं छूटता है । समुद्धात के लक्षणमें स्पष्ट ही कहा गया है कि मूलशरीरको न छोड़कर जीवके प्रदेशों के बाहर निकलनेको समुद्घात कहते हैं । पुस्तक २, पृ. ८०८ १० शंका - पृ. ८०८ पंक्ति १२ में सात प्राणके आगे दो प्राण और होना चाहिए, क्योंकि, सयोगीके अपर्याप्त अवस्थामें दो प्राण होते हैं । ( रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर, पत्र ३४-४-१ ) यंत्र नं. ४७७ में प्राणमें ४-१ प्राण और लिखना चाहिए ( नानकचंदजी, खतौली, पत्र १०-११-४१ ) समाधान - इसका उत्तर वही है जो कि शंका नं. २ में दिया गया है पुस्तक ३, पृ. २३ २ अ ११ शंका – २ की वर्गशलाका अ होगी यह शुद्ध ज्ञात नहीं होता, क्योंकि = २५६ होता है, और २५६ की वर्गशलाका ३ है, ४ नहीं ? ( नेमीचंदजी वकील, सहारनपुर, पत्र २४ -११--४१ ) का अर्थ है २ का २ के प्रमाण वर्ग । अत्र यदि हम अ को ४ के २ अ - २ २ अ २४ 98 समाधान बराबर मान लें तो. २ = २= २ = २५६ × २५६ = ६५५३६, जिसकी वर्गशलाका ४ होगी । शंकाकारने भूल यह की -- २अ २ अ है कि २ = ( २ ) मान लिया है । किन्तु (अ) अ = २ होता है । अतएव अनुवाद में उदाहरण ऐसा नहीं है । प्रचलित पद्धतिके अनुसार २ रूपसे जो बात कही गई है उसमें कोई दोष नहीं है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना 1 पुस्तक ३, पृ. ३० राशिगत अल्पबहुत्व निरूपण में जो अभव्योंसे सिद्धकालका गुणकार छह महिनोंके अष्टम भागमें एक मिला देने पर उत्पन्न हुई समय- संख्यासे भाजित अतीत कालका अनन्तवां भाग कहा है वह अशुद्ध प्रतीत होता है । मेरी राय में अतीत कालको छह माह आठ समय से भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसको ६०८ से गुणा करनेपर उत्पन्न हुई राशिका अनन्तवां भाग गुणकार होना चाहिये ! ( नेमीचंदजी वकील, सहारनपुर, पत्र २४-११-४१ ) समाधान - उक्त शंका में शंकाकारकी दृष्टि उस प्रचलित मान्यता पर है जिसके अनुसार प्रत्येक छह माह आठ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं । किन्तु धवला में उक्त स्थलपर दिये गये अल्पबहुत्वमें उक्त पाठ द्वारा उसकी सिद्धि नहीं होती, जब तक कि उस पाठको विशेषरूप से परिवर्तित न किया जाय । उक्त स्थलका अर्थ करते समय हमारी भी दृष्टि इस बातपर थी । किन्तु उपलब्ध पाठ वैसा होने तथा मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतियोंके मिलानसे भी उस पाठमें कोई परिवर्तन प्राप्त न होनेसे हम उस पाठको बदलने या मूलको छोड़कर अर्थ करने में असमर्थ रहे । यथार्थतः उक्त पाठसे आगे जो सिद्धों का गुणकार हमने ' रूपशत पृथक्त्व ' ग्रहण कर लिया था वह उपर्युक्त दृष्टि ही केवल एक प्रतिके आधार पर किया था । किन्तु दो प्रतियों में उसके स्थानपर 'रूपदशपृथक्त्व ' पाठ था, और मूडबिद्रीके प्रति- मिलान से भी इसी पाठकी पुष्टि हुई है । अतः इससे वह संदर्भ और भी शंकास्पद और विचारणीय हो गया है । अतएव जब तक कोई स्पष्ट प्रमाण इस सम्बन्धका न मिल जावे तब तक उस सम्बन्धमें निर्णयात्मक कुछ नहीं कहा जा सकता । 1 ( २० ) १२ शंका – यहां सोलह - पुस्तक ३, पृ. ३५ १३ शंका-" रज्जुके अर्धच्छेद उत्तरोत्तर एक एक द्वीप और एक एक समुद्र में पड़ते हैं, किन्तु लवणसमुद्रमें दो अर्धच्छेद पड़ेंगे ।" यह बात समझमें नहीं आती । जब धातकी - खंडमें एक अर्धच्छेद पड़ेगा, और लवणसमुद्र उसका आधा है, तब उसमें दो अर्धच्छेद कैसे पड़ जायगे ! ( नेमीचंदजी वकील, सहारनपुर, पत्र २३-११-४१.) समाधान- उपर्युक्त शंकाका समाधान रज्जुके अर्धच्छेदों की व्यवस्थाको स्पष्टतः समझ लेनेसे सहज ही हो जाता है । समस्त तिर्यग्लोक एक रज्जुप्रमाण है । अतः रज्जुको प्रथम वार आधा करने से प्रथम अर्धच्छेद जम्बूद्वीप के मध्य में मेरुपर पड़ा । दूसरी बार जब हम रज्जुको आधा करेंगे तो यह दूसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमणद्वपिकी परिधिसे कुछ आगे चलकर स्वयंभूरमणसमुद्र में पड़ेगा, क्योंकि, उक्त समुद्रका विस्तार भीतर के समस्त द्वीप - समुद्रोंके सम्मिलित विस्तारसे कुछ अधिक है । इसी प्रकार रज्जुको तीसरी वार आधा करनेपर तीसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमणद्वीपमें उसकी प्रारम्भिक सीमासे कुछ और विशेष आगे चलकर पड़ेगा । इस प्रकार रज्जु उत्तरोत्तर छोटा होता जावेगा और उत्तरोत्तर अर्धच्छेद प्रत्येक द्वीप - समुद्र में पड़ते जायेंगे, किन्तु उनका स्थान Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान ( २१ ) उस उस द्वीप समुद्रकी भीतरी परिधिसे उत्तरोत्तर आगेको बढ़ता जावेगा । इस प्रकार होते होते अन्तिम समुद्र लवणसागरमें एक अर्धच्छेद उसकी बाह्य सीमाके समीप और दूसरा उसकी भीतरी सीमा समीप पड़ जावेगा । यही बात निम्न चित्रसे और भी स्पष्ट हो जावेगी । मान लो कि स्वयंभूरमण समुद्र जम्बूद्वीपसे आगे तीसरे वलयपर है, और उसीकी बाह्य सीमापर रज्जुका अन्त होता है । रज्जुका प्रथम अर्धच्छेद तो जम्बूद्वीप के मध्य में मेरुपर पड़ेगा ही । अब वहांसे आगेका विस्तार पचास हजार योजनको १ मान लेनपर केवल १+४+८+ १६ =२९ योजन रहा । जं. द्वी. m त 마마 த் v 5 ar 20 9 只 ९ ।। 11 द्वी. १३ }," க் r १७ २१ I स्वयंभूरमण समुद्र z अतएव रज्जुका दूसरा अर्थच्छेद १४३ योजन पर स्वयंभूरमणसमुद्र में, तीसरा अर्थच्छेद ७४ योजन पर उससे पूर्ववर्ती द्वीपमें, चौथा अर्धच्छेद ३1⁄2 योजन पर लवणसमुद्रकी बाह्य सीमाके समीप, तथा पांचवां अर्धच्छेद १ योजन पर लवणसमुद्र की आभ्यंतर सीमा के समीप पड़ेगा । इस प्रकार हम कितने ही द्वीप समुद्र आगे आगे मान लें तो भी लवणसमुद्र में अन्ततः दो ही अर्थच्छेद पड़ेंगे । यही बात त्रिलोकसार की गाथा नं. ३५२ - ३५८ में कही गई है । २५ 1111 २९ पुस्तक ३, पृ. ४४ १४ शंका - पुस्तक ३ के पू. ४४ पर क्षेत्राकारके द्वारा जो यह समझाया गया है कि संपूर्ण जीवराशिके वर्गको दूसरे भाग अधिक जीवराशिले भाजित करनेपर तीसरा भागहीन जीवराशि प्राप्त होती है, सो यह बात वहां दिये गये आकारसे समझ नहीं आती । कृपया समझाइये ? (नेमीचंदजी वकील, सहारनपुर, पत्र २४-११-४१ ) समाधान - मान लीजिये, सर्व जीवराशि १६ है, इसका वर्ग हुआ १६×१६ = २५६. अब यदि हम इस जीवराशिके वर्ग ( २५६ ) में जीवराशि (१६ ) का भाग देते हैं तो २५ = १६ अर्थात् जीवराशि प्रमाण ही लब्धआता है । और यदि उसी जीवराशिके वर्ग में द्विभाग अधिक जीवराशि ( १६ + ८ = २४ ) का भाग देते है तो त्रिभागहीन जीवराशिप्रमाण, अर्थात् १६ – १६ = १० डे आता है; जैसे २ = १०. इसी बात को धवलाकारने क्षेत्रमिति द्वारा भी समझाया है जिसका कि अनुबादके साथ चित्र भी दिया गया है । इस चित्रमें सड जीवराशि ( मानलो १६ ) है, उसको स ड' (१६) वर्गित करनेपर प्रतराकार क्षेत्र स ड स ड' बन जाता है जिसमें अंकप्रमाण दिखाने के लिये Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) षट्खंडागमकी प्रस्तावना यहां १६४१२-२५६ खंड किये जाते हैं। इस वर्गक्षेत्रमें जब हम सड के १६ खंडाको भाजक । । । । । । । । ------- । ।। । । । । । । । । मानते हैं तो सड' रूप १६ खंड लब्ध रहते हैं। पर यदि हम सड को दो भाग अधिक अर्थात् 'स' डेवढ़ा ( २४ खंड प्रमाण) कर दें, तो उसी वर्गराशि प्रमाण क्षेत्रफलको नियत रखनेके लिये हमें सड' को त्रिभागहीन अर्थात १०३ खंडप्रमाण कर लेना पड़ेगा, जो जीवरराशिका त्रिभागहीन (१६-१६) भाग है । यही आचार्य द्वारा समझाये गये और चित्र द्वारा दिखाये गये सिद्धान्तका अभिप्राय है। पुस्तक ३, पृ. २७८-२७९ १५ शंका-यहाँ जो नारकी वे स्वर्गवासियोंकी राशियां लाने के लिये विष्कंभसूचियां व अवहारकाल बतलाये गये हैं वे खुद्दाबंध और जीवहाणमें न्यूनाधिक क्यों कहे गये हैं ? उनमें समानता मानने में क्या दोष आता है, सो समझ नहीं पड़ता। स्पष्ट कीजिये? (नेमीचंदजी, वकील, सहारनपुर, पत्र २४.११-४१) समाधान- खुदाबंधमें जो नारकी व देवोंका प्रमाण लानेके लिये विष्कंभसूचियां व अवहारकाल कहे गये है वे उन उन जीवराशियोंमें गुणस्थानका भेद न करके सामान्यराशिके लिये उपयुक्त होते हैं। किन्तु यहाँ जीवस्थानमें गुणस्थानकी विवक्षा है, और प्रस्तुतमें अन्य गुणस्थानोंको छोड़कर केवल मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण कहा जा रहा है जो सामान्यराशिसे कुछ न्यून होगा ही। अतः इस न्यून राशिको बतलानेके लिये जीवाणमें उसकी विष्कंभसूची भी खुद्दाबंधमें कथित विष्कभसूचीसे कुछ न्यून, तथा अवहारकाल उससे अधिक कहा जाना आवश्यक है । यदि हम खुद्दाबंधमें बतलाये गये सामान्यराशिकी विष्कंभसूचीको ही जीवट्ठाणमें मिथ्यादृष्टिराशिकी विष्कमसूची मान लें तो उस समस्त सामान्य जीवराशिका मिथ्यादृष्टियोंमें ही समावेश होकर शेष गुणस्थानोंके उक्त देवों व नारकियोंमें अभावका प्रसंग आ जायगा। खुदाबंध और यहां जीवट्ठाणमें विष्कंभसूची और अवहारकालको समान मान लेनेमें यही दोष उत्पन्न होता है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. विषय-परिचय जीवस्थानकी पूर्व प्रकाशित दो प्ररूपणाओं- सत्प्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणानुगममें क्रमशः जीवका स्वरूप, गुणस्थान व मार्गणास्थानानुसार भेद, तथा प्रत्येक गुणस्थान व मार्गणास्थानसंबंधी जीवोंका प्रमाण व संख्या बतलाई जा चुकी है । अत्र प्रस्तुत भागमें जीवस्थानसंबंधी आगेकी तीन प्ररूपणाएं प्रकाशित की जा रही हैं- क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम और कालानुगम । १ क्षेत्रानुगम क्षेत्रानुगममें जीवों के निवास व विहारादिसंबंधी क्षेत्रका परिमाण बतलाया गया है । इस संबंध में प्रथम प्रश्न यह उठता है कि यह क्षेत्र है कहां ? इसके उत्तरमें अनन्त आकाश के दो विभाग किये गये हैं । एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । लोकाकाश समस्त आकाशके मध्य में स्थित है, परिमित है और जीवादि पांच द्रव्योंका आधार है । उसके चारों तरफ शेष समस्त अनन्त आकाश अलोकाकाश है । उक्त लोकाकाशके स्वरूप और प्रमाणके संबंध में दो मत हैं । एक मतके अनुसार यह लोकाकाश अपने तलभाग में सातराजु व्यासवाला गोलाकार है । पुनः ऊपरको क्रमसे घटता हुआ अपनी आधी उंचाई अर्थात् सात राजुपर एक राजु व्यासवाला रह जाता है । वहांसे पुनः ऊपरको क्रमसे बढ़ता हुआ साढ़े तीन राजु ऊपर जाकर पांच राजु व्यासप्रमाण हो जाता है और वहां से पुनः साढ़े तीन राजु घटता हुआ अपने सर्वोपरि उच्च भागपर एक राजु व्यासवाला रह जाता है । इस मत के अनुसार लोकका आकार ठीक अधोभागमें, वेत्रासन, मध्यमें झल्लरी ओर ऊर्ध्वभाग में मृदंगके समान हो जाता है । किन्तु धवलाकारने इस मतको स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि, ऐसे लोकमें जो प्रमाणलेाकका घनफल जगश्रेणी अर्थात् सात राजु के घनप्रमाण कहा है, वह प्राप्त नहीं होता । यह बात स्पष्टतः दिखलाने के लिये उन्होंने अपने समयके गणितज्ञानकी विविध और पूर्व प्रक्रियाओं द्वारा इस प्रकारके लोकके अधोभाग व उर्ध्वभागका घनफल निकाला है जो कुल १६४,३६ घनराजु होनेसे श्रेणीके घन अर्थात् ३४३ घनराजुसे बहुत हीन रह जाता है । इसलिये उन्होंने लोकका आकार पूर्व-पश्चिम दो दिशाओं में तो ऊपर की ओर पूर्वोक क्रमसे घटता बढ़ता हुआ, किन्तु उत्तर-दक्षिण दो दिशाओं में सर्वत्र सात राजु ही माना है । इस प्रकार यह लोक गोलाकार न होकर समचतुरस्राकार हो जाता है और दो दिशाओंसे उसका आकार वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के सदृश भी दिखाई दे जाता है । ऐसे लोकका प्रमाण ठीक श्रेणीका घन ७ = ७ × ७ x ७ = ३४३ घनराजु हो जाता है । यही लोक जीवादि पांचों द्रव्योंका क्षेत्र है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) षट्खंडागमकी प्रस्तावना यहां प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उक्त ३४३ घनराजुप्रमाण केवल असंख्यात प्रदेशात्मक अत्यन्त परिमित क्षेत्रमें अनन्त जीव व अनन्त पुद्गल परमाणु कैसे रह सकते हैं ! इसका उत्तर यह है कि जीवों और पुद्गल - परमाणुओं में अप्रतिघातरूपसे अन्योन्यावगाहन शक्ति विद्यमान है जिसके कारण अंगुलके असंख्यातवें भाग में भी अनन्तानन्त जीवोंका और जीवके भी प्रत्येक प्रदेशपर अनन्त औदारिकादि पुद्गल परमाणुओंका अस्तित्व बन जाता है । ओघ अर्थात् गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीवोंका क्षेत्र ४ सूत्रों में बतला दिया गया है कि मिथ्यादृष्टी जीव सर्वलोक में व अयोगिकवली और शेष सासादनसम्यग्दृष्टि आदि समस्त बारह गुणस्थानोंमेंसे प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोकके असंख्यातवें भाग में, और सयोगिकेवली लोकके असंख्यातवें भाग, असंख्यात बहु भागोंमें, तथा सर्वलोक में रहते हैं । धवलाकारने इन सूत्र - वचनोंको एक ओर atrina नाना अवस्थाओंका विचार करके, और दूसरी ओर सूक्ष्मतर क्षेत्रमानके लिये लोकको पांच विभागों में बांटकर बड़े विस्तार से समझाया है । क्षेत्रावगाहनाकी अपेक्षासे जीवोंकी तीन अवस्थाएं हो सकती है ( १ ) स्वस्थान (२) समुद्वात और (३) उपपाद । स्वस्थान भी दो प्रकारका है - अपने स्थायी निवासके क्षेत्रको स्वस्थानस्वस्थान, और अपने विहारके क्षेत्रको विहारवत्स्वस्थान कहते हैं । जीवके प्रदेशोंका उनके स्वाभाविक संगठन से अधिक फैलना समुद्धात कहलाता है । वेदना और पीड़ाके कारण जीव- प्रदेशों के फैलनेको वेदनासमुद्बात कहते हैं । क्रोधादि कषायों के कारण जीव- प्रदेशोंके विस्तारको कषायसमुद्घात कहते हैं । इसी प्रकार अपने स्वाभाविक शरीरके आकारको छोड़कर अन्य शरीराकार परिवर्तनको वैक्रियिकसमुद्धात, मरने के समय अपने पूर्व शरीरको न छोड़कर नवीन उत्पत्तिस्थान तक जीवप्रदेशोंके विस्तारको मारणान्तिक, तैजसशरीरको अप्रशस्त व प्रशस्त विक्रियाको तैजसमुद्घात, ऋद्धिप्राप्त मुनियोंके शंका निवारणार्थ जीवप्रदेशोंके प्रस्तारको आहारकसमुद्वात, और सर्वज्ञताप्राप्त केवलकेि प्रदेशोंका शेष कर्मक्षय-निमित्त दंडाकार, कपाटाकार, प्रतराकार, व लोकपूरणरूप प्रस्तारको केवलिसमुद्धात कहते हैं- जीवका अपनी पूर्व पर्यायको छोड़कर तीरके समान सीधे, व एक, दो तीन मोड़े लेकर अन्य पर्यायके ग्रहणक्षेत्र तक गमन करनेको उपपाद कहते हैं । इन्हीं दश - अर्थात् (१) स्वस्थानस्वस्थान ( २ ) विहारवत्स्वस्थान ( ३ ) वेदनासमुद्धात (४) कषायसमुद्धात (५) वैक्रयिकसमुद्धात (६) मारणान्तिकसमुद्धात (७) तैजससमुद्धात (८) आहारकसमुद्धात (९) केवलि - समुद्धात और (१०) उपपाद अवस्थाओं की अपेक्षासे यथासम्भव जीवके भिन्न भिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंका क्षेत्रप्रमाण इस क्षेत्ररूपणा में बतलाया गया है । सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम क्षेत्रमानके लिये धवलाकारने पांच प्रकारसे लोकका ग्रहण किया है (१) समस्त लोकं या सामान्य लोक जो ७ राजुका घनप्रमाण है; (२) अधोलोक जो १९६ घनराजुप्रमाण है, (३) ऊर्ध्वलोक जो १४७ घनराजुप्रमाण है ( ४ ) तिर्यक्लोक या मध्यलोक Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय (२५) जो १ राजुके प्रतर या वर्गप्रमाण है; और (५) मनुष्यलोक जो अढाई द्वीपप्रमाण, अर्थात् ४५ लाख व्यासवाला वर्तुलाकार क्षेत्र है। किसी भी एक प्रकारके जीवोंका क्षेत्रमान बतलानेके लिये धवलाकारने उस उस जातिविशेषवाली प्रधान राशिको लेकर उसके क्षेत्रावगाहनका विचार किया है। उदाहरणार्थ-विहारवत्स्वस्थानवाले मिथ्यादृष्टियोंके क्षेत्रका विचार करते समय उन्होंने त्रसपर्याप्तराशिको ही विहार करनेकी योग्यता रखनेवाली मानकर पहले यह निर्दिष्ट कर दिया कि किसी भी समयमें इस राशिका संख्यातवां भाग ही विहार करेगा। फिर उन्होंने इस विहार करनेवाली राशिमें स्वयंप्रभनागेन्द्र पर्वतके परभागवर्ती बड़े बड़े त्रस जीवोंका विचार किया, जिनमें द्वीन्द्रिय जीव शंख बारह योजनका, त्रीन्द्रिय गोम्ही तीन कोसकी, चतुरिन्द्रिय भ्रमर एक योजनका और पंचेन्द्रिय मच्छ एक हजार योजनका होता है । अतएव ऐसे प्रत्येक जीवका उन्होंने क्षेत्रमितिके सूत्र व विधान देकर प्रमाणांगुलोंमें घनफल निकाला, और फिर इस उत्कृष्ट अवगाहनामें जघन्य अवगाहनाका अंगुलका असंख्यातवां भाग जोड़कर उसका आधा किया जिससे उस राशिके एक जीवकी मध्यम अर्थात् औसत अवगाहना संख्यात घनांगुल आगई । समस्त त्रस पर्याप्तराशि प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे भाजित जगप्रतरप्रमाण है और इसका केवल संख्यातवां भाग विहार करता है। अतः इस संख्यातवें भागको पूर्वोक्त घनफलसे गुणा करने पर विहारवत्स्वस्थान मिथ्यादृष्टिराशिका क्षेत्र संख्यात सूच्यंगुलगुणित जगप्रतरप्रमाण होता है, जो लोकका असंख्यातवां भाग, और उसी प्रकार अधोलोक और ऊर्ध्वलोकका भी असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक या अढ़ाईद्वीपसे असंख्यात गुणा होगा। २ स्पर्शनानुगम स्पर्शनप्ररूपणामें यह बतलाया गया है कि भिन्न भिन्न गुणस्थानवाले जीव, तथा गति आदि भिन्न भिन्न मार्गणास्थानवाले जीव तीनों कालोंमें पूर्वोक्त दश अवस्थाद्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श कर पाते हैं । इससे स्पष्ट है कि क्षेत्र और स्पर्शन प्ररूपणाओंमें विशेषता इतनी ही है कि क्षेत्रप्ररूपणा तो केवल वर्तमानकालकी ही अपेक्षा रखती है, किन्तु स्पर्शनप्ररूपणामें अतीत और अनागतकालका भी, अर्थात् तीनों कालोंका क्षेत्रमान ग्रहण किया जाता है । उदाहरणार्थ-क्षेत्रप्ररूपणामें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग बताया गया है। यह क्षेत्र वर्तमानकालसे ही सम्बन्ध रखता है, अर्थात् वर्तमानमें इस समय स्वस्थानादि यथासंभव पदोंको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टि जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रको व्याप्त करके विद्यमान हैं। यही बात स्पर्शनप्ररूपणामें वर्तमानकालिक स्पर्शनको बताते समय कही है। उसके पश्चात् दूसरे सूत्रमें अतीतकालसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र बतलाया गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालमें देशोन आठ बटे चौदह ( ) और बारह बटे चौदह (१३) भाग स्पर्श किए हैं । इसका अभिप्राय जान लेना आवश्यक है। तीनसौ तेतालीस घनराजुप्रमित इस लोकाकाशके ठीक मध्य भागमें वृक्षमें सारके समान एक राजु लम्बी चौड़ी और Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) षट्खंडागमकी प्रस्तावना । जावें तो चौदह भाग होते हैं 1 । उसका उतना ही स्पर्शनक्षेत्र १२ कि चौदह राजु ऊंची लोकनाली अवस्थित है । इसे साली भी कहते है, क्योंकि, त्रसजीवोंका संचार इसके ही भीतर होता है । केवल कुछ अपवाद हैं, जिनमें कि इसके भी बाहर त्रस - जीवोंका पाया जाना संभव है इस त्रसनालीके एक एक राजु लम्बे, चौड़े और मोटे भाग बनाए उनमें से जो जीव जितने घनराजुप्रमाण क्षेत्रको स्पर्श करता है, माना जाता है । जैसे प्रकृत में सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र आठ बटे ( ४ ) या बारह बटे चौदह ( 27 ) भाग बताया गया है। इनमेंसे विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्घातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने उक्त त्रसनाल के चौदह भागोंमेंसे आठ भागोंको स्पर्श किया है, अर्थात् आठ घनराजुप्रमाण त्रसनाली के भीतर ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जिसे अतीतकालमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने ( देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी, इन सभीने मिलकर ) स्पर्श न किया हो । यह आठ घनराजुप्रमाण क्षेत्र त्रसनालीके भीतर जहां कहीं नहीं लेना चाहिए, किन्तु नीचे तीसरी वालुका पृथिव लेकर ऊपर सोलहवें अच्युतकल्प तक लेना चाहिये । इसका कारण यह है कि भवनवासी देव स्वतः नीचे तीसरी पृथिवी तक विहार करते हैं, और ऊपर सौधर्म विमान के शिखरध्वजदंड तक । किन्तु उपरिम देवोंके प्रयोगसे ऊपर अच्युतकल्प तक भी विहार कर सकते हैं [ देखो. पृ. २२९ ] । उनके इतने क्षेत्रमें विहार करनेके कारण उक्त क्षेत्रका मध्यवर्ती एक भी आकाशप्रदेश ऐसा नहीं बचा है कि जिसे अतीत कालमें उक्त गुणस्थानवर्ती देवोंने स्पर्श न किया हो । इस प्रकार इस स्पर्श किये गये क्षेत्रको लोकनालीके चौदह भागोंमेंसे आठ भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहते है । मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा उक्त गुणस्थानवर्ती जीवोंने लोकनालीके चौदह भागों में से बारह भाग स्पर्श किये हैं । इसका अभिप्राय यह है कि छठी पृथिवीके सासादनगुणस्थानवर्ती नारकी मध्यलोक तक मारणान्तिकसमुद्धात कर सकते हैं, और सासादनसम्यग्दृष्टि भवनवासी आदि देव आठवीं पृथिवीके ऊपर विद्यमान पृथिर्वाकायिक जीवोंमें मारणान्तिकसमुद्धात कर सकते हैं, या करते हैं । इस प्रकार मेरुतलसे छठी पृथिवी तकके ५ राजु, और ऊपर लोकान्त तकके ७ राजु, दोनों मिलाकर १२ राजु हो जाते हैं । यही बारह घनराजुप्रमाण क्षेत्र त्र्सनालीके बारह बटे चौदह (१) भाग, अथवा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे बारह भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहा जाता है । इस उक्त प्रकारसे बतालाए गए स्पर्शन क्षेत्रको यथासंभव जान लेना चाहिए। ध्यान रखने की बात केवल इतनी ही है कि वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्र तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, किन्तु अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे यथासंभव ४, १४, को आदि लेकर तक होता है । तथा मिथ्यादृष्टि जीवोंका मारणान्तिक, वेदना, कषायसमुद्धात आदिकी अपेक्षा सर्व लोक स्पर्शनक्षेत्र होता है, क्योंकि, सारे लोकमें सर्वत्र ही एकेन्द्रिय जीव ठसाठस भरे हुए हैं और गमनागमन कर रहे हैं, अतएव उनके द्वारा समस्त लोकाकाश वर्तमानमें भी स्पर्श हो रहा है और अतीतकाल में भी स्पर्श किया जा चुका है । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय (२७) . इन एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके अतिरिक्त सयोगिकेवली भगवान् भी प्रतरसमुद्घातके समय लोकके असंख्यात बहु भागोंको और लोकपूरणसमुद्धातके समय सर्व लोकाकाशको स्पर्श करते हैं । तथा उपपाद और मारणान्तिकसमुद्धातवाले त्रसजीवोंका भी त्रसनालीके बाहर अस्तित्व पाया जाता है । वह इस प्रकारसे कि लोकके अन्तिम वातवलयमें स्थित कोई जीव मरण करके विग्रहगतिद्वारा त्रसनालीके अन्तःस्थित त्रसपर्यायमें उत्पन्न होनेवाला है वह जीव जिस समय मरण करके प्रथम मोड़ा लेता है, उस समय त्रसपर्यायको धारण करने पर भी वह त्रसनालीके बाहर है, अतएव उपपादकी अपेक्षा त्रसजीव त्रसनालीके बाहर रहता है । इसी प्रकार त्रसनालीमें स्थित किसी ऐसे त्रसजीवने जिसे कि त्रसनालीके बाहर मरकर उत्पन्न होना है, मारणान्तिकसमुद्धातके द्वारा त्रसनालीके बाहरके आकाश-प्रदेशोंका स्पर्श किया, तो उस समय भी त्रसजीवका अस्तित्व त्रसनालीके बाहर पाया जाता है, (देखो. पृ. २१२)। उक्त तीन अवस्थाओंको छोड़कर शेष त्रसजीव त्रसनालीके बाहर कभी नहीं रहते हैं। इस प्रकार चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानोंमें उक्त स्वस्थानादि दश पदोंको प्राप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र इस स्पर्शनप्ररूपणामें बतलाया गया है। स्पर्शनप्ररूपणाकी कुछ विशेष बातें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र निकालते हुए प्रसंगवश असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके ऊपर आकाशमें स्थित समस्त चंद्रोंके प्रमाणको भी गणितशास्त्र के अनेक अदृष्टपूर्व करणसूत्रोंके द्वारा निकाला गया है और साथ ही यह बतलाया गया है कि एक चंद्रके परिवार में एक सूर्य, अठासी ग्रह, अट्ठाईस नक्षत्र और छयासठ हजार नौसौ पचहत्तर कोडाकोडी ( ६६९७५००००००००००००००) तारे होते हैं । इस चारों प्रकारके परिवारके प्रमाणसे चन्द्रबिम्बोंकी संख्याको गुणा कर देनेपर समस्त ज्योतिष्क देवोंका प्रमाण निकल आता है। ____ इसी बीचमें धवलाकारने ज्योतिष्क देवोंके भागहारको उत्पन्न करनेवाले सूत्रसे अवलम्बित युक्तिके बलसे यह सिद्ध किया है कि चूंकि-स्वयंभूरमणसमुद्रके परभागमें भी राजुके अर्धच्छेद पाये जाते हैं, इसलिए स्वयंभूरमणसमुद्रके परभागमें भी असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके व्यास-रुद्ध योजनोंसे संख्यात हजार गुने योजन आगे जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है, अर्थात् स्वयंभूरमणसमुद्रकी बाह्यवेदिकाके परे भी पृथिवीका अस्तित्व है; वहां भी राजुके अर्धच्छेद उपलब्ध होते हैं; किन्तु वहांपर ज्योतिषी देवोंके विमान नहीं हैं। (देखो पृ. १५०-१६०) इसी प्रकरणमें उन्होंने अपनी उक्त बातकी पुष्टि करते हुए जो उदाहरण दिए हैं, उनसे एकदम तीन ऐसी बातोंपर प्रकाश पड़ता है, जिनसे पता चलता है कि वे बातें वीरसेनाचार्यके पूर्ववर्ती दिगम्बर साहित्यमें प्रतिष्ठित नहीं थीं और सर्व प्रथम इन्हींने उनकी प्रतिष्ठा की है । बे नधीन प्रतिष्ठित तीनों बातें इस प्रकार हैं(१) 'संख्यात आवलियोंका एक अन्तर्मुहूर्त होता है। इस प्रचलित और सर्वमान्य Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना मान्यता को भी ' एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेन ' ( द्रव्यप्र. सू ६ ) इस सूत्रके आधारसे ' अन्तर्मुहूर्त' इस पदमें पड़े हुए अन्तर् शब्दको सामीप्यार्थक मानकर यह सिद्ध किया है कि अन्तर्मुहूर्त का अभिप्राय मुहूर्तसे अधिक कालका भी हो सकता है । (२) दूसरी बात आयतचतुरस्र लोक-संस्थानके उपदेशकी है, जिसका अभिप्राय समझने के लिये इसी भागके पृ. ११ से २२ तकका अंश देखिए । उससे ज्ञात होता है कि धवलाकार के सामने विद्यमान करणानुयोगसम्बन्धी साहित्य में लोकके आयतचतुरस्राकार होनेका विधान या प्रतिषेध कुछ भी नहीं मिल रहा था, तो भी उन्होंने प्रतरसमुद्वातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ कही गईं दो गाथाओंके ( देखो इसी भागके पृ. २०-२१ ) आधारपर यही सिद्ध किया है कि लोकका आकार आयतचतुष्कोण है, न कि अन्य आचार्योंसे प्ररूपित १६४,३३५६ घनराजु प्रमाण मृदंगके आकार । साथ ही उनका दावा है कि यदि ऐसा न माना जायगा तो उक्त दोनों गाथाओंको अप्रमाणता और लोकमें ३४३ घनराजुओं का अभाव प्राप्त होगा । इसलिए लोकका आकार आयतचतुरस्र ही मानना चाहिए । ( ३ ) तीसरी बात स्वयंभूरमणसमुद्र के परभागमें पृथिर्वाके अस्तित्व सिद्ध करनेकी है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । ( देखो पृ. १५५-१५८ तक ) इस प्रकार बड़े जोरदार शब्दों में उक्त तीनों बातोंका समर्थन करनेके पश्चात् भी उनकी निष्पक्षता दर्शनीय है । वे लिखते हैं- ' यह ऐसा ही है ' इस प्रकार एकान्त हठ पकड़ करके असद् आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि, परमगुरुओंकी परम्परासे आए हुए उपदेशको युक्तिके, बलसे अयथार्थ सिद्ध करना अशक्य है, तथा अतीन्द्रिय पदार्थों में छद्मस्थ जीवोंके द्वारा उठाए गए विकल्पोंके अविसंवादी होनेका नियम नहीं है । अत एव पुरातन आचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न करके हेतुवाद (तर्कवाद) के अनुसरण करनेवाले व्युत्पन्न शिष्यों के अनुरोधसे तथा अव्युत्पन्न शिष्यजनों के व्युत्पादन के लिये यह दिशा भी दिखाना चाहिए । ( देखो. पू. १५७-१५८ ) तिर्यंचोंके स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रका निकालते हुए द्वीप और समुद्रोंका क्षेत्रफल अनेक करणसूत्रों द्वारा पृथक् पृथक् और सम्मिलित निकालने की प्रक्रियाएं दी गई हैं, और साथ ही यह भी सिद्ध किया गया है कि इस मध्यलोक में कितना भाग समुद्रसे रुका हुआ है । (देखो. पू. १९४-२०३) कायमार्गणा में बादर पृथिवीकायिक जीवोंके स्पर्शन- क्षेत्रको बतलाते हुए रत्नप्रभादि सातों पृथिवियोंकी लम्बाई चौड़ाईका भी प्रमाण बतलाया गया है । ३. कालानुगम उक्त प्ररूपणाओंके समान कालप्ररूपणा में भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा कालका निर्णय किया गया है, अर्थात् यह बतलाया गया है कि यह जीव किस गुणस्थान या मार्गणास्थान में कमसे कम कितने काल तक रहता है, और अधिकसे अधिक कितने काल रहता है । उदाहरणार्थ – मिथ्यादृष्टि जीव मिध्यात्वगुणस्थानमें कितने काल तक रहते हैं ? इस प्रश्नके Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान १ मिध्यादृष्टि २ सासादनसम्यग्दृष्टि ३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४ असंयत सम्यग्दृष्टि ५ संयतासंयत ६ प्रमत्तसंयत ७ अप्रमत्तसंयत ८ अपूर्वकरण ९ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसाम्पराय ११ उपशान्तकषाय १२ क्षीणमोह १३ सयोगिकेवली १४ अयोगिकेवली सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग 33 " 33 "" " "" लोकका असंख्यातवां माग असंख्यात बहु" सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग वर्तमानकालिक सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग 33 "3 गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके क्षेत्र, स्पर्शन और कालका प्रमाण स्पर्शन " 33 लोकका असंख्यातवां भाग सर्वलोक संख्यात बहु, लोकका असंख्यातवां भाग अतीत अनागतकालिक सर्वलोक देशोन ६४ और १३ राउ "3 23 33 राज " " लोकका असंख्यातवां भाग "" लोकका असंख्यातवां भाग " असंख्यात बहु " सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग नानाजीयोंकी अपेक्षा सर्वकाल जघन्य उत्कृष्ट एक्समय पल्यो. असं भाग अन्तर्मुहूर्त जघन्य सर्वकाल "" उ· कुष्ट उप० एकसमय अन्तर्मुहूर्त क्षपक अन्तर्मुहूर्त उप० एक्समय क्षपक अन्तर्मुहूर्त उप• एकसमय क्षपक अन्तर्मुहूर्त एकसमय अन्तर्मुहूर्त सर्वकाल " "" "" 33 23 अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त काल जघन्यकाल (सा.सो.मि.) अन्तर्मुहूर्त एकसमय अन्तर्मुहूर्त "" एकसमय एकसमय अन्तर्मुहूर्त एकसमय अन्तर्मुहूर्त एकसमय अन्तर्मुहूर्त एकसमय अन्तर्मुहूर्त ( पु. ४ प्रस्ता. पृ. २९ अ ) एकजीवकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल दोन अर्धपुद्रलपरिवर्तन छह आवली अन्तर्मुहूर्त साधिक तेतीस सागरोपम देशोन पूर्व कोटी वर्ष अन्तर्मुहूर्त " 39 ,, 33 "1 देशोन पूर्वकोटी वर्ष अन्तर्मुहूर्त Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके क्षेत्र, स्पर्शन और कालका प्रमाण, काल मार्गणाके स्पर्शन नानाजीबाँकी अपेक्षा एकजीवकी अपेक्षा मार्गणा अवान्तर भेद अतीत अनागतकालिक जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्टकाल तेतीस सागरोपम अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन सर्वकाल नरकगति | तिर्यचगति देशोनराजु ( उत्कृष्ट) सर्वलोक वर्तमानकालिक लोकका असंख्यातवां भाग सर्वलोक (लोकका " " र , असंख्यात बहु, (सर्वलोक लोकका असंख्यातवां , गतिमार्गणा र लोकका असंख्यातवां भाग सर्वलोक | लोकका , " " असंख्यात बहु, (सर्वलोक लोकका असंख्याता , तीन पल्योपम और पूर्वकोटीपृथक्व मनुष्यगति ( देवगति देशोन और राजु (उत्कृष्ट) तेतीस सागरोपम अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन संख्यात हजार वर्ष सर्वलोक लोकका असंख्याता भाग सर्वलोक [ एकेन्द्रिय विकलत्रय २ इन्द्रियमार्गणार पंचेन्द्रिय सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग । अन्तर्मुहूर्त - एक हजार सागरोपम पूर्वकोटीपृथक्त्रसे आधेक __, असंख्यात बहु, (सर्वलोक " असंख्यात बहु, सर्वलोक देशोनराजु, सर्वलोक क्षुत्रभवग्रहण अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन (पांच स्थावरकायिक सर्वलोक अन्तर्मुहूर्त - दो हजार सागरोपम पूर्व कोटीपृथक्त्वसे अधिक ३ कायमार्गणा सर्वलोक (लोकका असंख्यातवा भाग र , असंख्यात बहु" (सर्वलोक सर्वलोक (लोकका असंख्यातवां भाग ____, असंख्यात बहु, (सर्वलोक (सकायिक देशान राज, सर्वलोक एकसमय । अन्तर्मुहूर्त लोकका असंख्यातवां भाग लोकका असंख्याता भाग [ मनोयोगी वचनयोगी अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन ४ योगमार्गणा काययोगी , असंख्यात बहु, (सर्वलाक ,, असंख्यात बहु, (सर्वलोक सर्वलोक अन्तर्मुहूर्त | पल्योपमशतपृथक्व सागरोपमशतपृथक्त्व लोकका असंख्यातवां भाग लोकका असंख्यातवां भाग | देशोन और राज सर्वलोक (सीवेदी | पुरुषवेदी नपुंसकवेदी अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन ५ वेदमार्गणा अन्तर्मुहर्त देशोन पूर्वकोटी वर्ष "सर्वलोक " असंख्यातवां भाग " असंख्यात बहु, (सर्वलोक सर्वलोक (, असंख्यातवां भाग | लोकका असंख्याता भाग १ , असंख्यात बहु, " असंख्यात बहु, (सर्वलोक जघन्य (एकसमय अन्तर्मुहूर्त न्तमेंहूते काल । अपगतवेदी सर्वलोक 'सर्व कालस Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पु. १ प्रस्ता. पृ. २९ आ) स्पर्शन काल मार्गणा मार्गणाके अवान्तर भेद नानाजीवोंकी अपेक्षा एकजीवकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल || क्रोधादिचतुष्कषायी जघन्यकाल एकसमय सर्वकाल । अन्तर्मुहूर्त ६ कषायमार्गणा वर्तमानकालिक सर्वलोक (लोकका असंख्यातवां भाग १" असंख्यात बहु " (सर्वलोक सर्वलोक (लोकका असंख्यातवा भार , असंख्यात बहु, सर्वलोक अतीत अनागतकालिक सर्वलोक (लोकका असंख्यातां भाग र , असंख्यात बहु, सर्वलोक अकषायी अन्तर्मुहूर्त और सर्वकाल | एकसमय, अन्तर्मुहूर्त सर्वकाल अन्तर्मुहूर्त कुमति-कुभुतज्ञानी विमंगवाना अन्तर्मुहूर्त, और देशोन पूर्वकोटी वर्षे देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन " तेतीस सागरोपम लोकका असंख्यातवा . लोकका असंख्याता " ७सानमार्गणा मति-वत अवधि. मनःपर्ययज्ञानी " (देशोनराड सर्वलोक देशोन राज लोकका असंख्यातवां भाग " " " " असंख्यात बहु" सर्वलोक साधिक " देशोन पूर्वकोटी वर्ष | केवलज्ञानी " असंख्यात बहु" (सर्वलोक " असंख्यात बहु" सर्वलोक (सामायिक आदि | चार संयमी लोकका असंख्यातवां भाग लोकका असंख्यातवां भाग लोकका असंख्यातवां भाग जघन्य एकसमय , उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त एकसमय अन्तर्मुहूर्त ८ संयममार्गणा र यथाख्यातसंयमी अन्तर्मुहूर्त १ " असंख्यात बहु" (सर्वलोक लोकका असंख्यातवा भाग देशोन पूर्वकोटी वर्ष सर्वलोक संयमासंयमी (असंयमी , असंख्यात बहु" १ , असंख्यात बहु, (सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग देशानराज सर्वलोक सर्वलोक सर्वलोक सर्वकाल | अचक्षुदर्शनी चक्षुदर्शनी लोकका असंख्यातवां भाग देशोन पूर्वकोटी वर्ष " अर्धपुद्गलपरिवर्तन अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन दो हजार सागरीपम साधिक तेतीस , ९दर्शनमार्गणा लोकका असंख्यातवां भाग | देशोन राजु अवधिदर्शनी केवलदर्शनी | २ " असंख्यात बहु" सर्वलाक " " लोकका असंख्यातवां भाग " असंख्यात बहु , 2 " असंख्यात बहु" (सर्वलोक सर्वलोक देशोन पूर्वकोटी वर्ष Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education I मार्गणा ११ भव्यमार्गणा १२ सम्यक्त्वमार्ग ०. मार्गणा अवान्तर भेद १० लेश्यामार्गणा २ तेज १३ संशिमार्गणा ཐ ཝ ཟླ, སྐྱ ། नील कापोत शुरू ( अलेश्य | भव्य अभव्य 'औपशमिकसम्यक्त्व क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यग्मिय्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि संज्ञी असंही १४ आहारमार्गणा आहारक अनाहारक "" सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग 64 { क्षेत्र "3 लोकका असंख्यातवां भाग 23 33 "7 33 सर्वलोक 33 33 39 असंख्यात बहु" सर्वलोक लोकका असंख्यात " 33 33 " असंख्यात बहु, सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग "3 "3 " असंख्यात बहु, सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग 33 लोकका असंख्यातवां भाग सर्वलोक वर्तमानकालिक सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग "" 2 33 लोकका असंख्यातवां भाग सर्वलोक "" 64 " सर्वलोक लोकका असंख्यातवां ” " असंख्यात बहु" 33 असंख्यात बहु" 39 सर्वलोक :::: "" लोकका असंख्यातवां भाग 37 33 "" ," असंख्यात बहु सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग 2 " लोकका असंख्यातवां भाग सर्व लोक स्पर्शन अतीत अनागतकालिक सर्वलोक देशीन राज सर्वलोक | देशोन राज सर्वलोक (देशोन "3 "" 33 १४ लोकका असंख्यातवां भाग असंख्यात बहु " सर्वलोक लोकका असंख्यातवां भाग सर्वलोक राजु और राजु "" " असंख्यात बहु" "" देशोन राज राज 33 37 22 लोकका असंख्यातवां भाग "" सर्वलोक " असंख्यात बहु" सर्वलोक देशोन राज और से देशोन राज सर्वलोक 33 33 राजु नानाजी अपेक्षा सर्वकाल अन्तर्मुहूर्त 13 "" "" सर्वका ल अन्तर्मुहूर्त परल एकसमय सर्वक अन्तमुहूर्त अन्तर्मुहूर्त प एकसमय सर्वक 37 पो. असं भाग 33 " जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त 73 "" " यो. असं. भाग अन्तर्मुहूर्त एकसमय अन्तर्मुहूर्त " एकसमय "" 33 अन्तर्मुहूर्त 33 x एकसमय अन्तर्मुहूर्त काल क्षुद्रभवप्रण अन्तर्मुहूर्त एकसमय 23 साधिक तेतीस सागरोपम "" "7 " एकजीवकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल सतरह 23 अन्तर्मुहुर्त सात दो अठारह " तेतीस 77 39 " "3 देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन अनादि अनन्त अन्तर्मुहूर्त साधिक छ्यासठ सागरोपम तेतीस "" अन्तर्मुहूर्त देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन सागरोपम शतपृथक्त्व अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन { असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी 'अवसर्पिणी तीन समय, अन्तर्मुहूर्त Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय (२९) उत्तरमें बतलाया गया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टि जीव सर्वकाल ही मिथ्यात्व गुणस्थानमें रहते हैं, अर्थात् तीनों कालोंमें ऐसा एक भी समय नहीं है, जब कि मिथ्यादृष्टि जीव न पाये जाते हों। किन्तु, एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका काल तीन प्रकारका होता है-अनादिअनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । जो अभव्य जीव हैं, अर्थात् त्रिकालमें भी जिनको सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होना है, ऐसे जीवोंके मिथ्यात्वका काल अनादि-अनन्त होता है, क्योंकि, उनके मिथ्यात्वका न कभी आदि हैं, न अन्त । जो अनादिमिथ्यादृष्टि भव्य जीव हैं, उनके मिथ्यात्वका काल अनादि-सान्त है, अर्थात् अनादि कालसे आज तक सम्यक्त्वकी प्राप्ति न होनेसे तो उनका मिथ्यात्व अनादि है, किन्तु आगे जाकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति और मिथ्यात्वका अन्त हो जानेसे वह मिथ्यात्व सान्त है। धवलाकारने इस प्रकारके जीवोंमेंसे वर्द्धनकुमारका दृष्टान्त दिया है, जो कि उस पर्यायमें सर्व प्रथम सम्यक्त्वी हुए थे। इस प्रकार सर्व प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवोंके सम्यक्त्वप्राप्तिके पूर्व समय तक उनके मिथ्यात्वका काल अनादि-सान्त समझना चाहिए। जिन जीवोंने एक बार सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया, तथापि परिणामोंके संक्लेशादि निमित्तसे जो फिर भी मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाते हैं, उनके मिथ्यात्वका काल सादि-सान्त माना जाता है, क्योंकि, उनके मिथ्यात्वका आदि और अन्त, ये दोनों पाये जाते हैं। इस प्रकारके जीवोंमें भी श्रीकृष्णका दृष्टान्त धवलाकारने दिया है। __ प्रकृतमें अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त मिथ्यात्वके कालको छोड़कर सादि-सान्त मिथ्यात्वकालकी ही विवक्षा की गई है, और उसीकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट - काल बतलाया गया है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि यदि कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, या असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयत या प्रमत्तसंयत जीव परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और मिथ्यात्वदशामें सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहकर पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको, या असंयतसम्यक्त्वको, या संयमासंयम अथवा अप्रमत्तसंयमको प्राप्त हो गया, तो ऐसे जीवके मिथ्यात्वका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाया जाता है । ऐसे मिथ्यात्वको सादि-सान्त कहते हैं, क्योंकि, उसका आदि और अन्त, दोनों पाये जाते हैं। इसी सादि-सान्त मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई जीव प्रथम वार सम्यक्त्वी होकर पुनः मिथ्यात्वी हो जाता है तो वह अधिकसे अधिक अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालके भीतर अवश्य ही पुनः सम्यक्त्व प्राप्तकर, मोक्ष चला जाता है। (अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालके लिये देखिये पृ. ३२५-३३२) इसी प्रकार शेष गुणस्थानोंके भी जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाये गये हैं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ नं. १८-१९ १९-२० २०-२१ २२-२४ २४-२५ ४ क्षेत्रानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृष्ठ नं क्रम नं. विषय |११ मृदंगाकार लोक घनलोकके विषयकी उत्थानिका १-९ संख्यातवें भाग है, यह बतलाकर घनलोकको ही प्रमाणलोक या १ धवलाकारका मंगलाचरण और प्रतिज्ञा द्रव्यलोक मानने में युक्ति १२ लोकका आयाम,विष्कम्भ और २ क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश भेद-कथन उत्सेधका निरूपण ३ क्षेत्रानुयोगद्वारके अवतारकी १३ लोकका तीनसौ तेतालीस घनउपयोगिता राजु न मानने पर दो सूत्रगाथा ओंके अप्रमाणताका अनिष्टा४निक्षेपकी उपयोगिता, उसका पादन स्वरूप और भेद, तथा निक्षे. पोंका नयों में अन्तर्भाव १४ असंख्यातप्रदेशी लोकमें अनन्त जीव कैसे रह सकते हैं, इस ५ क्षेत्रशब्दकी निरुक्ति, एकार्थ आशंकाका परिहार वाचक नाम, तथा निर्देशादि १५ आकाशकी अवगाहना शक्तिका छह अनुयोगद्वारोंसे क्षेत्रपदार्थ का निर्णय ६ लोकशब्दकी निरुक्ति, भेद और जीवोंकी स्वस्थान, समुद्धात उसका स्वरूप और उपपाद, इन तीन अवस्था७ क्षेत्रानुगमका अर्थ तथा निर्देश ओके भेद व स्वरूपका वर्णन का स्वरूप १७ स्वस्थानस्वस्थान, विहारव. स्वस्थान, सात समुद्धात और उपपाद, इन दश अवस्थाओं के ओघसे क्षेत्रानुगमनिर्देश १०.५६ द्वारा यथासंभव मिथ्यादृष्टि ८ मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र आदि चौदह जीवसमासोंके निरूपण १० क्षेत्र-निरूपणकी प्रतिज्ञा, तथा ९ लोक पदसे घनलोकका ही स्वस्थानस्वस्थान आदि राशिअभिप्राय है, इस बातका शंका योका प्रमाण-निरूपण समाधानपूर्वक समर्थन १०-११ १८ अधोलोक और ऊर्ध्वलोकका १० अन्य-आचार्य-प्ररूपित मृदंगा प्रमाण कार लोकके प्रमाणका निरूपण १९ त्रसकायिक पर्याप्तराशिके और सत्सम्बन्धी घनफल संण्यातवें भाग-प्रमाण विहार. निकालनेके लिए सूर्पाकार, घत्स्वस्थानराशिका गुणकार भायतचतुरस्र, त्रिकोण आदि संख्यात घनांग्रल कैसे जाना? भनेक आकारोकी कल्पना तथा इस शंकाका समाधान उनके प्रमाणका निर्णय आदि १२-१८२० भ्रमरक्षेत्रके निकालनेका विधान ७-८, निरूपण २६-३० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) क्षेत्रानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. २१ गोम्हिक्षेत्रके निकालनेका विधान २२ शंखक्षेत्रके निकालनेका विधान ३५/ आदेशसे क्षेत्रप्रमाणनिर्देश ५६-१३८ २३ महामत्स्यक्षेत्रके निकालनेका विधान १ गतिमार्गणा ५६-८१ २४ तिर्यग्लोकका स्वरूप (नरकगति) ५६-६६ २५ वैक्रियिकसमुद्धातगत मिथ्या ३९ सामान्य नारकियोंका क्षेत्र दृष्टि जीवोंका क्षेत्र निरूपण ४० नारकियोंकी अवगाहना २६ देव अपने अवधिज्ञानके क्षेत्र ४१ प्रथम पृथिवीके तेरहों पटलोंके प्रमाण विक्रिया करते हैं, ऐसा नारकोंकी ऊंचाई कहनेवाले आचार्योंके कथनका |४२ द्वितीय पृथिवीके ग्यारहों पटनिराकरण । लोके नारकोंकी ऊंचाई २७ सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानसे ४३ तृतीय पृथिवीके नौ पटलोंके लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान नारकोंकी ऊंचाई तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती ४४ चतुर्थ पृथिवीके सातों पटलोंके जीवोंके क्षेत्रका वर्णन ३९-४७ - नारकोंकी ऊंचाई २८ देव, मनुष्य और नारकियोंका ४५ पंचम पृथिवीके पांचों पटलोके उत्सेध क्रमशःदश, नौ और आठ ___ नारकोंकी ऊंचाई तालके प्रमाणसे कहा गया है, ४६ छठी पृथिवीके तीनों पटलोंके इस बातका निरूपण नारकोंकी ऊंचाई २९ ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और ४७ सातवीं पृथिवीके नारकोकी तिर्यग्लोकका प्रमाण-वर्णन ऊंचाई ३०सूक्ष्मपरिधि निकालनेका करण ४८ नारकियोंके क्षेत्रको निकालने के लिए अर्थपदका निरूपण ३१ भरत, ऐरावत और विदेह ४९ सातों पृथिवियोंके नारकियोंका सम्बन्धी प्रमत्तसंयतादि संयमी जीवोंकी जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्रवर्णन अवगाहनाके प्रमाणका निरूपण तिर्यचगति ६६-७३ ३२ तैजससमुद्धात क्षेत्रका प्रमाण ५० तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोका क्षेत्र ३३ सयोगिकेवलीके क्षेत्रका निरूपण ४८५१ सासादनगुणस्थानसे लेकर ३४ दंडसमुद्धातगत केवलीका क्षेत्र संयतासंयत गुणस्थान तकके ३५ कपाटसमुद्धातगत केवलीका प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिर्यचौका क्षेत्र ४९ क्षेत्रप्रमाण ३६ प्रतरसमुद्धातगत केवलीका क्षेत्र ५० ५२ पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रिय ३७ लोकके चारों ओर स्थित तिर्यंचपर्याप्त और पंचेन्द्रिय तीनों वातवलयोंके क्षेत्रफलका तिर्यंच योनिमती जीवोंका निरूपण ५१-५५ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर ३८ लोकपूरणसमुद्धातगत केवलीका संयतासंयत गुणस्थान तकके क्षेत्र ५६] क्षेत्रका निरूपण सूत्र Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठनं. क्षेत्र (३२) षट्खंडागमको प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृष्ठ नं. क्रम नं. पृष्ठ ५३ लब्ध्यपर्याप्तपंचेन्द्रियतिर्यचौका ६५ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त ७३) कोंके सभी गुणस्थानोंका क्षेत्र( मनुष्यगति) ७३-७७ निरूपण ५४ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर ६६ लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवोंके क्षेत्रका वर्णन अयोगिकेवली गुणस्थान तकके मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और ३ कायमार्गणा ८७-१०२ मनुष्यनियोंके क्षेत्रका वर्णन ६७ पृथिवीकायिक, अपकायिक, ५५ सयोगिकेवलीका क्षेत्र तेजस्कायिक, वायुकायिक, तथा ५६ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका क्षेत्र ७६ बादरपृथिवीकायिक, बादर(देवगति) ७७-८१ अप्कायिक, बादरतेजस्कायिक, ५७ मिथ्यादृष्टि आदि चारों गुण. बादरवायुकायिक, बादरवनस्थानवर्ती सामान्यदेवोका क्षेत्र स्पतिकायिकप्रत्येकशरीर और ५८ भवनवासी देवोंसे लेकर नव इन पांच बादरोंके अपर्याप्त, ___ अवेयक तकके चारों गुणस्थान सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्म - वर्ती देवोंका क्षेत्र अप्कायिक, सूक्ष्मतेजस्कायिक, ५९ भवनवासी, व्यन्तर सूक्ष्मवायुकायिक, तथा इन और ज्योतिष्क देवोंके शरीरकी चार सूक्ष्मोंके पर्याप्त और ऊंचाईका वर्णन अपर्याप्तक जीवोंके क्षेत्रका निरूपण ६० नव अनुदिश और पांच अनुत्तर ६८ रत्नप्रभादि सातों अधस्तन तथा विमानवासी देवोंका क्षेत्र उपरितन ईषत्प्राग्भार, इन आठों २ इन्द्रियमार्गणा पृथिवियोंके आयाम, विष्कम्भ ६१ सामान्य एकेन्द्रिय, बादर एके और बाहल्यका वर्णन न्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इन ६९ प्रथिवियों में सर्वत्र जल नहीं तीनोंके पर्याप्त तथा अपर्याप्तक पाया जाता है इस लिए जलजीवोंके क्षेत्रोंका वर्णन कायिक जीवोंका सर्वत्र पृथिवि६२ वैक्रियिकसमुद्धातगत एकेन्द्रिय योंमें रहना संभव नहीं है, इस जीवोंका प्रमाण, तथा उनका शंकाका समाधान क्षेत्रनिरूपण ८२ ७० बादर पृथिवीकायिक, बादर ६३ स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमु अपकायिक, बादर तेजस्कायिक द्धात और कषायसमुद्धातगत और बादर वनस्पतिकायिक बादरएकेन्द्रिय और बादरएके प्रत्येकशरीरपर्याप्तक जीवोंका न्द्रियपर्याप्त जीवोंके क्षेत्रका क्षेत्र-वर्णन निरूपण ८३ ७१ वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर ६४ सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त पर्याप्तकी जघन्य अवगाहनासे विकलत्रय जीवोंके स्वस्थानादि द्वीन्द्रियपर्याप्तकी जघन्य अवगाक्षेत्रोंका निर्णय ८५, हना असंख्यातगुणी है, इस ८१-८७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय बातकी सिद्धिके लिए वेदनाक्षेत्रविधान में कहे गये अवगाहना-दंडकका अवतरण क्रम नं. पर्याप्त ७२ बादरनिगोदप्रतिष्ठित जीवोंके सूत्र में नहीं कहनेका कारण पर्याप्त ७४ बादर, सूक्ष्म तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक वा निगोद जीवोंके क्षेत्रका निरूपण ७३ बादरवायुकायिक जीवोंके क्षेत्रका निर्णय ७५ मिथ्यादृष्ट्यादि अयोगिकेवल्यन्त सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र - वर्णन ७६ लब्ध्यपर्याप्तक सजीवोंका क्षेत्र - वर्णन ४ योगमार्गणा ७७ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके क्षेत्रका निरूपण मार तथा ७८ वैक्रियिकसमुद्धातगत, णान्तिकसमुद्धतिगत, मूच्छित जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव हैं ? इन शंकाओंका समाधान ७९ काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ८० सासादन गुणस्थान से लेकर तक के क्षीणकषायगुणस्थान काययोगी जीवों का क्षेत्र ८१ काययोगी सयोगिकेवलीका क्षेत्र ८२ औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र क्षेत्रानुगम-विषय-सूची पृ. नं. 1 क्रम नं. ९४-९८ ९९ 33 १०२-१११ १०० १०१ "" 33 विषय ८३ त्रसपर्याप्त राशिका कितना भाग संचार करता है, इस बातका निरूपण "" १०४ लेकर | ८४ सासादन गुणस्थानसे सयोगिकेवली तक के औदारिककाययोगी जीवोंका क्षेत्र "" ८५ औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र ८६ औदारिकमिश्रका वैक्रियिकसमुद्वात आदि पदों के साथ भेद पाये जानेसे सूत्रोक्तं ओघनिर्देश घटित नहीं होता है, इस शंकाका समाधान ८७ औदारिक समाधान १०२ ८९ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान वैक्रियिककाययोगी मिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवलीका क्षेत्र-निरूपण तक जीवोंका क्षेत्र ९० वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि जविका क्षेत्र १०३ ९१ आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयतका क्षेत्र ८८ औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के उपपाद पद क्यों नहीं कहा, इस शंकाका | ९२ कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगि केवलीका क्षेत्र ( ३३ ) पू. नं. 39 १०५ 5:5 39 १०६ "" १०७ १०८ १०९ ११०-१११ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) क्रम नं. विषय ५ वेदमार्गणा ९३ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका क्षेत्र, तथा तत्सम्बन्धी विशेषताओंका वर्णन षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृ. नं. / क्रम नं. १११-११३ ७ ज्ञानमार्गणा ९४ मिथ्यादृष्ट्यादि नौ गुणस्थानवर्ती नपुंसकवेदी जीवोंका क्षेत्र, तथा तत्सम्बन्धी विशेषताओं का वर्णन ९५ अपगतवेदी जीवोंका क्षेत्र ६ कषायमार्गणा ९६ क्रोध, मान, माया और लोभकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ९७ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के क्रोध, मान, माया और लोभकषायी जीवोंका क्षेत्र ९८ सूत्र में ओघपद क्यों नहीं कहा, इस शंकाका समाधान ९९ 'लोकके असंख्यातवें भाग में ' इतना ही पद सूत्रमें कहने से प्रकृत में 'मानुषक्षेत्र के भी असंख्यातवें भागमें रहते हैं ' यह अर्थ क्यों नहीं लेना चाहिए, इस शंकाका, तथा इसीके अन्तर्गत एक और भी शंकाका समाधान १०० लोभकषायी सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतका क्षेत्र १०१. अकषायी जीवोंका क्षेत्र १०२ उपशान्तकषायी जीवको अकपाय कैसे कहा, इस शंकाका तथा इसीके अन्तर्गत कुछ अन्य भी शंकाओंका समाधान १११ ११३-११७ ११३ समाधान ११२ ११३ १०६ विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र, तथा स्वस्थानादि पदगत विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और मनुष्य लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में ही क्यों रहते हैं, इस शंकाका समाधान | १०७ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधिज्ञानी जीवोंका क्षेत्र ११४ 33 ११६ . ११७ विषय १०३ मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र १०४ मत्यज्ञानी और श्रुताशानी सासादन सम्यग्दृष्टियोंका क्षेत्र | १०५ अचेतन और क्षणक्षयी शब्द की अविनष्टरूप से अनुवृत्ति कैसे हो सकती है, इस शंकाका ११५ ११० केवलज्ञानी प्र. नं. ११७-१२१ | १०८ प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषायान्त मन:पर्ययज्ञानी जीवोंका क्षेत्र १०९ पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिकनयी देशनाओंके कहनेका प्रयोजन सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जिनोंका क्षेत्र १११ स्वस्थानस्वस्थान पदका स्वरूप बतलाकर क्षीणमोही अयोगिकेवली में उसकी असंभवताका आपादन और समाधान ११७ ११८ "" "2 ११९ १२० १२१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय विषय क्षेत्रानुगम-विषय-सूची पृ. नं. 1 क्रम नं. १२१-१२५ १२३ उध्यपर्याप्तक जीवों में चक्षुदर्शन पाया जाता है, या नहीं, इस शंकाका समाधान | १२४ अचक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकका क्षेत्र- निरूपण | १२५ अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवोंका क्षेत्र ८ संयममार्गणा ११२ संयमी जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक के जीवोंका क्षेत्र १९३ द्रव्यार्थिक नयदेशनाका प्रयोजन ११४ सयोगिकेवलीका क्षेत्र और पृथक् सूत्र निर्माणका प्रयोजन ११५ सामायिक और छेदोपस्थापना संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के संयत जीवोंका क्षेत्र ११६ परिहारविशुद्धिसंयत, सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतों से पृथग्भूत क्यों नहीं, इस शंकाका समाधान ११७ परिहारविशुद्धिसंयमी प्रमत्तऔर अप्रमत्त संयतका क्षेत्र ११८ सूक्ष्मसाम्पराय संयमवाले उपशामक और क्षपक जीवोंका क्षेत्र ११९ यथाख्यातसंयमी, संयमासंयमी और असंयमी मिथ्यादृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् क्षेत्र - निरूपण १२० ओघप्ररूपणा के भेद - प्रभेद और प्रकृतमें किस ओघसे प्रयोजन है, यह बताकर तत्सम्बन्धी शंका-समाधान १२१ असंयमी सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ९ दर्शनमार्गणा १२२ चक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक क्षेत्र-निरूपण १२१ १२२ " १२२-१२३ 35 55 १२४ १२९ वैक्रियिक, मारणान्तिक और उपपादपद्गत पद्मलेश्यावाले जीवों में कौनसी राशि प्रधान है, इस बातका निरूपण | १३० शुक्लेश्यावाले जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के जीवोंका क्षेत्र १२५ १३१ शुक्ललेश्यावाले सयोगिकेवली का क्षेत्र और अलेश्य जीवोंका क्षेत्र नहीं कहनेका कारण ११ भव्यमार्गणा १३२ भव्यसिद्धिक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में जीवोंका क्षेत्र 39 १२६-१२८ १० श्यामार्गणा १२६ कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् क्षेत्रवर्णन | १२७ तेज और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यादृष्टिले लेकर अप्रमत्तसंयत तक के जीवोंका क्षेत्र १२८ मारणान्तिक समुद्धात गत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके क्षेत्र में विशेषता का वर्णन १२६ ( ३५ ) पू. नं. १२६ १२७ "S १२८-१३१ ઢ १२९ १३० 99 १३१ १३१-१३३ १३१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ १३५ (३६) षटखंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृ, नं. क्रम नं. विषय १३३ अभव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि १४१ उपशम श्रेणीसे उतरकर जीवोंका क्षेत्र मरनेवाले उपशमसम्यक्त्वी १३४ विहारवत्स्वस्थान और वैक्रि जीवोंके सिवाय अन्य उपशमयिकसमुद्धातगत अभव्य जीव सम्यक्त्वी जीवोंका मरण क्यों सामान्यलोक आदि चार नहीं होता, इस शंकाका लोकोंके असंख्यातवें भागमें समाधान और मनुष्यलोकसे असंख्यात सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यगुणे,क्षेत्रमें रहते हैं, इस बातका मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि सप्रमाण निरूपण जीवोंका पृथक् पृथक् क्षेत्र१३५ सादिबंध करनेवाले जीव निरूपण पल्योपमके असंख्यातवें भाग १३ संज्ञीमार्गणा मात्र होते हैं, इस बातका १४३ संशी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणसयुक्तिक वर्णन १३२-१३३ स्थानसे लेकर क्षीणकषाय १३६ एकेन्द्रियों में संचित अनन्त गुणस्थान तकके जीवोंका क्षेत्र सादिबंधकोंमेंसे जगप्रतरके १४४ असंही जीवोंका क्षेत्र असंख्यातवें भागप्रमाण सादिबंधक जीव त्रसों में क्यों नहीं १४ आहारमार्गणा १३७-१३८ उत्पन्न होते, इस शंकाका १४५ आहारक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगि१२ सम्यक्त्वमार्गणा १३३-१३६ केवली गुणस्थान तकके १३७ सामान्य सम्यग्दृष्टि और जीवोंका क्षेत्र-निरूपण १३७ क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में १४६ अनाहारक मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे जीवोंका क्षेत्र लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान १४७ अनाहारक सासादनसम्य. तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती ग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और जीवोंका क्षेत्र अयोगिकेवलीका क्षेत्र १३८ वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में असं १४८ अनाहारक सयोगिकेवलीका यत गुणस्थानसे लेकर क्षेत्र अप्रमत्तगुणस्थान तक प्रत्येक स्पर्शनानुगम - गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र १३९ उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असंयतगुणस्थानसे लेकर विषयकी उत्थानिका १४१-१४५ उपशान्तकषाय गुणस्थान १ धवलाकारका मंगलाचरण और . तकके जीवोंका क्षेत्र प्रतिज्ञा १४० मारणान्तिकसमुद्धात और उप- | २ स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देशपादपदगत असंयत उपशम भेद-कथन सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्याका ३ नामस्पर्शन, स्थापनास्पर्शन, निरूपण १३५/ द्रव्यस्पर्शन, क्षेत्रस्पर्शन, काल. - समाधान १३३ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय स्पर्शन और भावस्पर्शन, इन छह प्रकारके स्पर्शनोंका सभेद स्वरूप और नयों में अन्तर्भाव ४ स्पर्शनशब्द की निक्ति, ओघशब्दके एकार्थक नाम और प्रमाणवाक्य के अभावकी आशंकाका समाधान ६ स्पर्शनानुयोगद्वार के अवतारकी आवश्यकताका प्रतिपादन ७ लोकका प्रमाण-निरूपण ८ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्र ९ सासादन सम्यग्दृष्टि अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र १० सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्येचोंका स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्र जीवोंका ११ सासादन सम्यग्दृष्टि ज्योतिष्क देवोंका स्वस्थानक्षेत्र क्षेत्रानुगम-विषय-सूची पृ. नं. क्रम नं. २ ओघसे स्पर्शनानुगमनिर्देश १४५ - १७३ ५ मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र निरूपण १२ एक चन्द्रके परिवारका प्रमाण १३ ज्योतिष्कदेवोंके सर्व विमानों का १४१-१४४ १४४-१४५ प्रमाण १४ स्वयम्भूरमण समुद्र के परभागमें राजु अर्धच्छेदों के अस्तित्वकी सिद्धि तथा परिकर्मसूत्र के साथ उसका विरोध उद्भावन कर उसका परिहार १५ राजु अर्धच्छेद सर्व द्वीपसागरों के प्रमाणसे तत्प्रायोग्य संख्यात रूपाधिक हैं, यह कथन केवल त्रिलोकप्रज्ञप्तिसूत्र के अनुसार है, यह बतलाते हुए असंख्यात आवलियोंके अवहारकालके तथा आयतच तुरस्र लोकसंस्थान के उपदेशका उल्लेख और १४८ व्यन्तर १४५ | १८ सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंका स्वस्थानक्षेत्र-निरूपण १४५ - १४६ १९ सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एके१४६-१४७ न्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, या केवल मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं, इस बातका सप्रमाण निर्णय १४९-१६५ | २० जबकि सासादन लम्यग्दृष्टि देव एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं, तो फिर सर्वलोकवर्ती एकेन्द्रियोंमें क्यों नहीं करते, इस शंकाका सयुक्तिक समाधान १४९ १५०-१६० १५१-१५२ विषय स्वकीय निष्पक्ष मनोवृत्तिका परिचय १५२ १६ चन्द्रबिम्बशलाकाओं की उत्पत्ति १७ ज्योतिषी देवोंके विमानोंका प्रमाण उत्सेधांगुलसे ही लेना चाहिये, प्रमाणांगुलसे नहीं, अन्यथा जम्बूद्वीप-सम्बन्धी तारे जम्बूद्वीप में समा नहीं सकते, इस बातका पक्षान्तर स्वीकार के साथ उल्लेख | २१ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन क्षेत्र कैसे घटित होता है, वे वायुकायिक जीव में मारणान्तिकसमुद्धात क्यों नहीं करते, इन शंकाओंका समाधान १५५-१५६ २२ उपपादगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के देशोन ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन क्षेत्रकी सिद्धि | २३ जिन आचार्योंका यह अभिमत है कि देव नियमसे मूलशरीर में प्रविष्ट होकर ही मरण करते हैं, और इसी अपेक्षा उपपाद्गत सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंका ( ३७ ) प्र. नं. १५७ - १५८ १५९ १६० १६१ १६२-१६३ १६४ "" १६५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ (३८) षट्खंडागमको प्रस्तावना कम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. स्पर्शनक्षेत्र देशोन दश बटे मिथ्यादृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र चौदह भागप्रमाण कहते हैं, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग उनके कथनका सप्रमाण विरोध प्रमाण क्यों नहीं, इस शंकाका निरूपण तथा इसीके अन्तर्गत और भी २४ सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयत अनेको शंकाओंका समाधान । १७४ सम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान ३१ विग्रहगतिमें जीवोंके विग्रह और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र सहेतुक होते हैं, या अहेतुक, २५ संयतासंयत जीवोंका वर्तमान इस बातका निर्णय करते हुए __ और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र १६७-१६८ नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव२६ स्वयम्भूरमणसमुद्र और स्वय गति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी म्भपर्वतके परभागवर्ती क्षेत्रका प्रकृतियोंके भेदोंका निरूपण और उनके क्षेत्र-विपाकित्वकी विष्कम्भ बतलाते हुए संयता सिद्धि १७५-१७६ संयत जीवोंके स्वस्थानक्षेत्रकी .३२ सासादनसम्यग्दृष्टिनारकियोंका सप्रमाण सिद्धि . १६८-१६९/ वर्तमान और अतीतकालिक २७ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर स्पर्शनक्षेत्र अयोगिकेवली गुणस्थान तकके ३३ नारकावासोंके आकारोंका,तथा जीबोका स्पर्शनक्षेत्र, तथा वर्तमानकालमें नारकियोंसे विक्रियादि ऋद्धिसम्पन्न ऋषि रोके हुए क्षेत्रका वर्णन योंने सर्व मनुष्यक्षेत्रका स्पर्श ३४ सम्यग्मियादृष्टि और असंयतकिया है, या नहीं, क्या मेरु सम्यग्दृष्टि नारकियोका स्पर्शनशिखर तक जाने आनेवाले ऋषि क्षेत्र बतलाते हुए एक नारकामनुष्यक्षेत्र में सर्वत्र नहीं जा आ वासका क्षेत्रफल, तथा मारणासकते; क्या तिर्यंचोंका भी एक न्तिक समुद्धातगत असंयतलाख योजन ऊपर तक जाना सम्यग्दृष्टि नारकियोंका स्पर्शनसम्भव नहीं है, इत्यादि अनेक क्षेत्र मनुष्यलोकसे असंख्यातशंकाओंका समाधान १७०-१७२ गुणा क्यों है, इस बातका २८ सयोगिकेवलीका स्पर्शनक्षेत्र अनेक युक्तियों के साथ समर्थन १७२-१८२ ३५ प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि आदि आदेशसे स्पर्शनक्षेत्र-निर्देश १७३-३०९ चारों गुणस्थानवर्ती स्वस्थानादि पदगत नारकियोंके स्पर्शन१ गतिमार्गणा ,, -२४० क्षेत्रकी सयुक्तिक सिद्धि करते (नरकगति) , -१९२ हुए प्रसंगागत मृदंगाकार लोकके २९ नारकी मिथ्याइष्ठि जीवोंका अनुसार एक लाख योजन वर्तमान और अतीतकालिक बाहल्य और एक राजु गोल स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकके प्रमाणका,जगश्रेणी ३० मतीतकालकी अपेक्षा विहारव जगप्रतर, घनलोकका परिकर्मके स्वस्थानादि पदगत नारकी अवतरण पूर्वक स्वरूप-निरूपण " १७F Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९-१०.०७ स्वयपण : मिथ्या स्पर्शनानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृ.नं. क्रम नं. विषय करते हुए अनेक युक्तियों और कार शलाकाओंका निरूपण प्रमाणोंसे खंडन १८२-१८७| और उनसे विवक्षित द्वीप और ३६ द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी समुद्रके क्षेत्रफल निकालनेका पृथिवी तकके मिथ्यादृष्टि और विधान सासादनसम्यग्दृष्टिनारकियोका ४५ स्वयम्भूरमण समुद्रके क्षेत्रफल वर्तमान और अतीतकालिक निकालनेका विधान स्पर्शनक्षेत्र १८८-१८९ ४६ सर्व समुद्रोंके क्षेत्रफलका संक३७ उक्त पृथिवियोंके सम्याग्मथ्या लन-निरूपण १९९-२०१ दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ४७ स्वयम्भूरमण समुद्रके अतिनारकियोंका स्पर्शनक्षेत्र रिक्त शेष सर्व समद्रोके क्षेत्र ३८ सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि फलको निकालनेका विधान २०२-२०३ नारकियोंका वर्तमान और ४८ सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच मेरु. अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र तथा मूलसे नीचे मारणान्तिकसमुदेशोन क्षेत्रका स्पष्टीकरण १९०-१९१ द्धात क्यों नहीं करते हैं. उनकी ३९ सातवीं पृथिवीके सासादन भवनवासी देवों में उत्पत्ति होती सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि है, कि नहीं; इत्यादि अनेक और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकि शंकाओंका समाधान २०४-२०६ योंका स्पर्शनक्षेत्र १९१-१९२/४९ सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यचौका (तियेचगति) १९२-२.१६ स्पर्शनक्षेत्र ४० तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंका ५० असंयतसम्यग्दृष्टि और संयता संयत तिर्यचोंका वर्तमान और स्पर्शनक्षेत्र, तथा त्रसजीवरहित अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र २०७-२११ असंख्यात द्वीप और समुद्रों में ५१ नवग्रैवेयकोंमें यदि मिथ्याष्टि विहारवत्स्वस्थान पदपरिणत मनुष्य उत्पन्न होते हैं तो असं. तिर्यंचोंका होना कैसे संभव है, यतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इस शंकाका समाधान करते तिर्यचोंकी उत्पत्ति क्यों नहीं हुए अतीतकाल में विहार कर होना चाहिये ? यदि कहा जाय नेवाले तिर्यंचोंसे स्पर्श किये कि मिथ्याष्टि मनुष्य द्रव्यगये क्षेत्रके निकालनेका लिंगसे उत्पन्न होते हैं, तो ये विधान १९२-१९३ भी द्रव्यलिंगसे ही उत्पन्न होवे! ४१ सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका इस शंकाका समाधान २०८ वर्तमान और अतीतकालिक ५२ उपपादपरिणत असंयतसम्यस्पर्शनक्षेत्र १९३-२०६] ग्हष्टि तिर्यंचोंके स्पर्शनक्षेत्रके ४२ जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल करणसूत्र द्वारा निकालनेका ४३ लघणसमुद्रका क्षेत्रफल विधान २०९-१० ४४ धातकीखंड आदि द्वीपों और ५३ विहारवत्स्वस्थानादि पदपरिकालोदक आदि समुद्रोंके क्षेत्र णत संयतासंयत तिर्यंचोंका फलके निकालनेके लिए गुण स्पर्शनक्षेत्र २१००२९ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (४०) षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ. नं. ५४ मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय, पंचेद्रिय कुलाचल आदिके क्षेत्रकी 'मनुष्य पर्याप्त और योनिमती तिर्य क्षेत्र' यह संज्ञा कैसे है, इस चोंका वर्तमान और अतीत शंकाका समाधान २१८ कालिक स्पर्शनक्षेत्र, २११-२१२ ६४ मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले ५५ त्रसनालीके बाहिर त्रसकायिक नारकी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका जीवोंके अभाव होनेसे मार स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्याणान्तिक और उपपादगत उक्त तवां भाग नहीं हो सकता, इस तिर्यंचत्रिकोंका स्पर्शनक्षेत्र सर्व बातका सयुक्तिक आक्षेप और लोक कैसे सम्भव है, इस परिहार २१८-२२० शंकाका समाधान ६५ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे ५६ सासादनगुणस्थानसे लेकर लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान संयतासंयत गुणस्थान तक उक्त तकके मनुष्योंका स्पर्शनक्षेत्र २२०-२२३ पंचेन्द्रियत्रिकोंका स्पर्शनक्षेत्र २१३/६६ मारणान्तिक समुद्धातगत असं५७ पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्य यतसम्यग्दृष्टि मनुष्योने तिर्य ग्लोकका संख्यातवां भाग कैसे चोंका वर्तमानकालिक स्पर्शन स्पर्श किया, इस शंकाका क्षेत्र समाधान २२१ ५८ पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्य ६७ बद्धायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि चोंका अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र मनुष्यों के उपपादक्षेत्रके निकालतथा उसकेनिकालनेका विधान नेका विधान २२१-२२२ ५९ अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र ६८ सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म परिधिक्षेत्रके अवगाहनावाले लब्ध्यपर्याप्त निकालनेका करणसूत्र जीवोंके संख्यात अंगुलप्रमाण |६९ सयोगिकेवली जिनोंका स्पर्शनउत्सेध कैसे संभव है, इस २२३ शंकाका समाधान "७० लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका वर्त. ६० महामच्छकी अवगाहनामें एक J मानकालिक स्पर्शनक्षेत्र बन्धनसे बद्ध षटकायिक जीवोंका |७१ लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका अतीतअस्तित्व कैसे जाना जाता है, ___कालिक स्पर्शनक्षेत्र २२४ इस शंकाका समाधान (देवगति) २२४-२४० (मनुष्यगति) २१६-२२४७२ मिथ्यादृष्टि और सासादन६१ मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनु- __ सम्यग्दृष्टि देवोंका वर्तमानष्यनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका वर्त___ कालिक स्पर्शनक्षेत्र २२४ मान और अतीतकालिक स्पर्शन ७३ उक्त देवोंका अतीत और अनाक्षेत्र २१६-२१७ गतकालसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्रका ६२ उक्त तीनों प्रकारके सासादन सोपपत्तिक निरूपण २२५ सम्यग्दृष्टि मनुष्योंका वर्तमान ७४ दिशा और विदिशाका स्वरूप, और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र २१७-२२० तथा षटापक्रमनियमके होने में ६३ मनुष्योंसे अगम्य प्रदेशवाले । युक्ति क्षेत्र " २२६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शनानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ. नं. ७५ भवनवासियों में उत्पन्न होनेवाले | ८५ सौधर्म और ईशानकल्पवासी तिर्यचोंका उपपाद सम्बन्धी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे स्पर्शनक्षत्र साधिक पांच राजु लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणक्यों नहीं होता, इस शंकाका स्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती समाधान २२६-२२७ । देवोंका स्पर्शनक्षेत्र ७६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. २३४-२३६ सम्यग्दृष्टि देवोंके वर्तमान तथा ८६ इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंके विस्तारका निरूपण अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्रका २३४ ८७ सौधर्मादि सर्व कल्पोंके विमासोपपत्तिक निरूपण । नोंकी संख्याका निरूपण २३५-२३६ ७७ मिथ्यादृष्टि और सासादन ८८ सौधर्मकल्पवासी देवोंका सम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोके स्पर्शनक्षेत्र देवोंके ओघस्पर्शनके वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्रका समान क्यों है, इसका सोपसयुक्तिक निरूपण २२८-२२९ पत्तिक निरूपण ७८ उक्त देवोंके अतीतकालिक २३६ ८९ सनत्कुमारकल्पसे लेकर सहस्पर्शनक्षेत्रका सोपपत्तिक नारकल्प तकके मिथ्यादृष्टि निरूपण २२९-२३२ ७९ उपपादपदगत मिथ्यादृष्टिभवन आदि चारों गुणस्थानवर्ती वासी देवोंके स्पर्शनक्षेत्रसम्बन्धी देवोंका वर्तमान और अतीतअनेक अपूर्व शंकाओंका समाधान २३० कालिक स्पर्शनक्षेत्र २३७-२३८ ८० मिथ्यादृष्टि और सासादन ९० आनतकल्पसे लेकर अच्युतसम्यग्दृष्टि व्यन्तरदेवोंके स्वस्था कल्प तकके मिथ्यादृष्टि आदि . नादि पदोंके स्पर्शनक्षेत्रका सोप चारों गुणस्थानवर्ती देवोंके वर्त. पत्तिक निरूपण २३०-२३१ मान और अतीतकालिक स्पर्शन क्षेत्रका सोपपत्तिक निरूपण २३८-२३९. ८१ उपपादकी अपेक्षा तिर्यग्लोकसे १नवौवेयकोंके मिथ्यादृष्टि आदि असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकालमें व्याप्त करके स्थित चारों गुणस्थानवर्ती देवोंका व्यन्तरदेव अतीतकालमें कैसे वर्तमान और अतीतकालिक तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागको स्पर्शनक्षेत्र स्पर्श करते हैं, इस शंकाका ९२ नव अनुदिश और पांच अनु त्तर विमानवासी असंयतसम्य, सयुक्तिक समाधान ८२ व्यन्तरोंके प्रसंगोपात्त आवास ग्दृष्टि देवोंका स्पर्शनक्षेत्र । २४० स्थानोंका निरूपण २३२ २ (इन्द्रियमार्गणा) २४०-२४६ ८३ उपपादगत ज्योतिष्क देवोंका ९३ बादर, सूक्ष्म और पर्याप्त अपस्पर्शनक्षेत्र २३२-२३३, र्याप्त एकेन्द्रिय जीवोंका स्पर्शन८४ सम्यग्मिथ्यादष्टि और असंयत क्षेत्र २४०-२४२ “सम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंका ९४ बादर एकेन्द्रिय और बादर वर्तमान और अतीतकालिक एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र .. ...... २३३-२३४ -स्पर्शनक्षेत्र सामान्य लोक आदि . .... २३९ आवास निरूपण ६३ उपपा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृ.नं. क्रम नं. विषय तीन लोकोंके संख्यातवें भाग १०२ बादर तेजस्कायिक और वायु क्यों है, इस शंकाका समाधान २४१ कायिक जीवोंके वैक्रियिक९५ सामान्य एवं पर्याप्त और अप समुद्धातसम्बन्धी स्पर्शनर्याप्त विकलत्रय जीवोंका वर्त क्षेत्रका सोपपत्तिक वर्णन २४९-२५० मानकालिक स्पर्शनक्षेत्र २४२ १०३ बादर पृथिवीकायिक, जल९६ उक्त तीनों प्रकारके विकलत्रय कायिक, अग्निकायिक और जीवोंके अतीतकालिक स्पर्शन वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर क्षेत्रका सोपपत्तिक निरूपण २४३ पर्याप्त जीवोंके वर्तमान और ९७ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्रका मिथ्यादृष्टि जीवोंके वर्तमान तथा तदन्तर्गत शंका-समातथा अतीतकालिक स्पर्शन धानोंका सप्रमाण वर्णन २५०-२५२ क्षेत्रका सोपपत्तिक निरूपण २४४१०४ बादर वायुकायिकपर्याप्त ९८ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे जीवोंका वर्तमान तथा अतीतलेकर अयोगिकेवली गुणस्थान कालिक स्पर्शनक्षेत्र २५२-२५३ तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती १०५ वनस्पतिकायिक, निगोद, तथा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय उनके बादर, सूक्ष्म और पर्याप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंका स्पर्शन९९ लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंका क्षेत्र २५३-२५४ वर्तमान और अतीतकालिक १०६ त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंके मिथ्यादृष्टि स्पर्शनक्षेत्र २४६ __ आदि चौदहों गुणस्थानों ३ (कायमार्गणा) २४७-२५५ सम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्रका निरूपण २५४ १०० सामान्य तथा बादर पृथिवी- १०७ त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्त कायिक, जलकायिक, अग्नि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २५४-२५५ कायिक, वायुकायिक और ४ योगमार्गणा २५५-२७१ बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक १०८ पांचों मनोयोगी और पांचों शरीर, तथा इन्हींके अपर्याप्त वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जीव, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, वर्तमान और अतीतकालिक सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्मआग्नि स्पर्शनक्षेत्र २५५-२५६ कायिक,सूक्ष्मवायुकाायक और १०९ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणइन्हींके पर्याप्त तथा अपर्याप्त स्थानसे लेकर सयोगिकेवली जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २४७ गुणस्थान तक प्रत्येक गुण१०१ उक्त जीवोंने तिर्यग्लोकसे स्थानवर्ती पांचों मनोयोगी संख्यातगुणा क्षेत्र कैसे स्पर्श और पांचों वचनयोगी जीवोंका किया है, यह बतलाते हुए स्पर्शनक्षेत्र २५६-२५७ आठों पृथिवियोंकी लम्बाई ११० मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर चौड़ाई और मोटाईका निरूपण २४७-२४८/ क्षीणकषायगुणस्थान तक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र स्पर्शनानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृ.नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. काययोगी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २५८ १२० वैक्रियिकमिटकाययोगी मिथ्या१११ काययोगी सयोगिकेवलीका दृष्टि, सासादगसम्यग्दृष्टि और स्पर्शनक्षेत्र, तथा पृथक सूत्र. असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका द्वारा बतलानेका सयुक्तिक स्पर्शनक्षेत्र २६८-२६९ कारण-निरूपण २५८-२५९/१२१ आहारककाययोगी और आहा११२ औदारिककाययोगी मिथ्या रकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयदृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २५९.२६० तोंका स्पर्शनक्षेत्र ११३ औदारिककाययोगी सासादन १२२ कार्मणकाययोगी मिथ्याष्टि सम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान | जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २६९-२७० और अतीतकालिक स्पर्शन १२३ कार्मणकाययोगी सासादन२६०.२६१ सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्य११४ औदारिककाययोगी सम्य ग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान तथा ग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्य अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र २७०-२७१ ग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंका १२४ कार्मणकाययोगी सयोगिवर्तमान और अतीतकालिक केवलीका स्पर्शनक्षेत्र २७१ स्पर्शनक्षेत्र २६१-२६२ ५ वेदमार्गणा २७१-२७९ ११५ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे १२५ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी मिथ्यालेकर सयोगिकेवली गुणस्थान दृष्टि जीवोंके वर्तमान और तकके औदारिककाययोगी अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्रका जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २६२-२६३ सयुक्तिक निरूपण २७१-२७२ ११६ औदारिकमिश्रकाययोगी मिल |१२६ स्त्री और पुरुषवेदी सासादनथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शन सम्यग्दृष्टि जीवोंके वर्तमान क्षेत्र २६३-२६४ और अतीतकालिक स्पर्शन११७ औदारिकमिश्रकाययोगी सा क्षेत्रका तदन्तर्गत शंका-समासादनसम्यग्दृष्टि, असंयत धानके साथ निरूपण २७२-२७४ सम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली १२७ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी सम्यजीवोंके स्पर्शनक्षेत्रका तद ग्मिथ्यादृष्टि तथा असंयतन्तर्गत शंका- समाधान पूर्वक सम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान सोपपत्तिक निरूपण २६४-२६५ और अतीतकालिक स्पर्शन११८ वैक्रियिककाययोगी मिथ्या क्षेत्र २७४ दृष्टि जीवोंके वर्तमान और | १२८ स्त्री और पुरुषवेदी संयता. अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्रका संयतोंका वर्तमान और अतीतसोपपत्तिक निरूपण कालिक स्पर्शनक्षेत्र २७४-२७५ ११९ वैक्रियिककाययोगी सासादन- | १२९ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अनिवृत्तिकरण उपशामक और और असंयतसम्यग्दृष्टि क्षपक गुणस्थान तक स्त्री और जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २६७-२६८ पुरुषवेदी जीवोंका तदन्तर्गत __ २६६ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ ८ संयममा षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृ.नं. क्रम नं. विषय पृ. नं. विशेषताओंके साथ स्पर्शन- |१३९ असंयत लम्यग्दृष्टिगुणस्थानसे क्षेत्रका वर्णन २७५-२७६ लेकर क्षीणकषायगुणस्थान १३० नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके तकके मति, शुत और अवधि. तदन्तर्गत शंका-समाधानके ज्ञानी जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रका साथ स्पर्शनक्षेत्रका निरूपण २७६ तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक १३१ नपुंसकवेदी सासादनसम्य निरूपण २८३-२८४ ..ग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान और |१४० प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र २७६-२७७/ क्षीण कषाय गुणस्थान तकके १३२ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे मनःपर्ययज्ञानी जीवोंका लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान स्पर्शनक्षेत्र २८४ तकके नपुंसकवेदी जीवोंका १४१ केवलज्ञानी सयोगिकेवली वर्तमान और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र और अयोगिकेवली जिनका २७७-२७९ स्पर्शनक्षेत्र २८४-२८५ १३३ अपगतवेदी जीवोंक क्षेत्र ८ संयममार्गणा २८५-२८८ . ६ (कपायमार्गणा) २८०-२८१ १४२ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके १३४ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र अनिवृत्तिकरण गुणस्थान २८५-२८६ तकके चारों कषायवाले १४३ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २८० अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तकके १३५ लोभकषायवाले सूक्ष्मसाम्प. सामायिक और छेदोपस्थापना रायगुणस्थानवर्ती उपशामक संयमी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र और क्षपक जीवोंका स्पर्शन १४४ प्रमत्त और अप्रमत्तलंयत गण स्थानवर्ती परिहारविशुद्धि१३६ उपशान्तकषाय आदि अन्तिम संयतोंका स्पर्शनक्षेत्र चारगुणस्थानवाले अकषायी |१४५ उपशामक और क्षपक सूक्ष्मजीवोंका स्पर्शनक्षेत्र २८०-२८१ साम्परायसंयमी जीवोंका ७ (ज्ञानमार्गणा) २८१-२८५ स्पर्शनक्षेत्र १३७ मिथ्यादृष्टि और सासादन १४६ अन्तिम चार गुणस्थानवर्ती - सम्यग्दृष्टि मत्यज्ञानी तथा यथाख्यातसंयमी जीवोंका श्रुताज्ञानी जीवोंके स्पर्शन स्पर्शनक्षेत्र क्षेत्रका तदन्तर्गत शंका-समा- १४७ संयमासंयमवाले जीवोंका तदधानपूर्वक निरूपण २८१-२८२ न्तर्गत शंका-समाधानके साथ विभंगज्ञानी मिथ्याडष्टि और स्पर्शनक्षेत्र-निरूपण सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके १४८ मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्पर्शनक्षेत्रकातदन्तर्गत शंका स्थानवर्ती असंयत जीवोंका समाधानपूर्वक निरूपण २८२-२८३ स्पर्शनक्षेत्र २८६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय ९ दर्शनमार्गणा १४९ चभ्रुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका वर्तमान और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र १५० सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के चक्षुदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र १५१ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के अवक्षुदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र १५२ अवधिदर्शनी जीवों का स्पर्शनक्षेत्र १५३ केवलदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र १० लेश्यामार्गणा १५४ कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका सोपपत्तिक स्पर्शनक्षेत्र १५५ उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान और अतीतकालिक स्पर्शन क्षेत्र १५६ देवोंसे एकेन्द्रियोंमे मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका तीनों अशुभ लेश्या सम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र यथाक्रमसे बारह बटे चौदह भाग, ग्यारह बटे चौदह भाग और नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्यों नहीं पाया जाता, इस शंकाका 东 स्पर्शनानुगम-विषय-सूची प्र. नं. क्रम नं. २८८-२९० समाधान १५७ कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले तथा एकेन्द्रियों में मार शान्तिक समुद्धात करनेवाले २८८ २८९ 33 २९० २९०-३०१ २९० २९१-२९३ २९२ विषय सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यच और मनुष्योंका स्पर्शनक्षेत्र क्रमशः बारह बटे चौदह, ग्यारह बटे चौदह और नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्यों नहीं पाया जाता, इस शंकाका समाधान क्रमशः १५८ तिर्यचगति में उत्पन्न होनेवाले देवोंके तीनों अशुभलेश्याओं का उपपादपदसम्बन्धी ग्यारह बटे चौदह, दश बटे चौदह और आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता, इस शंकाका समाधान १५९ उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका सयुक्तिक स्पर्शनक्षेत्र मिथ्यादृष्टि १६० तेजोलेश्यावाले और सासादन सम्यग्दष्टि जीवों का वर्तमान और अतीतकालिक स्पर्शन क्षेत्र १६१ तेजोलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र | १६२ तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंका वर्तमान और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र १६३ तेजोलेश्यावाले प्रमत्त और अप्रमत्त संयतों का स्पर्शनक्षेत्र १६४ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक पद्मलेश्यावाले जीवोंका वर्तमान और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र (84) पृ. नं. २९२ २९२ २९३ २९४ २९४-२९५ २९५-२९६ २९६-२९७ २९७ २९७-२९८ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. १६५ पद्मलेश्यावाले संयतासंयत वर्ती क्षायिकसम्यक्त्वी जीवों का जीवोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शनक्षेत्र ३०२ अनागतकालसंबंधी स्पर्शनक्षेत्र १७५ उपपादपदगत असंयत क्षायिक१६६ पद्मलेश्यावाले प्रमत्त और सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनअप्रमत्तसंयतोंका स्पर्शनक्षेत्र क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें १६७ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर भागप्रमाण कैसे है, इस संयतासंयत गुणस्थान तकके शंकाका समाधान ३०२-३०३ शुक्ललेश्यावाले जीवोंका वर्त १७६ संयतासंयत गुणस्थानसे मान और अतीत-अनागतकाल लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान संबंधी स्पर्शनक्षेत्र २९९-३०० तकके क्षायिकसम्यक्त्वी १६८ शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच, शुक्ल जीवोंका सोपपत्तिक स्पर्शनलेश्यावाले देवोंमें क्यों नहीं क्षेत्र-वर्णन ३०३-३०४ १७७ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे उत्पन्न होते हैं, इस शंकाका लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान समाधान ३०० तकके वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंका १६९ उपपादपदपरिणत शुक्ललेश्या स्पर्शनक्षेत्र ३०४ वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके १७८ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतथा मारणान्तिकपदपरिणत वर्ती औपशमिकसम्यक्त्वी शुक्ललेश्यावाले संयतासंयत जीवका स्पर्शनक्षेत्र, तथा जीवोंके देशोन छह बटे उसके ओघके समान कहने में चौदह भागप्रमाण स्पर्शन उपस्थित आपत्तिका परिहार ३०४-३०५ क्षेत्रका सोपपत्तिक निरूपण "१७९ संयतासंयत गुणस्थानसे १७० प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर लेकर उपशान्तकषाय गुणसयोगिकेवली गुणस्थान तकके स्थान तकके उपशमसम्यशुक्ललेश्यावाले जीवोंका ग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र स्पर्शनक्षेत्र ३००-३०१ • सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्य११ भव्यमार्गणा मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि १७१ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर जीवोंका पृथक् पृथक् अयोगिकेवली गुणस्थान तकके स्पर्शनक्षेत्र ३०६ भव्यजीवोंका स्पर्शनक्षेत्र १३ संज्ञिमार्गणा ३०६-३०७ १७२ अभव्य जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र , १८१ संही मिथ्यादृष्टि जीवोंका १२ सम्यक्त्वमार्गणा ३०२-३०६ वर्तमान और अतीतकालिक १७३ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे स्पर्शनक्षेत्र ३०६-३०७ लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान १८२ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतकके सम्यक्त्वी जीवोंका से लेकर क्षीणकषाय गुण. स्पर्शनक्षेत्र ३०२) स्थान तकके संज्ञी जीवोंका १७४ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान स्पर्शनक्षेत्र ३०७ ६०१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) क्षेत्र कालानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय १८३ असंशी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ३०७ ७ व्यवहारकालके अस्तित्वकी १४ आहारमार्गणा ३०८-३०९/ पुष्टिमें पंचास्तिकायप्राभृतकी गाथाओंका उल्लेख ३१७ १८४ आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ३०८ ८ प्रकृतमें नोआगमभावकालका १८५ आहारमार्गणाकी अपेक्षा उप प्रयोजन और उसके समय, पादपदका राजुप्रमाण आयाम आवली, मुहूर्त, वर्ष आदि नहीं पाया जाता, अतःसर्वलोक स्वरूप होनेका निरूपण प्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके अभाव ९ कालशब्दकी निरुक्ति और होनेसे ओघपना नहीं बनता उसके पर्यायवाची नामाका है, इस शंकाका समाधान निरूपण ३१७-३१८ १८६ सासादनसम्यग्दृष्टि गुण |१० समय,आवली, उश्वासनिःश्वास स्थानसे लेकर सयोगिकेवली स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त और गुणस्थान तकका स्पर्शनक्षेत्र दिवसके कालप्रमाणका सप्र१८७ अनाहारक जीवोंका स्पर्शन माण निरूपण ३१८ ३०९ ११ दिन और रात्रिसम्बन्धी तीस कालानुगम मुहूतोंके नाम ३१८-३१९ १२ पक्षका प्रमाण और दिवसोंके नाम विषयकी उत्थानिका ३१३-३२३ ३१९ १३ मास, वर्ष और युग आदिका १ धवलाकारका मंगलाचरण और स्वरूप ३२० प्रतिज्ञा २ कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश ३१३ १४ निर्देश, स्वामित्व आदि प्रसिद्ध भेद-निरूपण छह अनुयोगद्वारोंसे कालका ३ नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्य स्वरूप-निरूपण ३२०-३२२ काल और भावकाल, इन चार |१५ यदि काल एकमात्र मनुष्यक्षेत्रके प्रकारके कालनिक्षेपोंका सभेद सूर्यमंडल में ही अवस्थित है,तो स्वरूप-निरूपण ३१३-३१७ उसके द्वारा छह द्रव्योंके परि. ४ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य णाम कैसे प्रकाशित किये जा कालका स्वरूप और उसकी सकते हैं, इस शंकाका समाधान ३२० पुष्टिमें पंचास्तिकायप्राभृत, जीव- १६ देवलोकमें तो दिन-रात्रिरूप समास और आचारांगकी गाथा कालका अभाव है, फिर वहां ओका उल्लेख ३१४-३१६ पर कालका व्यवहार कैसे होता ५ द्रव्यकालके अस्तित्वको सम है, इत्यादि कालसम्बन्धी अनेकों र्थन करते हुए तत्त्वार्थसूत्रका शंकाओंके अपूर्व समाधान ३२१ सूत्रप्रमाण-निरूपण ३१६/१७ निर्देशके पर्यायवाची नाम बतला ६ प्रकृत जीवस्थान आदिमें द्रव्य कर दोनों प्रकारके निर्देशोंकी कालके न कहनेका कारण सार्थकताका निरूपण ३२२-३२३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ.नं. ३२४ (४८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृ. नं. " नं. विषय २६ पुद्गलपरिवर्तनके स्वरूपका ओघसे कालानुगमनिर्देश ३२३-३५७ बोधक यंत्र ३३० १८ मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना २७ अगृहीत, मिश्र और गृहीत जीवों की अपेक्षा कालनिरूपण ३२३, ___ संबंधी तीनों प्रकारके कालोंका १९ एक जीवकी अपेक्षा कालके ___ सकारण अल्पबहुत्व-निरूपण ३३१ तीन भेदोंका सदृष्टान्त उल्लेख, २८ नोकर्मपुद्गल परिवर्तनके समान ही और प्रकृतमें सादि-सान्त कर्म पुद्गलपरिवर्तनके स्वरूपका कालकी अपेक्षा जघन्यकालका उल्लेख और तत्सम्बन्धी निरूपण विशेषताओंका निरूपण ३३२ २० सासादनसम्यग्दृष्टि जीवको भी २९ क्षेत्र, काल, भव और भावमिथ्यात्व गुणस्थानमें पहुंचा पुद्गलपरिवर्तनोंका सूत्रगाथाओं कर उसका जघन्यकाल क्यों द्वारा स्वरूप-निरूपण ३३३.३३४ नहीं बतलाया, इस शंकाका ३० एक जीवकी अपेक्षा पांचों परि- समाधान ३२५ वर्तनवारोंका अल्पबहुत्व २१ एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट ३१ पांचों परिवर्तनोंका कालसंबंधी . सादि-सान्त मिथ्यात्वकालका अल्पबहुत्व निरूपण |३२ सादि-सान्त मिथ्यात्वके कुछ २२ अर्धपुद्गलपरिवर्तनका स्वरूप कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालका बतलाते हुए पांच प्रकारके निदर्शन ३३५ परिवर्तनोंका नामोल्लेख कर ३३ सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और मिथ्याद्रव्यपरिवर्तनका विशद स्वरूप त्वका विनाश, इन दोनों विभिन्न निरूपण ३२५-३३६ कार्योंका एक समय कैसे हो २३ यदि जीवने आज तक भी सकता है; इस शंकाका समाधान समस्त पुद्गल भोगकर नहीं ३४ मिथ्यात्व नाम पर्यायका है, वह छोड़े हैं, तो ' सव्वे वि पोग्गला खलु' पर्याय उत्पाद विनाशात्मक है, इत्यादि सूत्र-गाथाके साथ क्योंकि, उसमें स्थितिका अभाव विरोध क्यों नहीं होगा, इस है। और यदि उसकी स्थिति शंकाका समाधान भी मानते हैं, तो मिथ्यात्वके २४ प्रथम समयमें गृहीत पुद्गल-पुंज द्रव्यपना प्राप्त होता है, इस द्वितीय समयमें निर्जीण हो, शंकाका समाधान अकर्मरूप अवस्थाको धारण कर, ३५ अनन्तका स्वरूप और उसके पुनः तृतीय समयमें उसी जीवमें प्रमाणमें आर्षगाथाका उल्लेख __३३८ नोकर्मपर्यायसे परिणत हो ३६ व्ययसहित अर्धपुद्गलपरिवर्तन जाता है, यह कैसे जाना, इस आदि राशियोंके अनन्तपना शंकाका समाधान ३२७ किस अपेक्षासे है, इसका स्पष्टी. २५ पुद्गलपरिवर्तनकालके तीन करण -प्रक्रारोंका स्वरूप ............. ३२८/३७ अक्षय अनन्त राशिका विवेचन .. ३३९ ३२६ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय ३८ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का नानाजीवों की अपेक्षा सोपपत्तिक जघन्य कालनिरूपण ३९ उक्त जीवोंके उत्कृष्ट कालका सयुक्तिक कालवर्णन ४० एक जीवकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टियोंके जघन्य कालका निरूपण ४१ उपशमसम्यक्त्वकाल के अधिक माननेमें क्या दोष है, इस शंकाका समाधान करते हुए सासादन गुणस्थान के कालका सप्रमाण निरूपण ४२ एकजीव की अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टियों के उत्कृष्ट कालका सप्रमाण निरूपण ४३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल ४४ अप्रमत्तसंयत जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त होते, इस शंकाका समाधान ४५ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपना काल पूरा कर पीछे संयमको, अथवा संयमासंयमको क्यों नहीं प्राप्त होता, इस शंकाका समाधान ४६ नाना जीवों की अपेक्षा सम्यमिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट काल ४७ एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के जघन्य कालका तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक निरूपण ४८ एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उत्कृष्ट कालका सोपपत्तिक प्रतिपादन ४९ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवों की अपेक्षा काल, तथा कालानुगम-विषय-सूची पृ. नं. क्रम नं. ३३९ ५० एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टियों के जघन्य कालका सनिदर्शन निरूपण ३४० ३४१ 93 ३४२ ३४२-३४३ ३४३ विषय तत्सम्बन्धी अनेकों शंकाओंका समाधान 39 | ५६ प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतों का नाना जीवोंकी अपेक्षा कालनिरूपण ५७ एक जीवकी अपेक्षा प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतों के जघन्य कालका सोपपत्तिक निरूपण नामा ૨૪ ५८ एक जीवकी अपेक्षा प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतों का उत्कृष्ट काल ५९ चारों उपशामक का जीवोंकी जघन्य काल ६० अप्रमत्तसंयतको अपूर्वकरण गुणस्थान में ले जाकर और द्वितीय समय में मरण कराके अपूर्वकरण गुणस्थानके एक समयकी प्ररूपणा क्यों नहीं की, इस शंकाका समाधान ३४५ ६१ नाना जीवोंकी अपेक्षा चारों उपशामकों के उत्कृष्ट कालका सोपपत्तिक निरूपण 93 ५१ एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टियों के जघन्य कालका तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक सोपपत्तिक निरूपण ५२ संयतासंयत जीवोंका नाना जीवों की अपेक्षा काल ५३ एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयतोंका जघन्य काल ५४ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संयमासंयमको क्यों नहीं प्राप्त होता, इस शंकाका समाधान ५५ एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयतोंका उत्कृष्ट काल ( ४९ ) प्र. नं. ३४५-३४६ ३४६-३४७ ३४७-३४८ ३४८ ३४९ 33 ३५० ३५० ३५०-३५१ ३५१ ३५२ "" ३५२-३५३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) क्रम नं. विषय ६२ एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकों का जघन्य काल ६३ एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट काल ६४ चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य तथा उत्कृष्ट काल ६५ उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ६६ सयोगिकेवली जिनका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल निरूपण ( नरकगति ) ६७ नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंका नानाजीवों की अपेक्षा काल निरूपण ६८ एक जीवकी अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल ६९ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका काल वर्णन षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृ. नं. क्रम नं. ३५३-३५४ आदेश से काल प्रमाण-निर्देश १ गतिमार्गणा ३५४ ३५४-३५५ ३५५ ३५६-३५७ ३५७–३६३ ३५७ ३५७-३५८ ७० असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियों का नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल निरूपण ३५८-३५९ ७१ सातों पृथिवियोंके नारकियोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका प्रतिपादन ७२ सातों पृथिवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि मारकियोंका काल वर्णन ७३ सातों पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियोंका नाना विषय और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालों का सोपपत्तिक निरूपण ३६०-३६१ ( तिर्यंचगति ) ७४ तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा काल वर्णन ७५ एक जीवकी अपेक्षा तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल ७६ 'असंख्यात पुगलपीरर्वतन' इस वचनसे अनन्तताकी उपलब्धि होती है, अतः सूत्रमेंसे अनन्त पद क्यों न निकाल दिया जाय, इस शंकाका समाधान ७७ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि तिर्यचोंका काल प्रमाण ७८ असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यचोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ७९ संयतासंयत तिर्यचोंका नाना और एकजीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ३५८८० पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ८१ पंचानवे पूर्वकोटियों की पूर्वकोटीपृथक्त्वसंज्ञा कैसे हो सकती है, इस शंकाका समाधान ८२ लब्ध्यपर्याप्तकों में स्त्रीवेद की संभवता-असंभवताका विचार ३६१ | ८३ उक्त तीनों प्रकारके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यचोंका काल वर्णन प्र. नं. ३६१-३६३ ३६३-७२ ३६३-३६४ ३६३ ३६४ 33 ३६५-३६६ ३६६ ३६७-३६९ ३६८ ३६९ 13 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय ८४ उक्त तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दष्टि तिर्यचोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोपपत्तिक जघन्य और उत्कृष्ट काल ८५ उक्त तीनों प्रकार के संयतासंयत तिर्यचोंका काल ८६ पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यचोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ३७१-३७२ ( मनुष्यगति ) ३७२-३८० ८७ मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनी मिथ्यादृष्टि जीवोंके नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका सोपपत्तिक निरूपण ८८ उक्त तीनों प्रकार के सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका नाना एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ८९ उक्त तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ९० उक्त तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों का नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ९१ उक्त तीनों प्रकार के मनुष्योंका संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली तक काल निरूपण ९२ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल कालानुगम-विषय-सूची प्र. नं. क्रम नं. ( देवगति ) ९३ मिथ्यादृष्टि देवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और और उत्कृष्ट काल विषय ९४ सासादन और असंयत सम्यग्दृष्टि देवोंका काल ९५ असंयत सम्यग्दृष्टि देवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कल ३७१ ९६ भवनवासियों से लगाकर शतार सहस्रारकल्प तकके मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ३६९-३७१ ३७२-३७३ ३७४-३७५ ३७५-३७६ ३७६-३७८ ३७८ ३७९-३८० ३८०-३८७ ३८० ९७ घातायुष्क सम्यग्दृष्टि और देवों के काल में मिथ्यादृष्टि विशेषता | ९८ उक्त देवोंकी स्थिति बतलानेवाले कालसूत्रका और त्रिलोक प्रज्ञप्तिसूत्रका विरोध उद्भावन कर उसका परिहार ९९ भवनवासियों से लेकर सहस्रारकल्प तकके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका ( ५१ ) प्र. नं. ३८१ 39 ३८२-३८४ ३८३ ३८४ काल १०० आनतकल्पसे लेकर नवग्रैवे यकों तक के मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि देवोंका नाना और एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका निरूपण ३८५-३८६ १०१ नौ अनुदिश और विजयादि चार अनुत्तर विमानोंके असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल | १०२ सर्वार्थसिद्धि विमानवासी असंयत सम्यग्दृष्टि देवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा काल निरूपण २ इन्द्रियमार्गणा १०३ एकेन्द्रिय जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ३८५ ३८६-३८७ ३८७ ३८८-४०१ ३८८ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम नं. षटखंडागमकी प्रस्तावना विषय पृ.नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. १०४ बादर एकेन्द्रिय जीवोंका नाना जीवकी अपेक्षा जघन्य और और एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल ३९३-३९४ जघन्य और उत्कृष्ट काल ३८८-३८९/११२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंका नाना १०५ 'कर्मस्थितिको आवलीके असं और एक जीवकी अपेक्षा ख्यातवें भागसे गुणा करने जघन्य और उत्कृष्ट काल ३९४ पर बादरस्थिति होती है," |११३ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक इस परिकर्म-वचनके साथ जीवोंका नाना और एक बतलाये गये बादर एकेन्द्रियों जीवकी अपेक्षा जघन्य और के एक जीवगत उत्कृष्ट कालका उत्कृष्ट कालका तदन्तर्गत शंकाविरोध क्यों नहीं होगा, इस समाधान पूर्वक निरूपण ३९४-३९५ शंकाका समाधान ३९०.११४ जब कि एक सूक्ष्म एकेन्द्रिय १०६ बादर एकेन्द्रिय पर्यातक जीवके आयुकर्मकी स्थिति जीवोंकानाना और एकजीवकी संख्यात आवली प्रमाण होती अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट है, तब संख्यात वार उनमें ही काल पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाले १०७ क्षुद्रभवग्रहणका काल संख्यात जीवके दिवस, पक्ष, मास आवलीप्रमाण होता है, इस आदि प्रमाण स्थितिकाल क्यों बातका सप्रमाण निरूपण ३९०-३९४ नहीं पाया जाता, इस शंकाका १०८ अन्तर्मुहूर्त भी संख्यात आवली समाधान प्रमाण होता है, अतः अन्त १२५ सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक मुहूर्त और क्षुद्रभवके कालमें जीवोंका नाना और एक जीवकी कोई भेद नहीं मानना चाहिए, अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट इस शंकाका समाधान कालका तदन्तर्गत अनेकों शंका१०९ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक समाधानोंके साथ निरूपण ३९६-३९७ जीवोंकी भवस्थिति असंख्यात ६ सामान्य विकलत्रय और पर्यावर्षप्रमाण क्यों नहीं होती है, तक विकलत्रय जीवोंके एक इस शंकाका समाधान ३९२ और नाना जीवोंकी अपेक्षा ११० यदि कोई जीव बादर एकेन्द्रि जघन्य और उत्कृष्ट कालोंका योंमें उत्कृष्ट संख्यात वार या तत्संबंधी अनेक शंका-समाउसके संख्यातवें भागप्रमाण धानोंके साथ निरूपण ३९७-३९८ वार उत्पन्न हो, तो असंख्यात ११७ लब्ध्यपर्याप्तक विकलत्रय वर्षप्रमाण बादर एकेन्द्रिय जीवोंका नाना और एक पर्याप्तक जीवोंकी उत्कृष्ट भव जीवकी अपेक्षा जघन्य और स्थिति क्यों नहीं हो जायगी, उत्कृष्ट काल, वा तत्सम्बन्धी इस शंकाका समाधान शंका-समाधान ३९८-३९९ १११ बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ११८ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंका नाना और एक मिथ्यावृष्टि जीवोंका नाना Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालानुगम-विषय-सूची प्र. नं.] क्रम नं. क्रम नं. विषय और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ११९ सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक दोनों प्रकारके पंचेन्द्रिय जीवोंका कालवर्णन १२० पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका काल १३ काय मार्गणा १२१ पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका निरूपण १२२ बादरपृथिवीकायिक, बादरजलकायिक, बादर अग्निकायिक बादरवायुकायिक और बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका नाना और एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १२३ कर्मस्थिति से किस कर्मकी स्थितिका अभिप्राय है, दर्शनमोहनीय कर्म की स्थितिको प्रधानता क्यों है, इन शंकाओंका समाधान १२४ उक्त पांचों प्रकार के पर्याप्त स्थावर जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका पृथक् पृथक् निरूपण १२५ उक्त पांचों प्रकारके लब्ध्यपर्याप्त स्थावर जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १२६ सूक्ष्म तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक पांचों स्थावर ३९९-४०० ४०० काल ४००.४०१ १२८ निगोदिया जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १२९ बादरनिगोद जीवोंका काल ४०१-४०९ | १३० त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवोंके नाना और एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालोका तत्सम्बन्धी शंका-समाधानपूर्वक निरूपण १३१ सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लगाकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवांका काल १३२ सकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका काल ४ योगमार्गणा ४०१-४०२ ४०२-४०३ ४०३ ४०३-४०४ विषय कायिक जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा काल १२७ वनस्पतिकायिक जीवका ४०५ (५३) पू. नं. | १३३ पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती जीवोंका नाना जीवों की अपेक्षा काल निरूपण १३४ एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंके जघन्य कालका योगपरिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन मरण और व्याघात, इन चारके द्वारा सोदाहरण काल निरूपण १३५ उक्त जीवोंके उत्कृष्ट कालका वर्णन ४०५-४०६ ४०६ ४०६-४०७ ४०७ ४०७-४०८ ४०८ ४०८-४०९ ४०९-४३७ ४०९ ४०९-४१२ ४१२ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) क्रम नं. विषय १३६ पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका काल १३७ उक्त योगवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १३८ पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी चारों उपशामकों और चारों क्षपकोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १३९ एक समय सम्बन्धी विकल्पोंका गाथासूत्रद्वारा निरूपण १४० काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १४१ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक काययोगी जीवोंका काल १४२ औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट काल १४३ सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक के औदारिककाययोगी जीवोंका काल १४४ औदारिकमिश्रकाययोगी मि. थ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १४५ औदारिकमिश्रकाययोगी सासा - दनसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ठ काल षट्खंडागमकी प्रस्तावना पू. नं / क्रम नं. ४१२-४१३ ४१३-४१४ ४१४-४१५ ४१५ ४१५-४१७ ४१७-४१८ ४१८ ४१७ १५० वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मि ४१८-४१९ ४२०-४२१ विषय १४६ औदारिकामिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका सोदाहरण निरूपण १४७ औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका तत्सम्बन्धी अनेकों शंकाओंके समाधानपूर्वक निरूपण १४८ वैकियियकाययोगी मिथ्यादृष्टि प्र. नं. और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल ४२५-४२६ १४९ वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् काल निरूपण १५३ आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयतोंका नाना और एक ४२१-४२३ ४२३-४२४ यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंके नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका सोदाहरण तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक निरूपण ४२६-४२९ १५१ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका सोदाहरण निरूपण १५२ आहारक काययोगी प्रमत्त संयतोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल ४३१-४३२ ४२६ ४२९-४३० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १५४ कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १५५ तीन विग्रहवाली गति किन जीवोंके होती है, यह बतलाकर तीन विग्रह करनेकी दिशाका निरूपण १५६ कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यदृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १५७ कार्मणका योगी सयोगिकेवलीका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ५ वेदमार्गणा १५८ स्त्रीवेदी मिध्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १५९ स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का पृथक् पृथक् काल-निरूपण १६० स्त्रीवेदी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १६१ संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक स्त्रीवेदी जीवोंका सोदाहरण काल १६२ पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल कालानुगम-विषय-सूची पू. नं. ] क्रम नं. ४३२-४३३ ४३३-४३५ ४३४-४३५ जघन्य | १६६ नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण और उत्कृष्ट काल १६७ संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तकके नपुंसकवेदी जीवोंका काल १६८ अपगतवेदी जीवोंका काल ६ कषायमार्गणा १६९ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तकके चारों कषायवाले जीवोंके कालका कषायपरिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन और मरणकी अपेक्षा निरूपण ४३५-४३६ ४३६-४३७ ४३७-४४४ ४३७ ४३८ ४३८-४३९ ४३९-४४० विषय १६३ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के पुरुषवेदी जीवोंका काल १६४ नपुंसक वेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १६५ नपुंसकवेदी सासादनसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् काल निरूपण ४४०-४४१। | १७० किस कषायसे मरा हुआ जीव किस गतिमें उत्पन्न होता है, इस बातका विवेचन १७१ क्रोध, मान और माया, इन तीन कषायवाले आठवें और नर्वे गुणस्थानवर्ती उपशामकों तथा लोभकषायवाले आठवें, नवें और दशर्वे गुणस्थानवर्ती उपशामक नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल का; (५५) प्र. नं. ४४१ ४४१-४४२ ४४२ ४४२-४४३ ४४३ ४४४ ४४४-४४८ ४४४-४४५ ४४५ ४४६-४४७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " काल षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय १७२ उक्त कषाय तथा उक्त गुण |१८३ परिहारविशुद्धिसंयमी प्रमत्त स्थानवाले क्षपक जीवोंकानाना और अप्रमत्तसंयतोंका काल ४५२ और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य १८४ सूक्ष्मसाम्पराायक शुद्धिसंयतों.. और उत्कृष्ट काल ४४७-४४८ का काल १७३ कषायरहित जीवोंका काल १८५ अन्तिम चार गुणस्थानवर्ती निरूपण ४४८ यथाख्यातविहारविशुद्धिसंयतों७ ज्ञानमार्गणा ४४८-४५१ का काल ४५३ १७४ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी १८६ संयतासंयत जीवोंका काल मिथ्यादृष्टि तथा सासादन १८७ असंयत जीवोंका काल सम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ४४८-४४९ ९दर्शनमार्गणा ४५३-४५५ १७५ विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों- |१८८ चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका का नाना और एक जीवकी नाना और एक जीवकी अपेक्षा अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट जघन्य और उत्कृष्ट काल ४५३-४५४ ४४९-४५० १८९ निर्वृत्यपर्याप्तकोंके समान १७६ विभंगझ नी सासादनसम्य लब्ध्यपर्याप्तकोंमें चक्षुदर्शन ग्दृष्टियोंका काल क्यों नहीं होता, इस शंकाका १७७ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे समाधान लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान १९० सासादनसम्यग्दृष्टि गुणतकके मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी स्थानसे लेकर क्षीणकषाय और अवधिज्ञानी जीवोंका गणस्थान तकके चक्षुदर्शनी काल ४५०-४५१ जीवोंका काल १७८ अवधिज्ञानी संयतासंयतोंके १९१ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर एक जीवसम्बन्धी उत्कृष्ट | क्षीणकषाय गुणस्थान तकके कालकी विशेषताका निरूपण अचक्षुदर्शनी जीवोंका काल १७९ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर |१९२ अवधिदर्शनी जीवोंका काल क्षीणकषाय गुणस्थान तकके १९३ केवलदर्शनी जीवोंका काल मनःपर्ययज्ञानी जीवोंका काल । १० लेश्यामार्गणा ४५५-४७६ १८० केवलज्ञानियोंका काल निरूपण " १९४ कृष्ण, नील और कापोतलेश्या८ सयममागेणा ४५१-४५३ वाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका १८१ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर नाना और एक जीवकी अपेक्षा अयोगिकेवलीगुणस्थान तकके सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट संयतोंका काल ४५१-४५२ काल निरूपण, तथा तत्स१८२ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर म्बन्धी शंकाओंका सयक्तिक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक समाधान ४५५-४५८ सामायिक और छेदोपस्थापना १९५ तीनों अशुभलेश्यावाले सासा. शुद्धिसंयतोंका काल छसयताका काल ..... ४५२ . दनसम्यग्दृष्टि जीवाका काल ४५८ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालानुगम-विषय-सूची (५७) क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. १९६ तीनों अशुभ लेश्यावाले सम्य स्थानोंके तेज और पनलेश्याग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल वाले जीवोंकी लेश्या और १९७ तीनों अशुभ लेश्यावाले असं गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा क्यों यतसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना नहीं कही, इस शंकाका और एक जीवकी अपेक्षा समाधान ४६७-४६८ सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल-निरूपण, तथा तदन्तर्गत २०५ तेज और पद्मलेश्याके समान अनेकों शंकाओंका सप्रमाण कापोत और नील लेश्याओंका समाधान ४५९-४६२ भी एक समय पाया जाता है, १९८ तेजोलेश्या और पद्मलेश्या फिर उसे क्यों नहीं कहा, इस वाले मिथ्यादृष्टि तथा असंयत शंकाका समाधान ४६८ सम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और २०६ तेज या पद्मलेश्याके कालमें एक जीवकी अपेक्षा सोदा एक समय शेष रहनेपर जैसे हरण जघन्य और उत्कृष्ट काल ४६२-४६५ नीचेके गुणस्थानवाले संयमा१९९ मिथ्यादृष्टि जीवके तेजो संयमको प्राप्त होते हैं, उसी लेश्याकी उत्कृष्ट स्थिति प्रकारसे प्रमत्तसंयत भी अन्तर्मुहूर्तसे कम अढ़ाई साग संयमासंयम गुणस्थानको क्यों रोपम प्रमाण क्यों नहीं होती, नहीं प्राप्त होता, इस शंकाका इस शंकाका, तथा इसीसे समाधान ४७० सम्बन्धित अन्य कई शंकाओंका अपूर्व समाधान ४६३.४६५ २०७ पद्मलेश्याके काल में विद्यमान २०० तेजोलेश्या और पद्मलेश्या कोई प्रमत्तसंयत उस लेश्याके वाले सासादनसम्यग्दृष्टि कालक्षयसे तेजोलेश्यासे परिजीवोंका काल णत होकर दूसरे समयमें २०१ उक्त दोनों लेश्यावाले सम्य अप्रमत्तसंयत क्यों नहीं होता, मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ४६५-४६६ इस शंकाका समाधान ४६९-४७० २०२ उक्त दोनों लेश्यावाले संयता २०८ उक्त प्रकारका जीव मिथ्यात्व संयत, प्रमत्तसंयत और अप्र आदिक नीचेके गुणस्थानोंको मत्तसंयत जीवोंका नाना क्यों नहीं प्राप्त हो जाता, इस जीवोंकी अपेक्षा काल शंकाका समाधान ४७० २०३ उक्त जीवोंके एक जीवकी २०९ तेज और पद्मलेश्यावाले अपेक्षा लेश्यापरिवर्तन, गुण संयतासंयतादि तीन गुणस्थानस्थानपरिवर्तन और मरण, वाले जीवोंका उत्कृष्ट काल ४७१ इन तीनके द्वारा जघन्य २१० शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि कालका निरूपण ४६६-४७१ और एक जीवकी २०४ मिथ्यादृष्टि और असंयत अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और सम्यग्दृष्टि, इन दो गुण उत्कृष्ट कालका निरूपण ४७१-४७२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ. नं. २११ शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्य केवलीगुणस्थान तकके भव्य ग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और जीवोंका काल ४८० असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका २१९ अभव्य जीवोंका नाना और पृथक् पृथक् काल निरूपण ४७२-४७३ एक जीवकी अपेक्षा काल २१२ शुक्ललेश्यावाले संयतासंगत, निरूपण प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त १२ सम्यक्त्वमार्गणा ४८१-४८५ संयतोंके नाना और एक २२० सामान्य सम्यग्दृष्टि और जीवकी अपेक्षालेश्यापरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन और मरण क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान कालका निरूपण ४७३-४७५ तकके जीवोंका काल २१३ तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या २२१ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे सम्बन्धी एक एक समयके लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान भंगोंका निरूपण तकके वेदकसम्यग्दृएि जीवोंका २१४ शुक्ल लेश्यावाले चारों उप काल शामक, चारों क्षपक और सयोगिकेवलीका काल वर्णन ४७/२२२ असंयत और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती असंयतसम्य११ भव्यमार्गणा ४७६-४८० ग्दृष्टि और संयतासंयत जीवों२१५ भन्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि का नाना जीवोंकी अपेक्षा जीवोंका नाना और एक जघन्य और उत्कृष्ट काल ४८२ जीवकी अपेक्षा सोदाहरण २२३ उक्त सम्यग्दृष्टि जीवोंका एक जघन्य और उत्कृष्ट काल जीवकी अपेक्षा सोदाहरण २१६ मिथ्यात्वके अनादि और अकृ जघन्य और उत्कृष्ट काल ४८३ त्रिम होनेसे उसका विनाश नहीं होना चाहिए; कारण २२४ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान रहित वस्तुका विनाश नहीं तकके उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंहोता. अतः अज्ञान या कर्म के नाना और एक जीवकी बन्धका विनाश नहीं होना अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट चाहिए, इत्यादि अनेक अपूर्व शंकाआकाअद्वितीय समाधान कालोका सोदाहरण निरूपण ४८३-४८४ २२५ सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्य२१७ मोक्षको जानेके कारण निरन्तर ग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि व्ययशील भव्य राशिका विच्छेद क्यों नहीं होता, इस जीवोंका पृथक् पृथक् कालवर्णन ४८४.४८५ शंकाका समाधान ४७८ १३ संज्ञिमार्गणा २१८ सासादनसम्यग्दाष्ट गुण ४८५-४८६ स्थानसे लेकर अयोगि २२६ संज्ञी मिथ्यादष्टि जीवोंका Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम नं. विषय नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल २२७ सासादन गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके संशी जीवोका काल २२८ असंज्ञी जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १४ आहारमार्गणा २२९ आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका शुद्धिपत्र (५९) पृ. नं क्रम नं. विषय पृ. नं. नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ४८६-४८७ २३० सासादन गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तकके आहारक जीवोंका काल ४८७ २३१ अनाहारक मिथ्यादृष्टि, सासा दनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्य ग्दृष्टि और सयोगिकेवली ४८६ जीवोंका काल ૪૮૭-૪૮૮ २३२ अनाहारक अयोगिकेवलीका काल ४८८ " शुद्धिपत्र (पुस्तक १) पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध হাই (हिंदी) ६३ ७ ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के ज्ञानावरणादि चार घातिया कौके २६४ १६ कार्यमार्गणा कायमार्गणा ३७६ १४ छेदोपस्थापना सूक्ष्मसाम्पराय ३८४ , अवधिज्ञान अवधिदर्शन (पुस्तक २) ४४७ १२ क्षीण, संज्ञा क्षीणसंज्ञा, १५१ २० और कार्मणकाययोग और वैक्रियिककाययोग ४७३ १ सम्यक्त्व, छह सम्यक्त्व, ४८१ ८ आहारक, अनाहारक, आहारक, ४८८ १४ द्रव्यसे कापोत आदिके दो दर्शन, द्रव्यसे कापोत-- ५४० १० सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके अपर्याप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके आलाप कालसम्बन्धी आलाप Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) षट्खंडागमंकी प्रस्तावना पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ५७७ ६ संज्ञिक, असंज्ञिक, ६३० ८ एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, ६४८ ६ संज्ञिक, औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व, संज्ञिक, ७१५ ३ आदिके तीन दर्शन आदिके दो दर्शन, ७२९ १३ तथा अकषायस्थान भी है, तथा अकायस्थान भी है, ४ एगारह जोग, एगारह जोग, अजोगो वि अत्थिा " १५ ग्यारह; ग्यारह योग और अयोगरूप भी स्थान है; (आलापोंका) पृष्ठ यंत्र नं. खाना नाम अशुद्ध शुद्ध, या जो होना चाहिए ४२११ संज्ञा क्षीणसंज्ञा योग अयोगी, लेश्या अलेश्य संज्ञि० १० आहा० mum x x x x अनुभय ४२९ : سم سم १ मनुष्यगति १ लोभ ० क्षीणसंज्ञा १ स. प. भा० १ कापोत १ स. अ. भा. ३ अशु. लेश्या ज्ञान २१ गति कषाय ४४७ संज्ञा ४५२ ३२ जीव० ४५६ ४५८ ४४ पर्याप्ति ५०३ १०१ योग ५१४ ११४ ५६९ १८३ संज्ञि० ५७२ १८७ काय " " संज्ञि० ५८४ २०३ प्राण ६१२ २१४ योग ६ अप० अयोग १ सं० १८७ संज्ञि० १ त्रस विना. १ सं० १ असं० ५ त्रस विना. १ असं० ७, ७, २. अयोग Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० शुद्धिपत्र पंक्ति यंत्र नं. खाना नाम अशुद्ध ६१७ २२८ दर्शन १ चक्षु अचक्षु० ६२२ २३५ आहा० १ आहा० २ आहा. अना० ६२३ २३६ , २ आहा० अना० अनु० २ आहा० अना. ६३१ २४५ दर्शन २ चक्षु० २ चक्षु० अचक्षु० ६३४ २४९ संज्ञा क्षीणसंज्ञा ६४० २५५ उपयो० २साका० अना० यु० उ० २ साका० अना० ६५५ २७४ , २ साका० अना० २साका० अना० यु० उ० ७१९ ३५८ जीव. ५ अ० ६अ० ७३५ ३७७ योग अयोग ७४३ ३८७ गुण १२ ७५४ ४०० गति ८०८ ४७७ प्राण १०, ४,१ संयम० ४ असं० सामा० छेदो० परि ४ असं० सामा० छेदो० यथा० ८३४ ५१४ भव्य० १ भ० २ भ० अ० " , संज्ञि० १ असं० ८३५ ५१६ " ८५१ ५३९ प्राण अतीतप्राण (पुस्तक ३) पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ४९ ३ (ख-क) (क-ख) १०९ अन्तिम ३३४६१ १५३ १२ १२८ रंट " " " २७७ २ -णुग्गहट्टदा एदस्स -गुग्गहदाए तस्स २७८ ८ सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको द्वितीय सूच्यंगुलको उसके प्रथम वर्गमूलसे वर्गमूलसे २९८४ अप्रत्त अप्रमत्त सं० २०४९६ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) पंक्ति ४ २९ ३४ ४२ ५५ ६३ ५ विहारदि ७८ ६ तदवासा ५ लोगाणा ८ अजोगिकेवली 29 ३०२ ३०३ ३०९ ३२० ३२१ ३२८ ३६० ३६४ ८८ १०६ १३७ १५७ ३ -सुत्ताणुसारी जोदिलिय १५९ ३ सकलणाणं १७६ १९१ ४ - पवेसादो १८ योजन उस "2 ११४ ४५६ ४६१ ४६३ पृष्ठ अशुद्ध ३ विषय है । ४ वेउब्वियओ ८ तीन भागोंमेंसे आठ भाग ७ व्यासं त्रिगुणितसहित २१ २४४ + २४४ + १६ २२ १६ संज्ञी जीव २० बन जाना ३ आहारपसु १-२ वषैर्युगः ७, एस दोसो, २ अगहिद्गहणद्धा २ णाणजीवं १७ इस प्रकार से ३९१ २ जिह्वाए ३९२ ९ सुपसिद्ध १७ आकाशके प्रदेशके २ सजोगिवल २६ सुप्रसिद्ध २१ और क्षपक ६ - मंतोमच्छिय षट्खंडागमकी प्रस्तावना ( पुस्तक ४ ) १२ प्रस्तारके २१ उद्वर्तनाघात ११ या मुनिजनोंको १ १६ × १२ = शुद्ध विषय है । ( २ ) विओ आठ भागामेंसे तीन भाग व्यासत्रिगुणितसहितं ३५३ + ३४३ + विहारवादतदावासा लोगाण सजोगकेवली आहारक जीव - सुत्ताणुसारिजोदिसिय संकलणाणं आकाशके प्रदेश पवेहदे ! योजन प्रवेध उस अयोगिकेवल बन जाता अणाहारएसु वर्षैर्युगः ण एस दोसो, ( तं ) अगहिद गद्दणद्धा णाणाजीवं इस प्रकार जिन्माए सुत्तसिद्ध सूत्रसिद्ध और चारों क्षपक मंतोमुत्तमच्छिय प्रस्तार में अपवर्तनाघात ( प्रस्तावना ) था यह कार्य मुनिजनों को १६ × १६ = Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्ताणुगमो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mammirha सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पढमखंडे जीवट्ठाणे खेत्ताणुगमो लोयालोयपयासं गोदमथेरं पुणो जिणं वीरं । णमिऊण' खेत्तसुत्तं जहोवएसं पयासेमो ॥ केवलज्ञानरूप सूर्यसे लोक और अलोकके प्रकाशक अर्थात् सर्वज्ञ, गोतम अर्थात् उत्तमवाणीके स्थविर' अर्थात् विधाता (दिव्यध्वनिके प्रणेता), और जिन अर्थात् वीतराग, ऐसे त्रिविध विशेषणविशिष्ट श्रीवीर भगवान्को; अथवा, द्वादशांग ग्रन्थ-रचनासे प्रकाशित किया है लोक और अलोकको जिन्होंने ऐसे, तथा जिन अर्थात् काम क्रोधादि भाव शत्रुओंके जीतनेवाले, और वीर अर्थात् विशेषरूपसे जो प्राणियोंको मोक्षके लिए प्रेरणा करते हैं,या मोक्षमार्गकी भोर चलाते हैं, ऐसे गौतमस्थविर श्रीइन्द्रभूति गणधरको नमस्कार करके क्षेत्रसूत्रको अर्थात् क्षेत्रानुयोगद्वारसम्बन्धी सूत्रोंके अर्थको जैसा उपदेश अर्थरूपसे दिव्यध्वनिके द्वारा श्रीवीर भगवान्ने दिया और ग्रन्थरूपसे श्री गौतम गणधरने दिया, उसीके अनुसार हम (वीरसेन) भी प्रकाशित करते हैं। १ म १ प्रतौ ' णमियूण ' इति पाठः। २ . थेरो विही विरिंचो' पा. ल. ना. २. थेरो के, थेरो ब्रह्मा. दे. ना. मा. ५, २९. स्थविर:...... धाता विधाता. है. को. २, १२५-१२६. ३ विशेषेण ईरयति मोक्षं प्रति प्रेरयति गमयति वा प्राणिन इति वीरः । ( अमि. रा. वीर.) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, १. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण यं ॥ १ ॥ किंफलो खेत्ताणिओगद्दारस्स अवयारो ? उच्चदे । तं जहाँ- संताणिओगद्दारादो अत्थित्तेणावगयाणं दवाणिओगद्दारे अवगयपमाणाणं चोद्दसजीवसमासाणं खेत्तपमाणावगमफलो । अधवा अणंतो जीवरासी असंखेज्जपएसिए लोगागासे किं सम्मादि, ण सम्मादि त्ति संदेहेण घुलंतस्स सिस्सस्स संदेहविणासणट्ठो वा खेत्ताणिओगद्दारस्स अवयारो । एत्थ खेत्तं णिक्खिविदव्वं । णिक्खेवो ति किं ? संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थितं तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः । अथवा बाह्यार्थविकल्पो निक्षेपः। अप्रकृतनिराकरणद्वारेण प्रकृतप्ररूपको वा । उक्तं च अपगयणिवारणहूँ पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणटं तच्चत्थवधारणहूँ च ॥ १ ॥ क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ शंका-यहां क्षेत्रानुयोगद्वारके अवतारका क्या फल है ? समाधान-उक्त शंकाका उत्तर देते हैं। वह इस प्रकार है-सत्प्ररूपणा नामके अनुयोगद्वारसे जिनका अस्तित्व जान लिया है, तथा द्रव्यानुयोगद्वारमें जिनका संख्यारूप प्रमाण जाना है, ऐसे चौदह जीवसमासोंके (गुणस्थानोंके) क्षेत्रसंबंधी प्रमाणका जानना ही क्षेत्रानु. योगद्वारके अवतारका फल है। अथवा, असंख्यात प्रदेशवाले लोकाकाशमें अनन्त प्रमाणवाली जीवराशि क्या समाती है, या नहीं समाती है, इस प्रकारके संदेहसे घुलनेवाले शिष्यके संदेहके विनाश करनेके लिए इस क्षेत्रानुयोगद्वारका अवतार हुआ है। इस क्षेत्रानुयोगद्वारके प्रारम्भमें क्षेत्रका निक्षेप करना चाहिये । शंका-निक्षेप किसे कहते हैं ? . समाधान-संशय, विपर्यय और अनध्यवसायमें अवस्थित वस्तुको उनसे निकाल. कर जो निश्चयमें क्षेपण करता है, उसे निक्षेप कहते हैं । अथवा, बाहरी पदार्थके विकल्पको निक्षेप कहते हैं, अथवा, अप्रकृतका निराकरण करके प्रकृतका प्ररूपण करनेवाला निक्षेप है। कहा भी है अप्रकृतके निवारण करनेके लिये, प्रकृतके प्ररूपण करनेके लिये, और तत्त्वार्थक अवधारण करनेके लिये निक्षेप किया जाता है ॥१॥ १ क्षेत्रमुच्यते, तत् द्विविधम् । सामान्येन विशेषेण च ॥ स. सि. १, ८. २ म २ प्रतो 'जथा' इति पाठः। ३ उपायो न्यास इष्यते । लघीय. ३, ५२. तदधिगतानी वाच्यतामापन्नानी वाचकेषु भेदोपन्यासोन्यासः । लीय. ३, ७४. विवृत्तिः। ४ स किमर्थः .? अप्रकृतनिराकरणाय प्रकृतनिरूपणाय च । स. सि. १, ५. अप्रस्तुतार्थापाकरणात प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निक्षेपः फलवान् । लघीय. स्वो. वि. पृ. २६. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १.] खेत्ताणुगमे णिदेसपरूवणं सो च एत्थ चउविहो णिक्खेवो' णाम-ढवणा-दव्य-भावखेत्तभेएण । कध णिक्खेवस्स चउबिहत्तं ? दव्वट्ठिय-पज्जवट्टियणयावलंबिवयणवावारादो। उत्तं च णामं ठवणा दवियं ति एस दव्वडियस्स णिक्खेवो । भावो दु पज्जवढियपरूवणा एस परमत्थो ॥ २॥ जीवाजीवुभयकारणणिरवेक्खो अप्पाणम्हि पयहो' खेत्तसद्दो णामखेतं । सो च णामणिक्खेवो वयण-वत्तव्वणिच्चज्झवसायमंतरेण ण होदि ति, तब्भव-सरिससामण्णणिबंधणो त्ति वा, वाच्य-वाचकशक्तिद्वयात्मकैकशब्दस्य पर्यायार्थिकनये असंभवाद्वा दव्वादिय पह निक्षेप यहां पर नामक्षेत्र, स्थापनाक्षेत्र, द्रव्यक्षेत्र और भाषक्षेत्रके भेदसे चार प्रकारका है। शंका-निक्षेप चार प्रकारका कैसे है? समाधान-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके आश्रय करनेवाले पचोंके व्यापारकी अपेक्षासे निक्षेप चार प्रकारका होता है। कहा भी है ___ नाम, स्थापना और द्रव्य, ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिकनयकी प्ररूपणाके विषय है और भावनिक्षेप पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणाका विषय है। यही परमार्थ सत्य है ॥२॥ जीव, अजीव और उभयरूप कारणों की अपेक्षासे रहित होकर अपने आपमें प्रवृत्त हुमा 'क्षेत्र' यह शब्द नामक्षेत्रनिक्षेप है। वह नामनिक्षेप, वचन और वाच्यके नित्य अध्य य अर्थात वाच्य-वाचक-सम्बन्धके सार्वकालिक निश्चयके विना नहीं होता है इसलिये. अथवा तद्भव-सामान्य निबन्धनक और सादृश्य-सामान्य-निमित्तक होता है इसलिये, अथषा, पाच्य-वाचकरूप दो शक्तियोंवाला एक शब्द पर्यायार्थिक नयमें असंभव है इसलिये, द्रव्या. र्थिकनयका विषय है, ऐसा कहा जाता है। विशेषार्थ-यहां पर नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय बतलानेके लिए तीन हेतु दिये हैं, जिनका अभिप्राय क्रमशः इस प्रकार है । (१) नामनिक्षेप वचन और वाच्यके नित्य अध्यवसायके विना नहीं होता है, इसलिए यह द्रव्यार्थिकनयका विषय है, अर्थात्, “इस शब्दसे यह पदार्थ जानना चाहिए' इस प्रकारका संकेत किये जानेसे शब्द अपने वाच्यका वाचक होता है। यदि यह संकेत या वाच्य-वाचकका सम्बन्ध नित्य न माना जाय, तो भिन्न देश या भिन्न कालमें उस शब्दसे उसके वाच्यरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। किन्तु 'देवदत्त' आदि जो नाम किसी व्यक्तिके बाल्यावस्थामें रखे गये थे, वह आज वृद्धावस्था में भी समानरूपसे उस व्यक्तिके वाचक देखे जाते हैं, इससे सिद्ध होता है कि वचन और वाच्यके मध्यमें जो सम्बन्ध है, वह नित्य है । और नित्यताका द्रब्यके अतिरिक्त अन्यत्र पाया १म१प्रतौ सो च'त्यधिकः पाठः। २ स.त. १,६. ३ प्रतिषु पयट्ठो' इति पाठः। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] छपखंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, १. यस्सेत्ति वुच्चदे | कट्ट- दंत - सिलादीणि सन्भावासन्भावसरूवाणि बुद्धीए इच्छिदखे तेणेयतमुवगयाणि वणा णाम । सम्भावासब्भावसरूवेण सव्वदव्ववाविति वा, पधाणापधाण जाना असंभव है, इससे सिद्ध होता है कि नामनिक्षेप द्रव्यार्थिकनयका विषय है । नामनिक्षेपको तद्भवसामान्य और सादृश्यसामान्य-निमित्तक कहा है, उसका अभिप्राय यह है कि, विवक्षित सुवर्णादि वस्तुके पूर्वापर कालभावी कटक, केयूरादि पर्यायों में विभिन्नता रहते हुए भी उनमें एक ही सुवर्ण समानरूपसे सदा विद्यमान रहता है, इसलिए इस प्रकार की समानताको तद्भवसामान्य कहते हैं । तथा, किसी भी एक विवक्षित कालमें विद्यमान, किन्तु विभिन्न प्रकारके सुवर्णोंसे निर्मित कटक, कुण्डल, केयूरादि पर्यायोंमें 'यह भी सुवर्ण है, यह भी सुवर्ण है, ' इत्यादि रूपसे सदृशता-बोधक जो समानता है, उसे सादृश्य- सामान्य कहते हैं । इसी प्रकारले नामनिक्षेपरूप शब्द भी पूर्वापर- कालभावी ' क्षेत्र, क्षेत्र ' इत्यादि शब्दों में समान प्रतीतिका उत्पादक होनेसे तद्भवसामान्यका निमित्त है । तथा, विवक्षित किसी भी एक काल में विभिन्न देशवर्ती मथुरा, काशी इत्यादि क्षेत्रों में 'यह भी क्षेत्र है, यह भी क्षेत्र है' इत्यादि रूपले उच्चारण किये जानेवाला शब्द सदृश-प्रत्ययका उत्पादक होनेसे सादृश्यसामान्यका भी निमित्त होता है । और सामान्यको विषय करना ही द्रव्यार्थिकनयका विषय है; इसलिए नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय कहना युक्ति-संगत ही है । ( ३ ) नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय बतानेके लिए तीसरी युक्ति यह दी है कि वाच्य वाचकरूप दो शक्तियोंवाला एक शब्द पर्यायार्थिकनयमें असंभव है, अर्थात् पर्यायार्थिकनयका विषय नहीं हो सकता । इसका अभिप्राय यह है कि शब्द में वाच्य वाचकरूप दो शक्तियां एक साथ ही पाई जाती हैं; अर्थात् शब्द अपने वाच्यरूप अर्थका प्रतिपादक होता है, इसलिए तो उसमें सदा वाचकशक्ति विद्यमान है । और स्वयं भी अपने स्वरूपका विषय होता है, इसलिए वाच्यशक्ति भी उसमें सर्वदा पाई जाती है । इस प्रकार किसी भी विवक्षित समय में वह उक्त दोनों अर्थात् वाच्यवाचकरूप शक्तियोंसे युक्त रहेगा। और इसी कारण से वह पर्यायार्थिकनयका विषय नहीं हो सकता, क्योंकि, यद्यपि आगममें शब्दको पुद्गलद्रव्यकी पर्याय कहा है तथापि जब वही शब्द वाच्य वाचकरूप दो शक्तियोंवाला विवक्षित किया जाता है, तब वह द्रव्य कहलाने लगता है । चूंकि शक्ति, गुण या धर्मको कहते हैं, इसलिए 'गुणसमुदायो दव्वं' के नियमानुसार शक्तियोंवालेको द्रव्य ही कहा जायगा, पर्याय नहीं । इस प्रकार जब शब्द पुद्गलद्रव्य सिद्ध हो जाता है, तब वह द्रव्यार्थिकनयका ही विषय हो सकता है, पर्यायार्थिकनयका नहीं । इसलिए भी नामनिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय कहना सर्वथा युक्तियुक्त ही है । बुद्धिके द्वारा इच्छित क्षेत्रके साथ एकत्वको प्राप्त हुए, अर्थात् जिनमें बुद्धिके द्वारा इच्छित क्षेत्रकी स्थापना की गई है ऐसे सद्भाव और असद्भाव स्वरूप काष्ठ, दन्त और शिला आदि स्थापनाक्षेत्रनिक्षेप है । यह स्थापनानिक्षेप, ताकार और अतदाकार स्वरूपसे सर्व Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १. ] खेत्तागमे णिदेसपरूवणं [ ५ दव्वाणमेगत्तणिबंधणेत्ति वा दुवणाणिक्खेवो दव्वट्ठियणयवल्लीणो । दव्वखेत्तं दुविहं आगमदो गोआगमदो य । तत्थ आगमदो खेत्तपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो । कधमेदस्स जीवदवियस सुदणाणावरणीयक्खओवसमविसिस्स दव्त्र - भावखेत्तागमवदिरित्तस्स आगमदव्वखेत्तववएसो ? ण एस दोसो, आधारे आधेयोवयारेण कारणे कज्जुवयारेण द्रव्योंमें व्याप्त होनेके कारण, अथवा, प्रधान और अप्रधान द्रव्योंकी एकताका कारण होनेसे द्रव्यार्थिकनय के अन्तर्गत है, ऐसा समझना चाहिए । विशेषार्थ - स्थापनानिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय सिद्ध करनेके लिए दो हेतु दिये गये हैं, जिनका अभिप्राय क्रमशः इसप्रकार है । ( १ ) स्थापनानिक्षेप सद्भाव और असद्भावरूपसे सर्व द्रव्योंमें व्याप्त है, इसका अर्थ यह है कि त्रिलोकवर्ती सभी द्रव्य यद्यपि स्वतंत्र एवं निश्चित आकारवाले हैं; तथापि व्यवहारके योग्य एवं विशेष अपेक्षासे विशिष्ट आकार से परिकल्पित द्रव्यको साकार, सद्भावरूप या तदाकार कहा जाता है, और उससे भिन्न आकारवाली वस्तुको अनाकार, असद्भाव या अतदाकार कहा जाता है । काष्ठ या दांत वगैरह यद्यपि अपने स्वतंत्र आकारवाले हैं, तथापि उन्हींको हाथी, घोड़ा आदि किसी एक विवक्षित या निश्चित आकारसे घटित कर दिये जाने पर उन्हें तदाकार कहा जाता है, और निश्चित आकारसे घटित नहीं होने पर भी जो संकेतद्वारा किसी वस्तुस्वरूपकी परिकल्पनाकी जाती है, उसे अतदाकार कहते हैं । इसप्रकार यह स्थापनाका व्यवहार तदाकार और अतदाकाररूपसे सर्व द्रव्योंमें पाया जाता है, अर्थात् सभी द्रव्यों में दोनों प्रकारका स्थापनानिक्षेप किया जा सकता है, जो कि क्षेत्रभेद या कालभेद होने पर भी तदवस्थ रहता है। इस कारण से स्थापनानिक्षेपको द्रव्यार्थिकनयका विषय कहा है । ( २ ) प्रधान और अप्रधान द्रव्योंकी एकताका कारण कहनेका अभिप्राय यह है कि जिस वस्तुकी स्थापना की जाती है, वह प्रधान द्रव्य, तथा जिस वस्तुमें स्थापना की जाती है, वह अप्रधान द्रव्य कहलाता है । 'यह सिंह है ' इस प्रकार से स्थापनानिक्षेप असली सिंहरूप प्रधानद्रव्य और मट्टी आदिके खिलौनेमें स्थापित सिंहरूप आकारवाले अप्रधान द्रव्यमें एकताका कारण अर्थात् एकत्वप्रतीतिका निमित्त होता है, इसलिए भी स्थापनानिक्षेप द्रव्यार्थिकनयका विषय है । " आगमद्रव्यक्षेत्र और नोआगमद्रव्य क्षेत्र के भेदसे द्रव्यक्षेत्र दो प्रकारका है। उनमें से क्षेत्रविषयक शास्त्रका ज्ञाता, किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्य क्षेत्र निक्षेप है । शंका- श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम से विशिष्ट, तथा द्रव्य और भावरूप क्षेत्रागमसे रहित इस जीवद्रव्य के आगमद्रव्यक्षेत्ररूप संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, आधाररूप आत्मामें आधेयभूत क्षयोपशमस्वरूप आगमके उपचारसे, अथवा, कारणरूप आत्मामें कार्यरूप क्षयोपशमके उपचार से, १ म २ प्रतौ णवमीणो ' इति पाठः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ] छक्खडागमे जीवाणं [ १, ३, १. लद्धागमववए सखओवसमविसिट्रुजीवदव्वावलंबणेण वा तस्स तदविरोहा | णोआगमदो दव्वक्खेतं तिविहं, जाणुगसरीरं भवियं तव्वदिरित्तं चेदि । तत्थ जाणुगसरीरं तिविहं, भवियं वट्टमाणं समुज्झादमिदि । समुज्झादं पि तिविहं चुदं चहदं चत्तदेहमिदि । भवदु पुव्विल्लस्स दव्वखेत्तागमत्तादो खेत्तववएसो, एदस्स पुण सरीरस्स अणागमस्स खेत्तवनएसो णं घडदि ति ? एत्थ परिहारो बुच्चदे । तं जधा - क्षियत्यक्षैषीत्क्षेष्यत्यस्मिन् द्रव्यागमो भावागमो वेति त्रिविधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे आधेयोपचाराद्वा । तत्थ भवियं खेतपाहुडजाणगभावी जीवो णिहिस्सदे । कथं जीवस्स खेत्तागमखओवस मरहिदत्तादो अणागमस्स खेत्तववएसो १ न, क्षेष्यत्यस्मिन् भावक्षेत्रागम इति जीवद्रव्यस्य पुरैव क्षेत्रत्वसिद्धेः । जाणुगसरीर भवियवदिरित्तदव्वखेत्तं दुविहं, कम्मदव्वखेत्तं णोकम्मदव्वखेत्तं चेदि । तत्थ कम्मदव्वक्खेत्तं णाणावरणादिअट्ठविहकम्मदव्वं । कधं कम्मस्स खेत्तववएसो ? अथवा, प्राप्त हुई है आगमसंज्ञा जिसको ऐसे क्षयोपशमसे युक्त जीवद्रव्यके अवलम्बनसे जीवके आगमद्रव्य क्षेत्ररूप संशाके होने में कोई विरोध नहीं आता है । शायक शरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेद से नोआगमद्रव्यक्षेत्र तीन प्रकारका है । उनमें से शायकशरीर तीन प्रकारका है। भावी ज्ञायकशरीर, वर्तमान ज्ञायकशरीर और अतीत शायकशरीर । इनमें से अतीत ज्ञायकशरीर भी च्युत, व्यावित और त्यक्तके भेदले तीन प्रकारका है । शंका- द्रव्यक्षेत्रागम के निमित्तसे पूर्वके शरीर को क्षेत्रसंज्ञा भले ही रही आवे, किन्तु इस अनागमशरीरके क्षेत्रसंज्ञा घटित नहीं होती है ? समाधान - उक्त शंकाका यहां परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है - जिसमें द्रव्यरूप आगम अथवा भावरूप आगम वर्तमानकालमें निवास करता है, भूतकालमें निवास करता था, और आगामी कालमें निवास करेगा; इस अपेक्षा तीनों ही प्रकारका शरीर क्षेत्र कहलाता है । अथवा, आधाररूप शरीर में आधेयरूप क्षेत्रागमका उपचार करनेसे भी क्षेत्रसंज्ञा बन जाती है । नोआगम द्रव्यक्षेत्र के तीन भेदोंमेंसे जो आगामी कालमें क्षेत्रविषयक शास्त्रको जानेगा, ऐसे जीवको भावी नोआगमद्रव्यक्षेत्र कहते हैं । शंका - जो जीव क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम से रहित होनेके कारण अनागम है, उस जीवके क्षेत्रसंज्ञा कैसे बन सकती है ? समाधान- -नहीं; क्योंकि, 'भावक्षेत्ररूप आगम जिसमें निवास करेगा ' इस प्रकार की निरुक्तिके बल से जीवद्रव्यके क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम होने के पूर्व ही क्षेत्रपना सिद्ध है । शायकशरीर और भावीसे भिन्न जो तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र है, वह कर्मद्रव्यक्षेत्र और नोकर्मद्रव्यक्षेत्रके भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मद्रव्यको कर्मद्रव्यक्षेत्र कहते हैं । शंका - कर्मद्रव्यको क्षेत्रसंज्ञा कैसे प्राप्त हुई ? Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १. ] खेत्ताणुगमे णिद्देसपरूवणं [ न, क्षियन्ति' निवसन्त्यस्मिन् जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्वसिद्धेः । ( जं ) णोकम्मदव्वखेत्तं तं दुविहं, ओवयारियं पारमत्थियं चेदि । तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं बीहिखेत्तमेवमादि । पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं आगासदव्त्रं । उत्तं चखेत्तं खलु आगासं तव्त्रदिरित्तं च होदि णोखेत्तं । जीवा य पोग्गला वि य धम्मात्रम्मत्थिया कालो ॥ ३ ॥ आगासं सपदेसं तु उड्डाधा तिरिओ वि य । खेत्तलोगं त्रियाणाहि अनंत जिण देसिदं ॥ ४ ॥ सो विणिक्खेवो दव्वट्टियस्स, दव्वेण विणा एदस्स संभवाभावादो । जं तं भावखेत्तं तं दुविहं, आगमदो णोआगमदो भावखेत्तं चेदि । आगमदो भावखेत्तं खेतपाहुडजाणुगो उवजुत्तो । गोआगमदो भावखेत्तं आगमेण विणा अत्थोवजुत्तो ओदइयादि समाधान- नहीं; क्योंकि, जिसमें जीव ' क्षियन्ति ' अर्थात् निवास करते हैं, इस प्रकारकी निरुक्ति के बलसे कर्मोके क्षेत्रपना सिद्ध है । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यका दूसरा भेद जो नोकर्मद्रव्यक्षेत्र है, वह औपचारिक और पारमार्थिक भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे लोकमें प्रसिद्ध शालिक्षेत्र, ग्रीहि - ( धान्य- ) क्षेत्र इत्यादि औपचारिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाशद्रव्य पारमार्थिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र है । कहा भी है आकाशद्रव्य नियमसे तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र है, और आकाश द्रव्य के अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा कालद्रव्य नोक्षेत्र कहलाते हैं ॥ ३ ॥ आकाश सप्रदेशी है और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है । उसे ही क्षेत्रलोक जानना चाहिए । उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है ॥ ४ ॥ यह आगम और नोआगम भेदरूप द्रव्यक्षेत्रनिक्षेप भी द्रव्यार्थिकनयका विषय है। क्योंकि, द्रव्य अर्थात् सामान्यके विना यह निक्षेप संभव नहीं है । जो भावरूप क्षेत्रनिक्षेप है, वह आगमभावक्षेत्र और नोभागमभावक्षेत्र के भेदसे दो प्रकारका है ! क्षेत्रविषयक प्राभृतके ज्ञाता और वर्तमानकालमें उपयुक्त जीवको आगमभावक्षेत्रनिक्षेप कहते हैं । जो आगमके अर्थात् क्षेत्रविषयक शास्त्र के उपयोग के विना अन्य पदार्थ में उपयुक्त हो उस जीवको; अथवा, औदयिक आदि पांच प्रकारके भावोंको नोभागमभावक्षेत्रनिक्षेप कहते हैं । I १ क्षि निवासगत्योः । २ आगासस्स पएसा उडूं च अहे य तिरियलोए य । जाणाहि खित्तलोगं अनंत जिणदेसिअं सम्म ॥ १९७ ॥ ( अभि. रा. लोक.) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, १. पंचविधभावो वा । एदेसु खेत्तेसु केण खेतेण पयदं ? गोआगमदो दव्वखेत्तेण पयदं । णोआगमदो दव्वखेत्तं णाम किं ? आगासं गगणं देवपथं गोज्झगाचरिदं अवगाहणलक्खणं आधेयं वियापगमाधारो भूमि त्ति एयो । कस्स खेत्तं १ सुण्णोयं भंगो । केण खेत्तं ? पारिणामिण भावेण । कम्हि खेतं ? अप्पाणम्हि चेव । कधमेगत्थ आधाराधेयभावो ? ण, सारे त्थंभ इदि एत्थ वि आधाराधेयभावदंसणादो । केवचिरं खेत्तं १ अणादियमपज्जवसिदं । कदिविधं खेत्तं १ दव्वडियणयं च पडुच्च एगविधं । अथवा पओजणमभि शंका- - ऊपर बतलाये गये इन क्षेत्रोंमेंसे यहां पर कौनसे क्षेत्रले प्रयोजन है ? समाधान- यहां पर नोआगमद्रव्यक्षेत्र से प्रयोजन है । शंका - नोआगमद्रव्यक्षेत्र किसे कहते हैं ? समाधान - आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित ( यक्षोंके विचरणका स्थान ) अवगाहनलक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि, ये सब नोभागमद्रव्यक्षेत्र के एकार्थक नाम हैं । विशेषार्थ- - अब धवलाकार क्षेत्रका विचार, निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान, इन प्रसिद्ध छद्द अनुयोगद्वारोंसे क्रमशः करते हैं। इनमेंसे ऊपर जो निक्षेप या एकार्थ द्वारा क्षेत्रका विचार किया गया है, वह सब निर्देश के अन्तर्गत समझना चाहिए । शंका- क्षेत्र किसका है, अर्थात् इसका स्वामी कौन है ? समाधान - यह भंग शून्य है, अर्थात् क्षेत्रका स्वामी कोई नहीं है । शंका- किससे क्षेत्र होता है, अर्थात् क्षेत्रका साधन या करण क्या है ? समाधान - पारिणामिक भावसे क्षेत्र होता है, अर्थात् क्षेत्रकी उत्पत्ति में कोई दूसरा निमित्त न होकर वह स्वभावसे है । शंका- किसमें क्षेत्र रहता है, अर्थात् इसका अधिकरण क्या है ? समाधान शंका- एक ही आकाशमें आधार-आधेय भाव कैसे संभव है ? --- - अपने आपमें ही यह रहता है, अर्थात् क्षेत्रका अधिकरण क्षेत्र ही है । समाधान — नहीं; क्योंकि, 'सारमें स्तम्भ है' इस प्रकार एक वस्तुमें भी आधार आधेयभाव देखा जाता है । शंका- कितने कालपर्यन्त क्षेत्र रहता है, अर्थात् क्षेत्रकी स्थिति कितनी है ? -क्षेत्र अनादि और अनन्त है । समाधान १ ओदइए ओवसमिए खइए अ तहा खओवसमिए अ । परिणामि सन्निवाए अ छव्विहो भावलोगो ड ॥ २०० ॥ ( अभि. रा. लोक. ) २२ प्रतौ' सारत्थंभ ' इति पाठः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १.] खेत्ताणुगमे णिदेसपरूवणं [९ समिञ्च दविहं, लोगागासमलोगागासं चेदि। लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन जीवादिद्रव्याणि स लोकः । तद्विपरीतोऽलोकः। अधवा देसभेएण तिविहो, मंदरचूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो' त्ति । जधा दव्याणि द्विदाणि तधावबोधो अणुगमो। खेत्तस्स अणुगमो खेत्ताणुगमो, तेण खेत्ताणुगमेण सरीरस्सेव दुविहो णिद्देसो । णिदेसो पदुप्पायणं कहणमिदि एयट्ठो। ओघेण द्रव्यार्थिकनयावलम्बनेन, आदेसेण पर्यायार्थिकनयावलम्बनेन चेदि द्विविधो निर्देशः। किमहमुभयथा णिदेसो कीरदे ? न, उभयनयावस्थितसत्त्वानुग्रहार्थत्वात् । ण तइओ णिदेसो अत्थि, णयद्दयसंट्ठियजीववदिरित्तसोदाराणं असंभवादो। शंका-क्षेत्र कितने प्रकारका है ? समाधान- द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकारका है। अथवा, प्रयोजनके आश्रयसे क्षेत्र दो प्रकारका है, लोकाकाश और अलोकाकाश । जिसमें जीवादि द्रव्य अवलोकन किये जाते है, पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। इसके विपरीत जहां जीवादि द्रव्य नहीं देखे जाते हैं, उसे अलोक कहते हैं । अथवा, देशके भेदसे क्षेत्र तीन प्रकारका है । मंदराचल (सुमेरुपर्वत) की चूलिकासे ऊपरका क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मंदराचलके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है। मंदराचलसे परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है। जिस प्रकारसे द्रव्य अवस्थित हैं, उस प्रकारसे उनको जानना अनुगम कहलाता है। क्षेत्रके अनुगमको क्षेत्रानुगम कहते हैं। उससे अर्थात् क्षेत्रानुगमसे शरीरके (शरीर सामान्य और मुखादि अंगोपांग विशेष ) निर्देशके समान दो प्रकारका निर्देश किया गया है। निर्देश, प्रतिपादन और कथन, ये सब एकार्थक हैं। ओघसे अर्थात् द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बनसे, और आदेशसे अर्थात् पर्यायार्थिकनयके अवलम्बनसे निर्देश दो प्रकारका है। शंका-दोनों नयोंकी अपेक्षासे निर्देश किसलिये किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयमें अवस्थित शिष्योंके अनुग्रहके लिये ओघनिर्देश किया गया है। तथा पर्यायार्थिकनयमें अवस्थित शिष्योंके अनुग्रहके लिये आदेशनिर्देश किया गया है। इन दोनों निर्देशोंके अतिरिक्त और कोई तीसरा निर्देश नहीं पाया जाता है, क्योंकि, दोनों प्रकारके नयों में अवस्थित जीवोंके अतिरिक्त अन्य प्रकारके श्रोताओंका अभाव है, अतएव दोनों ही प्रकारसे निर्देश किया गया है। १ मेरुरयं त्रयाणां लोकानां मानदंडः । अस्याधस्तलादधोलोकः । चूलिकामूलादूर्ध्वमूर्ध्वलोकः । मध्यमप्रमाणस्तिय विस्तीर्णस्तिर्यग्लोकः । त. रा. वा. ३, १०. इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रमामागे मेरुमध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति, तस्योपरितनप्रस्तरस्योपरिष्टान्नव योजनशतानि यावज्जोतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत् तिर्यग्लोकस्ततः परत ऊर्द्धभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनप्रस्तरस्याधो नव योजनशतानि यावचावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वादधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोकोप्रलोकयोर्मध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्लोक इति । स्थानां, ३, २. टीका. व Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, २. " जहा उद्देसो तहा णिद्देसो ' त्ति कट्टु ओघणिसट्टमुत्तरमुत्तं भणदिओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते, सव्वलोगे ॥ २ ॥ एदस्य सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा - ओघणिसो आदेसवुदासट्ठो । मिच्छासो सगुणद्वाणपडिसेहो । केवडि खेते इदि पुच्छा सुत्तस्स पमाणत्तप्पदुपायणफला' । सव्वलोगे इदि खेत्तपमाणणिद्देसो । एत्थ लोगे त्ति वृत्ते सत्तरज्जूंर्ण घणो घेतव्वो । कुदो ? एत्थ खेपमाणाधियारे - १०] 'जिस प्रकार से उद्देश किया जाता है, उसी प्रकार से निर्देश होता है ' इस न्यायके अनुसार ओघनिर्देशके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेटी । लोयपदरो य लोगो अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा ॥ ५ ॥ ओघनिर्देशकी अपेक्षा मिध्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोक में रहते हैं ॥ २ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है- सूत्रमें ' ओघ' इस पदका निर्देश, आदेश प्ररूपणा के निराकरण के लिए है । 'मिथ्यादृष्टि ' इस पदका निर्देश, शेष गुणस्थानोंके प्रतिषेधके लिए है । ' कितने क्षेत्रमें रहते हैं ' इस पृच्छाका फल सूत्रकी प्रमाणता प्रतिपादन करना है ।' सर्वलोकमें ' इस पद से क्षेत्र के प्रमाणका निर्देश किया है । यहां सूत्रमें 'लोक ऐसा सामान्य पद कहनेपर सात राजुओंका घनात्मक लोक ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि, यहां क्षेत्रप्रमाणाधिकार में ----- पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, लोकप्रतर और लोक, ये आठ मान जानना चाहिए ॥ ५ ॥ प. १, शलाका १ विवक्षित... जीवैर्वर्तमानकाले विवक्षितपदविशिष्टत्वेनावष्टव्याकाशः क्षेत्रं । गो. जी. जी. प्र. टी. ५४३. २ सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टीनां सर्वलोकः । स. सि. १, ८. मिच्छा उ सव्वलोए ॥ पञ्चसं. २, २६. ३ प्रतिषु केबडिया ' इति पाठः । ४ म प्रत्योः 'सुत्तसुपमाणतं पदुप्पायण ' इति पाठः ; 'अ-आ-क' प्रतिषु ' सुत्तस्स पमाणचं पदुप्पायण ' इति पाठः । ५ जगसेटीए सत्तमभागो रज्जू पभासते । ति. प. १,१३२. ६ जगसेढिघणपमाणो लोयायासी सपंचदव्वट्ठिदो । ति प १, ९१. चउदस रज्जू लोओ बुद्धिकओ होइ सतरज्जुघणो । कर्म. ५ कर्म. ९७. ९३ - १३०; विरलीकृत्य 3 ७ ति. प. १, ९३. त्रि. सा. ९२. पल्यापमस्य सागरोपमस्य च स्वरूपं ति. स. सि. ३, ३८; त. रा. वा. ३०, ३८. अद्धापल्यस्यार्धच्छेदेन प्रत्येक मद्धापल्यप्रदानं कृत्वा अन्योन्यगुणिते यावंतश्छेदास्तावद्भिराकाशप्रदेशैर्मुक्तावली Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] खेत्ताणुगमे लोगपमाणपरूवणं इदि एत्थ वुत्त लोगग्गहणादो । जदि एसो लोगो घेप्पदि, तो पंचदव्वाहारआगासस्स गणं ण पावदे । कुदो ? तम्हि सत्तरज्जुघणपमाणमेत्तखेत्तस्साभावा' । भावे वा - हेट्ठा मज्झे उवरिं वेत्तासण-झल्लरी- मुइंगणिहो । मज्झिमवित्थारेण य चोदसगुणमायदो लोगों ॥ ६ ॥ लोगो अकट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो । जीवाजीवेहि फुडो णिच्चो तलरुक्खसंठाणो ॥ ७ ॥ लोयस्य विक्खंभो चउप्पयारो य होइ णायव्वो । सत्तेक्कगो य पंचेक्कगो य रज्जू मुणेयव्त्रा ॥ ८ ॥ इस गाथामें जो लोकका ग्रहण किया गया है उससे जाना जाता है कि यहांपर सात राजुके घनप्रमाण लोकका ग्रहण अभीष्ट है । विशेषार्थ - एक प्रदेशवाली सात राजु लम्बी आकाश-प्रदेशपंक्तिको जगश्रेणी क हैं | तथा जगश्रेणी के वर्गको जगप्रतर और घनको घनलोक कहते हैं । गाथा में इसी क्रम से जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक पदका ग्रहण किया है । इससे यह ज्ञात होता है कि यहांपर लोकसे घनलोकका अभिप्राय है । शंका – यदि यहां पर इसी घनलोकका ग्रहण किया जाता है, तो पांच द्रव्यों के आधारभूत आकाशका ग्रहण नहीं प्राप्त होता है; क्योंकि, उस लोक में सात राजुके घनप्रमाणवाले क्षेत्रका अभाव है । और, यदि सद्भाव माना जावे तो नीचे वेत्रासन (बेंतके मूंढा) के समान, मध्य में झल्लरीके समान, और ऊपर मृदंगके समान आकारवाला तथा मध्यमविस्तार से अर्थात् एक राजुले चौदह गुणा आयत (लम्बा ) लोक है ॥ ६ ॥ यह लोक निश्चयतः अकृत्रिम है, अनादि-निधन है, स्वभावसे निर्मित है, जीव और अजीव द्रव्योंसे व्याप्त है, नित्य है, तथा तालवृक्ष के आकारवाला है ॥ ७ ॥ लोकका विष्कम्भ (विस्तार) चार प्रकारका है, ऐसा जानना चाहिये। जिसमेंसे अधोलोकके अन्त में सात राजु, मध्यमलोकके पास एक राजु, ब्रह्मलोक के पास पांच राजु और ऊर्ध्वलोक के अन्त में एक राजु विस्तार जानना चाहिये ॥ ८ ॥ [ ११ कृता सूच्यं गुलमित्युच्यते । तदवापरण सूच्यंगुलेन गुणितं प्रतर गुलं । तत्वतरांगुलमपरेण सूच्यंगुलेनाभ्यस्तं घनगुलं । असंख्येयानां वर्षाणां यावंतः समयास्तावत्खंडमद्धापल्यं कृतं, ततोऽसंख्येयान् खंडानपनीयासंख्येयमेकं भागं बुद्धया विरलीकृत्य एकेकस्मिन् घनांगुलं दत्वा परस्परेण गुणिता जगच्छ्रेणी । सा अपरया जगच्छ्रेण्याम्यस्ता प्रतरलोकः । स एवापरया जगच्छ्रेण्या संवर्गितो घनलोकः । त. रा. वा. ३, ३०. १ प्रतिषु ' खेत्तरसभावा' इति पाठः । २ जंबू. प. ११, ३ त्रि. सा. ४ तत्र चतुर्थचरणे 'सम्बागासावयवो णिच्चो ' इति पाठः । १०६. ४ जंबू.प. ११, १०७. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २. एदाओ सुत्तगाहाओ अप्पमाणत्तं पावेंति ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे । एत्थ लोगे त्ति वुत्ते पंचदव्याहारआगासस्सेव गहणं, ण अण्णस्स । ' लोगपूरणगदो केवली केवडि खेत्ते, सव्वलोगे' इदि वयणादो । जदि लोगो सत्तरज्जुघणपमाणो ण' होदि तो ' लोगपूरणगदो केवली लोगस्स संखेजदि भागे' इदि भणेज। ण च अण्णाइरियपरूविदमुदिंगायारलोगस्स पमाणगं पेक्खिऊण संखेज्जदिभागत्तमसिद्धं, गणिज्जमाणे तहोवलंभादो । तं जहा- मुदिंगायारलोयस्स सूई चोद्दसरज्जुआयदं एगरज्जुविक्खंभं वर्ल्ड लोगादो अवणिय पुध हुवेदव्यं । एवं ठविय तस्स फलाणयणविहाणं भणिस्सामो । तं जहा-एदस्स मुहतिरियवदृस्स एगागासपदेसबाहल्लस्स परिठओ एत्तिओ होदि ३४३ । इममद्धेऊण विक्खंभर्तण गुणिदे एत्तियं होदि ५३ । अधोलोगभागमिच्छामो त्ति सत्तहि रज्जूहि गुणिदे खायफलमेत्तियं होदि ५३३३ । पुणो णिस्सईखेत्तं चोद्दसरज्जुआयदं दो खंडाणि करिय तत्थ हेहिमखंडं घेत्तूण उट्ठे पाटिय पसारिदे ये ऊपर कही गई सूत्रगाथाएं अप्रमाणताको प्राप्त होती हैं ? समाधान-अब यहां ऊपरकी शंकाका परिहार कहते हैं। इस प्रकृत सूत्रमें 'लोक' ऐसा पद कहनेपर पांच द्रव्योंके आधारभूत आकाशका ही ग्रहण किया है, अन्यका नहीं, क्योंकि, 'लोकपूरणसमुद्धातगत केवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। इसप्रकारका सूत्रवचन है। यदि लोक सात राजुके घनप्रमाण नहीं है, तो 'लोकपूरणसमुद्धातगत केवली लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं' इसप्रकार कहना चाहिये। और अन्य आचार्यों के द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोकके प्रमाणको देखकर अर्थात् उसकी अपेक्षासे, लोकपूरण समुद्धातगत केवलीका घनलोकके संख्यातवें भागमें रहना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, गणना करनेपर मृदंगाकार लोकका प्रमाण घनलोकके संख्यातवें भाग पाया जाता है। वह इसप्रकार है-चौदह राजुप्रमाण आयत, एक राजुप्रमाण विस्तृत और गोल आकारवाली, ऐसी मृदंगाकार लोककी सूचीको लोकके मध्यसे निकाल करके पृथक् स्थापन करना चाहिये । इसप्रकारसे स्थापित करके अब उसके फल अर्थात् घनफलको निकालनेका विधान कहते हैं। वह इसप्रकार है-मुखमें तिर्यपसे गोल और आकाशके एक प्रदेशप्रमाण बाहल्यवाली इस पूर्वोक्त सूचीकी परिधि ३११ इतनी होती है। (देखो आगे गाथा नं. १४) इस परिधिके प्रमाणको आधा करके, पुनः उसे एक राजुविष्कम्भके आधेसे गुणा करनेपर, उसके क्षेत्रफल का प्रमाण ३५३ इतना होता है। अब हमें लोकके अधोभागका घनफल लाना इष्ट है, इसलिये उस क्षेत्रफलको सात राजुओंसे गुणा करने पर सात राजुप्रमाण लम्बी और एक राजुप्रमाण चौड़ी उक्त गोलसूचीका घनफल ५४३५ इतना होता है। फिर सूचीरहित चौदह राजु लम्बे लोकरूप क्षेत्रके मध्यलोकके पाससे दो खंड करके उनमेंसे नीचे के अर्थात् अधोलोकसम्बन्धी १ प्रतिषु ' पमाणेण ' इति पाठः । २म प्रत्योः 'ढवयव्वं' इति पाठः। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे लोगपमाणपरूवणं [१३ सुप्पखेत्तं होऊण चेदि । तस्स मुहवित्थारो एत्तिओ होदि' ३१३ । तलवित्थारो एत्तिओ होदि २२.१५ । एत्थ मुहवित्थारेण सत्तरज्जुआयामेण छिदिदे दो तिकोण खेत्ताणि एयमायदचउरस्सखेत्तं च होइ। तत्थ ताव मज्झिमखेत्तफलमाणिजदे । एदस्स उस्सेहो सत्त रज्जूओ। विक्खंभो पुण एत्तिओ होदि ३१३ । मुहम्मि एगागासपदेसबाहल्लं, तलम्मि तिण्णि रज्जुबाहल्लो त्ति सत्तहि रज्जूहि मुहवित्थारं गुणिय तलबाहल्लद्धेण गुणिदे मज्झिमखेत्तफलमेत्तियं होइ ३४३३६ । संपहि सेसदोखेत्ताणि सत्तरज्जुअवलंबयाणि तेरसुत्तरसदेण खंडको ग्रहण कर उसे (एक ओरसे ) ऊपरसे (लगाकर नीचेतक ) काटकर पसारने पर सूर्ण (सूपा) के आकारवाला क्षेत्र हो जाता है। विशेषार्थ-यहांपर शंकाकार, अन्य आचार्योंसे प्ररूपित जिस, मृदंगाकार लोकको दृष्टिमें रखकर यह कथन कर रहा है, उसका भाव यह है कि कितने ही आचार्य अधोलोकका आकार चारों ओरसे गोल ऐसे वेत्रासनके समान मानते हैं । जो नीचे गोल आकारवाला तथा सात राजु चौड़ा है, और ऊपर क्रमशः घटता हुआ मध्यलोकमें गोल आकारवाला तथा एक राजु चौड़ा है। इसके ठीक मध्यमें ऊपरसे नीचेतक स्थित सात राजु लम्बी एक राजु चौड़ी गोल आकारवाली त्रसनाली है। उसको यदि वेत्रासनाकार अधोलोकके बीच में से निकालकर बचे हुए अधोलोकको एक ओरसे ऊपरसे नीचेतक काटकर पसार दिया जाय, तो उसका आकार ठीक सूपाके समान हो जाता है। इस सूर्पाकार क्षेत्रके मुखका विस्तार ३११ इतना है, और तलका विस्तार २२४१३ राजुप्रमाण है । इसे मुखविस्तारसे ( अर्थात् मुखविस्तारके अन्तसे लगाकर दोनों ओर ) सात राजु लम्बा नीचेकी ओर छेदनेपर दो त्रिकोण क्षेत्र और एक आयतचतुरस्रक्षेत्र, इसप्रकार तीन क्षेत्र हो जाते हैं। उक्त प्रकारसे बने हुए इन तीन क्षेत्रोंमेंसे पहले आयतचतुरन्न आकारवाले मध्यवर्ती क्षेत्रका घनफल निकालते हैं । इस आयतच तुरस्र क्षेत्रका उत्सेध ( ऊंचाई ) सात राजु है । और विष्कम्भ ३१३ इतने राजु है । मुख में एक प्रदेश-प्रमाण बाहल्य ( मोटाई ) है और तलभागमें तनि राजुप्रमाण बाहल्य है, इसलिए उत्सेधका प्रमाण जो सात राजु है उससे मुखके प्रमाणको गुणा करके तलभागका वाहल्य जो तीन राजु है उसके आधेसे अर्थात् डेढ़ राजुसे गुणा करने पर मध्यम क्षेत्रका अर्थात् आयतचतुरस्र क्षेत्रका घनफल ३५१४१४३३४३२६ इतना होता है। अब शेष जो दो त्रिकोण क्षेत्र है वे सात राजु लम्बे हैं, और एकसौ तेरहसे एक राजुको खंडित कर उनसे अड़तालीस खंड अधिक नौ राजु भुजावाले हैं अर्थात् उनका १ अ-क प्रत्योः 'एतिओ होदि ' इति पाठो नास्ति । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. एगरज्जु खंडिय तत्थ अद्वैतालीसखंडमहिय-णवरज्जुभुजाणि भुजकोडिपाओग्गकण्णाणि कण्णभूमीए आलिहिय दोसु वि दिसासु मज्झम्मि फालिदे तिण्णि तिण्णि खेत्ताणि होति । तत्थ दो खेत्ताणि अद्धट्ठरज्जुस्सेहाणि छब्बीसुत्तर-वेसदेहि एगरज्जु खंडिय तत्थ एगट्टिखंडब्भहियखंडसदेण सादिरेयचत्तारिरज्जुविक्खंभाणि दक्षिण-वामहेट्ठिमकोणे तिण्णि रज्जुबाहल्लाणि, दक्षिण-वामकोणेसु जहाकमेण उवरिम-हेटिमेसु दिवड्डरज्जुवाहल्लाणि, अवसेसदोकोणेसु एगागासबाहल्लाणि, अण्णत्थ कम-वड्डिगदवाहल्लाणि घेत्तूण तत्थ एगखेत्तस्सुवरि विदियखेत्ते विवज्जासं काऊण दृविदे सव्वत्थ तिण्णि रज्जुबाहल्लखेत्तं होइ । एदस्स वित्थारमुस्सेहेण गुणिय वेहेण गुणिदे खायफलमेत्तियं होइ ४९११३ । अवसेसचत्तारि खेत्ताणि अद्भुट्ठरज्जुस्सेहाणि छव्वीसुत्तरवेसदेहि एगरज्जु खंडिय तत्थ एगट्टिअधोविस्तार ९४३ है। इसी विस्तारको यहां त्रिकोण क्षेत्रकी अपेक्षासे 'भुजा' कहा है। तथा उन दोनों त्रिकोण क्षेत्रोंका भुजा और कोटिके यथायोग्य संभवित कर्णका प्रमाण है। इन दोनों त्रिकोण क्षेत्रोंको कर्णभूमिसे लेकर दोनों ही दिशाओं में बीच मेंसे काटनेपर तीन तीन क्षेत्र हो जाते हैं। विशेषार्थ-- यहां पर त्रिकोण क्षेत्रके भुजा और कोटिका प्रमाण तो दिया है, पर कर्णका प्रमाण नहीं दिया है। उसके निकालनेकी प्रक्रिया यह है कि भुजाके प्रमाणका वर्ग और कोटिके प्रमाणका वर्ग जितना हो, उन्हें जोड़कर उसका वर्गमूल निकालना चाहिये, जो वर्गमूलका प्रमाण आवे, वही कर्णरेखाका प्रमाण समझना चाहिए। उक्त प्रकारसे उत्पन्न हुए इन तीन तीन क्षेत्रों में एक एक आयतचतुरस्त्रक्षेत्र और दो दो त्रिकोणक्षेत्र जानना चाहिये। उनमें सात राजु उत्सेधवाले आयतचतुरस्र क्षेत्रके दायें बायें दोनों ओर जो दो आयतचतुरस्रक्षेत्र हैं, उनमें प्रत्येकका साढ़े तीन राजु उत्सेध है । तथा दो सौ छब्बीससे एक राजुको खंडित कर उनमें एकप्तौ इकसठ खंडोंसे अधिक चार राजु अर्थात् ४३६१ प्रमाण विष्कम्भ है । तथा दक्षिण और वाम (दायें बायें) अधस्तन कोन पर तीन राजु बाहल्य है। अन्य दक्षिण वामकोणोंपर यथाक्रमसे ऊपर और नीचे डेढ़ राजु बाहल्य है। अवशिष्ट दो कोनोंपर एक आकाशप्रदेश-प्रमाण बाहल्य है। और अन्यत्र अर्थात् बीचमें कंमसे वृद्धिको प्राप्त बाहल्य है । इसप्रकारके इन दोनों आयतचतुरस्र क्षेत्रों को लेकर (उठाकर) उनमें एक क्षेत्रके ऊपर दूसरे क्षेत्रको विपर्यास अर्थात उलटा करके स्थापित करनेपर सर्वत्र तीन राजु बाहल्यवाला क्षेत्र हो जाता है। इसके विस्तारको उत्लेधसे गुणाकर पुनः वेध (मोटाई ) से गुणा करने पर घनफल ४३६१ x ३३ x ३ = ४९११५ इतना हो जाता है । अब अवशिष्ट जो चार त्रिकोण क्षेत्र हैं, वे साढ़े तीन राजु उत्सेधवाले हैं, तथा दोसौ छब्बीससे एक राजुको खंडितकर उनमेंसे एकसौ इकसठ खंडोंसे अधिक चार राजु अर्थात् १ प्रतिषु ' कम्म- ' इति पाठः।। २इष्टो बाहुर्यःस्यात् तत्स्पर्धिन्या दिशीतरो बाहः । ध्यसे चतुरसे वा सा कोटिः कीर्तिता तज्जैः॥ तत्कृत्योयोगपदं कर्णः। लीलावती क्षेत्रव्य. १. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] खेत्तागमे लोगपमाणपरूवणं [ १५ सदखंडेहि सादिरेयचत्तारिरज्जुभुजाणि कण्णक्खेत्ते आलिहिय दोसु वि पासेसु मज्झम्मि छिण्णेसु चत्तारि आयदचउरंसखेत्ताणि अट्ट तिकोणखेत्ताणि च होंति । एत्थ चदुण्हमायदचउरंसखेत्ताणं फलं पुच्चिल्लदोखेत्तफलस्स चउभागमेत्तं होदि । चदुसु विखेत्ते बाहल्लाविरोहेण एगठ्ठे कदेसु तिणिरज्जुबाहल्लं, पुव्विल्लखेत विक्खभायामेहिंतो अद्धमेत्तविक्खंभायामपमाणखेत्तुवलंभादो । किमङ्कं चदुण्हं पि मिलिदाणं तिणि रज्जुबाहल्लत्तं ? पुब्विल्लखेत्तवाहल्लादो संपहियखेत्ता मद्धमेत बाहल्लं होदूण तदुस्सेहं पेक्खिद्ग अद्ध सेहद सादो | संपहि सेसअट्ठखेत्ताणि पुत्रं व खंडिय तत्थ सोलस तिकोणखेत्ताणि अतरादीदखे ताणमुस्सेहादो विक्खभादो बाहल्लादो च अद्धमेत्ताणि अवणिय अट्टह मायदचउरंसखेत्ताणं फलमणं तराइकंतचदुखे तफलस्स चउंभागमेत्तं होदि । एवं सोलसबत्तीस-चउसटिआदिकमेण आयदचउरंसखेत्ताणि पुच्चिल्लखेत्तफलादो चउब्भागमेत्तफलाणि होदूण गच्छंति जाव अविभागपलिच्छेदं पत्तं ति । एवमुप्पण्णा से सखे त्तफलमेला राजु प्रमाण भुजावाले हैं। उन्हें कर्णक्षेत्र से लगाकर दोनों ही पार्श्वभागों में बीचसे छिन्न करनेपर चार आयतचतुरस्रक्षेत्र और आठ त्रिकोणक्षेत्र हो जाते हैं । यहां पर चारों ही आयतचतुरस्र क्षेत्रों का घनफल पहले के दोनों आयतचतुरस्र क्षेत्रों के घनफलके चतुर्थभाग मात्र होता है, क्योंकि, चारों ही क्षेत्रोंको बाल्यके अविरोधसे इकट्ठा करनेपर अर्थात् यथाक्रम से विपर्यास कर उलटा रखने पर तीन राजु बाद्दल्य और पहले के क्षेत्र के विष्कम्भ और आयाम से अर्धमात्र विष्कम्भ और आयाम प्रमाणवाला क्षेत्र पाया जाता है । शंका - इन चार आयतचतुरस्र क्षेत्रोंके मिलाने पर तीन राजु बाहुल्य कैसे होता है ? समाधान क्योंकि, पहले बताये हुये आयतचतुरस्र क्षेत्रके बाद्दल्य से इस समय के आयतचतुरस्र क्षेत्रोंका बाहल्य आधा ही है । और पहले के उनके उत्सेधकी अपेक्षा अबके इनका उत्सेध भी आधा ही दिखाई देता है । अब शेष रहे आठ त्रिकोण क्षेत्रोंको पूर्वके समान ही खंडित करनेपर उनमें सोलह त्रिकोणक्षेत्र और आठ आयतचतुरस्रक्षेत्र हो जाते है । पहले बताये गये चार आयतचतुरस्र क्षेत्रों का उत्सेधसे, विष्कम्भसे और बाहूल्य से अर्धप्रमाण निकालकर आठों ही आयतचतुरस्र क्षेत्रोंका घनफल अभी बताये गये चार आयतचतुरस्र क्षेत्रों के घनफलके चतुर्थ भागमात्र होता है । इसीप्रकार सोलह, बत्तीस, चौसठ आदिक्रम से आयतचतुरस्रक्षेत्र पहले पहले के आयतचतुरस्रक्षेत्र के घनफलोंके चतुर्थ भागमात्र घनफलवाले होते हुए तब तक चले जायेंगे जबतक कि अविभागप्रतिच्छेद अर्थात् एक परमाणु ( प्रदेश ) नहीं प्राप्त हो जायगा । इसप्रकार से उत्पन्न हुए समस्त क्षेत्रोंके घनफलोंके जोड़नेका १ प्रतिषु ' कम्म ' इति पाठः । २ अ-आ-क प्रतिषु ' चउत्थ ' इति पाठः । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २. वणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- सव्यखेत्तफलाणि चउगुणकमेण अवट्ठिदाणि ति कादूण तत्थ अंतिमखेत्तफलं चउहि' गुणिय रूवृणं काऊण तिगुणिदछेदेण ओवट्टिदे एत्तिय होइ ६५१३३६ । अधोलोगस्स सव्वखेत्तफलसमासो १०६३३६६ । संपहि उड्डलोगखेत्तफलमाणेमो । तत्थ सूईखेत्तफलं पुव्वविहाणेण आणिदे एत्तियं होइ ५३३५ । संपहि उवरिममद्धं पंचरज्जुविक्खंभुद्देसे खंडिय' तत्थ एगखंडं पुध छविय मज्झम्मि सेसखंडं उडुं फालिय पसारिदे सुप्पखेत्तं होदि । तस्स मुहवित्थारो एत्तिओ होदि ३१३ । तलवित्थारो एत्तिओ होदि १५६ १६ । मुहम्मि एगागासबाहल्लं', तलम्मि मुहप्पमाणमज्झम्मि वेरज्जुबाहल्लं, पुणो कमहाणीए गंतूग हेडिमदोकोणेसु एगागासवाहल्लं होदि । एदम्मि खेत्ते मुहवित्थारविक्खंभेण खंडिदे दोणि तिकोणखेत्ताणि एगमायद विधान कहते हैं। वह इसप्रकार है-सभी क्षेत्रोंका घनफल चतुर्गुणितकमसे अवस्थित है, इसलिए उनमें अन्तिम क्षेत्रफलको चारसे गुणा करके और चारमेंसे एक कम अर्थात् तीनसे भाग देने पर घनफल ६५१३२६ इतना होता है । और अधोलोकके सभी क्षेत्रोंका घनफल १०६३६६ होता है। अब चारों ओरसे मृदंगाकार ऊर्ध्वलोकरूप क्षेत्रका घनफल निकालते हैं। उसमें एक राजु चौड़े, सात राजु लम्बे और गोल आकारवाले सूचीरूप क्षेत्रका घनफल पहले अधोलोकमें कहे गये विधानसे निकालनेपर ५३३५ राजु इतना होता है। (इस सूचीको उर्ध्वलोकके मध्यभागसे निकालकर पृथक् स्थापन कर देना चाहिये । ) अब, लोकको मध्यलोकसे काटनेपर जो दो भाग पहले हुए थे उसमेंके ऊपरी अर्ध भागको, पांच राजु है विष्कम्भ जहांपर ऐसे ब्रह्मलोकके अन्तस्थित प्रदेशपर बीचसे खंडितकर उसमेंस एक खंडको पृथक स्थापनकर बचे हुए खंडको मध्यमें ऊपरसे नीचेतक फाड़कर पसारनेसे सूपाके आकारवाला क्षेत्र हो जाता है। उसके मुखका विस्तार ३३ इतना होता है। तथा तलविस्तार १५९६ इतना होता है । इस सूर्पक्षेत्रके मुख में मोटाई आकाशके एक प्रदेश प्रमाण है, और तलके मुख-प्रमाण मध्यभागमें दो राजु मोटाई है, पुनः क्रमसे हानिको प्राप्त होती हुई अर्थात् कम होती हुई इसी तलभागके दोनों कोनों पर आकाशके एक प्रदेश प्रमाण मोटाई है। इस सूर्पक्षेत्रको, मुखविस्तार-प्रमाण विष्कम्भसे खंडित करनेपर दो त्रिकोण क्षेत्र और एक आयतचतुरस्र १ म प्रतौ ' चउ' इत्यपि पाठः । २ म प्रत्योः उवरिमधम्मद्धपंच-'. ' उवरिमधम्म पंच-'; अ-आ-क प्रतिषु ' उवरिममद्धपंच-' इति पाठः। ३ म २ प्रतौः 'खंडियं' इति पाठः । ४ म प्रत्योः 'बाहिल्ल' इति पाठः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] खेत्तागमे लोगपमाणपरूवणं चउरंसखेत्तं च होई । आयदच उरंसखेत्तस्स अद्भुट्ठरज्जुदीहस्स सादिरेयतिण्णिरज्जुविक्खभस्स तलम्मि वे रज्जु मुहम्मि एगागासबाहल्लस्स फलमाणेमो । तं जहा - विक्खंभेणुस्सेह गुण ओवेरज्जुणा गुणिदे मज्झिल्लखेत्तफलं होइ । तस्स पमाणमेदं ११३३३ । सेसदो- तिकोणखेत्ताणि अद्भुडरज्जुस्सेहाणि एगरज्जुं तेरमुत्तरसदेण खंडिय तत्थ बत्तीस खंडन्भहियछरज्जुविक्वभाणि पुत्रं व मज्झम्मि खंडिय तत्थुप्पण्णाणि चत्तारि तिकोण खेत्ताणि ओसारिय दोण्हमायदचउरंसखेत्ताणं पाऊणदोरज्जुस्सेहाणं तेरसुत्तरसदेण एगरज्जुं खंडिय तत्थ सोलसखंडब्भहिय तिणिरज्जु विक्खंभाणं दो-एक सुण्णेकरज्जुबाहल्लाणं फलमाणेमो । तं जहा - एगखेत्तस्सुवरि विदियखेत्तं विवज्जासं काऊण ट्रुविदे वेरज्जुबाहल्लमेगं खेत्तं होइ । पुणो विक्खंभुस्सेहागं संवरणं काऊण ओवेहेण गुणिदे खेत्तफलं होदि । तस्स क्षेत्र हो जाते हैं । उनमेंसे पहले आयतचतुरस्र क्षेत्रका जो साढ़े तीन राजु लम्बा है, तीन राजुसे कुछ अधिक अर्थात् ३३ राजु चौड़ा है, तलमें दो राजु और मुखमें एक आकाश प्रदेश प्रमाण मोटा है, ऐसे उस आयतचतुरस्र क्षेत्रका घनफल निकालते हैं । वह इसप्रकार है— विष्कम्भ से उत्सेध को गुणाकर पुनः उसे मोटाईके प्रमाण एक राजुसे गुणा करने पर मध्यम अर्थात् आयतचतुरस्र क्षेत्रका घनफल आ जाता है । उसका प्रमाण 2 × 2 × १ = ११३३६ इतना होता है। शेष जो दो त्रिकोण क्षेत्र हैं, जो कि साढ़े तीन राजु ऊंचे तथा एक राजुको एक सौ तेरह से खंडित कर उनमें बत्तीस खंडसे अधिक छह राजु अर्थात् ६३ राजु चौड़े हैं, उन्हें पहले के समान ही मध्यमेंसे खंडित कर उनमें उत्पन्न हुए चार त्रिकोण क्षेत्रों को दूर रख कर दोनों आयतचतुरस्र क्षेत्रोंका, जो कि पौने दो राजु ऊंचाईवाले, तथा एकसौ तेरह से एक राजुको खंडित कर उनमें सोलह खंडोंसे अधिक तीन राजु अर्थात् राजु प्रमाण चौड़े, तथा क्रमशः दो, एक, शून्य और एक राजु मोटे हैं, उनके घनफलको निकालते हैं । विशेषार्थ – यहां पर जो आयतचतुरस्रक्षेत्रकी मोटाई क्रमशः दो, एक, शून्य और एक राजु प्रमाण कही है, उसका अभिप्राय यह है कि ब्रह्मलोक के पासवाले भीतरी भागकी मोटाई दो राजु है । उसीके बाहरी भाग की मोटाई एक राजु है । कर्णरेखावाले क्षेत्रकी मोटाई शून्य या एक प्रदेश है और कोटिरेखा के भागवाले ऊपरी क्षेत्रकी मोटाई एक राजु है । वह इसप्रकार है- एक आयतचतुरस्रक्षेत्र के ऊपर दूसरे आयतचतुरस्रक्षेत्रको उलटा करके रखने पर दो राजुकी मोटाईवाला एक क्षेत्र हो जाता है । पुनः विष्कम्भ और उत्सेधका संवर्ग अर्थात् परस्पर गुणन करके वेधसे गुणा करने पर उक्त क्षेत्रका घनफल होता है, ११ १ म प्रत्योः १११ इति पाठः । ३२६ २ प्रतिषु तत्थुप्पण्णा ' इति पाठः । 1 [ १७ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. पमाणमेदं १०३३३ । पुणो सेसचउण्हं खेत्ताणं फलमेदस्स चउम्भागमेत्तं होदि । कारणं सुगम, अधोलोगपरूवणाए परविदत्तादो। जेणेवं सबखत्तफलाणि अणंतराइकंतखेत्तफलादो चउब्भागकमेणावहिदाणि, तेण तेसिं फले एत्थ मेलाविदे एत्तियं होदि १४४४४। उडलोगखेत्तस्स सधफलसमासो एत्तिओ होइ ५८३६५ ।' उड्डाधोलोगखेत्तफलसमासो एत्तिओ होदि १६४३३ई । तदो सिद्धं घणलोगस्स खेज्जदिभागत्तं । ण च एदव्यदिरित्तमण्णं सत्तरज्जुघणपमाणं लोगसण्णिदं खेत्तमत्थि, जेण पमाणलोगो छदव्यसमुदयलगादो अण्णो होज ? ण च लोगालोगेसु दोसु वि द्विसत्तरज्जुघणमेत्तागासपदेसाणं पमाणघणलोगववएसो, लोगसण्णाए जादिच्छियत्तप्पसंगा। होदु चे ण, सव्यागास-सेढि-पदर घणाणं जिसका प्रमाण ४३५१ x = १०३२५ इतना होता है। पुनः जो शेष चार त्रिकोण क्षेत्र हैं, उनका घनफल इस आयतचतुरनक्षत्रके चतुर्थभागमात्र होता है। इसका कारण सुगम है, क्योंकि, अधोलोककी प्ररूपणामें कह आये हैं (पृ. १६)। चूंकि इसप्रकार सर्व त्रिकोण क्षेत्रोंके घनफल अनन्तर अतिक्रान्त अर्थात् अभी पहले बताये गये क्षेत्रोंक घनफलसे चतुर्भागके क्रमसे अवस्थित हैं, इसलिए उनके घनफलको यहां अर्थत् १०३३६ में मिलानेपर १४६७४ इतना प्रमाण हो जाता है । उप्रलोकका समत्त घनफल ५८३६५६ इतना होता है। विशेषार्थ- ऊर्ध्वलोकका यह घनफल इसप्रकार आता है- ऊपर जो प्रमाण बतलाया गया है, वह प्रमाण ऊर्ध्वलोकके विभक्त किये गये दो भागों में से एक भागका है, इसलिर दोनों खंडों का घनफल लाने के लिए आयतचतुरस्रक्षेत्रक घनफ ठको ना किया, तब ११३११ ४ ३ = २२३२३ हुआ। तथा त्रिकोणक्षेत्रोंका भी घनफल दूना किया, तय १४१४६४ ३ = २०३९८ हुआ। इसप्रकार ऊर्ध्वलोककी सूचीका, आयतचतुरस्र और त्रिकोण-क्षेत्रोंका समस्त घाफल जोड़ देने पर ५३३३ + २२३२३ + २९६७४ = ५८,३५६ होता है। ऊप्रलोक और अधोलोकका घनफल जोड़ देनेपर १०६.३६४+१८१६५ =१६४३२८ इतना प्रमाण होता है। इसलिए अन्य आचार्योंके द्वारा माना हुआ लोक घनलोकके संख्यातवें भागप्रमाण सिद्ध हुआ। और, इस लोकके अतिरिक्त सात राजुके घनप्रमाण लोकसंज्ञक अन्य कोई क्षेत्र है नहीं, जिससे कि प्रमाणलोक छह द्रव्योंके समुदायरूपलोकले भिन्न माना जावे। और न लोकाकाश तथा अलंकाकाश, इन दोनोंमें ही स्थित सात राजुके घनमात्र आकाशप्रदेशोंके प्रमाणकी घनलोकसंज्ञा है, क्योंकि, ऐसा माननेपर लोकसंज्ञाके यादृच्छिकपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। शंका- यदि लोकसंज्ञाको यादृच्छिकपनेका प्रसंग प्राप्त होता है तो हो जाओ? समाधान-नहीं, क्योंकि, संपूर्ण आकाश, जगश्रेणी, जगप्रतर और घनलोक, इन १३६६ १ म १ प्रतौ ७७ म २ प्रतौ ६७ इति पाठः । १३५६ २ भागत्तं । ण च ' इति स्थाने क प्रतौ ' भागतं गणयवए', आ प्रतौ 'मागतं गणिय', म प्रत्योः '-मागतणं व ' इति पाठः। , Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] तागमे लोगपमाणपरूवणं [ १९ पि जादिच्छियसण्णापसंगादो । किं च ' पदरगदो केवली केवडि खेते, लोगे असंखेज्जदिभागूणे । उड्डलोगेण दुवे उड्डलोगा उड्डलोगस्स तिभागेण देसूणेण सादिरेगा ' इच्चेदस्स सादिरेयद्गुणत्तस्स उडलोगादो कहणण्णहाणुववत्तीदो सिद्धं दोन्हं लोगाण मेगत्तमिदि । तम्हा पमाणलोगो छदव्त्रसमुदयलोगादो आगासपदेसगणणाए समाणो त्ति घेत्तव्वो । कधं लोगो पिंडिजमाणो सत्तरज्जुघणपमाणो होज ? वुच्चदे- लोगो णाम सव्वागासमज्झत्थो चोदसरज्जुआयामो दोसु वि दिसासु मूलद्ध-तिष्णि-चउन्भाग - चरिमेसु सत्तेक्कपंचेक्करज्जुरुंदो सव्वत्थ सत्तरज्जुबाहल्लो वड्डि-हाणीहि ट्ठिददोपेरंतो, चोइसरज्जुआयद सभी संज्ञाओं को भी यादृच्छिकपनेका प्रसंग आजायगा । दूसरी बात यह है कि ' प्रतरसमुद्धातगत केवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागले न्यून सर्व लोकमें रहते हैं । लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्व लोकका प्रमाण ऊर्ध्वलोकके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक दो ऊर्ध्वलोकप्रमाण है।' इसप्रकार ऊर्ध्वलोककी अपेक्षा इस साधिक दुगुणताका कथन अन्यथा बन नहीं सकता था, अतएव प्रमाणलोक और द्रव्यलोक इन दोनों लोकोंका एकत्व सिद्ध हुआ । विशेषार्थ - यहां पर प्रतरसमुद्धातगत केवलीके क्षेत्रका प्रमाण जो ऊर्ध्वलोककी अपेक्षा दो ऊर्ध्वलोक और उसीके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक बताया है, उसका अभिप्राय यह है कि ऊर्ध्वलोकका प्रमाण १४७ घनराजु है, इसे दुना करनेपर २९४ घनराजु हुए । इसमें १४७ का त्रिभाग ४९ घनराजुके जोड़ देनेपर ३४३ घनराजु होते हैं जो कि घनलोकका प्रमाण है । प्रतरसमुद्धातगत केवली लोकान्तमें स्थित वातवलयोंसे रुद्ध क्षेत्रको छोड़कर शेष संपूर्ण क्षेत्रको व्याप्त कर लेते हैं, इसलिये ३४३ घनराजुमेंसे वातवलयोंसे रुद्ध क्षेत्रको कम कर देना चाहिये । यही यहां पर देशोन क्षेत्रका अभिप्राय है । इसलिये, उक्तप्रकारसे प्रमाणलोक और द्रव्यलोकके एक सिद्ध हो जानेपर, प्रमाणलोक छह द्रव्योंके समुदायवाले लोकसे आकाशके प्रदेशगणनाकी अपेक्षा समान है, ऐसा अर्थ स्वीकार करना चाहिये । शंका - पिंडरूपसे एकत्रित करनेपर, अर्थात् घनरूप किया गया, यह लोक सात राजु घनप्रमाण कैसे हो जाता है ? समाधान- उक्त शंकाका उत्तर कहते हैं- जो सर्व आकाशके मध्य भागमें स्थित है, चौदह राजु आयामवाला है, दोनों दिशाओंके अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशा के मूल, अर्धभाग, त्रिचतुर्भाग और चरमभागमें यथाक्रमसे सात, एक, पांच और एक राजु विस्तारवाला है, तथा सर्वत्र सात राजु मोटा है, वृद्धि और हानिक द्वारा जिसके दोनों प्रान्तभाग १ म प्रत्योः ' लोगो असंखेज दिमागूणो ' इति पाठः । २ उदयदलं आयाम वास पुव्वारेण भूमिमुहे । रुचकपंच एक य रज्जू मज्झम्हि हाणिचयं ॥ त्रि. सा. १९३० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २. रज्जुवग्गमुहलोगणालिगम्भो । एसो पिंडिजमाणो सत्तरज्जुघणपमाणो होदि। जदि लोगो एरिसो ण घेप्पदि तो पदरगदकेवलिखेत्तमाहणटुं वुत्त दो-गाहाओ णिरस्थियाओ होज, तत्थ वुत्तफलस्स अण्णहा संभवाभावा । काओ ताओ दो गाहाओ ति वुत्ते वुच्चदे मुह-तलसमास-अद्धं वुस्सेधगुणं गुणं च वेधेण । घणगणिदं जाणेज्जो वेत्तासणसंठिये खेत्ते ॥ ९॥ स्थित है, चौदह राजु लम्बी एक राजुके वर्गप्रमाण मुखवाली लोकनाली जिसके गर्भ में है, ऐसा पह पिंडरूप किया गया लोक सात राजुके घनप्रमाण अर्थात् ७४ ७४७ = ३४३ राजु है। विशेषार्थ-लोकका उपर्युक्त विस्तार इलप्रकार है- लोक सर्व आकाशके मध्यमें स्थित है। उसका आयाम चौदह राजु है। पूर्व-पश्चिम तलभाग सात राजु, लोकके आधे भर्थात् सात राजु ऊपर ज कर मध्यलोकमें एक राजु, लोकके पौनभाग अर्थात् साढ़े दस राजु ऊपर जाकर ब्रह्मलोकमें पांच राजु, और पूरे चौदह राजु ऊपर जाकर लोकके अन्तिम भागमें एक राजु विस्तार है । लोकका उत्तर-दक्षिण विस्तार सर्वत्र सात राजु है । इसप्रकारके लोकके बीच एक राजु चौड़ी चतुष्कोण और चौदह राजु ऊंवी त्रसनाड़ी है । पूर्व-पश्चिम भागमें लोक घट-बड़ विस्तारवाला है । इसप्रकार लोक सात राजुके घनप्रमाण होता है। यदि इसप्रकारका लोक ग्रहण नहीं किया जायगा, तो प्रतरसमुद्धातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ कही गई दो गाथाएं निरर्थक हो जायेंगी, क्योंकि, उन गाथाओं में कहा गया मनफल लोकको अन्य प्रकारसे माननेपर संभव नहीं है। शंका-घे दोनों गाथाएं कौनसी हैं ? समाधान-ऐसी शंका करनेपर कहते हैं मुखभाग और तलभागके प्रमाणको जोड़कर आधा करो, पुनः उसे उत्सेधसे गुणा करो, पुनः मोटाईसे गुणा करो। ऐसा करनेपर वेत्रासन आकारसे स्थित अधोलोकरूप क्षेत्रका पनफल जानना चाहिये ॥९॥ विशेषार्थ-त्रासन आकारवाले अधोलोकके मुखविस्तारका प्रमाण एक राजु है और मलविस्तारका प्रमाण सात राज है। इन दोनोंको जोड़नेपर आठ हुए। उसे आधा कर अधोलोककी ऊंचाईके प्रमाण सात राजुसे गुणा करनेपर अट्ठाईस हुए। इस संख्याको मधोलोककी उत्तर-दक्षिण दिशाकी मोटाई सात गजुसे गुणा करनेपर एकसौ छ्यानवे राज हुए। यही अधोलोकका घनफल है। जैसे-७+१% ८१ ८२ = ४, ४x७ = २८, २८४७% १९६ घनराजु । १ लोयबहुमज्झदेसे रुक्खे सारव रज्जुपदरजुदा। चोद्दसरज्जुत्तुंगा तसणाली होदि गुणणामा | त्रि. सा १४३. २ सव्वागासमणंतं तस्स य बहुमज्झदेसभागम्हि । लोगोऽसंखपदेसो जगदिघणप्पमाणो हु॥ त्रि.सा. ३. ३ ति. प. १, १६५. जंबू. प. ११, १०८. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे लोगपमाणपरूवणं मूलं मझेण गुणं हसहिदद्धमुस्सेधकदिगुणिदं । घणगणिदं जाणेज्जो मुइंगसंठाणखेत्तम्हि ॥ १० ॥ ण च एदस्स लोगस्स पढमगाहाए सह विरोहो, एगदिसाए वेत्तासण-मुदिंगसंठाणदसणादो। ण च एत्थ झल्लरीसंठाणं णस्थि, मज्झम्हि सयंभुरमणोदहिपरिक्खित्तदेसेण चंदमंडलमिव समंतदो असंखेज्जजोयणरुदेण जोयणलक्खबाहल्लेण झल्लरीसमाणत्तादों। ण च दिटुंतो दारिद्रुतिएण सव्वहा समाणो, दोण्हं पि अभावप्पसंगादो । ण च तालरुक्खसंठाणमेत्थ ण संभवइ, एगदिसाए तालरुक्खसंठाणदंसणादो । ण च तइयाए गाहाए मूल के प्रमाणको मध्यके प्रमाणसे गुणा करो, पुनः मुखसहित अर्ध भागको उत्सेधकी कृति अर्थात् वर्गसे गुणा करो। ऐसा करने पर मृदंगके आकारवाले क्षेत्रमें प्राप्त घनफल जानना चहिये ॥ १०॥ विशेषार्थ-- ऊर्ध्वलोक, बीच में मोटा और ऊपर नीचे सकड़ा होनेसे मृदंगाकारक्षेत्र कहलाता है। इस मृदंगाकार ऊर्ध्वलोकका मूलभागसम्बन्धी विस्तार एक राजुसे मध्यभागके विस्तार पांच राजुको गुणा करनेपर १४५ = ५ हुए । उसमें मुखविस्तार एक राजुको जोड़कर ५+ १ = ६ आधा करनेपर ६ २ = ३ रहे। इसे ऊंचाई सातके वर्गले ७४७ = ४९ गुणा करनेपर ४९ x ३ = १४७ हुए । यही एकसौ सेंतालीस राजु ऊर्ध्वलोकका घनफल है। इसप्रकार अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके घनफलोंको जोड़ देनेपर १९६ + १४७ = ३४३ तीनसौ तेतालीस राजु सर्व लोकका घनफल होता है। और, उक्त प्रकारके इस लोकका 'हेट्ठा मज्झे उरिं वेत्तासण-झल्लरी-मुइंगणिभो' इत्यादि इस प्रथम गाथाके साथ भी विरोध नहीं है, क्योंकि, एक दिशामें वेत्रासन और मृदंग का आकार दिखाई देता है। यदि कहा जाय कि अभी बताये गए लोकमें (मध्य भागपर) झल्लरीका आकार नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि, मध्यलोकमें स्वयम्भूरमणसमुद्रसे परिक्षिप्त, तथा चारों ओरसे असंख्यात योजन विस्तारवाला और एक लाख योजन मोटाई वाला यह मध्यवर्ती प्रदेश चन्द्रमंडल की तरह झल्लरीके समान दिखाई देता है। और दृष्टान्त सर्वथा दान्तिके समान नहीं होता है, अन्यथा दोनोंके ही अभावका प्रसंग आ जायगा। यदि कहा जाय कि ऊपर बताये गए इस लोकके आकारमें तालवृक्षके समान आकार संभव नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि, एक दिशासे देखने पर तालवृक्षके समान संस्थान दिखाई देता है। और 'लोयस्स य विस्वम्भो चउप्पयारो य होइ णायव्यो' इत्यादि इस १ जंबू. प. ११, ११०. १ पुष्वावरेण लोगो मूले माझे तहेव उवरिम्मि । वरवेत्तासण शहरि-मुदिंगसंठाणपरिणामो ॥ उत्तर दक्षिणपासे संठाणो टंकछिण्णगिरिस रिसो। अहवा कुलगिरिस रिसो आयदच उरंसदरणमिओ || जबू. प ४, ४-५. ३ म प्रत्योः 'सस्सहा' इति पाठः । ४ प्रतिषु । -मेत 'इति पाठः। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. सह विरोहो, एत्थ वि दोसु दिसासु चउधिहविक्खंभदंसणादो। ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्तविरुद्धं, तस्स तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो । तम्हा एरिसो चेव लोगो त्ति घेत्तव्यो । एत्थ चोदगो भणदि- कधमणंता जीवा असंखेज्जपदेसिए लोए अच्छति । जदि एक्कम्हि आगासपदेसे एक्को चेव जीवो अच्छदि तो असंखेज्जजीवाणं थत्ती होदूण अवरेसिं जीवाणमलोगे अच्छणं पावेदि, तेसिमभावो वा। ण च तेसिमभावो अत्थि, 'अणंता जीवा' त्ति अणेण सुत्तेण सह विरोधा । ण च अलोगागासे वि सेसाणमच्छणमत्थि, लोगालोगविहायस्स अभावावत्तीदो । ण च एगागासपदसे एगो जीवो अच्छदि, 'एगजीवस्स जहण्णोगाहणा वि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता' ति चेदणाखेत्तविधाणे परूविदत्तादो । तम्हा लोगमज्झम्हि जदि ति, तो लोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवहि होदधमिदि ? ...... एत्थ परिहारो वुच्चदे- णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असंखेज्जत्तप्पसंगादो । कधं ? तीसरी गाथाके साथ भी विरोध नहीं आता है, क्योंकि, यहांपर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों ही दिशाओं में गाथोक्त चारों ही प्रकारके विष्कम्भ देखे जाते हैं। तथा लोकके उत्तर. दक्षिणभागमें सर्वत्र सात राजुका बाहल्य भी करणानुयोगसूत्रके विरुद्ध नहीं है, क्योंकि, करणानुयोगसूत्रमें सात राजुके बाहल्यके विधान व प्रतिषेधका अभाव है। इसलिए अभी कहे गए आकारवाला ही लोक है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। शंका-यहांपर शंकाकार कहता है कि असंख्यात प्रदेशवाले लोकमें अनन्त संख्यावाले जीव कैसे रह सकते हैं? यदि एक आकाशके प्रदेशमें एक ही जीव रहे, तो भी सर्व लोकमें असख्यात जीवोंकी स्थिति होकर अवशिष्ट अन्य जीवोंका अलोकाकाशमें रहना प्राप्त होता है, अथवा उन शेष जीवोंका अभाव प्राप्त होता है। किन्तु उनका अभाव है नहीं, क्योंकि, उक्त कथनका ‘जीव अनन्त हैं ' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। और न अलोका. काशमें भी शेष जीवोंका रहना बनता है, क्योंकि ऐसा माननेपर, लोक और अलोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है। दूसरी बात यह भी है कि आकाशके एक प्रदेशमें एक जीव रहता भी नहीं है, क्योंकि, 'एक जीवकी जघन्य अवगाहना भी अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र होती है ' ऐसा वेदनाखंडके वेदनाक्षेत्रविधान नामक अनुयोगद्वारमें प्रतिपादन किया गया है। इसलिये यदि लोकक मध्यमें जीव रहते हैं, तो वे लोकके असंख्यातवें भागमात्र ही होना चाहिए? समाधान- अब यहांपर इस शंकाका परिहार कहते हैं- शंकाकारका उक्त कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, उक्त कथनके मान लेनेपर पुद्गलोंके भी असंख्यातपनेका प्रसंग भा जाता है। शंका-पद्गलोंके असंख्यात होने का प्रसंग कैसे आ जावेगा? १ म प्रता' छत्ती', अ प्रती · बत्ती', क प्रतौ ' वती' इति पाठः । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] खेत्तागमे लोगावगाहणसत्तिपरूवणं [ २३ एगेगलोमागासपदे मे एक्केक्को जदि परमाणू अच्छदि, तो लोगमेत्ता परमाणू भवति, सेसपोग्गलाणमभावो चेव, अणवगासाणमत्थित्तविरोधा । ण च तेहि लोगमंत्तपरमाणूहि कम्म-सरीर-घड-पड-त्थंभादिसु एगो वि णिष्पज्जदे, अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा एक्किस्से असण्णासण्णियाए' वि संभवाभावा । होदु चे ण, सयल पोग्गलदव्यस्स अणुवलद्धिप्प संगादो, सच्चजीवाणमक्कमेण केवलणाणुष्पत्तिप्पसंगादो च । एवमइप्पसंगो मा होदि ति अवगेज्झमाणजीवाजीवसत्तष्णहाणुववत्तीदो अवगाहणधम्मिओ लोगागासोति समाधान - इस शंकाका परिहार इसप्रकार है- लोकाकाशके एक एक प्रदेश में यदि एक एक ही परमाणु रहे, तो लोकाकाशके प्रदेशप्रमाण ही परमाणु होंगे, और शेष पुगलोंका अभाव हो जायगा, क्योंकि, जिन पुगलोंको अवकाश नहीं मिला, उनका अस्तित्व मानने में विरोध आता है। तथा उन लोकमात्र परमाणुओंके द्वारा कर्म, शरीर, घट, पट और स्तम्भ आदिकों में से एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती है, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदायका समागम हुए विना एक अवसन्नासन्न संज्ञक भी स्कंधका होना संभव नहीं है । शंका- एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त पुद्गल द्रव्यकी अनुपलब्धिका प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवोंके एक साथ ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका भी प्रसंग प्राप्त होता है । विशेषार्थ -- यहांपर समस्त पुद्गलद्रव्य की अनुपलब्धिका जो दूषण दिया है, उसका अभिप्राय यह है कि घट, पटादि कार्यों के देखनेसे ही कारणरूप पुद्गल परमाणुओं के अस्तित्वका अनुमान होता है । शंकाकारके कथनानुसार जब किसी भी वस्तुकी निष्पत्ति न होगी, तो उन कार्योंके निष्पादक कारणधर्मवाले परमाणु हैं, यह कैसे जाना जा सकेगा ? अतएव घट, पटादि कार्योंकी निष्पत्तिके अभाव में पुद्गलद्रव्यके अभावका प्रसंग आता है। तथा, सर्व जीवों के एक साथ केवलज्ञानकी उत्पत्तिके प्रसंग प्राप्त होनेका जो दूषण दिया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि जब लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण असंख्यात ही परमाणु होंगे, तो उनसे प्रथम तो एक कार्मणशरीरकी उत्पत्ति ही नहीं होगी । यदि थोड़ी देर के लिए यह कल्पना कर भी ली जाय कि असंख्यात परमाणुओंसे एक कार्मणशरीर या कर्मपिंड बन भी जाता हो, जो कि जीवक ज्ञानादिक गुणोंके आवरण करनेमें समर्थ है, तो भी वह किसी एक ही जीवके गुणोंका आवरण कर सकेगा, अनन्त जीवोंका नहीं । इस प्रकार से भी सभी जीवोंके आवरक कर्मका अभाव होनेसे केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है । अथवा, किसी एक जीवके द्वारा उस कार्मणशरीरका शुक्लध्यानाग्निसे विनाश किये जानेपर समस्त ही जीवोंके केवलज्ञानकी उत्पत्ति का प्रसंग आता है । इस प्रकार का अतिप्रसंग दोष न होवे, इस लिए अवगाद्यमान जीव और अजीव १ परमाणुहि अनंताणंतहि बहुविहेहिं दव्जेहिं । ओसण्णासण्णो चि ॥ ति. प. १, १०२. अनन्तानन्तपरमाणुसंघात परिमाणादाविर्भूता उत्संज्ञासंज्ञका । त. रा. वा. ३, ३८. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २. इच्छिदव्यो खीरकुम्भस्स मधुकुंभो व्य । __ तम्हा ओगाहणलक्खणेण सिद्ध लोगागासस्स ओगाहणमाहप्पमाइरियपरंपरागदोवदेसेण भणिस्सामो । तं जहा- उस्सेहघणंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ते खेत्ते सुहुमणिगोदजीवस्स जहण्णोगाहणा भवदि । तम्हि द्विदघणलोगमेत्तजीवपदेसेसु पडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा, सिद्धाणमणंतभागमेत्ता होदण द्विदओरालियसरीरपरमाणूणं तं चेव खेत्तमोगासं जादि । पुणो ओरालियसरीरपरमाणूहितो अणंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूणं पि तम्हि चेव खेत्ते औगाहणा भवदि । पुनमणिदतेजइयपरमाणूहिंतो अणंतगुणा कम्मइयपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणेहि संचिदा पडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति', तेसि पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवीद । पुणो द्रव्योंकी सत्ता अन्यथा न बन सकनेसे क्षीरकुंभका मधुकुंभके समान अवगाहन धर्मवाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए। विशेषार्थ--जैसे क्षीरकुम्भका मधुकुम्भमें अवगाहन हो जाता है, अर्थात् मधुसे भरे हुए कलशमें तत्प्रमाणवाले धसे भरे हुए कलशका यदि दूध डाल दिया जाय, तो समस्त दध उसी में समा जाता है, ऐसी अवगाहन शक्ति देखी जाती है । उसीके समान आकाशकी भी ऐसी अवगाहना शक्ति है कि असंख्य प्रदेशी होते हुए भी उसमें अनन्त जीव और अनन्तानन्त पुद्गलोंका अवगाहन हो जाता है। __इसलिए अब हम अवगाहन लक्षणसे प्रसिद्ध लोकाकाशके अवगाहन माहात्म्यको माचार्य-परम्परागत उपदेशके अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है- उत्सेधधनांगुलके असंख्यात माग मात्र क्षत्रमें सूक्ष्म निगादिया जीवकी जघन्य अवगाहना है। उस क्षेत्रमें स्थित घनलोक मात्र जीवके प्रदेशों से प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र होकरके स्थित औदारिकशरीरके परमाणुओंका वही क्षेत्र अवकाशपनेको प्राप्त होता है । पुनः औदारिकशरीरके परमाणुओंसे अनन्तगुणे तैजस्कशरीरके परमाणुओंकी भी उसी ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है । तथा पूर्वमें कहे गए तैजस परमाणुओंसे अनन्तगुणे, उसी ही जीवके द्वारा मिथ्यात्व, अविरति भादि कारणोंसे संचित और प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अमन्त गुणे तथा सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र कर्मपरमाणु उस क्षेत्रमें रहते हैं, इसलिए उन कर्मपरमाणुओंकी भी उसी ही क्षेत्रमें १ सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अंगुल असंखभागं जहण्णयं । गो. जी. ९५. २ प्रतिषु जदि ' इति पाठः । ३ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् । अनन्तगुणे परे। त. सू. २, ३८-३९ । परमाणूहि अणंताहिं वग्गणसपणाहु होदि सका हु। ताहि अणंतहिं णियमा समयपबद्धो हवे एको ॥ ताणं समयपबद्धा सेटिअसंखेज्जभागगाणिदकमा। णतेण य तेजदुगा परं परं होदि मूहुमं खु ॥ गो. जी. २४५, २४६. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] खेत्तानुगमे लोगावगाहणसत्तिपरूवणं [ २५ ओरालिय-तेजा- कम्मइयविस्ससोवचयाणं पादेकं सव्वजीवेहि अनंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियमेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । एवमेगजीवेणच्छिद अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ते जहणखेत्तम्हि समाणो गाणो होदून विदिओ जीवो तत्थैव अच्छदि । एवमणंताणंताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । तदो अवरो जीवो हि चेव मज्झिमपदेसमंतिमं काऊण उववण्णो । एदस्स वि ओगाहणाए अनंतापंतजीवा समाणोगाहणा अच्छंति त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं । एवमेगेगपदेसा सव्वदिसासु चढावेदव्वा जाव लोगो आवुण्णो ति । एत्थ एक्केकोगाहणाए ठिदजीवाणमप्पा बहुगं भणिस्साम । तं जहा -- तेउक्काइया जीवा असंखेजा लोगा । तत्तो पुढविकाइया विसेसाहिया । आउकाइया जीवा विसेसाहिया । वाउक्काइया जीवा विसेसाहिया । तत्तो वणफदिकाइया अणंतगुणा ति । अणेण पयारेण सव्वजीवरासिणा लोगो आवुण्णो त्ति दहेदव्वं, अण्णा पुव्युत्तदोसप्पसंगादो । अवगाहना होती है । पुनः औदारिकशरीर, तैजस्कशरीर और कार्मणशरीर के विस्रसोपचयका, जो कि प्रत्येक सर्व जीवोंसे अनन्तगुणे हैं, और प्रत्येक परमाणुपर उतने ही प्रमाण हैं, उनकी भी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है । इसप्रकार एक जीवसे व्याप्त अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र उसी जघन्य क्षेत्र में समान अवगाहनावाला होकरके दूसरा जीव भी रहता है । इसीप्रकार समान अवगाहन वाले अनन्तानन्त जीवोंकी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है । तत्पश्चात् दूसरा कोई जीव, उसी ही क्षेत्रमें उसके मध्यवर्ती प्रदेशको अपनी अवगाहनाका अन्तिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ । इस जीवकी भी अवगाहनामें, समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव रहते हैं, इसप्रकार यहां भी पूर्वके समान प्ररूपण करना चाहिये । अर्थात्, उस क्षेत्र में स्थित घनलोकमात्र जीवके प्रदेशों में से प्रत्येक प्रदेशपर अनन्त औदारिकशरीरके परमाणु, औदारिकशरीर से अनन्तगुणे तैजस्कशरीर के और इससे अनन्तगुणे कार्मणशरीर के परमाणु भी हैं। पुनः इन तीनों शरीरोंके सर्व जीवोंसे अनन्त गुणित वित्रसोपचय भी उसी प्रदेशपर विद्यमान हैं। इसप्रकार समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव उसी क्षेत्र में रहते हैं । इसप्रकार से लोकके परिपूर्ण होनेतक सभी दिशाओं में लोकका एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिये | अब यहां पर उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण एक एक अवगाहनामें स्थित जीवोंका अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इसप्रकार है- तैजस्कायिक जीव असंख्यात लोकप्रमाण हैं । तैजस्कायिक जीवोंसे पृथिवीकायिक जीव विशेष अधिक हैं। पृथिवीकायिक जीवोंसे जलकायिक जीव विशेष अधिक हैं । जलकायिक जीवोंसे वायुकायिक जीव विशेष अधिक हैं । वायुकायिक जीवोंसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे हैं । इसप्रकार से सर्व जीवराशिके द्वारा यह लोकाकाश परिपूर्ण है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए, अन्यथा पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग प्राप्त होता है । १ जीवादी णंतगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्ससेोवचया । जीवेण य समवेदा एक्केकं पडि सभाणा हु ॥ गो. जी. २४९. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. सव्वजीवाणमवत्था तिविहा भवदि, सत्थाण-समुग्घादुववादभेदेण । तत्थ सत्थाणं दुविहं, सत्थाणसत्थाणं विहारवदिसत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणसत्थाणं णाम अप्पणो उप्पण्णगामे गयरे रणे वा सयण-णिसीयण-चंकमणादिवावारजुत्तेणच्छणं । विहारवदिसत्थाणं णाम अप्पणो उप्पण्णगाम-णयर-रण्णादीणि छड्डिय अण्णत्थ सयण-णिसीयणचंकमणादिवावारणच्छणं'। समुग्घादो सत्तविधो, वेदणसमुग्धादो कसायसमुग्घादो वेउव्वियसमुग्धादो मारणंतियसमुग्धादो तेजासरीरसमुग्घादो आहारसमुग्घादो केवलिसमुग्धादो 'चेदि । तत्थ वेदणसमुग्घादो णाम अक्खि-सिरो-वेदणादीहि जीवाणमुक्कस्सेण सरीरतिगुणविप्फुजणं' । कसायसमुग्घादो णाम कोध-भयादीहि सरीरतिगुणविप्फुजणं । वेउव्वियसमुग्घादो णाम देव-णेरइयाण वेउव्वियसरीरोदइल्लाणं साभावियमागारं छड्डिय अण्णागारेणच्छणं । मारणंतियसमुग्धादो णाम अप्पणो वट्टमाणसरीरमछड्डिय रिजुगईए विग्गहगईए .......... ................ __ स्वस्थान, समुद्धात और उपपादके भेदसे सर्व जीवोंकी अवस्था तीन प्रकारकी है। उनमें स्वस्थान दो प्रकारका है- स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान । उनमेंसे अपने उत्पन्न होनेके ग्राममें, नगरमें अथवा अरण्यमें सोना, बैठना, चलना आदि व्यापारसे युक्त होकर रहने का नाम स्वस्थानस्वस्थान है। अपने उत्पन्न होनेके ग्राम, नगर अथवा अरण्य आदिको छोड़कर अन्यत्र शयन, निषीदन और परिभ्रमण आदि व्यापारसे युक्त होकर रहनेका नाम विहारवत्स्वस्थान है। समुद्धात सात प्रकारका है- १ वेदनासमुद्धात, २ कषायसमुद्धात, ३ वैक्रियिकसमुद्धात, ४ मारणान्तिकसमुद्धात, ५ तेजस्कशरीरसमुद्धात, ६ आहारकशरीरसमुद्धात, और ७ केवलिसमुद्धात । उनमेंसे नेत्रवेदना, शिरोवेदना आदिके द्वारा जीवोंके प्रदेशोंका उत्कृष्टतः शरीरसे तिगुणे प्रमाण विसर्पणका नाम वेदनासमुद्धात है। क्रोध, भय आदिके द्वारा जीवके प्रदेशोंका शरीरसे तिगुणे प्रमाण प्रसर्पणका नाम कषायसमुद्धात है। वैक्रियिकशरीरके उदयवाले देव और नारकी जीवोंका अपने स्वाभाविक आकारको छोड़कर अन्य आकारसे रहनेका नाम वैक्रियिकसमुद्धात है । अपने वर्तमानशरीरको नहीं छोड़कर १तत्र तावत् उत्पन्नपुरग्रामादिक्षेत्रं तत् स्वस्थानस्वस्थानम् । गो जी. जी. प्र. ५४३. २ विवक्षितपर्यायपरिणतेन परिभ्रमितुमुचितक्षेत्रं तद्विहारवत्स्वस्थानमिति । गो. जी. जी. प्र. ५४३. ३ हंतेगमिक्रियात्वात्संभूयात्मप्रदेशाना बहिरुद्रमनं समुद्धातः । स सप्तविधः । त. रा. वा. १,२०. मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स । णिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं तु ॥ गो. जी. ६६८. वेदनादिवशेन निजशरीराज्जीवप्रदेशाना बहिःप्रदेशे तत्प्रायोग्यविसर्पणं समुद्रातः । गो. जी. जी. प्र. ५४३.. ४ तत्र वातिकादिरोगविषादिद्रव्यसंबंधः संतापापादितवेदनाकृतो वेदनासमुद्धातः । त. रा. वा. १, २०. ५ द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितक्रोधादिकृतः कषायसमुद्धातः। त. रा. वा. १, २.. ६ एकत्वपृथक्त्वनानाविधविक्रियशरीरवाक्प्रचारप्रहरणादिविक्रियाप्रयोजनो वैक्रियिकसमुद्धातः । त. रा. वा. १, २.. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] खेत्ताणुगमे समुग्धादपरूवणं [ २७ वा जावुष्पजमाणखेत्तं ताव गंतूण सरीरतिगुणबाहल्लेण अण्णा वा अंतोमुहुत्तमच्छणं । वेदण-कसायसमुग्धादा मारणंतिय समुग्धादे किरण पदंति त्ति वृत्ते ण पदंति । मारणंतियसमुग्धादो नाम बद्धपरभवियाउआणं चेव होदि । वेदण-कसायसमुग्धादा पुण बद्धाउआणमबद्धाउआणं च होंति । मारणंतियसमुग्धादो णिच्छएण उप्पज्जमाणदिसा हिमुहो होदि, ण चेअराण मेगदिसाए गमणणियमो, दससु वि दिसासु गमणे पडिबद्धत्तादो' | मारणंतियसमुग्धादस्स आयामो उकस्सेण अप्पणो उप्पज्ज माणखे तपजवसाणो, ण चेअराणमेस मोति । तेजासरीरसमुग्धादो णाम तेजइयसरीरविउब्वणं । तं दुविहं णिस्सरणपर्यं अणिस्सरणप्पयं चेदि । तत्थ जं तं णिस्सरणप्पगं तेजइयसरीरविउच्त्रणं तं पि दुविहं, ऋजुगतिद्वारा अथवा विग्रहगतिद्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रतक जाकर, शरीर से तिगुणे विस्तार से अथवा अन्यप्रकार से अन्तर्मुहूर्त तक रहनेका नाम मारणान्तिक समुद्धात है । शंका-वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात ये दोनों मारणान्तिकसमुद्धात में अन्तर्भूत क्यों नहीं होते हैं ? समाधान - वेदनास मुद्धात और कषायसमुद्धातका मारणान्तिकसमुद्धात में अन्त. भव नहीं होता है, क्योंकि, जिन्होंने परभवकी आयु बांध ली है, ऐसे जीवोंके ही मारणान्तिकसमुद्धात होता है । किन्तु वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात, बद्धायुष्क जीवोंके भी होते हैं और अबद्धायुष्क जीवोंके भी होते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात निश्चयले आगे जहां उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रकी दिशा के अभिमुख होता है । किन्तु अन्य समुद्धातोंके इस प्रकार एक दिशामें गमनका नियम नहीं है, क्योंकि, उनका दशों दिशाओंमें भी गमन पाया जाता है । मारणान्तिकसमुद्धातकी लम्बाई उत्कृष्टतः अपने उत्पद्यमान क्षेत्र के अन्त तक है, किन्तु इतर समुद्धातों का यह नियम नहीं है । तेजस्कशरीर के विसर्पणका नाम तैजस्कशरीरसमुद्धात है । वह दो प्रकारका होता है, निस्सरणात्मक और अनिस्सरणात्मक | उनमें जो निस्सरणात्मक तैजस्कशरीरविसर्पण है वह १ औपक्रमि कानुपक्रमायुःक्षयाविर्भूतमरणति प्रयोजनो मारणान्तिकसमुद्धतिः । त. रा. वा. १, २०. २ आहारकमारणांतिक मुद्धात वे कविकौ x x शेषाः पंच समुद्धाताः षदिकाः । त. रा. वा. १, २०० आहारमारणंतियदुगं पि नियमेण एगदिसिगं तु । दस दिसिगदा हु सेसा पंच समुग्धादया होंति ॥ गो. जी. ६६९. ३ जीवानुप्रहोपघात प्रवणतेजः शरीरनिर्वर्त नार्थस्तेजः समुद्धातः । त. रा. वा. १, २०० ४ तद् द्विविधं निःसरणात्मकमितरश्च । औदारिकवैक्रियिकाहारकदेहाभ्यंतरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुरनिःसरणात्मकं । यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्रद्धस्य जीवप्रदेशसंपृक्तं बहिर्मिष्क्रम्य दाझं परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावकहरितपरिपूर्णस्थालीम शिरिव पचति पक्त्वा च निवर्तते । अथ चिरमवतिष्ठते अभिसद्दार्थो भवति तदेतन्निःसरणात्मकं । त. रा. वा. २, ४९. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ३, २. सत्थमप्पसत्थं चेदि । तत्थ अप्पसत्थं बारहजोयणायामं णवजोयणवित्थारं सूचिअंगुलस्स संखेज दिमागबाहलं जासवण कुसुमसंकासं भूमिपव्वदादिदहणक्खमं, पडिवक्खर हियं सिंघणं वामंप्पभवं इच्छियखेत्तमेत्तविसप्पणं । जं तं पसत्थं तं पि एरिसं चेब, णवरि हंसधवलं दक्खिणं ससंभवं अणुकंपाणिमित्तं मारि - रोगादिपसमणक्खमं । जं तमणिस्सरणप्पयं तेजइयसरीरं तेणेत्थ अणधियारो । आहारसमुग्धादो णामपत्तिड्डीणं महारिसीणं होदि । तं च हत्थुस्सेधं हंसधवलं सव्वंगसुंदरं खणमेत्तेण अणेयजोयणलक्खगमणक्खमं अप्प डहयगमणं उत्तमंगसंभव, आणाकणिट्ठदाए असंजमबहुलदाए च लद्धप्पसरूवं । केवलिसमुग्धादो णाम दंड-कवाड - पदर - लोगपूरणभेएण चउव्विहो । तत्थ समुग्धादो नाम पुव्वसरीरबाहल्लेण तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खंभादो सादिरेयतिगुणपरिट्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोदसरज्जुविसप्पणं । कवाड समुग्धादो नाम दंड भी दो प्रकारका है, प्रशस्ततैजस और अप्रशस्ततैजस । उनमें अप्रशस्तनिस्सरणात्मक तैजस्कशरीरसमुद्धात, बारह योजन लम्बा, नौ योजन विस्तारवाला, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग मोटाईवाला, जपाकुसुमके सदृश लालवर्णवाला, भूमि और पर्वतादिके जलाने में समर्थ, प्रतिपक्षरहित, रोषरूप इन्धनवाला, बायें कंधे से उत्पन्न होनेवाला और इच्छित क्षेत्रप्रमाण विसर्पण करनेवाला होता है तथा जो प्रशस्तनिस्सरणात्मक तैजस्कशरीरसमुद्धात है, वह भी विस्तार आदि में तो अप्रशस्त तैजसके ही समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि वह हंसके समान धवलवर्णवाला है, दाहिने कंधे से उत्पन्न होता है प्राणियोंकी अनुकम्पाके निमित्तसे उत्पन्न होता है और मारी, रोग आदिके प्रशमन करनेमें समर्थ होता है । इनमेंसे जो अनिस्सरणात्मक तैजसशरीरसमुद्धात है, उसका यद्दांपर अधिकार नहीं है । जिनको ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई हैं, ऐसे महर्षियोंके आहारकसमुद्धात होता है । वह एक हाथ ऊंचा, हंसके समान धवल वर्णवाला, सर्वांगसुन्दर, क्षणमात्रमें कई लाख योजन गमन करने में समर्थ, अप्रतिहत गमनवाला, उत्तमांग अर्थात् मस्तकसे उत्पन्न होनेवाला तथा जो आज्ञाकी अर्थात् श्रुतज्ञानकी कनिष्ठता अर्थात् हीनता के होनेपर और असंयमकी बहुलता के होने पर जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया है, ऐसा है । दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणके भेदसे केवलिसमुद्धात चार प्रकारका है । उनमें जिसकी अपने विष्कंभसे कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्वशरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्वशरीर से तिगुने बाहल्यरूप दंडाकार से केवलीके जीवप्रदेशोंका कुछ कम चौदह राजु १ सं. प. सूत्र ५९ ( प्र. भाग. पृ. २९७६ तृ. भाग प्रस्तावना शंका १८, पृ. २७. २ अथोक्तविधिनाऽल्पसावद्यसूक्ष्मार्थमणप्रयोजनाऽऽहार कशरीर निर्वत्यर्थ आहारकसमुद्धातः । त. रा. वा. १, २०. गो. जी. २३६, २३७. ३ वेदनीयस्य बहुत्वादल्पत्वाश्चायुषोऽनाभोग पूर्वकमायुः समकरणार्थं दृष्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुदबुदाविर्भावोपशमदेहस्थात्मप्रदेशानां बहिःसमुद्धातनं केवलिसमुद्धातः । त. रा. वा. १, २० Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे उववादपरूवणं (२९ पुब्बिल्लबाहल्लायामेण वादवलयवदिरित्तसचखेत्तावूरणं । पदरसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तूण सबलोगावूरणं । लोगपूरणसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताणं सबलोगावूरणं । वुत्तं च - वेदण-कसाय-वेउव्वियओ य मरणंतिओ समुग्धादो । तेजाहारो छटो सत्तमओ केवलीणं तु ॥ ११ ॥ उववादो एयविहो । सो वि उप्पण्णपढमसमए चेव होदि । तत्थ उज्जुवगदीए उप्पण्णाणं खेत्तं बहुवं ण लब्भदि, संकोचिदासेसजीवपदेसादो । विग्गहो तिविहो, पाणिमुद्दा लांगलिओ गोमुत्तिओ चेदि । तत्थ पाणिमुद्दा एगविग्गहा । विग्गहो वक्को कुटिलो फैलनेका नाम दंडसमुद्धात है। दंडसमुद्धातमें बताये गये बाहल्य और आयामके द्वारा वातवलयसे रहित संपूर्ण क्षेत्रके व्याप्त करनेका नाम कपाटसमुद्धात है। केवली भगवान्के जीवप्रदेशोंका वातवलयसे रुके हुए लोकक्षेत्रको छोड़कर संपूर्ण लोकमें व्याप्त होनेका नाम प्रतरसमुद्धात है। घनलोकप्रमाण केवली भगवान के जीवप्रदेशोंका सर्व लोकके व्याप्त करनेको केवलिस मुद्धात कहते हैं। कहा भी है विशेषार्थ - पूर्वशरीरके बाहल्यरूप अथवा पूर्वशरीरसे तिगुने बाहल्यरूप दंडाकारसे, ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि जब खगासनसे विराजमान केवली भगवान् समुद्धात करते हैं उस अवस्थामें पूर्वशरीर के बाहल्यसे कुछ अधिक तिगुनी परिधिवाले दंडाकार आत्मप्रदेश होते हैं। तथा जब पद्मासनस्थ केवली भगवान् समुद्धात करते हैं, तब पूर्वशरीरसे तिगुने बाहल्यकी कुछ अधिक तिगुनी परिधिवाले दंडाकार आत्मप्रदेश निकलते हैं, इसलिए धवलाकारने 'पुवसरीरवाहल्लेण तत्तिगुणबाहल्लेण वा' ऐसा विशेषण दिया है। वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात, तैजससमुद्धात, छठा आहारकसमुद्धात और सातवां केवलिसमुद्धात इसप्रकार समुद्धात सात प्रकारका है ॥ ११॥ उपपाद एकप्रकारका है और वह भी उत्पन्न होनेके पहले समयमें ही होता है। उपपादमें ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंका क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि, इसमें जीवके समस्त प्रदेशोंका संकोच हो जाता है । विग्रह तीन प्रकारका है, पाणिमुक्ता, लांगलिक और गोमूत्रिक । इनमेसे पाणिमुक्ता गति एक विग्रहवाली होती है । विप्रह, वक्र और कुटिल, ये सब एकार्थ १ गो. जी. ६६७. २ परित्यक्तपूर्वमवस्य उत्तरमवप्रथमसमये प्रवर्तनमुपपादः । गो. जी. जी. प्र. ५४३. ३ एकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ता । त. रा. वा. २, २८. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. त्ति एगट्ठों। लांगलिओ दुविग्गो । गोमुत्तिओ तिविग्गहों । तत्थ मारणंतिएण विणा विग्गहगदीए उप्पण्णाणं उजुगदीए उप्पणपढमसमयओगाहणाए समाणा चेव ओगाहणा भवदि । णवरि दोण्हमोगाहणाणं संठाणे समाणत्तणियमो णत्थि । कुदो ? आणुपुन्विसंठाणणामकम्मेहि जणिदसंठाणाणमेगत्तविरोधा। विग्गहगदीए मारणंतियं कादृणुप्पण्णाणं पढमसमए असंखेज्जजोयणमेत्ता ओगाहणा होदि, पुव्वं पसारिदएग-दो-तिदंडाणं पढमसमए उवसंघाराभावादो। वाची नाम हैं । लांगलिका गति दो विग्रहवाली होती है। और गोमूत्रिका गति तीन विग्रहघाली होती है। इनमेंसे मारणांतिक समुद्धातके विना विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंके ऋजुगतिसे उत्पन्न जीवोंके प्रथम समयमें होनेवाली अवगाहनाके समान ही अवगाहना होती है। विशेषता केवल इतनी है कि दोनों अवगाहनाओंके आकारमें समानता का नियम नहीं है, क्योंकि, आनुपूर्वी नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले और संस्थान नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले संस्थानोंके एकत्वका विरोध है। विशेषार्थ-यहांपर जो आनुपूर्वी और संस्थान नामकर्मसे जनित आकारों में एकत्वका विरोध बताया है उसका अभिप्राय यह है कि विग्रहगतिमें जीवका आकार आनुपूर्वी मामकर्मके उदयसे होता है, क्योंकि, वहांपर संस्थाननामकर्मका उदय नहीं होता हैं। किन्तु ऋजुगतिमें आनुपूर्वी नामकर्मका उदय नहीं है, क्योंकि, आनुपूर्वी नामकर्मका उदय कार्मणकाययोगवाली विग्रहगतिमें ही होता है। ऋजुगतिमें तो कार्मणकाययोग न होकर औदारिकमिश्र या वैक्रियिकमिश्रकाययोग ही होता है और गो. कर्मकांड आदिमें इन दोनों मिश्रयोगों में संस्थान नामकर्मका उदय बताया गया है, आनुपूर्वीका नहीं। इससे सिद्ध है कि ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीवके प्रथम समयमें ही विवक्षित क्षेत्रमें उत्पत्ति हो जानेसे संस्थान नामकर्मका उदय हो जाता है । इसलिए आनुपूर्वी और संस्थान नामकर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले आकार भिन्न ही होंगे, एकसे नहीं। विग्रहगतिमें आनुपूर्वी के उदयसे जीवके पूर्व शरीरका आकार रहता है, किन्तु संस्थाननामकर्मके उदयसे वर्तमान पर्यायका आकार हो जाता है। मारणांतिक समद्धात करके विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंके पहले समय में असंख्यात योजनप्रमाण अवगाहना होती है, क्योंकि, पहले फैलाये गये एक, दो और तीन दंडोंका प्रथम समयमें संकोच नहीं होता है। १ विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यर्थः। स.सि. २, २७. विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यनन्तरम् त. रा. वा. २, २७. २म प्रत्योः ललिओ' इति पाठः । ३ द्विविग्रहा गतिलोंगलिका । त. रा. वा. २, २८. ४ त्रिविग्रहा गतिर्गोमूत्रिका । त. रा. वा. २, २८. ५ ओघ कम्मे सरगविपत्तेयाहारुरालदुग मिस्सं । उवषादपणविगुव्वदुथीणति-संठाणसंहदी गाथि ॥ गी. क. ११. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे मिच्छाइटिखेत्तपरूवणं [११ एदेहि दसहि विसेसणेहि जहासंभवं विसेसिदमिच्छाइद्विआदि-चोदसजीवसमासाणं खेत्तपरूवर्ण' कस्सामो । सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते, सव्वलोगे । कुदो ? जेण सव्वजीवरासिस्स संखेजदिभागेणूणो सव्वो जीवपुंजो सत्थाणसत्थाणरासी वदे । वेदण-कसायसमुग्धादगदजीवा वि सव्वजीवरासिस्स संखेजदिभागमेत्ता । मारणंतियसमुग्घादगदजीवा वि सव्वजीवरासिस्स संखेजदिभागमेत्ता । कुदो ? एदेसि तिण्हं रासीणं अप्पणो जीविदस्स संखेजदिभागमेत्तसमुग्घादकालत्तादो । उववादरासी पुण सव्वजीवरासिस्स असंखेजदिभागो', एगसमयसंचयादो। तेणेदे पंच वि रासिणो अणंता, तदो सव्वलोगे भवंति । विहारवदिसत्थाणनिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स इसप्रकार स्वस्थानके दो भेद, समुद्धातके सात भेद और एक उपपाद, इन दश विशेषणोंसे यथासंभव विशेषताको प्राप्त मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानोंके क्षेत्रका निरूपण करते हैं । स्वस्थानस्वस्थान, घेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात, और उपपादकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। शंका - किस कारणसे ? समाधान- चूंकि, सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागसे न्यून शेष सर्व जीवसमूह स्वस्थानस्वस्थान राशिरूप रहता है। तथा वेदनालमुद्धात और कषायसमुद्धातको प्राप्त हुए जीव भी सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मारणान्तिकसमुद्धातको प्रप्त हुए जीव भी सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागप्रमाण हैं, क्योंकि, उक्त तीन राशियोंके समुद्धातका काल अपने जीवनकालके संख्यातवें भागप्रमाण है। उपपादराशि तो सर्व जीवराशिके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि, उपपादराशिका संचय एक समयमें होता है। अतः स्वस्थानस्वस्थान आदि उक्त पांचों जीवराशियां अनन्त हैं, और इसीलिये वे सर्व लोकमें पाई जाती हैं। विशेषार्थ-आगे मिथ्यादृष्टयादि चौदह गुणस्थानोंसे तथा मार्गणास्थानोंसे जीवोंक, क्षेत्र सामान्यलोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, तिर्यक्लोक और मनुष्यलोक, इन पांच प्रकारके लोकोंकी अपेक्षा बतलाया गया है । तीनसौ तेतालास धनराजुप्रमाण सर्वलोकको सामान्यलोक कहते हैं। एकसौ च्यानवे धनराजुप्रमाण या चार राजु मोटे जगप्रतरप्रमाण लोकके अधोभागको अधोलोक कहते हैं। एकसौ सेंतालीस घनराजु या तीन राजु मोटे जगप्रतरप्रमाण लोकके ऊर्ध्वभागको ऊर्ध्वलोक कहते हैं। ऊर्ध्वलोक और अधोलोकके मध्यमें स्थित, पूर्वपश्चिम दिशामें एक राजु चौड़े, उत्तर-दक्षिण दिशामें सात राजु लम्बे और एक लाख योजन ऊंचे क्षेत्रको तिर्यक्लोक या मध्यलोक कहते हैं। ढ़ाई द्वीपप्रमाण विस्तृत अर्थात् पैंतालीस १ सामान्याधऊर्ध्वतिर्यग्मनुष्यलोकान् पंच संस्थाप्यालापः क्रियते । गो. जी. जी. प्र. टी. ५४३ २ मरदि असंखेज दिमं तस्सासंखा य विम्गहे होति । तस्सासंखं दूरे उववादे तस्स खु असखं ॥ गो. नी. ५४४. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ३, २. असंखेजदिभागे । कुदो ? ण ताव तसअपजत्तरासी विहरदि, तत्थ विहाय गदिणामकम्मस्स उद्याभावा । तसपज्जत्तरासिस्स वि संखेजदिभागो चेव विहरमाणरासी होदि । कुदो ? ममेदं बुद्धीए पडिगहिदखेत्तं सत्थाणं णाम । तत्तो वाहिं गंतूणच्छणं विहारख दिसत्थाणं । तत्थच्छणकाला सगावासे अवट्ठाणकालस्स संखेज्जदिभागो ति । दोहं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । कुदो ? चत्तारि रज्जुबाहल्लं जगपदरं अधोलोगपमाणं होदि । तिष्णि रज्जुबाहलं जगपदरमुडुलोगपमाणं होदि । एदे दोणि वि लोगे तसपज्जत्तरा सिस्स संखेज्जदिभागेण संखेज्जघणंगुलगुणिदेण ओवट्टिदे सेढीए असंखेज्जदिभागो आगच्छदिति । संखेज्ज लाख योजन चौड़े और एकलाख योजन ऊंचे क्षेत्रको मनुष्यलोक कहते हैं। एक लोकसामान्य के पांच भेद करनेका अभिप्राय यह है कि विवक्षित जीवके बताये गए क्षेत्रका ठीक परिमाण समझ में आजावे। जहां जिन जीवों का क्षेत्र सर्वलोक बताया जाये, वहां सामान्यलोकका ग्रहण करना चाहिए। जहां 'दो लोकोंका निर्देश किया जावे वहां अधोलोक और ऊर्ध्वलोक इन दो लोकोंका ग्रहण करना, जहां तीन लोकोंका निर्देश किया जाय, वहां अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोकका ग्रहण करना, तथा, जहां चार लोकका निर्देश किया जाय, वहां मनुष्यलोकको छोड़कर शेष चारों लोकोंका ग्रहण करना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । चूंकि त्रसकायिक अपर्याप्तराशि तो विहार करती नहीं हैं, क्योंकि, त्रस कायिक अपर्याप्तों में विद्वायोगति नामकर्मका उदय नहीं होता है । त्रसकायिक पर्याप्तकों के भी संख्यातवें भागप्रमाण राशि ही विहार करनेवाली होती है, क्योंकि, 'यह मेरा है' इसप्रकार की बुद्धिसे स्वीकार किया गया क्षेत्र स्वस्थान है । और उससे बाहर जाकर रहने का नाम विहारवत्स्वस्थान है । उस विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र में रहनेका काल अपने आवास में ( स्वस्थान में ) रहने के कालके संख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये विहारवत्स्वस्थान मिथ्या दृष्टि जीव दोनों लोकोंके अर्थात् अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । इसका कारण यह है कि अधोलोकका प्रमाण चार राजु मोटा जगप्रतर है और ऊर्ध्वलोकका प्रमाण तीन राजु मोटा जगप्रतर है । संख्यात घनांगुलगुणित त्रसकायिक पर्याप्तराशिके संख्यातवें भागसे इन दोनों ही लोकोंके भाजित करने पर जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है। विशेषार्थ - - त्रसकायिक पर्याप्तक जवाँका प्रमाण क्षेत्रको अपेक्षा सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग के वर्गरूप भागहारसे भाजित जगप्रतर प्रमाण बताया गया है । इस प्रमाणवाली पर्याप्त राशि भी संख्यातवें भाग प्रमाण ही विहारकरनेवाली राशि होती है । अब यदि एक पर्याप्त जीवकी मध्यम अवगाहना संख्यात घनांगुल प्रमाण मानकर उससे विहार करने वाली राशिके प्रमाणको गुणित भी किया जाय, तो भी उसका जगश्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहना सिद्ध होता है, इसलिए यह सिद्ध होता है कि विहारकरनेवाली त्रसराशि ऊर्ध्वलोक और अधोलोकके भसंख्यातवें भागमें रहती है, क्योंकि, इन दोनों लोकोंका प्रमाण जगच्छ्रेणी के वर्गसे भी बहुत अधिक है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे जीवमहल्लोगाइणापरवणं घणंगुलगुणगारो कधमवगम्मदे १ वुच्चदे- सयंपहगिंदपव्ययपरभागवियतसपजत्तरासी पहाणो इयग्कम्मभूमिजीवहिंतो दीहाउवो महल्लोगाहणो य। भोगभूमीसु पुण विगलिंदिया णत्थि । पंचिंदिया वि तत्थ सुट्ट थोवा, सुहकम्माहियजीवाणं बहुवाणमसंभवादो । सयंपहपव्वयपरभागट्ठियजीवाणमोगाहणा महल्लेत्ति जाणावणसुत्तमेदं संो पुण बारह जोयणाणि गोम्ही भव तिकोसं तु ।। ___ मरो जोयणमेगं माछो पुण जोयणसहस्सो ॥ १२ ॥ एदाओ ओगाहणाओ घणंगुलपमाणेण कीरमाणे संखेज्जाणि घणंगुलाणि हवंति, तेण संखेज्जघणंगुलगुणगारो विहारवदिसत्थाणरासिस्स ठविदो । सयंपहणगिंदपव्वदस्स परदो जहण्णोगाहणा वि जीवा अत्थि त्ति चे ण, मूलग्गसमासं काऊण अद्धं कदे वि संखेज्जघणंगुलदसणादो । तं कधं ? तत्थ ताव भमरखेत्ताणयणविधाणं भण्णिस्सामो । शंका-प्रसकायिक पर्याप्तगशिके संख्यातवें भागप्रमाण विहारवत्स्वस्थान राशिका गुणकार संख्यात घनांगुल है, यह कैसे जाना जाता है? समाधान- प्रकृतमें स्वयं प्रभनगेन्द्र पर्वतके परभागमें स्थित त्रसकायिक पर्याप्त जीवराशि प्रधान है, क्योंकि, यह राशि इतर कर्मभूमिज जीवों की अपेक्षा दीर्घायु और बड़ी अवगाहनावाली है । भोगभूमि में तो विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं और वहांपर पंचेन्द्रिय जीप भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि, शुभ कर्मके उदयकी अधिकतावाले बहुत जीवोंका होना असंभव है। स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें स्थित जीवोंकी अवगाहना सबसे बड़ी होती है, इस बातका शान कराने के लिये यह गाथासूत्र है शंख नामक द्वीन्द्रिय जीव बारह योजनकी लम्बी अवगाहनावाला होता है। गोम्ही नामक त्रीन्द्रिय जीव तीन कोसकी लम्बी अवगाहनावाला होता है। भ्रमर नामक चतुरिन्द्रिय जीव एक योजनकी लम्बी अवगाहनावाला होता है, और महामत्स्य नामक पंचन्द्रिय जीव एक हजार योजनकी लम्बी अवगाहनावला होता है। १२॥ योजनों और कोसों में कही गई इन अवगाहनाओंको घनांगुलप्रमाणसे करनेपर संख्यात घनांगुल होते हैं, इसलिये विहारवत्स्वस्थानराशिका गुणकार संख्यात घनांगुल स्थापित किया हैं। शंका-स्वयंप्रभनगेन्द्र पर्वतके उस ओर जघन्य अवगाहनावाले भी जीव पाये जाते है? समाधान-नहीं, क्योंकि, जघन्य अवगाहनारूप मूल अर्थात् आदि और उत्कृष्ट अवगाहनारूप अन्त, इन दोनोंको जोड़कर आधा करनेपर भी संख्यात धनांगुल देखे जाते हैं। उत्कृष्ट और जघन्य अवगाहनाओंको जोड़कर आधा करने पर संख्यात घनांगुल कैसे आते हैं. अगे इसका स्पष्टीकरण करनेके लिये उन द्वीन्द्रियादिकोंकी अवगाहनाओं में से पहले भ्रमर. क्षेत्रके घनफलके निकालने का विधान कहते हैं Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २. भमरखेत्तं' पुण जोयणायामं अद्धजोयणुस्सेहं जोयणद्धपरिहिविक्खभं ठविय विक्खंभद्धमुस्सहगुणमाया मेण गुणिदे उस्सेहजोयणस्स तिष्णि - अर्द्धभागा भवंति । ते घणगुलाणि कीरमाणे पण्ण रहसद - छत्तीसरूवेहि घणीकदेहि तिण्णिसय-वासट्ठिकोडीहि अट्टहत्तरिसहस्साहिय-अट्ठत्तीसलक्खेहि छस्सद छप्पण्णेहि य उस्सेधघणजोयणाणि गुणिदे पमाणघणंगुलाणि हवंति । गोम्हि आयामो उस्सेधजोयणतिष्णि चउब्भागो, तदट्ठभागो विक्खंभो, एक योजन लम्बे, आधे योजन ऊंचे और आधे योजनकी परिधिप्रमाण विष्कंभवाले भ्रमरक्षेत्रको स्थापित करके, विष्कंभके आधेको उत्सेधसे गुणा करके, जो लब्ध आवे उसे आयामसे गुणित करनेपर एक योजनके तीन भागों में से आठ भाग लब्ध आते हैं। और यही भ्रमरक्षेत्रका घनफल है । उदाहरण - भ्रमरका आयाम १ योजन, उत्सेध ३ योजन, विष्कंभ योजनकी परिधिप्रमाण । ई योजनकी स्थूल परिधि १३ योजन । ३ ÷ २ = ; x 2 = 2 ; 2 × १= 2 भ्रमर क्षेत्रका योजनोंमें घनफल । भ्रमर क्षेत्र के योजन में आये हुए घनफलके घनांगुल करनेपर आये हुए घनफलको पन्द्रहसौ छत्तीसके घन तीनसौ बासठ करोड़, हजार, छहसौ छप्पनसे गुणित करनेपर प्रमाणघनांगुल होते हैं । उदाहरण - भ्रमर क्षेत्रका उत्सेध घनयोजन में घनफल ; एक उत्सेध घनयोजन के प्रमाण घनांगुल १५३६ = ३६२३८७८६५६ प्रमाण घनांगुलोंमें भ्रमरक्षेत्रका घनफल । ४३६२३८७८६५६=१३५८९५४४९६ विशेषार्थ - एक उत्सेध योजनमें सात लाख अडसठ हजार उत्सेधसूच्यंगुल होते हैं । इस नियमसे एक उत्सेधघनयोजनके घनांगुल करनेपर उसमें सात लाख अडसठ हजार को तीनवार रखकर परस्पर गुणा करनेसे जितना लब्ध आयगा उतने उत्सेधघनांगुल होंगे । उत्सेधयेाजनसे प्रमाणयोजन पांचसौ गुणा बड़ा होता है, अतएव इन उत्सेधघनांगुलों के प्रमाणघनांगुल करनेके लिये उक्त अंगुलोंके प्रमाण में पांचसौके घनका भाग देने पर ३६२३८७८६५६ घनांगुल आ जाते हैं, और वह राशि १५३६ के घनप्रमाण पड़ती है । गोहीका आयाम उत्सेधयोजनके चार भागों में से तीन भाग प्रमाण है । विष्कंभ उत्सेधके आठवें भागप्रमाण है, और बाइल्य विष्कंभसे आधा है । गोम्ही क्षेत्रका घनफल १ सयंपहाचलपरभागट्टियखेत्ते उप्पण्णभमरस्स उक्करसोगाहणं XXX जोयणायामं अद्धजोयणुस्से हूं जोयणद्ध परिहिविक्खंभं ठविय विवखंभद्धमुस्सेहगुणमायामेण गुणिदे उस्सेहजोयणस्स तिष्णिअट्ठभागा भवति । तं वेदं । ते पमाणघणंगुला कीरमाणे एकसयपंचतीसकोडीए उणणउदिलक्ख चउवण्णसहस्स चउसय-कृण्णउदिरूहि गुणिघणं गुलाणि हवंति । तं चेदं १३५८९५४४९६ । ति. प. प. १९५ २ म प्रत्योः ' अ ' इति पाठः । इस उत्सेध घनयोजन में अड़तीस लाख, अठहत्तर Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २. ] खैत्ताणुगमे जीवमहल्लो गाहणापरूवणं [ ३५ विक्खंभद्धं बाहल्लं' । एदे तिणि वि परोप्परं गुणिदे उस्सेधजोयणघणस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि । तं पण्ण रहसद छत्तीस रूवेहि घणीकदेहि गुणिदे पमाणघणंगुलाणि होति । बारह जोयणायाम-चदुजोयणमुह संखखेत्तफलं - देण सुत्तेण आणिय मुहहीणुस्से इस हिदुस्सेहचदुब्भागेण गुणिय उस्सेहघणजोयणाणि आणि पुव्युत्तगुणगारेण गुणिदे पमाणघणंगुलाणि होति' । जोयणसहस्तायाम व्यासं तावत्कृत्वा वदनदलोनं मुखार्धवर्गयुतम् । द्विगुणं चतुर्विभक्तं सनाभिकेऽस्मिन् गणितमाहुः ॥ १३ ॥ लाने के लिये इन तीनोंके परस्पर गुणित करनेपर उत्सेधयोजनके घनका संख्यातषां भाग लब्ध आता है । इसे पन्द्रहसौ छत्तीस के घनसे गुणित करनेपर गोम्हीके घनरूप क्षेत्रके प्रमाणगुल आ जाते हैं । उदाहरण - गोहीका आयाम रेट X = १२ × ३६२३८७८६५६ X बारह योजन आयामवाले और चार योजन मुखवाले शंखक्षेत्रका क्षेत्रफल - व्यासको उतनी ही बार करके अर्थात् व्यासका जितना प्रमाण है उतनीवार व्यासको रखकर जोड़ने पर जो लब्ध आवे उसमें से मुखके आधे प्रमाणको घटाकर, मुखके आधे प्रमाणके बर्गको जोड़ दे । इसप्रकार जो संख्या आवे उसे द्विगुणित करके पश्चात् चारका भाग दे । इसप्रकार जो लब्ध आवे, उसे शंखका क्षेत्रफल कहते हैं ॥ १३ ॥ = योजन; विष्कंभरे योजन; बाहल्य योजन; र उत्सेध घनयोजनमें गोम्ही क्षेत्रका घनफल । ११९४३९३६ प्रमाण घनांगुलों में गोम्हक्षेत्रका घनफल | इस सूत्र से लाकर उस क्षेत्रफलको मुखसे हीन उत्सेधसहित उत्सेधके चौथे भागसे गुणित करके उत्सेध घनयोजन लाकर और पूर्वोक्त गुणकार से गुणित करनेपर घनरूप क्षेत्र के प्रमाणघनांगुल हो जाते हैं । १ सपहाचल परभागट्टियखेचे उप्पण्णगोहीए उपकरसोगाहणं X x उस्सेहजोयणस्स तिष्णिचउम्भागो आयामो, तदट्टभागो विक्खमो, विक्खमद्धं बाहलं । एदे तिण्णि वि परोप्परं गुणिय पमाणघणंगुले कदे एक्के कोडीए उणवीस लक्खा तेषालस हस्तणवस यक तीस रूवेहि गुणिदघणंगुला होंति । ११९४३९३६ । ति. प. प. १९५. २ आयामकदी मुहदलहीणा मुहबास अद्धत्रग्गजुदा । बिगुणा वेहेण हदा संखावत्तस्स खेत्तफलं ॥ त्रि. सा. ३२७. ३ सर्व॑पहाचलपरभागट्टियखेत्ते उप्पण्णवीइंदियस्स उक्करसोगाणा X x वारसजोयणायाम चउजोयणमुहसंखखेचफलं व्यासं तावत्कृत्वा वदनदलोनं मुखार्थवर्गयुतं । द्विगुणं चतुर्विभक्तं सनाभिकेस्मिन् गणितमाहुः ॥ एदे सुत्ते खेसफलमाणिदे तेहत्तरि उस्सेहजोयणाणि भवंति ७३ । आयामे मुहं सोहिय पुणरवि आयामसहिदमुहभजियं बाहढं णायन्त्रं संखायारट्ठिये खेते ॥ एदेण सुतेण नाहढं आणिदे पंच जोयणपमाणं होदि ५ । पुत्रमाणिद Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १, ३, २. छक्खंडागमे जीवाणं ३६]. पंचस दुस्सेह-तदद्धवित्थार- महामच्छखेत्तं पि संखेज्जाणि पमाणघणंगुलाणि होति' । एत्थ घणंगुलस्स संखेज्जदिभागं पक्खिविय अद्वेण छिण्णे वि संखेज्जाणि पमाणघणंगुलाणि होंति त्ति सिद्धं। किं च विहारवदिसत्थाणे ण तिरिक्खखेत्तस्स पमाणत्तं, किंतु देवखेत्तस्सेव, पदरंगुलस्स संखेज्जे दिभागमेत्तमुहेण संखेज्जजोयणसहस्सं विहरमाण देवोगाहणार संखेज्ज - घणंगुलतुवलभादो | तेण संखेज्जघणंगुलोगाहणाए गुणेयव्वमिदि । असंखेज्जजोयणाणि उदाहरण - शंखक्षेत्रका आयाम १२ योजन; मुख ४ योजन | १२ × १२ = १४४; १४४ ३ = १४२; १४६x२ = २९२; २९२ ÷ ४ = ७३; १२ - ४ = ८; १२ +८ = २०१ २० : ४ = ५; उत्सेध घनयोजनों में शंखक्षेत्रका घनफल | ३६५ x ३६२३८७८६५६ प्रमाण घनांगुलों में शंखक्षेत्रका घनफल । एक हजार योजन आयाम, पांचसौ योजन उत्सेध और उत्सेधके आधे अर्थात् ढाईसौ योजन विस्तारवाले महामत्स्यका क्षेत्र भी घनफलरूप करनेपर संख्यात प्रमाणघनांगुल होता है । - १४२ + ( ३ ) = १४२ + ४ = १४६; = उदाहरण - महामत्स्यका आयाम १००० योजन; उत्सेध ५०० योजन; विष्कंभ २५० । १००० x ५०० = ५०००००, ५००००० ४२५० = १२५०००००० योजनों में घनफल । १२५०००००० × ३६२३८७८६५६ = ४५२९८४८३२००००००००० प्रमाण घनांगुलों में महामत्स्यका घनफल । इसप्रकार उत्कृष्ट अवगाहनारूपसे आये हुए इन प्रमाणघनांगुलों में घनांगुल के संख्यातवें भागप्रमाण जघन्य अवगाहनाको प्रक्षिप्त करके जो जोड़ हो उसे आधेसे छिन करनेपर भी संख्यात प्रमाण घनांगुल ही रहते हैं, यह सिद्ध हुआ । दूसरी बात यह है कि विहारवत्स्वस्थानमें तिर्यचोंके क्षेत्रकी प्रमाणता (प्रधानता ) नहीं है, किन्तु देवक्षेत्रकी ही प्रधानता है, क्योंकि, प्रतरांगुल के संख्यातवें भागप्रमाण मुखरूपसे अर्थात् विष्कंभ और उत्सेधरूप से विहार करनेवाले देवोंकी संख्यात हजार योजन प्रमाण अवगाहनामें घनफलरूपसे संख्यात घनांगुल पाये जाते हैं, इसलिये विहारवत्स्वस्थान राशिको संख्यात घनांगुलरूप अवगाहनासे गुणित करना चाहिये । ७३ × ५ = ३६५ १३२२७१५७०९४४० तेहसरिभूदखे सफलं पंचजोयणबहल्लेण गुणिदे घणजोगणाणि तिष्णिसयपण्णट्ठी होंति ३६५ । एदं घणपमानंगुलाणि कदे एकल क्ख बत्तीसस इस्स- दोण्णिसय एक्कइ सरि कोर्डाओ सत्तावण्ण लक्खणवस इस्सच उस यचालीस रूहि गुणिदघणंगुलमेत्त होदि । तं चेदं १३२२७१५७०९४४० । ति. प. प. १९५ १ सयंपहाचल परभागट्टियखेत्ते उप्पण्णसम्मुच्छिममहामच्छस्स सव्वुक्करसोगाणा xx उस्सेहजोयणेण एक्स हस्तायामं पंचसदत्रिक्खमं तदद्धउस्सेहं तं पमाणंगुले कीरमाणे चउस इस्स - पंचसय एउणतीसकोडीओ चुलसीदिलक्ख-तेसीदिस इस्स- दुसयकांडिरूवेहि गुणिदपमाणवणंगुलाणि भवंति । तं चेदं ४५२९८४८३२००००००००० | वि. प. प. १९६. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे तिरियलोगपमाणपरूवणं [ ३७ विहरंता वि देवा अस्थि त्ति चे ण, तेसिं देवाणममंखेज्जदिभागत्तेण पहाणत्ताभावादो। तं कुदो णव्वदे ? 'तिरियलोगस्स संखेज्जदिभाए' त्ति वक्खाणादो । तिरियलोगस्म संखञ्जदि. भागतं कधं ? तिरियलोगो णाम जोयणलक्खसत्तभागमेत्तसूचिअंगुलबाहल्लजगपदरमेत्तो । तं पुबिल्लविहारवदिसत्थाणखेत्तेणोवट्टिदे संखेज्जरूवाणि लब्भंति । तेण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे त्ति वुत्तं । अड्डाइजखेत्तादो विहारवदिसत्थाणजीवखेत्तमसंखेजगुणं । कुदो? शंका- असंख्यात योजनप्रमाण विहार करनेवाले भी देव होते हैं ? समाधान-नहीं, क्यों के, असंख्यात योजनप्रमाण विहार करनेवाले देव सर्व देषराशिके असंख्यातवें भागमात्र हैं, अतः उनकी यहांपर प्रधानता नहीं है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-मिथ्यादृष्टिविहारवत्स्वस्थान राशि 'तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहती है। इसप्रकारके व्याख्यानसे उक्त बात जानी जाती है। शंका-मिथ्यादृष्टिविहार वत्स्वस्थान राशिके रहनेका क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यात भागमात्र कैसे है? समाधान- एक लाख योजनमें सातका भाग देनेसे जितने सूच्यंगुल लब्ध आधे तत्प्रमाण ब हल्यरूप जगप्रतरप्रमाण तिर्यग्लोक है । इसे पूर्वोक्त विहारवत्स्वस्थानरूप क्षेत्रसे भाजित करनेपर संध्यात रूप लब्ध आते हैं, इसीलिये तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें मिथ्यादृष्टि विहारवत्स्वस्थानराशि रहती है, ऐसा कहा है। विशेषार्थ-तिर्यग्लोक पूर्व-पश्चिम एक राजु चौड़ा, उत्तर दक्षिण सात राजु लम्बा, और एक लाख योजन ऊंचा है। इसे जगप्रतररूपसे करने के लिये एक लाख योजनमें सातका भाग देना चाहिये, क्योंकि, तिर्यग्लोक भी उत्तर दक्षिण सात राजु तो है ही, किन्तु पूर्व-पश्चिम जो एक राजुमात्र है उसे सात राजुप्रमाण प्रकल्पित करने के लिये उत्सेधमें सातका भाग देनेसे उत्सेध एक लाख योजनका सातवां भाग रह जाता है, और पूर्व-पश्चिममें सात गजु. प्रमाण क्षे क्षेत्र हो जाता है। इसप्रकार एक लाख योजनके सातवें भागमे जितने सूच्यंगल होंगे तत्प्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण तिर्यग्लोक आ जाता है। एक योजनमें ७६८००० सूच्यंगुल होते हैं, इसलिये एक लाख योजनके सातवें भागमें १०९७१४२८५७१३ सूच्यंगुल होंगे। अतएव १०९७१४२८५७१३ सूख्यंगुलप्रमाण जगप्रतर तिर्यग्लोक जानना चाहिये । प्रतरांगुलके संख्यातवें भागका जगप्रतरमें भाग देनेसे असपर्याप्तगशिका प्रमाण आता है, और इसके संख्यात एक भागप्रमाण विहारवत्स्वस्थानराशि है। विहारवत्स्वस्थानराशिमें एक जीवकी मध्यम अवगाहना संख्यात घनांगुल है तो उपर्युक्त राशिका कितना क्षेत्र होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करनेपर विहारवत्स्वस्थानराशिका क्षेत्र संख्यात सूच्यंगुल गुणित जगप्रतरप्रमाण भा जाता है जो तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। विहारपत्स्वस्थान जीवोंका क्षेत्र ढाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, अढ़ाई Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८) छक्खंडागमे जीवहाणं [१, ३, २. अड्डाइजम्मि संखेजपमाणघणंगुलदंसणादो। वेउब्वियसमुग्धादगदमिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदि भागे, दोण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एत्थ पुव्वं व ओवट्टणा कायव्वा । णवरि वेउब्वियसमुग्घादस्स जोदिसियरासी सत्तदंडुस्सेहो पहाणो, तेण जोइसियदेवाणं संखेज्जदिभागस्स संखेज्जघणंगुलाणि गुणगारो ठवेयव्यो । कुदो ? संखेज्जजोयणसहस्सं विउव्यमाणदेवाणमुवलंभादो । असंखेज्जजोयणाणि जिरंमिय विउव्वंता देवा अत्थि ति चे ण, तेसिं देवाणमसंखेज्जदिभागत्तादो । सगोहिखेत्तमेत्तं सव्वे देवा विउव्वंति त्ति के वि भणंति', तं ण घडदे, 'तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे' त्ति वक्खाणादो । मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिणि विसे सणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणमभावादो । मिच्छाइट्ठिस्स सत्थाणादी सत्त विसेसा सुत्तेण अणुद्दिट्ठा द्वीपमें संख्यात प्रमाण घनांगुल ही देखे जाते हैं। वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? सर्व लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, ऊर्ध्वलोक और अधोलोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, तिर्य. ग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहां पर अपवर्तना पहलेके समान कर लेना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकसमुद्धातमें सात धनुष उत्सेधरूप अवगाहनासे युक्त ज्योतिष्कदेवराशि प्रधान है, इसलिये ज्योतिष्क देवोंके संख्यातवें भागप्रमाण वैक्रियिकसमुद्धातयुक्त राशिका क्षेत्र लाने के लिये संख्यात घनांगुल गुणकार स्थापित करना चाहिये, क्योंकि, संख्यात हजार योजनप्रमाण विक्रिया करनेवाले देव पाये जाते हैं। शंका- असंख्यात योजन क्षेत्रको रोककर विक्रिया करनेवाले भी देव पाये जाते हैं ? . समाधान-नहीं, क्योंकि, असंख्यात योजनप्रमाण बिक्रिया करनेवाले देव सामान्य देवोंके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि सभी देव अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रप्रमाण विक्रिया करते हैं । परन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुई राशि 'तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहती है। ऐसा व्याख्यान देखा जाता है। . मिथ्यादृष्टि जीवराशिके शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारकसमुद्धात, तैजससमुद्धात और केवलिसमुद्धात संभव नहीं हैं, क्योंकि, इनके कारणभूत संयमादि गुणोंका मिथ्याष्टिके भभाव है। शंका- स्वस्थानादि सात विशेषण सूत्रमें नहीं कहे गये हैं, फिर भी वे मिथ्यादृष्टि १ णियणियओहिक्खेतं गाणारूवाणि तह विकुध्वंता। पूरति असुरपहुदी भाषणदेवा दस वियप्पा ॥ ति.प.३.१८२. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३.] खेत्ताणुगमे सासणादिखेत्तपरूवणं अस्थि त्ति कधं णव्यदे ? आइरियपरंपगगदुवदेसादो। किं च 'मिच्छादिट्ठी' इदि सामण्णवयणेण एदे सत्त वि मिच्छाइ ट्ठिविसेसा सूचिदा चेव, एदव्वदिरित्तमिच्छाइट्ठीणम भावादो । मेस चत्तारि वि लागा सुनेण सूचिदा चेत्र, सेसचदुण्हं लोगाणं लोगपुधभूदाणमणुवलंभादो । तम्हा सुत्तसंबद्धमवेदं वक्खाणमिदि ।। सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभाएं ॥३॥ ___एदस्स सुत्तस्स अत्थं भणिस्सामो। जदि वि सव्वगुणट्ठाणाणं पहुडिसदस्स ववत्थावाइस्स संगहणमंभवो अत्थि, तो वि सजोगिगुणट्ठाणं णो गेण्हदि । कुदो ? पुरदो भण्णमाणबाधगसुत्तदंसणादो । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउव्वियसमुग्धादपरिणदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे, तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे जीवके पाये जाते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - मिथ्यादृष्टि जीवके स्वस्थान आदि सात विशेषण पाये जाते हैं, यह बात आचार्यपरंपरासे आये हुए उपदेशसे जानी जाती है। दूसरी यह बात है कि सूत्रमें आये हुए 'मिथ्यादृष्टि' इस सामान्य वचनसे स्वस्थान आदि सात विशेषण भी मिथ्यादृष्टिके विशेष हैं, यह सूचित हो ही जाता है, क्योंकि, इनको छोड़कर मिथ्यादृष्टि जीच नहीं पाये जाते हैं। इसीप्रकार घनलोकके अतिरिक्त ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक और अढाई द्वीपसम्बन्धी लोक, ये चार लोक भी सूत्रसे सूचित हो ही जाते हैं, क्योंकि, घनलोकसे पृथग्भूत उपर्युक्त शेष चार लोक नहीं पाये जाते हैं। इसलिये स्वस्थानस्वस्थानराशि आदिका व्याख्यान सूत्रसे संबद्ध ही है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानके जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। यद्यपि व्यवस्थावाची प्रभृति शब्दके बलसे सभी गुणस्थानोंका संग्रह संभव है , तो भी यहांपर सयोगिकेवली गुणस्थानका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, आगे कहा जानेवाला इसका बाधक सूत्र देखा जाता है । स्वस्थानस्वस्थान, विहारवस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायस मुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातरूपसे परिणत हुए सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, ऊर्ध्वलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण १ सासादनसम्यग्दृष्टयादीनामयोगकेवल्यन्तानी लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १, ८. सासायणाइ सव्वे लोयस्स असंखयम्मि भागम्मि । पश्चस. २, २६. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ३. अच्छंति । तं कथं ? एदेसिं तिगृहं गुणट्ठागाणं सोधम्मीसाणरासी पहाणो । तेसिमोगाहणा सत्त हत्थुस्सेहा, अंगुलगणणाए अट्ठसट्ठिसदुस्सेधंगुलपमाणा, एदस्स दस भागविक्खंभा । कुदो ? जदो देव मणुस्स- णेरइयाणमुस्सेधो दस- णव - अट्ठतालपमाणेण भणिदो । पुणो वासर्द्ध वग्गिय विगुणिय अट्ठसट्ठिमदुस्सेधंगुलेहि गुणिय घणीकद पंचसदंगुले हि ओहदे पाणघणं गुलस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदेण तिन्हं गुणद्वाणाणं सत्थानादिरासिं ओघरासिस्स संखेजभागं संखेजदिभागं च गुणिदे तिन्हं गुणङ्काणाणं सत्थाणादिखेत्ताणि होंति । क्षेत्र में और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । शंका- -यह कैसे ? समाधान- इन तीन गुणस्थानों में सौधर्म और ऐशानकल्प संबन्धी देवराशि प्रधान है । उनकी अवगाहना सात हाथ उत्सेधरूप है, और अंगुलकी अपेक्षा गणना करनेपर एकसौ अड़सठ अंगुल प्रमाण है। इसके दशवे भागप्रमाण उस अवगाहनाका विष्कंभ है । शंका- यहांपर उत्सेधके दशवे भागप्रमाण विष्कंभ क्यों लिया है ? समाधान - चूंकि देव, मनुष्य और नारकियोंका उत्सेध दश, नौ और आठ तालके प्रमाणसे कहा गया है, इसलिये यहांपर उत्सेधके दशवें भागप्रमाण विष्कंभ लिया है । पुनः व्यासके आधेका वर्ग करके और उसे दूना करके अनन्तर एकसौ अडसठ उत्सेधके अंगुलों से गुणित करके पांचसौ अंगुलोंके घनसे अपवर्तित करनेपर प्रमाण घनांगुलका संख्यातवां भाग लब्ध आता है । इससे सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानों की स्वस्थानस्त्रस्थान आदि राशियां जो कि सासादनसम्यग्दृष्टि आदि ओघराशिके उत्तरोत्तर संख्यातवें संख्यातवें भागप्रमाण हैं, उन्हें गुणित करनेपर तीन गुणस्थानों की स्वस्थानस्वस्थान आदि राशियोंके क्षेत्र हो जाते हैं । विशेषार्थ - यहां स्वस्थानादि पदपरिणत सासादनादि तीन गुणस्थानवर्ती जीवों के अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहनेकी उपपत्ति बतलाई गई है । प्रकृतमें सौधर्म- पेशान देवराशि प्रधान है । इन स्वर्गौके एक देवकी अवगाहना ७ हाथ = १६८ उत्सेधअंगुल ऊंची तथा इसके दशमांश विष्कम्भरूप होती है। तदनुसार एक देवकी अवगाहनाका घन फल इसप्रकार आता है उत्सेध १६८ अंगुल, विष्कम्भ अंगुल । (+)' १६८ १० × २ x १६८ एक देवकी अवगाहनाके उत्सेध घनांगुल । १ प्रतिषु पहाणा' इति पाठः । ३ आ प्रतौ ' संखेज्जमागमसंखेज्जदिभागं च ' इति पाठः । २ प्रतिषु वासव्वं ' इति पाठः । " Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३.] खेत्ताणुगमे सासणादिखेत्तपरूवणं [११ णवरि वेदण-कसायखेत्ताणि णवहि गुणेयवाणि, सरीरतिगुणविक्खंभादो । विहारवेउब्बियपदाणं संखेज्जाणि घणंगुलाणि । अधवा वेदणादिणा सरीरतिगुणसमुग्धादं करेंता सुटु थोवा त्ति मज्झिमगुणगारो णवद्धरूवपमाणो होदि त्ति । एदेहि लोगे भागे हिदे लद्धं विरलेदूण एकेकस्स रूवस्स लोगं समखंडं कादूण दिण्णे एगभागो एदेहि रुद्धखेत्तं होदि । उड्डलोगपमाणं तिण्णि रज्जुबाहल्लं जगपदरं । एत्थ वि ओवट्टणा पुत्वं व कादव्वा । अधोलोगपमाणं चत्तारि रज्जुबाहल्लं जगपदर । तधा' चेव ओवट्टणा । तिरियलोगपमाणं जोयणलक्ख-सत्तभागबाहल्लं जगपदरं । एत्थ वि ओवट्टणा पुव्वं व कायव्वा । एत्थ तिरियलोगपमाणे आणिज्जमाणे विक्खंभायामेहि एगरज्जुपमाणमेव तिण्हं लोगाणम इसके प्रमाणांगुल हुए ५० २४ १६८ ९४८३२६४ ९२६१ ५०० ५००००००००००- १९५३१२५ यह राशि प्रमाणघनांगुलके संख्यातवें भाग हुई। इसे सौधर्म ईशान स्वर्गोंकी सासादनादि तीन गुणस्थानवर्ती राशियोंसे गुणा करनेपर तीनों गुणस्थानोंके स्वस्थानादि पदोंके क्षेत्रोंका प्रमाण आता है, जो तीनों लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा अढ़ाई द्वीपसे भसंख्यात. गुणा होता है। इतनी विशेषता है कि वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातका क्षेत्र लानेके लिये मूल अवगाहनाको नौसे गुणित करना चाहिये, क्योंकि, वेदना और कषाय समुद्धातमें उत्कृष्टरूपसे शरीरसे तिगुना विस्तार पाया जाता है। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातका क्षेत्र लानेके लिये संख्यात घनांगुल गुणकार होते हैं। अथवा, वेदनासमुद्धात आदिके द्वारा शरीरसे तिगुने समुद्धातको करनेवाले जीव स्वल्प हैं, इसलिये मध्यम गुणकार नौके आधेरूप अर्थात् साढ़े चार होता है। इन उपर्युक्त गुणकारोंसे लोकके भाजित करनेपर जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति लोकको समान खंड करके देयरूपसे दे देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति जो एक भाग प्राप्त होता है उतना इन गुणकारोंसे रुद्ध क्षेत्र होता है। तीन राजुबाहल्यसे युक्त जगप्रतरप्रमाण ऊर्ध्वलोक है। यहांपर भी अप वर्तना पहलेके समान करना चाहिये । चार राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौड़ा अधोलोक है। यहांपर भी पूर्वके समान अपवर्तना करना चाहिये । एक लाख योजनमें सातका भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतना मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौडा तिर्यग्लोक है। यहांपर भी अपवर्तना पहलेके समान करना चाहिये। यहां तिर्यग्लोकका प्रमाण लानेपर विष्कंभ और आयामसे एक राजुप्रमाण होते हुए भी घनलोक, ऊर्ध्वलोक और १ अ-क-प्रत्योः 'तत्था' आ प्रतौ 'तत्थ ' इति पाठः । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ३. संखेज्जदिभागे तिरियलोगो होदि त्ति के वि आइरिया भणंति, तं ॥ घडदे, पुव्वन्भुवगमेण सह विरोधा । को सो पुव्वब्भुवगमो ? चत्तारि-तिण्णि-रज्जुबाहल्लजगपदरपमाणा अध-उड्डलोगा, सत्तरज्जुबाहल्लजगपदरपमाणो सव्वलोगो त्ति । माणुसलोगपमाणं पणदालीसजायणसदसहस्सविक्खंभं जोयणसदसहस्सुस्सेधं । पुणो विक्खंभुस्सेधे अंगुलाणि करिय व्यासं षोडशगुणितं षोडशसहितं त्रिरूपरूपैर्भक्तम् । व्यासं त्रिगुणितसहितं सूक्ष्मादपि तद्भवेत्सूक्ष्मम् ॥ १५ ॥ ................................... अधोलोक, इन तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें तिर्यग्लोक है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परंतु उनका इसप्रकारका कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, इस कथनका पूर्व में स्वीकार किये गये कथनके साथ विरोध आता है। शंका- वह पहले स्वीकार किया गया कथन कौनसा है ? समाधान-चार राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौड़ा अधोलोक है। तीन राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौड़ा ऊर्ध्वलोक है । सात राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लम्बा चौड़ा सर्वलोक है, यही वह पूर्व स्वीकार किया गया कथन है।। पैतालीस लाख योजन विष्कभरूप और एक लाख योजन ऊंचा मानुषलोक है । पुनः पूर्वोक्त गुणकाररूप क्षेत्रसंबन्धी विष्कम्भ और उत्सेधके अंगुल करके व्यासको सोलहसे गुणा करे, पुनःसोलह जोड़े, पुनः तीन एक और एक अर्थात् एकसौ तेरहका भाग देवे और व्यासका तिगुना जोड़ देवे, तो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म परिधिका प्रमाण आ जाता है॥ १४ ॥ विशेषार्थ--यहांपर मंडलाकार क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण लानेकी प्रक्रिया बतलाई गई है। स्थूल मानसे तो परिधिका विस्तार व्याससे तिगुणा ले लिया जाता है, यथा-वासो तिगुणो परिही (त्रि. सा. १७) इससे भी सूक्ष्मप्रमाण दशका वर्गमूल बतलाया गया है। यथा-विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होदि (त्रि. सा ९६)। किन्तु प्रस्तुत गाथामें इस सूक्ष्मप्रमाणसे भी सूक्ष्मतर प्रमाण निकालने की प्रक्रिया बतलाई गई है, जो इसप्रकार हैउदाहरण-१ राजु व्यासके वृत्तक्षेत्रकी परिधिका प्रमाण निम्न प्रकारसे होगा १४ १६ + १६.१४३ = ३७१ : ११३ १ ११ उसीप्रकार ७ राजु वृत्तक्षेत्रकी परिधिका प्रमाण इसप्रकार होगा ७४.१६ १६+७४३- २५०१ = २२१५ राजु । ११३ ३२ १ तसणालीबहुमज्झे चित्ताय खिदीय उवरिमे भागे। अइवट्टो मणुवजगी जोयणपणदाललक्खविक्खमो। ति.प. ४, ६. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३.] खेत्ताणुगमे सासणादिखेत्तपरूवणं [१३ एदेण सुत्तेण परिठ्ठयं कादूण विक्खंभचउब्भागेण गुणिदे जादाणि पदरंगुलाणि । पुणरवि उस्सेधेण गुणिदे संखेज्जाणि घणंगुलाणि जादाणि । पुव्वं व ओवट्टणा एत्थ कायव्वा । मारणंतिय-उववादगद-सासणसम्मादिदि-असंजदसम्मादिट्ठीणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि ओघरासिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडेदूणेगभागो उववादं करेदि । तस्स वि असंखेजा भागा विग्गहगदीए उववादं करेंति त्ति ओघरासिस्स दो आवलियाए असंखेजदिभागा भागहारं ठवेदव्या । पुणो रूवूणावलियाए असंखेजदिभागो उवरि गुणगारो ठवेदव्यो । सेढीए संखेजदिभागायामविदियदंडट्ठियजीवे इच्छिय अवरो आवलियाए असंखेजदिभागो भागहारो ठवेयव्यो । उवरि घणंगुलस्स संखेजदिभागमवणिय पदरंगुलस्स संखेजदिभागं संखेजपदरंगुलाणि च गुणगारं ठविय किंचूणदिवड्डरज्जूहि गुणिय ओवट्टेयव्वं । मारणंतियस्स एवं चेव वत्तव्वं । णवरि अप्पणो रासिस्स असंखेजदिभागो मारणतियं करेदि । मारणंतियकालादो गुणकालस्स संखेजगुणत्तादो मारणंतियजीवा सगसव्वजीवेहितो संखेज्जगुणहीणा किण्ण होंति ? ण, मरंतदेवजीवहिंतो तम्हि चेव भवे मिच्छत्तं इस सूत्रके नियमानुसार परिधि करके व्यासके चौथे भागसे गुणित करनेपर प्रतरांगुल हो जाते हैं। पुनः इन प्रतरांगुलोंको उत्सेधसे गुणित करनेपर संख्यात घनांगुल हो जाते हैं । यहांपर भी पहलेके समान अपवर्तना करना चाहिये। अर्थात् इन धनांगुलोंके प्रमाणघनांगुल करनेके लिये पांचसौके घनका भाग देना चाहिये। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि. योंका इसीप्रकार कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि और भसंयतसम्यग्दृष्टि राशिको आवलीके असंख्यातवे भागसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे उतनी राशि उपपाद करती है । तथा इस उपपादराशिके असंख्यात बहुभाग प्रमाण जीव विग्रहगतिसे उपपाद करते हैं, इसलिये दो वार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण ओघराशिका भागहार स्थापित करना चाहिये । तथा एक कम आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर गुणकार स्थापित करना चाहिये । जगश्रेणीके संख्यातवें भाग लंबे दूसरे दंडमें स्थित जीवोंकी अपेक्षा फिर भी आवलीका असंख्यातवां भाग भागहार स्थापित करे और ऊपर घनांगुलके संख्यातवें भागको निकालकर उसके स्थानमें प्रतरांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण और संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण गुणकारको स्थापित करके, कुछ कम डेढ़ राजुसे गुणित करके अपवर्तित करना चाहिये, क्योंकि, मध्यलोकसे सौधर्मकल्प डेढ़ राजु ऊंचा है । मारणान्तिकसमुद्धातका भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अपने अपने गुणस्थानसंबन्धी राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण राशि मारणान्तिकसमुद्धात करती है। - शंका-मारणान्तिकसमुद्धातके कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है, इसलिए मारणान्तिकजीव अपने अपने गुणस्थानके सर्व जीवोंसे संख्यातगुणे हीन क्यों नहीं होते हैं ? Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ३, ३. पडिवज्जमाणजीवाणमसंखेज्जगुणत्तादो, उवसमसम्मत्तद्धावसेसे आउए उवसमसम्मत्तगुणं पडिवज्जंताण बहुवाणमभावादो, तत्तो तस्स संखेज्जगुणणियमाभावादो च । एत्थ उवरिमरासिस्स गुणगारो पुव्वुत्तो चेव होदि, देवरासिस्स पहाणत्तादो। उववादे पुण तिरिक्खरासी पहाणो। णवरि असंजदसम्माइट्ठि-उववादे देवा पहाणा, मारणंतिए तिरिक्खा पहाणा। सम्मामिच्छाइडिस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि, तग्गुणस्स तदुहयविरोहित्तादो। एवं संजदासंजदाणं । णवरि उववादो पत्थि, अपज्जत्तकाले संजमासंजमगुणस्त अभावादो। संजदासंजदाणमोगाहणगुणगारो घणंगुलं । मारणंतिए पदरंगुलं दादव्यं । वेगुब्बियपदेण सगरासिस्स असंखेज्जदिभागो आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागेण । संजदासंजदाणं कधं वेउव्वियसमुग्धादस्स संभवो ? ण, ओरालियसरीरस्स विउव्वणप्पयस्स विण्हुकुमारादिसु दंसणादो । संजदासंजदेसु वि मारणंतियरासी ओघरासिस्स असंखेज्जदि समाधान-नहीं, क्योंकि, मरण करनेवाले देवगतिसंबन्धी जीवोंसे उसी भयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं। अथवा, उपशमसम्यक्त्वके कालप्रमाण आयुके अवशिष्ट रहनेपर उपशमसम्यक्त्व गुणको प्राप्त होनेवाले बहुत जीव नहीं पाये जाते हैं। और मारणान्तिकसमुद्धातके कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। यहांपर उपरिम राशिका गुणकार पूर्वोक्त ही है, क्योंकि, यहां देवराशिकी प्रधानता है। उपपादमें तो तिर्यंचराशि प्रधान है। इतनी विशेषता है कि असंयतसम्य. ग्दृष्टि गुणस्थानसंबन्धी उपपादमें देव प्रधान हैं। तथा असंयतगुणस्थानसबन्धी मारणान्तिक समुद्धातमें तिर्यंच प्रधान हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद नहीं होते हैं, क्योंकि, इस गुणस्थानका इन दोनों प्रकारकी अवस्थाओंके साथ विरोध है। इसीप्रकार संयतासंयतोंका क्षेत्र जानना चाहिये । इतना विशेष है कि संयतासंयतोंके उपपाद नहीं होता है, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें संयमासंयम गुणस्थान नहीं पाया जाता हैसंयतासंयतोंकी अवगाहनाका गुणकार घनांगुल है। मारणान्तिकसमद्धातमें प्रतगंगलरूप गुणकार देना चाहिये । वैक्रियिकपदसे आक्लीके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके द्वारा भपनी राशिका असंख्यातवां भाग लेना चाहिये। शंका-संयतासंयतोंके वैक्रियिकसमुद्धात कैसे संभव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, विष्णुकुमार आदिमें विक्रियात्मक औदारिकशरीर देखा १ आह चेदेकः जीवस्थाने योगभंगे सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणायामौदारिककाययोगः औदारिकमिअकाययोगश्च तिर्यङ्मनुष्याणा, वैक्रियिक काययोगो वैक्रियिकमिश्रकाययोगश्च देवनारकाणामुक्तः, इह तिर्यङ्मनुष्याणा. मपीत्युच्यते, तदिदमार्षविरुद्धं, इत्यत्रोच्यते-न, अन्यत्रोपदेशात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडकेषु शरीरभंगे वायोरौदारिकवैक्रियिकतैजसकार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि, मनुष्याणां च । एवमप्यार्षयोस्तयाविरोधः? न विरोध; आभिप्रायकत्वात् । मीवस्थाने सर्वदेवनारकाणां सर्वकालवैक्रियिकदर्शनात् तद्योगविधिरित्याभिप्रायः। नैवं तिर्यङ्मनुभ्याणां लब्धिप्रत्यय मौकियिक सर्वेषां सर्वकालमस्ति कादाचित्कत्वाद् व्याख्याप्राप्तिदंडके वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्योक्तं । त. रा. वा. २, ४९. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३.] खेत्ताणुगमे पमत्तसंजदादिखेत्तपरूवणं [१५ भागो । कारणं पुव्वं परूविदं ।। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति जहण्णिया ओगाहणा आहुहरयणीओ', उक्कस्सिया पंचसद-पणवीसुत्तरधणूणि' । एदाओ दो वि ओगाहणाओ भरह-इरावएसु चेव होति, ण विदेहेसु, तत्थ पंचधणुस्सदुस्सेधणियमा। तत्तो थोवणुस्सेधो वा विदेहसंजदरासी जदो सव्वुक्कस्सो होदि, सो पधाणो, पंचधणुस्सदुस्सेहाविणाभावित्तादो। एत्थ अंगुलाणि कदे उस्सेहणवमभागो विक्खंभो त्ति कह परिट्ठयमद्धं करिय विक्खंभद्रेण गुणिय उस्से हेण गुणिदे संखेन्जाणि घणंगुलाणि जादाणि । एदेहि संखेजघणंगुलेहि अप्पप्पणो रासिं गुणिदे इच्छिदखेतं होदि । णवरि आहारसरीरस्स उस्सेधो एया रयणी, उस्सेहदसमभागो तस्स विक्खभो, दिव्वत्तादो । विहारे सत्थाणसमाणोगाहणमुहमच्छिण्णपउमणालसुत्तसंताणं व मूलाहारसरीराणमंतरे जीवपदेसाणमवाणादो। ण च सरीरादो-गदजीवपदेसाणं पुणो तत्थ पवेसाभावो, समुग्धादगदकेवलिजीव जाता है। ""संयतासंयतोंमें भी मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त जीवराशि ओघसंयतासंयत राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। इसके कारणका प्ररूपण पहले कर आये हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक जीवोंकी जघन्य अवगाहना साढ़े तीन रत्निप्रमाण है और उत्कृष्ट अवगाहना पांचसौ पच्चीस धनुष है । ये दोनों ही अवगाहनाएं भरत और ऐरावत क्षेत्र में ही होती हैं, विदेहमें नहीं, क्योंकि, विदेहमें पांचसौ धनुषके उत्सेधका नियम है। अतः पांचसौ पच्चील धनुषसे कुछ कम उत्सेधवाली विदेहक्षेत्रस्थ संयतराशि चूंकि सबसे अधिक होती है, इसलिये यहांपर वह राशि प्रधान है, क्योंकि, विदेहस्थ संयतराशिका पांचसौ धनुषकी ऊंचाईके साथ अविनामावसंबन्ध पाया जाता है। यहांपर अंगुलोंमें घनफल लानेके लिये मनुष्योंके उत्सेधका नौवां भाग विष्कंभ होता है, ऐसा समझकर विष्कंभकी परिधिको आधा करके और विष्कंभके आधेसे गुणित करके उत्सेधसे गुणित करनेपर संख्यात घनांगुल हो जाते हैं। इन संख्यात घनांगुलोंसे अपनी अपनी राशिके गुणित करने पर इच्छित गुणस्थानसंबन्धी क्षेत्र होता है। इतनी विशेषता है कि आहारकशरीरका उत्सेध एक रत्निप्रमाण है। तथा उत्सेधके दशवें भागप्रमाण उसका विष्कंभ है, क्योंकि, यह शरीर दिव्यस्वरूप है । विहार में इस शरीरका मुख अर्थात् विष्कम और उत्सेध स्वस्थानस्वस्थानके समान अवगाहनाप्रमाण है, क्योंकि, मूल और आहारक शरीरके अन्तरालमें पद्मनालके अच्छिन्न सूत्रसंतान के समान जीवप्रदेशोंका अवस्थान पाया जाता है। शरीरसे निकले हुए जीवप्रदेशोंका फिरसे शरीर में प्रवेश नहीं होता है, सो भी १ मध्यांगुलीकूर्परयोर्मध्ये प्रामाणिक: करः । बद्धमुष्टिकरी रनिरनिः स कनिष्ठिका । हलायु. कोष. २ आहुट्ठहत्यपहुदी पणुवीसभहियपणसयधणूणि ॥ ति. प. १, २२. - ३ पंचसयचावतुंगा xxति. प. ४, ५८. ४ प्रतिषु 'जदा' इति पाठः। ५ प्रतिषु 'अंगुलकद' इति पाठः। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [१, ३, ३. पदेसेहि वियहियारादो । एदाणि खेत्ताणि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो त्ति पमत्तादओ चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे अच्छंति, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागे। मारणंतियस्स सत्तरज्जूहि संखेजपदरंगुलगुणिदइच्छिदसंजदरासी गुणेदव्यो । तेण मारणंतियसमुग्घादगदसंजदा माणुसलोगादो असंखेजगुणे खेत्ते अच्छंति । एवं सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर समुद्धातगत केवलोके जीवप्रदेशोंके साथ व्यभिचार आ जाता है। ये सब क्षेत्र सामान्य आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिये प्रमत्तसंयत आदि राशियां चार लोकोंके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में रहती है, तथा मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती हैं। मारणान्तिकसमुद्धातका क्षेत्र लानेके लिये जिस अभीष्ट संयतराशिका क्षेत्र लाना हो उसे संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसे सात राजुओंसे गुणित करना चाहिये। इस कारण मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त हुए संयतजीव मानुषलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। विशेषार्थ- यहां प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती जीवोंका मारणान्तिकसमुद्धातसम्बन्धी क्षेत्र लाने के लिए अभीष्ट राशिको संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित करके पुनः सात राजुओंसे गुणित करनेका विधान कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि संयत जीव सौधर्मकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, और इसीलिए वे वहांतक मारणान्तिकसमुद्धात भी कर सकते हैं । सर्वार्थसिद्धि मध्यलोकसे लगाकर कुछ कम ७ राजु ऊंची है। तथा एक संयतकी उत्कृष्ट अवगाहना भी संख्यात प्रतरांगुल प्रमाण ही होती है। अतः उत्कृष्ट मारणान्तिकसमु. दातक्षेत्रकी अपेक्षा सात राजुओंसे संख्यात प्रतरांगुलोंके गुणित करनेका विधान किया गया है। एक संयतकी उत्कृष्ट अवगाहनाके प्रतरांगुल निम्न प्रकार आते हैं उत्सेध ५०० धनुष; विष्कम्भ ५०० धनुष; क्षेत्रफल १७७६४४ धनुष । - ३६६१२ परिधि ९४ १६ + १६ . ५०० १ १०१७ ८८८१२००० १०१७ ___८८८१२००० , ९६ - ८५२५९५२००० प्रतरांगुल। । ३६६१२ १ ३६६१२ प्रतरांगुल । सर्व संयतराशिका प्रमाण ८९९९९९९७ इतना है। इसमेंसे प्रमत्तादि गुणस्थानोंकी यथायोग्य राशिके संख्यातवें भागप्रमाण राशि ही मारणान्तिकसमुद्धात करती है। अतएव उससे ऊपर निकाले गये एक अवगाहनाके प्रतरांगुलोंसे गुणित करनेपर भी संख्यात प्रतरांगुल ही होते हैं । इस प्रकार मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त समस्त संयतोंका क्षेत्र संख्यात Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तागमे पमत्तसंजदादिखेत्तपरूवणं [ ४७ वेद्ण-कसाय-वेउब्वियाहार-मारणंतिय समुग्धादाणं उत्तं । णवरि तेजासमुग्धादस्स विक्खंभा - या व बारह जो पमाणे कदंगुले अण्णोणं गुणिय बाहल्लेण गुणिदे तेजासमुग्धादखेत्तं होदि । एदं तप्पा ओग्गसंखेजरूवेहि गुणिदे सव्वखेत्तसमासो होदि । ओवट्टणा पुव्वं व । अप्पमत्त संजदा सत्थाणसत्थाण-विहारव दिसत्थाणत्था केवडि खेते, चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतिय- अप्पमत्ताणं पमत्त संजदभंगो । अप्पमत्ते सेसपदा णत्थि । चदुण्हमुवसमा सत्थाणसत्थाण- मारणंतियपदेसु पमतसमा । चदुहं खवगाणं अजोगिकेवलीणं च सत्थाणसत्थाणं पमत्तसमं । खवगुवसामगाणं णत्थि वृत्तसेस पदाणि । खवगुवसामगाणं ममेदभावविरहिदाणं कधं सत्थाणसत्थाणपदस्त संभवो ? ण एस दोसो, ममेदभावसमणिदगुणेसु तहा गहणादो। एत्थ पुण अवद्वाणमेत्त गहणादो । १, ३, ३. प्रतरांगुल गुणित सात राजु होता है, जब कि तिर्यक्लोक एक लाख योजनके सातवें भागप्रमाण मोटे जगप्रतरप्रमाण है । अतः उक्त मारणान्तिक समुद्धातका क्षेत्र चारों लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होता हैं । तथा मनुष्यलोक ४५ लाख चौड़ा और १ लाख योजन ही ऊंचा है । अतः संयतोंका मारणान्तिकक्षेत्र मनुष्यलोकसे असंख्यात गुणा सिद्ध होता है । इसप्रकार उक्त क्षेत्र स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, आहारक और मारणान्तिकसमुद्धातवाले जीवोंका कहा । इतनी विशेषता है कि तैजससमुद्वातके नौ योजनप्रमाण विष्कंभ और बारह योजनप्रमाण आयाम क्षेत्रके किये हुए अंगुलोंका परस्पर गुणा करके सूच्यंगुलके संख्यातवें भागप्रमाण बाहल्यसे गुणित करनेपर तैजससमुद्वातका क्षेत्र होता है । इसे इसके योग्य संख्यातसे गुणित करनेपर तैजससमुद्धात के सर्वक्षेत्रका जोड़ होता है । यहांपर अपवर्तना पहले के समान जानना चाहिये । स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानरूपसे परिणत अप्रमत्तसंयत जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त हुए अप्रमत्तसंयतका क्षेत्र मारणान्तिक समुद्धातको प्राप्त हुए प्रमत्त संयतोंके क्षेत्रके समान होता है । अप्रमतसंयत गुणस्थानमें उक्त तीन स्थानोंको छोड़कर शेष स्थान नहीं होते हैं । उपशमश्रेणी के चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव स्वस्थान स्वस्थान और मारणान्तिकसमुद्धात, इन दोनों पदोंमें स्वस्थानस्वस्थान और मारणान्तिकसमुद्धातगत प्रमत्तसंयतोंके समान होते हैं। क्षपकश्रेणके चार गुणस्थानवर्ती क्षपक और अयोगिकेवली जीवोंका स्वस्थानस्वस्थान प्रमत्तसंयतोंके स्वस्थानस्वस्थानके समान होता है । क्षपक और उपशामक जीवोंके उक्त स्थानोंके अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। शंका- -यह मेरा है, इसप्रकार के भावसे रहित क्षपक और उपशामक जीवोंके स्वस्थानस्वस्थान नामका पद कैसे संभव है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जिन गुणस्थानों में ' यह मेरा है ' Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ३, ४. सजोगिकेवली केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जादिभागे, असंखेजेसु वा भागेषु, सव्वलोगे वा ॥ ४ ॥ ४८ ] एत्थ सजोगिकेवलस्स सत्याण सत्याण-विहारव दिसत्थाणाणं पमत्तभंगो। दंडगदो केवली केवडि खेत्ते, चउन्हं लोगान मसंखेज्जदिभागे, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणे । तं कथं ? अट्टुत्तरसदपमानंगुलाणि उस्सेधो उक्करसोगाहण केवली हो । तस्स णवमभागो विक्खंभो १२ एत्तिओ होदि । तस्स परिट्ठओ सत्ततीस अंगुलाणि पंचाणउदि - तेरस सदभागा ३७९१३ । इमं विक्खंभचउन्भागेण गुणिदे मुहपदरंगुलाणि होंति । एदाणि देसूणचोदसरज्जूहि गुणिदे दंडखेचं होदि । एदं संखेजरूवगुणं तेरासियकमेण चदुहि लोगेहि इसप्रकारका भाव पाया जाता है वहां वैसा ग्रहण किया है । परन्तु यहांपर अर्थात् क्षपक और उपशामक गुणस्थानों में अवस्थानमात्रका ग्रहण किया गया है । सयोगिकेवली जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में, अथवा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र में, अथवा सर्वलोकमें रहते हैं || ४ || यहां पर सयोगिकेवलीका स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र प्रमत्तसंयतोंके स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्रके समान होता है । दंडसमुद्वातको प्राप्त हुए केवली जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाई द्वीपसंबन्धी लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं 1 शंका - दंडसमुद्धातको प्राप्त हुए केवलियोंका उक्त क्षेत्र कैसे संभव है ? समाधान - उत्कृष्ट अवगाहनासे युक्त केवलियोंका उत्सेध एकसौ आठ प्रमाणांगुल होता है, और उसका नौंवा भाग अर्थात् बारह १२ प्रमाणांगुल विष्कंभ होता है । इसकी परिधि सैंतीस अंगुल और एक अंगुलके एकसौ तेरह भागों में से पंचानवे भाग प्रमाण ३७ ११३ होती है । इसे विष्कंभ बारह अंगुलके चौथे भाग तीन अंगुलोंसे गुणित करने पर मुखरूप बारह अंगुल लंबे और बारह अंगुल चौडे गोल क्षेत्रके प्रतरांगुल होते हैं । इन्हें कुछ कम चौदह राजुओं से गुणित करनेपर दंडक्षेत्रका प्रमाण आता है । यह एक केवलीके दंडक्षेत्रका । प्रमाण हुआ । प्रमाण क्षेत्रफल ३६ + उदाहरण – व्यास १२ अंगुलः १२x१६ + १६ ११३ ४२७६ १२ X ११३ ४ १ अतएव दंडसमुद्धातगत केवलीका क्षेत्रप्रमाण अतएव गाथा नं. १४ के अनुसार उसकी परिधिका ४२७६ ११३ ९५ = ३७ अंगुल । ११३. = ( व्यासका चतुर्थांश ) = १२८२८ ११३ १२८२८ ११३ प्रतरांगुल । x देशोन १४ राजु | I Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ४. ] खेत्तागमे सयोगिकेवलिखेत्तपरूवणं [ ४९ भागे हिदे तेसिं लोगाणमसंखेज्जदिभागो आगच्छदि । माणुसलोगेण भागे हिदे असंखेज्जाणि माणुसखेत्ताणि आगच्छंति । णवरि पलियंकेण दंडस मुग्धादगद केवलिस्स विक्खंभो पुव्वविक्खभादो तिगुणो होदि । तस्स पमाणमेदं ३६ । एदस्स परिओ तेरहुत्तरसदंगुलाणि सत्तावीस-तेरहुत्तरसदभागा ११३३ । सेसं पुत्रं व । कवाड दो केवली वडि खेत्ते, तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, (तिरियलोगस्स संखेजदिभागे) अड्डाइजादो असंखेञ्जगुणे । एत्थ कवाड गदकेवलिस्स खेत्ताणयणविहाणं बुच्चदे विशेषार्थ – यहां पर दंडसमुद्धात क्षेत्रका प्रमाण केवलीकी उत्कृष्ट अवगाहना १०८ प्रमाणांगुल लेकर बतलाया है । किन्तु इससे पूर्व ही केवली की उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष प्रमाण कही गई है । चूंकि उत्सेधांगुलसे प्रमाणांगुल ५०० गुणा होता है, इसलिए ५२५ १०० होते हैं । वर्तमान प्रकरण में विदेहक्षेत्रकी ४ ५२५x९६ ५०० धनुष के प्रमाणांगुल संयतराशि प्रधान है । अतएव यदि विदेहसम्बन्धी अवगाहना ली जाय, तो वह १०८ + ५०० = ९६ प्रमाणांगुल ही होती है । १०८ प्रमाणांगुलके धनुष ५६२ १ होते हैं जो उक्त ५२५ धनुष के प्रमाणसे बढ़ जाते हैं। इस वैषम्यका कारण विचारणीय है । ५००x९६ ५०० ९६ एक साथ समुद्धात करनेवाले संख्यात केवलियोंके दंडक्षेत्रका प्रमाण लाने के लिये इसे संख्यात से गुणित करे । इसप्रकार जो क्षेत्र उत्पन्न हो उसे त्रैराशिक के क्रमसे सामान्यलोक आदि चार लोकोंसे भाजित करनेपर उन चार लोकों में से प्रत्येक लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण दंडक्षेत्र आता है । तथा उक्त दंडक्षेत्रको मानुषलोकसे भाजित करने पर असंख्यात मानुषक्षेत्र लब्ध आते हैं । इतनी विशेषता है कि पल्यंकासन से दंडसमुद्घातको प्राप्त हुए केवलीका विष्कंभ पहले कहे हुए बारह अंगुलप्रमाण विष्कंभसे तिगुना होता है । उसका प्रमाण ३६ अंगुल है । इसकी परिधि एकसौ तेरह अंगुल और एक अंगुलके एकलौ तेरह भागोंमेंसे सत्ताईस भागप्रमाण ११३ है । उदाहरण - व्यास ३६, अतएव गाथा नं. १४ के अनुसार परिधिका प्रमाण ३६ × १६ + १६ १०८ ११३ + = ११३ १ शेष कथन पूर्वके समान है । कपाटसमुद्धातको प्राप्त हुए केवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीप से संख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । अब यहांपर कपाटसमुद्धातको प्राप्त हुए केवलीका क्षेत्र लानेका विधान कहते है = ५ २७ ११३ = Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ४. केवली पुत्राहिमुह वा उत्तराहिमुहो वा समुग्धादं करेंतो जदि पलियंकेण समुग्धादं करेदि, तो कवाड हलं छत्तीसंगुलाणि होंति । अह जइ काउस्सग्गेण कवाडं करेदि, तो वारहंगुलबाहलं कवाडं होदि । तत्थ ताव पुन्त्राहिमुहकेवलिस्स कवाडखेत्ताणयणं भण्णमाणे चोदसरज्जुआयामं सत्तरज्जुविक्खंभं छत्तीसंगुलबाहलं खेत्तं ठविय मज्झे छेनूण एकखेत्तस्वरि विदियखेत्तं ठविदे बाहत्तरिअंगुल बाहलं जगपदरं होदि । काउस्सग्गेण द्विदकेवलिकवाड खेत्तं चउव्वीसंगुलबाहल्लं होदि । उत्तराहिमुहो होतॄण पलियंकेण समुग्धादगद केव लिकवाड खेत्तं छत्तीसंगुलबाहल्लं जगपदरं होदि । इयरस्स १२ बारहंगुल बाहल्लं, वेयणार विणा तिगुणत्ताभावा । एदं खेत्तं तेरासियकमेण तिन्हं लोगाणं पमाणेण कीरमाणे तेसिं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स पुण संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं होदि । पदरगदो केवली केवडि खेते, लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु । लोगस्स असंखेजदिभागं वादवलयरुद्ध खेत्तं मोत्तूण सेसबहुभागेसु अच्छदित्ति जं वुत्तं होदि । घणलोगपमाणं तेदालीसुत्तरतिसद ३४३ घणरज्जूओ । अधोलोगपमाणं छष्णवुदिसदघणरज्जूओ केवली जिन पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर समुद्धतिको करते हुए यदि पल्यंकासन से समुद्धातको करते हैं तो कपाटक्षेत्रका बाहल्य छत्तीस अंगुल होता है । और यदि कायोत्सर्गले कपाटसमुद्धात करते हैं तो बारह अंगुलप्रमाण वाढल्यवाला कपाटसमुद्धात होता है । इनमें से पहले पूर्वाभिमुख केवलीके कपाटक्षेत्र के लाने की विधिका कथन करनेपर चौदह राजु लंबे, सात राजु चौड़े और छत्तीस अंगुल मोटे क्षेत्रको स्थापित करके उसे चौदह राजु लंबाईमेंसे बीचमें सात राजुके ऊपर छिन्न करके एक क्षेत्रके ऊपर दूसरे क्षेत्रको स्थापित कर देने पर बहत्तर अंगुल मोटा जगप्रतर हो जाता है । और कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित हुए केवलीका कपाटक्षेत्र चौवीस अंगुल मोटा जगप्रतर होता है । उत्तराभिमुख होकर पल्यंकासन से समुद्धातको प्राप्त हुए केवलीका कपाटक्षेत्र छत्तीस अंगुल मोटा जगप्रतरप्रमाण होता है। तथा इतरका अर्थात् उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्गसे समुद्धातको करनेवाले केवलीका कपाटक्षेत्र बारह अंगुल मोटा जगप्रतरप्रमाण लंबा चौडा होता है, क्योंकि, वेदनासमुद्घातको छोड़कर जीवके प्रदेश तिगुने नहीं होते हैं । यह उपर्युक्त कपाटसमुद्धातगत केवलका क्षेत्र त्रैराशिकक्रमसे सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके प्रमाणरूप से करनेपर न तीन लोकों से प्रत्येक लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा है । प्रतरसमुद्वातको प्राप्त हुए केवली जिन कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण वातवलय से रुके हुए क्षेत्रको छोड़कर लोकके शेष बहुभागों में रहते हैं, यह इस कथनका अभिप्राय है । घनलोकका प्रमाण तीन सौ तेतालीस ३४३ घनराजु है । अधोलोकका प्रमाण एकसौ छ्यान्नवे १९६ घनराजु है । 1 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ४. ] खेत्तागमे सयोगिकेवलिखेत्तपरूवणं [ ५१ १९६ । उड्डलोगपमाणं सत्तेत्तालीस सदघणरज्जूओ १४७ । उड्डलोगपमाणाणयणे सुत्तगाहामूलं मज्झेण गुणं मुहसहिदद्धमुत्सेधकदिगुणिदं । घणगणिदं जाज्जो मुदिंगसंठाणखेत्तम्हि ॥ १५ ॥ एदिस्से गाहाए अत्थो बुच्चदे - मूलं मुदिंगखेत्तस्स बुंधवित्थारं, मज्झेण मुदिंगमज्झपंचरज्जूहि सह, गुणं जुदं कादव्वं । मुहं मुदिंगमुहरूंधपमाणं, सहिदं मुदिंगमज्झेण जुदं काढूण, अद्धं अद्धं करिय समीकदं, उस्सेधकदिगुणिदं उस्सेधवग्गेण गुणिदे कदे, मुदिंगखेत्तफलं होदि । एदीए गाहाए अधोलोगघणगणिदमाणेज्जो । 'संपदि लोगपरंतदिवादवलय रुद्ध खेत्ताणयणविधाणं वुच्चदे- लोगस्स तले तिन्ह वादाणं बालं पादेकं वीससहस्सजोयणमेत्तं । तं सव्यमेगङ्कं कदे सहिजोयणसहस्सबाहलं मुह तलसमासअद्धं उस्सेधगुणं गुणं च वेहेण । घणगणि' जाणेज्जा वेत्तासणसंठिए खेत्ते ॥ १६ ॥ ऊर्ध्वलोकका प्रमाण एकसौ सैंतालीस १४७ घनराजु है । अब ऊर्ध्वलोकके प्रमाणको लाने के लिये नीचे सूत्रगाथा दी जाती है मूलके प्रमाणको मध्यके प्रमाणसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें मुखका प्रमाण जोड़कर आधा करो । पुनः इसे उत्सेधके वर्गसे गुणित करो । यह मृदंगाकार क्षेत्रमें घनफल लानेका गणित जानना चाहिये ॥ १५ ॥ अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं-मूल अर्थात् मृदंगक्षेत्र के बुभविस्तारको मृदंगक्षेत्रके मध्यविस्तार पांच राजुओंके साथ गुणित करके जोड़ दे । इसका तात्पर्य यह हुआ कि मुखको अर्थात् मृदगाकार क्षेत्र के मुखविस्तार के प्रमाणको मृदंगके मध्यविस्तार पांच राजुओं से सहित अर्थात् युक्त करके, आधा आधा करके समीकरण कर ले । अनन्तर उसे उत्सेधके वर्गसे गुणित करने पर मृदंगक्षेत्रका घनफल होता है । (देखो विशेषार्थ पृष्ठ २१ ) मुखके प्रमाण और तलभागके प्रमाणको जोड़कर आधा करे । पुनः इसे उत्सेधसे गुणित करके वेधसे गुणित करे। यह वेत्रासनके आकारवाले क्षेत्र में घनफल लानेकी प्रक्रिया जानना चाहिये ॥ १६ ॥ इस गाथाले अधोलोकका धमगणित ले आना चाहिये । अब लोकके पर्यन्त भागमें स्थित वातवलय से रुके हुए क्षेत्रके लानेकी विधिको बतलाते हैं- लोकके तलभागमें तीनों वायुओंमेंसे प्रत्येक वायुका बाहल्य वीस हजार योजन समानः । १ प्रतिपु ' गुणिदं ' इति पाठः । २ इत आरम्याप्रेतनो वातवलयप्ररूपकः प्रबन्धस्त्रिलोकप्रज्ञप्तेः प्रथमाधिकारगतेन अनेन प्रकरणेन शब्दशः Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ४. जगपदरं होइ'। णवरि दोसु वि अंतेसु साट्ठिसहस्सजोयणुस्सेहपरिहाणिखेत्तेण ऊणं एदमजोएदूण सद्विसहस्सवाहल्लं जगपदरमिदि संकप्पिय तच्छेदूण पुध द्ववेदव्वं ६०००० । पुणो एगरज्जुस्सेधेण सत्तरज्जुआयामेण सहिजोयणसहस्सबाहल्लेण दोसु वि पासेसु ट्ठिदवादखेत्तं बुद्धीए पुध करिय जगपदरपमाणेणाबद्धे वीससहस्साहियजोयणलक्खस्स सत्तभागचाहल्लं जगपदरं होदि १२०००० ।' तं पुबिल्लखेत्तस्सुवरि दुविदे चालीसजोयणसहस्सा प्रमाण है । उस सब बाहल्यको एकत्रित करनेपर साठ हजार योजन बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। इतनी विशेषता है कि पूर्व और पश्चिमके दोनों ही पार्श्वभागों में साठ हजार योजन ऊंचाईतक हानिरूप क्षेत्रकी अपेक्षा उपर्युक्त क्षेत्र हानिरूप है। फिर भी इस ऊन क्षेत्रकी गणना न करके और उसे साठ हजार योजन मोटा जगप्रतरप्रमाण संकल्प कर उसे छिन्न करके पृथक् स्थापित कर देना चाहिये। उदाहरण-अधोलोकका तलभाग ७ राजु लम्बा और ७ राजु चौड़ा है, अतएव उसका क्षेत्रफल जगप्रतरप्रमाण होगा। तलभागमें प्रत्येक वातवलय २०००० हजार योजन मोटा है, इसलिये तीनों वातवलयोंकी मोटाई ६०००० योजन होती है। इसे जगप्रतरसे गुणित कर देनेपर साठ हजार योजनोंके जितने प्रदेश होंगे उतने जगप्रतर लब्ध आते हैं। यही तलभागके वातरुद्ध क्षेत्रका घनफल है। पुनः एक राजु उत्सेधरूप, सात राजु आयामरूप और साठ हजार योजन बाहल्य. रूपसे उत्तर और दक्षिणसम्बन्धी दोनों ही पार्श्वभागों में स्थित वातक्षेत्रको बुद्धिसे पृथक् करके उसे जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर एक लाख वीस हजार योजनोंके सातवें भाग बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। उदाहरण-अधोलोकके तलभागसे ऊपर एक राजुप्रमाण बातषलयसे रुके हुए क्षेत्रका घनफल-उत्तर और दक्षिणमें पूर्वसे पश्चिमतक प्रत्येक दिशामें जगश्रेणीप्रमाण लंबा; १ राजु ऊंचा; तीनों वातवलयाका बाहल्य ६०००० योजन; दोनों दिशाओंके वायुरुद्ध क्षेत्र १२०००० योजनोंके प्रमाणमें सातका भाग देनेपर १७१४२६ योजन लब्ध आते हैं, और ऊंचाई में राजुके स्थानमें जगश्रेणीका प्रमाण हो जाता है। अतएव १७१४२६ योजनोंके जितने प्रदेश हो उतने जगप्रतरप्रमाण उत्तर और दक्षिण में अधोलोकके तलभागसे एक राजु ऊंचे क्षेत्रतक वातवलयरुद्ध क्षेत्रका घनफल होता है। १ लोयतले वादतये बाहललं सहिजोयणसहस्सं । सेढि भुजकोहिगुणिदं किंचूर्ण वाउखेत्त फलं ॥ त्रि. सा. १२७. २ किंचूणरज्जुवासो जगसे दीदीहरं हवे वेहो । जोयण सष्ठिसहस्सं सत्तमखिदिपुष्व अवरे य ॥ जगपदरसत्तभागं सद्विसहस्सेहि जोयणेहि गुणं । विगगुणिदमुभयपासे वादफलं पुब्ध अवरे य ॥ त्रि. सा. १२८, १२९. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ ] खेत्ताणुगमे सयोगिकेवलिखेत्तपरूवणं [१, ३, ४. हिय पंचण्हं लक्खाणं सत्तभागवाहल्लं जगपदरं होदि ५४०००० । पुणो अवरासु दोसु दिसासु एगरज्जुस्सेधेण तले सत्तरज्जुआयामेण मुहे सत्तभागाहियछरज्जुरुंदत्तेण सहिजोयणसहस्सबाहल्लेण ट्ठिदवादवलयखेत्ते जगपदरपमाणेण कदे वीसजोयणसहस्साहियपंचवंचासजीयणलक्खाणं तेदालीस-तिसदभागवाहल्लं जगपदरं होदि ५५२०००० ।' एवं पुचिल्लखेत्तस्सुवरि पक्खित्ते एगूणवीसलक्ख-असीदिसहस्सजोयणाहिय-तिण्हं कोडीणं तेदालीस-तिसदभागवाहल्लं जगपदरं होदि ३१९८०००० ।' पुणो सत्तरज्जुविखंभ-तेरह ३४३ इस घनफलको पहले तलभागके घनफलरूपसे आये हुए क्षेत्रमें मिला देनेपर पांच लाख चालीस हजार योजनोंके सातवें भागप्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतर होता है। १२०००० _ ५४०००० योजन मोटा जगप्रतर । उदाहरण-६०००० - पुनः दुसरी दो अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशाओं में तलभागसे एक राजु ऊंचे, तलभागमें सात राजु लंबे, एक राजु ऊपर आकर मुखमें एक राजुके सातवें भाग अधिक छह राजु लंबे, और साठ हजार योजन बाहल्यरूपसे स्थित वातवलयक्षेत्रको जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर पचवन लाख वीस हजार योजनोंके तीनसौ तेतालीसवें भागप्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतर होता है। उदाहरण- ४९ + ४३ = ९२ , ९२ २ २ - १४ , १४ ४ ३ - ९२ , १२ x ६०००० = १५२००००- । इसे जगप्रतरप्रमाणसे करनेके लिए ४९ का भाग देनेपर ५५२०००० योजनों के जितने प्रदेश होंगे उतने जगप्रतर लब्ध आ जाते हैं। पूर्व और ३४३ पश्चिममें तलभागसे एक राजुतक वातरुद्ध क्षेत्रका यही घनफल है। इसे पूर्वोक्त घनफलरूपसे आये हुए क्षेत्र में मिला देनेपर तीन करोड़ उन्नीस लाख अस्सी हजार योजनोंके तीनसौ तेतालीसवें भागप्रमाण वाहल्यरूप जगप्रतर होता है। उदाहरण ५४०००० । ५५२०००० ३१९८०००० . १० योजन मोटा जगप्रतर । ७ ३४३ ३४३ ७ १ उदयमहभूमिवेहो रज्जुससत्तमरजुसेढी य । जोयणसहिसहस्सं सत्तमखिदिदक्खिणुत्तरदो ॥ तस्स फलं जगपदरो सहिसहस्से हि जोयणेहि हदो । वाण उदिगुणो सगघणसंभजिदे उभयपास म्हि ॥ त्रि. सा. १३०, १३१. - २ सेढी छरज्जु चोद्दसजायणमायामवासमुस्से हैं । पुवघरपास जुगले सत्तमदो तिरियलोगो त्ति ॥ तव्वादरुद्धखेस जोयणच उवीसगुणिदजगपदरं । उभयदिसासंजणिदं णादव्वं गणिदकुसलेहिं ॥ त्रि. सा. १३२, १३३. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ४. रज्जुआयाम-सोलहवारह-सोलहवारहजोयणवाहल्लेण दोसु वि पासेसु द्विदवादखेत्ते जग पदरपमाणेण कदे चउसद्विसदजोयणूण-अट्ठारहसहस्सजोयणाणं तेदालीस-तिसदभागवाहल्लं जगपदरं उप्पज्जदि १५४३६ । पुणो सत्तभागाहिय-छरज्जुमूलविक्खंभेण छरज्जुउस्सेधेण एगरज्जुमुहेण सोलह-वारहजोयणबाहल्लेण दोसु वि पासेसु द्विदवादखेत्तं जगपदरपमाणेण कदे वादालीसजोयणसदस्स तेदालीस-तिसदभागबाहल्लं जगपदरं होदि ४२११ ।' पुणो एगपंच-एगरज्जुविक्खंभेण सत्तरज्जुउस्सेधेण वारह-सोलह-वारहजोयणबाहल्लेण उवरिमदोसु पुनः उत्तर और दक्षिणमें पूर्व से पश्चिमतक सात राजु विष्कंभरूपसे, सातवीं पृथिवीके तलभागसे लोकान्ततक तेरह राजु आयामरूपसे और अधोलोककी अपेक्षा सोलह, बारह और ऊर्ध्वलोककी अपेक्षा सोलह बारह योजन बाहल्यरूपसे दोनों ही पार्श्वभागोंमें स्थित वातक्षेत्रको जगप्रतररूपसे करनेपर एकसौ चौसठ योजन कम अठारह हजार योजनोंके तीनसौ तेतालीसवें भागप्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतर होता है। उदाहरण-१३ ४७ = ९१, ९१ x १४ = १२७४ १२७४ ४ २ = २५४८ । इसे जगप्रतररूपसे करनेके लिये सातसे गुणा करे और तीन सौ तेतालीस का भाग दे, तब १७८३६ . योजन मोटा जगप्रतर आता है। यह उत्तर और दक्षिणमें सातवीं पृथिवीसे ३४३ लेकर लोकान्ततक वातरुद्ध क्षेत्रका घनफल होता है। पुनः पूर्व और पश्चिम दिशामें सातवीं पृथिवीके पास एक राजुके सातवें भाग अधिक छह राजुप्रमाण मूलमें विष्कभरूपसे छह राजु उत्सेधरूपसे, मध्यलोकके पास एकराजु मुखरूप से और सोलह, बारह योजनप्रमाण बाहल्यरूपसे दोनों ही पाश्चों में स्थित वात. क्षेत्रको जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर व्यालीससौ योजनोंके तीनसौ तेतालीसवें भागप्रमाण वाहल्यरूप जगप्रतर होता है। उदाहरण- ४३ + ५ - ५० , ५० . २ - ५०, ५० , २ . ५० . ५० x १४ = ७०० , ०० x ६ = ४२०० , इसे जगातररूपसे करनेपर ४९ का भाग देनेसे ४२०० योजनोंके जितने प्रदेश हो उतने जगप्रतर लब्ध आ जाते हैं। पूर्व और पश्चिममें सातवीं पृथिवीसे मध्यलोकतक वायुरुद्ध क्षेत्रका यही घनफल है। पुनः मध्यलोकके पास एकराजु । ब्रह्मलोकके पास पांचराजु और लोकान्त में एक राजु विष्कंभरूपसे, सात राजु उत्सेधरूपसे तथा, बारह, सोलह और बारह योजनप्रमाण बाहल्य ३४३ १ उदयं भूमुह बेहो छरजु सत्तमछरज्ज रज्जू य । जोयण चोदस सत्तमतिरियो ति हु दक्खिणुत्तरदो ॥ तस्थाणिलखेतफलं उभये पासम्मि होइ जगपदरं । छस्सयजोयणगुणदं पविभत्तं सत्तवग्गे ग त्रि. सा. १३४, १३५. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ४. ] खेत्तागमे सयोगिकेवलिखेत्तपरूवणं [ ५५ वि पासेस द्विदवादखेत्तं जगपदरपमाणेण कदे अट्ठासीदिस महिय - पंचजोयणसदाणं एगूणवंचासभागबाहल्लं जगपदरं होदि । उवरि रज्जुविक्खंभेण सत्तरज्जुआयामेण किंचूणजोयणबाहल्लेण दिवादखेत्तं जगपदरपमाणेण कदे ति उत्तर- तिसदाणं वेसहस्सविसद - चालीस भाग बाहल्लं जगपदरं होदि । एदं सव्वमेत्थ मेलाविदे चउवीसकोडिसमहियसहस्सकोडीओ एगूण वीस लक्ख-तेसीदिसहस्स-चदुसद- सत्तासीदिजोयणाणं णवसहस्म-सत्तसय-सट्टिरूवाहियलक्खाए अवहिदेगभागवा हल्लं जग पदरं होदि १०२४१९८३४८७ । १०९७६० रूप से ऊर्ध्वलोक के पूर्व और पश्चिम दोनों ही पाइयोंमें स्थित वातक्षेत्रको जगप्रतर प्रमाणसे करने पर पांचसौ अठासी योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतर होता है । ५८८ उदाहरण - ५ + १ = ६; ६ ÷ २ = ३; ३ × ७ = २१: २१ x २ = ४२; ४२ x १४ = ५८८ इसे जगप्रतरप्रमाणसे करने पर ४९ का भाग देने से योजनोंके जितने प्रदेश हों उतने जगप्रतर लब्ध आते हैं । यही ऊर्ध्वलोकके पूर्व और पश्चिम दो दिशाओं के वातरुद्ध क्षेत्रका घनफल है । ४९ लोकके उपरिम भागमें एक राजु विष्कंभरूपसे, सात राजु आयामरूपसे, कुछ कम एक योजन वाल्यरूपसे स्थित वातक्षेत्रको जगप्रतरप्रमाणसे करने पर तीनसौ तीन योजनोंके दो हजार दो सौ चालीसवें भागप्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतर होता है । उदाहरण- – १ × ७ × ३ ÷ = यही लोकके अग्रभागके वातरुद्धक्षेत्रका २२४० घनफल 1 इस सर्व घनफलको एकत्रित करनेपर एक हजार चौबीस करोड़, उन्नीस लाख तेरासी हजार चारसौ सत्तासी योजनोंमें एक लाख नौ हजार सातसौ साठका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतने योजनप्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतर होता है । ३०३ उदाहरण-' ३१९८०००० १७८३६ ४२०० ५८८ + + + ३४४ ३४४ ३४३ ४९ २२४० योजन बाहल्यरूप जगप्रतर लोकके चारों ओर वातरुद्धक्षेत्रका घनफल होता है । + = १ आउड्डरज्जुसेढी जोयण चोदस य वासभुजवेहो । बम्हो ति पुव्त्र- अवरे फलमेदं चदुगुणं सव्वं ॥ पंचाहुट्ठिरज्जू भूतुंग विसत्तजोयणयं । वेहो तं चउगुणिदं खेत्तफलं दक्खिणुत्तरदो ॥ त्रि. सा. १३६, १३७. १०२४१९८३४८७ १०९७६० २ वासुदयभुजं रज्जू इगिजोयणवीस तिसदखंडेसु । सतितिसदं सेढी फलमीसिपमारुवरेि दंडवाऊणं ॥ त्रि. सा. १३८. ३ सत्तासीदिच दुस्सदसहस्सतेसीदिलक्खउणवीसं । चउवीसहियं कोडिस हस्सगुणियं तु जगपदरं ॥ सट्ठीसतसएहि णवयसहस्से गलक्खभजियं तु । सव्वं वादारुद्ध गणियं भणियं समासेण ॥ त्रि. सा. १३९ - १४०. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, ५. एदं वादरुद्धक्खेत्तं घणलोगम्हि अवणिदे पदरगदकेवलिखेत्तं देसूणलोगो होदि । एदं पदरगदकेवलिखेत्तमधोलोगपमाणेण कदे वे अधोलोगा अधोलोगस्स चदुब्भागेण सादिरेगेण ऊणया । उड्डलोगपमाणेण कदे दुवे उड्डलोगा उड्ढलोगस्स तिभागेण देसणेण सादिरेया । लोगपूरणगदो केवली केवडि खेत्ते, सबलोगे । आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छाइट्ठिः प्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे ॥५॥ इस बातरुद्धक्षेत्रको घनलोकसे घटा देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र कुछ कम लोक प्रमाण होता है। प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका यह क्षेत्र अधोलोकके प्रमाणरूपसे करनेपर कुछ अधिक अधोलोकके चौथे भागसे कम दो अधोलोकप्रमाण होता है। तथा इसे ही उप्रलोकके प्रमाणरूपसे करनेपर उप्रलोकके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक दो उप्रलोकप्रमाण होता है। विशेषार्थ-जगश्रेणीके जितने प्रदेश हों उतने जगप्रतरप्रमाण सर्व लोक है। इसमेंसे १०२४१९८३४८७ योजनप्रमाण जगप्रतरोंके घटा देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र होता है। अधोलोकका प्रमाण १९६ घनराजु है, इसलिये यदि इसे अधोलोकके प्रमाणरूपसे किया जाय तो दो अधोलोकोंके प्रमाण ३९२ घनराजुओंमेंसे १० २४१९८३४८७ योजनप्रमाण जगप्रतर अधिक अधोलोकके चौथे भागप्रमाण ४९ घनराजु घटा देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र आ जाता है । उर्ध्वलोकका प्रमाण १४७ घनराजु है, इसलिये यदि इस क्षेत्रको ऊर्ध्वलोकके प्रमाणरूपसे किया जाय तो ऊर्ध्वलोकके एक तिहाई घनराजु ४९ मेंसे १०२४ १९८३४८" योजनप्रमाण जगप्रतरोंको घटाकर जितना शेष रहे उसे दो ऊर्ध्वलोकके प्रमाण २९५ घनराजुओंमें जोड़ देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र आ जाता है। लोकपूरणसमुद्धातको प्राप्त केवली भगवान् कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। आदेशकी अपेक्षा गत्यनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानके जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥५॥ १००७६० १गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवी नारकाणां चतुर्पु गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभागःस. सि. १, ८. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ५.] खेत्ताणुगमे णेरइयखेत्तपरूवणं एत्थ ' आदेसेण ' गहणं ओघपडिसेधफलं । गदिगहणमिंदियादिपडिसेहफलं । अणुवादगहणं सुत्तस्स अकटिवुत्तपरूवणफलं । णिरयगदिणिदेसो देवगदियादिपडिसेधफलो। णेरइएसु त्ति वयणं तत्थतणपुढविकाइयादिपडिसेधफलं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे इदि वुने सेसलोगाणं कधं गहणं होदि ? ण, खेत्त-फोसणसुत्ताणं देसामासिगत्तादो। संपदि सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-उब्बियसमुग्धादगद-मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते, चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एदस्स अत्थपरूवणट्ठमेत्थोगाहणा वुच्चदे । तं जहा- पढमाए पुढवीए पढमपत्थडम्हि णेरइयाणमुस्सेधो तिणि हत्था । तेरहमपत्थडे सत्त धणू तिण्णि हत्था छ अंगुलाणि णेरइयाणमुस्सेधो होदि । मुह-भूमिविसेसम्हि दु उच्छेहभजिदम्हि सा हवे वडी। वडी इच्छागुणिदा मुहसहिदा सा फलं होदि ॥ १७ ॥ इस सूत्रमें आदेश पदके ग्रहण करनेका फल ओघका प्रतिषेध करना है। गति पदके ग्रहण करनेका फल इन्द्रियादिका प्रतिषेध करना है। अनुवाद पदके ग्रहण करनेका फल सूत्रके अकर्तृकत्वका प्ररूपण करना है। नरकगति पदके निर्देश करनेका फल देवगति आदिका प्रतिषेध करना है । नारकियों में इसप्रकारके वचनके देनेका फल वहांके क्षेत्रमें रहनेवाले पृथिवीकायिक आदिका प्रतिषेध करना है। शंका-लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, केवल इतना कहनेपर शेष लोकोंका ग्रहण कैसे हो सकता है? __ समाधान नहीं, क्योंकि, क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वारके सूत्र देशामर्शक हैं, इसलिये 'लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। इतने पदके कहनेसे शेष लोकोंका भी ग्रहण हो जाता है। अब विशेष पदोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि नारकियोंका क्षेत्र कहते हैं- स्वस्थानखस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि नारकी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातचे भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं और अढ़ाईद्वीपप्रमाण मानुषलोकसे संख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। अब इसके अर्थके प्ररूपण करनेके लिये यहांपर नारकियोंकी अवगाहना कहते हैं । वह इसप्रकार है-- पहली पृथिवीके पहले पाथड़ेमें नारकियोंका उत्सेध तीन हाथ है। तेरहवें पाथड़ेमें सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल नारकियोंका उत्सेध है। भूमिमेंसे मुखको घटाकर उत्सेधका भाग देनेपर जो लब्ध आवे वह वृद्धिका प्रमाण होता है । अब जिस पटलके नारकियोंके उत्सेधका प्रमाण लाना हो उसे इच्छा मानकर उससे - १सत्त-त्ति-छदंड-हत्थंगुलाणि कमसो हवंति घम्माए। चरिमिंदयम्मि उदओ। ति.प.२,२१७. रयणप्पभाए नेरइयाणं xx सरीरोगाहणा xxx उकासेणं सत्त धणूई तिणि रयणीओ छच्च अंगुलाई। जीवाभि.३, २, १२. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ३, ५. rate गाहाए सेसएक्कारसपत्थडणेरइयाण मुस्सेधा आणेयव्वा । तेसिं पमाणमेदं 'प्रस्तार १ २ ३ ५ ७ ८ ९ १० ११ धनुष ० १ १ ४ ४ ५ ६ ७ हस्त १ २ २ १ ३ १ ० २ ० ३ अंगुल ० ८३ १७ १३ १० १८३ ३ ११३ २० ४३ | १३ | २१३ ६ ५८ ] ४ २ ६ ३ ० २ वृद्धि गुणित कर दो, और मुखका प्रमाण जोड़ दो। इसका जो फल होगा वही इच्छित पाथड़ेके नारकियों का उत्सेध समझना चाहिये ॥ १७ ॥ विशेषार्थ - यद्यपि द्वितीयादि नरकों में प्रथमादि नरकोंके अन्तिम पटलके नारकियोंका उत्सेध मुख हो जाता है, परन्तु प्रथम नरक में पहले पाथड़ेके ही नारकियोंका उत्सेध मुख रहेगा । अतएव उक्त गाथाके नियमानुसार पहले नरकके पहले पाथड़ेके नारकियोंका उत्सेध नहीं निकाला जा सकता है । पहले नरक में पदका प्रमाण १२ और शेष नरकोंमें जहां जितने पाथड़े होंगे वहां उतना पदका प्रमाण रहेगा। पहले नरक में दूसरा पाथड़ा पहला और अन्तिम पाथड़ा बारहवां गिना जायगा । १२ १३ ७ उदाहरण -- प्रथम नरकमें मुखका प्रमाण ३ हाथ और भूमिका प्रमाण ७ धनुष ३ हाथ, ६ अंगुल होता है । एक धनुषमें ४ हाथ, और १ हाथमें २४ अंगुल होते हैं। इस प्रमाणके अनुसार मुखके अंगुल ३x२४ = ७२ तथा भूमिके अंगुल ७x४+३x२४+६= ७५० १३ ७२ = ६५ = ५६३ अं. हुए । उक्त गाथानुसार इसकी प्रक्रिया करनेपर ७५० २ हाथ ८३ अंगुल होते हैं, यह प्रथम पृथिवीके प्रति पटल में वृद्धिका प्रमाण है । = 1 अब यदि हमें प्रथम नरकके पांचवें पटलका उत्सेधप्रमाण निकालना है तो पूर्वोक्त नियमानुसार ५६३ अंगुलको ४ से गुणितकर प्रथम पटलके उत्सेधका प्रमाण उसमें जोड़ देना चाहिये । १३३ × ४ + ७२ = २२६ + ७२ = २९८ अं. = १२ हा. १० अं. = ३ ध १० अं. यही प्रथम पृथिवीके पांचवें पटलके नारकियोंके उत्सेधका प्रमाण है । इस उपर्युक्त गाथा के नियमानुसार पहले नरकके पहले और तेरहवें पाथड़ेके अतिरिक्त शेष ग्यारह पाथड़ेके नारकियोंका उत्सेध ले आना चाहिये। उन अवगाहनाओंका प्रमाण यह है- (देखो मूलका नकशा ) । = १ प्रतिषु केवलमङ्का एव निहिताः न प्रस्तारादिपदानि । तानि तु सुबोधार्थमस्माभिः सर्वत्र योजितानि । २ रयणष्पहपुर्त्याए उदओ सीमंतणामपडलाम्म | जीवाणं इत्थतियं सेसेसुं हाणिवडीओ || आदी अंते सोहिय रूऊणद्धाहिदम्मि हाणिचया । मुहसहिदे खिदिएद्धे नियणियपदरेसु उच्छेदो ॥ हाणिचयाण पमाणं घम्माए होति दोणि इत्थाई । अट्ठगुलाणि अंगुल भागो दोहिं वित्तो य ॥ एकधणुमेक्कहत्थो सत्तरसंगुलदलं च णिरयम्मि | इगिदंडोतियहत्थो सत्तरसं अंगुलाणि रोरुगए ॥ दो दंडा दो हत्था मंतम्मि दिवडूमंगुलं होदि । उन्मंते दंडतियं दहंगुलाणि च उच्छे हो ॥ तिय दंडा दो हत्था अट्ठारह अंगुलाणि पव्वद्धं । संभंतणामईंदय उच्छे हो पढमपुढवीए ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ५.] खेत्ताणुगमे णेरइयखेत्तपरूवणं [५९ विदियपुढविएक्कारसपत्थडे णेरइयाणमुस्सेधो पण्णरह धणूणि वे हत्था वारह अंगुलाणि । सेसदसपत्थडणेरइयाणमुस्सेधो पुबिल्लगाहाए आणेदव्यो। तेसिं पमाणमेदंप्रस्तार | १ २ ३ ४ ५ ६ । ७ ८ ९ १० | ११| धनुष | ८ ९ ९ १० ११ १२ १२ | १३ | १४ । १४ ।१ हस्त - २ ० ३ २ १ ० ३ | | अंगुल |२२२२६ १८६ १४३१०१९७१९ ३३२३३१९१२१५३३।१२ दूसरी पृथिवीके ग्यारहवें पाथड़े में नारकियोंका उत्सेध पन्द्रह धनुष, दो हाथ, बारह अंगुल है। प्रथमादि शेष दश पाथड़ोंके नारकियोंका उत्सेध पूर्वोक्त गाथाके नियमानुसार ले आना चाहिये । उन अवगाहनाओंका प्रमाण यह है-(देखो मूलका नकशा)। विशेषार्थ-इस दूसरी पृथिवीमें मुखका प्रमाण ७ धनुष, ३ हाथ, ६ अंगुल और भूमिका प्रमाण १५ धनुष, २ हाथ, १२ अंगुल है। तथा, प्रतिपटल वृद्धिका प्रमाण २ हाथ, २०२ अंगुल है। चत्तारो चावाणि सत्तावीसं च अंगुलाणि पि । होदि असंभंति दिय उदओ पढमाइ पुढवीए ॥ चत्तारो कोदंडा तिय हत्था अंगुलाणि तेवीसं । दलिदाणि होदि उदओ विभतयणामि पडलम्मि ॥ पंच च्चिय कोदंडा एको हत्थो य वीस पव्वाणि । तदियम्मि उदओ पण्णत्तो पढमखोणीए॥ छ च्चिय कोदंडाणि चत्तारो अंगुलाणि पव्वद्धं । उच्छेहो णादवो पडलम्मि य तसिदणामम्मि || वाणासणाणि छ चिय दो हत्था तेरसंगुलाणि पि। वकंतणामपडले उच्छेही पदमपदवीए ॥ सत्त य सरासणाणि अंगुलया एकवीस पबद्धं । पडलम्मि य उच्छेहो होदि अवकंतणामम्मि ॥ सत्त विसिखासणाणि हत्थाई तिणि छच्च अंगुलयं । चरमिदयम्मि उदओ विकते पढमपुढवीए ॥ ति.प. २,२१८-२३०. १ दोच्चाए xx उकोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइजातो रयणी भो । जीवाभि. ३, २, १२. २ दो हत्था वीसंगुल एकारसभजिद दो वि पव्वाई । एयाई वडीओ मुहसहिदे होति उच्छेहो ॥ अट्ठ वि. सिहासणाणि दो हत्था अंगुलाणि चउवीसं । एकारसभजिदाई उदवो पुण विदियवसुहाए॥णव दंडा बावीसंगुलाणि एक्कारसम्मि चउपव्वं । भजिदाओ सो भागो विदिए वसुहाय उच्छेहो ॥ णव दंडा तिय हत्थं चउरुत्तरदोसयाणि पव्वाणि । एकारसभजिदाई उदओ मणइंदयम्मि जीवाणं ॥ दस दंडा दो हत्था चोद्दस पव्वाणि अट्ठ मागा य । एकारसेहिं मजिदा उदओ तणगिंदयम्मि बिदियाए ॥ एक्कारस चावाणिं एको हत्थो दसंगुलाणि पि । एकारसहिददसंसा उदओ धादिंदयम्मि बिदियाए ॥ बारस सरासणाणि पवाणिं अट्ठहत्तरी होति । एक्कारस भजिदाणिं संघादे णारयाण उच्छेहो ॥ बारस सरासणाणि तिय हत्था तिण्णि अंगुलाणि च । एकारसहियतिभाया उदओ जिभिदअम्मि विदियाए ॥ तेवण्णाण य हत्था तेवीसा अंगुलाणि पणभागा । एकारसेहिं मजिदा जिब्भगपडलम्मि उच्छेहो । चोद्दस दंडा सोलसजुत्ताणि दोसयाणि पव्वाणि । एकारसभजिदाहिं लोलयणामाम्म उच्छेहो॥ एकोणसहि हत्था पणरस अंगुलाणि णव भागा । एक्कारसेहिं भजिदा लोल यणामम्मि उच्छेहो ॥ पण्णरसं कोदंडा दो हत्था बारसंगुलाणि च । अंतिमपडले थणलोलगाम्मि विदियाय उच्छेहो ॥ ति. प. २, २३१-२४२. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ३, ५. तदियपुढविणवमपत्थडम्हि णेरइयाणमुस्सेधो एकत्तीस धणूणि एगो हत्थो य। सेसहपत्थडणेरइयाणमुस्सेधो पुविल्लगाहाए आणेदव्यो । णवरि एत्थ एकत्तीस धणूणि सहत्थाणि भूमी होदि । पण्णरस धणूणि वे हत्था वारह अंगुलाणि मुहं होदि । भूमीदो मुहं सोहिय उस्सेधेण णवहि भागे हिदे वड्डी होदि । तं वढेि णवसु ठाणेसु ठविय एगादिएगुचरेहि गुणगारेहि गुणिय मुहम्मि पक्खित्ते इच्छिदउस्सेधो होदि । तस्स पमाणमेद | प्रस्तार १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ ७ । ८ ९ धनुष | १७ | १९ | २० | २२ | २४ | २६ | २७ / २९ ३१ हस्त | १ ० ३ | २ १ ० ३ २ १ | अंगुल १०३ ९३८६३ | ५३ | ४ | २३ |१३/० चउत्थपुढविसत्तमपत्थडणेरइयाणमुस्सेधो वासट्ठी धणूणि वे हत्था य'। एदं भूमि तीसरी पृथिवीके नौवें पाथड़ेमें नारकियोंका उत्सेध इकतीस धनुष और एक हाथ है।शेष आठ पाथड़ोंके नारकियोंका उत्लेध पूर्व गाथाके नियमानुसार ले आना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहांपर इकतीस धनुष और एक हाथ भूमि है। पन्द्रह धनुष, दो हाथ और बारह अंगुल मुख है। भूमिमेंसे मुखको घटाकर उत्सेध (पद्) नौ का भाग देनेपर वृद्धिका प्रमाण आता है । (तीसरी पृथिवीमें प्रतिपटल वृद्धिका प्रमाण १ धनुष, २ हाथ और २२३ अंगुल है।) इस वृद्धिको नौ स्थानों में स्थापित करके एक आदि एकोत्तर गुणकारोंसे गुणित करके मुखमें मिला देनेपर इच्छित पाथड़ेके नारकियों का उत्सेध आता है। उसका प्रमाण यह है-(देखो मूलका नकशा)। __चौथी पृथिवीके सातवें पाथड़े नारकियोंका उत्सेध वासठ धनुष और दो हाथ है। १ तच्चाएxxउकोसेणं एक्कतीस धणूई एक्का रयणी । जीवामि. ३, २, १२. २ एक्क धणू दो हत्था बावीस अंगुलाणि दो भागा । तियभजिदं णायव्वा मेघाए हाणिवुड़ीओ ॥ सत्तरसं चावाणि चोचीसं अंगुलाणि दो भागा । तियभजिदा मेवाए उदओ तत्तिदयम्मि जीवाणं ॥ एककोणास दंडा अ संगुलाणि तिहिदाणि । तसिदिंदयम्मि तदियक्खोणीए णारयाण उच्छेहो॥ वीसस्स दंडसहियं सीदीए अंगुलाणि होदि तदा । तदियं चिय पुटवीए तवाणिंदयणारयम्मि उच्छेहो ॥णउदिपमाणा हत्था सियविहत्ताणि वीस पव्व तंवर्णिदयठिदाण जीवाण उच्छेहो ॥ सत्ताणउदी हत्था सोलस पव्वाणि तियविहवाणि । उदओ णिदाघणामाए पडले णारया जीवा ॥ छब्बीसं चावाणिं चत्तारी अंगुलाणि मेघाए। पजलिवणामपडले ठिदाण जीवाण उच्छेहो ॥ सत्तावीसं दंडा तिय इत्था अट्ठ अंगुलाणि च । तियभजिदाई उदओ उज्जलिदे णारयाण णादवो॥ एकोणतीस दंडा दो हत्या अंगुलाणि चत्तारि । तियभजिदाई उदओ संजलिदे तदियपुटवीए ॥ इकर्तासं दंडाए एक्को इत्थो अ तदिय. पुरवीए । संपज्जलिदे चरिमिंदयणारयाण होदि उच्छेहो ॥ ति. प. २, २४३-२५२, ३चउत्थीए ४ वासट्ठी धणूई दोपण रयणीओ। जीवाभि. ३, २, १२. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ५. ] तागमे रइयखेत्तपरूवणं करिय सेस-छ- पत्थडणेरइयाणमुस्सेधो आणदव्वो । तस्स पमाणमेदं ३ ४ ५ ४४ ४९ ५३ प्रस्तार १ धनुष ३५ हस्त ર अंगुल २०४ २ ४० ० १७ २ ० १३४ १० ६ धनुष ७५ हस्त ० ८७ २ ० पंचमपुढविपंचम पत्थडणेरइयाणमुस्सेधो पणुवीसुत्तरसदधणूणि । एदं भूमिं करिय सेसचदुण्हं पत्थडाणमुस्सेधो आणदव्वो । तेसिं पमाणमेदं प्रस्तार १ २ ३ १०० ४ ११२ - ६ ५८ ० ३७ ५ १२५ ७ ६२ ० [ ६१ इसे भूमिरूप से स्थापित करके शेष छह पाथड़ों में नारकियोंका उत्सेध ले आना चाहिये । उसका प्रमाण यह है- ( देखो मूलका नकशा ) । विशेषार्थ - - इस पृथिवी में मुख का प्रमाण ३१ धनुष, १ हाथ और भूमिका प्रमाण ६२ धनुष, २ हाथ है । तथा, प्रतिपटल वृद्धिका प्रमाण ४ धनुष, १ हाथ और २०४ अंगुल है । पांचवीं पृथिवीके पांचवें पाथड़े में नारकियोंका उत्सेध एकसौ पच्चीस धनुष है 1 इसे भूमिरूपसे स्थापित करके शेष चार पाथड़ोंके नारकियों का उत्सेध ले आना चाहिये । उसका प्रमाण यह है- ( देखो मूलका नकशा ) । विशेषार्थ - पांचवीं पृथिवीमें मुखका प्रमाण ६२ धनुष, २ हाथ और भूमिका प्रमाण १२५ धनुष है । तथा प्रतिपटल वृद्धिका प्रमाण १२ धनुष और २ हाथ है । १ च दंडा इगि हत्थो पत्राणि वस सच पाहता । चउ भागा तुरिमाए पुढवी हाणिवडीओ ॥ पणतीस दंडाए हत्थाई दोणि वीस पव्वाणि । सत्ताहिदा चउभागा उदओ आरट्टिदाण जीवाणं ॥ चालीसं कोदंडा बीसम्महिअं सयं च पध्वाणि । सप्तद्दिदं उच्छे हो तुरिमाए मारपडलजीवाणं । चउदाल चावाणिं दो हत्था अंगुलाणि पणउदी । सतहिदो उच्छेहो तारिंदयसंठिदाण जीवाणं || एक्कोणवण्ण दंडा बाहत्तरि अंगुला य सतहिदा । चच्चिदयम्मि तुमक्खोणीए णारयाण उच्छेदो || तेवण्णा चावाणिं दो इत्था अट्ठताल पव्त्राणि । सतहिदाणिं उदओ दमर्गिदयसंठियाण जीवाणं || अट्ठावण्णा दंडा सत्तहिदा अंगुला य चउवीसं । घार्दिदयम्मि तुरिमक्खोणीए णारयाण उच्छेहा ॥ बासट्ठी कोदंडा हत्थाई दोणि तुरिमपुढवीए । चरिमिंदयम्मि खलखलणामाए णारयाण उच्छेद्दो ॥ ति. प. २,२५३-२६० २ पंचमी पणवीसं धणुसयं । जीवामि ३.२, १२. ३ बारस सरासणाणिं दो हत्था पंचमीय पुढवीए । खयवड्डीए पमाणं णिद्दिठं वीयराएहिं | पणदत्वरिपरिमाणा कोदंडा पंचमी पुढवीए । पढर्मिदयम्मि उदओ तमणामे संठिदाण जीवाणं || सत्तासीदी दंडा दो हत्था पंचमीए खोणी | पडलम्मिय भमणामे णारयजीवाण उच्छेहो || एक्कं कोदंडगं झसणामे णारयाण उच्छे हो । चावाणि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ३, ५. छट्ठी पुढवी तदियपत्थडणेरइयाणमुस्सेधो अड्डाइज्जसदधणूणि । एदं भूमिं करिय सेसदोहं पत्थडाणमुस्सेधो आणदव्वो । तस्स पमाणमेदं -- २ ३ २५० तेसिं पमाणमेदं प्रस्तार धनुष हस्त अंगुल धनुष १ १६६ २ १६ सत्तमा पुढवीए रइयाणमुस्सेधो पंचसदधणूणि । २०८ १ ८ प्रस्तार १ धनुष एत्थ रइए उस्से अट्टमभाग विक्खंभो त्ति कट्टु परिट्ठयमद्धं करिय विक्खंभद्वेण गुणियुस्सेहेण गुणिदे णेरइयाणमोगाहणा होदि । ओगाहणं पडि सत्तमपुढवी ० ० छठवीं पृथिवीके तीसरे पाथड़े में नारकियों का उत्सेध ढाईसौ धनुष है। इसे भूमिरूपसे स्थापित करके शेष दो पाथड़ोंके नारकियोंका उत्सेध ले आना चाहिये । उसका प्रमाण यह है- (देखो मूलका नकशा है विशेषार्थ -- छठी पृथिवी में मुखका प्रमाण १२५ धनुष और भूमिका प्रमाण २५० । तथा प्रतिपटल वृद्धिका प्रमाण ४१ धनुष, २ हाथ और १६ अंगुल है । सातवीं पृथिवीके नारकियोंका उत्सेध पांचसौ धनुष है । उसका प्रमाण यह है( देखो मूलका नक्शा ) । यहां नारकियों में उत्सेधके आठवें भागप्रमाण विष्कम्भ होता है. ऐसा समझकर, विष्कम्भकी परिधिको आधा करके, और विष्कम्भके आधेसे गुणित करके उत्सेधसे गुणित करने पर नारकियोंकी अवगाहना होती है । अवगाहनाकी अपेक्षा सातवीं पृथिवी प्रधान है, ५०० बारमुत्तरसयमेक्कं अंधयम्मि दो हत्था | एक्कं कोदंडसयं अम्महियं पंचवीसरूवेहिं । धूमप्पहाए चरिमिंदयम्मि तिमिसम्म उच्छे हो । ति प. २, २६१-२६५. १ छट्ठीए X अड्डाइज्जाई घणुसयाई । जीवामि ३, २, १२. २ एक्कत्तालं दंडा हत्थाई दोणि सोलसंगुलया । छट्टीए व सहाए परिमाणं हाणिवड्डीए ॥ छासट्ठी अधियसयं कोदंडा दोण्णि होंति हत्था य । सोलस पव्वा य पुढं हिमपडलगदाण उच्छेदो || दोणि सयाणि अड्डा उत्त दंडाणि अंगुलाणं च । बत्तीसं छट्ठीए वंदलठिदजीव उच्छे हो ॥ पण्णासम्महियाणिं दोणि सयाणि सरासणाणि च । लल्लंकणामइंदयठिदाण जीवाण उच्छे हो । ति प. २, २६६-२६९. ३ सत्तमाए X पंचधणुसया । जीवामि ३.२, १२. ४ पंचसयाई घणूणि सत्तम अवणीइ अवधिठाणम्मि । सव्वेसिं णिरयाणं का उच्छे हो जिणादेसी ॥ ति. प. २, २७०. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३ १, ३, ५.] खेत्ताणुगमे णेरइयखेत्तपरूवणं पधाणा, पढमपुढविओगाहणादो सत्तमपुढविओगाहणाए संखेज्जगुणत्तुवलंभादो। दव्यं पडि पढमपुढवी पहाणा, सेसपुढविदव्वादो पढमपुढविदव्वस्म असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । ओगाहणगुणगारादो दव्वगुणगारो बहुगो त्ति पढमपुढवी पहाणा कायव्वा । सामण्णेण एत्थ अत्थपदं वुच्चदे । सत्थाणसत्थाणरासी मूलरासिस्स संखेज्जा भागा होदि । विहारदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेवियसमुग्धादरासीओ मूलरासिस्स संखेजदिभागो। एदमत्थपदं सव्वत्थ जोजेदव्यं । पुगो अप्पप्पगो रासीओ ठविय अंगुलस्स संखेजदिभागमेत्तोगाहणाए गुणिय चदुहि लोगेहि ओवहिदे चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो आगच्छदि । माणुमखेत्तेणोवट्टिदे असंखेज्जाणि माणुसखेत्ताणि होति । णवरि वेयण-कसायेसु णवगुणा', वेउव्यियसमुग्घादे संखेज्जगुणा ओगाहणा सव्वत्थ कायव्वा । एवं मारणंतियपदस्स । णवरि ओवट्टणं ठविज्जमाणे पढमपुढविदव्वं पहाणं कायव्वं । कुदो ? मारंणतिएहि परिणदजीवस्स तत्थ विग्गहगईए रज्जुअसंखेज्जदिभागमेत्तदीहत्तस्स वि क्योंकि, पहली पृथिवीकी अवगाहनासे सातवीं पृथिवीकी अवगाहना संख्यातगुणी पाई जाती है। तथा, द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा पहली प्रथिवी प्रधान है, क्योंकि, द्वितीयादि शष छह पृथिवियोंके द्रव्यप्रमाणसे पहली पृथिवीका द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है। इसप्रकार सातवीं पृथिवीके अवगाहनाके गुणकारसे पहली पृथिवीके द्रव्यप्रमाणका गुणकार बहुत बड़ा है, इसलिये यहांपर पहली पृथिवीको प्रधान करना चाहिये। अब सामान्यरूपसे यहांपर अर्थपदका निरूपण करते हैं- स्वस्थानस्वस्थानराशि मूल नारकराशिके संख्यात बहुभागप्रमाण है। विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त राशियां मूलराशिके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। यह अर्थपद सर्वत्र जोड़ लेना चाहिये। पुनः अपनी अपनी राशियोंको स्थापित करके, उन्हें अंगुलके संख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनासे गुणित करके जो लब्ध आवे उसे सामान्य आदि चार लोकोंसे पृथक् पृथक् भाजित करनेपर, अर्थात् सामान्य आदि चार लोकोंके, तत्प्रमाण खंड करनेपर, चार लोकोंका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है । तथा उक्त प्रमाणको मानुषलोकसे अपवर्तित करनेपर अर्थात् उक्त प्रमाणके मानुषक्षेत्रप्रमाण खंड करनेपर असंख्यात मानुषक्षेत्र आते हैं। इतनी विशेषता है कि वेदनासमुद्धात और कषायसमु. द्धातमें सर्वत्र अवगाहनाको नौगुणी और वैक्रियिकसमुद्धातमें अवगाहनाको सर्वत्र संख्यातगुणी कर लेना चाहिये । मारणान्तिकसमुद्धातका कथन इसीप्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अपवर्तनाके स्थापित करनेपर पहली पृथिवीके द्रव्यको प्रधान करना चाहिये, क्योंकि, मारणान्तिक समुद्धातसे परिणत हुए जीवके यहां विग्रहगतिमें राजुके १ वेदणासमुग्घाएणं समोहते xx सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभत्राहल्लेणं नियमा छदिसि xx प्रज्ञा. ३६, १७. एवं कसायसमुग्घातोवि भाणितबो । प्रज्ञा. ३६, १८. - २ वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहते xx सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णणं अंगुलस्स सखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखिज्जाति जोयणाति एगदिसिं विदिसिं वा एवइए खित्ते xx प्रज्ञा. ३६, १९. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ५. उवलंभादो | तेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपढमपुढविउक्कमणकालेण ओवड्डिय लद्धस्स असंखेज्जा भागा विग्गहं करेंति । तेसिं पि असंखेज्जा भागा मारणंतियं करेंति त्ति । पुणो तमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तमारणंतियउवक्कमणकालेण गुणिदे मारणंतियरासी आगच्छदि । पुणो णेरइयमुहवित्थारेण णवगुणरज्जु असंखेज्जदिभागेण मारणंतियरासिं गुणिदे तक्खेतं होदि । उववादस्सोवट्टणं ठविज्जमाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण विदियढविदव्वे भागे हिदे तिरिक्खेहिंतो विदियपुढवी उप्पज्जमाणमिच्छाति । अवरेगं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारं ठविय रूवूणेण गुणि विहगई मारणंतिएण उप्पज्जमानतिरिक्खमिच्छाइट्टिणो होंति । पुणो अवरेगं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारं ठविदे तिरिक्खेहिंतो विग्गहगदीए रज्जुपडि - भागेण मारणंतियं करिय उप्पज्जमानतिरिक्खमिच्छाइट्टिणो होंति त्ति वत्तव्यं । सव्वत्थ रज्जुमेत्तायामविदिय दंडुवलंभादो । पुणो एदं दव्यं तिरिक्खो गाहणमुहवित्थारेण णवरज्जुगुणिदेण गुणेदव्त्रं । ओवट्टणा पुव्त्रं व कादव्या । एवं सासणस्स | णवरि उववादो णत्थि । असंख्यातवें भागप्रमाण दीर्घता भी पाई जाती है । इसलिये आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पहली पृथिवीके उपक्रमणकाल से प्रतिसमय में मरनेवाली राशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसके असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव विग्रहको करते हैं। तथा इनके भी असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव प्रति समयमें मारणान्तिकसमुद्धातको करते हैं । पुनः इसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र मारणान्तिकसमुद्वातके उपक्रमणकालसे गुणित करनेपर मारणान्तिक समुद्वातराशि होती है । पुनः नारकियोंके मुखविस्तार से नौ गुणे राजुके असंख्यातवें भागले मारणान्तिकराशिको गुणित करनेपर मारणान्तिकसमुद्घातक्षेत्र होता है । उपपादकी अपवर्तनाके स्थापित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे दूसरी पृथिवीसंबन्धी द्रव्यके भाजित करनेपर तिर्यचोंमेंसे दूसरी पृथिवीमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं । पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप एक दूसरा भागद्दार स्थापित करके एक कमसे गुणित करने पर विग्रहगतिमें मारणान्तिकसमुद्धातसे उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच मिथ्या दृष्टि जीव होते हैं । पुनः एक दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागको भागहाररूपसे स्थापित करनेपर तिर्यचों में से विग्रहगतिमें राजु के प्रतिभागरूपसे मारणान्तिक समुद्धात करके उत्पन्न होनेवाले तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं, ऐसा कथन करना चाहिये, क्योंकि, सर्वत्र राजुमात्र आयामसे युक्त दूसरा दंड पाया जाता है । पुनः इस द्रव्यको नौ गुणी राजुसे गुणित तिर्यचोंकी अवगाहनाके मुखविस्तारसे करना चाहिये । यहां पर अपवर्तना पहले के समान करना चाहिये । इसीप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंके भी स्वस्थानस्वस्थान आदि समझना Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ६. खेत्ताणुगमे णेरइयखेत्तपरूषणं [१५ मारणंतियरासिमिच्छिय दो आवलियाए असंखेज्जदिभागे अण्णोण्णगुणे करिय पुव्वरासिस्स भागहारं ठविय तप्पाओग्गेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे मारणंतियरासी होदि । सेसविधी पुव्वं व । एवं सम्मामिच्छाइटिस्स । णवरि मारणंतियं पि णत्थि । असंजदसम्माइट्ठिस्स सासणभंगो । णवरि उववादो अत्थि । मारणंतिय-उववादेसु णेरइया सम्माइट्ठिणो संखेज्जा चेव होति । सेसं जाणिय वत्तव्यं । एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया ॥६॥ दव्वट्ठियणयमवलंबिय सुत्तं जदो द्विदं तदो सत्तण्डं पुढवीणं परूवणा ओघपरूवणाए तुल्लेत्ति घडदे । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे पढमपुढविपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला, सव्वगुणाणं सव्वपदेहि सरिसत्तुवलंभादो । ण विदियादिपंचपुढवीणं परूवणा ओघपरूवणाए पदं पडि तुल्ला, तत्थ असंजदसम्माइट्ठीणं उववादाभावादो । ण सत्तमपुढविपरूवणा वि णिरओघपरूवणाए तुल्ला, सासणसम्माइट्ठिमारणंतियपदस्स असं चाहिये । इतनी विशेषता है कि उनके उपपाद नहीं पाया जाता है। जब मारणान्तिक समुद्धातको प्राप्त राशिके लाने की इच्छा हो तब दो वार आवलाके असंख्यातवें भागको परस्पर गुणित करके और उसे पूर्वराशिका भागहार स्थापित करके उसके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त राशि होती है। शेष विधि पहलेके समान है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियों के भी स्वस्थानस्वस्थान आदि जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके मारणान्तिकसमुद्धात भी नहीं होता है। असं सम्यग्दृष्टि नारकियोंके स्वस्थानस्वस्थान आदि सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंके स्वस्थानस्वस्थान आदिके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके उपपाद पाया जाता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादमें सम्यग्दृष्टि नारकी संख्यात ही पाये जाते हैं। शेष कथन जानकर करना चाहिये। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥६॥ चूंकि यह सूत्र द्रव्यार्थिक नयका अवलंबन लेकर स्थित है, इसलिये सातो पृथिवियोंकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके तुल्य है, यह कथन घटित हो जाता है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर तो पहली पृथिवीकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके तुल्य है, क्योंकि, पहली पृथिवीमें सामान्यप्ररूपणासे सर्व गुणस्थानोंकी सर्वपदोंकी अपेक्षा समानता पाई जाती है। किंतु स्वस्थानस्वस्थान आदि पदोंकी अपेक्षा द्वितीयादि पांच पृथिवियोंकी प्ररूपणा ओघ. प्ररूपणाके समान नहीं है, क्योंकि, उन पृथिवियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपपाद नहीं होता है। इसीप्रकार सातवीं पृथिवीकी प्ररूपणा भी नारक सामान्यप्ररूपणाके तुल्य नहीं है, क्योंकि, सातवीं पृथिवा में सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी मारणान्तिकपदका और असंयतसम्य १ प्रतिषु · जदो द्विदं तदो द्विदं ' इति पाठः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [१, ३, ७. जदसम्माइट्ठिमारणंतिय-उववादपदाणं च तत्थ अभावादो । सत्तण्डं पुढवीणं ओगाहणाभेदो मारणंतिय-उववादाणं ठविजमाणरज्जुभेदो दव्वविसेसो च वत्तव्यो । पढमपुढविमिच्छाइट्टि. मारणंतियखेत्तं तिरियलोगादो असंखेजगुणं । कुदो ? पदरंगुलस्स संखेञ्जदिभागगुणिदतद्दव्वे सेढीए संखेजदिभागेण गुणिदे तिरियलोगादो असंखेजगुणत्तुवलंभादो त्ति' एगपदेसमादिं कादूग जा उकस्सेण सगुप्पत्तिपदेसो ति मारणंतियखेत्तायामस्सुवलंभादो। ण चेदमसिद्धं, महामच्छखेत्तट्ठाणपरूवणण्णहाणुववत्तीदो। तत्थ जेण सेढीए असंखेजदिभागायामण मारणंतियं करिय मरंता बहुवा, तेण तिरियलोगस्स असंखेजदिभागतं घडदे। तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते, सव्व. लोए ॥७॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा ओघमिच्छादिटिपरूवणाए तुल्ला । णवरि वेउब्धियसमुग्धादगदजीवा तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे, तिरिक्खेसु विउव्वमाणरासी पलि ग्दृष्टिसंबन्धी मारणान्तिक और उपपाद पदका अभाव है। यहांपर सातों पृथिवियोंकी अव. गाहनाका भेद, और मारणान्तिक तथा उपपादका स्थापित होनेवाला राजुभेद और द्रव्यविशेषका कथन करना चाहिये। पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका मारणान्तिकक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त राशिको प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे गुणित करके पुनः जगश्रेणीके संख्यातवें भागसे गुणित करनेपर तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र पाया जाता है। तथा एकप्रदेशसे लेकर उत्कृष्टरूपसे अपनी उत्पत्तिके प्रदेशतक मारणान्तिकक्षेत्रका आयाम पाया जाता है, इसलिये भी पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका मारणान्तिकक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा है। और यह कथन असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि, महामत्स्यके क्षेत्रस्थानकी प्ररूपणा अन्यथा बन नहीं सकती है। वहांपर चूंकि जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग आयामरूपसे मारणान्तिकसमुद्धातको करके मरनेवाले जीव बहुत हैं, इसलिये तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग बन जाता है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥७॥ इस सूत्रकी प्ररूपणा ओघमिथ्यादृष्टि प्ररूपणाके समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त तिर्यंच जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, तिर्यंचोंमें विक्रिया करनेवाली राशि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र घनांगुलोंसे १ प्रतिषु 'ति ण ' इति पाठः। २ मारणंतियसमुग्घातेणं xx सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खम्भबाहल्लेणं, आयामेणं जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिमागं उक्कोसेणं असंखेज्जाति जोयणाति एगदिसिं एवतिते खेत्ते xx प्रज्ञा. ३६, १८. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ८.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवर्ण [६७ दोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तघणंगुलेहि गुणिदसेढिमेत्तो त्ति गुरूवदेसादो । ___ सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८ ॥ ___एदेण देसामासियसुत्तेण सूचिद-अत्थो वुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउधिएहि परिणदसासणसम्मादिट्ठी केवडि खेते ? चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । रासिपमाणं भण्णमाणे सत्थाणसत्थाणरासी मूलरासिस्स संखेज्जा भागा। सेसरासीओ मूलरासिस्स संखेज्जदिभागमेतीओ। णवरि वेउव्यियस मुग्धादरासी मूलरासिस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ? तिरिक्खेसु विउव्वमाणजीवाणं पउरं संभवाभावादो। एत्थ ओगाहणगुणगारो संखेज्जघणंगुलमेत्तो, एगघणंगुलं वा। गुणित जगश्रेणीप्रमाण है, ऐसा गुरुका उपदेश है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतकके तियंच जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥ ८॥ अब इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित अर्थको कहते हैं-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातरूपसे परिणत सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। स्वस्थानस्वस्थान आदि उक्त राशियों के प्रमाणका कथन करने पर स्वस्थानस्वस्थान जीवराशि मूलरशिके संख्यात बहुभागप्रमाण है। तथा शेष राशियां मूलराशिके संख्यातवें भाग मात्र हैं। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त राशि मूलराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, तिर्यचों में विक्रिया करनेवाले जीव प्रचुर संभव नहीं हैं। यहां पर अवगाहनाका गुणकार संख्यात घनांगुलप्रमाण अथवा एक धनांगुल है। विशेषार्थ-यहां पर अवगाहनाका गुणकार जो संख्यात घनांगुल अथवा एक घनांगुल कहा है उसका यह भाव प्रतीत होता है कि पंचेन्द्रियपर्याप्त तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात घनांगुल प्रमाण होती है, अतः उसका घनफल लानेके लिए अवगाहनका गुणकार भी संख्यात घनांगुल ही होगा। किन्तु प्रसपर्याप्त तिर्यंचोंकी जघन्य अवगाहना घनांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण ही है। यद्यपि इनकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाईका पृथक् पृथक् उपदेश आज नहीं पाया जाता है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख गोम्मटसारकी जी. प्र. टीकाकारने १ बादरपुण्णा तेऊ सगरासीए असंखभागमिदा । विक्किरियस सिजुत्ता पल्लासंखेज्जया वाऊ ॥ पल्लासंखेज्जाहयविदंगुलगुणिदसेतिमेचा हु । वेगुध्वियपंचक्खा भोगभुमा पुह विगुब्वति गो. जी. २५८-२५९. गो. जी. ९६. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६८ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ८. एवं सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदाणं । मारणंतियसमुग्धादगदसास सम्मादिट्ठी केवड खेत्ते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । ओघरा सिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे मरत सासणसम्माइसी होदि । पुणेो वि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण हरिय रूवूण गुणिदे मारणंतियसमुग्धादगदरासी होदि । पुणो वि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे रज्जुमेत्तायामेण मारणंतियस मुग्धादगद एगसमयसंचिदरासी होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे तक्कालसंचिदरासी होदि । एदं संखेज्जपदरंगुलगुणिदरज्जूए गुणिदे मारणंतियखेत्तं होदि । एवमसंजद - संजदासंजदाणं । सम्मामिच्छाइट्ठीणं मारणंतियं णत्थि । उववादगद सासणसम्माइट्ठी केवडि खेत्ते, चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एत्थ रासिपमाणमाणिज्जमाणे मूलरासिमावलियाए असंखेज्जदि किया है, तो भी उनके घनांगुलका प्रमाण उत्तरोत्तर संख्यातगुणा कहा है। वहांपर पंचेन्द्रिय पर्याप्तजीवों की जघन्य अवगाहना एकवार संख्यातसे भाजित घनांगुल प्रमाण कही है। संभवतः धवलाकारने उसी जघन्य अवगाहना के घनफलको दृष्टिमें रखकर एक घनांगुल गुणाकारका प्रमाण कहा है। 6 " इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यचों के भी स्वस्थानस्वस्थान आदिके विषय में समझना चाहिये। मारणान्तिकसमुद्धतिको प्राप्त हुए सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। ओघराशिको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर मरनेवाली सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यचराशि होती है । फिर भी आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करके एक कम उससे गुणित करने पर मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त राशि होती है । फिर भी आवलीके असंख्यातवें भाग भाजित करने पर रज्जुमात्र आयामकी अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त एक समय में संचित जीवराशि होती है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर मारणान्तिक समुद्वातके काल में संचित हुई राशि होती है । इसे संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित राजुसे गुणा करने पर मारणान्तिकक्षेत्र होता है । इसीप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्येचों के मारणान्तिकसमुद्धात के विषय में कहना चाहिये । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के मारणान्तिकसमुद्धात नहीं होता है । उपपादको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहां पर सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यचौकी उपपादराशिका प्रमाण लाने पर मूलराशिको १ प्रतिषु ' भागं ' इति पाठः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९ १, ३, ९.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवणं भाएण भागे हिदे उप्पज्जमाणसासणसम्माइद्विरासी होदि । पुगो अवरेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे रूवूणेण गुणिदे विग्गहगईए मारणंतिएण उप्पज्जमाणरासी होदि । संखेज्जा भागा मारणंतियं कादणुप्पज्जति त्ति के वि भणंति, एदं जाणिय वत्तव्यं । णत्थि एत्थ मज्झणियमो । तमावलियाए असंखेज्जदिमागेण मागे हिदे उज्जुदो आगच्छमाणरासी होदि । एदस्स पदरंगुलस्स संखेज्जदिभाएण गुणिदरज्जु गुणगारं ठविदे उववादखेत्तं होदि । एत्थ ओवट्टणा पुव्वं च । एवमसंजदसम्मादिहिस्स। णवरि उववादे संखेज्जा होति, पुव्वं बद्धायुगमणुस्ससम्मादिट्ठीहि विणा अण्णेसिं तत्थ उववादाभावादो। ओगाहणगुणगारो वि संखेज्जपदरंगुलमत्ता, एगपदरंगुलमेत्तो वा । सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदाणं उववादं णत्थि ।। पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ९॥ आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर उत्पन्न होनेवाली सासादनसम्यग्दृष्टि राशि होती है । पुनः एक दूसरे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर और एक कम उक्त भागहारसे गुणित करने पर विग्रहगतिमें मारणान्तिकसमुद्धातसे उत्पन्न होनेवाली जीवराशि है। उत्पन्न होनेवाली राशिके संख्यात बहुभाग प्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्धात करके उत्पन्न होते हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, इसलिये इसको जानकर कथन करना चाहिये । किन्तु इस विषयमें कोई मध्यम नियम नहीं है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर ऋजुगतिसे आनेवाली राशिका प्रमाण होता है। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे राजुको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे इस राशिका गुणकार स्थापित करने पर उपपादक्षेत्र होता है। यहां पर अपवर्तना पहले के समान जानना चाहिये। इसीप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका उपपाद जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि उपपादमें असं यतसम्यग्दृष्टि तिथंच संख्य.त ही होते हैं, क्योंकि, जिन मनुष्योंने सम्यग्दर्शनके पहले तिर्यंचायुका बंध कर लिया है ऐसे मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंके विना दूसरे सम्यग्दृष्टियोंका तिर्यचों में उपपाद नहीं होता है। इनकी अवगाहनाका गुणकार भी संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण अथवा एक प्रतरांगुलमात्र है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत तिथंचोंके उपपाद नहीं होता है। पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानके तिर्यच कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ ९॥ १ प्रतिषु ‘रज्जुदो ' इति पाठः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ९. एदं' पि देसामासियं सुत्तमेव, संगहिदाणेगसुत्तत्थादो । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदपंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एत्थ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तरासिं मोनूण पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तरासी चेव घेत्तव्यो, अपज्जत्तोगाहणादो पज्जत्तोगाहणाए असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एत्थ सत्थाणसत्थाणरासी मूलरासिस्स संखेज्जभागमेत्ता होदि । सेसरासीओ तस्स संखेज्जदिभागमेतीओ। एत्थ ओगाहणगुणगारो संखेज्जघणंगुलमेत्तो। ओवट्टणं जाणिदण कादव्यं । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-जोणिणीमिच्छादिट्ठीणं । वेउब्धियसमुग्घादगदमिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एवं पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-जोणिणीमिच्छाइट्ठीणं । मारणंतियसमुग्धादगदपंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तरासिस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तभागहारस्स ___ यह भी सूत्र देशामर्शक ही है, क्योंकि, इसमें अनेक सूत्रोंका अर्थ संग्रहीत है उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, घेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातको प्राप्त पंचेन्द्रियतियंच मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक, ऊर्ध्वलोक और अधोलोक, इन तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवराशिको छोड़कर पंचन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त राशिका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, अपर्याप्तोंकी अवगाहनासे पर्याप्तोकी अवगाहना पातगुणी पाई जाती है। यहांपर स्वस्थानस्वस्थानराशि मूलराशिके संख्यात बहुभागप्रमाण होती है। शेष राशियां मुलराशिके संख्यातवें भागमात्र होती हैं। यहांपर अवगाहनाका गुणकार संख्यात घनांगुलप्रमाण है। अपवर्तनाका कथन जानकर करना चाहिये। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त तथा योनिमती तिथंच मिथ्यादृष्टियोंकी स्वस्थानस्वस्थानराशि आदि समझना चाहिये । पैकियिकसमुद्धातको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त तथा योनिमती तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका वैक्रियिकसमुद्धातगत क्षेत्र जानना चाहिये । मारणांतिकसमुद्धातको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्य लोक, ऊर्बलोक और अधोलोक इन तीन लोकोंके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्तराशिका भागहार पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र पाया जाता है। १मप्रती एवं 'इति पाठ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ९.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवणं [७१ सत्तादो। तं कधं ? संखेज्जवस्साउअतिरिक्खोवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण तेरासियकमेण भागे हिदे मरंतपंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विपमाणं होदि । एत्थ उवक्कमणकालागमणविधी चुच्चदे- संखेज्जावलियासु जदि आवलियाए असंखेज्जदिभागो णिरंतरुवक्कमणकालो लब्मदि, तो उवक्कमणाणुवक्कमणप्पयम्मि आयुहिदिम्हि केत्तियमुवक्कमणकालं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छ मोवहिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालो लब्भदि । एवं संखेज्जवस्साउअरासीणं सांतराणमुवक्कमणकालो अण्णेसि पि आणेदव्यो । पुणो मारणंतियरासिमिच्छिय अवरं पलिदोवमस्स असंखेज्जीदभाग भागहारं ठविय रूवूणेण गुणिय रज्जुआयामेण द्विदरासिमिच्छिय अण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण भागहारो ठवेयव्यो । पुणो एत्थतणसंचयमिच्छिय मारणंतियउवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिय पुणो एदं रज्जुगुणिदसंखेज्जपदरंगुलेहि गुणिदे मारणंतियखेत्तं होदि । एदेण तिणि वि लोगे भागे हिदे शंका- यह कैसे ? समाधान -संख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंचोंके उपक्रमणकालरूप आवलीके असंख्यातवें भागसे त्रैराशिक क्रमसे भाजित करने पर प्रत्येक समयमें मरनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है। __अब यहां पर उपक्रमणकालके लानेकी विधिको कहते हैं-संख्यात आवलियोंके भीतर यदि आवलीका असंख्यातवां भागप्रमाण निरन्तर उपक्रमणकाल प्राप्त होता है, तो उपक्रमण और अनुपक्रमणरूप आयुकी स्थितिके भीतर कितने उपक्रमणकाल प्राप्त होंगे, इसप्रकार आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण फलराशिसे उपक्रमण और अनुपक्रमणात्मक आयुकी स्थितिरूप इच्छाराशिको गुणित करके और संख्यात आवलीप्रमाण प्रमाणराशिका भाग देने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल प्राप्त होता है। इसीप्रकार संख्यात वर्षकी आयुवाली अन्य सान्तर राशियोंका भी उपक्रमणकाल ले आना चाहिये । पुनः यहां मारणान्तिक राशिका प्रमाण लाना है, इसलिये एक दूसरा पल्यापमके असंख्यात भागप्रमाण भागहार स्थापित करके और एक कम उसीसे गुणित करके राजुप्रमाण आयामकी अपेक्षा स्थित राशि लाना इच्छित है, इसलिये एक दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागरूपसे भागहार स्थापित करना चाहिये । पुनः यहांपर मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त जीवराशिका संचय इच्छित है, इसलिये मारणान्तिकसंबन्धी उपक्रमणकाल आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करके पुनः क्षेत्र लाने के लिये इस राशिको राजुसे गुणित संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित करने पर मारणान्तिकक्षेत्रका प्रमाण होता है। इस क्षेत्रके प्रमाणसे सामान्यलोक आदि - १ सोवकमाणुवकमकालो संखेज्जवासहिदिवाणे । आवलिअसंखभागो संखेज्जावलिपमा कमसो ॥ गो. जी. २६५ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ९. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि त्ति तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे अच्छंतिि सिद्धं । तिरिय-णर लोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । एवं पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त- जोणिणीणं वत्तच्वं । उववादगदपंचिदियतिरिवखमिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । एत्थ उववाद खेत्तमाणिज्जमाणे मारणंतियभंगो । णवरि पढमं उवसंहरिय विदियदंडट्ठियजीवे इच्छिय अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्वो, असंखेज्जजोयणविदियदंडायामजीवाणं बहूणमणुवलंभादो । एसो एगसमयसंचिदो त्ति आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणगारे अवणिदे रज्जुगुणिदसंखेज्जपदरंगुलाणि गुणगारो होदि । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त- जोणिणीणं वत्तव्वं । सेस गुणट्ठाणाणं तिरिक्खोघभंगो । वरि जोगिणी असंजदसम्माइट्टीणं उववादो णत्थि । तीनों ही लोकोंके भाजित करने पर पल्योपमका असंख्यातवां भाग आता है, इसलिये सामान्य लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें मारणान्तिकरु मुद्धातगत पंचेन्द्रिय तिर्यत्र पर्याप्त जीव रहते हैं, यह बात सिद्ध हुई । तथा मारणान्तिकसमुद्वातगत पंचेन्द्रिय तिर्येच पर्याप्त जीव तिर्यग्लोक और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इसीप्रकार मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और योनिमतियों का कथन करना चाहिये । उपपादको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि तीम लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। यहां पर उपपादक्षेत्र के लाते समय मारणान्तिकक्षेत्र के समान कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि प्रथम दंडका उपसंहार करके दूसरे दंडमें स्थित जीवोंका प्रमाण लाना इच्छित है, इसलिये पल्यापम के असंख्यातवें भागप्रमाण एक दूसरा भागहार स्थापित करना चाहिये, क्योंकि, असंख्यात योजन आयामवाले दूसरे दंड में स्थित जीव बहुत नहीं पाये जाते हैं। यह एक समय में संचित जीवराशि हुई, इसलिये आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणकारके अपनीत करने पर राजु गुणित संख्यात प्रतरांगुल गुणकार होता है। इसीप्रकार उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और योनिमतियों का कथन करना चाहिये । उपपादकी अपेक्षा शेष गुणस्थानोंका कथन तिर्यंच ओधके कथन के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यचों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपपाद नहीं होता है । विशेषार्थ - यहांपर जो प्रथम दंड आदिका कथन किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि विग्रहगतिमें मरणक्षेत्र से लगाकर प्रथम मोड़े तक जीवका जो सीधा गमन होता है वह प्रथम दंड है । तथा प्रथम मोड़ेसे लगाकर द्वितीय मोड़े तक जीवका जो सीधा गमन होता है वह द्वितीय दंड है । इसीप्रकार से तीसरा दंड भी समझना चाहिए । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ११.] खेत्ताणुगमे मणुस्सखेत्तपरूवणं [७३ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे ॥ १० ॥ एदस्स देसामासियसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे- सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदा केवडि खेत्ते ? चदुप्हं लेगाणमसंखेज्जदिभागे । कुदो ? उस्सेधघणंगुलं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण खंडिदमेत्तोगाहणत्तादो । अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । विहारवदिसत्थाणं वेउब्धियसमुग्धादो य णत्थि । मारणंतिय-उववादगदा केवडि खेत्ते ? तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । कुदो ? रासिस्स भागहारभूदा होदण जहाकमेण दोण्णि तिण्णि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागा लब्भंति त्ति । तिरिय-माणुसलोगादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । सुगममेदं । मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥११॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ १० ॥ अब इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थान स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, उत्सेध घनांगुलको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त जीवकी अवगाहना है । तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवोंके विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धात नहीं पाया जाता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, राशिके भागहाररूप होकर यथाक्रमसे अर्थात् मारणान्तिकसमुद्धातकी अपेक्षा दो वार पल्योपमके असंख्यातवें भाग और उपपादकी अपेक्षा तीन वार पल्योपमका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। तथा तिर्यग्लोक और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादके प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव रहते हैं । इसप्रकार इसका व्याख्यान सुगम है। मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥ ११॥ १ मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्ताना लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १,८. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, ११. एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायवेउब्बियसमुग्घादगदमिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । कुदो ? मणुसपज्जत्तमिच्छाइडिखेत्तग्गहणादो। सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तमणुसअपज्जत्ताणं खेत्तस्स गहणं किण्ण कीरदे ? ण, तस्स अंगुलस्स संखेज्जदिभागे संखेज्जंगुलेसु वा अवट्ठाणादो। मारणंतिय उववादगदमिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते १ तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरिय-णरलोरोहितो असंखेज्जगुणे । कुदो? पहाणीकदमणुसअपज्जनरासीदो । एवमुववादस्स वि । णवरि एगो आवलियाए असंखेज्जदिभागो दोण्णि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागा च मणुसअपज्जत्तरासिस्स भागहारा हवेदव्या । सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय. वेउव्वियसमुग्घादेहि परिणदा केवडि खेत्ते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिमागे, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागे। मारणंतिय-उववादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइजादो अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानखस्थान, विहार वत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और योनिमती मिथ्यादृष्टि मनुष्य कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहांपर मनुष्य पर्याप्त मिथ्याष्टियोंके क्षेत्रका ग्रहण किया है। शंका-अपर्याप्त मनुष्य जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अतएव यहां उनके क्षेत्रका ग्रहण क्यों नहीं किया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पर्याप्त मनुष्यका अवस्थान अंगुलके संख्यातवें भागमें अथवा संख्यात अंगुलोंमें पाया जाता है, इसलिये यहांपर अपर्याप्त मनुष्योंके क्षेत्रका ग्रहण नहीं किया है। ___ मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और योनिमती मिथ्यादृष्टि मनुष्य कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और तिर्यग्लोक तथा मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहांपर मनुष्य अपर्याप्तराशिकी प्रधानता है। इसीप्रकार उपपादका भी कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तराशिके एकवार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण और दो वार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातसे परिणत हुए सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १२. ] खेत्तागमे मणुस्सखेत्तपरूवणं असंखेजगुणे । सम्मामिच्छाइट्ठी सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय-वेउच्चियसमुग्धादपरिणदा केवड खेत्ते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागे । संजदासंजदा सत्थाणसत्थाण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय - वेडव्वियसमुग्धादपरिणदा केवड खेते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागे । मारणंतिय समुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । पमत्तसंजद पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति मूलोघभंगो । एवं मणुसपअत्तसिणी । वरि मिच्छाइट्ठीणं सासणसम्माइट्टिभंगो | मणुसिणीसु असंजदसम्मादिडणं उववादो णत्थि । पत्ते तेजाहारसमुग्धादा णत्थि । [ ७५ सजोगिकेवली केवड खेत्ते, ओघं ॥ १२ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो मूलोघमवधारिय लोगस्स असंखेजदिभागे, असंखेजेस वा भागे, सव्वलोगे वा त्ति वत्तव्यो । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असं. ख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातरूपसे परिणत हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । स्वस्थान स्वस्थान विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात इन पदोंसे परिणत हुए संयतासंयत मनुष्य कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मनुष्यक्षेत्र के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्वातको प्राप्त हुए संयतासंयत मनुष्य सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक मनुष्यों के यथासंभव स्वस्थानस्वस्थान आदि पदका क्षेत्र मूलोघप्ररूपणा के समान जानना चाहिये । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मिथ्यादृष्टियोंके सासादन सम्यग्दृष्टियोंके समान कथन है | मनुष्यनियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियों के उपपाद नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार उन्हीं के प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात नहीं पाया जाता है । सयोगिकेवली भगवान् कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ओघप्ररूपणा में सयोगिजिनों का जो क्षेत्र कह आये हैं, तत्प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥ १२ ॥ इस सूत्र का अर्थ, मूलोघ सूत्रका निश्चय करके सयोगिकेवली जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र में अथवा सर्व लोक में रहते हैं, इसप्रकार कहना चाहिये । १ सयोगिकवलिना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, १३. मणुसअपज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥१३॥ सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादेहि परिणदा चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागे णिचिदकमेण । विण्णासकमेण पुण असंखेन्जाणि माणुसखेत्ताणि । मारणंतियसमुग्घादो माणुसोपतुल्लो । मारणंतियखेत्तं ठविजमाणे सूचिअंगुलपढम-तदियवग्गमूले गुणेदूण सेढिम्हि भागे हिदे दव्वं होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभागमेत्त-उवक्कमणकालेण भागे हिदे एगसमयम्हि मरंतरासी होदि । तं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ओवट्टिय रूवूणेण गुणिदे एगसमयसंचिदमारणंतियरासी होदि । पुणो तमावलियाए असंखेजदिभाएण मारणंतिय उवक्कमणकालेण गुणिदे मारणंतियकालभतरे संचिदरासी होदि । पुणो अवरेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण भागे हिदे रज्जुआयामेण मुक्कमारणंतियरासी होदि । रज्जुआयदस्स विक्खंभो पदरंगुले पलिदोवमस्स असंखेअदिभागेण ओवट्टिदे होदि । एवमुववादस्स वि । णबरि एगसमयसंचिदो त्ति आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणगारो अवणेदव्यो । विदियदंडे सेढीए संखेजदिभागायामेण मुक्क लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ १३ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातसे परिणत हुए लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य निचितक्रमसे सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । विन्यासक्रमले तो असंख्यात मनुष्यक्षेत्र लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका क्षेत्र है । मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त हुए लन्ध्यपर्याप्त मनुष्यों का क्षेत्र ओघमनुष्यप्ररूपणाके समान है । मारणान्तिकक्षत्र स्थापित करनेपर सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलको परस्पर गुणित करके जो राशि आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देनेपर लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका द्रव्यप्रमाण होता है । इसमें आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालका भाग देनेपर एक समयमें मरनेवाले लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंकी राशिका प्रमाण होता है । इसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करके और एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागले गुणित करनेपर एक समयमें संचित हुई मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यराशि होती है। पुनः इस राशिको आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण मारणान्तिक उपक्रमणकालसे गुणित करनेपर मारणान्तिककालके भीतर सचित जीवराशिका प्रमाण होता है। पुन: इसे एक दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर राजप्रमाण आयामरूपसे किया है मारणान्तिकसमद्धात जिन्होंने, ऐसे लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंकी राशि होती है। प्रतरांगुलको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर राजुप्रमाण आयतक्षेत्रका विस्तार होता है इसीप्रकार उपपादका भी क्षेत्र समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि उपपादरराशि एक समयमें संचित होती है, इसलिये ऊपर जो आपलीके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार कह आये हैं वह निकाल देना चाहिये। अब दूसरे दंडमें जगश्रेणीके संख्यातवें भाग आयामरूपसे किया है मारणान्तिकसमुद्धात जिन्होंने, ऐसे Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तागमे दवखेत्तपरूवणं [ ७७ १, ३, १५. ] मारणंतियजीवे इच्छामो त्ति अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो वेदव्वो । देवगदी देवेसु मिच्छादिट्टि पहूडि जाव असंजदसम्मादिट्टित्ति केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १४ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदि सत्थाण- वेदण-कसाय - वेउच्चिय समुग्धादगद देवमिच्छादिट्ठी तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोयस्स संखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? पधाणीकदजोइसियरासित्तादो | मारणंतिय उवव । दपरिणदमिच्छादिट्ठी तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेजगुणे । एत्थ खेत्तपमाणं जाणिय वेद | सगुणद्वाणाणमोघभंगो । एवं भवणवासिय पहाड जाव उवरिम उवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवाति ॥ १५ ॥ एदेण देस मासियसुत्तेण सूचिद-अत्थो वुच्चदे । तं जहा - सत्थाणसत्थाण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय - वेउब्विय उववादपरिणदभवणवासियमिच्छादिट्ठी चदुण्हं लोगा जीवों को लाना इट है, इसलिये एक दूसरा पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार स्थापित करना चाहिये । देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानके देव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ।। १४ । स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनास मुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धतिको प्राप्त हुए देव मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, यहांपर ज्योतिष्क देवराशि प्रधान है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादरूपले परिणत हुए मिथ्यादृष्टि देव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । यहांपर क्षेत्र के प्रमाणको जानकर स्थापित करना चाहिये । देवोंके शेष गुणस्थानोंकी प्ररूपणा ओघ प्ररूपणा के समान है । भवनवासी देवोंसे लेकर उपरिम-उपरिम ग्रैवेयक के विमानवासी देवों तकका क्षेत्र इसीप्रकार होता है ॥ १५ ॥ अब इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित हुए अर्थको कहते हैं । वह इसप्रकार है-स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्वात और उपपादरूपसे परिणत हुए भवनवासी मिध्यादृष्टि देव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके १ देवगतौ देवानां सर्वेषां चतुर्षु गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १८० Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, १५. णमसंखेजदिभागे, अड्डा इजादो असंखेजगुणे । तिरिक्ख- मणुसमिच्छादिट्टिणो कण्णागारेण ट्ठिदभवणवासियखेत्तेसु उप्पजमाणा वे विग्गहे कादूग सेढीए संखेजदिभागायामेण उप्पज्जता संभवति, तदो तिरियलोगादो असंखेज्जगुणेण उववादखेतेण होदव्यमिदि ? सच्चमेदं जइ सेठीए संखेज्जदिभागमेत्तायामो उववादखेत्तस्स लब्भइ । किंतु संखेज्ज - सूचिअंगुलमेत्तो चेव । एत्तो संखेज्जजोयणाणि हेट्ठा गंतूण भवणवासियविमाणाणमवाणावलंभादो | ण च तिरियलोगे सव्त्रत्थ तदवासा, तिरियलोगस्स मज्झिमासंखेज्जदिभागे चेव सिमत्थित्तदंसणादो । ण च उवरिमदेवे सुप्पज्ज माणतिरिक्खाणं व भवणवासिएसुपज्ज माणतिरिक्ख- मणुस्साणं सगुप्पत्तिदिसं मुच्चा तिरिच्छेण गमणमत्थि, कंडुज्जुवाए वणवासियजगपणिधिमागंतून हेडावलिए भवगवासिएसुप्पत्तिदंसणादो | एदं कुदो वदे ? भवणवासियाणमुववाद खेत्तस्स तिरियलोगासंखेज्जदिभागत्तष्णहाणुववत्तदो । सच्छिदट्ठाणादो हेट्ठा ओयरिय भवणवासिए सुष्पज्जमाणाणमुववादखे तायामो सेटीए संखेज्जदिभागो लब्भदि त्ति तग्गहणं जुत्तं, तहा तत्थुष्पज्जमाणाणं सुड्डु त्थोवत्तादो | एं असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । शंका - कर्णरेखा के आकारसे स्थित भवनवासियों के क्षेत्रोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव दो विग्रह करके जगश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण आयामरूपसे उत्पन्न होते हुए पाये जाता संभव है, इसलिये भवनवासियोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यात गुणा होना चाहिए ? समाधान - यदि उपपादक्षेत्रका आयाम जगश्रेणी के संख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता, तो यह उक्त कथन सत्य होता । किन्तु, उपपादक्षेत्रका आयाम संख्यात सूचयंगुलमात्र ही हैं, क्योंकि, इससे संख्यात योजन नीचे जाकर भवनवासियोंके विमानोंका अवस्थान नहीं पाया जाता है, तथा तिर्यग्लोक में भी सर्वत्र भवनवासियोंके आवास नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही भवनवासी देवोंका अस्तित्व देखा जाता है । दूसरे, उपरिम देवोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्थचोके समान भवनवासियोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच और मनुष्योंका अपनी उत्पत्तिकी दिशाको छोड़कर तिरछा गमन होता हो, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, मनुष्य और तिर्यचोंकी बाणके समान सीधी गति से भवनवासी लोकके समीप आकर अधस्तनश्रेणीमें स्थित भवनवासी देवों में उत्पत्ति देखी जाती है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - - भवनवासियोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोक के असंख्यातवें अन्यथा न नहीं सकता है, इससे उक्त कथन जाना जाता है । अपने रहने के स्थान से नीचे जाकर भवनवासी देवों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य तिर्यचों के उपपादक्षेत्रका आयाम जगश्रेणी के संख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है, इसलिये उसका ग्रहण उपयुक्त है, किन्तु उक्त प्रकारसे उन में उत्पन्न होनेवाले जीव स्वरूप होते हैं । भागप्रमाण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १५. खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवणं कुदो वदे ? तिरियलोगस्सा संखेज्जदिभागे त्ति वक्खाणादो | मारणंतियसमुग्धादगदमिच्छाइट्ठी तिन्हं लोगान मसंखेज्जदिभागे तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे, अड्डाइज्जादो वि असंखेज्जगुणे । सेसमोघं । णवरि असंजदसम्म इट्ठीणं उववादो णत्थि । वाणवेंतर- जोइसियाणं देवोघभंगो। णवर असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि । पशुचीसं असुराणं सेसकुमाराण दस घणू चेय | वेंतर - जोदिसियाणं दस सत्त वणू मुणेयव्वा ॥ १८ ॥ म्हादो उस्सेहादो एत्थ ओगाहणखेत्तमाणेदव्वं । सोधम्मीसाणे सत्थान सत्थाणविहारव दिसत्थाण- वेदण- कसाय- वेउच्चियसमुग्धाद्गदमिच्छादिट्ठी चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । एत्थ सगलखेत्त परिक्खा भवणवासिय मंगो | अप्पणो ओहिखेत्तमेत्तं देवा विउव्वंति त्ति जं आइरियवयणं तण्ण घडदे, लोगस्स असं [ ७९ शंका- यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान - उपपादपरिणत भवनवासी देव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, इसप्रकार के व्याख्यान से उक्त कथन जाना जाता है । मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में, तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीप से भी असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । शेष कथन ओघप्ररूपणा के समान है । इतनी विशेषता है कि असंयतसम्यग्दृष्टियोंका भवनवासियों में उपपाद नहीं होता है । वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंका क्षेत्र देवसामान्य के क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टियोंका वानव्यन्तर और ज्योतिषियोंमें उपपाद नहीं होता है । भवनवासियोंके दश भेदों में से प्रथम भेद असुरकुमारों के शरीर की उंचाई पच्चीस धनुष' और शेष नौ कुमारोंके शरीरकी ऊंचाई दश धनुष है । तथा व्यन्तर देवों के शरीर की ऊंचाई दश धनुष और ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊंचाई सात धनुष जानना चाहिये ॥ १८ ॥ इस उपर्युक्त उत्सेधसे यहां अवगाहनाक्षेत्र ले आना चाहिये । सौधर्म और ईशान कल्प में स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धतिको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि देव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहांपर सर्व पदगत क्षेत्रों की परीक्षा भवनवासियोंके क्षेत्र के समान करना चाहिये । देव अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रप्रमाण विक्रिया करते हैं, इसप्रकार जो अन्य आचार्योंका वचन है वह घटित नहीं होता है, १ त्रि. सा. २४९. तत्र चतुर्थचरणे ' दस सत्त सरीरउदओ दु' इति पाठः । २ सेसा वेंतरदेवाणिय-णिय-ओहीण जेचियं खेत्तं । प्रति तेचियं पि हु पत्तेकं विकरणबलेण । ति.प. ५,९६. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, १५. खेज्जदिभागमेत्तवेउब्बियखेत्तस्सप्पसंगादो । मारणंतिय-उववादाणं देवोधभंगो । उववादखेतं ठविज्जमाणे विक्खंभसूचीगुणिदसेटिं ठविय पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभाएण सोहम्मीसाणउवक्कमणकालेण ओवहिदे उप्पज्जमाणजीवा होंति । असंखेज्जजोयणविदियदंडेण उप्पज्जमाणजीवे इच्छिय अवरो पलिदोममस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो। एक्कपदरंगुलविक्खंभेण सेढीए संखेज्जदिभागायामेण खेत्तं पुसंति त्ति पदरंगुलगुणिदसेढीए संखेज्जदिभागो गुणगारो ठवेदव्यो । सम्वत्थ उजुगदीए उप्पज्जमाणजीवे हितो विग्गहगदीए उप्पज्जमाणजीवा असंखेज्जगुणा। कुदो ? सेढीदो उस्सेढीए बहुत्तुवलंभादो । भवणवासियउववादखेत्तं व तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो किं ण होदि ति वुत्ते ण होदि, पभापत्थडे उप्पज्जमाणाणं तिरिक्खाणं सव्येसि पि सेढीए संखेज्जदिभागायामो विदियदंडस्स लब्भदे, तेणेदमुववादखेत्तं तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं ति। सेसगुणट्ठाणाणं देवभंगो । सणक्कुमारप्पहुडि जाव उवरिम-उवरिमगेवज्जो त्ति मिच्छादिट्ठी ओघभगो । क्योंकि, ऐसा माननेपर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण वैक्रियिकसमुद्धातगत क्षेत्रके माननेका प्रसंग आ जाता है। सौधर्म और ईशानकलपमें देवमिथ्यादृष्टियोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादसम्बन्धी क्षेत्र देवसामान्यके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगतकं समान जानना चाहिये। उपपादक्षेत्रके स्थापित करते समय सौधर्म-ऐशान देवमिथ्यादृष्टियोंकी विष्कम्भसूचीसे गुणित जगश्रेणीको स्थापित करके पल्योपमके असंख्यात भागरूप सौधर्म और ऐशानसम्बन्धी उपक्रमणकालसे अपवर्तित करनेपर उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः असंख्यात योजनरूप दूसरे दंडसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंको लाना इष्ट है, ऐसा समझकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एक दूसरा भागहार स्थापित करना चाहिये। तथा एक प्रतरांगुल. प्रमाण विष्कम्भसे और जगश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण आयामसे क्षेत्रके स्पर्श करते हैं, इसलिये प्रतरांगुलगुणित जगश्रेणीका संख्यातवां भागप्रमाण गुणकार स्थापित करना चाहिये । सर्वत्र ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षा विग्रहगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि, श्रेणीकी अपेक्षा उच्छोणियां बहुत पाई जाती हैं। शंका-सौधर्म और ईशान कल्पके देवोंका उपपादक्षेत्र भवनवासी देवोंके उपपादक्षेत्रके समान तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सौधर्म ईशान कलाके इकतीसवें प्रभापटलमें उत्पन्न होनेवाले सभी तिर्यंचोंके दूसरे दंडका आयाम जगश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। इसलिये सौधर्म और ईशानकलाके देवोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा होता है, यह सिद्ध हुआ। सौधर्म और ईशानकल्पके देवोंके शेष गुणस्थानोंके स्वस्थानखस्थान क्षेत्रका कथन देवसामान्यके स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्रके समान जानना चाहिये । सनत्कुमारकल्पसे लेकर उपरिम-उपरिमौवेयक तक मिथ्यादृष्टि देवोंका स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्र ओघ मिथ्यादृष्टिके स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्रके समान है । तथा उन्हींके सासादन Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १७. ] खेत्तागमे एइंदियखेत्तपरूवणं सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि - असंजदसम्मादिट्ठीणं ओघमंगो । अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा असंजदसम्मादिट्टी केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १६ ॥ सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण - वेदण-कसाय-वेउब्विय-मारणंतिय-उववादगदअसंजदसम्माइट्टिणो चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति त्ति वत्तव्वं । णवरि सव्वडे सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय - वेउब्वियपदेसु माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । कथं १ सव्वट्ठे वेदण-कसायसमुग्धादाणं तेहिंतो समुपज्ज माणथोवविष्फुज्जणं पडुच्च तधोवदेसादो, कारणे कज्जावयारादो वा । एवं गदिमग्गणा समत्ता । इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता केवाड खेत्ते, सव्वलोगें ॥ १७ ॥ [ ८१ सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्र ओघसासादनसम्यग्दृष्टि आदिके स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्रोंके समान होते हैं । नौ अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमान तकके असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ।। १६॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए उक्त असंयतसम्यग्दृष्टि देव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाई ई । पसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा यहां कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनांसमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात इन स्थानों में देव मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, सर्वार्थसिद्धि में वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातगत देवोंके उनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला स्तोक विस्फूर्जन होता है, अर्थात् उक्त दोनों समुद्धातों में आत्मप्रदेशोंका बाह्य विस्तार बहुत कम होता है, इस अपेक्षा उक्त प्रकारका उपदेश दिया है । अथवा, कारणमें कार्यके उपचार से उक्त प्रकारका उपदेश दिया है । इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई । इन्द्रियमार्गणा के अनुवादसे एकेन्द्रियजीव, बादर एकेन्द्रियजीव, सूक्ष्म एकेन्द्रियजीव, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १७ ॥ १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां क्षेत्रं सर्वलोकः । स. सि. १, ८, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, १७. एत्थ लोगणिदेसेण पंचण्हं लोगाणं गहणं, देशामर्शकत्वाल्लोकस्य । बादर-सुहुमादिवयणेण सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय वेउव्विय मारणंतिय-उववादपरिणदजीवाणं गहणं, छविहावत्थावदिरित्तबादरादीणमभावादो । तदो सव्वसुत्ताणि देसामासिगाणि चेव ? ण एस णियमो वि, उभयगुणोवलंभा । सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा एइंदिया केवडि खेते ? सव्वलोगे। वेउब्धियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाण मसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण विण्णायदे, संपहियकाले विसिवएसाभावा । तं जहा- वेउव्वियमुट्ठावेंतरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। अहवा तस्स ओगाहणा उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। तस्स को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। विउबमाण-एई इस सूत्र में लोक पदके निर्देशसे पांचों लोकोंका ग्रहण किया है, क्योंकि, यहां लोक पदका निर्देश देशामर्शक है। सूत्रमें बादर और सूक्ष्म आदि वचनसे स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदसे परिणत हुए जीवोंका ग्रहण किया है, क्योंकि, उक्त छह प्रकार की अवस्थाओके अतिरिक्त बादर आदि जीव नहीं पाये जाते हैं। शंका-यदि ऐसा है, तो सर्व सूत्र देशामर्शक ही हैं ? समाधान - सर्व सूत्र देशामर्शक ही है, यह नियम भी नहीं है, क्योंकि, सूत्रोंमें दोनों प्रकारके धर्म पाये जाते हैं । अर्थात् कुछ सूत्र देशामर्शक हैं और कुछ नहीं, इसलिये सभी सूत्र देशामर्शक ही हैं, यह नियम नहीं किया जा सकता है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायस मुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात, और उपपादको प्राप्त हुए एकेन्द्रिय जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए एकेन्द्रिय जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते है। किन्तु मानुषक्षेत्रके सम्बन्धमें नहीं जाना जाता है कि उसके कितने भागमें रहते हैं, क्योंकि, वर्तमानकालमें इसप्रकारका विशिष्ट उपदेश नहीं पाया जाता है। आगे इसी विषयका स्पष्टीकरण करते हैं-विक्रियाको उत्पन्न करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अथवा, विक्रियात्मक एकेन्द्रिय जीवोंके शरीरकी अवगाहना उत्सेधधनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। शंका-उत्सेधधनांगुलमें जिसका भाग देनेसे उत्सेधघनांगुलका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है, उस असंख्यातवें भागका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, अर्थात् पत्योपमके असंख्यातवें भागका उत्सधघनांगुलमें भाग देनेसे उत्सेधधनांगुलका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है जो विक्रियात्मक एकेन्द्रिय जीवके शरीरकी अवगाहना है। ऊपर विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि भी पल्योपमके असंख्यातवें भाग Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १७.] खेत्ताणुगमे एइंदियखेत्तपरूवणं (८३ दियरासीदो घणंगुलस्स भागहारो किमप्पो बहुगो समो वा इदि ण णयदे ? जदि वेउब्धियरासीदो घणंगुलभागहारो संखेज्जगुणो होदि, तो माणुसखेत्तस्त संखेज्जदिभागे । अह असंखेज्जगुणो, तो असंखेज्जदिभागे । अह सरिसो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । ण च एत्थ एवं चेव होदि त्ति णिच्छओ अत्थि, तदो माणुसखेत्तं ण णयदि त्ति सिद्धं । बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्ता सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोएहितो असंखेज्जगुणे । तं जहा- मंदरमूलादो उवरि जाव सदर-सहस्सारकप्पो त्ति पंचरज्जु-उस्सेधेण लोगणाली समचउरंसा वादेण आउण्णा, तं जगपदरं कस्सामो । एक्कुणवंचासरज्जुपदराणं जदि एगं जगपदरं लब्भदि, तो पंचरज्जुपदराणं किं लभामो ति फलगुणिदमिच्छं पमाणेणोवट्टिदें वे पंचभागूण-एगूणसत्तरिरूवेहि प्रमाण बतलाई है और उत्सेधघनांगुलका भागहार भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है, इसलिये विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशिसे उत्सेधधनांगुलका भागहार क्या छोटा है, या बड़ा है, या समान है, यह कुछ नहीं जाना जाता है। अब यदि एकेन्द्रिय वैक्रियिकराशिसे उत्सेधघनांगुलका भागहार संख्यातगुणा है, ऐसा लेते हैं तो विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है, ऐसा अभिप्राय निकलता है । अथवा, विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशिसे उत्सेधघनांगुलका भागहार असंख्यातगुणा लेते हैं तो वह राशि मानुषक्षेत्रके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है, यह अभिप्राय होता है । और यदि विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशिसे उत्सेधधनांगुलका भागहार समान है, ऐसा लेते हैं तो वह राशि मानुषक्षेत्रके संख्यातवे भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है यह अभिप्राय होता है। परंतु यहांपर मानुषक्षेत्रका इतना ही भाग लिया गया है, ऐसा कुछ भी निश्चय नहीं है, इसलिये मानुषक्षेत्रके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं जाना जाता है कि विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि उसके कितने भागमें रहती है, यह सिद्ध हुआ। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायलमुद्धातको प्राप्त हुए बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकों के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें तथा मनुष्यलोक और तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-मन्दराचल के मूल भागसे लेकर ऊपर शतार और सहस्रारकल्प तक पांच राजु उत्सेधरूपसे समचतुरस्र लोकनाली वायुसे परिपूर्ण है। अब उसे जगप्रतरके प्रमाणस्वरूप करते हैं- यदि उनवास प्रतरराजुओंके एक पटल का एक जगप्रतर प्राप्त होता है, तो पांच प्रतरराज औका क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक जगप्रतरप्रमाण फलराशिसे पांच प्रतरराजुप्रमाण इच्छाराशिको गुणित करके उनंचास प्रतरराजुप्रमाण प्रमाण १ प्रतिषु 'ण' इति पाठी नास्ति । २ प्रतिषु ' -दो चे' इति पाठः। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, १८. घणलोगे भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । लोगपेरंतवादखेत्तं संखेज्जजोयणबाहल्लं जगपदरं पुव्वपरूविदमाणेदूण एत्थेव पक्खिविय अट्ठपुढविखेत्तं तेसिं हेट्ठा द्विदवादजगपदरं संखेज्जजोयणबाहल्लमाणेदूण पक्खित्ते जेण लोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं बादरेइंदियबादरेइंदियपज्जत्ताणं खेत्तं जादं, तेण बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्ता' लोगस्स संखेज्जदिभागे होति त्ति सिद्धं । वेउब्धियसमुग्धादगदाणं एइंदिओघभंगो। मारणंतिय-उववादगदा सबलोगे । बादरेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियभंगो । णवरि वेउव्यियपदं णत्थि । सुहुमे. इंदिया तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ता य सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा सबलोगे, सुहुमाणं सव्वत्थ अच्छणं पडि विरोहाभावादो । वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता य केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १८ ॥ राशिसे भाजित करनेपर, दो वटे पांच कम उनहत्तरसे घनलोकके भाजित करनेपर जो एक भाग होता है उतना लब्ध आता है, जो कि ५ घनराजु प्रमाण है। उदाहरण-१४५= ५, ५ ४९ = २ जगप्रतर । चूंकि यह वातपरिपूर्ण क्षेत्र १राजु मोटा है, अतएव ५ घनराजु हुआ,जो कि ३४३६८३=५३ घनलोक प्रमाण होता है। तथा पहले प्ररूपित किये गये लोकके चारों ओर प्रान्तभागमें संख्यात योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण वातक्षेत्रको लाकर इसी पूर्वोक्त वातक्षेत्रमें मिलाकर तथा आठों पृथिवियोंके क्षेत्र और उनके नीचे स्थित वायुक्षेत्र, जो कि संख्यात योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण हैं, उनको उसी पूर्वोक्त क्षेत्रमें मिला देनेपर चंकि लोकके संख्यातवें भागप्रमाण बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र होता है, इसलिये बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, यह सिद्ध हुआ। वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र वैक्रियिकसमुद्धातगत सामान्य एकेन्द्रियोंके क्षेत्रके समान होता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तों का क्षेत्र बादर एकेन्द्रियों के समान होता है। इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके वैक्रियिकसमुद्धातपद नहीं होता है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव और उन्हींके पर्याप्त अपर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, सूक्ष्म जीवोंके सर्व लोकमें पाये जाने में कोई विरोध नहीं है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव और उन्हींके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीव १ प्रतिषु ' बादरेइंदिय० खेत्तं जादं । तेण बादरेइंदियपज्जत्ताणं ' इति पाठः । २ विकलेन्द्रियाणां लोकस्यासंख्येयमागः। स. सि. १,८. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, १८.] खेत्ताणुगमे विगलिंदियखेत्तपरूवणं [८५ ___एदस्स अत्थो वुच्चदे-- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादपरिणदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगणे । णवरि तिण्हमपज्जत्ता चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । मारणंतियउववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे, अड्डाइज्जादो वि असंखेज्जगुणे । एत्थ मारणंतियखेत्तमाणिज्जमाणे बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदिया तेसिं पज्जत्त-अपज्जत्तदव्वं ठविय आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्त-उवक्कमणकालेण खंडिय तस्स असंखेज्जदिभागो वा संखेज्जदिभागो वा मारणंतिएण विणा मरदि त्ति एदस्स असंखेज्जा भागा संखेज्जा भागा' वा घेत्तूण मारणंतिय-उवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे मारणंतियरासी होदि । रज्जुमेत्तायामेण विदरासिमिच्छामो त्ति पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारं ठविय अप्पप्पणो विक्खंभवग्गगुणिदरज्जूए गुणिदे मारणंतियखेत्तं होदि । उववादखेतं ठविज्जमाणे एवं चेव ठविय मारणंतिय-उवक्कमण कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ १८ ॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात, इन पदोसे परिणत हुए उक्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, तिर्यग्लोक संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वपिसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इतनी विशेषता है कि तीनों ही विकलेन्द्रियों के अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। मारणातिकसमुद्ध त और उपपादको प्राप्त हुए तीनों विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें तथा अढ़ाईद्वीपसे भी असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । यहांपर मारणान्तिकक्षेत्रके लाते समय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा उनकी पर्याप्त और अपर्याप्त जीवराशिको स्थापित कर उसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालसे खंडित करके उसका जो असंख्यातवां ग अथवा संख्यातवां भाग लब्ध आवे, उतनी राशि मारणान्तिकसमुद्घातके विना मरण करती है। इसलिये इस राशिके असंख्यात बहुभाग अथवा संख्यात बहुभागप्रमाण राशिको ग्रहण करके उसे मारणान्तिकसमुद्धातके उपक्रमण कालरूप आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर मारणान्तिक जीवराशि होती है। यहां एक राजुमात्र आयामसे स्थित मारणान्तिक जीवराशि इच्छित है, इसलिये उक्त राशिके नीचे भागहारके स्थानमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र भागहारको स्थापित करके और अपने अपने विष्कभके वर्गसे गुणित राजुसे उक्त राशिके गुणित करने पर मारणान्तिकसमुद्घातगत विकलत्रय और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंका मारणान्तिकक्षेत्र होता है। उपपादक्षेत्रके लाते समय इसी मारणान्तिक जीवराशिको स्थापित करके और उसमेंसे मारणा १ प्रतिषु ' असंखेज्जा भाग संखेज्जा भार्ग' इति पाठः । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, १९. कालगुणगारमवणिदे एगप्तमयसंचिदो मारणंतियरासी होदि । तस्स असंखेज्जा भागा विग्गहगदीए उप्पज्जति त्ति तस्स असंखेज्जे भागे घेत्तूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण ओवट्टिदे सेढीए संखेज्जदिभागायामेण विदियदंडहिदरासी होदि । पंचिंदिय-पचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १९ ॥ एदस्स अत्थो-सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-बेउब्धियसमुग्धादगदपंचिंदियमिच्छाइट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागे अड्डाइज्जादो असंखेजगुणे । मारणतिय उववादगदमिच्छाइट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेजगुणे । एदाणं खेत्ताणमाणयणं पुव्यं व कादव्यं । सासणादीणमोघभंगो । एवं पज्जत्ताणं पि वत्तव्यं । सजोगिकेवली ओघं ॥ २० ॥ न्तिक उपक्रमणकालके गुणकारको निकाल लेने पर एक समयमें संचित हुई मारणान्तिक जीवराशि होती है। एक समय में संचित हुई इस मारणान्तिक जीवराशिके असंख्यात बहुभाग जीव विग्रहगतिसे उत्पन्न होते हैं, इसलिये उसके असंख्यात भागको ग्रहण करके पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जगश्रेणीके संख्यातवें भाग आयामरूपसे दूसरे दंडमें स्थित जीवराशि होती है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानके जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ १९ ॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। इन क्षेत्रोंको पहलेके समान ले आना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि आदिका स्वस्थानस्वस्थान आदि पदगत क्षेत्र ओघसासादनसम्यग्दृष्टि आदिके स्वस्थानस्वस्थान आदि पदगत क्षेत्रके समान जानना चाहिये। इसीप्रकार पर्याप्तोंके क्षेत्रका भी कथन करना चाहिये। सयोगिकेवलियोंका क्षेत्र सामान्यप्ररूपणाके समान है ॥ २० ॥ १पंचेन्द्रियाणां मनुष्यवत् । स. सि. १,८. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २२. ] खेत्तागमे पुढ विकाइयादिखेत्तपरूवणं एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुण्यं परुविदो त्ति ण वुच्चदे | पंचिंदियअपज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ २१ ॥ सत्थाण- वेदण-कसायसमुग्धादगदपंचिदियअपजत्ता चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे अड्डाइज्जादो असंखे जगुणे । कुदो ? अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्त - ओगाहणादो। मारणंतियउववादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर- तिरियलोगे हिंतो असंखेज्जगुणे । एवमिंदियमग्गणा गदा । [ ८७ कायावादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया, बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवाङकाइया बादरवणफदिकाइयपत्ते यसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता, सुहुमपुढविकाइया सुहुम आउकाइया सुहुमते उकाइया सुहुमवाउकाइया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता य केवाड खेत्ते, सव्वलोगे ॥ २२ ॥ इस सूत्र के अर्थकी प्ररूपणा पहले कर आये हैं, इसलिये यहां पर पुनः उसका कथन नहीं करते हैं । लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥ २१ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्घातको प्राप्त हुए लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भ.गप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रियोंकी अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र है । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में तथा मनुष्यलोक और तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इस प्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई । काय मार्गणाके अनुवाद से पृथिवीकायिक, अष्कायिक, तैजस्कायिक वायुकायिक जीव तथा बादर पृथिवीकायिक, बादर अष्कायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीव तथा इन्हीं पांच बादर कायसम्बन्धी अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म अष्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और इन्हीं सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोक में रहते हैं ॥ २२ ॥ १ कायानुवादेन पृथिवी का या दिवनस्पतिका यि कान्तानां सर्वलोकः । स. सि. १, ८, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २२. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा- पुढविकाइया सुहुमपुढविकाइया तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता, आउकाइया सुहुमआउकाइया तस्सेव पजत्ता अपज्जत्ता, तेउकाइया सुहुमतेउकाइया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता, वाउकाइया सुहुमवाउकाइया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता च सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा सव्वलोए, असंखेज्जलोगमेत्तपरिमाणादो । णवरि तेउकाइया वेउब्वियसमुग्घादगदा पंचण्हं लोगाणामसंखेज्जदिभागे, वाउकाइया वेउव्वियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण णव्वदे । बादरपुढविकाइया तेसिं चेव अपज्जत्ता सत्थाण-वेदण कसायसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगादो संखेज्जगुणे', अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । तं जहाजेण बादरपुढविकाइया सापज्जत्ता पुढवीओ चेव अस्सिदृण अच्छंति, तेण पुढवीओ जगपदरपमाणेण कस्सामो । 'तत्थ पढमपुढवी एगरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुदीहा वीससहरसूण-वे-जोयणलक्खबाहल्ला, एसा अप्पणो वाहल्लस्स सत्तमभागबाहल्लं जगपदरं होदि । ........ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है--स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादको प्राप्त हुए पृथिवीकायिक और सूक्ष्म पृथिवीकायिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, अप्कायिक और सूक्ष्म अप्क यिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, तेजस्कायिक और सूक्ष्म तैजस्कायिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, वायुकायिक और सूक्ष्म वायुकायिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, उक्त राशियोंका परिमाण असंख्यात लोकप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुई तैजस्कायिकराशि पांचों लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है । वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुई वायुकायिकराशि सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है। वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुई वायुकायिकराशि मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहती है, यह नहीं जाना जाता है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त हुए बादर पृथिवीकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-चूंकि बादर पृथिवीकायिक जीव और उन्हींके अपर्याप्त जीव पृथिवीका आश्रय लेकर ही रहते हैं, इसलिये पृथिवियोंको जगप्रतरके प्रमाणसे करते हैं । उनमेंसे एक राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और बीस हजार योजन कम दो लाख योजना मोटी पहली पृथिवी है। यह घनफलकी अपेक्षा अपने बाहल्यके अर्थात् एक लाख अस्सी हजार योजनके सातवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। १ प्रतिषु ' असंखेजगुणे ' इति पाठः। २ इत आरभ्याष्टपृथिवीप्ररूपकोऽधस्तनो गद्यभागस्त्रिलोकप्रज्ञप्तेः प्रथमाधिकारस्यान्तिमभागेन सह शब्दशः समानः । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८९ १, ३, २२.] खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं विदियपुढवी सत्तमभागूण-वे-रज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा बत्तीसजोयणसहस्सबाहल्ला सोलहसहस्साहियचदुण्हं लक्खाणं एगुणवंचासभागवाहल्लं जगपदरं होदि । तदियपुढवी वे-सत्तभागहीण-तिण्णिरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा अट्ठावीसजोयणसहस्सवाहल्ला बत्तीससहस्साहियं पंचलक्खजोयणाणं एगूणवंचासभागवाहल्लं जगपदरं होदि । चउत्थपुढवी तिण्णि-सत्तभागूण-चत्तारिरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा चउवीसजोयणसहस्सबाहल्ला छजोयणलक्खाणमेगूणवंचासभागवाहल्लं जगपदरं होदि । पंचमपुढवी उदाहरण-पहली पृथिवी उत्तरसे दक्षिणतक सात राजु, पूर्वसे पश्चिमतक एक राजु और एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है, अतएव १८०००० योजनोंके प्रमाणमें ७ का भाग देनेसे २५७१४३ योजन लब्ध आते हैं और एक राजुके स्थानमें जगश्रेणीका प्रमाण हो जाता है । इसप्रकार २५७१४६ योजनोंके जितने प्रदेश हो उतने जगप्रतरप्रमाण पहली पृथिवीका घनफल होता है। । दूसरी पृथिवी एक राजुके सात भागोंमेंसे एक भाग कम दो राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और बत्तीस हजार योजन मोटी है । यह घनफलकी अपेक्षा चार लाख सोलह हजार योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। उदाहरण-दूसरी पृथिवी उत्तरसे दक्षिणतक सात राजु; पूर्व से पश्चिमतक १७ राजु और ३२००० योजन मोटी; योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. तीसरी पृथिवी एक राजुके सात भागों से दो भाग कम तीन राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और अट्ठाईस हजार योजन मोटी है । यह घनफलकी अपेक्षा पांच लाख बत्तीस हजार योजनोंके उनंचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। उदाहरण- तीसरी पृथिवी उत्तरसे दक्षिणतक ७ राजु लम्बी, पूर्व से पश्चिमतक. राजु चौड़ी; और २८००० योजन मोटी है। .७ _ १९. १९, २८००० -५३२०००, ५३२००० : ४९ = ५३२ योजन बाहल्यरूप जगप्रतर. चौथी पृथिवी एक राजुके सात भागोंमेंसे तीन भाग कम चार राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और चौवीस हजार योजन मोटी है। यह घनफलकी अपेक्षा छह लाख योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। उदाहरण-चौथी पृथिवी उत्तरसे दक्षिणतक सात राजु, पूर्व से पश्चिमतक २५ राजु Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २२. चत्तारि सत्नभागूणपंचरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा वीसजोयणसहस्सवाहल्ला वीससहस्साहियछण्हं लक्खाणमेगूणवंचासभागवाहल्लं जगपदरं होदि । छट्ठपुढवी पंच-सत्तभागूण-छरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा सोलहजोयणसहस्सबाहल्ला वाणउदिसहस्साहियपंचण्हं लक्खाणमेगूणवंचासभागवाहल्लं जगपदरं होदि । सत्तमपुढवी छ-सत्तभागूण-सत्तरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा अट्ठजोयणसहस्सवाहल्ला चउदालसहस्साहियतिण्हं लक्खाणमेगूणवंचासभागबाहल्लं जगपदरं होदि । अट्ठमपुढवी सत्तरज्जुआयदा एगरज्जु. और मोटी २४००० योजन है। योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. पांचवी पृथिवी एक राजुके सात भागों से चार भाग कम पांच राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और बीस हजार योजन मोटी है। यह घनफलकी अपेक्षा छह लाख बीस हजार योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। उदाहरण--पांचवी पृथिवी उत्तरसे दक्षिणतक सात राजु; पूर्वसे पश्चिमतक १ राजु और मोटी २०००० योजन है। ३१.७ ३१ ३१.२००००.६२००००. ६२००००.४९-६२०००. योजन पाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. __ छठी पृथिवी एक राजुके सात भागोंमेंसे पांच भाग कम छह राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और सोलह हजार योजन मोटी है। यह घनफलकी अपेक्षा पांच लाख बानवे हजार योजनोंके उनंचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। उदाहरण-छठी पृथिवी उत्तरसे दक्षिण तक सात राजु; पूर्व से पश्चिम तक " राजु और मोटी १६००० योजन है। ३७. ७ -३७ ३७.१६००० ५९२०००. ५९२०००.४९ ५९२००० - x ७ योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. सातवीं पृथिवी एक राजुके सात भागों से छह भाग कम सात राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और आठ हजार योजन मोटी है। यह घनफलकी अपेक्षा तीन लाख चवालीस हजार योजनोंके उनचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है। उदाहरण-सातवीं पृथिवी उत्तरसे दक्षिण तक सात राजु, पूर्व से पश्चिम तक राजु और मोटी ८००० योजन है। www.jainelibrary Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तागमे पुढविकाइया दिखेत्तपरूवणं [ ९१ १, ३, २२. ] रुंदा अट्ठजोयणबाहल्ला सत्तमभागाहिय एकजोयणबाहल्लं जगपदरं होदि । एदाणि सव्वाणि एगट्ठे कदे तिरियलोग बाहल्लादो संखेज्जगुणबा हल्लं जगपदरं होदि । एत्थ असंखेजा लोगमेत्ता पुढविकाइया चिट्ठति, तेण तिरियलोगादो संखेज्जगुणो त्ति सिद्धं । एदेहि देहि लोगस्स असंखेज्जदिभागे चिट्ठता बादरपुढविकाइया सुत्त्रेण सव्वलेोगे चिट्ठति त्ति वुत्ता, तं कथं घडदे ? ण, मारणंतिय उववादपदे पडुच्च तथोवदेसादो | मारणंतिय उववादगदा सन्चलोगे । एवं बादरआउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च । पुढवीसु सव्वत्थ ण जलमुवलं ७ ४३ ४३ ८००० ३४४००० x = X १ १ १ = ; ३४४००० १ ÷ योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. आठवीं पृथिवी सात राजु लम्बी, एक राजु चौड़ी और आठ घनफलकी अपेक्षा एक योजनके सात भाग करनेपर उनमें से सातवां अधिक एक योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । ४९ १ ३४४००० ४९ उदाहरण -- आठवीं पृथिवी उत्तर से दक्षिण तक सात राजु: पूर्व से पश्चिम तक एक राजु और आठ योजन मोटी है । योजन मोटी है । यह भाग अर्थात् एक भाग १ × ७ = ७; ८ ÷ ७ = योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. इन सबको एकत्रित करनेपर तिर्यग्लोकके बाहल्यसे संख्यातगुणे बाहल्यरूप जगप्रतर होता है । इन पृथिवियों में असंख्यात लोकप्रमाण पृथिवीकायिक जीव रहते हैं, इसलिये वे तिर्यग्लोक से संख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, यह सिद्ध हुआ । विशेषार्थ – तिर्यग्लोकका प्रमाण घनफलकी अपेक्षा १४२८५७ योजन बाहल्यरूप जगप्रतर है और आठों पृथिवियों का घनफल ६२३४३६४ योजन बाहल्यरूप जगप्रतर है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि तिर्यग्लोक के प्रमाणसे आठों पृथिवियोंका क्षेत्र संख्यातगुणा है । बादर पृथिवीकायिक जीव इन आठों पृथिवियों में सर्वत्र पाये जाते हैं, इसलिये वे तिर्यग्लोकले संख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, यह सिद्ध हो जाता है । शंका - उपर्युक्त स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात, इन पदोंकी अपेक्षा बादर पृथिवीकायिक जीव जब कि लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, तो वे ' सर्व लोक में रहते हैं' ऐसा जो सूत्रद्वारा कहा गया है वह कैसे घटित होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादकी अपेक्षा ' पृथिवीकायिक जीव सर्व लोक में रहते हैं, ' इसप्रकारका उपदेश दिया गया है । बादर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए बादर पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं । इसीप्रकार बादर अष्कायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों का भी कथन करना चाहिये । अर्थात् पृथिवीकायिक और अपर्याप्त पृथिवी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३,२२. भदि त्ति आउकाइया सव्वत्थ पुढवीसु ण होति ति णासंकणिज्जं, बादरकम्मोदएण बादरत्तमुवगयाणं अणुवलं ममाणाणं पि सव्वपुढासु अत्थित्तविरोधाभावाद।। एवं बादरतेउकाइयाणं तस्सेव अपज्जत्ताणं च । णवरि वेउब्धियपदमत्थि, ते च पंचण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे । तेउकाइया बादरा सयपुढवीसु हाँति त्ति कथं णव्यदे ? आगमादो । एवं बादरवाउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च । णवरि सत्थाण-वेयण-कसाय-समुग्घादगदा तिण्हं लोगाणं संखेजदिभागे, दो लोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । वे उबियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेञ्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण विण्णायदे । सबअपज्जत्तेसु वेउवियपदं णत्थि । ......... कायिक जीवोंके समान स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषाय समुद्धातको प्राप्त हुए बादरजलकायिक और बादरजलकायिक अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यात भागमें, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे क्षेत्र में, तथा मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए बादर जल कायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीव सर्व लोक में रहते हैं। शंका-पृथिवियोंमें सर्वत्र जल नहीं पाया जाता है, इसलिये जल कायिक जीव पृथिवियों में सर्वत्र नहीं रहते हैं ? समाधान- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, बादरनामक नामकर्मके उदयसे बादरत्वको प्राप्त हुए जल कायिक जीव यद्यपि पृथिवियों में सर्वत्र नहीं पाये जाते हैं, तो भी उनका सर्व पृथिचियों में अस्तित्व होने में कोई विरोध नहीं आता है। ___इसीप्रकार अर्थात् बादर जलकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंके समान बादर तैजस्कायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थानस्वस्थान आदि पूर्वोक्त पदोंमें कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बादर तेजस्कायिक जीवोंके चैक्रियिकसमुद्धातपद भी होता है और वे पांचों लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। शंका-बादर तेजस्कायिक जीव सर्व पृथिवियों में होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आगमसे यह जाना जाता है कि बादर तैजस्कायिक जीव सर्व पृथिवि. यों में रहते हैं। इसीप्रकार बादर वायुकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंके पदोंका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, और कषायसमुद्धातको प्राप्त हुए बादर वायुकायिक और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और तिर्यग्लोक तथा मनुष्यलोक इन दो लोकोंसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए बादर वायुकायिक जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । किन्तु यहां मनुष्यक्षेत्र नहीं जाना जाता है कि उसके कितने भागमें रहते हैं। सभी अपर्याप्त जीवों में चक्रियिकसमुद्धातपद नहीं होता Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २३.] खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं [९३ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता बादरणिगोदपदिद्विदा तस्सेव अपज्जता च बादरपुढवितुल्ला । बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीरा पज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ २३ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे। तं जहा- बादरपुढविपज्जत्ता सत्थाण-वेदणकसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणे । एत्थ ओवट्टणं ठविय जोएदव्यं । मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, परतिरियलोरोहितो असंखेज्जगुणे । एवं बादरआउकाइयपज्जत्ता । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर-बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्ताणमेवं चेव । णवरि बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपजत्ता वेदण-कसाय-सत्थाणेसु तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे । एदेसिं रासीणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ता जगपदराणि पदरंगुलेण खंडिदेयखंडमेत्तपमाणं होदि । ओगाहणा पुण है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और उन्हीके अपर्याप्त जीव तथा बादर निगोदप्रतिष्ठित और उन्हींके अपर्याप्त जीव, बादर पृथिवीकायिक जीवों के समान हैं। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव, बादर अप्कायिक पर्याप्त जीव, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ २३ ॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातको प्राप्त हुए बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवे भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर अपवर्तनाकी स्थापना करके योजना कर लेना चाहिये। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में, तथा मनुष्य और तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। बादर अ'कायिक पर्याप्त जीव भी स्वस्थानस्वस्थान आदि पदों में इसीप्रकार रहते हैं। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंके पदोंका इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और स्वस्थान पदगत बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। पल्योपमके असंख्यातवेंभागप्रमाण जगप्रतरोंको प्रतरांगुलसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे उतना इन राशियोंका प्रमाण है। तथा अवगाहना धनांगुलके Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २३. घणंगुलस्स असंखेजदिभागो । तस्स को पडिभागो ! पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तओगाहणा वि घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता, अण्णा तदो बीइंदियपज्जत्तओगाहणा असंखेज्जगुणा ण होज्ज । तदो पत्तेयसरीरपज्जतरासी तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागेण होज ! ण एस दोसो, घणंगुलभागहारो पदरंगुलभागहारादो संखेज्जगुणो ति । पत्तेयसरीरपज्जत्तजहण्णोगाहणादो बीइंदियपज्जतजहण्णोगाहणा असंखेज्जगुणा त्ति कुदो णव्त्रदे ? वेदणाखेत्तविहाणम्हि वुत्तवोगाहणदंडयादो । तं जहा - सन्वत्थोवा सुहुमणिगोदजीव अपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा सुहुमवाउकाइयअपजत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेजगुणा । सुहुमतेउकाइय अपजतयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । सुहुमआउकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा | सुहुम पुढविकाइय अपजत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बादर असंख्यातवें भागप्रमाण है । शंका-उसका क्या प्रतिभाग है, अर्थात् जिसका भाग घनांगुलमें देनेसे उसका विवक्षित असंख्यातवां भाग आता है, वह प्रतिभाग क्या है ? समाधान - पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है । शंका- बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवकी अवगाहना भी घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, यदि ऐसा न माना जावे तो इससे द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवों की अवगाहना असंख्यातगुणी नहीं हो सकती है, इसलिये प्रत्येकशरीर पर्याप्त राशि तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागप्रमाण होना चाहिये ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, घनांगुलका भागद्दार प्रतरांगुलके भागद्दारसे संख्यातगुणा है । शंका - वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तकी जघन्य अवगाहनासे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- वेदना क्षेत्रविधान में कहे गये अवगाहना दंडकसे यह जाना जाता है कि प्रत्येकशरीरकी जघन्य अवगाहनासे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं-सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना सबसे स्तोक है । इससे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे बादर Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २३. ] खेत्तागमे ओगाहणादंडयपरूवणं [ ९५ वाउकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा । बादरते उकाइयअ पञ्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेजगुणा । बादरआउकाइयअपजत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेञ्जगुणा । बादरपुढविकाइयअपजत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेजगुणा । बादरणिगोदजीव अपञ्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । णिगोदपदिदिअपजत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेञ्जगुणा । बादरवणप्फइकाइयपत्तेय सरीरअपजत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । वेइंदियअपजत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा । तेइंदियअपजत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । चउरिर्दियअपजत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । पंचिदियअपज्जतयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । सुहुमणिगोदजीवणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । सुहुमवाउकाइयणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जतयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । सुहुमतेउकाइयाणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव अप वायुकायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे बादर तैजस्कायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे बादर जलकायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे बादर निगोद अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे निगोद प्रतिष्ठित अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे श्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे सूक्ष्म निगोद निर्वृत्त्य पर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । इससे सूक्ष्म निगोद निर्वृत्तिपर्याप्तर्क उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । इससे सूक्ष्म वायुकायिक निवृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्या अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त जीवको उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट भवगाहना विशेष अधिक है । इससे सूक्ष्म तैजस्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २३. ज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसे साहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । सुहुमआउकाइयणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। तस्सेव णिव्यत्ति पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। सुहमपुढविकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरवाउकाइयणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरतेउकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरआउकाइयणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा। तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरपुढविकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स इससे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म तैजस्कायिक पर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म अप्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे सूक्ष्म अप्कायिक निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । इससे सूक्ष्म अप्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म पृथिवीकायिक निवृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर वायकायक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे बादर वायुकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर वायुकायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर तेजस्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे बादर तैजस्कायिक निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर तैजस्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर अकायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीव की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे बादर अप्कायिक निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर अप्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्त Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २३. ] खेतानुगमे ओगाहणादंडयखेत्तपरूषणं [ ९७ जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरणिगोदणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपजत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपजत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसे साहिया । (णि गोदपदिट्ठिदपज्जतयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वतिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । ) ' बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसररिणिव्वचिपंज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । वेइंदियणिव्यत्तिपज्जतयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्य जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । चउरिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । पंचिदियणिव्वत्तिपज्जतयस्स जहणिया ओगाहणा संखेञ्जगुणा । तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । चउरिदियणिव्यत्तिअपजत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । वेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेजगुणा । बादरवण फइकाइयपत्तेय सरीरणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। इससे बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्त्य पर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे बादर निगोद निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जंघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे बादर निगोद निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । इससे बादर निगोद निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । ( इससे निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यात - गुणी है। इससे निगोदप्रतिष्ठित निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । इससे निगोदप्रतिष्ठित निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है ।) इससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे श्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है । इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है। इससे पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है । इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है । इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है । इससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है । इससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट १ प्रतिष्ठ कोष्टकान्तर्गत पाठो नास्ति, वेदनाखंडादत्र योजितः । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,३, २३. पंचिंदियणिवचिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । तेइंदियणिव्वतिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । चउरिदियणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणाः संखेज्जगुणा । वेइंदियणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेजगुणा । बादरवणप्फइपत्तेयसरीरणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । पंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । सुहुमादो सुहुमस्स ओगाहणागुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिमागो । सुहुमादो बादरस्स ओगाहणागुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। बादरादो सुहमस्स ओगाहणागुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। बादरादो बादरस्स ओगाहणागुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। बादरादो बादरस्त ओगाहणागुणगारो संखेज्जा समया । एत्थ बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो इदि वुत्ते होदु णामेदं, पदरंगुलभागहारादो घणंगुलभागहारो संखेज्जगुणो ति कुदो णव्वदे ? तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे त्ति गुरूवएसादो । एदम्हादो चेव एदिस्से ओगा अवगाहना संख्यातगुणी है। इससे. पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। इससे दीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। इससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्तिपर्याप्त जीवको उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। इससे पंचेन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। एक सूक्ष्मजविसे दसरे सूक्ष्मजीवकी अवगाहनाका गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। सूक्ष्मजविसे बादर जीवकी अवगाहनाका गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। बादरजीवसे सूक्ष्मजीवकी अवगाहनाका गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। बादरजीवसे अन्य बादरजीवक्री अवगाहनाका गुणकार पल्योपमका असंख्यातयां भाग है। बादरसे बादरकी अवगाहनाका गुणकार संख्यात समय है, अर्थात् बादर पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवकी जघन्य अवगाहनासे बादर पर्याप्त त्रीन्द्रिय आदि जीवोंकी अवगाहनाका गुणकार संच्यात समय है। शंका-यहां पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना पनांगुलके असंख्यातवें भाग कही है, सो वह भले ही रही आवे, किन्तु प्रतरांगुलके भागहारसे घनांगुलका भागहार संख्यातगुणा होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और स्वस्थानपदोंकी अपेक्षा. 'तिर्यक्लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं। इस प्रकारके गुरुपदेशसे जाना जाता है कि प्रतरांगुलके भागहारसे घनांगुलका भागहार संख्यातगुणा है। १ सहमेदरगुणगारो आवलिपडा असंखभागो दु । गो. जी. १.१. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २४. ] खेत्तागमे पुढ विकाइयादिखै त परूवणं [ १९ ture जीवबहुत्तं च णायव्वं । बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत्ता किमिदि सुत्तम्हि ण वृत्ता १ ण, तेसिं पत्तेयसरीरेसु अंतभावादो । बादरतेउकाइयपंज्जत्ता सत्थाण - वेदण-कसाय-वेडेब्बियसमुग्वादगदा पंचन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । मारणंतिय उववादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुस खेत्तादो असंखेज्जगुणे । बादरवा उकाइयपज्जत्ता केवडि खेत्ते लोगस्स संखेज्जदिभागे ॥ २४ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे - सत्थाण- वेदण-कसाय मारणंतिय उववादगदा बादरवाउपज्जत्ता तिन्हं लोगाणं संखेअदिभागे, दोलोगेर्हितो असंखेज्जगुणे | बादरबाउपज्जतरासी लोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तो मारणंतिय उववादगदो सव्वलोगे किण्ण होदि त्ति वृत्ते ण होदि, रज्जुपदरमुहेण पंचरज्जुआयामेण द्विदखेत्ते चेत्र पाएण तेसिमुप्पत्ती दो । तथा, उक्त इसी गुरूपदेश से बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर की अवगाहनामें जीवोंकी अधिकता भी जानना चाहिए । शंका- सूत्र में बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीव क्यों नहीं कहे ? समाधान- नहीं, क्योंकि, बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका प्रत्येकशरीर पर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों में अन्तर्भाव हो जाता है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्रात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत बादरतैजस्कायिक पर्याप्त जीव पांचों लोकोंके असंख्यातवें भाग में रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत वे ही बादर तैजस्कायिक जीव चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें • और मनुष्यलोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । बाद वायुकायिक पर्याप्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २४ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्वात और उपपाद पदगत बादरवायुकायिक पर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोक संख्यातवें भाग में और तिर्यग्लोक तथा मनुष्यलोक इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । शंका-बादर वायुकायिक पर्याप्तराशि लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है, जब वह मारणान्तिकसमुद्वात और उपपाद पदको प्राप्त हो तब वह सर्व लोकमें क्यों नहीं रहती है ? समाधान- नहीं रहती है, क्योंकि, राजुप्रतरप्रमाण मुखसे और पांच राजु आयामसे स्थित क्षेत्र में ही प्रायः करके उन बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंकी उत्पत्ति होती है । १ बादरवातकायिकामा विकुर्वणाद रज्जुव्यासायाम- पंचरज्जूदय क्षेत्रफलं लोकसंख्यातमागमात्रं भवति । गो. जी. जी. प्र. गा. ५४५. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] छक्खंडागमे जीवहाणं [ १, ३, २५. अण्णखेत्तरं गंतूणुप्पज्जमाणजीवाणमइथोवत्तं कधमवगम्मदे ? चादरवाउक्काइयपज्जत्ता लोगस्स संखेज्जदिभागे इदि सुत्तादो। अण्णहा सुत्तस्स पुध आरंभो णिरत्थओ होज्ज, बादरवाउअपज्जत्तेसु अंतब्भावादो। वेउब्वियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । अड्डाइज्ज ण विण्णायदे । वण'फदिकाइय-णिगोदजीवा बादरा सुहुमा पज्जत्तापज्जत्ता केवडि खेत्ते, सव्वलोगे ॥ २५॥ __ सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा वणप्फदिकाइया सुहुमवणप्फइकाइया तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता च सत्थाण-वेदणसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे.तिरियलोगादो संखेज्जगुणे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे। मारणंतिय-उववादगदा सव्वलोए। बादरा पुढवीओ चेव अस्सिदूण अच्छंति ति लोगस्स असंखेज्जदिभागे होति । शंका- अन्य क्षेत्रान्तरको जाकर उत्पन्न होनेवाले बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव भत्यन्त थोड़े हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-'बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं,' इस सूत्रसे जाना जाता है कि राजुप्रतरप्रमाण मुखवाले और पांच राजु आयामवाले क्षेत्रके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रमें जाकर उत्पन्न होनेवाले बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव बहुत कम होते हैं । यदि ऐसा न माना जावे, तो इस सूत्रका पृथक् आरंभ निरर्थक हो जायगा, क्योंकि, फिर तो उनका बादर वायुकायिक अपर्याप्तोंमें अन्तर्भाव हो जायगा। वैक्रियिकसमुद्धातगत वादर वायुकायिक पर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। अढ़ाईद्वीपसे अधिक क्षेत्रमें रहते हैं या कममें, यह जाना नहीं जाता। वनस्पतिकायिक जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकायिक बादर जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥ २५ ॥ स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत घनस्पतिकायिक, स्वस्थान और वेदनासमुद्धातगत सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद्गत उपर्युक्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं। बादर वनस्पतिकायिक जीव पृथिवियोंका ही आश्रय लेकर रहते हैं, इसलिये वे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। १ आधारे थूला ओ । गो. जी. १८४. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, २८.] खेताणुगमे तसकाइयखेत्तपरूवणं [१०१ एवं कधं णव्वदे ? गुरूवएसादो । तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ २६ ॥ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तमिच्छाइट्टी सत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउबियसमुग्धादगदा तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्वाइजादो असंखेज्जगुणे । मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेजगुणे । एत्थ ओवट्टणा जाणिय कायव्या। सेसगुणट्ठाणाणं पंचिंदियभंगो। सजोगिकेवली ओघं ॥ २७॥ . सुगममेदं । तसकाइयअपज्जत्ता पंचिंदियअपज्जत्ताणं भंगो ॥ २८ ॥ शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि बादर वनस्पतिकायिक जीव पृथिवियोंके ही आश्रयसे रहते हैं। त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २६ ॥ ___ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषाय समुद्धात और वैक्रि मुद्धातगत त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत प्रसकायिक और सकायिक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव तीनों लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक और तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर अपवर्तना जानकरके करना चाहिये। सासादनादि शेष गुणस्थानवर्ती त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र पंचेन्द्रिय जीवोंके क्षेत्रोंके समान जानना चाहिए। सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघनिरूपित सयोगिकेवलोके क्षेत्रके समान है ॥ २७॥ यह सूत्र सुगम है। त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीवोंका क्षेत्र पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके क्षेत्रके समान है ॥ २८॥ १ सकायिकानां पञ्चेन्द्रियवत् । स. सि. १, . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, २९. . एदं पि सुन सुगम, पुर्व पविदत्तादो। एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे ॥२९॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे- पंचमणजोगि-पंचवचिजोगिमिच्छादिट्ठी सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्वियसमुग्धादगदा सिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । वेउधियसमुग्घादगदाणं कधं मणजोग-वचिजोगाणं संभवो ? ण, तेसि पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाणं परावत्तिसंभवादो। मारणंतियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, गर-तिरियलोगेंहिंतो असंखेज्जगुणे । मारणंतियसमुग्घादगदाणं असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाणं कधं मण-वचिजोगसंभवो ? ण, वारणामावादो अवत्ताणं णिम्भरसुत यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, इसका पहले प्ररूपण किया जा चुका है। इसप्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २९ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषीयसमुद्धात और वैकियिकसमुद्धातगत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यावृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। शंका-वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त जीवोंके मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तरशरीर जिनके, ऐसे जीबीके मनोयोग और वचनयोगोंका परिवर्तन संभव है। मारणान्तिकसमुद्धातगत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्याष्टि जीव लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, मनुष्यलोक और तिर्यलोकसे असंक्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। शंको-मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त, असंख्यात योजन आयामसे स्थित और मूछित हुए संशी जीवोंके मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, बाधक कारणके अभाव होनेसे निर्भर (भरपूर) सोते १ योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिना मिप्यादृष्टयाक्सियोगकेवल्यन्ताना लोकस्यासंख्येमागः । स. सि. १, ८. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३१.] खेत्ताणुगमे जोगमग्गणाखेत्तपरूवणं [१०३ जीवाणं व तेसिं तत्थ संभवं पडि विरोहाभावादो। मण-वचिजोगेसु उक्वादो. णस्थि । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव असमुग्धादसजोगिकेवलि त्ति मूलोघभंगो । पावरि सासणअसंजदसम्माइट्ठीणं उववादो पत्थि । कायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं ॥३०॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा कायजोगिमिच्छाइट्टी सव्व. लोए । विहारवदिसत्थाण-वेउब्धियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टणा जाणिय कायवाः। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे ॥३१॥ जोगाभावादो एत्थ अजोगीणमग्गहणं । सेसं सुगमं । हुए जीवोके समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणान्तिकसमुदातगत मूञ्छितअवस्थामें भी संभव है, इसमें कोई विरोध नहीं है। ___ मनोयोगी और वचनयोगी जीवों में उपपादपद नहीं होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर समुद्धातरहित सयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानवी मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंका क्षेत्र मूलोघ क्षेत्रके समान है। विशेष बात यह है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंके उपपादपद नहीं होता है। काययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान सर्वलोक है ॥ ३० ॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात भौर उपपादगत काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोकमें रहते हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातगत काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यात भागमें,तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर अपवर्तना जान करके करना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ. गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती काययोगी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥३१॥ योगका अभाव होनेसे इस सूत्रमें अयोगिकेवलियोंका ग्रहण नहीं किया गया है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। १ काययोगिना मिण्यादृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तानामयोगकेवलिनी च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स.सि. १, ८. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] छक्खंडागमे जीवद्वाणं सजोगिकेवली ओघं ॥ ३२ ॥ sarasो किण्ण कदो ? ण, सजोगिम्हि लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु सव्वलोगे वा इदि विसेसुबलं भादो । ओरालियकायजेोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ ३३ ॥ [ १, ३, ३२. दे सत्थाण- वेदण-कसाय-मारणंतिय समुग्धादगदा सव्वलोए, सुहुमपजत्ताणं सव्वलोगखेत्ते संभवादो' । उववादो णत्थि, णिरुद्वोरालियकाय जोगादो । विहारव दिसत्थाणगदा तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, तसपजत सिस्स संखे दिभागस्स संचारो होदि ति गुरुवएसादो । अड्डा इजादो असंखे जगुणे । वेउच्त्रियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइजादो असंखे जगुणे, ओरालियकायजोगे णिरुद्वे वेउब्वियकाय जोगि सहगद वेउच्त्रियसमुग्धादस्स असंभवादो । काययोगवाले सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघसयोगिकेवलीके क्षेत्र के समान है ॥३२॥ शंका - सासादनादि गुणस्थानप्रतिपन्न सभी जीवोंका एक योग क्यों नहीं किया ? अर्थात् पूर्वोक्त ' सासणसम्मादिट्टिप्पाहुडि ' इत्यादि सूत्रका और इस 'सजोगिकेवली ओघं' सूत्रका एक समास क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सयोगिकेवलीके क्षेत्र में, 'सयोगिकेवली लोकके असंख्यात बहुभागों में और सर्व लोक में रहते हैं ' इस प्रकारका विशेष कथन पाया जाता है, इसलिए उक्त दोनों सूत्रोंका एक योग नहीं किया । औदारिककाय योगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान सर्व लोक है ||३३|| स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और मारणान्तिकसमुद्धातगत ये औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव सर्व लोकवर्ती क्षेत्रों में संभव हैं । किन्तु उक्त जीवोंके उपपादपद नहीं होता है, क्योंकि, यहां पर औदारिककाययोगसे निरुद्ध जीवोंका क्षेत्र बताया जा रहा है । विहारवत्स्वस्थानवाले औदारिककाययोगी जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि, समस्त त्रसपर्यायराशिके संख्यातवें भागका ही संचार (विहार) होता है, ऐसा गुरुका उपदेश है । उक्त औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। वैक्रियिकसमुद्धातगत औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, औदारिककाययोगसे निरुद्ध क्षेत्रका वर्णन करते समय वैक्रियिककाययोगी जीवोंके होनेवाला वैक्रियिकसमुद्धात असंभव है । विशेषार्थ - इस उक्त कथनका अभिप्राय यह है कि अभी ऊपर वैक्रियिकसमु १ सव्वत्थ निरंतर सुहुमा । गो. जी. १८४. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३५.] खेत्ताणुगमे जोगमग्गणाखेत्तपरूवणं [१०५ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३४॥ कधं सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जदिभागे ? ण एस दोसो, ओरालियकायजोगे णिरुद्धे ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोगसहगदकवाड-पदर-लोगपूरणाणमसंभवादो । सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो णत्थि। पमत्ते आहारसमुग्घादो णत्थि । सेसं जाणिय वत्तव्वं । __ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ३५ ॥ द्धातको प्राप्त औदारिककाययोगी जीवोंका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग बताया है, तब शंका की जा सकती है कि वैक्रियिकशरीरवाले जीवेंके वैक्रियिकसमुद्धातका क्षेत्र तो तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग बतलाया गया है, फिर यहां उसका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असं. ख्यातवां भाग क्यों कहा? इस आशंकाका समाधान करते हुए धवलाकार कहते हैं कि यहां पर औदारिककाययोगका प्रकरण है, अतएव औदारिकशरीरवाले मनुष्य और तिर्यंचोंके जो वैक्रियिकसमुद्धात होता है, उसका क्षेत्र तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही हो सकता है, अधिक नहीं। हां, चैक्रियिकशरीरवाले देवादिकोंके जो वैक्रियिकसमुद्धात होता है उसका क्षेत्र अवश्य तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु उसका यहां प्रकरण नहीं है, क्योंकि, औदारिककाययोगका क्षेत्र-कथन करते समय वैक्रियिककाययोगिसहगत वैक्रियिक समुद्धातका क्षेत्र कहना असंभव है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिककाययोगी जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ३४ ॥ शंका-सयोगिकेवली भगवान् लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, इतना ही क्यों कहा? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, औदारिककाययोगसे निरुद्ध क्षेत्रका वर्णन करते समय औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगके साथमें होनेवाले कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातोंका होना संभव नहीं है। इसलिए औदारिककाययोगी सयोगि केवली लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, ऐसा कहा है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि औदारिककाययोगी जीवोंके उपपादपद नहीं होता है । प्रमत्तगुणस्थानमें आहारकसमुद्धातपद भी नहीं है, क्योंकि, यहांपर औदारिककाययोगियोंका क्षेत्र बताया जा रहा है। शेष गुणस्थानों में यथासंभव पद जानकर कहना चाहिए। - औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघके समान सर्वलोकमें रहते Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ३, ३६. बहु कधमेगवयणणिसो ? ण एस दोसो, बहूणं पि जादीए एगत्तुवलंभादो । अथवा मिच्छाइट्ठी इदि एसो बहुवयणणिद्देसो चेव । कधं पुण एत्थ विहत्ती गोवलब्भदे ! 'आइ-मज्झतवण्णसरलोवो' इदि विहत्तिलोवादो । सत्थाण - वेदण- कसाय मारणंतिय-उववादगदा ओरालिय मिस्सकायजोगिमिच्छाइट्ठी सव्वलोगे । विहारवदिसत्थाण - वे उव्वियसमुग्धादा णत्थि तेण तेसिं विरोहादो । ओरालियमिस्सस्स वेउब्वियादिपदेहि भेदसंभवादो ओघणिसो ण घडदे ? ण एस दोस्रो, एत्थ विज्जमानपदाणं परूवणा ओघपरूवणाए तुल्लेति ओघत्तविरोधाभावादो । सासणसम्मादिट्टी असंजदसम्मादिट्टी अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३६ ॥ एत्थ पुन्वसुतादो ओरालियमिस्सकायजोगो अणुवट्टदे | तेणेवं संबंधो भवदि शंका – मिथ्यादृष्टियों के बहुत होने पर भी यहां सूत्रमें एक वचनका निर्देश कैसे किया गया ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि संख्या की अपेक्षा बहुतसे भी जीवों के जातिकी विवक्षासे एकत्व पाया जाता है । अथवा, 'मिच्छाइट्ठी ' यह पद बहुवचनका ही निर्देश समझना चाहिए । शंका- तो फिर यहां बहुवचनकी विभाक्त क्यों नहीं पाई जाती है ? समाधान - 'आदि, मध्य और अन्तके वर्ण और स्वरका लोप हो जाता है, ' इस प्राकृतव्याकरणके सूत्रानुसार बहुवचनकी विभक्तिका लोप हो गया है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोकमें रहते हैं। यहांपर विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धात ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगके साथ इन दोनों पदोंका विरोध है । शंका – औदारिकमिश्रकाययोगका वैक्रिार्यकसमुद्धात आदि पदों के साथ भेद पाया पाया जाता है, अतएव सूत्र में 'ओघ' पदका निर्देश घटित नहीं होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यहां औदारिकमिश्रकाययोगमें विद्यमान स्वस्थान आदि पदोंकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणा के तुल्य है, इसलिए ओघपना विरोधको प्राप्त नहीं होता है। औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवल कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ३६ ॥ इस सूत्र में पूर्व सूत्र से ' औदारिकमिश्रकाययोग' इस पदकी अनुवृत्ति होती है । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३६. ] खेत्ताणुगमे जोगमग्गणाखैत्तपरूवणं [१०७ ओरालियमिस्सकायजोगीसु सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी सजोगिकेवली केवडि खेत्ते इदि। सासणसम्मादिट्ठी सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? ओरालियमिस्सम्हि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसासणसम्मादिद्विरासिस्स संभवादो। एत्थ सेसपदाणि णत्थि, तेण तेसिं तत्थ विरोधादो । असंजदसम्माइट्ठी सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे, संखेज्जपरिमाणादो । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो किमटुं ण उत्तो ? ण, ओरालियमिस्सम्हि द्विदाणमोरालियमिस्सकायजोगेसु उववादाभावादो । अधवा उववादो अत्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीरपढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तओरालियमिस्सजीवाणमभावादो च । सजोगि इसलिए सूत्रके अर्थका इसप्रकार सम्बन्ध होता है- औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सासादन. सम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली कितने क्षेत्र में रहते हैं ? स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्रात और कषायसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी राशिका पाया जाना संभव है। यहां पर शेष विहारवत्स्वस्थान आदि पद नहीं होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानके साथ उन पदोंका यहांपर विरोध है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातगत औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि, वे संख्यात राशिप्रमाण होते हैं। शंका-औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके उपपादपद क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगमें स्थित जीवोंका पुनः औदारिकमिश्रकाययोगियों में उपपाद नहीं होता है। अथवा, उपपाद होता है, क्योंकि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके साथ अक्रमसे उपात्त भव-शरीरके प्रथम समयमें उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, केवलिसमुद्धात और उपपाद इन पांच अवस्थाओंके अतिरिक्त औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंका अभाव है। विशेषार्थ-यहांपर प्रथम तो औदारिकमिश्रकाययोगियोंका औदारिकमिश्रकाययोगियों में उपपादका अभाव बतलाया गया। पुनः, अथवा करके औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें उपपादका सद्भाव भी बतला दिया गया। ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध सी प्रतीत होती हैं । किन्तु यथार्थतः उनमें कोई विरोध नहीं है। भेद केवल कथन-शैलीका है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-प्रथम जो औदारिकमिश्रकाययोगियोंका Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ३७. केवली कवाडगदो तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइजादा असंखेज्जगुणे । वेव्वियकायजोगीसु मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टी केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे || ३७ ॥ एदस्सत्थो - सत्थाणसत्याण-विहार व दिसत्थाण- वेदण-कसाय वेडव्वियसमुग्धादगदा मिच्छादिट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो औदारिक मिश्रकाययोगियों में उपपादका अभाव बतलाया, उसका अभिप्राय यह है कि औदारिकमिश्रकाययोग तिर्यच और मनुष्योंकी अपर्याप्त दशामें ही होता है । और, अपर्याप्तदशाको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मरणको प्राप्त नहीं होता है, जिससे कि वह पुनः औदारिकामिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यच या मनुष्यों में उत्पन्न हो सके । अतएव उसमें सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके उपपादका अभाव बतलाना सर्वथा युक्तिसंगत ही है । पुनः, अथवा करके जो औदारिकमिश्रकाययोगियों में उनके उपपादका सद्भाव बतलाया गया, उसका अभिप्राय यह है कि पूर्वभवके शरीरको छोड़कर उत्तरभवके प्रथम समय में प्रवर्तनको उपपाद कहा गया है । वह उपपाद उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही होता है, अतएव यदि कोई औदारिककाययोगी या वैक्रिथिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि जीव भरकर मनुष्य तिर्यचों में उत्पन्न होता है, तो उसके उत्पत्तिके प्रथम समय में औदारिक मिश्रकाययोगका सद्भाव पाया जायगा । इसीलिए कहा गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानके साथ युगपत् धारण किये गये आगामी भवसम्बन्धी शरीर के प्रथम समय में औदारिकामिश्र काययोगियोंके उपपादका सद्भाव पाया जाता है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उक्त दोनों कथनों में कोई पारस्परिक विरोध नहीं है, भेद केवल कथन-शैली व विवक्षाका ही है । कपाटसमुद्वातगत औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली भगवान् सामान्य लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ३७ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं— स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात ओर वैक्रियिकसमुद्धातगत वैक्रियिककाययोगी मिध्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीपसे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ३९. ] खेत्तागमे जोगमग्गणाखेत्तपरूवणं [ १०९ असंखेज्जगुणे, पहाणीकय जोइसियरासित्तादो । मारणंतिय समुग्धादगंदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर - तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टिय दट्ठव्वं । सासणादिपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला, णवरि सव्वत्थ उववादो णत्थि । वेडव्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी केवsि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३८ ॥ एदस्सत्थो - वेउव्जियमिस्सकायजोगी मिच्छादिट्ठी सत्याण- वेदण कसायसमुग्वादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे अड्डाइज्जादो असंखेजगुणे | सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माइट्ठी सत्याण- वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । आहारकायजोगी आहारमिस्स कायजोगीनु पमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३९ ॥ असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिककाययोग के प्रकरणमें ज्योतिष्क देवराशिकी प्रधानता है । मारणान्तिकसमुद्वातगत वैक्रियिककाययोगी मिध्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और नरलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकों से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहांपर अपवर्तना स्वयं जान लेना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष तीन गुणस्थानवर्ती वैक्रियिककाययोगी जीवोंके स्वस्थानादि पदोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ओघक्षेत्र प्ररूपणा के तुल्य है । विशेषता केवल यह है कि इन सभी गुणस्थानों में उपपादपद नहीं होता है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमे मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यगुणस्थानवर्ती व कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ३८ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं— स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्घातगत वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धतिगत सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। आहारकाययोगियोंमें और आहारमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानवत जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ! लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ।। ३९ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाण ११० ] [ १, ३, ४०. दस्त अत्थो - सत्याण-विहारवदि सत्थाणपरिणदपमतसंजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतिय समुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । सेसपदाणि णत्थि । आहारमिस्सकायजोगिणो पमत्तसंजदा सत्थाणगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । कम्मइयकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ ४० ॥ सत्थाण- वेदण-कसाय-उववादगदा कम्मइयकायजोगिमिच्छादिट्टिणो जेण सन्वत्थ सव्वद्धं होंति, तेण सव्वलोगे बुत्ता । सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माइट्ठी ओघं ॥ ४१ ॥ एदे दो विरासीओ जेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेअगुणे खेत्ते अच्छंति, तेण सुत्ते ओघमिदि वृत्तं । इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान इन दोनों पदोंसे परिणत आहारकाययोगी प्रमत्तसंयत सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धातगत आधार काययोगी सामान्यलोक आदि बार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । आहारकाययोगी प्रमत्तसंयतके उक्त तीन पदोंके सिवाय शेष सात पद नहीं होते हैं । स्वस्थानगत आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयत सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं । कार्मणका योगियोंमें मिध्यादृष्टि जीव ओघमिथ्यादृष्टि के समान सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ४० ॥ स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और उपपाद, इन पदोंको प्राप्त कार्मण'काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव चूंकि सर्वत्र सर्वकालमें पाये जाते हैं, इसलिए वे सर्वलोक में रहते है, ऐसा कहा गया है । कार्मणका योगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव ओघके समान ates असंख्यातवें भाग में रहते हैं ।। ४१ ॥ इन दोनों गुणस्थानों को प्राप्त कार्मणकाययोगी राशियां चूंकि सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहती है, इसलिए सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा गया है । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ४३.] खेत्ताणुगमे वेदमग्गणाखेत्तपरूवणं [१११ सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु सव्वलोगे वा ॥ ४२ ॥ सुगममेदं सुतं । ___ एवं जोगमगणा समत्ता। वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेदेसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अणियट्टी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥४३॥ एदस्स अत्थो- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्वियसमुग्धादगदा इत्थिवेदमिच्छाइट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, तिरियलोगस्स संखेन्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे, पहाणीकददेवित्थिवेदरासित्तादो । मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टणा देवोपतुल्ला । सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अणियदि त्ति ओघमंगो। णवरि असंजदसम्मादिविम्हि उववादो पत्थि । पमत्तसंजदे ण होंति तेजाहारा । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय कार्मणकाययोगी सयोगिकेवली भगवान् कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यात बहु भागोंमें और सर्वलोकमें रहते हैं ॥४२॥ यह सूत्र सुगम है। इसप्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिगुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ४३ ॥ ___ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं--स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातगत स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहांपर देवगतिसम्बन्धी स्त्रीवेदराशिकी प्रधानता है। मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादगत स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और नरलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर अपवर्तना देवोंके ओघक्षेत्रके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतकके स्त्रीवेदी जीवोंका क्षेत्र ओधके समान लोकका असंख्यातवां भाग है । विशेष बात यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्त्रीवेदियोंके उपपादपद नहीं होता है। तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें १ वेदानुवादेन खी'वेदानी मियादृष्टयायनिवृत्तिवादरान्तानां लोकस्यासंख्येयमागः । स. सि. १८. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ४४. वेनियसमुग्धादगदा पुरिसवेद-मिच्छादिट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे खेत्ते अच्छंति । मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेजगुणे । सासणसम्मादिहिप्पहुडि जाव अणियट्टि उवसामग-खवगा त्ति ओघभंगो। णqसयवेदेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव आणियट्टि त्ति ओघं ॥४४॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणतिय-उववादगदणqसयवेदमिच्छादिट्ठी सव्वलोए । विहारवदिसत्थाण-वेउब्धियसमुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेजदिभागे । णवरि वेउव्वियसमुग्धादगदा तिरियलोगस्स असंखेजदिभागे। अढाइज्जादो असंखेज्जगुणे खेत्ते जेण अच्छंति तेण ओघमिदि घडदे । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव आणियट्टी त्ति एदेसि पि परूवणा ओघतुल्ला ति ओधमिदि वुत्तं । तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात नहीं होते हैं। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें.. और तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशामक और अनिवृत्तिकरण क्षपक गुणस्थान तक पुरुषवेदी जीवोंके स्वस्थानादि पदोंका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है। नपुंसकवेदी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है ॥४४॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद, इन पदोको प्राप्त नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोकमें रहते हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घातगत वे ही जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं । विशेष बात यह है कि वैक्रियिकसमुद्घात गत नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। तथा उक्त दोनों पदोको प्राप्त नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीव, चूंकि अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, इसलिए सूत्रमें कहा गया 'ओघ ' यह पद घटित हो जाता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक भी इन नपुंसकवेदी जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ओधवर्णित क्षेत्रप्ररूपणाके तुल्य है, इससे भी सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा गया है। १ नपुंसकवेदाना मिथ्यादृष्टयाद्यनिवृत्तिबादरान्तानtxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।स. सि. १,८. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ४७.] खेत्ताणुगमे कसायमग्गणाखेत्तपरूवणं [ ११३ णवरि पमत्ते तेजाहारपदं णत्थि । __ अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥४५॥ ___एदस्स अत्थो- चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे सत्थाणत्था अच्छंति । मारणंतियसमुग्घादगदा उवसामगा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति त्ति वुत्तं होदि । सजोगिकेवली ओघं ॥ ४६॥ पुव्वं परूविदत्थमिदं सुत्तमिदि एत्थ एदस्स अत्थो ण वुच्चदे । एवं वेदमग्गणा समत्ता । कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥४७॥ चदुकसाइमिच्छाइट्ठिणो सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणतिय-उववादगदा ओघ विशेष बात यह है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें नपुंसकवेदियोंके तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात, ये दो पद नहीं होते हैं। अपगतवेदी जीवोंमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अवेदभागसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४५ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानपदगत अपगतवेदी जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवे भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त उपशामक जीव सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहा गया है। अपगतवेदी सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ४६॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है, इसलिए यहां पर इसका अर्थ पुनः नहीं कहा जाता है। इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई। कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओघके समान सर्वलोक है ॥४७॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद १४४ अपगतवेदानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ३, ४८. मिच्छादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदेहि सबलोगम्हि अच्छणेण अणुहरंति । विहारवदिसत्थाण-घेउव्यियसमुग्धादगदा वि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे खेत्ते अच्छणं पडि अणुहरति । तदो चदुकसायमिच्छादिट्ठिणो दयट्ठियणएण ओघत्तमुवलभंते । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥४८॥ __ एत्थ सुत्ते ओघमिदि किण्ण वुत्तं ? ण एस दोसो, दव्यट्ठियणयावलंबणाभावादो । सो वि किमिदि णावलंबिदो ? पज्जवट्ठियसिस्साणुग्गहटुं । जदि एवं, तो दयट्ठियसिस्सा अणणुग्गहिदा होति ? ण, पुव्वुत्तसुत्तेण मिच्छादिहिपडिबद्धेण दवट्ठियसिस्साणमणु. पदगत चारों कषायवाले मिथ्यादृष्टि जीव, स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत ओघमिथ्यादृष्टियोंके साथ सर्व लोक अवस्थानके द्वारा अनुकरण करते हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमद्धातगत चारों कषायवाले मिथ्यादृष्टि जीव भी सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहनेकी अपेक्षा, विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातगत ओघमिथ्यादृष्टियोंके क्षेत्रका अनुकरण करते हैं, इसलिए चारों कषायवाले मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा ओघक्षेत्रताको प्राप्त होते हैं। __ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती चारों कषायवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥४८॥ शंका-इस सूत्रमें 'लोकके असंख्यातवें भागमें' इतने के स्थानपर 'ओघ' इतना ही पद क्यों नहीं कहा? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यहांपर द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन नहीं किया गया है। शंका-उस द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन क्यों नहीं किया गया ? समाधान-पर्यायार्थिकनयी शिष्योंका अनुग्रह करने के लिए यहां द्रव्यार्थिकनयका ग्रहण नहीं किया गया। __ शंका-यदि ऐसा है, तो द्रव्यार्थिकनयी शिष्य इस सूत्रसे अनुगृहीत नहीं किये गये हैं ? समाधान -नहीं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टियोंके क्षेत्रसे प्रतिबद्ध पूर्वोक्त सूत्रसे द्रव्यार्थिक १ कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणा लोभकषायाणां च मिथ्यादृष्टयाधनिवृत्तिवादरान्तानt xx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १.८. www.jainelibrary. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ४८.] खेत्ताणुगमे कसायमग्गणाखेत्तपरूवणं [११५ ग्गहकरणा । एदेण दव्य-पज्जवट्ठियणयपज्जायपरिणदजीवाणुग्गहकारिणो जिणा इदि जाणाविदं । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउविय-मारणंतिय-उववादगदसासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्माइहिणो चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइजादो असंखेजगुणे खेत्ते अच्छंति । ' लोगस्स असंखेजदिभागे' इदि सुत्ते वुत्तं, तेण माणुसखेत्तस्स वि असंखेज्जदिभागे एदेहि होदव्यं, लोगत्तं पडि विसेसाभावादो ? ण एस दोसो। होदि एस दोसो, जदि पज्जवडियमस्सिदूण एस लोगसद्दो हिदो। किंतु दव्यट्ठियणयमवलंबिऊण द्विदत्तादो सबलोगसमूहस्स अखंडस्स वाचगो, तेण — लोगस्त असंखेजदिभागे' इदि सुत्तवयणं ण विरुज्झदे । जदि एवं, तो पज्जवट्ठियणयमवलंबिऊण द्विवक्खाणवयणं सुत्तेण असंबद्धं होदि त्ति ? ण, विसेसवदिरित्तजादीए अभावादो। विसेसालिंगिदसामण्णलोगो जेण सुत्तम्मि वुत्तो तेण लोगस्स अवयवभूदचत्तारि लोगे अस्सिदग जं वक्खाणं तण्ण सुत्तविरुज्झमिदि । एवं सम्मामिच्छाइट्ठीणं । णवरि मारणंतिय-उववादपदं णत्थि । नयी शिष्यों का अनुग्रह कर ही दिया गया है। इस विवेचनसे यह बात बतलाई गई कि जिन भगवान् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थक, इन दोनों नयस्वरूप पर्यायोंसे परिणत जीवोंके अनुग्रह करनेवाले होते हैं। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंको प्राप्त चारों कषायवाले सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। शंका -' लोकके असंख्यातवें भागमें' इतना ही पद सूत्र में कहा है, इसलिए 'मानुषक्षेत्रके भी असंख्यातवें भागमें रहते हैं' ऐसा अर्थ होना चाहिए, क्योंकि, लोकत्वकी अपेक्षा सामान्यलोक, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक और मनुष्यलोक, इन पांचों ही लोकों में विशेषताका अभाव है, अर्थात् समानता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है। यह दोष होता, यदि केवल पर्यायाथिकनयका ही आश्रय लेकर यह लोकशब्द स्थित होता। किन्तु यह लोकशब्द द्रव्यार्थिकनयका अव. लम्बन करके स्थित है, अतएव अखंड सर्वलोकके समूहका वाचक है, इसलिए 'लोकके असंख्यातवें भागमें' इस प्रकारका यह सूत्र-वचन विरोधको प्राप्त नहीं होता है। शंका-यदि ऐसा है, तो पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करके स्थित व्याख्यान-वचन सूत्रके साथ असंबद्ध होगा? समाधान नहीं, क्योंकि, विशेषसे व्यातिरिक्त जातिका अभाव पाया जाता है। चूंकि, विशेषसे आलिंगित सामान्यलोक सूत्र में कहा है, इसलिए लोकके अवयवभूत ऊर्ध्वलोक आदि चार लोकोंका आश्रय करके जो व्याख्यान किया गया है, वह सूत्रसे विरुद्ध नहीं है, अपि तु संबद्ध है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ४९. एवं संजदासंजदाणं । णवरि उववादपदं णत्थि । सेसगुणहाणाणि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । णवरि मारणंतियसमुग्घादगदा माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे होति । लोभकसायविसेस पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि णवरि विसेसो, लोभकसाईसु सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥४९॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो।। अकसाईसु चदुट्टाणमोघं ॥५०॥ एत्थ हाणसदो गुणट्ठाणवाचगो, 'अवयवेषु प्रवृत्ताः शब्दाः समुदायेषपि वर्तन्ते' इति न्यायात् । यथा सत्यभामा भामा, बलदेवो देवः, भीमसेनः सेन इति । कधमुवसंत. इसीप्रकारसे चारों कषायवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि यहांपर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। इसी प्रकार चारों कषायवाले संयतासंयतोंका क्षेत्र होता है । विशेषता यह है कि इनके उपपाद पद नहीं है। शेष गुणस्थानवी चारों कषायवाले जीव सामान्यलोक आदि चार असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेषता यह है कि मारणान्तिकसमुद्धातगत चारों कषायवाले संयत जीव मानुषक्षेत्रले असंख्यातगुणे क्षेत्रमें अब लोभकषायकी विशेषता बतलानेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं विशेष बात यह है कि लोभकषायी जीवोंमें सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥४९॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानोंका क्षेत्र ओघ-क्षेत्रके समान है ॥५०॥ यहांपर 'स्थान' शब्द गुणस्थानका वाचक है, क्योंकि, 'अवयवों में प्रवृत्त हुए शब्द समुदायों में भी रहते हैं' ऐसा न्याय है। जैसे 'भामा' कहनेसे सत्यभामा, 'देव' कहनेसे बलदेव और 'सेन' कहनेसे भीमसेनका ज्ञान होता है, इसी प्रकार यहां भी 'स्थान' शब्दसे गुणस्थानका बोध होता है। शंका-जहां कषायोंका उपशमन ही है, ऐसे उपशान्तकषाय गुणस्थानको अक १xx सूक्ष्मसाम्परायाणां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. २xx अकषायाणां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ५१. ] खेत्तागमे णाणमग्गणाखेत्तपरूवणं [ ११७ कसाओ अकसाओ ? ण, भावकसायाभावं पेक्खिदूण तस्स वि अकसायत्तसिद्धीदो । बहुब्बीहिसमासं कादूग 'अकसाएसु' ति णिद्देसो किण्ण कदो ? ण, पज्जयपडिसेधे कदे कसायविरहिदथंभादीणं पि अकसायत्तप्पसंगादो। दव्त्रपडिसेहे कदे सो दोसो ण पावदे, एदेण णावएण ओसारिदपसज्जपडिसेहत्तादो । कस्स णयस्स एस ववहारो ? सद्दट्ठसंबंधस्स णिच्चत्तमिच्छंतसद्दणयस्स | ' अवगदवेद एसु ' चि दव्त्रणिदेसो वि एवं चैव वक्खाणेदव्यो । सेसं सुगमं । पाणावा देण मिच्छादिट्ठी एसा णिद्धारणे सत्तमी, मदि-सुदअण्णाणीणं मिच्छादिद्विवदिरित्ताणं सासणाणं पि ओघं ॥ ५१ ॥ एवं कसायमग्गणा समत्ता । मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु पाय कैसे कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, यहांपर भावकषायके अभाव की विवक्षा से उपशान्तकषाय गुणस्थानके भी अकषायपनेकी सिद्धि हो जाती है । शंका- 'नहीं हैं कषाय जिनके' ऐसा बहुब्रीहि समास करके 'अकषायोंमें ' इस प्रकारका निर्देश क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, पर्यायके प्रतिषेध कर देनेपर कषायसे विरहित स्तभ्मादिकोंके भी अन्यथा अकषायताका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । किन्तु, द्रव्यके प्रतिषेध करनेपर वह अतिप्रसंग दोष नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, इसी ज्ञापक ( न्याय) के द्वारा आए हुए दोषप्रसंगका प्रतिषेध कर दिया गया । शंका- यह उक्त व्यवहार किस नयका है ? समाधान - शब्द और अर्थके वाच्यवाचकसम्बन्धको नित्य माननेवाले शब्दनयका यह व्यवहार है । वेदमार्गणा के अन्त में दिये हुए ( नं. ४५ वें ) सूत्रके ' अपगतवेदियों में इस पद के द्रव्यनिर्देशका भी इसी प्रकारसे व्याख्यान करना चाहिए। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई । ज्ञानमार्गणा अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओघके समान सर्वलोक है ॥ ५१ ॥ यहां पर 'मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियों में ' यह सप्तमी विभक्ति निर्द्धारणके अर्थ में है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से व्यतिरिक्त सासादनगुणस्थानवर्ती भी मत्यज्ञानी और १ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानि श्रुताज्ञानिनां मिथ्यादृष्टिसासादन सम्यग्दृष्टीनी सामान्यक्ति क्षेत्रम् । स. सि. १,८, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ५२. संभवादो । सेसं पुव्वं पदुप्पादिदमिदि पुव्वुत्तट्ठावधारिदसिस्साणुरोहेण ण वुच्चदे । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ ५२ ॥ एत्थ पुनसुत्तादो मदि-सुदअण्णाणीसु त्ति अणुवट्टदे ? कधं णिच्चेयणस्स खणखइणो सदस्स अविणहरूवेण अणुवत्ती ? ण एस दोसो, एदस्त सुनस्स अवयवभावेण द्विदअण्णसहस्स पुवसदेण समाणत्तमवेक्खिय सो चैव एसो इदि पच्चयहिण्णाणपच्चयणिमित्तस्स अणुवत्तिविरोहाभावादो। सेसो गदह्यो । विभंगण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५३॥ एदस्सत्थो- विभंगगाणी मिच्छाइट्ठी सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयणकसाय-वेउब्वियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो एदं ? पहाणीकदपज्जत्तदेवरासित्तादो। मारणंतिय ताज्ञानी पाये जाते हैं। शेष व्याख्यान पहले कर आए हैं, अतः पूर्वोक्त अर्थ के अवधारण करनेवाले शिष्यों के अनुरोधसे पुनः नहीं कहते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंका क्षेत्र ओघसासादनसम्यग्दृष्टिके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥५२॥ यहां पर पूर्वसूत्रसे ' मति-श्रुताशानियोंमें ' इतने पदकी अनुवृत्ति होती है। शंका- अचेतन और क्षण-क्षयी शब्दकी अविनष्टरूपसे अनुवृत्ति कैसे हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इस सूत्रके अवयवरूपसे स्थित अन्य शब्दकी पूर्व शब्दके साथ समानता देखकर 'यह वही है' इस प्रकारके प्रत्यभिज्ञानकी प्रतीतिके निमित्तभूत शब्दकी अनुवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है। शेष सूत्रका अर्थ पहले किया जा चुका है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५३॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपले असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। शंका-स्वस्थानादि पदगत विभंगवानी मिथ्यादृष्टि तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें क्यों रहते हैं ? १ विभङ्गलानिना मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दष्टिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १,८. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ५५. ] खेत्ताणुगमे णाणमग्गणाखेत्तपरूवणं समुग्घादगदा एवं चेव । णवरि तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं । उववादपदं णत्थि । सासणसम्मादिही सव्धेहि वि पदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणे । एत्थ वि उववादो णस्थि । आभिाणबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदि. भागे ॥५४॥ एदं सुत्तं वुत्तत्थमिदि पुणो ण एदस्स अत्थो वुच्चदे। मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजदप्पहाडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५५॥ समाधान-चूंकि, यहां पर पर्याप्त देवराशिकी प्रधानता है, इसलिए स्वस्थानादि पदोंको प्राप्त वे देव तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमे रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धातगत विभंगज्ञानियोंका क्षेत्र भी इसी प्रकार ही है। विशेषता केवल इतनी कहना चाहिए कि वे तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंके उपपादपद नहीं होता है, (क्योंकि, पर्याप्तावस्थामें ही विभंगज्ञान उत्पन्न होता है) । विभंगशानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव स्वस्थानादि सभी संभव पदोंकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर भी उपपाद पद नहीं है । (कारण भी उपर्युक्त ही समझना चाहिए)। __ आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५४॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कह दिया गया है, इसलिए पुनः इसका अर्थ नहीं कहते हैं। __ मनःपर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥५५॥ १ आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानिनामसंयतसम्यग्दृष्टयार्दाना क्षीणकषायान्तानां xxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. २xx मनःपर्य यज्ञानिनां च प्रमचादीनां क्षीणकषायान्तानxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ५६, किमहं एदेसु तीसु सुत्तेसु पञ्जयणयदेसणा ? बहूर्ण जीवाणमणुग्गहढे । दव्वढि--- एहितो पज्जवल्लियजीवाणं बहुत्तं कधमवगम्मदे ? ण, संगहरुइजीहितो बहूणं वित्थररुइजीवाणमुवलंभादो । सेसमवगदहूँ । केवलणाणीसु सजोगिकेवली ओघं ॥ ५६॥ एत्थ किमह दव्वट्ठियणओ अवलंविदो? ण, पज्जवडियणयावलंबणे कारणाभावा । पज्जवट्ठियणओ अवलंबिञ्जदे विसेसपदुप्पायणटुं, ण च एत्थ को वि विसेसो अस्थि । ण च पुव्वसुत्तेहि वियहिचारो, पादेकं गुणहाणेसु तत्थ णाणभेदोवलंभादो । सेसं सुगम ।। अजोगिकेवली ओघं ॥ ५७ ॥ एसो णवसु पदेसु कत्थ वढदे ? सेसपदसंभवाभावादो सत्थाणे पदे । शंका-इन अभी कहे गए तीनों सूत्रोंमें पर्यायार्थिकनयका उपदेश किस लिए दिया गया है? समाधान - बहुतसे जीवों के अनुग्रह करने के लिए पर्यायार्थिकनयका उपदेश दिया गया है। शंका-द्रव्यार्थिकनयी जीवोंसे पर्यायार्थिंकनयघाले जीव बहुत हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, संक्षेपरुचियाले जीवोंसे विस्ताररुचिवाले जीव बहुत पाये जाते हैं। शेष सूत्रका अर्थ तो अवगत ही है। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है ॥ ५६ ॥ शंका- इस सूत्रमें किसलिए द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन किया गया है ! समाधान - नहीं, क्योंकि, पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करनेका यहां कोई कारण नहीं है। पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन विशेष प्रतिपादनके लिए किया जाता है। किन्तु महांपर कोई भी विशेषता नहीं है, (जिसके कि बतलानेके लिए पर्यायार्थिकनयका अयलम्बन किया जाय)। और न यहांपर पूर्व सूत्रसे (जा कि पर्यायाथिकनयी है) व्यभिचार दोष ही आता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों से प्रत्येक गुणस्थानमें शानभेद पाया जाता है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। अयोगिकेवली भगवान् ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥५७॥ शंका-ये अयोगिकेवली भगवान् स्वस्थानादि नौ पदोंमेंसे किस पदमें रहते हैं ? समाधान-अयोगिकेवलीके विहारवत्स्वस्थानादि शेष अशेष पद संभव न होनेसे घे स्वस्थानस्वस्थान पदमें रहते हैं। १xx केवलज्ञानिना सयोगाना - सामान्योक्त क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. २xx केवलशानिनी x अयोगानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,९. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ५८.] खेत्ताणुगमे संजममग्गणाखेत्तपरूवणं [ १२१ उप्पण्णपदेसो घरं गामो देसो वा सत्थाणं, तस्स वि उवयारदसणादो। ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिदपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धीए अभावादो ति ? ण एस दोसो, वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो । ण सरागाणमेस जाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवादो । अधवा एस चेव णाओ सव्वत्थ घेप्पउ, विरोहाभावादो । जदि एवं सत्थाणस्स अत्थो वुच्चदि, तो सासणसत्थाणफोसणस्स अट्ठ चोद्दसभागा पावंति त्ति चे ण, फोसणे ममेदंबुद्धिपडिगहिदस्स सस्सामिसंबंधेण वारिदस्स चेव सत्थाणववदेसादो। सेसं सुगमं । ___ एवं णाणमग्गण्णा समत्ता। संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं ॥ ५८ ॥ __ शंका-अपने उत्पन्न होनेके प्रदेश, घर, ग्राम अथवा देशको स्वस्थान कहते हैं। इस प्रकारका यह स्वस्थानपद भी अयोगिकेवलीमें केवल उपचारसे ही देखा जाता है, (न कि यथार्थतः)। तथा 'यह मेरा है' इस प्रकारकी बुद्धिसे प्रतिगृहीत प्रदेशको स्वस्थान कहते हैं, किन्तु क्षीणमोही अयोगी भगवान्में ममेदबुद्धिका अभाव है, इसलिए (किसी भी प्रकारसे) अयोगिकेवलीके स्वस्थानपद नहीं बनता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, वीतरागियोंके अपने रहनेके प्रदेशको ही स्वस्थान नामसे कहा गया है। किन्तु सरागियोंके लिए यह न्याय नहीं है, क्योंकि, इनमें ममेदभाव संभव है। अथवा, 'अपने रहनेके प्रदेशको स्वस्थान कहते हैं। यही न्याय सर्वत्र ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, उसके मानने में कोई विरोध नहीं है। शंका- यदि इस प्रकार स्वस्थानका अर्थ कहते हैं, तो सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके स्वस्थानस्वस्थानपदके स्पर्शनका क्षेत्र आठ बटे चौदह र राजु प्रमाण प्राप्त होता है, (जो कि आगे स्पर्शनानुयोगद्वार में बताया नहीं गया है ) ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, स्पर्शनानुयोगद्वारमें, ममेदबुद्धिसे प्रतिगृहीत और अपने स्वामित्वके सम्बन्धसे रोके हुए क्षेत्रको ही स्वस्थान संज्ञा प्राप्त है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम ही है। इस प्रकार शानमार्गणा समाप्त हुई। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संयत जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५८ ॥ १ संयमानुवादेन xxx संयतानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ३, ५९. एत्थ किमहं दव्वणियदेखणा कीरदे ? ण, संजमसामण्णे पहाणीकदे ओघं पडि विसेसाभावादो । पज्जवट्ठियणयपरूवणा एत्थ जाणिय वत्तव्वा । सजोगिकेवली ओघं ॥ ५९ ॥ एगजोगो किण्ण कदो ? ण, खेत्तं पडि सेसगुणट्ठाणेहिंतो सजोगिस्स विसे सोवलंभादो । जदि एवं, तो सगुणद्वाणाणं पि णाणाविहभेयभिण्णाणं पुध पुध सुत्तकरणं पावेदि तिचे ण, तेसिं पहाणीकयखेत्तजणिदविसेसाभावादो। एत्थ सेसा पज्जवडियणयपरूवणा सव्वा वत्तव्या । सामाइयच्छेदोवडावणसुद्धिसंजदेसु पमत्त संजद पहुडि जाव आणियहि त्ति ओघं ॥ ६० ॥ शंका- इस सूत्र में द्रव्यार्थिकनयकी देशना किस लिए जा रही है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, संयमसामान्यके प्रधान करनेपर ओप्रक्षेत्रप्ररूपणाकी अपेक्षा संयममार्गणाके अनुवादसे क्षेत्रप्ररूपणा में कोई विशेषता नहीं है । ive पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणा जान करके करना चाहिए । सयोगिकेवली भगवान् ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें, लोकके असंख्यात बहुभागों में और सर्वलोकमें रहते हैं ॥ ५९ ॥ शंका- इन दोनों सूत्रोंका एक समास क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षेत्रकी अपेक्षा शेष गुणस्थानोंसे सयोगिकेवली के क्षेत्र में विशेषता पाई जाती है । शंका- यदि ऐसा है, तो नाना प्रकारके भेदोंसे भिन्नताको प्राप्त शेष गुणस्थानों के भी पृथक् पृथक् सूत्रों की रचना प्राप्त होती है ? - समाधान – नहीं, क्योंकि, शेष गुणस्थानोंकी पृथक् पृथक् प्रधानता करनेपर भी क्षेत्र-जनित विशेषताका अभाव है, इसलिए पृथक् पृथक् सूत्र - रचनाका प्रसंग नहीं प्राप्त होता है । यहांपर सभी गुणस्थानसम्बन्धी शेष सर्व पर्यायार्थिकनयकी क्षेत्रप्ररूपणा कहना चाहिए । सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत ओघके समान लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ६० ॥ १ × सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतानां चतुर्णां x x x सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ६२.] खेत्ताणुगमे संजममग्गणाखेत्तपरूवणं [१२३ ओघपमत्तादिरासीदो सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदपमत्तादओ समाणा ति एदेसि परूवणा ओघं भवदि । ण च सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेहितो पुधभावभूदा परिहारसुद्धिसंजदा अस्थि, जेण तदो भेदो होज्ज । किमिदि पुधभूदा णत्थि ? दुणयवदिरित्तछदुमत्थजीवाभावादो। सेसं सुगमं । - परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अप्पमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ६१ ॥ एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो पुवं परूविदो त्ति संपहि ण वुच्चदे । णवरि पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदउवसमा खवगा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ६२॥ ओघमें कही गई प्रमत्तसंयतादिराशिसे सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमवाले प्रमत्तसंयतादिक समान हैं, इसलिए इनके क्षेत्रकी प्ररूपणा ओघोक्त क्षेत्रके समान बन जाती है । और, सामायिक तथा छेदोपरथापनाशुद्धिसंयतोंसे परिहारविशुद्धिसंयत पृथग्भावरूप है नहीं, जिससे कि उनसे उनका भेद हो जाय । शंका-परिहारविशुद्धिसंयत, सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंसे पृथग्भूत क्यों नहीं है ? समाधान- क्योंकि, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंसे भिन्न छमस्थ जीवोंका अभाव है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। परिहारविशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६१॥ इस सूत्रका भी अर्थ पहले कहा जा चुका है, इसलिए अब नहीं कहते हैं। विशेष बात यह है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती परिहारविशुद्धिसंयतके तैजससमुद्धात और भाहारकसमुद्धात ये दो पद नहीं होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २॥ १ प्रतिषु 'दुण्णय' इति पाठ: १xxxपरिहारविशुद्धिसंयतानो प्रमताप्रमत्तानtxxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ३xxx सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतानांxxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] छखंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ६३. - सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु त्ति आधारणिदेसो । तत्थ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा दुविधा होंति उवसामगा खवगा चेदि । ते अप्पणो पदेसु वट्टमाणा चदुण्हं लोगाणम संखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे होति । णवरि मारणंतियपदे माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे होति । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुट्ठाणमोघं ॥ ६३॥ एत्थ ठाणसद्दो पुव्वुत्तणाएण गुणट्ठाणवाची । चदुण्हं ठाणाणं समाहारो चदुट्ठाणी, सा ओघं होदि । उवसंतकसाय-खीणकसाय-सजोगि-अजोगिजिणाणं जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदाणं अप्पणो ओघपरूवणं होदि त्ति जं वुत्तं होदि । संजदासजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥६४॥ एदस्स अत्थो पुव्वं परूविदो । असंजदेसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥६५॥ 'सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें' इस पदसे आधारका निर्देश किया गया । इस गुणस्थानमें सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत दो प्रकारके होते हैं, उपशामक और क्षपक । वे दोनों ही प्रकारके सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत अपने यथासंभव पदों में रहते हुए सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेष बात यह है कि मारणान्तिकसमुद्धातपदमें उपशामक जीव मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। ___ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें उपशान्तकपाय गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक चारों गुणस्थानवाले संयतोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ६३ ॥ इस सूत्र में आया हुआ 'स्थान' शब्द पूर्वोक्त न्यायसे गुणस्थानका वाचक है। चार गुणस्थानोंके समुदायको 'चतु:स्थानी' कहते हैं। उनका क्षेत्र ओघके समान है । अर्थात् , उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिजिन और अयोगिजिन गुणस्थानवर्ती यथाख्यातविहारविशुद्धिसंयतोंका क्षेत्र अपने ओघक्षेत्रके समान होता है, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए। संयतासंयत जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥६४॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है। असंयतोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघके समान सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ६५ ॥ १xxx यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतानां चतुपर्णा xx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. २xxx संयतासंयताना xx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. ३xx असंयतानां च चतुर्णा सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स सि. १, ८. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ६६.] खेत्ताणुगमे संजममग्गणाखेत्तपरूवणं [१२५ ओघपरूणा गुणट्ठाणाणमभेदेण भेदेण च जा कदा, सा अत्थोघ-आदेसोधेहि दुविधा होदि । आदेसोघो वि गुणट्ठाणभेदेण चोदसविहो होदि । एत्थ ओघमिदि वुत्ते कदमस्स ओघस्स गहणं? आदेसोधस्स अवयवभूदमिच्छादिट्ठीणमोघस्त । कधमेदं लब्भदे ? पच्चासत्तीदो । अण्णेहि वि ओघेहि सह कथंचि पच्चासत्ती अत्थि त्ति भणिदे ण, अण्णेहि सह मिच्छादिट्ठीहि जेम पयरिसेण पच्चासत्तीए अभावादो। एदमत्थपदं सव्वत्थ जोजेयव्वं । असंजदचदुगुणहाणाणमेगजोगो किण्ण कदो ? ण, मिच्छादिट्ठीणं सेसगुणट्टाणेहि सह खेत्तेण पयरिसपच्चासत्तीए अभावादो । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥६६॥ एदेसिं तिण्हं गुणट्टाणाणं चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागत्तणेण माणुसखेत्तादो असंखेजगुणत्तणेण पच्चासत्ती अत्थि त्ति एगजोगो कदो । एवं संजममग्गणा समत्ता । शंका-ओघप्ररूपणा गुणस्थानोंके अभेदसे और भेदसे जो की गई है, वह अर्थओघ और आदेश-ओघके भेदसे दो प्रकारकी होती है। आदेश-ओघ भी गुणस्थानोंके भेदसे चौन प्रकारका होता है। सो यहां ' ओघ' ऐसा सामान्यपद कहनेपर किस ओघका ग्रहण किया गया है? समाधान - आदेश-ओघके अवयवभूत मिथ्याष्टियोंके ओघका ग्रहण किया गया है। शंका- यह अर्थ कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-प्रत्यासत्तिसे, अर्थात् सामीप्यसे, आदेश-ओघका ग्रहण किया गया है, यह जाना जाता है। शंका-प्रत्यासत्ति तो कथंचित् अन्य भी ओघोंके साथ हो सकती है ? समाधान-ऐसी शंकापर उत्तर देते हैं कि नहीं, क्योंकि, अन्य ओघोंके साथ मिथ्यादृष्टियोंके समान प्रकर्षतासे प्रत्यासत्तिका अभाव है। यह अर्थपद सर्वत्र लगाना चाहिए। शंका-असंयत चारों गुणस्थानोंका एक योग (समास) क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टियोंकी शेष सास.दनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंके साथ क्षेत्रकी अपेक्षा प्रकर्षतम प्रत्यासत्तिका अभाव है। अतंयतोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥६६॥ इन सूत्रोक्त तीनों ही गुणस्थानोंका सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागके साथ और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रके साथ प्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिए उक्त तीनों गुणस्थानोंका एक योग इस सूत्रमें किया गया है। इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, ६७. दसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे॥६७॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउबियसमुग्घादगदा चक्खुदसणी मिच्छादिट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेजदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टणा जाणिय कादव्या । एवं मारणंतियसमुग्वादगदा । णवरि तिरियलोगादो असंखेजगुणे त्ति वत्तव्वं । एवं चेव उववादगदाणं पि वत्तव्यं । अपजत्तकाले चक्खुदंसणाभावादो उववादो णत्थि त्ति णासंकणिज्जं, अपज्जत्तकाले वि खओवसम पडुच्च चक्खुदंसणुवलंभादो । जदि एवं, तो लद्धिअपज्जत्ताणं पि चक्खुदंसणित्तं पसज्जदे । तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो ? ण एस दोसो, णिव्यत्तिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चक्खुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणखओवसमदंसणादो । चउरिदिय दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानी जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६७ ॥ स्वस्थानस्वस्थान विहारवत्स्वस्थान वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर अपवर्तना जानकर करना चाहिए। इसी प्रकार मारणान्तिकसमुद्धातगत चक्षुदर्शनियोंका क्षेत्र है। विशेष बात यह है कि मारणान्तिकसमुद्धातगत चक्षुदर्शनी जीव तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहना चाहिए । इसी प्रकारसे उपपादगत चक्षुदर्शनियोंका भी क्षेत्र कहना चाहिए। अपर्याप्तकालमें चक्षुदर्शनका अभाव होनेसे यहांपर उपपादपद नहीं है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें भी क्षयोपशमकी अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है। शंका-यदि ऐसा है, तो लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके भी चक्षुदर्शनीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन होता नहीं है । यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके भी चक्षुदर्शनका सद्भाव माना जायगा, तो चक्षुदर्शनी जीवोंके अवहारकालको प्रतरांगुल के असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपनेका प्रसंग प्राप्त होगा? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन होता है, इसका कारण यह है कि उत्तरकालमें, अर्थात् अपर्याप्तकाल समाप्त होनेके पश्चात् निश्चयसे चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनका क्षयोपशम देखा जाता १ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दनिना मिध्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्ताना लोकस्य संख्येयभागः । स. सि. १,८. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ७१.] खेत्ताणुगमे दंसणमग्गणाखेत्तपरूवणं [१२७ पंचिंदियलद्धिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोवओगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणक्खओवसमाभावादो। सेसगुणट्ठाणाणं पज्जवट्ठियपरूवणा जाणिय वत्तव्या। अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ६८॥ सुगममेदं सुत्तं । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ ६९॥ एदेसिमणंतरदोसुत्ताणमेगत्तं किण्ण कदं ? ण, मिच्छादिट्ठीहि सेसगुणट्ठाणाणं पच्चासत्तीए अभावादो। ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगों ॥ ७० ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ ७१ ॥ है। हां, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लध्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन नहीं होता है, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमका अभाव है। इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानोंकी पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी प्ररूपणा जान करके कहना चाहिए । अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघके समान सर्वलोकमें रहते हैं । ६८ ॥ यह सूत्र सुगम है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकपायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती अचक्षुदर्शनी जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६९ ॥ शंका-इन अनन्तरोक्त दोनों सूत्रोंका एकत्व क्यों नहीं किया, अर्थात् एक सूत्र क्यों नहीं बनाया? समाधान-नहीं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि अचक्षुदर्शनी जीवोंके साथ शेष गुणस्थानवर्ती अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्रत्यासत्तिका अभाव है। अवधिदर्शनी जीवोंका क्षेत्र अवधिज्ञानियोंके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥ ७० ॥ केवलदर्शनी जीवोंका क्षेत्र केवलज्ञानियोंके समान लोकका असंख्यातवां भाग, लोकका असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक है ।। ७१ ॥ १ अचक्षुर्दर्शनिना मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्ताना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १. ८. २ अवधिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. ३ केवलदर्शनिना केवलज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ 1 छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, ७२. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि त्ति पज्जवट्ठियपरूवणा ण कीरदे। - एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ७२ ॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय मारणंतिय-उववादपदेहि सव्वलोगच्छणेण, विहारवदिसत्थाण वेउब्धियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेजदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे खेत्ते अच्छणेण च सरिसत्तमत्थि त्ति ओघमिदि भणिदं । णवरि वेउव्वियसमुग्धादगदा तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥७३॥ चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागत्तणेण माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणत्तणेण च ये दोनों ही सूत्र सुगम है, इसलिए पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणा नहीं की जाती है । इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्या दृष्टि जीव ओषके समान सर्वलोकमें रहते हैं ॥ ७२ ॥ रवस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंकी अपेक्षा सर्वलोकमें रहनेसे, विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकपदकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहने की अपेक्षा तीनों अशुभ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके क्षेत्रके सदृशता है, इसलिए सूत्रमें 'ओघ' यह पद कहा। विशेष बात यह है कि वैक्रियिकसमुद्धातगत तीनों अशुभलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. सम्यग्दृष्टि जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ७३ ॥ तीनों अशुभलेश्यावाले उक्त तीनों गुणस्थानवी जीवोंके स्वसंभव पदोंकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहनेसे और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे .................. ....................... १ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां मिथ्यादृष्टयायसंयतसम्यग्दृष्टयन्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२९ १, ३, ७४.] खेत्ताणुगमे लेस्सामगणाखेत्तपरूवणं सरिसत्तुवलंभादो सिद्धमोघत्तं । विसेसदो पुण मारणंतिय-उववादगदा किण्ह-णील-काउलेस्सियअसंजदसम्मादिविणो संखेज्जा वि होदूण माणुसखेतादो असंखेज्जगुणे खेत्तेअच्छति, असंखेज्जजोयणायामत्तादो। - तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ७४ ॥ तेउलेस्सियमिच्छादिट्ठी सत्थाणसस्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउव्वियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । मारणंतियसमुग्धादगदा एवं चेव । णवरि तिरियलोगादो असंखेजगुणे त्ति वनव्वं । एवं चेव उववादगदाणं । एत्थ ओवट्टणं ठविज्जमाणे सुधम्मरासिं ठविय अप्पणो उवक्कमणकालेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे एगसमएण तत्थुववज्जमाणजीवा हॉति । पुणो अवरमेगं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारसरूवेण दृविदे रज्जुआयामेण उववादगदरासी होदि । पुणो संखेज्जपदरंगुलमेचरज्जूहि क्षेत्रमें रहनेसे सदृशता पाई जाती है, इसलिए उनके क्षेत्रके ओघपना सिद्ध हुआ। किन्तु विशेष बात यह है कि मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यात होकरके भी मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, उनके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत दंडका आयाम असंख्यात योजन पाया जाता है। तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यावृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ७४ ॥ ___स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव सामान्य लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धातगत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र भी इसी प्रकार है। विशेष वात यह कहना चाहिए कि वे तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार उपपाद पदगत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोका क्षेत्र जानना चाहिए। यहांपर अपवर्तनाके स्थापित करते समय सौधर्मकल्पकी जीवराशिको स्थापित कर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अपने उपक्रमणकालसे भाग देनेपर एक समयमें उनमें उत्पन्न होनेवाले जीव होते है। पुनः एक दूसरा पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहारस्वरूपसे स्थापित कर एक राजुप्रमाण आयामवाली उपपादपदको प्राप्त जीवराशिका प्रमाण होता १ तेजःपद्मलेश्याना मिथ्यादृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १,८. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ७५. गुणिदे उववादखेत्तं होदि। ओवट्टणा जाणिय कायव्वा । तेउलेस्सियगुणपडिवण्णाणं ओघभंगो। पम्मलेस्सियमिच्छादिट्ठी सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायसमु. ग्घादगदा तिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति, पहाणीभूदतिरिक्खरासित्तादो । वेउब्धिय मारणंतिय-उववादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणे, पधाणीकदसणक्कुमार-माहिदरासीदो । सासणादिगुणपडिवण्णाणं अप्पमत्तसंजदंताणं ओघभंगा। सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ७५॥ सुक्कलेस्सियमिच्छाइद्विणो जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता, तेण सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय-उववादपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । सेसगुणट्ठाणाणमोघभंगो । णवरि है। पुनः संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण राजुओंसे गुणित करनेपर उपपादक्षेत्रका प्रमाण होता है। यहांपर अपवर्तना जान करके करना चाहिए । गुणस्थानप्रतिपन्न तेजोलेश्यावाले जीवोंका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातगत पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवे भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, यहांपर तिर्यंचराशिकी प्रधानता है । वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदको प्राप्त पालेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहांपर सानत्कुमार-माहेन्द्र देवराशिकी प्रधानता है । सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पद्मलेश्यावाले जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछवस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ७५ ॥ चूंकि, शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए वे स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि चार लोकोंके मसंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है। विशेष बात यह है १ शुक्ललेश्याना मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तान लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १,८. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ७७.] खेताणुगमे भत्रियमग्गणाखेत्तपत्वगं [११ मिच्छादिटिप्पहुडि सव्वगुणट्ठाणेसु मारणंतिय-उववादपदेसु जीवा संखेजा चेव । सजोगिकेवली ओघं ॥ ७६॥ एदं सुत्तं सुगमं । जधा कसायमग्गणाए अकसाइया वुत्ता, तधा एत्थ लेस्सामग्गणाए अलेस्सिया किण्ण वुत्ता त्ति भणिदे वुच्चदे- जत्थ दव्वं पहाणीभूदं, तत्थ भणिदं होदि । जत्थ पुण पज्जवो पहाणो, तत्थ ण होदि। लेस्सामग्गणा पुण पजयपहाणा एत्थ कदा, तेण अलेस्सिया ण परूविदा । एवं लेस्सामग्गणा समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगि: केवली ओघं ॥ ७७॥ ___एदं सुत्तं सव्वं पि मूलोघादो अविसिद्धमिदि मूलोधपज्जवट्टियपरूवणं लमदे । कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक शेष सभी गुणस्थानों में मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दोनों पदों में शुक्ललेश्यावाले जीव संख्यात ही होते हैं। शुक्ललेश्यावाले सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ७६ ॥ यह सूत्र सुगम है। शंका-जिस प्रकार कषायमार्गणामें अकषायी जीवोंका क्षेत्र बतलाया गया, उसी प्रकार यहां लेश्यामार्गणामें अलेश्य जीवोंका क्षेत्र क्यों नहीं कहा ? समाधान-ऐसी आशंका करने पर कहते हैं-जिस मार्गणामें द्रव्य प्रधानतासे प्रहण किया गया है, उस मार्गण में तो प्रतिपक्षी ' अकषायी' आदिका क्षेत्र आदि कहा गया है। किन्तु जिस मार्गणामें पर्याय प्रधान है, उस मार्गणामें प्रतिपक्षी 'अलेश्य' आदिका क्षेत्र निरूपण नहीं किया गया है। यहां पर लेश्यामार्गणा पर्याय-प्रधान कही गई है, इसलिए अलेश्य जीवों का क्षेत्र नहीं कहा गया है। इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई । ___ भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धिक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है।। ७७॥ __ यह सम्पूर्ण ही सूत्र मूल-ओघसे अविशिष्ट है, इसलिए मूल-ओघ-पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणाको प्राप्त होता है, अर्थात् , भव्यजीवोंका क्षेत्र ओघमें कहे गये क्षेत्रके समान ही है । -- १ सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स सि. १, ८. भव्यानुषादेन भव्यानां चतुर्दशाना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,6. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ३, ७८. अभवसिद्धिएसु मिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते, सबलोए ॥ ७८ ॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा अभवसिद्धिया सव्वलोगे । विहारवदिसत्थाण-वेउबियपदविदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो? तसरासिमस्सिदूण वुत्तबंधप्पाबहुगसुत्तादो णज्जदे। तं जधा- सबथोवा धुवबंधगा। सादियबंधगा असंखेज्जगुणा । अणादियबंधगा असंखेज्जगुणा | अद्धवबंधगा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? धुवबंधगेणूणसादियबंधगमेत्तेण । तसेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ता चेव अभवसिद्धिया होंति त्ति एवं कुदो गव्यदे ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसादियबंधगेहितो असंखेज्जगुणहीणतणहाणुववत्तीदो । सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता त्ति कुदो णचदे ? जुत्तीदो। का जुत्ती ? बुच्चदे अभव्यसिद्धिक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ७८ ॥ - स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्ध त और उपपाद पदको प्राप्त अभव्यसिद्धिक जीव सर्व लोकमें रहते हैं। विहारयत्स्वस्थान और वैक्रियिक पदस्थित अभव्यसिद्धिक जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । . . . शंका-यह कैसे जाना कि विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातगत अभध्यजीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ? समाधान-सराशिका आश्रय करके कहे गये बंधसम्बन्धी अल्पबहुत्वानुयोगद्वारके सूत्रोंसे यह जाना जाता है। वह इस प्रकार है-'ध्रुवबंधक सबसे कम हैं। ध्रुवयंधकोंसे सादिबंधक असंख्यातगुणे हैं। सादिबंधकोंसे अनादिबंधक असंख्यातगुणे हैं । अनादिबंधकोंसे अधुवबंधक विशेष अधिक हैं। कितने मात्र विशेषसे अधिक हैं ? ध्रुव. पंधकोंसे हीन सादिबंधकोंकी राशिके प्रमाणसे अधिक हैं। शंका-त्रसजीवों में पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही अभव्यासिद्धिक जीव होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? ' समाधान-पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सादिबंधकोंसे धुवबंधकोंके असं. ख्यातगुणहीनता अन्यथा बन नहीं सकती है, इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि असराशिमें अभव्यसिद्धिक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं। शंका-सादिबंध करनेवाले जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं, यह कैसे जाना? १ अभव्यानां सर्वलोकः । स. सि. १,.. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ७९.] खेत्ताणुगमे सम्मत्तमागणाखेत्तपरूवणं [ १३३ तसेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता सादियबंधगा वासपुधत्तंतरेण तसहिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवककमणकालुवलं भादो । एइंदिएसु संचिदअणंतसादियबंधगेहिंतो पदरस्स असंखेज्जदिमागमेत्ता सादियबंधगा तसेसु किण्ण उप्पज्जंति ? ण, सधगुण-मग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि-वओवलंभादो । जेण एइंदिएसु आओ संखेज्जो, तेण तेसिं वएण वि तत्तिएण चेव होदव्यं । तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता त्ति । एवं भवियमग्गणा समत्ता। सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्टि-खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं ॥ ७९ ॥ दयट्ठियपरूवणं पडि विसेसो णत्थि त्ति ओघमिदि वुत्तं । पज्जवट्ठियपरूवणाए वि णत्थि कोइ विसेसो । णबरि खइयसम्मादिट्ठीसु संजदासंजदाणं मणुसपज्जत्तसंजदा समाधान -युक्तिसे। शंका- वह युक्ति कौनसी है ? समाधान-वह युक्ति इस प्रकार है- त्रसजीवों में पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सादिबंधक जीव होते हैं, क्योंकि, वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे त्रसकायकी स्थितिका पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल पाया जाता है। शंका-एकेन्द्रिय जीवों में संचयको प्राप्त अनन्त सादिबंधकोंमेंसे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण सादिबंधक जवि त्रसजीवों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानोंमें आयके अनुसार ही व्यय पाया जाता है। चूंकि, एकेन्द्रियोंमें आयका प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी उतना अर्थात् संख्यात ही होना चाहिए । इसलिए सिद्ध हुआ कि प्रसराशिमें सादिवंधक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं। इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असं. यतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ७९ ॥ . द्रव्यार्थिकनयके प्ररूपण की अपेक्षा सूत्र-प्रतिपादित जीवों के क्षेत्र में कोई विशेषता नहीं है. इसलिए सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा है। पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणामें भी कोई विशेषता नहीं है। केवल क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में संयत संयत गुणस्थानवी जीवोंके मनुष्य . १ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्टयाययोगकेवल्यन्तानxxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,.. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [१, ३, ८.. संजदपावणा कादव्या । असंजदसम्मादिट्ठी वि मारणंतिय-उववादपदेसु वट्टमाणा संखेजा। सेसं सुगमं । सजोगिकेवली ओघं ॥ ८०॥ पुघिल्लेहि सह खेत्तं पडि पयरिसेग पच्चासत्तीए अभावादो पुध सुत्तारंभो । सेसं सुगम । वेदगसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।। ८१ ॥ ___एत्थ ओघपज्जवट्ठियपरूवणा णिरवयवा सन्चगुणट्ठाणेसु परूवेदव्या, विसेसाभावादो। उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिहिप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।। ८२ ॥ पर्याप्त संयतासंयतोंमें संभव पदों की अपेक्षा ही क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिए । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दो पदों में वर्तमान असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यात ही होते हैं। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। सयोगिकेवली भगवान्का क्षेत्र ओघ-कथित क्षेत्रके समान है ।। ८.॥ सयोगिकेवली गुणस्थानकी पूर्ववर्ती गुणस्थानोंके साथ क्षेत्रकी अपेक्षा प्रकर्षतासे प्रत्यासत्तिका अभाव है, इसलिए यह पृथक् सूत्र बनाया गया है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ८१ ॥ ___ यहांपर ओघमें कही गई पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी क्षेत्ररूपणा सम्पूर्ण पदोंकी अपेक्षा सर्व गुणस्थानों में प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ८२ ।। १क्षायोपत्रमिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्टयाचप्रमत्तान्तानt xxxसामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. औपशमिकसम्यष्टीनामसंयतसम्यग्दष्टशायुपशान्तकषायान्ताना xx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, 6. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ८५. ] खेत्तागमे सम्मत्तमग्गणाखे तपरूवणं [ १३५ असंजद सत्थाणसत्याण-विहार व दिसत्थाण- वेदण-कसाय- वेउब्वियसमुग्धादगदा सम्माइट्ठी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । मारणंतिय उववादपदेसु एसो चेव आलावा । णवरि तेसु पदेसु' द्विदजीवा संखेज्जा चेत्र होंति, उवसम सेढदो ओरिय उवसमसम्मतेण सह असंजमं पडिवण्णजीवाणं संखेज्जतुवलंभादो । सेस व समसम्मादिदुणिं किष्ण मरणमत्थि त्ति वृते सभावदो । एवं संजदासंजदाणं पिं । वरि उववादपदं णत्थि । सेसाणमोघं । वरि पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजा - हारं णत्थि । सास सम्मादिट्टी ओघं ॥ ८३ ॥ सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८४ ॥ मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ८५ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनास मुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद इन दोनों पदों में भी यही उक्त क्षेत्र-आलाप जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि उन दोनों पदों में वर्तमान जीव संख्यात ही होते हैं, क्योंकि, उपशमश्रेणिसे उतर कर उपशमसम्यक्त्वके साथ असंयमभावको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी संख्या संख्यात ही पाई जाती है । शंका-उपशमश्रेणी से उतर कर मरनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अतिरिक्त शेष अन्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका मरण क्यों नहीं होता है ? समाधान – स्वभावसे ही नहीं होता है | इसी प्रकार से संयतासंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र भी जानना चाहिए । विशेष बात यह कि उनके उपपादपद नहीं होता है । शेष गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघ वर्णित क्षेत्र के समान है। विशेषता केवल इतनी है कि प्रमत्तसंयतके उपशमसम्यक्त्वके साथ तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात नहीं होते हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ८३ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ८४ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान है ।। ८५ ।। १ प्रतिषु 'पदेसेसु ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' हि' इति पाठः । ३ Xxx सासादनसम्यग्दृष्टनि सम्य मिथ्यादृष्टीनां मिथ्यादृष्टीनां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् | स. सि. १,८. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवखंडागमे जीवाणं दाणि तिणि वित्ताणि सुगमाणि त्ति एदेसि परूवणा ण कीरदे । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । सणियाणुवादेण सणीसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव खीणकसायवीदरा गछदुमत्था केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८६ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय- वे उव्वियसमुग्धाद गदा सण्णिमिच्छादिट्ठी तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एवं मारणंतिय उववादपदेसु वि वत्तव्यं । णवरि तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे इदि भाणिदव्वं । सेसगुणद्वाणाणमोघभंगो, तदो विसेसाभावादो । असण्णी केवड खेत्ते, सव्वलोगे ॥ ८७ ॥ १३६ ] एदस्स सुतस अत्थो सुगमो । एवं सणिमन्गणा समत्ता । ये उक्त तीनों ही सूत्र सुगम है, इसलिए उनकी प्ररूपणा नहीं की जाती है । इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई । संज्ञिमार्गणा के अनुवाद से संज्ञी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ८६ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्रात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्रात, इन पांच पदोंको प्राप्त संक्षी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । इसीप्रकार मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दो पदोंमें वर्तमान संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवों का भी क्षेत्र कहना चाहिए । केवल इतनी बात विशेष कहना चाहिए कि ये तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । सासादनादि शेष गुणस्थानवर्ती जीवोंका क्षेत्र ओघ क्षेत्र के समान है, क्योंकि, ओघके क्षेत्र से सासादनादि गुणस्थानोंके संज्ञी जीवों के क्षेत्र में कोई विशेषता नहीं है । असंज्ञी जीव कितने इस सूत्र का अर्थ [ १, ३, ८६. क्षेत्रमें रहते है ? सर्व लोक में रहते हैं ॥ ८७ ॥ सुगम है । इस प्रकार संशिमार्गणा समाप्त हुई । १ संज्ञानुवादेन संज्ञिन चक्षुर्दर्शनिवत् । स. सि. १,८. २ असंज्ञिना सर्वलोकः । स. सि. १,८. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३, ९०.] खेत्ताणुगमे आहारमग्गणाखेत्तपरूवणं [१३० आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ८८ ॥ सवपदेहि ओघपरूवणादो विसेसो णस्थि त्ति ओघत्तं जुज्जदे । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली केवडि खेते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८९ ॥ एदस्स सुत्तस्स पज्जवट्टियपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला । णवरि उववादो सरीरगहिदपढमसमए वत्तव्यो । सजोगिकेवलिस्स वि पदर-लोगपूरणसमुग्घादा वि णस्थि, आहारित्ताभावादो। अणाहारएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९०॥ दव्वट्ठियपरूवणाए ओघं होदि । पज्जवट्ठियपरूवणाए पुण उववादपदमेक्कं चेव अस्थि । सेसं णस्थि । सेसं सुगमं । __ आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओषके समान सर्व लोक है ।। ८८ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंके स्वस्थान आदि सभी पदोंके साथ क्षेत्रसम्बन्धी ओघनरूपणासे विशेषता नहीं है, इसलिए उनके क्षेत्रके ओघपना बन जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं।। ८९ ।। इस सूत्रकी पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी क्षेत्रप्ररूपणा ओघक्षेत्रप्ररूपणाके समान है। विशेष बात यह है कि आहारक जीवोंके उपपादपद शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयमें कहना चाहिए, (क्योंकि, तभी जीव आहारक होता है)। आहारक सयोगिकेवलीके भी प्रतर और लोकपूरणसमुद्धात नहीं होते हैं, क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओं में केवलीके आहारकपनेका अभाव है, अर्थात् प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातकी अवस्थामें सयोगिकेवली भगवान् अनाहारक रहते हैं। . अनाहारकोंमें मिध्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान सर्वलोक है ।। ९० ॥ द्रव्यार्थिकनयकी प्ररूपणासे अनाहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान होता है । किन्तु पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणाकी अपेक्षा तो एक उपपादपद ही होता है। शेष पद नहीं होते हैं, (क्योंकि, अनाहारक मिथ्यादृष्टि जीवों में स्वस्थानादि शेष सभी पद मसंभव हैं)। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। - १ आहारानुवादेन आहारकाणां मिश्यादृष्टवादिक्षीणकषायान्ताना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । सबोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, ८. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ worm............. १३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ९१. सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ९१ ॥ - पज्जवट्ठियणएण उववादगदा सासणसम्मादिट्ठी चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छति । असंजदसम्मादिट्ठीणं परूवणा एवं चेव । अजोगि. केवली चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिमागे। सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जेसु वा भागेसु, सव्वलोगे वा ॥ ९२ ॥ पदरगदो सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु वा होदि, लोगपेरंतडिदवादवलयवदिरित्तसयललोगखेत्तं समावूरिय द्विदचादो। लोगपूरणे पुण सव्वलोगे भवदि, सबलोगमावूरिय द्विदत्तादो। ( एवं आहारमग्गणा समत्ता) एवं खेत्ताणिओगद्दारं समत्त । अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगिकेवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ९१॥ पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी क्षेत्रप्ररूपणाकी अपेक्षा उपपादको प्राप्त अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा भी इसी प्रकार जानना चाहिए। अनाहारक अयोगिकेवली भगवान् सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। अनाहारक सयोगिकवली भगवान् कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यात बहुभागोंमें और सर्वलोकमें रहते हैं । ९२॥ प्रतरसमुद्धातगत सयोगिकेवली जिन लोकके असंख्यात बहुभागों में रहते हैं, क्योंकि, वे लोकके चारों ओर स्थित वातवलय-व्यतिरिक्त सकल लोकके क्षेत्रको समापूरित करके स्थित होते हैं। पुनः लोकपूरणसमुद्धातमें वे ही सयोगिकेवली जिन सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, उस समय वे सर्व लोकको आपूरण करके स्थित होते हैं। (इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई।) इस प्रकार क्षेत्रानुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ अनाहारकाणां मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टघयोगकेवलिना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स सि.१,८. ..., २ सयोगिकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागाः सर्वलोको वा । स. सि. १, ८. ३ क्षेत्र निर्णयः कृतः। स. सि. १,८. - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ___फोसणाणुगमो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पढमखंडे जीवहाणे फोसणाणुगमो गमिऊणेलाइरिए तिहुवणभवणेक्कमंगलप्पईवे । कलिकलुसफुसणवसणे सुत्तं फोसासियं वोच्छं । पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य ॥ १॥ णामफोसणं ठवणफोसणं दव्यफोसणं खेत्तफोसणं कालफोसणं भावफोसणं चेदि छव्विहं फोसणं । तत्थ णामफोसणं फोसण सद्द।। एसो दबट्टियस्स णिक्खेवो, धुवत्वेण त्रिभुवनरूपी भवनके प्रकाशित करनेके लिए अद्वितीय मंगलप्रदीप, और कलिकालकी कलुषताके संमार्जनके लिए वस्त्रस्वरूप श्री एलाचार्यको नमस्कार करके स्पर्शनानुगमाश्रित सूत्रों के अर्थको कहता हूं ॥ ___स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ ___नामस्पर्शन, स्थापनास्पर्शन, द्रव्यस्पर्शन, क्षेत्रस्पर्शन कालस्पर्शन और भावस्पर्शनके भेदसे स्पर्शन छह प्रकारका है। उनमें 'स्पर्शन' यह शब्द नामस्पर्शन निक्षेप है । यह निक्षेप द्रव्यार्थिकनयका विषय है, क्योंकि, ध्रुवपनेके विना वाच्य-वाचकभावरूप सम्बन्ध १ स्पर्शनमुच्यते-तद् द्विविधम् । सामान्येन विशेषेण च ॥ स. सि. १, ८. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] छक्खंडागमै जीवहाणं [१, ५, १. विणा वाचिय-वाचयभावाणुववत्तीदो । सोयमिदि बुद्धीए अण्णदव्वेण अण्णदबस्स एयत्तकरणं ठवणफोसणं णाम । जहा, घड-पिढरादिसु एसो उसहो अजीवो अहिणंदणो ति । एसो वि दव्वट्ठियस्स णिक्खेवो, दोण्हमेयत्त-धुवत्तेहि विणा ठवणापवुत्तीए असंभवादो । आगम-णोआगममेदेण दुविहं दव्यफोसणं । तत्थ फोसणपाहुडजाणगो अणुवजुतो खओवसमसहिओ आगमदो दव्वफोसणं णाम । णोआगमदव्यफोसणं जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तदव्यफोसणभेएण तिविहं । तत्थ जाणुगसरीरदव्वफोसणं भविय-वट्टमाण-समुज्झादभेएण तिविहं । कधमेदस्स तिविहसरीरस्स फोसणववदेसो ? फेोसणपाहुडसहचारादो । जहा, असिसहचरिदो असी, धणुसहचरिदो धणुहमिदि। भवियदव्यफोसणं भविस्सकाले फोसणपाहुडजाणओ। कधमेदस्स दव्यफोसणववएसो ? पुवुत्तरावत्थाणं दव्वेण एगत्तादो। जहा, इंदहमाणिदकट्ठस्स इंदो त्ति ववदेसो । तव्वदिरित्तदव्यफोसणं सचित्त-अचित्त नहीं बन सकता है। यह वही है ' इस प्रकारकी बुद्धिसे अन्य द्रव्यके साथ अन्य द्रव्यका एकत्व स्थापित करना स्थापना निक्षेप है। जैसे, घट, पिठर (पात्रविशेष) आदिकमें 'यह ऋषभ है, यह अजीव है, यह अभिनन्दन है' इत्यादि । यह स्थापनानिक्षेप भी द्रध्यार्थिकनयका विषय है, क्योंकि, दो पदार्थों की एकता और ध्रुवताके विना स्थापनानिक्षेपकी प्रवृत्ति असंभव है। आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यस्पर्शननिक्षेप दो प्रकारका है। उनमें स्पर्शनविषयक शास्त्रका ज्ञायक, किन्तु वर्तमानमें अनुपयोगी और क्षयोपशमसहित जीव भागमद्रव्यस्पर्शननिक्षेप है। नोआगमद्रव्यस्पर्शननिक्षेप शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तद्रव्यस्पर्शनके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें शायकशरीर द्रव्यस्पर्शन भावी, वर्तमान और समुज्झित (त्यक्त) के भेदसे तीन प्रकारका है। शंका-इस तीन प्रकारके शरीरको 'स्पर्शन' यह व्यपदेश (संज्ञा) कैसे प्राप्त हो सकता है? समाधान-स्पर्शनप्राभूतके साहचर्यसे उक्त तीन प्रकारके शरीरको भी स्पर्शनसंक्षा प्राप्त हो जाती है। जैसे, असि (तलबार) से सहधरित पुरुषको असि और धनुषसे सहवरित पुरुषको धनुष संक्षा प्राप्त हो जाती है। भविष्यकालमें स्पर्शनविषयक शास्त्र के ज्ञायकको भव्यद्रव्यस्पर्शन कहते हैं। शंका-इस भव्यशरीरपालेके 'द्रव्यस्पर्शन ' यह संक्षा कैसे है ? समाधान-विवक्षित द्रव्यकी पूर्ष अवस्था और उत्तर अवस्थाका उस व्यके साथ एकत्व पाया जाता है। जैसे, इन्द्र बनानेके लिये लाए गए काष्ठकी 'इन्द्र' यह संक्षा देखी जाती है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १.] फोसणाणुगमे णिदेसपरूवणं [१५३ मिस्सयभेदेण तिविहं । सचित्ताणं दव्याणं जो संजोओ सो सचित्तदव्बफोसणं । अचित्ताणं दव्याणं जो अण्णोण्णेण संजोओ सो अचित्तदबफोसणं । मिस्सयदव्यफोसणं छण्हं दव्वाणं संजोएण एगूणसट्ठिभेयभिणं । सेसदव्याणमागासेण सह संजोओ खेत्तफोसणं । अमुत्तेण आगासेण सह सेसदव्याणं मुत्ताणममुत्ताणं वा कधं पोसो ? ण एस दोसो, अवगेज्झाव तद्वयतिरिक्तद्रव्यस्पर्शन सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है । जो सचित्त द्रव्योंका संयोग होता है, वह सचित्तद्रव्यस्पर्शन कहलाता है । अचित्त द्रव्योंका जो परस्परमें संयोग होता है, वह अचित्तद्रव्यस्पर्शन कहलाता है। मिश्रद्रव्यस्पर्शन चेतनअचेतनस्वरूप छहों द्रव्योंके संयोगसे उनसठ भेदवाला होता है। विशेषार्थ-किसी विवक्षित राशिके द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भंग निकालने के लिए विवक्षित राशिप्रमाणसे लेकर एक एक कम करते हुए एकके अंक तक अंक स्थापित करना चाहिए । पुनः दूसरी पंक्तिमें उनके नीचे एकसे लेकर विवक्षित राशि तक अंक लिखना चाहिए। पहली पंक्तिके अंकोंको अंश या भाज्य और दूसरी पंक्तिके अंकोंको हार या भागहार कहते हैं। यहां पहले भाज्योंके साथ अगले भाज्योंका और पहले भागहारोंके साथ अगले भागहारोंका गुणा करना चाहिए। पुनः भाज्योंके गुणनफलमें भागहारोंके गुणनफलका भाग देना चाहिए जो इस प्रकार प्रमाण आवे, उतने ही विवक्षित स्थानके भंग समझना चाहिए। इस करणसूत्र (गो. कर्मकांड गाथा नं. ७९९) के नियमानुसार छह द्रव्योंके संयोगी भंग इस प्रकार होंगे-द्विसंयोगी-६४५ = १५ । त्रिसंयोगी १०० = २० । चतुःसंयोगी५४५४४४३ = १५ । पंचसंयोगी xxx ३४२= १४२४३४४४५ गीxxx२० २१ इन सब संयोगीभंगोका योग १५+२०+१५+६+२=५७ पस१४२४३४४:५४६ सत्तावन होता है। इन ५७ भंगोंके अतिरिक्त जीवका जीवके साथ, तथा पुद्गल का पुद्गल के साथ, इस प्रकार दो भंग और भी संभय हैं, जिन्हें मिलाकर ५९ संयोगी भंग हो जाते हैं । धर्मास्तिकाय आदि शेष चार द्रव्य अखंड एक एक ही होते हैं, अतः उनके इस प्रकारके एक ही द्रव्यके भीतर संयोगी भंग संभव नहीं हैं। जीव आदि छहों द्रव्योंके पृथक् पृथक् छह भंग और होते हैं, जो असंयोगी (एक संयोगी) होनेसे यहां ग्रहण नहीं किये गये । . शेष द्रव्योंका आकाशद्रव्यके साथ जो संयोग है, वह क्षेत्रस्पर्शन कहलाता है। शंका- अमूर्स आकाशके साथ शेष अमूर्त और मूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे संभव है ? १४२ ६४५४४ - षटस Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] छत्रखंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, १. गागभावस्व उवयारेण फांसववएसादो, सत्त-पमेयत्तादिणा अण्णोष्णसमाणत्तणेण वा । कालव्यस्त अण्णदव्वेहि जो संजोओ सो कालफोसणं णाम । एत्थ अमुत्तेण कालव्त्रेण सव्वाणं जदिवि पासो णत्थि, परिणामिज्जमाणाणि सेसदव्वाणि परिणामत्तेण कालेन पुसिदाणित्ति उवयारेण कालफोसणं बुच्चदे । खेत्त कालपोसणाणि दव्फोसणम्हि किण्ण पदंति चित्ते ण पदंति, दव्वादो दब्बेगदेसस्स कथंचि भेदुवलंभादो | भावफोसणं दुविहं आगम-णोआगमभेएण । फोसणपाहुडजाणओ उबजुत्तो आगमदो भावफोसणं । पासगुणपरिणदपोग्गलदव्वं गोआगमभाव कोसणं । एदेसु फोसणेसु जीवखेत्तफोसणेण पयदं । अस्पर्शिं स्पृश्यत इति स्पर्शनम् । फोसणस्स अणुगमो फोसणाणुगमो, तेण फोसणाणुगमेण । णिदेसो कहणं वक्खाणमिदि एडो । सो दुविहो, जहा पयई । ओवेण पिंडेण अभेदेणेत्ति एयट्ठो । आदेसेण भेदेण समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अवगाह्य अवगाहकभावको ही उपचार से स्पर्शसंज्ञा प्राप्त है, अथवा, सत्त्व, प्रमेयत्व आदिके द्वारा मूर्त्त द्रव्यके साथ अमूर्त द्रव्योंकी परस्पर समानता होनेसे भी स्पर्शका व्यवहार बन जाता है । कालद्रव्यका अन्य द्रव्योंके साथ जो संयोग है, उसका नाम कालस्पर्शन है । यहां यद्यपि अमूर्त्त कालद्रव्य के साथ शेष द्रव्योंका स्पर्शन नहीं है, तथापि परिणमित होने वाले शेष द्रव्य परिणामत्वकी अपेक्षा कालसे स्पर्शित हैं, इस प्रकार के उपचार से कालस्पर्शन कहा जाता है । शंका- क्षेत्रस्पर्शन और कालस्पर्शन ये दोनों स्पर्शन, द्रव्यस्पर्शनमें क्यों नहीं अन्तर्भूत होते हैं ? समाधान - ऐसी शंकापर उत्तर देते हैं कि क्षेत्रस्पर्शन और कालस्पर्शन द्रव्यस्पर्शन में अन्तर्भूत नहीं होते हैं, क्योंकि, द्रव्यसे द्रव्यके एक देशका कथंचित् भेद पाया जाता है । भावस्पर्शन आगम और नोआगमके भेद से दो प्रकारका है। स्पर्शनविषयक शास्त्र के शायक और वर्तमान में उसमें उपयुक्त जीवको आगमभावस्पर्शन कहते हैं । स्पर्शगुणसे परिणत पुलद्रव्य को नोआगमभावस्पर्शन कहते हैं । इन उक्त छह प्रकारके स्पर्शनों से यहांपर जीवद्रव्यसम्बन्धी क्षेत्रस्पर्शन से प्रयोजन है । जो भूतकाल में स्पर्श किया गया और वर्तमान में स्पर्श किया जा रहा है, वह स्पर्शन कहलाता है । स्पर्शन के अनुगमको स्पर्शनानुगम कहते हैं, उससे, अर्थात् स्पर्शनानुगमसे । निर्देश, कथन और व्याख्यान, ये तीनों एकार्थक नाम हैं। वह निर्देश प्रकृतिके निर्देश के समान दो प्रकारका होता है । ओघ, पिंड और अभेद, ये सब एकार्थक नाम है। आदेश, भेद Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २.] फोसणाणुगमे मिच्छाइडिफोसणपरूवणं [१४५ विसेसेणेत्ति समाणट्ठो । ओघणिद्देसो आदेसणिदेसो त्ति दुविहो चेव णिदेसो होदि, दब्बपज्जवट्ठियणए अणवलंबिय कहणोवायाभावादो। जदि एवं, तो पमाणवक्कस्स अभावो पसज्जदे इदि वुत्ते, होदु णाम अभावो, गुणप्पहाणभावमंतरेण कहणोवायाभावादो । अधवा, पमाणुप्पाइदं वयणं पमाणवक्कमुवयारेण वुच्चदे । ओघेण मिच्छादिट्टीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, सव्वलोगों ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो ' त्ति णायादो ताव ओघेणेत्ति वयणं । सेसगुणट्ठाणपडिसेहढे मिच्छादिट्ठीहिं त्ति वयणं । केवडियं खेत्तं फोसिदमिदि पुच्छासुत्तं सत्थस्स पमाणत्तपदुप्पायणफलं । खेत्ताणिओगद्दारे सव्वमग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं वट्टमाणकालविसिटुं खेत्तं पदुप्पादिदं, संपदि पोसणाणिओगद्दारेण किं परूविज्जदे ? चोदस मग्गणट्ठाणाणि अस्सिद्ण सव्वगुणट्ठाणाणं अदीदकालविसेसिदखेत्तं फोसणं वुच्चदे । एत्थ और विशेष ये सब समानार्थक नाम हैं। ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश इस प्रकारसे निर्देश दो ही प्रकारका होता है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयोंके अवलम्बन किये विना वस्तुस्वरूपके कथन करने के उपायका अभाव है। शंका-यदि ऐसा है तो प्रमाणवाक्यका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान - उक्त शंकापर धवलाकार कहते हैं कि भले ही प्रमाणवाक्यका अभाव हो जावे, क्योंकि, गौणता और प्रधानताके विना वस्तुस्वरूपके कथन करनेके उपायका भी अभाव है। अथवा, प्रमाणसे उत्पादित वचनको उपचारसे प्रमाणवाक्य कहते हैं। ओघसे मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ २॥ ... 'जिस प्रकारसे उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश होता है' इस न्यायके अनुसार सूत्रमें पहले 'ओघसे' ऐसा वचन कहा। सासादनादि शेष गुणस्थानों के प्रतिषेध करनेके लिए 'मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा' यह वचन कहा। 'कितना क्षेत्र स्पर्श किया है' यह पृच्छासूत्र शास्त्रके प्रमाणता-प्रतिपादन करनेके लिए कहा गया है। शंका-क्षेत्रानुयोगद्वारमें सर्व मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकर सभी गुणस्थानोंके वर्तमानकालविशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन कर दिया गया है । अब पुनः इस स्पर्शनानुयोगद्वारसे क्या प्ररूपण किया जाता है ? - समाधान-चौदह मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकरके सभी गुणस्थानोंके अतीत (भूत) काल विशिष्ट क्षेत्रको स्पर्शन कहा गया है। (अतएव यहां उसीका प्ररूपण किया जाता है।) .... सामान्येन तावत मिथ्यादृष्टिमिः सर्वलोकः स्पृष्टः। स. सि. १.८, २ प्रतिषु 'ताव ओवं च णामित्ति ति ओषेणेति' इति पार Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, २. वहमाणखेत्तपरूवणं पि सुत्तणिबद्धमेव दीसदि । तदो ण पोसणमदीदकालविसिट्ठखेत्त. पदुप्पाइयं, किंतु वट्टमाणादीदकालविसेसिदखेत्तपदुप्पाइयमिदि ? एत्थ ण खेत्तपरूवणं, तं तं पुव्वं खेत्ताणिओगद्दारपरूविदवट्टमाणखेत्तं संभराविय अदीदकालविसिट्ठखेत्तपदुप्पायणटुं तस्सुवादाणा । तदो फोसणमदीदकालविसेसिदखेत्ते पदुप्पाइयमेवेत्ति सिद्धं । सव्वलोगो, सव्वो लोगो मिच्छादिट्ठीहि च्छुत्तो त्ति जं वुत्तं होदि । एत्थ लोगपमाणं पुत्वं व आणेदव्वं । अधवा मुहसहिदमूलमद्धं छेत्तूणद्धेण सत्तबग्गेण । हंतूणेगट्ठकदे घणरज्जू होंति लोगम्हि ॥१॥ एदीए गाहाए आणेदव्यो। अधवा सत्तरज्जुविक्खंभ-चोद्दसरज्जुआयदखेत्तं ठविय शंका-यहां स्पर्शनानुयोगद्वारमें वर्तमानकालसम्बन्धी क्षेत्रकी प्ररूपणा भी सूत्रतिबद्ध ही देखी जाती है, इसलिए स्पर्शन अतीतकालविशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला नहीं है, किन्तु वर्तमान और अतीतकालसे विशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला है ? समाधान-यहां स्पर्शनानुयोगद्वारमें वर्तमानक्षेत्रको प्ररूपणा नहीं की जा रही है, किन्तु, पहले क्षेत्रानुयोगद्वारमें प्ररूपित उस उस वर्तमानक्षेत्रको स्मरण कराकर अतीतकालविशिष्ट क्षेत्रके प्रतिपादनार्थ उसका ग्रहण किया गया है । अतएव स्पर्शनानुयोगद्वार अतीतकालसे विशिष्ट क्षेत्रका ही प्रतिपादन करनेवाला है, यह सिद्ध हुआ। - 'सर्वलोक' अर्थात् सम्पूर्ण लोक मिथ्यादृष्टि जीवोंके द्वारा स्पर्श किया गया है, ऐसा कहा गया है। यहांपर लोकका प्रमाण पहले क्षेत्रप्ररूपणामें बताये गये नियमके अनुसार निकाल लेना चाहिए । अथवा लोकको अर्धभागसे छेदकर अर्थात् मध्यलोकसे दो विभाग कर, दोनों विभागोंके पृथक् पृथक् मुखसहित मूलके विस्तारको आधा करके, पुनःसातके वर्गसे गुणा करके, उन दोनों राशियोंको जोड़ देनेपर, लोकसम्बन्धी घनराजु उत्पन्न होते हैं ॥ १॥ ___ इस गाथाके अनुसार लोकका प्रमाण निकालना चाहिए। विशेषार्थ-लोकको मध्यसे विभक्त करनेपर दो भाग हो जाते हैं, ऊर्ध्वलोक और अधोलोक। इनमेंसे अधोलोकका मुख १ राजु और मूल ७ राजुप्रमाण है। अतएव इन दोनोंका योग ८ राजु हुआ। इसके आधे ४ को ७ के वर्ग (७ x ७ = ४९) से गुणा करनेपर (४४४९% ) १९६ राजु आते हैं। यही अधोलोकके घनराजुओंका प्रमाण है। इसी प्रकारसे ऊर्ध्वलोकका मुख १ राजु और मूल ५ राजुप्रमाण है, दोनोका योग ६ राजु हुआ। इसके आधे ३ को ७ के वर्गसे गुणा करनेपर (३४४९ =) १४७ राजु आते हैं। यही ऊर्ध्वलोकके धनराजुओका प्रमाण है। उक्त दोनों प्रमाणोंको एकत्रित करनेपर (१९६ + १४७ = ) ३४३ लोकसम्बन्धी घनराजुओंका प्रमाण होता है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २. ] फोसणागमे मिच्छाइफोसण परूवर्ण [ १४७ आयामं चोदसखंडाई काढूण विक्खंभेण सत्त खंडे करिय लोगपमाणादा अधियखेत्तं फुसिय फेलिदे सगल - विगलावयवसहिद लोग खेत्तं परिष्फुडं होदूग दीसदि । तत्थ द्विदसुत्तवसेण सव्वाणि खेत्तखंडाणि आणिय मेलाविदे वि तं चैव लोगपमाणं होदि । अथवा, सात राजुप्रमाण चौड़े और चौदह राजुप्रमाण लम्बे क्षेत्रको स्थापन करके आयामकी अपेक्षा चौदह खंड करके और विष्कम्भकी अपेक्षा सात खंड करके, पुनः लोकके प्रमाणमें से अधिक क्षेत्रको लेकर राजुके प्रमाणसे खंडित करनेपर, अपने सकल और विकल अवयवोंसे सहित लोकरूप क्षेत्र परिस्कुट होकर दिखाई देता है । पुनः वहांपर बताये गए सूत्र के अनुसार समस्त क्षेत्रखंडों को निकाल करके मिलानेपर भी वही तीन सौ तेतालीस घनराजु लोकका प्रमाण हो जाता है । - विशेषार्थ – उक्त कथनका अभिप्राय यह है कि पुरुषाकार लोकके आकार में त्रसनाली तथा उसके आगे पीछे त्रसनालीके समान ही जो क्षेत्र है वह सब पूर्व-पश्चिम एक राजु चौड़ा, उत्तर-दक्षिण सात राजु मोटा और ऊपर-नीचे चौदह राजु लम्बा है। इस कपाटाकार आयत-चतुरस्र क्षेत्रको लम्बाईकी ओरसे एक एक राजु प्रमाणसे खंडित करके पुनः मोटाईकी ओरसे भी एक राजुप्रमाणसे खंडित करना चाहिए । इस प्रकारले उक्त कपाटाकार आयतचतुरस्रक्षेत्र के एक राजुप्रमाण लम्बे, चौड़े और मोटे अर्थात् घनात्मक खंड १४ × ७ = ९८ ) अठ्यानवे होते हैं। पुनः लोकप्रमाण मेंसे इस क्षेत्रके ( इन खंडों के ) अतिरिक्त जो अवशिष्ट क्षेत्र बचा है, उसे लेकर सम विभागोंको ऊपर-नीचे स्थापनकर पूर्वोक्त प्रमाणसे ही एक एक राजुप्रमाणके खंड करना चाहिए, जिसका क्रम इस प्रकार है- मध्यलोक से नीचे अधोभागके जो शेष दोनों पार्श्ववर्ती दो भाग हैं, उन्हें एकके ऊपर दूसरेको विपर्यासक्रमसे रखना चाहिए। ऐसा करने पर वह सात राजुप्रमाण लम्बा, चौड़ा समचतुरस्र क्षेत्र बन जाता है, जिसकी कि मोटाई सर्वत्र तीन राजुप्रमाण हो जाती है। इसके भी एक एक घनराजुप्रमाण बंड करने पर (७ x ७ x ३ = १४७ ) एकसौ सैंतालीस खंड होते हैं । इसी प्रकार से ऊर्ध्वलोकके अवशिष्ट क्षेत्रको ब्रह्मलेोकके पास से छिन्न कर देनेपर समान मापवाले चार भाग हो जाते हैं। इन्हें क्रमशः विपर्यासक्रम से स्थापित करने पर सात राजु लम्बे, साढ़े तीन राजु चौड़े और दो राजु मोटे, ऐसे दो आयत-चतुरस्र क्षेत्र हो जाते हैं। यदि इन दोनों भाग को भी चौड़ाईकी ओरसे मिला दिया जाय, तो सात राजुप्रमाण लम्बा-चौड़ा एक समचतुरस्र क्षेत्र बन जाता है, जिसकी कि मोटाई सर्वत्र दो राजु होगी । इसके भी एक एक घनराजुप्रमाण खंड करने पर (७ x ७ x = ९८ ) अठ्यानवे खंड होते हैं । इस प्रकारसे उत्पन्न हुए इन समस्त खंडों को जोड़ देने पर (९८ + १४७ + ९८ = ३४३ ) तीन सौं तेतालीस खंड हो जाते हैं, जो कि प्रत्येक एक एक घनराजुप्रमाण हैं । अतएव इस प्रकार से भी ढोकका प्रमाण ३४३ घनराजु निकल आता है । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] छक्खंडागमे जीवाण [ १, ४, ३. एत्थ पज्जवट्ठियपरूवणा gच्चदे । सत्थाणसत्थान- वेदण-कसाय-मारणंतियउववादगदमिच्छादिट्ठीहि अदीदेण वट्टमाणेण च सव्वलोगो फोसिदो । विहारव दिसत्थाणविमुग्धादगदेहि वट्टमाणे काले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो | अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं खेत्तं फोसिदं । एत्थ ओवट्टणाए खेत्तभंगो | अदीदेण अट्ठ चोदसभागा देखणा । तं जधा - लोगणालिं चोदस खंडे करिय मेरुमूलादो हेडिम दो- खंडाणि उवरिम-छ-खंडाणि च एगट्ठे कदे अट्ठ चोद्दस भागा होंति । ते च मिजोयणसहस्सेणूणा होंति । सास सम्मादिहिं केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ३ ॥ एदं सुतं मंदबुद्धिसिस्स संभालणङ्कं खेत्ताणि ओ गद्दारे उत्तमेव पुणरवि उत्तं, अदीदाणागदवमाणकालविसिट्ठखेत्तेसु चोदसगुणट्ठा गणित्र द्वेसु पुच्छिदेसु तस्सिस्स संदेहविणासङ्कं वा दु-कालविसिठ्ठखेत्तपरूवणं कीरदे । सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण अब यहां पर पर्यायार्थिक नयसम्बन्धी प्ररूपणा कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्वात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकाल और वर्तमानकालकी अपेक्षा सर्व लोक स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्वातगत मिध्यादृष्टि जीवोंने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है; तथा अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर अपवर्तना क्षेत्रप्ररूपणा के समान जानना चाहिए । विहारवत्स्व स्थान और वैक्रियिकसमुद्धातगत मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा देशोन (कुछ कम ) आठ बटे चौदह (१४) राजु क्षेत्र स्पर्श किया है, वह इस प्रकार से है -- लोकनाली के चौदह खंड करके मेरुपर्वतके मूलभागसे नीचे के दो खंडों को और ऊपर के छह खंडांको एकत्रित करने पर आठ बटे चौदह ( ) भाग हो जाते हैं। ये आठ बटे चौदह राजु तीसरी पृथिर्वाके नीचे एक हजार योजनोंसे हीन प्रमाण होते हैं, इसीलिए इन्हें 'देशोन' कहा है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ३ ॥ क्षेत्रानुयोगद्वार में कहा गया ही यह सूत्र मंदबुद्धि शिष्यों के संभालने के लिए फिर भी कहा गया है । अथवा, भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल विशिष्ठ तथा चौदह गुणस्थानोंसम्बन्धी क्षेत्रोंके पूछने पर उस शिष्य के संदेह - विनाशनार्थ भूतकाल और भविष्यकाल, इन दो कालोंसे विशिष्ट वर्तमानक्षेत्रकी प्ररूपणा की जा रही है । स्वस्थानस्वस्थान, विहार१ सासादन सम्यग्दृष्टि मिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ द्वादश वा चतुर्दशभागा देशोनाः । स. सि. १, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादिहिफोसणपरूवणं कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय-उववादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो फोसिदो । माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणं खेत्तं फोसिदं । एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । अट्ट वारह चोदसभागा वा देसूणा ॥४॥ सासणसम्मादिट्ठीहिं ति पुव्वसुत्तादो अणुवदृदे । अदीदकालखेत्तपदुप्पायणमिदं सुत्तमागदं । तं कधं णव्वदे ? अट्ठ वारह चोद्दसभागण्णहाणुववत्तीदो। जेणेदं देसामासिगसुत्तं, तेणेदस्स पज्जवट्ठियपरूवणा पज्जवट्ठियजणाणुग्गहढं कीरदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाणगदेहिं तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं । अदीदसत्थाणखेत्तस्साणयणविधाणं वुच्चदे । तं जधा- तत्थ ताव तिरिक्खसासणसत्थाणखेत्तं भणिस्सामो। तसजीवा लोगणालीए अभंतरे चेव होंति, णो बहिद्धा । तं कुदो गव्यदे ? ' अट्ठ चोदसभागा देसूणा' ति वयणादो। तदो रज्जु वत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है । तथा मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यहांपर कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए। सासादनप्तम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह माग तथा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है ॥४॥ इस सूत्रमें 'सासादनसम्यग्दृष्टियोंने ' इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है। यह सूत्र अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रके प्रतिपादन करनेके लिए आया है। शंका- यह सूत्र अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रकी प्ररूपणाके लिए आया है, यह कैसे जाना? समाधान-आठ बटे चौदह और बारह षटे चौदह भागोंकी प्ररूपणा अन्यथा बन बन नहीं सकती है, अतः इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि यहां पर अतीतकालसम्बन्धी क्षेत्रका प्रतिपादन करना अभीष्ट है। चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिए इसकी पर्यायाथिकनयसम्बन्धी प्ररूपणा पर्यायाथिकनयवाले शिष्यों के अनुग्रहके लिए की जाती है। वह इस प्रकार हैस्वस्थानस्वस्थानपदको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टियोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है, तथा अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। अब अतीतकालसम्बन्धी स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रके निकालनेका विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है-उसमेंसे पहले तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टियोंके स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रको कहते हैं। त्रसजीव लोकनालीके भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं। शंका-यह कैसे जाना ? १ प्रतिषु — बहिमा' इति पाठः । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.1 छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १, ५. पदरम्भंतरे सव्वत्थ सासणा संभवंति । तसजीवविरहिदेसु असंखेज्जेसु समुद्देसु णवरि सासणा णत्थि' । वेरियवेंतरदेवेहि घित्ताणमत्थि संभवो, णवरि ते सत्थाणत्था' ण होति, विहारेण परिणदत्तादो। तं खेत्तं तिरियलोगपमाणेण कीरमाणे एगं जगपदरं पुरदो भण्णमाणपमाणेहि संखेज्जरूवेहि खंडिय लद्धं रज्जूपदरम्हि अवणिय संखेज्जंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागं होदूण संखेज्जंगुलबाहल्लं जगपदरं होदि । संपहि जोइसियसासणसम्माइद्विसत्थाणखेत्तं भणिस्सामो। तं जहा- जंबूदीवे वे चंदा, वे सूरा । लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा, चत्तारि सूरा । धादइखंडे पुध पुध वारह चंदाइच्चा । कालोदयसमुद्दे बादाल चंदाइच्चा। पोक्खरदीवद्धे बाहत्तरि चंदाइच्चा' । माणुसोत्तरसेलादो बाहिरपंतीए चोदालसदमेत्ता । तदो चत्तारि रूवपक्खेवं काद्ग णेदव्वं ........................................ समाधान- 'सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकाल में देशोन आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। इस सूत्र-वचनसे जाना जाता है कि त्रसजीव लोकनालीके भीतर ही रहते हैं, बाहर नहीं। इसलिए राजुप्रतरके भीतर सर्वत्र सासादनसम्यग्दृष्टि जीव संभव है। विशेषता केवल यह है कि त्रसजीवोंसे विरहित (मानुषोत्तर और स्वयंप्रभ पर्वतके मध्यवर्ती) असं. ख्यात समुद्रोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं । यद्यपि वैरभाव रखनेवाले व्यन्तर देवोंके द्वारा हरण करके ले जाये गये जीवोंकी वहां संभावना है, किन्तु वे वहांपर स्वस्थानस्वस्थानस्थ नहीं कहलाते हैं, क्योंकि, उस समय वे विहाररूपसे परिणत हो रहे हैं। इस क्षेत्रको तिर्यग्लोकके प्रमाणसे फरनेपर, एक जगप्रतरको आगे कहे जानेवाले संख्यातरूप प्रमाणसे खंडित करके जो लब्ध आवे, उसे राजुप्रतरमेंसे निकाल करके पुनः संख्यात अंगु लोसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होकर संख्यात अंगुल बाहल्यवाला अगप्रतर होता है। अब सासादनसम्यग्दृष्टि ज्योतिषी देवोंके स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रको कहते हैं । वह इस प्रकार है- जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं । घातकीखंडमें पृथक् पृथक् बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं। कालोदकसमुद्र में ब्यालीस चन्द्र और ब्यालीस सूर्य हैं। पुष्करद्वीपार्धमें बहत्तर चन्द्र और बहत्तर सूर्य हैं । मानुषोत्तर १लवणोदे कालोदे जीवा अंतिमसयंभुरमणम्मि। कम्ममहीसंबद्धे जलयरया होति ण हु सेसे ॥ ति.प. ५, ३१. जलयरीवा लवणे काले यतिमसयंभुरमणे य । कम्ममहपिडिबद्ध न हि सेसे जलयरा जीवा ॥ त्रि.सा. ३२०. १ प्रतिषु सव्वाणवा',म प्रती सव्वाणत्था' इति पाठः। चित्तारो लवणेज धादादीवम्मि वारस मियंका। वादाल कालसलिले बाहत्तरि पुक्खरखम्मि । ति. प. पत्र २५१-१२२. दो दोवगं वारस नादाल बहत्तरिंदुइणसंखा। पुक्खरदलो ति परदो अवटिया सन्बजोगणा। त्रि.सा. ३४६. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादितिफोसणपरूवणं [१५१ जाव बाहिरमट्ठ पंतीओ गदाओ ति । तदो समुद्दभतरपढमपंतीए वेसद-अट्ठासीदिमेसा । तदो चदुरूवब्भहियं कादूण णेदव्वं जाव एत्थतणनाहिरपंति ति । एवं णेदव्वं जाव सयंभूरमणसमुद्दो त्ति । वुत्तं च चंदाइच्च-गहेहिं चेवं णक्खत्त-ताररूवेहिं । दुगुण-दुगुणेहिं णारंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो' ॥ २॥ एदाणि सव्वविमाणाणि मेलाविदे संखेज्जपदरंगुलेहि जगपदरम्हि भागे हिदे एगभागमेत्ताणि विमाणाणि होति । पुणो ताणि शैलसे बाहिरी पंक्ति (वलय) में एकसौ चवालीस चन्द्र और इतने ही सूर्य हैं। इससे आगे चार संख्याको प्रक्षेप करके, अर्थात् चार चार बढ़ाते हुए बाहरी आठवीं पंक्ति आने तक ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-पुष्करार्धद्वीपसे ५० हजार योजन आगे जाकर ज्योतिर्मडलकी प्रथम पंक्ति या वलय है, वहांपर चन्द्र और सूर्य की संख्या १४४, १४४ है। उससे आगे एक एक लाख योजन आगे आगे जाकर सात वलय और हैं, जिनपर कि चन्द्र और सूर्योकी संख्या ४,४ बढ़ती जाती है, अर्थात् वहांपर क्रमशः १४८, १५२, १५६, १६०, १६४, १६८, १७२ चन्द्र था इतने ही सूर्योकी संख्या हो जाती है । इस प्रकारके वलय स्वयम्भूरमणसमुद्र तक अवस्थित हैं। इससे आगेके समुद्र की भीतरी पंक्ति में दो सौ अठासी चन्द्र वा इतने ही सूर्य हैं। इससे आगे प्रत्येक वलयपर चार चार चन्द्र और सूर्यकी संख्या यहांकी बाहरी पंक्ति माने तक बढ़ाते हुए ले जाना चाहिए। इस प्रकारसे स्वयम्भूरमणसमुद्र तक चन्द्र और सूर्यकी संख्या बढ़ाते हुए ले जाना चाहिए । कहा भी है चन्द्र, भादित्य (सूर्य), ग्रह, नक्षत्र और ताराओंकी दूनी दूनी संख्याओंसे निरन्तर तिर्यग्लोक द्विवर्गात्मक है॥२॥ ये सर्व (चन्द्र या सूर्य) विमान एकटे मिलाने पर संख्यात प्रतरांगुलोंसे जगप्रतरमें भाग देने पर एक भागप्रमाण विमान होते हैं। पुनः वे सब १मणुसुत्तरगिरिंदादो पण्णाससहस्सजोयणाणं गंतूण पदमवलयं होदि । तचो पर पत्तकमेकलक्खजोयणाणि गंतूण विदियादिवलयाओ होति नाव सयंभुरमणसमुद्दो त्ति । णवरि सयंभुरमणसमुदस्स वेदीए पण्णाससहस्सनोयणाणिमपाविय तम्मि पदेसे चरिमवलयं होदि । ति.प.पत्र २२४. मणुसुत्तरसेलादो वेदियमूलादु दीवउवहीणं । पण्णाससहस्सेहि य लक्खे लक्खे तदो वलयं ॥ दीवद्धपढमवलये च उदालसयं तु वलयवलयेसु । चउ आदीदो दुगुणदुगुणकमा । त्रि. सा ३४१.३५०. २ द्रव्यप्र. पृ. ३६. ३ अट्ट चउ दुति ति सत्ता सत य ठाणेसु णवसु सुण्णाणि । छत्तीस सत्त दु णव अट्ठा तिचउक्का हॉति अंककमा । एदेहि गुणिसंखेज्जरूवपदरंगुलेहिं मजिदाए । सेठिकदीए लदं माणं चंदाण जोइसिंदागं । ति. प. ७, ११, १२. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १. (अट्ठासीतिं च गहा अट्ठावीसं तु हुंति नक्खत्ता ।। एगससीपरिवारो इत्तो ताराण वोच्छामि ॥) छावठिं च सहस्सं णवयसदं पंचसत्तरि य होति । एयससीपरिवारो ताराणं कोडिकोडीओ ॥ ३ ॥ एदाहि ताराहि चंदाइच्च गह-णक्खत्तेहि य पंचट्ठाणहिदं परिवाडीए गुणिय मेलाविदे जोदिसियसव्वविमाणाणि होति। तिरियलोगावट्ठिदसयलचंदाणं सपरिवाराणमाणयणविहाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- जंबूदीवादिपंचदीवसमुद्दे मोत्तूण तदियसमुद्दमादि कादूण जाव सयंभूरमणसमुद्दो नि एदासिमाणयणकिरिया ताव उच्चदे- तदियस मुद्दम्मि - (एक चन्द्रके परिवारमें (एक सूर्यके अतिरिक्त) अठासी ग्रह और अट्ठाईस नक्षत्र होते हैं, तथा तारोंका परिमाण आगे कहते हैं ॥) एक चन्द्रके परिवार में छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोडाकोड़ी ६६९७५०००००००००००००० तारे होते हैं ॥३॥ इन ताराओंसे, तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रोंसे पांच स्थानपर अवस्थित उपर्युक्त चन्द्र विमानसंख्याको परिपाटी-क्रमसे गुणितकर मिला देनेपर ज्योतिषी देवोंके सर्व विमान हो जाते हैं। विशेषार्थ-अभी ऊपर जो चन्द्र-बिम्बोंकी संख्या निकाल आए हैं, उसे पांच स्थानोपर स्थापित करना चाहिए । पुनः चूंकि एक चन्द्र के परिवार में एक सूर्य, अठासी ग्रह, अट्ठाईस नक्षत्र और ऊपर बताये गए प्रमाणवाले तारे होते हैं, इसलिए इनसे क्रमशः पांच स्थानोंपर अवस्थित चन्द्र-संख्याको गुणित करनेपर उनका प्रमाण इस प्रकार आ जाता है चन्द्रसंख्या, सूर्यसंख्या, ग्रहसंख्या, नक्षत्रसंख्या, तारासंख्या च x १; च x १६ च ८८; च x २८; च ६६९७५०००००००००००००० ___ अब तिर्यग्लोकमें अवस्थित सपरिवार सकल चन्द्रोंके प्रमाणको निकालने का विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है- जम्बूद्वीपादि तीन द्वीप और लवणसमुद्रादि दो समुद्र, इन पांच द्वीप समुद्रोंको छोड़कर तृतीय समुद्रको आदि करके स्वयम्भूरमणसमुद्र आने तक १ गाथेयं प्रतिषु नोपलभ्यते, किन्तृत्तरगाथया सहास्या अविनामावित्वादत्रोदृता । इयं गाथोत्तरगाथया सह सूर्यप्रसप्तावुपलभ्यते । ( अमि. रा. कोष, चन्द्रशब्दे ) २ अडसीदट्ठावीसा गहरिक्खा तार कोडकोडीणं । छ.वट्टि सहस्साणि य णवस यपण्णत्तििग चंदे ॥ त्रि सा. ३६२. ३ आणिय गुणसंकलिदं किंचूणं पंचठाणसं ठविदं । चंदादिगुणं मिलिदे जोइस बिंबाणि सव्वाणि ॥ त्रि. सा. ३६१ ४ इत आरभ्यातनः संदर्भः अग्रतन-रूपोनमादिस गुणेत्यादि आर्यासूत्रखंडातप्राक् तिलोयपण्णति ज्योतिलोकाधिकारगतेनानेन प्रकरणेन प्रायः शब्दशः समानः Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादिहिफोसणपरूवणं [१५३ गच्छो बत्तीस, चउत्थदीवे गच्छो चउसट्ठी, उपरिमसमुद्दे गच्छो अट्ठावीसुत्तरसयं । एवं दुगुणकमेण गच्छा गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुदं ति । संपहि एदेहिं गच्छेहिं पुध गुणिजमाणरासिपरूवणा कीरदे । तदियसमुद्दे वेसदमट्ठासीदं, उवरिमदीवे तत्तो दुगुणं । एवं दुगुण दुगुणकमेण गुणिज्जमाणरासीओ गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुदं पत्ताओ ति । संपहि अट्ठासीदि-विसदेहि सव्वगुणिज्जमाणरासीओ ओवट्टिय लद्धेण सग-सगगच्छे गुणिय अट्ठासीदि-वेसदमेव सव्यगच्छाणं गुणिज्जमाणं कायव्यं । एवं कदे सबगच्छा अण्णोण्णं पक्खिदूण चदुग्गुणकमेण अवडिदा जादा। संपहि चत्तारिमादि कादूण चदुरुत्तरकमेण गदसंकलणाए आणयणे कीरमाणे पुबिल्लगच्छेहितो संपहियगच्छा रूऊणा होति, दुगुणजादट्ठाणे चत्तारिरूवबड्डीए अभावादो । एदेहि गच्छेहि गुणिज्जमाणमज्झिमधणाणि चउसद्विमादि काऊण दुगुण-दुगुणकमेण गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुदं ति । पुणो गच्छसमी इनके विमानोंकी संख्या निकालनेको प्रक्रिया पहले कहते हैं- तृतीय समुद्र में गच्छका प्रमाण बत्तीस, चतुर्थ द्वीपमें गच्छका प्रमाण चौंसठ, इससे आगेके समुद्र में गच्छका प्रमाण एकसौ अट्ठाईस होता है। इस प्रकार दूने दूने क्रमसे गच्छ स्वयम्भूरमणसमुद्र तक बढ़ते हुए चले जाते हैं। अब इन गच्छोंसे पृथक् पृथक् गुण्यमान (गुणा की जानेवाली) राशियोंकी प्ररूपणा करते हैं। तृतीय समुद्र में गुण्यमानराशि दो सौ अठासी है, उससे उपरिम द्वीपमें गुण्यमानराशि इससे दूनी (२८८४ २=५७६) है। इस प्रकार दूने दूने क्रमसे गुण्यमान राशियां स्वयम्भूरमणसमुद् प्राप्त होने तक दूनी होती हुई चली जाती हैं। उदाहरण-२८८, ५७६, ११५२, २३०४, ४६०८, ९२१६, १८४३२ इत्यादि । (गुण्यमानराशियां) अब दो सौ अठासीसे सभी गुण्यमान राशिओंको अपवर्तितकर लब्धराशिसे अपने अपने गच्छोंको गुणित करके दो सौ अठासीको ही सर्व गच्छोंकी गुण्यमानराशि करना चाहिए । ऐसा करनेपर सर्व गच्छ परस्परकी अपेक्षासे चतुर्गुण-क्रमसे अवस्थित हो जाते हैं। उदाहरण-(१) २२८ = १, १४ ३२ = ३२, (२) १७८ = २, २४ ६४ = १२८, इत्यादि । यहांपर प्रथम गच्छ ३२ से द्वितीय गच्छ १२८ चौगुणा हो गया है। अब चारको आदि करके चार चारके उत्तरक्रमसे वृद्धिंगत संकलनके निकालनेपर पहले के गच्छोंसे इस समयके गच्छ एक कम होते हैं, क्योंकि, दुगुणे हुए स्थानपर चार रूपकी वृद्धिका अभाव है। इन गच्छों से गुणा किये जानेवाले मध्यमधन, चौंसठको आदि करके दुगुण दुगुणक्रमसे स्वयम्भूरमणसमुद्र तक बढ़ते हुए चले जाते हैं। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ४, ४. करणङ्कं सव्वगच्छेस एगेगरूवपक्खूणो' कायव्वो । एवं काढूण चउसद्विरूवेहिं मज्झिमधाणि ओडियलद्वेण सग-सगगच्छे गुणिय सव्वगच्छाणं चउसट्ठिरुवाणि गुणिज्जमाणत्तणेण वेदव्वाणि । एवं कदे वड्डिदेशसिस्स पमाणं वुच्चदे - एगरूत्रमादि काढूण गच्छं पडि दुगुण- दुगुणकमेण सयंभूरमणसमुद्दो त्ति गच्छरासी वड्ढिदो होदि । संपहि विशेषार्थ — गच्छकी मध्यसंख्यापर जो वृद्धिका प्रमाण आता है, उसे मध्यमधन कहते हैं । यह धन उत्तरोत्तर दुगुणरूपसे बढ़नेवाले गच्छों में दुगुणा होता जाता है। तृतीय समुद्रका गच्छ ३२ है । प्रथम स्थानपर तो चारकी वृद्धि होती नहीं है, अतएव उसे छोड़कर जो शेष ३१ स्थान बचते हैं, उनमें सोलहवां स्थान मध्यम रहता है और उसकी वृद्धिका प्रमाण ६४ होता है । जैसे ४, १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, ८, १२, १६, २०, २४, २८, ३२, ३६, ४०, ४४, ४८, ५२, ५६, ६०, १२४, १२०, ११६, ११२, १०८, १०४, १००, ९६, ९२, ८८, ८४, ८०, ७६, ७२, ६८, ३१, ३०, २९, २८, २७, २६, २५, २४, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १७, इस क्रमले गच्छके मध्यवर्ती सोलहवें स्थानपर वृद्धिका प्रमाण ६४ आता है । इसलिए तृतीय समुद्रसम्बन्धी मध्यमधन ६४ है । इसी प्रकार आगे के द्वीपका गच्छ ६४ होनेसे उसका मध्यमधन १२८ होगा, जो अपने पूर्ववर्ती मध्यमधन ६४ के प्रमाणसे दुगुणा होता है । इस प्रकार आगे आगे द्वीप और समुद्रोंका मध्यमधन दुगुण-प्रमाणसे बढ़ता जाता है । पुनः गच्छोंके समीकरणके लिए सभी गच्छोंमें एक एक रूपकी हानि ( कमी ) करना चाहिए। ऐसा करके चौंसठ रूपोंसे मध्यम धनको अपवर्तित कर लब्धराशिसे अपने अपने गच्छोंको गुणा करके चौंसठ संख्याको सर्व गच्छोंकी गुण्यमान राशिरूपसे स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने पर बढ़ी हुई राशिका प्रमाण कहते हैं- एक रूपको आदि करके, एक एक गच्छपर दुगुण दुगुण-क्रम से स्वयम्भूरमणसमुद्र तक गच्छराशि बढ़ती हुई चली जाती है। उदाहरण - मध्यमधन ६४, (१) ॣ × ३१ × ६४ = १९८४ उत्तरधन, अर्थात् कुल वृद्धिका प्रमाण । इस उत्तरधनको २८८ × ३२ = ९२१६ में मिला देने से तृतीय समुद्रसम्बन्धी समस्त चन्द्रों का प्रमाण हो जाता है११२०० सर्वधन ) ( ९२१६ + १९८४ = १ प्रतिषु ' पक्खेण ' इति पाठः । २ त्रिलोकप्रज्ञप्तौ अत्र अग्रतोऽपि च ' वडिद ' स्थाने ' रिण ' इति पाठः । १६ ६४ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ५.1 फौसणाणुगमे सासणसम्मादिट्ठिफोसणपरूवर्ण [१५५ एवं द्विदसंकलणाणमाणयणं बुच्चदे- छरूवाहियजंबूदीवछेदणएहि परिहीणरज्जुच्छेदणाओ गच्छं कादण जदि संकलणा आणिज्जदि तो जोदिसियजीवरासी ण उप्पज्जदि, जगपदरस्स वेछप्पण्णंगुलसदवग्गभागहाराणुववत्तीदो । तेण रज्जुच्छेदणासु अण्णेसि पि तप्पाओग्गाणं संखेज्जरूवाणं हाणि काऊग गच्छो ठवेदव्यो । एवं कदे तदियसमुद्दो आदी ण होदि त्ति णासंकणिज्जं; सो चेव आदी होदि, सयंभूरमणसमुदस्स परभागसमुप्पण्णरज्जुछेदणयसलागाणमागयणकारणादो। सयंभ्रमणसमुदस्स परदो रज्जुच्छेदणया अत्थि त्ति कुदो णव्वदेः१ वेछप्पण्णं (२) १९४४ ६३ x ६४ = ८०६४ उत्तरधन । इस उत्तरधनको ५७६४ ६४ = ३६८६४ में मिला देनेसे चतुर्थ द्वीपसम्बन्धी समस्त चन्द्रोंका प्रमाण हो जाता है (३६८६४ + ८०६४ = ४४९२८ सर्वधन) (३) १५६ x १२७४ ६४ = ३२५१२ उत्तरधन । इस उत्तरधनको ११५२४१२८१४७४५६ में मिला देनेसे चतुर्थ समुद्रसम्बन्धी समस्त चन्द्रोंका प्रमाण हो जाता है (१४७५५६ + ३२५१२ = १७९९६८ सर्वधन) इसी क्रमसे आगेके प्रत्येक द्वीप और समुद्रका स्वयंभूरमणसमुद्र तक उत्तरधन एवं सर्वधन निकालते जाना चाहिए । __ अब इस प्रकारसे अवस्थित संकलनोंके निकालनेके प्रकारको कहते हैं-छह रूप अधिक जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंसे परिहीन राजुके अर्धच्छेदोंको गच्छराशि बना करके यदि संकलनराशि निकाली जाती है, तो ज्योतिक जीवराशि नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि ऐसा करनेपर जगप्रतरका दो सौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गप्रमाण भागहार नहीं उत्पन्न होता है। इसलिए राजुके अर्धच्छेदों में तत्प्रायोग्य अन्य भी संख्यात रूपोंकी हानि (कमी) करके गच्छ स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने पर तृतीय समुद्र आदि नहीं होता है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, किन्तु वही, अर्थात् तृतीय समुद ही, आदि होता है, क्योंकि, इसका कारण स्वयम्भूरमणसमुद्र के परभागमें उत्पन्न होनेवाले राजुके अर्धच्छेदसम्बन्धी शलाकाओंका आना है। शंका-स्वयम्भूरमण समुदके परभाग, राजुके अर्धच्छेद होते हैं, यह कैसे जाना ? समाधान-ज्योतिष्कदेवोंका प्रमाण निकालने के लिए दो सौ छप्पन सूच्यंगुलके १ लवणे दु पडिदेक्क बूंए दैज्जमादिमा पंच । दोउदही मेरुसला पयदुवजोगी णं कच्चे ते ॥ तियहीण रोटिछेदणमेत्तो रज्जुच्छिदी हवे गच्छो । जंबूदीवच्छिदिणा छरूवजुत्तेण परिहीणा ॥ त्रि. सा. ३५८-३५९. २म प्रती 'सलागाणमरणवयणकारणादो' अन्यप्रतिघु 'सलागाणमरणक्करणादो' इति पाठः। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छखंडागमै जीवट्ठाणं [१, ४, ४. गुलसदवग्गसुत्तादो। 'जत्तियाणि दीव-सागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च रूवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुछेदणाणि' त्ति परियम्मेण एवं वक्खाणं किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदि, किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झदि । तेणेदस्स वक्खाणस्स गहणं कायव्यं, ण परियम्मस्स; तस्स सुत्तविरुद्धत्तादो । ण सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होदि, अइप्पसंगादो । तत्थ -......................................... वर्गप्रमाण जगप्रतरका भागहार बतानेवाले सूत्रसे जाना जाता है कि स्वयम्भूरमणसमुद्रके परभागमें भी राजुके अर्थच्छेद होते हैं। शंका-'जितनी द्वीप और सागरोंकी संख्या है, तथा जितने जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद होते हैं, एक अधिक उतने ही राजुके अर्धच्छेद होते हैं। इस प्रकार के परिकर्म-सूत्र के साथ यह उपर्युक्त व्याख्यान क्यों नहीं विरोधको प्राप्त होगा? समाधान-भले ही परिकर्भ-सूत्रके साथ उक्त व्याख्यान विरोधको प्राप्त होवे, किन्तु प्रस्तुत सूत्रके साथ तो विरोधको प्राप्त नहीं होता है। इसलिए इस ग्रन्थके व्याख्यानको ग्रहण करना चाहिए, परिकर्मके व्याख्यानको नहीं, क्योंकि, वह व्याख्यान सूत्रसे विरुद्ध है। और, जो सूत्र विरुद्ध हो, उसे व्याख्यान नहीं माना जा सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है। विशेषार्थ-प्रकृतमें ज्योतिषी देवोंकी संख्या निकालनेके लिए द्वीप-सागरों की संख्या शात करना धवलाकारको आवश्यक प्रतीत हुआ। द्वीप-सागरोंकी संख्या अन्य आचार्योके उपदेशानुसार राजुके अर्धच्छेदोंमेले ६ तथा जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद कम करने से प्राप्त होती है, मेरु व जम्बूद्वीप आदि प्रथम पांच द्वीप-समद्रों में जो राजुके छह अर्धच्छेद पड़ते है वे यहां सम्मिलित नहीं किये गये, क्योंकि, इन द्वीप-समुदोकी चन्द्रगणना पृथक् की गई है। किन्तु धवलाकारका मत है कि यदि इतना ही द्वीप-सागरोंका प्रमाण लिया जावे, तो उसके आधारसे निकाली हुई ज्योतिषी देवोंकी संख्या २५६ के भागहारसे निकाली हुई संख्यासे विषम पड़ती है । उसके वैषम्य को दूर करने के लिए धवलाकारको यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि द्वीप-सागरोंकी संख्या निकालनेके लिए राजुके अर्धच्छेदोंमेंसे जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंके अतिरिक्त ६ ही नहीं, किन्तु छहसे अधिक संख्यात अंक और कम करना चाहिए। इसपरसे ज्ञात होता है कि केवल ६ अंक कम करनेसे द्वीप-सागरोंकी संख्याद्वारा ज्योतिषीदेवोंका जो प्रमाण निकलेगा, वह २५६ के भागहारद्वारा प्राप्त संख्यासे बढ़ जाता है। छहसे अधिक संख्यात अंकों के कम करने में धवलाकारने हेतु यह दिया है कि स्वयम्भूरमणसमुद्रसे परे जो पृथिवी है, वहां भी राजुके अर्धच्छेद पड़ते हैं, किन्तु वहां ज्योतिषी देव नहीं है। इसलिए वहांके संख्यात अर्धच्छेद भी उक्त गणनामें कम करना १ खेतेण पदरस्स वेछप्पणंगुलस यवग्गपडिमागेण । जी. द. सू. ५५, मजिदम्मि सेदिवग्गे बेस यमपण. अंगुलकदीए । जलद्धं सो रासी जोदिसिय सुराण सम्पाणं ॥ ति. प. ७, १०. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादिहिफोसणपरूवणं [ १५७ जोइसिया णत्थि त्ति कुदो णव्यदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। एसा तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाहियजंबूदीवछेदणयसहिददीवसायररूवमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिओवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपणत्तिसुत्ताणुसारी जोदिसियदेवभागहारपदु. प्पाइयसुत्तावलंबिजुत्तिवले ग पयदगच्छमाहणहमम्हेहि परूविदा, प्रतिनियतमूत्रावष्टम्भवल. विजूंभितगुणप्रतिपन्न प्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोपदेशरत् आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा । तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेत्ति एयंतपरिग्गण असग्गाहो काययो, परमगुरु. आवश्यक है। इस विधानसे परिकर्मके 'जत्तियाणि दीवसागररूवाणि' आदि कथनमें जो विरोध पड़ता है, उसके विषय में धवलाकारने यहां स्पष्ट कहा है कि उक्त कथन सूत्र-विरुद्ध होनेसे ग्राह्य नहीं है। किन्तु द्रव्यप्रमाणानुगममें उस विरोधका भी एक प्रकारसे परिहार किया है । (देखो तृ. भाग, सूत्र ४, पृ. ३३-३६) शंका - वहां, अर्थात् स्वयम्भूरमणसमुदके परभागमें ज्योतिष्क देव नहीं है, यह कैसे जाना ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपाधिक जम्पूछीपके अर्धच्छेदोंसे सहित द्वीप-सागरोंके रूपप्रमाण राजुसम्बन्धी अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षा-विधि अन्य आचार्योंकी उपदेशपरमाराकी अनुसरण करनेवाली नहीं है, किन्तु केवल त्रिलोकप्रज्ञप्तिसूत्रका अनुसरण करनेवाली है, जो कि ज्योतिषक देवों के भागहारको उत्पन्न करनेवाले सूत्रसे अवलम्बित युक्तिके बलसे प्रकृत गच्छके साधनार्थ, प्रतिनियत सूत्रके अवष्टम्भ-वलसे विजृम्भित अर्थात् तत्प्रतिपादक सूत्रके आश्रयले गुणस्थान-प्रतिपन्न सासादनसम्यग्दाट आदि जीवों से प्रतिबद्ध असंख्यात आवलियोंके अवहारकालके उपदेशके समान, तथा आयत-चतुष्कोण पुरुषाकार लोक-संस्थानके उपदेशके समान हमने निरूपण की है। विशेषार्थ-यहां धवलाकारने दृष्टान्तपूर्वक दान्तिको सिद्ध करने के लिए जिन विशेषताओंका उल्लेख किया है, उनके कहने का अभिप्राय क्रमशः निम्न प्रकार है (१) पहला दृष्टान्त प्रतिनियत सूत्राश्रयसे सासादनादि गुणस्थानवी जीवोंके असंख्यात आवलिकात्मक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण भागहारके उपदेशका दिया है, जिसका अभिप्राय समझने के लिए द्रव्यप्रमाणानुगत तृतीय भाग पृ. ६९ के मूल पाठ और विशेषार्थको देखिए। यहांपर उल्लेख करने का प्रयोजन यह है कि 'संख्यात आवलियोंका एक अतमुहूर्त होता है। इस प्रचलित एवं सर्व-मान्य मान्यताको भी 'एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेण' (द्रव्यप्र. सू. ६) इस सूत्रके आधारसे 'अन्तर्मुहूर्त' इस पदमें पड़े हुए 'अन्तर' शब्दको सामीप्यार्थक मानकर यह सिद्ध किया है कि अन्तर्मुहूर्तका अभिप्राय मुहूर्तसे अधिक कालका भी हो सकता है, और इसलिए प्रकृतमें 'अन्तर्मुहूर्त' का अर्थ मुहूर्तसे अधिक कालका ही लेना चाहिए। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. परंपरागओवएसस्स जुत्तिवलेण विदधावेदुमसकियत्तादो, अदिदिएसु पदत्थेसु छदुमत्थवियप्पाणमविसंवादणियमाभावादो । तम्हा चिरंतणाइरियवक्खाणापरिच्चारण एसा वि दिसा हेदुवांदाणुसारिउप्पण्णसिस्साणुरोहेण अउप्पण्णजण उप्पायणटुं च दरिसेदव्या । तदो ण एत्थ संपदायविरोहासंका कायया त्ति । ........................ (२) दूसरा दृष्टान्त आयत-चतुरस्र लोकसंस्थानके उपदेशका दिया है, जिसका अभिप्राय समझने के लिए क्षेत्रानुगम (इसी चतुर्थ भाग) के पृष्ठ ११ से २२ तकका अंश देखिए । यहांपर उल्लेख करनेका प्रयोजन यह है कि धवलाकारके सामने विद्यमान करणानुयोगसम्बन्धी साहित्यमें आयत-चतुरस्र लोकके आकारका विधान या प्रतिषेध कुछ भी नहीं मिल रहा था, तो भी उन्होंने प्रतरसमुद्धातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ कही गई दो गाथाओंके (देखो क्षेत्रप्र. पृष्ठ २०, २१) आधारपर यह सिद्ध किया है कि लोकका आकार आयत-चतुष्कोण है, न कि अन्य आचार्योंसे प्ररूपित १६४३३६ घनराजुप्रमाण मृदंगके समान । यदि ऐसा न माना जायगा, तो उक्त दोनों गाथाओंको अप्रमाणता और लोकमें ३४३ घनराजुओंका अभाव प्राप्त होगा। इसलिए लोकका आकार आयत-चतुरस्र ही मानना चाहिए। (३) धवलाकारने जिस प्रकार उक्त दोनों बातोंको तात्कालिक करणानुयोगसम्बन्धी शास्त्रों में उल्लेख अथवा, आचार्योंकी उपदेश-परम्पराके नहीं मिलने पर भी उक्त प्रकारकी सूत्रावलम्बित युक्तियों के बलसे उन्हें सिद्ध किया है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करणानुयोगके ग्रन्थों में या आवार्य उपदेशपरम्परामें उपलब्ध नहीं होने पर भी प्रतिनियत सूत्राश्रित तर्कके बलसे वे यह सिद्ध कर रहे हैं कि स्वयम्भूरमणसमुद्र के परभ ग में भी असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके व्यास-रुद्ध योजनोंसे संख्यात हजारगुने योजन आगे जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है, अर्थात् स्वयम्भूरमणसमुद्रकी बाह्यवेदिकाके परे भी पृथिवीका अस्तित्व है। वहां भी गजुके अर्धच्छेद उपलब्ध होते हैं, किन्तु वहांपर ज्योतिषी देवों के विमान नहीं हैं। इसलिए यहांपर 'यह ऐसा ही है। इस प्रकार एकान्त हठ पकड़ करके असद् आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि, परम गुरुओंकी परम्परासे आये हुए उपदेशको युक्तिके बलसे भयथार्थ सिद्ध करना अशक्य है, तथा अतीन्द्रिय पदार्थोंमें छद्मस्थ जीवोंके द्वारा उठाये गए विकल्पोंके अविसंवादी होनेका नियम नहीं है। अतएव पुरातन आचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न करके यह भी दिशा हेतुवाद (तर्कवाद) के अनुसरण करनेवाले व्युत्पन्न शिष्यों के भनुरोधसे तथा अव्युत्पन्न शिष्य जनोंके व्युत्पादनके लिए दिखाना चाहिए । इसलिए यहांपर सम्प्रदायके विरोधकी आशंका नहीं करना चाहिए। १ प्रतिषु · विहदाविद् ', म प्रतौ — विहदावेदुः' इति पाठः । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादिहिफोसणपरूवणं [१५९ एदेण विहाणेण परूविदगच्छं विरलिय रूवं पडि चत्तारि रुवाणि दादण अण्णोण्णब्भत्थं करिय रूपोनमादिसंगुणमेकोनगुणोन्मथितमिच्छा'' एदेण गाहाखंडेण संकलणाओ आणिय दोहं सकलणाणं धणं कादूग तदियसंकलणे अवणिदे चंदविंचसलागाओ उप्पज्जति । ताओ अट्ठारससयसमहियताराहि गुणिदे जोदिसियाणं सयलबिंत्रसलागाओ होति । ताओ संखेज्जघणंगुलेहि गुणिदाओ सत्थाणखेत्तं होदि । सत्थाणखेत्तं ऊपर बताये गए इस विधानसे प्ररूपित गच्छको विरलन करके प्रत्येक एकके ऊपर चार चारको देयरूपसे देकर परस्सर गुणा करके 'उनमें से एक कम करे, पुनः आदिधनसे संगुणित करे, पुनः एक कम गुणकारका भाग दे, तब इच्छित राशि उत्पन्न होती है। इस गाथाखंडरूप सूत्रसे संकलनराशियों को निकालकर दोनों संकलनराशियोंका धन (जोड़) करके इस राशिमेंसे तीसरी संकलनराशिको घटा देने पर चन्द्रबिम्बकी शलाकाएं उत्पन्न हो जाती हैं। उदाहरण-गच्छ ३२, आदिधन ११२०० (तृतीय समुद्रका सर्वसंकलन ), सर्व द्वीपसमुद्रों की संख्या असंख्यात = ३ (काल्पनिक)। ६३४११२०० प्रथम संकलन-१४१४ १ = ६४, ६४ - १ = ६३, ६३ =२३५२००। ४-१ द्वितीय संकलन-४-१-१ = ६४, ६४ - १ = ६३, ६३ ४-१ ७५६४ तृतीय संकलन –२x२x२-८, ८- १ = ७, , २- प्रथम संकलन द्वितीय संकलन तृतीय संकलन समस्त चन्द्र-शलाकाएं । २३५२०० + १३४४ २३६०९६ इस प्रमाणमें पहले बताई हुई प्रथम पांच-द्वीप समुद्रोसंबन्धी चंद्रोंकी संख्या सम्मिलित नहीं है। ठीक यही संख्या प्रथम पांच द्वीप-समुद्रोंको छोड़कर आगेके तीन समुद्र वा छीपोंके पृथक् पृथक् निकाले हुए चंद्रोंकी संख्याके योगसे आती है १२७ = १३४४ । = ४४८ । ११२००+४४९२८+१७९९६८ = २३६०९६ (देखो प्र.१५४-१५५.) उक्त प्रकारसे उत्पन्न हुई चन्द्रबिम्बकी शलाकाओंको एक सौ अठारहसे अधिक ताराओंके प्रमाणसे गुणा कर देनेपर ज्योतिष्क देवोंके सकल बिम्बोंकी शलाकाएं उत्पन्न हो जाती हैं। विशेषार्थ-अभी पहले जो एक चन्द्रका परिवार बताया गया है, उसमेंसे एक चन्द्र, एक सूर्य, अठ्यासी ग्रह और अट्ठाईस नक्षत्र, इनको जोड़ देनेपर (१+१+८८+२८=११८) - १ पदमत्ते गुणयारे अण्णोणं गुणिय रूवपरिहीणे । रूऊणगुणेणहिए मुहेण गुणियम्मि गुणगणियं ॥ त्रि. सा २३१. २ ति. प. पत्र २२६. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ४. संखेज्जहिं गुणिय संखेज्जघणंगुलेहि ओवट्टिदे जोइसियरासी होदि । एदाणि जोदिसियदेवस्सेध गुणिदविमाण मंतर पदरंगुलेहि गुणिदे जोइसियसत्थाणखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं होदि । णवरि देवस्सेध गुणिदविमाण अंतर पदरंगुलाणि उस्सेहंगुलाणि कड पमाणंगुलाणि कायव्याणि । उस्सेहंगुलाणि त्ति कथं पच्चदे ? अण्णहा जंबूदीवभतरे जंबूदीवताराण मोगासाभावादो । अथवा एदाणि पमाणंगुलाणि चैव । कधं पुण सम्मति ? ण, जंबूदीव लवणसमुद्देदि वे अस्सिदूग अवद्वाणादो एक सौ अठारह होते हैं। इसमें ताराओंका प्रमाण जोड़कर उत्पन्न हुई राशिका चन्द्रबिम्बकी शलाकाओं से गुणा कर देनेपर समस्त ज्योतिषी देवोंके विमानोंकी शलाकाएं निकल आती है । उन्हें संख्यात घनांगुलोंसे गुणित करनेपर सर्व ज्योतिषी देवोंके विमानोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है । स्वस्थानक्षेत्रको संख्यातरूपोंसे गुणा करके संख्यात घनांगुलोंसे अपवर्तित करनेपर ज्योतिष्क देवों की राशि हो जाती है। इस राशिको ज्योतिष्क देवोंके शरीरोत्सेधसे गुणित विमानोंके भीतरी प्रतरांगुलोंसे गुणा करनेपर ज्योतिष्क देवोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है, जो कि तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागमात्र होता है । विशेष बात यह है कि देवोंके शरीर के उत्सेधसे गुणित विमानोंके भीतरी प्रतरांगुल, उत्सेधांगुल हैं, ऐसा समझ करके उनके प्रमाणांगुल करना चाहिए । शंका- वे प्रतरांगुल उत्सेधांगुल हैं, यह कैसे जाना ? समाधान - यदि उन प्रतर गुलोंको उत्सेधांगुल न माना जायगा, तो जम्बूदीपके भीतर जम्बूद्वीपस्थ तारागणों के रहनेको अवकाश न मिल सकेगा । अथवा, ये प्रतरांगुल प्रमाणांगुल ही हैं । शंका- तो फिर ये जम्बूद्वीप में कैसे समाते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र, इन दोनों को ही आश्रय करके वे ज्योतिष्क विमान अवस्थित हैं । अर्थात्, जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र, इन दोनों क्षेत्रों में जम्बूद्वीपसम्बन्धी ज्योतिष्क- विमान रहते हैं । विशेषार्थ -- जम्बूद्वीपसम्बन्धी दोनों चन्द्रोंके परिवार में तारोंकी संख्या एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोड़ाकोड़ी है । एक तारेका जघन्य विष्कंभ कोशका और उत्कृष्ट १ कोशका कहा गया है, तथा उत्सेध विष्कंभसे आधा तथा आकार उत्तान गोलार्ध सदृश है । (त्रिलोकसार गाथा ३३७, ३३८ ) । तदनुसार मध्यम विष्कंभ रे कोश लेकर एक १ प्रतिषु 'समुदेहि वि' इति पाठः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १.] फोसणाणुगमे सासणसम्माइट्ठिफोसणपवणं [१६१ वेंतरदेवसासणसम्माइद्विसत्थाणखेतं पि तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागमेत्तं होदि । तं कधं ? वेतरदेवरासिं दृविय एके कम्हि वेंतरावासे संखेज्जा चेव वेंतरदेवा होति ति तारेका स्थूल घनफल-२४३४३४ २ = २.; तथा जम्बूद्वीपके समस्त तारोंका घनफल स्थूल रूपसे १३३९५ ४ १० x २ = ९९२२ कोट्टाकोड़ी घनकोश हुआ। 40 तारागण पृथिवीसे ७९० योजन ऊपरसे लगाकर ९०० योजन तक अर्थात् ११० योजन-बाहल्य आकाशमें रहते हैं । (देखो त्रिलोकसार गाथा ३३२-३३४)। अतः एक लाख योजन व्यासवाले जम्बूद्वीपके ऊपर ११० योजन क्षेत्रका घनफल निकालनेसे१२४ १०४१०५४४४० = ५२८ x १०११ घनकोश हुए । इस प्रकार तारोंके धनफलमें १८ अंक है, किन्तु जम्बूद्वीपसम्बन्धी उक्त क्षेत्रमें केवल १४ अंक आते हैं। इस प्रकार वे सब तारे उक्त क्षेत्र में नहीं समा सकते। किन्तु यदि तारों में उत्सेधांगुलोंका प्रमाण स्वीकार किया जाय और उक्त क्षेत्रमें प्रमाणांगुलोंका, तो उक्त क्षेत्रके प्रमाणको ५०० से गुणा कर देने पर वह क्षेत्र ५२८ x १२५४१०१ = ६६ ४ १०२० अर्थात् २२ अंक प्रमाण हो जाता है, जिससे उक्त तारोंको उस क्षेत्रके भीतर सावकाश रहने के लिए स्थान मिल जाता है। इसीलिये धवलाकारने कहा है कि विमानोंके प्रमाण में उत्सेधांगुल ही ग्रहण करना चाहिए, और यही बात त्रिलोकप्रशान्ति आदि ग्रंथोंसे भी सिद्ध है। धवलाकारने जो दूसरे प्रकारसे उक्त वैषम्यका समाधान किया है कि विमानोंके प्रमाणमें प्रमाणांगुल ग्रहण करके भी ज.बुद्धीप और लवणसमुद्र, दोनोंके आश्रयसे उन विमानोंके अवस्थानके योग्य क्षेत्र बन जाता है, सो यह बात गणितमें ठीक नहीं उतरती, क्योंकि, जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र दोनोंके ऊपरका ११० योजन-बाहल्य क्षेत्र केवल६४ १० x ५ x १०४४४० = १३२ - १०१३ घनकोश आता है। यह क्षेत्र केवल १६ अंकप्रमाण होनेसे केवल जम्बूद्वीपके तारोंके लिए भी पर्याप्त अवकाश नहीं प्रदान कर सकता । तिसपर लवणसमुद्रसम्बन्धी चार चन्द्रोंके परिवारके तारों को भी वहां अवकाश प्राप्त होना है। इस प्रकार तारों के विमानोंको प्रमाणांगुलोंके मापमें लेकर धवलाकारने उनको किस प्रकार अवकाश प्राप्त कराया है, यह समझमें नहीं आता। सासादनसम्यग्दृष्टि व्यन्तर देवोंका स्वस्थानक्षेत्र भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र होता है। शंका-वह कैसे? समाधान-व्यन्तर देवोंकी राशिको स्थापित करके एक एक व्यन्तरावासमें संख्यात Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १. संखेज्जरूवेहि भागे हिदे वेंतरावासा होति । ण एस कमो भवणवासिय-सोधम्मादीणं, तत्थ संखेज्जेसु भवणविमाणेसु असंखेज्जजोयणायामेसु असंखेज्जा देवा देवीओ होति । कुदो ? तेसिमसंखेज्जत्तण्णहाणुववत्तीदो। पुणो वेंतरावासे अप्पणो विमाणभंतरसंखेज्जघणंगुलेहि गुणिदे वेंतरदेवसासणसम्माइटिसस्थाणखत्तं होदि । एदाणि तिणि वि खेत्ताणि एगट्ठ मेलिदे तिरियलोगस्स संखेजदिभागो होदि। विहारवदिसत्थाण-वेदण कसाय-वेउवियसमुग्धादगदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । केत्तियमेत्तेणूणा ? तदियपुढवीए हेडिल्लजोयणसहस्सेण । मारणंतियसमुग्धादगदेहि बारह चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । तं जहा- मेरुमूलादो उवरि जावीसिपब्भारपुढवि त्ति सत्त रज्जू, हेट्ठा जाव छट्ठी पुढवि त्ति पंच रज्जू । एदाओ मेलिदे सासणमारणंतियखेचायामो होदि । णवरि हेहिमजोयणसहस्सेण ऊणो त्ति वत्तव्यो । जदि सासणा एइंदिएसु उप्पज्जंति, तो तत्थ दो गुणट्ठाणाणि ही व्यन्तर देव होते हैं, इसलिए संख्यात रूपोंसे भाग देने पर व्यन्तर देवोंके आवासोंकी संख्या हो जाती है। किन्तु यह क्रम भवनवासी और सौधर्मादि कल्पवासी देवोंके नहीं हैं, क्योंकि, उनमें असंख्यात योजन आयामवाले संख्यात भवनों और विमानोंमें असंख्यात देव और देवियां रहती हैं। कारण, यदि ऐसा न माना जाय, तो उनकी राशिके असंख्यातपना नहीं बन सकता है। पुनः व्यन्तरोंके आवासक्षेत्रको अपने विमानोंके भीतरी संख्यात घनांगुलोंसे गुणित करनेपर सासादनसम्यग्दृष्टि व्यन्तर देवोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है। इन तीनों ही क्षेत्रोंको अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंके स्वस्थानक्षेत्रको, सासादनसम्यग्दृष्टि ज्योतिष्क देवोंके स्वस्थानक्षेत्रको और सासादनसम्यग्दृष्टि व्यन्तर देवोंके स्वस्थानक्षेत्रको इकडे मिलानेपर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग होता है। विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकनालीके चौदह भागों से देशोन आठ भागप्रमाण क्षेत्रको स्पर्श किया है। शंका-यहां देशोनसे तात्पर्य कितने प्रमाण क्षेत्रसे न्यून है ? समाधान-तीसरी पृथिवीके नीचेके एक हजार योजनप्रमाण क्षेत्रसे न्यून क्षेत्र देशोनसे अभीष्ट है। मारणान्तिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टियोंने लोकनालीके चौदह राजुओंमेसे देशोन बारह भागप्रमाण क्षेत्रको स्पर्श किया है। वह इस प्रकार से जानना चाहिएसुमेरुपर्वतके मूलभागसे लेकर ऊपर ईषत्प्राग्भारपृथिवी तक सात राजु होते है, और नीचे छठी पृथिवी तक पांच राजु होते हैं। इन दोनों को मिला देनेपर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके मारणान्तिकक्षेत्रकी लम्बाई हो जाती है। विशेष बात यह है कि छठी पृथिवीके नीचेके एक हजार योजनसे न्यून क्षेत्र यहांपर भी कहना चाहिए। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४.] फोसणाणुगमे सासणसम्माइडिफोसणपरूवणं [१६३ होति । ण च एवं, संताणिओगद्दारे तत्थ एकमिच्छादिद्विगुणप्पदुप्पायणादो' दव्वाणिओगद्दारे वि तत्थ एगगुणट्ठाणदव्यस्स पमाणपरूवणादो च। को एवं भणदि जधा सासणा एइंदिएसुप्पज्जति ति । किंतु ते तत्थ मारणंतियं मेल्लंति त्ति अम्हाणं णिच्छ ओ। ण पुण ते तत्थ उप्पज्जंति त्ति, छिण्णाउअकाले तत्थ सासणगुणाणुवलंभादो । जत्थ सासणाणमुववादो णत्थि, तत्थ वि जदि सासणा मारणंतियं मेल्लंति, तो सत्तमपुढविणेरइया वि सासणगुणेण सह पंचिंदियतिरिक्खेसु मारणंतियं मेल्लंतु, सासणतं पडि विसेसाभावादो? ण एस दोसो, मिण्णजादित्तादो। एदे सत्तमपुढविणेरइया पंचिंदियतिरिक्खेसु गम्भोवक्कंतिएसु चेव उप्पज्जणसहावा, ते पुण देवा पंचिंदिएसु एइंदिएसु य उप्पज्जणसहावा, तदो ण समाणजादीया । जं जाए जादीए पडिवणं, तं ताए चेव जादीए होदि त्ति पडिवज्जेदव्वं, अण्णहा अणवत्थापसंगादो। तम्हा सत्तमपढविणेरइया सासणगुणेण सह देवा इव मारणंतियं शंका-यदि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं तो उनमें (वहांपर) दो गुणस्थान प्राप्त होते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वारमें, एकेन्द्रियों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही बताया गया है, तथा द्रब्यानुयोगद्वारमें भी उनमें एक ही गुणस्थानके द्रव्यका प्रमाण-प्ररूपण किया गया है। समाधान-कौन ऐसा कहता है कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पा होते हैं ? किन्तु वे उस गुणस्थानमें मारणान्तिकसमुद्धातको करते हैं, ऐसा हमारा निश्चय है। न कि वे उस गुणस्थानमें, अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टियों में उत्पन्न होते हैं। क्योंकि, उनमें आयुष्यके छिन्न होने के समय सासादनगुणस्थान नहीं पाया जाता है। ___ शंका-जहां पर सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्पाद नहीं है, वहां पर भी यदि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिकसमुद्धातको करते हैं, तो सातवीं पृथिवीके नारकियोंको सासादनगुणस्थानके साथ पंचेन्द्रिय तिर्यचों में मारणान्तिकसमुद्धात करना चाहिए, क्योंकि, सासादन गुणस्थानत्वकी अपेक्षा दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है, अर्थात् समानता है ? ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, देव और नारकी इन दोनों की भिन्न जाति है। ये सातवीं पृथिवीके नारकी गर्भजन्मवाले पंचेद्रियों में ही उपजनेके स्वभाववाले है, और वे देव पंचेन्द्रियों में तथा एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेरूप स्वभाववाले हैं, इसलिए दोनों समान जातीय नहीं हैं। जो जिस जातिमें प्रतिपन्न है, अर्थात् स्वीकृत है, वह उसी ही जातिका माना जाता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा अनवस्थादोषका प्रसंग आ जायगा । इसलिए सातवीं पृथिवीके नारकी सासादनगुणस्थानके साथ देवोंके समान मार १ एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिदिया असपिणपचिंदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइविटाणे । जी.सं. सू. ३६. २ जी. द. सू. ७४-७६. ३ प्रतिषु । मेल्लंति ' इति पाठः । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ४. ण करेंति त्ति सिद्धं । देवसासणा एइंदिएसु मारणंतियं करेमाणा सबलोगेइंदिएसु किण्ण मारणंतियं करेंति ति ? ण, तेसिं सासणगुणपाहम्मेण लोगणालीए बाहिरमुप्पज्जणसहावाभावादो । लोगणालीए अभंतरे मारणंतियं करेंता वि भवणवासियजगमूलादोवरि चेव देव-तिरिक्खसासणसम्मादिट्ठिणो मारणंतियं करेंति, णो हेट्ठा । कुदो ? सासणगुणपाहम्मादो चेव । रज्जुपदरमेत्तपुढवी उवरि णत्थि । देवा वि सुहुमेइंदिएसु ण उप्पज्जंति । ण च बादरेइंदिया वाउक्काइयवदिरित्ता पुढवीए विणा अण्णत्थ अच्छंति । तदो सासणमारणंतियखेत्तस्स वारह चोदसभागोवदेसो ण घडदि त्ति ? ण एस दोसो, ईसिपब्भारपुढवीदो उवरि सासणाणमाउकाइएसु मारणंतियसंभवादो, अट्ठमपुढवीए एगरज्जुपदरभंतरं सबमावरिय द्विदाए तेसिं मारणंतियकरणं पडि विरोहाभावादो च। चाउकाइएसु सासणा मारणंतियं किण्ण करेंति ? ण, सयलसासणाणं देवाणं व तेउ-वाउकाइएसु मारणंतियाभावादो, णान्तिकसमुद्धात नहीं करते हैं, यह बात सिद्ध हुई। शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि देव, जबकि एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्धात करते हुए पाए जाते हैं, तो फिर सर्वलोकवर्ती एकेन्द्रियों में क्यों नहीं मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनके सासादनगुणस्थानकी प्रधानतासे लोकनालीके बाहर उत्पन्न होनेके स्वभावका अभाव है। और लोकनालीके भीतर मारणान्तिकसमुद्धातको करते हुए भी भवनवासी लोकके मूलभागसे ऊपर ही देव या तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिकसमुद्धातको करते हैं, उससे नीचे नहीं, क्योंकि, उनमें सासादनगुणस्थानकी ही प्रधानता है। शंका-राजुप्रतरप्रमाण पृथिवी ऊपर नहीं है। देव भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में नहीं उत्पन्न होते हैं, और बादर एकेन्द्रिय जीव वाचुकायिक जीवोंको छोड़कर पृथिवीके पिना अन्यत्र रहते नहीं हैं। इसलिए सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके मारणान्तिकक्षेत्रका बारह बटे चौदह (१४) भागका उपदेश घटित नहीं होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ईषत्प्राग्भार पृथिवीसे ऊपर सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अप्कायिक जीवों में मारणान्तिकसमुद्धात संभव है, तथा एक राजुप्रतरके भीतर सर्वक्षेत्रको व्याप्त करके स्थित आठवीं पृथिवीमें उन जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात करनेके प्रति कोई विरोध भी नहीं है । शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि जीव, वायुकायिक जीवों में मारणान्तिकसमुद्धातको क्यों महीं करते हैं? समाधान-नहीं, क्योंकि, सकल सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका देवोंके समान Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४.] फोसणाणुगमे सासणसम्माइडिफोसणपरूवणं पुढविपरिणाम-विमाण-तल-सिला-थंभ-थूभेतल-उब्भसालहंजिया-कुड्ड-तोरणादणं तदुप्पत्ति. जोगाणं दंसणादो च । उववादगदेहि देसूणेक्कारह चोदसभागा फोसिदा । तं जहा- हेट्ठा जाव छट्ठी पुढवि त्ति पंच रज्जू , उवरि जाव आरण-अच्चुदकप्पो त्ति छ रज्जू, आयामो वित्थारो च एगरज्जू , एदं उववादखेत्तपमाणं । के वि आइरिया ‘देवा णियमेण मूलसरीरं पविसिय मरंति' ति भणति, तेसिमभिप्पारण दस-चोदसभागा देसूणा । एदं वक्खाणमेत्थेव कम्मइयसरीरसासणउववादफोसणस्स एक्कारह-चोद्दसभागपरूवयसुत्तेण विरुद्धं ति ण घेत्तव्यं । जे पुण देवसासणा एइंदिएसुप्पज्जंति त्ति भणति, तेसिमभिप्पारण वारह चोदसभागा देसूणा उववादफोसणं होदि', एवं पि वक्खाणं संत-दव्यसुत्तविरुद्धं ति ण घेत्तव्यं । तैजसकायिक और वायुकायिक जीवों में मारणान्तिकसमुद्धातका अभाव माना गया है । और पृथिवीके विकाररूप विमान, शय्या, शिला, स्तम्भ और स्तूप, इनके तलभाग, तथा खड़ी हुई शालभंजिका (मिट्टी आदिकी पुतली) भित्ति और तोरणादिक उनकी उत्पत्तिके योग्य देखे जाते हैं। उपपाद्गत सातादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग (१४) स्पर्श किए है। वह इसप्रकार हैं-मेरुतलसे नीचे छठी पृथिवी तक पांच राजु होते हैं, ऊपर आरण-अव्युतकल्प तक छह राजु होते हैं और आयाम तथा विस्तार एक राजु है। इस प्रकार ग्यारह राजु उपपादक्षेत्रका प्रमाण है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि देव नियमसे मूलशरीरमें प्रवेश करके ही मरते हैं। उनके अभिप्रायसे सासादनगुणस्थानवर्ती देवोंका उपपादसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र कुछ कम दस बटे चौदह भाग (१४) प्रमाण होता है। किन्तु यह व्याख्यान यहीं पर विग्रहगतिको प्राप्त कार्मणशरीरवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके उपपाद-स्पर्शनके ग्यारह बटे चौदह (१४) भागके प्ररूपक सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। और जो ऐसा कहते हैं कि सासादनसम्यग्दृष्टि देव, एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, उनके अभिप्रायसे कुछ कम बारह बटे चौदह (१४ ) भाग उपपादपदका स्पर्शन होता है । किन्तु यह भी व्याख्यान सत्प्ररूपणा और द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रोंके विरुद्ध पड़ता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। १ प्रतिषु 'थूलतलंउभ' इति पाठः।। २ अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादश भागा म दत्ताः। ३जी. सं. सू. ३६. । जी. ६. सू. ७४.७६. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ४, ५. सम्मामिच्छाइट्टि· असंजदसम्माइट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिर्द, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ५ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे | सम्मामिच्छाइट्ठीहि सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय- वे उच्चियसमुग्धादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो फोसिदो । माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो । कारणं खेत्त मंगो । असंजदसम्माइडीणं सत्थाणसत्थाणविहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय येउच्चिय-मारणंतिय उववाद्गदाण खेत्तम्हि वुत्तत्थो संभfor anoar | १६६ ] अट्ट चोहसभागा वा देसूणा ॥ ६ ॥ पुत्रसुतादो सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदमिदि अणुदे । अदीदकालेणेति वयणस्स अज्झाहारो कायव्वो । कुदो १ एदेसिं दोन्ह गुणणं मणकालविसिखेत्तस्स पुत्रं परुविदत्तादो । सम्मामिच्छ । दिट्ठीहि सत्थाण तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजा दो असंखेजगुणो फोसिदो, तिरियलोगस्स सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ५॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण क्षेत्रप्ररूपणाके समान ही जानना चाहिए । स्वस्थानस्थान, विद्वारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदको प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रप्ररूपणा में कहे गये अर्थको स्मरण करके कहना चाहिए । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम आठ वटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ६ ॥ यहां पूर्वसूत्र से 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ' इतने पदकी अनुवृत्ति होती है । तथा 'अतीतकालसे' इस वचन का भी अध्याहार करना चाहिए, क्योंकि, दोनों गुणस्थानोंके वर्तमानकालविशिष्ट क्षेत्रका पहले प्ररूपण किया जा चुका है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवने स्वस्थानकी अपेक्षा सामान्य लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा तथा तिर्यग्लोकका १ सम्यग्मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टि मिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ वा चतुर्दशभागा देशोनाः । स. सि. १, ८० २ प्रतिषु ' संमनिय ' इति पाठः । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ७.] फोसणाणुगमे संजदासंजदफोसणपरूवणं [१६७ संखेजदिभागो। एत्थ सत्थाणखेत्तमेलावणविहाणं पुवं व कायव्वं । विहारवदिसत्थाण. वेदण-कसाय-वेउब्वियसमुग्धादगदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । एत्थ देसूण विधाणं पुव्वं व वत्तव्यं । असंजदसम्माइट्ठीहि सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो। तिरियलोगस्स संखेजदिभागखेत्तुप्पायणे सासणभंगो । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउब्विय-मारणंतियसमुग्धादगदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा, उवरि छ रज्जू, हेट्ठा दो रज्जु ति । उववादगदेहि छ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा, हेट्ठा असंजदसम्माइट्ठीणं उववादखेत्ताणुवलंभादो।। संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागों ॥७॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-बेउव्विय-मारणंतियपदाणं पजव संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। यहांपर स्वरथानक्षेत्रके मिलाने का विधान पूर्ववत् ही करना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं। यहांपर देशोनका विधान पूर्वके समान ही कहना चाहिए । ___असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थानकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागरूप क्षेत्रके उत्पन्न करने में सासादनगुणस्थानके स्पर्शनके समान ही वर्णन जानना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात और मारणान्तिकसमुद्धातगत उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (1) भाग स्पर्श किये हैं, जो कि मेरुके मूलसे ऊपर छह राजु और नीचे दो राजुप्रमाण हैं। उपपादपदको प्राप्त उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह (इ) भाग स्पर्श किये हैं; क्योंकि, इससे नीचे असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपादक्षेत्र नहीं पाया जाता है। ___ संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ७ ॥ ___ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुदात, वैक्रियिकसमुद्धात और मारणान्तिकसमुद्धात पदगत संयतासंयतोंकी पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी स्पर्शन १ संयतासंयतैलोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १, .. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.६८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ८. ट्ठियपरूवणा खेत्ततुल्ला। ... छ चोदसभागा वा देसूणा ॥ ८ ॥ पुव्वं वट्टमाणकालविसिट्ठखेत्तं परूविदमिदि कुटु इदं सुत्तमदीदकालसंबंधीदि अवगम्मदे । अणागदकालसंबंधी ण होदि, तेण ववहाराभावादो। अधवा अदीदाणागदकालविसिट्टखेत्ताणं परूवयाणि पच्छिमसव्यसुत्ताणि त्ति णिच्छओ कायव्यो, उभयत्थ विसेसामावादो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउव्वियसमुग्घादगदेहि संजदासंजदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो । एत्थ सत्थाणसत्थाणखेत्ताणयणविधाणं वुच्चदे सयंभरमणसमुद्दविक्खंभो दोहि वि पासेहि सादिरेगमेगरज्जुअद्धपमाणं होदि । सयंपहपव्वदपरभागखेत्तं पि दोहि वि पासेहि एगरज्जु-अट्ठमभागमेतविक्खंभो होदि । ते दो वि मेलिदे पंचट्ठभागा होति । एदे रज्जुविक्खंभम्हि अवणिदे तिण्णि अट्ठभागा होति । एदम्हि खेत्ते सुजमंडलागारेण संहिदे भोगभूमिपडिभागे णत्थि संजदासंजदा। बाहि प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके तुल्य है। संयतासंयत जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ८ ॥ पूर्व में वर्तमानकालविशिष्ट क्षेत्रका प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यह सूत्र अतीतकालसम्बन्धी है, यह बात जानी जाती है। किन्तु यह अनागत (भविष्य ) काल सम्बन्धी नहीं है, क्योंकि, उसके साथ व्यवहारका अभाव है। अथवा, पीछेके सभी सूत्र अति और अनागतकाल विशिष्ट क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करनेवाले हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि, भूतकाल और भविष्यकालमें स्पर्शनकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनालमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात यतासंयतोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। अब यहांपर संयतासंयत जीवोंके स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रके निकालनेका विधान हैं--- _स्वयम्भूरमणसमुद्रका विष्कम्भ दोनों ही पार्श्व भागोंसे साधिक एक राजुके अर्धप्रमाण है। स्वयंप्रभपर्वतका परभागवर्ती क्षेत्र भी दोनों ही पार्श्व भागोंकी अपेक्षा एक राजुके अष्टमभागमात्र विष्कम्भवाला है। ये दोनों ही विष्कम्भ मिला देनेपर एक राजुके आठ भागोंमेंसे पांच भाग प्रमाण (१) क्षेत्र हो जाता है। ये पांच बटे आठ (१) भाग राजुके विष्कम्भमेंसे निकाल देनेपर तीन बटे आठ (३) भाग अवशिष्ट रहते हैं । इस तीन बटे आठ (1) भागवाले सूर्यमंडलके आकारसे संस्थित और भोगभूमिप्ले प्रतिबद्ध क्षेत्रमें संयतासंयत जीव नहीं होते हैं। किन्तु बाहरी पांच बटे आठ (१) भागोंमें जम्बूद्वीप Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ८.] फोसणाणुगमे संजदासंजदफोसणपरूवणं [१६९ रिल्लएसु पंचसु अट्ठभागेसु अड्डाइजदीवेसु दोसु समुद्देसु' च अस्थि, कम्मभूमित्तादो। 'व्यासार्धकृतित्रिकं समस्तफलितमिति' एदेण सुत्तेण मज्झिल्लखेत्तफलमाणिदे सोलससत्तावीसभागम्भहियचदुसट्ठि-चदुसदरूवेहि जगपदरे भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । तं रज्जुपदरम्हि अवणिय संखेज्जंगुलेहि गुणिदे संजदासंजदसत्थाणखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं होदि । सेसपदाणं खेत्तमाणिज्जमाणे एगं जगपदरं ठविय संखेज्जसूचिअंगुलेहि संजदासंजदउस्सेधस्स एगूणवंचासभागमेत्तेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेजदिमागमेतखेत्तं होदि । कधं संजदासंजदाणं सेसदीव-समुद्देसु संभवो ? ण, पुन्ववेरियदेवेहि तत्थ पित्ताणं संभवं पडि विरोधाभावा । कधमेसो अत्थो सुत्तेण अकहिदो अवगम्मदे ? ण एस दोसो, सुत्तट्टिएण 'वा' सद्देण अवुत्तसमुच्चयटेण सूचिदत्तादो। धातकीखंड और पुष्कराध इन अढ़ाई द्वीपोंमें और लवणोदधि वा कालोदधि इन दो समुद्रों में संयतासंयत जीव रहते हैं। क्योंकि, वहां पर कर्मभूमि है। 'व्यासके आधेका वर्ग करके उसका तिगुना कर देनेसे विवक्षित क्षेत्रका समस्त क्षेत्रफल निकल आता है' इस करण वर्ती अर्थात् भोगभूमि-प्रतिबद्ध क्षेत्रका क्षेत्रफल निकालने पर जो प्रमाण आता है यह सोलह बटे सत्ताईस भागसे अधिक वारसौ चौसठ (४६४३७) रूपोंसे जगप्रतरमें भाग देनेपर उपलब्ध एक भागके बराबर होता है। उदाहरण-मध्यम क्षेत्रफलका व्यास है। ३ (x) = या ७२ १३२३ २७ व ४६४३६ -१२५४४-२५६ यह स्वयंप्रभाचलके आभ्यन्तर भागवर्ती मध्यमक्षेत्रका क्षेत्रफल है। इसे एक राजुप्रतरमेंसे निकालकर संख्यात अंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यात भागप्रमाण संयतासंयतोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है। विहारवत्स्वस्थानादि शेष पदोंका क्षेत्र निकालनेपर-एक जगप्रतरको स्थापित करके संयतासंयत जीवोंके शरीरकी ऊंचाईके उनचास भागमात्र संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र क्षेत्र होता है। शंका-मानुषोत्तरपर्वतसे परभागवर्ती और स्वयंप्रभाचलसे पूर्वभागवर्ती शेष द्वीप-समुद्रों में संयतासंयत जीवोंकी संभावना कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि, पूर्वभवके वैरी देवोंके द्वारा यहां ले जाये गये तिर्यच संयतासंयत जीवोंकी संभावनाकी अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। शंका-सूत्रसे नहीं कहा गया यह अर्थ कैसे जाना जाता है ! समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सूत्रमें स्थित और अनुक्तका अर्थात् नहीं कहे गये अर्थका समुच्चय करनेवाले 'वा' शब्दसे उक्त अकथित अर्थ सूचित किया गया है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ९. मारणंतिय समुग्धाद्गदेहिं छ चोदसभागा देणा पोसिदा । कुदो ? सव्वत्थ लोगणालीए अन्तरे अच्छिय मारणंतियकरणं पडि विरोहाभावादो । केण ऊणा छ चोहसभागा ? डिमेण जोयणसहस्सेण आरणच्चदविमाणाणमुवरिमभागेण च । पत्तसंजद पहुडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ९ ॥ दव्यट्ठियणयमस्सिदूण भण्णमाणे अदीद- वट्टमाणकालेसु 'लोगस्स असंखेज्जदिभागो' इदि होदि । पज्जवद्वियणए पुण अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो । वट्टमाणकालमस्सिदूण पज्जवट्टियणयपरूवणाए खेत्तभंगो । संपदि अदीदकालमस्सिदूण पज्जवट्ठियपरूवणा कीरदे । तं जधा - सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय- वे उच्चियते जाहारसमुग्धादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो । विउव्वणादिइड्डित्तेहि माणुसखेत्तन्तरे अप्पडिहयगमणेहि रिसीहि अदीदकाले सव्वं पि माणुसखेत्तं पुसिज्जदित्ति ' माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो ' इदि वयणं ण घडदे ? ण मारणान्तिकसमुद्धातगत संयतासंयत जीवोंने कुछ कम छह वटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं; क्योंकि, लोकनालीके भीतर सर्वत्र रहकर मारणान्तिकसमुद्धात करनेके प्रति कोई विरोध नहीं है । शंका- यहां पर यह छह बटे चौदह ( ) भाग किस क्षेत्र से कम करना चाहिए ? समाधान- सुमेरुसे नीचे के एक हजार योजनसे और आरण-अच्युत विमानोंके उपरिम भागसे कम करना चाहिए । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ९ ॥ द्रव्यार्थिकनयका आश्रय लेकर स्पर्शनक्षेत्रके कहनेपर अतीत और वर्तमानकाल में लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही स्पर्शनका क्षेत्र होता है । किन्तु पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करनेपर कुछ विशेषता है । उसमेंसे वर्तमानकालका आश्रय करके पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी स्पर्शनप्ररूपणा करनेपर क्षेत्रप्ररूपणा के समान ही स्पर्शनका क्षेत्र है । अब अतीतकालका आश्रय लेकर पर्यायार्थिकनय सम्बन्धी स्पर्शनकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धातगत प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती जीवने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । शंका - विक्रियादि ऋद्धिप्राप्त और मानुषक्षेत्र के भीतर अप्रतिहत गमनशील ऋषियोंने अतीतकालमें सम्पूर्ण मानुषक्षेत्र स्पर्श किया है, इसलिए 'मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है' यह वचन घटित नहीं होता है ? १ प्रमत्तसंयतादीनामयोग केवल्यन्ताना क्षेत्रवत्स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ९.) फोसणाणुगमे पमत्तसंजदादिफोसणपरूवणं एस दोसो, उवरि जोयणलक्खुप्पायणेण जोयणलक्खमेत्तगमणे संभवाभावादो। मेरुमत्थयचढणसमत्थाणमिसीणं किमिदि जोयणलक्खुप्पायणे ण संभवो ? होदु णाम मेरुपव्वदुद्देसे सा सत्ती, ण सव्वत्थ, 'माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । इदि आइरियवयणण्णहाणुववत्तीदो । अधवा अदीदकाले लद्धिसंपण्णमुणिवरेहिं सव्वं पि माणुसखेत्तं पुसिज्जदि, तस्स माणुसखेत्तववएसण्णहाणुववत्तीदो। सत्थाणे पुण माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो चेव पोसिदो । जदि एवं, तो पंचिंदियतिरिक्खाणं पि पुव्ववेरियदेवाणं पयोगादो जोयणलक्खुप्पायणं पावदि ? होदु, ण को विदोसो । मारणंतियसमुग्घादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो । मारणंतियखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, तदा संखेज्जगुणमसंखेज्जगुणं वा किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि । ण समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, एक लाख योजन ऊपर उड़नेकी अपेक्षा एक लाख योजन प्रमाण गमन करनेकी उनमें संभावना नहीं है। शंका-सुमेरुपर्वतके मस्तक (शिखर) पर चढ़ने में समर्थ ऋषियोंके क्या एक लाख योजन ऊपर उड़कर गमन करने की संभावना नहीं है ? समाधान-भले ही सुमेरुपर्वतके ऊर्ध्वप्रदेशमें ऋषियोंके गमन करनेकी शक्ति रही आवे, किन्तु मानुषक्षेत्रके ऊपर एक लाख योजन उड़कर सर्वत्र गमन करनेकी शक्ति नहीं है, अन्यथा 'मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें' ऐसा आचार्योंका वचन नहीं बन सकता है। ___ अथवा, अतीतकालमें विक्रियादि लब्धिसम्पन्न मुनिवरोंने सर्व ही मनुष्यक्षेत्र स्पर्श किया है, अन्यथा उसका 'मनुष्यक्षेत्र' यह नाम नहीं बन सकता है। स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षा उक्त प्रमत्तादि संयतोंने मनुष्यक्षेत्रका संख्यातो भाग ही स्पर्श किया है। शंका-यदि ऐसा है, तो पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका भी पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे एक लाख योजन ऊपर तक जाना प्राप्त होता है ? समाधान -यदि तिर्योंका ऊपर एक लाख योजन तक जाना प्राप्त होता है, तो होवे, उसमें भी कोई दोष नहीं है। मारणान्तिकसमुद्धातगत उन्हीं प्रमत्तसंयतादिकोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका-~मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवी जीवोंका मारणान्तिक क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा अथवा असंख्यातगुणा क्यों नहीं होता है? म १ प्रती ' -दुद्धसणसत्ती', म २ प्रती अन्यप्रतिषु च' -बुद्धसे सा सत्ती' इति पाठा। १ म प्रती को कि', अन्य प्रतिषु ' को स्थि' इति पाठः। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १०. ताव उड्डवट्टाणं' पणदालीसजोयणलक्खविक्खंभाणं' समपरिमंडलसंविदाणं' सत्तरज्जुआयदाणं खेतं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि, संखेज्जपदरंगुलमेत्तसेढिपमाणत्तादो। ण च पणदालीसजोयणलक्खविक्खंभसंखेज्जंगुलबाहल्लं संखेज्जरज्जुआयदकप्पवासियविमाणमेत्ततिरिच्छवहाणं खेत्तं पि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि, एदस्स पुन्वखेत्तादो संखेज्जगुणहीणस्स तिरियलोगस संखेज्जदिभागत्तविरोधा। विमाणप्पडिद्विदअसंखेज्जुववादभवणसम्मुहवट्टखेत्तेसु समुदिदेसु किण्ण तं होइ ? ण, सेढीए असंखेज्जदिभागासंखेज्जजोयणरूंदर्यखेत्तेसु गहिदेसु वि तदसंभवादो। सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जा वा भागा, सव्वलोगो वा ॥ १०॥ एदस्स मुत्तस्स वट्टमाणकालमस्सिदण पज्जवट्ठियपरूवणाए खेत्तभंगो । अदीद समाधान नहीं होता है, क्योंकि, ऊपरकी ओर प्रवर्तमान, पैंतालीस लाख योजन विष्कम्भवाले, समपरिमंडल आकारसे संस्थित, और सात राजु आयत, ऐसे मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले प्रमत्तसंयतादि जीवोंका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग नहीं होता है, क्योंकि, वह क्षेत्र संख्यात प्रतरांगुलमात्र जगश्रेणीके प्रमाण ही होता है । और न संख्यात राजु आयत, तथा कल्पवासी विमानों के प्रमाण तिर्यग्रूपसे प्रवर्तमान उक्त जीवोंका पैंतालीस लाख योजन विस्तार और संख्यात अंगुल बाहल्यवाला मारणान्तिकक्षेत्र भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है, क्योंकि, पूर्वोक्त क्षेत्रसे संख्यातगुणे हीन इस क्षेत्रको तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग मानने में विरोध आता है। शंका-विमानों में प्रतिष्टित असंख्यात उपपादशय्यावाले भवनोंके सम्मुख प्रवर्तमान उक्त जीवोंके समस्त मारणान्तिकक्षेत्र संयुक्त करने पर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग क्यों नहीं हो जाता है ? समाधान -नहीं, क्योंकि, श्रेणीके असंख्यातवें भाग तथा असंख्यात योजन विस्तृत क्षेत्रोंके ग्रहण करने पर भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग प्राप्त होना असंभव है। सयोगिकेवली भगवन्तोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १० ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालको आश्रय करके पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। अतीतकालको आश्रय करके पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी प्ररूपणा भी क्षेत्रके समान ही है। विशेष बात यह है कि कपाटसमुद्धातगत केवलीका स्पर्शनक्षेत्र १ प्रतिषु ।' स्थाने 'ए' इति पाठः। १ प्रतिषु वंदपंथ 'इति पाठः। ...................................... Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १२. ] फोसणानुगमे रइयफ सणपरूवण [ १७३ कालमस्सिदूण पज्जवट्ठियपरूवणाए खेत्तभंगो चेव । णवरि कवाडगदस्स पणदालीसजोयण सदसहस्सबाहल्लं जगपदरमेगं कवाडखेतं होदि । अवरं णवदिजोयण सदसहस्सबाल्लं जगपदरं होदि । एवं दोणि कवाडखेत्ताणि मेलिदे तिरियलोगादो संखेज्जगुणाणि । ( एवमोघपरूवणा समत्ता ) आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ११ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण - कसाय - वेउब्विय - मारणं तिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो वट्टमाणकाले पोसिदा, माणुसखेचादो असंखेज्जगुणो । सेसं खेत्तभंगो । छ चोइस भागा वा देसूणा ॥ १२ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदि सत्याण- वेदण-कसाय - वे उब्वियसमुग्धादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले रइएहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्ज - गुण फोसिदो । सो अत्थो सुत्ते अबुत्तो कथं परूविज्जदे ? ण, सुत्तत्थेण ' वा ' सद्देण पैतालीस लाख योजन वाहल्यवाला एक जगप्रतरप्रमाण कपाटक्षेत्र होता है। (यह कायोत्सर्गस्थ harini अपेक्षा जानना ) । और दूसरा अर्थात् समुपविष्ट केवली के कपाटसमुद्धातका क्षेत्र नव्वै लाख योजन बाहल्यवाले जगप्रतरप्रमाण कपाटसमुद्धातसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र होता है । इस प्रकार दोनों कपाटक्षेत्रोंको मिला देनेपर तिर्यग्लोकले संख्यातगुणा क्षेत्र हो जाता है । ( इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई । ) आदेश से गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ११ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदगत मिथ्यादृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकाल में स्पर्श किया है । शेष कथन क्षेत्रप्ररूपणा के समान जानना चाहिए । नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १२ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारषत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्वातगत मिथ्यादृष्टि नारकी जीवने अतीतकाल में सामान्यलेोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । शंका – सूत्र में नहीं कहा गया यह अर्थ कैसे कहा जा रहा है ? १ विशेषेण गमनुवादेन नरकगतौ प्रथमाय पृथिव्यां नारकैश्चतुर्गुणस्थानै लों कस्यासंख्येयभागः स्पृहः । स. सि. १, ८. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १, १२. समुच्चयटेण सूचिदत्तादो । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउब्धिय-खेत्ताणि अदीदकाले तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणि किण्ण होंति त्ति वुत्ते ण होति, इंदय-सेढीबद्धपइण्णएहि रुद्धसव्वखेत्तस्स तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागत्तादो। इंदयं-सेढीबद्ध-पइण्णएसु संचरंतेहिं णेरइयमिच्छाइट्ठीहि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो किण्ण पुसिज्जदि त्ति वुत्ते ण पुसिजदि, णेरइयाणं परखेत्तगमणाभावादो । परखेत्तगमणाभावे विहारवदिसत्थाणस्स अभावो पसजदि त्ति वुत्ते ण पसिजदे, एक्कम्हि इंदए सेढीबद्ध-पइण्णए च संविदगामागारबहुविधबिलगमणसंभवादो । असंखेजजोयणमेत्तायामसेढीबद्ध-पइण्णया अत्थि त्ति तिरियलोगस संखेन्जदिभागो होदि त्ति णासंकणिजं, असंखेजजोयणायामसेढीबद्ध पइण्णयाणं पि तिरियलोगस्स असंखेजदिमागत्तादो। मारणंतिय-उववादपदेहि णेरइयमिच्छादिट्ठीहि समाधान नहीं, क्योंकि, सूत्र में स्थित और समुच्चयार्थक 'वा' शब्दसे उक्त अर्थ सूचित किया गया है। शंका- अतीतकाल की अपेक्षा नारकी मिथ्या दृष्टियोंके बिहारवत्स्वस्थान, वेदनासमदघात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातसम्बन्धी क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र क्यों नहीं होते हैं ? समाधान नहीं होते हैं, क्योंकि, इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरकबिलासे रुद्ध भी सर्वक्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र ही होता है। शंका-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरकों में संचार करनेवाले नारकी मिथ्यादृष्टियोंने तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग क्यों नहीं स्पर्श किया ? समाधान नहीं स्पर्श किया है, क्योंकि, नारकियों का स्वक्षेत्रको छोड़कर परक्षेत्रमें गमन नहीं होता है। शंका-परक्षेत्रमें गमनका अभाव माननेपर विहारवत्स्वस्थानका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान-विहारवत्स्वस्थानका अभाव नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, एक ही इन्द्रक, श्रेणीबद्ध या प्रकीर्णक नरकमें विद्यमान ग्राम, घर और बहुत प्रकारके बिलोंमें गमन सम्भव होनेसे विहारयत्स्वस्थानपद बन जाता है। शंका-असंख्यात योजनप्रमाण आयामवाले श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरक होते हैं, इसलिए तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग विहारवत्स्वस्थानका क्षेत्र बन जाता है ? समाधान-ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, असंख्यात योजन आयामवाले श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरक भी तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादपद्वाले नारकी मिथ्यादृष्टियोंने अतीतकालमें १ प्रतिषु ' इंदिय ' इति पाठः। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १२.] फोसणाणुगमे णेरइयफोसणपरूवणं [१७५ अदीदकाले छ चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । ऊणपमाणं देसूणतिण्णिजोयणसहस्सं । तिरिक्खणेरइयाणं सव्वदिसासु गमणागमणसंभवो अत्थि त्ति छ चोद्दसभागा होति, कधं देखूणत्तं ? वुच्चदे-विग्गहो जीवाण किं सहेउओ, आहो अहे उओ त्ति ? ण ताव अहे उओ, णिकारणकजाणुवलंभादो । विदिये कारणं वत्तव्यमिदि । कम्मं तक्कारणं, संसारिजीवसव्वावत्थाणं कम्मवादरित्तकारणाणुवलंभादो । तत्थ वि आणुपुब्धिणामं चेव कारणं, अण्णासिं सब. पयडीणं पुध पुध कजाणमुवलंभादो, पुव्वुत्तरसरीराणमंतरालखेत्ते आणुपुबीए विवागो होदि त्ति गुरूवदेसादो वा । आणुपुविउदयाभावे वि मुक्कमारणंतियजीवाणं वक्कतुवलंभादो णाणुपुव्यिफलं विग्गहो त्ति णासंकणिज्जं, तस्स तित्थयरस्सेव पच्चासण्णविवागाणुपुब्धिफलत्तादो । अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्तवाहल्लतिरियपदरम्हि सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे तत्थ जत्तिओ रासी तत्तियमेत्ताओ णिरयगइपाओग्गाणुपुवीए कुछ कम छह वटे चौदह (F) भाग स्पर्श किये हैं। यहांपर कुछ कमका प्रमाण देशोन तीन हजार योजन है। शंका-तिर्यंच और नारकियों का सर्व दिशाओंमें गमनागमन सम्भव है, इसलिए पूरे छह बटे चौदह (६) भाग ही स्पर्शन क्षेत्र होना चाहिए, फिर कुछ कम कैसे कहा ? समाधान-विग्रहगतिमें जीवोंके विग्रह क्या सहेतुक होते हैं, अथवा अहेतुक ? अहेतुक तो माने नहीं जा सकते हैं, क्योंकि, विना कारणके कार्य पाया नहीं जाता । यदि दूसरा पक्ष ग्रहण किया जाता है, अर्थात् विग्रह सहेतुक होते हैं, तो उसमें कारण कहना चाहिए ? विग्रहका कारण कर्म है, क्योंकि, संसारी जीवोंकी सर्व अवस्थाओंका कर्मको छोड़कर और कोई कारण पाया नहीं जाता है। उसमें भी आनुपूर्वीनामक नामकर्म ही विग्रहका कारण है; क्योंकि, अन्य सभी प्रकृतियोंके पृथक् पृथक् कार्य पाये जाते हैं, तथा पूर्वशरीरको छोड़नेके पश्चात् और उत्तरशरीरको ग्रहण करने के पूर्व अन्तरालवर्ती क्षेत्रमें आनुपूर्वीनामकर्मका विपाक ( उदय) होता है, ऐसा गुरुका उपदेश है। __ शंका-आनुपूर्वीनामकर्मके उदयके नहीं होनेपर भी मारणान्तिकसमुद्घात करनेवाले जीवोंके विग्रह पाये जाते हैं, इसलिए विग्रह आनुपूर्वीनामकर्मका फल है, ऐसा नहीं माना जा सकता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, कोंकि, वह विग्रह तीर्थंकरप्रकृतिके समान निकट भविष्यमें उदय होनेवाले आनुपूर्वीनामकर्मका फल है। शंका--सूच्यंगुल के असंख्यातवें भागमात्र बाहल्यवाले तिर्यग्प्रतरमें अर्थात् राजुके वर्गमें जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाके विकल्पोंसे गुणा करनेपर वहां जो राशि अर्थात् आकाश प्रदेशोंकी संख्या आती है उतने प्रमाण नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वीकी प्रकृतियां Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १२. पयडीओ । लोगे सेढीए असंखेजदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे तिरिक्खगइपा ओग्गाणुपुबीए पयडिवियप्पा हति । पणदालीसजोयणलक्खबाहल्ले तिरियपदरे उड्डे कवाडछेदणयणिप्पण्णे सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे मणुसगदिपाओग्गाणुपुवीए पयडि वियप्पा होंति । णवजोयणसदबाहल्लतिरियपदरे सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे देवगदिपाओग्गाणुपुबीए पयडिवियप्पा होति ति वग्गणसुत्तादो आणुपुग्विणाम संडाणविवाई चेवेत्ति णासंकणिज्जं, तिस्से खेत्त-संहाणेसु वावादाए एकत्थेव वावारविरोहादो । ते च आगासपदेसा एत्थ चेव अच्छंति होती हैं । घनलोकमें जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाके विकल्पोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीके प्रकृति-विकल्प होते हैं। पैंतालीस लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यग्प्रतरमें ऊर्ध्वकपाटके छेदनेसे निष्पन्न क्षेत्रको जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहन-विकल्पोंसे गुणा करने पर मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वीके प्रकृति-विकल्प होते हैं। नौ सौ योजन बाहल्यवाले तिर्यग्प्रतरमें जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहन-विकल्पोंसे गुणा करनेपर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके प्रकृति-विकल्प होते हैं। इन वर्गणाखंडके सूत्रों के अनुसार आनुपूर्वीनामा नामकर्मकी प्रकृति संस्थान अर्थात् पुद्गल विपाकी ही है। समाधान -ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, क्षेत्र और संस्थानों में व्यापृत अर्थात् क्षेत्रविपाकी और पुद्गलविपाकी होते हुए भी उस आनुपूर्वीप्रकृतिका एक ही अर्थमें व्यापार मान लेने में विरोध है। दूसरी बात यह भी है कि वे आकाशके प्रदेशके इसी १ एदाणि पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि कधपुप्पण्णाणि त्ति भणिदे वुच्चदे- उड़ें कवाडच्छेदमणिप्पण्णाणि त्ति इदरेनिमाणुपुब्धिकम्माणं तिरियपदराणं घणलोगस्स य उप्पत्तिमपरूविय एदेसिं चेव तिरियपदराणमुप्पत्ती किमटुं परूविज्जदे ? लोगसंठाणपरूवणटुं । उड़कवाडमिदि एदेण लोगो णिद्दिट्ठो। कधमेसा लोगस्स सण्णा ? वुच्चदे- ऊर्ध्व च तत् कपाटं च ऊर्ध्वकपाटमिव लोकः। ऊर्ध्वकपाटं जेण लोगो चोद्दसरज्जुउस्से हो सत्तरज्जुरुंदो मज्झे उवरिमपेरंतो च एगरज्जुबाहलो उवरि बह्मलोगुद्देसे पंचरज्जुबाहल्लो मूले सत्तरज्जुबाहल्लो; अण्णस्थ अहाणुवडी बाहल्लो । तेण उष्टियकवाडोवमो । उडकवाडरस छेदणं उड़कवाड छेदणं तेण उडकवाडछेदणेण णिप्पण्णाणि एदापि पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लातरियपदराणि । संपहि एत्थ उड़कवाडछेदणविहाणं वुच्चदे । तं जहासत्तरजरुंदत्तम्मि दोसु वि पासेसु तिण्णि तिण्णिरज्जुआयामेण एगरज्जुविक्खंभेण उड़कवाडं छेत्तव्वं । पुणो पणदालीसजोयणक्खुस्सेहं मोत्तण हेट्ठा उरि च मज्झिमपदेसे मुह १ भूमि ५ विसेसा ४ उच्छेद १ मजिदो वडिपमाणं होदि । एदीए वडीए पणदालीसजोयणलक्खेसु वडिदखेत्तं दोमु वि पासेसु अवणेदव्वं । एवमुडकवाड छेदणेण पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराण णिप्फणाणि । धवला अ. प्र. पत्र १२०६ (वर्गणाखंड) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १४.] फोसणाणुगमे णेरड्यफोसणपरूवणं [१७७ त्ति ण णियमो अत्थि, समयाविरोहेण तेसिमवट्ठाणादो। तदो आणुपुविविवागापाओग्गखेत्त अवट्ठाणं उप्पण्णपढम विदिय-तदियवंकेसु णत्थि त्ति देसूणतं घडदे । एसो अत्थो उवरि सव्वत्थ जहावसरं परूवेदव्यो।। सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो ॥ १३॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्ताणिओगद्दारे जो वुत्तो, सो वत्तव्यो । पंच चोदसभागा वा देसूणा ॥ १४ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउव्वियसमुग्घादगदेहि सासणसम्मादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो । तं जधाणेरइयाणं बिलाणि संखेजजोयणवित्थडाणि वि अत्थि, असंखेज्जजोयणवित्थडाणि वि । तत्थ जदि वि चदुरासीदिलक्खणेरइयावासा असंखेज्जजोयणवित्थडा होंति, तो वि सव्वखेत्तसमासो तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो चेव जधा होदि, तधा वत्तइस्सामो स्थान विशेषपर ही रहते हैं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, उनका अवस्थान परमागमके अविरोधसे माना गया है। इसलिए अनुपूर्वीनामकर्मके उदयके अप्रायोग्य क्षेत्रमें अवस्थान उत्पन्न होनेके प्रथम, द्वितीय और तृतीय विग्रहों में नहीं है, अतः देशोनता घटित हो जाती है। यह अर्थ ऊपर भी सर्वत्र यथावसर प्ररूपण करना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १३ ॥ इस सूत्रका अर्थ जो क्षेत्रानुयोगद्वार में कहा है वही यहांपर कहना चाहिए । उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १४ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, और वैक्रियिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवा भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। वह इस प्रकारसे हैनारकियोंके बिल संख्यात योजन विस्तृत भी हैं और असंख्यात योजन विस्तृत भी हैं। उनमें यद्यपि चौरासी लाख नारकियोंके आवास असंख्यात योजन विस्तृत होते हैं, तो भी उन समस्त नारकावासका क्षेत्र-समास अर्थात् क्षेत्रोंका जोड़ तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग जिस प्रकारसे होता है, उस प्रकारसे कहते हैं Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १५. णिरयावासा के वि परिमंडलायारा, के वि तंसा, के वि चउरंसा, के वि पंचंसा, के वि छंसा । एदे सव्वे वि समीकरणे कदे चउरंसा असंखेज्जजोयणवित्थडा होति । सयलपरइयरासिणा घणंगुलस्स संखेज्जदिभागे गुणिदे वट्टमाणकाले णेरइएहि रुद्धखेत्तं होदि । वट्टमाणे णेरइयरुद्धणिरयबिलभागादो अरुद्ध भागो संखेज्जगुणो त्ति संखेज्जरूवेहि गुणिदे णेरइयाणमदीदसत्थाणखेत्तं होदि । तेण तिरियलोमस्स असंखेज्जदिभागतं ण विरुज्झदे । एवं 'वा' सद्दसूचिदस्स अत्थस्स परूवणा कदा होदि । सासणस्स णिरयगदीए उववादो णत्थि, सुत्ताडिसिद्धत्तादो । मारणंतियसमुग्वादगदेहि पंच चोदसभागा पोसिदा । कुदो ? सत्तमपुढवीदो सासगाणं मारणंतियकरणसंभवाभावा । तं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेत्र सुत्तादो णव्यदे। सम्मामिच्छादिट्टि असंजदसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ १५॥ नारकियोंके आवास कितने ही तो गोल आकारवाले होते हैं, कितने ही त्रिकोण, कितने ही चतुष्कोण, कितने ही पंचकोण और कितने ही नारकावास षट्कोण होते हैं । इन सभी आकारोंवाले नारकावासोंके समीकरण करनेपर वे चतुरस्र और असंख्यात योजन विस्तृत हो जाते है । सम्पूर्ण नारकराशिसे घनांगुल के संख्यात भागको गुणा वर्तमानकालमें नारकियोंसे रुद्ध-क्षेत्र होता है । वर्तमानकालमें नारकोंद्वारा रोके हुए नरकोंके बिल-भागसे अरुद्धभाग संख्यातगुणा होता है, इसलिए संख्यात रूपोंसे गुणा करनेपर नार. कोंका अतीतकालसम्बन्धी स्वस्थानक्षेत्रका प्रमाण हो जाता है। अतः तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग (जो ऊपर स्पर्शन-क्षेत्र बताया गया है, वह ) विरोधको नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार 'वा' शब्दसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा की गई है। ___ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवका नरकगतिमें उपपाद नहीं होता है, क्योंकि, उसका सूत्र में प्रतिषेध किया गया है। मारणान्तिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टियोंने पांच बटे चौदह (५८) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, सातवीं पृथिवीसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंका मारणान्तिकसमुद्धात करना संभव नहीं है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-इसी ही सूत्रसे जाना जाता है कि सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी मारणान्तिकसमुद्धात नहीं करते। (यदि करते होते, तो सूत्रमें छह बटे चौदह (६) भागके स्पर्शका उल्लेख होता)। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १५. ] फोसणाणुगमे णैरइयफौसणं परूवणं [ १७९ सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय - वेउच्चिय समुग्धाद्गदेहि सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजद सम्मादिट्ठीहि वट्टमाणकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणूसदो संखेजण पोसिदो । कारणं खेत्तसिद्धं । अदीदकाले वि एदेहि दोहि विगुणहि देहि देहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो चेत्र पोसिदो, 'असंखेज्जजोय वित्थडा रइयसव्वावासा ' इदि मणेण संकप्पिय एगावासखेत्तफलं चउरासीदिलक्खरूवेहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखेत्तफलोवलंभादो । सम्मामिच्छाइट्ठीगं मारणंतिय-उववादपदा णत्थि । असजद सम्माइट्ठीहि मारणंतिय उववाद्गदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो वट्टमाणकाले पोसिदो । कारणं खेत्तसिद्धं । अदीदकाले मारणंतिय समुग्धादगदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणूसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । कुदो ? सव्वजीवाणं अवक्कमछक्कणियमदंसणादो, उड्ड गच्छ माणजीवाणं पि अप्पणो उप्पत्तिखेत्तमपावेदूण अंतरकाले चेव दिस-विदिसाणं गणाभावाद । णच उप्पत्तिखेत्तसमाणखेत्तंतरट्ठियाणं पि जीवाणमणियद्गमण मत्थि, स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कपायसमुद्धात और वैकि किसमुद्घातगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवों ने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण क्षेत्रप्ररूपणा से सिद्ध है । अतीतकाल में भी इन दोनों ही गुणस्थानवर्ती नारकी जीवोंने इन्हीं दोनों पदोंकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग ही स्पर्श किया है, क्योंकि, ' असंख्यात योजन विस्तृत नारकियों के सर्व आवास होते हैं ' इस प्रकार मनसे संकल्प करके एक नारकावासका क्षेत्रफल चौरासी लाख रूपों से गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र क्षेत्रफल पाया जाता है । सभ्य ग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंने सामान्यलोक आदि चार लोकका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकाल में स्पर्श किया है । इसका कारण क्षेत्रप्ररूपणासे सिद्ध है । अतीतकाल में मारणान्तिकसमुद्धातगत असंयत सम्यग्दृष्टियोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, सर्व जीवों के अपक्रमषटुका नियम देखा जाता है (देखो प्रथम भा. पृ. १०० ) । तथा ऊपर जाने वाले जीवोंके भी अपने उत्पत्ति क्षेत्रको नहीं प्राप्त करके अंतरालकालमें ही निश्चित दिशाको छोड़कर अन्य दिशा या विदिशामें गमन करनेका अभाव है । और न उत्पत्तिक्षेत्र के समान अर्थात् समतल अन्य क्षेत्र पर स्थित जीवोंके भी अनियत गमन होता हैं, क्योंकि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ४, १५. एगदिसाए णियदगमणादो; तिरिच्छं गच्छमाणाणं पि जीवाणमप्पणो उप्पज्जमाणदिसं मोत्तूण अण्णदिसाणं गमणाभावादो, उप्पज्जमाणदिसं गच्छंताणं पि जीवाणं अप्पणो उप्पज्जमाणखेत्तसमाणट्ठाणमपावेदूण अंतराले सवत्थ उजुवलणाभावादो। तदो सव्वणिरयावासेहिंतो माणुसखेतमागच्छंताणं सम्मादिट्ठीणं णिरयावासप्पडिहिदपडिणियदवट्टाणं पोसणं चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो चेव । अधवा णेरइयसम्मादिट्ठीणं तत्थतणमिच्छाइट्ठीणं (व) घणरज्जुपदरसबागासपदेसेहितो (ण) णिग्गमणमत्थि, मणुसोववादियत्तादो, णेरइयपडिबद्धाणं मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणं व पडिबद्धागासपदेसाणं रज्जुपदरम्हि सव्वत्थाभावादो। किं तदभावलिंगम ? एदं चेव पोसणसुतं । समीकरणे कदे जदि एक्कणेरइयावासविक्खंभो एगसेढिं सेढिविदियवग्गमूलेण खंडियमेत्तो होदि, तो तस्स खेत्तफलं जगपदरं सेढिपढमवग्गमूलेण खंडियमेत्तं होदि । पुणो अदीदकाले तत्थ वाइदूण उड्ढे मारणंतियं मेल्लंताणं एवं खेतफलं मुहं होदि, संखज्जरज्जु उनका गमन एक दिशामें ही, अर्थात् उत्पत्तिक्षेत्रकी ओर ही, नियत हो चुका है। तिरछे गमन करनेवाले भी जीवोंके अपनी उत्पन्न होनेवाली दिशाको छोड़कर अन्य दिशाको गमन नहीं होता है। उत्पन्न होने की दिशाको जाते हुए भी जीवोंके अपने उत्पन्न होने के क्षेत्रके समान अन्य स्थानको नहीं प्राप्त करके अन्तरालमें सर्वत्र ऋजुवलन अर्थात् सरलगतिसे वक्रगति होनेका अभाव है। इसलिए सभी नारकावासोंसे मनुष्यक्षेत्रको आनेवाले और नारकावासमें प्रतिष्ठित होते हुए नियत क्षेत्रकी ओर प्रवर्तमान सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग ही है। अथवा, मनुष्यों में उत्पन्न होने के कारण नारकी सम्यग्दष्टियोंका वहांके मिथ्यादृष्टियोंके समान धनराजुप्रतरके सर्व आकाशप्रदेशोंसे निर्गमन नहीं होता है, क्योंकि, नरकगतिसे प्रतिबद्ध मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीवाले जीवोंके तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीवाले जीवोंके समान प्रतिबद्ध आकाश-प्रदेशोंका राजुप्रतर में सर्वत्र अभाव है। शंका-इस सर्वत्र अभावका लिंग क्या है, अर्थात् यह किस आधारसे जाना ? समाधान--उक्त बातका बतानेवाला यही स्पर्शन-सूत्र है। समीकरण करनेपर यदि एक नारकावासका विष्कम्भ एक जगश्रेणीको जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलसे खंडित करनेपर एक खंड मात्र होता है, तो उसका क्षेत्रफल जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे जगप्रतरको खंडित करनेपर एक खंड मात्र होता है। पुनः अतीतकाल में घहां रहकर ऊपरकी ओर मारणान्तिकसमुद्धात करनेवालोंका यह क्षेत्रफल मुखरूप हो जाता है और संख्यात राजुप्रमाण आयाम होता है। १ प्रतिधु ' उकुबलणा' म. प्रतौ पुलेकमा' इति पाठः । २ प्रेति कोष्ठकान्तर्गतपाठी नास्ति । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १५. 1 फोसणागमे रइफोसणपरूवणं [ १८१ आयामो होदि । एत्थ उस्सेधेण खेत्तफलं गुणिदे तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं मारणंतियखेत्तं होदिति वुत्ते ण होदि, णिरयावासो ण एक्को वि एरिसविक्खंभसहिओ अस्थि । कधमेदं परिच्छिज्जदे ? ' णेरड्या असंजदसम्मादिट्ठी सच्चपदेहि अदीदकाले तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागं पुसंति ' त्ति सुत्तत्रयणादो । केत्तिओ पुण णेरइयावासाणं विक्खंभो होदित्ति वृत्ते असंखेज्जजोयणमेत्तो होदि । तं जहा - सग-सगसत्थाणखेत्तं ट्ठविय सगसगबिल-संखाए ओट्टिदे एगविलेण रुद्वखे तमसंखेज्जजोयणविक्खंभायामं होदि । तं संखेज्जरज्जूहि गुणदे एगविलमस्सिदूण मारणंतियखेत्तं होदि । एदं बिलसंखाए गुणिदे सयलं मारणंतियखेत्तं होदि । एदं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभार्ग होदि । सव्वणिरयावासाणं खादफलमसंखेज्जजोयणमेतं हो दूग एगरज्जुपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं चैव होदि । कुदो ? ' असंजदसम्मादिट्ठि मारणंतिय पोसणं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो' त्ति वादो । जदि कहिं पि एकस्स बिलस्स खेत्तफलं रज्जुपदरस्स संखेजदिभागमेतं होदि, शंका- यहां पर अर्थात् उक्त क्षेत्रमें उत्सेधसे क्षेत्रफलको गुणा करने पर तो तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणा मारणान्तिकक्षेत्र हो जाता है ? समाधान- नहीं होता है, क्योंकि, इस प्रकार के विष्कम्भ से सहित एक भी नारकावास नहीं है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - ' नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि सर्वपदोंकी अपेक्षा अतीतकाल में तिर्यग्लोक के असंख्यातवें भागमात्र क्षेत्रको स्पर्श करते हैं' इस प्रकार के सूत्र वचनसे उक्त बात जानी जाती है। शंका- नारकोंके आवासोंका विष्कम्भ कितना होता है ? समाधान - असंख्यात योजन प्रमाण होता है । वह इस प्रकार से है- अपना अपना स्वस्थानक्षेत्र स्थापित करके अपने अपने बिलोंकी संख्याओंसे अपवर्तन करनेपर एक बिलसे रुद्धक्षेत्र असंख्यात योजन विष्कम्भ और आयामवाला हो जाता है । उसे संख्यात राजुओंसे गुणा करनेपर एक बिलका आश्रय करके मारणान्तिकसमुद्धातगत क्षेत्र हो जाता है । इस प्रमाणको बिलोंकी संख्यासे गुणा करनेपर सकल मारणान्तिकक्षेत्र हो जाता है । यह मारणान्तिकक्षेत्र तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । सर्व नरकावासका घनफल असंख्यात योजनप्रमाण होकर भी एक राजुप्रतरका असंख्यातवां भागमात्र ही होता है, क्योंकि, ' असंयतसम्यग्दष्टिं नारकोंका मारणान्तिकस्पर्शन तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भाग होता है ' ऐसा सूत्र वचन है। यदि कहीं भी एक बिलका क्षेत्रफल राजुप्रतरके संख्यातवें भागप्रमाण होता, तो असंयत सम्यग्दृष्टि नारकों का Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] छक्खडागमे जीवाणं [ १, ४, १६. तो असंजदसम्मादिट्ठिमारणंतियपोसणं तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं होइ, तिरियपदरबाहल्लादो मारणंतियखेत्तबाहल्लस्स असंखेञ्जगुणत्तादो । पढमपुढविसत्थाणखेत्ते सेढीए संखेजदिभागेण गुणिदे असंजदसम्म दिट्ठिमारणंतियपोसणं तिरियलोगादो असंखेञ्जगुणं होदित्ति के वि पञ्चवट्ठाणं कुणंति । तण्ण घडदे, सत्थाणखेतं बिलसलागाहि ओवट्टिय लस्स वग्गमूलविक्रमेण अद्धरज्जुआयामपोसणखे तुवलंमादो । ण उडुं गंतूग तिरिच्छं गच्छंताणं बहुपोसणं, तिरिच्छं गंतूग उड्डुं गच्छंताणं व, पुव्युत्तेणेव विक्खंभेण गमणुवलंभादो । एवमुववादस्स वि वत्तव्यं । पढमाए पुढवीए रइएसु मिच्छाइट्टिपहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदि सत्याण- वेदण कसाय - वेउच्चिय- मारणंतिय-उववादगदमिच्छादिट्ठीणं परूवणा वट्टमाणकाले खेत्तसमाणा । सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदणकसाय- वे उव्वियसमुग्धादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले चदुण्हं लोगाणम संखेज दिभागो, मारणान्तिक स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा होता, क्योंकि, तिर्यक्प्रतर के बाद्दल्य से मारणान्तिकक्षेत्रका बाद्दल्य असंख्यातगुणा है । प्रथम पृथिवीके स्वस्थानक्षेत्र में जगश्रेणी के संख्यातवें भागसे गुणा करनेपर असंयतसम्यग्दृष्टि नारकों का मारणान्तिकस्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा होता है, ऐसा कितने ही आचार्य समाधान करते हैं । किन्तु वह घटित नहीं होता है, क्योंकि, स्वस्थानक्षेत्रको बिलशलाकाओंसे अपवर्तितकर लब्धराशिके वर्गमूलप्रमाण विष्कम्भ से अर्धराजु आयामप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है । तथा, ऊपर जाकर तिरछे गमन करनेवाले जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र बहुत नहीं है, जैसा कि तिरछे जाकर ऊपर जाने वालोंका स्पर्शनक्षेत्र बहुत नहीं है; क्योंकि, पूर्वोक्त ही विष्कम्भद्वारा गमन पाया जाता है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके उपपादक्षेत्रका भी कथन करना चाहिए । प्रथम पृथिवी में नारकियोंमें मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १६ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कपाय, वैकियिक और मारणान्तिक समुद्धात तथा उपपादगत मिथ्यादृष्टि नारकोंकी वर्तमानकालिक स्पर्शन प्ररूपणा क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना कषाय, और वैक्रियिकसमुद्धातगत मिथ्याति नारकोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १६ ] फोसणाणुगमे णेरड्यफोसणपरूवणं [ १८३ अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो। कुदो ? असंखेज्जजोयणविक्खंभणिरयावासखादफलं ठविय तप्पाओग्गसंखेजबिलसलागाहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेजदिभागमेतखेत्तुवलंभादो । मारणंतिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो। कधं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागतं ? वुच्चदे- असीदिसहस्साहियजोयणलक्खपढमपुढवीबाहल्लम्मि हेट्ठिमजोयणसहस्सं णेरइएहि सव्यकालं ण छुप्पदि त्ति कट्ट जोयगसहस्समवणिय सेसबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय उस्सेधेण एगूणवंचासमेत्तखंडाणि कादण पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागो होदि, ' एगरज्जुरुंदो सत्तरज्जुआयदो जोयणलक्ख. बाहल्लो तिरियलोगो' त्ति उवदेसादो । जे पुण जोयणलक्खबाहल्लरज्जुबट्ट तिरियलोगपमाणं भणंति तेसिमुवदेसेण तिरियलोगादो सादिरेयं मारणंतिय-उववादखेतं होदि । और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण यह है कि असंख्यात योजन विष्कम्भवाले नारकावासोंके घनफलको स्थापित करके तत्प्रायोग्य संख्यात बिलशलाकाओंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र उपलब्ध होता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत मिथ्यादृष्टि नारकोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असं. ख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका- यहांपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग कैसे कहा ? समाधान- एक लाख अस्सी हजार योजन प्रथम पृथिवीके बाहल्यमेंसे नीचेका एक हजार योजनप्रमाण क्षेत्र नारकियोंने किसी भी समय नहीं छुआ है, ऐसा करके उक्त प्रमाणमेंसे एक हजार योजन निकालकर शेष एक लाख उन्यासी हजार बाहल्यवाले राजुप्रतरको स्थापित करके उत्सेधके उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर का संख्यातवां भाग हो जाता है, क्योंकि, 'एक राजु रुंदवाला, सात राजु लम्बा और एक लाख योजन बाहल्यवाला तिर्यग्लोक है' ऐसा उपदेश है। किन्तु जो आचार्य एक लाख योजन बाहल्यवाला और एक राजु गोलाईवाला तिर्यग्लोकका प्रमाण कहते हैं, उनके उपदेशानुसार तिर्यग्लोकसे साधिक मारणान्तिक और उपपाद क्षेत्र होता है। विशेषार्थ-- यहां पर प्रथम नरकके मिथ्यादृष्टि जीवोंका मारणान्तिक और उपपाद क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग इस प्रकार सिद्ध किया गया है-यदि हम तिर्यग्लोकके एक राजु लम्बे चौड़े व मोटाईके सप्तमांश प्रमाण मोटे खंड करें तो १४२८५५ योजन मोटाई. वाले ४९ खंड होते हैं। अब यदि एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी और एक राजु लम्बी चौड़ी प्रथम पृथ्वीके प्रमाणमेंसे नारकियोंसे सदैव अस्पृष्ट एक हजार योजन मोटा Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं । [१, ४, १६. ण च एदं घडदे, एदम्हि उवदेसे पडिग्गहिदे लोगम्हि तिण्णिसद-तेदालमेत्तघणरज्जूणमणुप्पत्तीदो, 'रज्जू सत्तगुणिदा जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेढीए गुणिदजगपदरं घणलोगो होदि ' त्ति परियम्मसुत्तेण सव्वाइरियसम्मदेण विरोहप्पसंगादो च । कदजुम्मेहि अधस्तन भाग पृथक् करके शेष १७९००० योजनके एक राजु लम्बे चौड़े ४९ खंड करें तो प्रत्येक खंड की मोटाई ३६५३४६ योजन प्रमाण होगी जो पूर्वोक्त तिर्यग्लोकके खंडोंकी मोटाईसे लगभग चतुर्थांश पड़ती है । इस प्रकार यह समस्त क्षेत्र तिर्यलोकका संख्यातवां भाग सिद्ध हो जाता है। किन्तु लोक की मृदंगाकार मान्यता के अनुसार उक्त क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग नहीं, किन्तु तिर्यग्लोकसे भी अधिक पड़ जाता है, क्योंकि, यदि एक राजु व्यासवाले गोल तथा एक लाख योजन मोटाईवाले तिर्यग्लोकके पूर्वप्रकार ४२. खंड करें तो प्रत्येक खंड एक राजु व्यासवाला गोल तथा २०४०४९ योजन नोटा होगा। इसी प्रकार वर्तुलाकार लोककी मान्यतासे उक्त मारणान्तिकक्षेत्रके खंड भी एक राजु व्यासवाले गोल तथा ३६५३.३३ योजन मोटे होंगे और उनका समस्त घनफल वर्तुलाकार तिर्यग्लोकके घनफलसे हीन न रहकर अधिक हो जायगा। रा. रा. = उदाहरण (१) आयत चतुरन तिर्यग्लोक १xx ६००००० यो. = १ x १००००० ४ ४९ (२) उक्त मारणान्तिकक्षेत्र १४ १४ १७९००० = १४ १७९.००० (३) वर्तुलाकार तिर्यग्लोक १४३ x १ x १००००० = ३ ४ १००००० - ४९ (४) वर्तुलाकार लोककी मान्यतासे उक्त मारणान्तिकक्षेत्र ३.१७९०००.४९ x ४ ४९१ इस प्रकारके उक्त क्षेत्रों में प्रथम दूसरेसे १७९ = ३१६३ = कुछ कम चौगुना अर्थात् संख्यातगुणा सिद्ध होता है। तथा, चौथा तीसरेसे कुछ कम दुगुणा अर्थात् सातिरेक सिद्ध होता है। किन्तु यह घटित नहीं होता है, क्योंकि, इस उपदेशके स्वीकार करनेपर लोकाकाशमें तीनसौ तेतालीस धनराजुओंकी उत्पत्ति नहीं होती है । दूसरे, ‘राजुको सातसे गुणा करने पर जगश्रेणी होती है, जगश्रेणीको जगश्रेणीसे गुणा करने पर जगप्रतर होता है, और जगप्रतरको जगश्रेणीसे गुणा करने पर घनलोक होता है' इस सर्व आचार्योंसे सम्मत परिकर्म सूत्रसे विरोध भी प्राप्त होता है । पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिय वपर्याप्त, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १६.] फोसणाणुगमे णेरइयफोसणपरूवणं [१८५ पंचिंदियतिरिक्ख-पज्जत्त-जोणिणि-जोदिसिय-वेंतरदेव-अवहारकालेहि खुद्दाबंधसुत्तसिद्धेहि अकदजुम्मजगपदरे भागे हिदे एदाओ रासीओ सछेदाओ होज्ज ? ण च एवं, जीवाणं छेदाभावा । किं च दव्वाणियोगदारवक्खाणम्हि वुत्तहेट्ठिम-उवरिमवियप्पा अभावमुव ढुकंते, अवग्गसमुट्ठिदलोगत्तादो । तिष्णिसदतेदालघणरज्जुपमाणो उवमालोओ णाम । एदम्हादा अण्णो पंचदव्वाहारलोगो, तदो सव्वमेदं घडदि त्ति वुत्ते ण, उवमेयाभावे उवमाए अण्णत्थ अणुवलंभादो। तम्हा उवमेयेसु उस्सेह-पमाणंगुलपलिदोवम सागरोवमसण्णिदेसु खेत्त-कालेसु संतेसु उवमाभूदउस्सेह-पमाणंगुल-पल्ल-सागराणमत्थित्तमुवलम्मदे । तम्हा एत्थ वि उवमेएण लोगेण पमाणदो उवमालोगाणुसारिणा पंचदव्याहारेण होदव्वं, अण्णहा एदस्स उवमालोगत्ताणुववत्तीदो । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिमती, ज्योतिष्क और व्यन्तरदेवोंके खुद्दाबंधसूत्र-सिद्ध, कृतयुग्मराशिवाले अवहारकालोसे अकृतयुग्म जगप्रतरमें भाग देने पर ये उक्त राशियां सछेद हो जायेंगी, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उन जीवोंके छेदका अभाव है। (कृतयुग्म आदि राशियोंके लिये देखो तीसरा भाग, पृ. २४९)। दूसरी बात यह है कि द्रव्यानुयोगद्वारके व्याख्यानमें कहे गये अधस्तन और उपरिम विकल्प अभावको प्राप्त होते हैं. क्योंकि, उक्त प्रकारसे लोक वर्गविहीनराशिसे समुत्पन्न होता है। शंका-तीन सौ तेतालीस घनराजुप्रमाण लोकका नाम उपमालोक है । इससे अन्य पांच द्रव्योंका आधारभूत लोक भिन्न है। यदि ऐसा माना जाय, तो यह सब उपर्युक्त कथन घटित हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपमेयके अभावमें उपमाकी अन्यत्र उपलब्धि नहीं होती है । अर्थात् यदि उपमाके योग्य किसी पदार्थका अस्तित्व न माना जायगा, तो फिर उपमाकी सार्थकता कहां पर होगी? इसलिए उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल संज्ञिक क्षेत्ररूप उपमेयोंके तथा पल्योपम और सागरोपम संज्ञिक कालरूप उपमेयोंके विद्यमान होने पर उपमारूप उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, पल्य और सागरका अस्तित्व पाया जाता है। अतएव यहां पर भी उपमेयरूप लोकके साथ प्रमाणकी अपेक्षा उपमालोकका अनुसरण करनेवाला पांच द्रव्योंका आधारभूत लोक होना चाहिए, अन्यथा इसका नाम उपमालोक हो नहीं सकता। १खेत्तेण पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि पदरमवहिरादि देवअवहारकालादो असंखेज्जगुणहीणेण कालेण संखेज्जगुणहीण कालेण संखेज्जगुणेण कालेण असंनेजगुणहीणेण कालेण ॥ खुदाबंधसुत्तं, अ. प्र. प. ५१९. एदे अवहारकाले जहाकमेण सलगभूदे ठविय पंचिंदियतिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचि दियतिरिक्खजोणिणि-पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत्तपमाणेण जगपदरे अवहिरिन्जमाणे सला गाओ जगपदरं च जुगवं समप्पंति । धवला. अ. प्र. प. ५१९. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] क्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, १६. सास सम्माइट्ठि-सत्थाण सत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण - कसाय वेउच्चिय-मारणंतिय समुग्धादगद खेत्त परूवणा वट्टमाणकाले खेत्तसमाणा । सत्थाणसत्थाण-विहारवादसत्थाणवेदण-कसाय - वेउव्वियसमुग्धादगदेहि सासणसम्मादिट्ठीहि अदीदकाले' चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एत्थ पज्जवट्टियपरूवणा मिच्छा विशेषार्थ - यहां धवलाकारने लोककी वर्तुलाकार मान्यता के विरुद्ध पांच हेतु दिये हैं। जो इस प्रकार हैं (१) प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि जीवोंका मारणान्तिकक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग कहा गया है । किन्तु यदि लोकको आयतचतुरस्र न मानकर वर्तुलाकार माना जावे तो वह क्षेत्र तिर्यग्लोकसे छीन नहीं किन्तु साधिक हो जाता है । (देखो पृ. १८४ ) (२) परिकर्म में राजु, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोकका सम्बन्ध बतलाकर घनलोकको ३४३ राजुप्रमाण सिद्ध किया है। यह प्रमाण व व्यवस्था वर्तुलाकार लोकमें नहीं पाई जाती । (३) खुदाबंध में पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्येच योनिमती, ज्योतिषी और व्यंतर देवोंके अवहारकालोंको कृतयुग्मराशि अर्थात् चारसे पूर्णतः भाजित होनेवाला कहा है, और इनसे जगप्रतर निरवशेष भाजित हो जाता है, जिससे जगप्रतर भी कृतयुग्मराशि सिद्ध हुआ । किन्तु वर्तुलाकार लोककी मान्यता में जगप्रतर अकृतयुग्मरूप पड़ेगा जिससे उक्त अवहारकालद्वारा वह पूर्णतः भाजित नहीं होनेसे वे पंचेन्द्रिय तिर्यच, पर्याप्त, योनिमती आदि राशियां सछेद हो जाती हैं। (४) द्रव्यानुयोगद्वार के व्याख्यानमें गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंके भीतर जीवोंका प्रमाण उपरिमविकल्प और अधस्तनविकल्पों द्वारा भी समझाया गया है। किन्तु यदि लोकको उक्त प्रकार वर्तुलाकार मान लिया जाय तो उसमें वर्ग व वर्गमूल प्रमाण नहीं प्राप्त होनेसे वे विकल्प बन ही नहीं सकेंगे । (देखो तीसरा भाग, प्रस्तावना पृ. ४८ ) (५) यदि यह कहा जाय कि तीन सौ तेतालीस राजुप्रमाणवाले लोकको द्रव्याधार लोक न मानकर केवल कल्पित उपमालोक ही माना जाय, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपमेयके अभाव में उपमाका अस्तित्व ही नहीं रहता है । तथा अंगुल, पल्योपम, सागरोपम आदि जो अन्य उपमाप्रमाण माने गये हैं उन सबके आधाररूप उपमेय प्राप्त हैं । अतः प्रमाण लोकको भी काल्पनिक न मानकर सोपमेय ही स्वीकार करना आवश्यक है । स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्घातगत सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंके वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैकिकिस मुद्धातगत सासादन सम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यहां पर १ अ-क प्रत्योः ' अदीदकाले ' इति पाठो नास्ति । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १६.] फोसणाणुगमे णेरइयफोसणपरूवणं [१८७ दिद्विसमाणा। मारणंतियसमुग्घादगदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एत्थ कारणं मिच्छाइट्ठीणं व वत्तव्यं । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं अप्पणो सव्यपदाणं पद्माणकाले खेत्तभंगो । एदेहि दोहि गुणट्ठाणेहि अदीदकाले सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउव्वियसमुग्धादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो, एगणिरयावासस्स असंखेजघणंगुलाणि ठविय तप्पाओग्गाहि संखेज्जबिलसलागाहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेजदिभागमेत्तदंसणादो । मारणंतिय-उववादगदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। कुदो ? सदुक्खंभदुवाहाणं खादफलस्स तिरियलोगस्त असंखेज्जदिभागत्तुवलंभादो । जदि वि उड़े गंतूण सगबिलबग्गमूलविक्खंभेण मणुसगई गच्छंति, तो वि तिरियलोगस्सासंखेज्जदिभागो, तिरिच्छेण लद्धखेत्तस्स बिलखेत्तवग्गमूलगुणिदसेढीए संखेज्जदिमागपमाणत्तादो । एदमत्थपदं सव्वत्थ जहासंभवं जाणिऊण जोजेयव्यं । पर्यायार्थिकनयसम्बधी स्पर्शनक्षेत्रकी प्ररूपणा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके समान है। मारणान्तिकसमुद्धातगत नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालकी सपेक्षा सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर कारण मिथ्यावष्टियों के समान कहना चाहिए। सम्यग्मिथ्याडष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंके अपने सर्वपदोंकी स्पर्शनप्ररूपणा वर्तमानकालमें क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत उक्त दोनों ही गुणस्थानवाले जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, एक नारकावासके असंख्यात घनांगुलोंको स्थापन करके तत्प्रायोग्य संख्यात बिल शलाकाओंसे गुणा करने पर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र क्षेत्र देखा जाता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, (असंख्यात योजन विस्तृत श्रेणीबद्धादि बिलोंके मारणान्तिक व उपपादगत उक्त नारकियोंका ) अपने दोनों ओरके दंडाकार व भुजाकार क्षेत्रोंका घनफल तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। यद्यपि ऊपर जाकर अपने बिल के वर्गमूल प्रमाण विष्कम्भसे नारकी मनुष्यगतिको जाते हैं, तो भी तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग ही स्पर्शनक्षेत्र रहता है, क्योंकि, तिरळेरूपसे लब्ध उस क्षेत्रका प्रमाण, बिलसम्बन्धी क्षेत्रके वर्गमूलसे गुणित जगश्रेणीका संख्यातवां भाग ही होता है । यह अर्थपद सर्वत्र यथासंभव जान करके जोड़ना चाहिए। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [ १, ४, १७. विदियादि जाव छट्ठीए पुढवीए णेरइएसु मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं,लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥१७॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय-उववादगदमिच्छादिट्ठीणं उववादविरहिदसेसपदहिदसासगसम्मादिट्ठीणं च परूवणार खेत्तभंगो, वट्टमाणकालपडिबद्धत्तादो। एग वे तिण्णि चत्तारि पंच चोदसभागा वा देसूणा ॥ १८ ॥ एत्थ 'वा' सद्दसूचिदत्थं ताव वत्तइस्सामो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणबेदण-कसाय-वेउव्वियसमुग्घादगदेहि विदियादि पंचपुढविमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि घदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो अदीदकाले फोसिदो । एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । मारणंतिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले एगो चौद्दस : भागो विदियाए पुढवीए फोसिदो। तदियाए वे चोदसभागा, चउत्थीए तिण्णि चोदसभागा, द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्धात तथा उपपादपदको प्राप्त मिथ्यादृष्टि नारकी जीवोंकी तथा उपपादविरहित और शेष पदप्रतिष्ठित सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंकी स्पर्शनसम्बन्धी क्षेत्रप्ररूपणा वर्तमानकालसे प्रतिबद्ध होनेसे क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। उक्त जीवोंने अतिकालकी अपेक्षा चौदह भागोमेंसे कुछ कम एक, दो, तीन, चार और पांच भाग स्पर्श किये हैं ॥ १८॥ कि यहांपर पहले 'वा' शब्दसे सूचित अर्थको कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमद्धातगत द्वितीयादि पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकालमें स्पर्श किया है। यहांपर कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए। दूसरी पृथिवीमें मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत मिथ्यादृष्टि नारकी जीवोंने अतीतकाल में एक बटे चौदह ( ट ) भाग स्पर्श किया है। तीसरी पृथिवीके नारकी जीवोंने दो बटे चौदह (२) भाग, चौथी पृथिवीके नारकियोंने १ द्विःयादिषु प्राक्सातम्या मिथ्याष्टिभिः सासादनसम्यग्दृष्टि मिलोकस्यासंख्येयभागः, एकः द्वौ त्रयः स्वारपंच चतुर्दशभागा ना देशोनाः । स. सि. १,८. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १९.] फोसणाणुगमे णेरइयफोसणपरूवणं [ १८९ पंचमाए चत्तारि चोद्दसभागा, छडीए पंच चोदसभागा सव्यत्य रइयाणमगम्मखेतेणूगा त्ति वत्तव्यं । एवं सासणसम्मादिट्ठीणं पि वत्तमं । णवरि उववादो णत्थि । किमद्रुमेदेसि. मदीदकाले एत्तियं खेत्तं होदि ? णिग्गमग-पवेसणं पडि सम्मादिट्ठीणं व णियमाभावा । भोगभूमिसंटाणसंठिदा असंखेज्जदीव समुदा णेरइएहि कथं पुसिज्जंति ? ण, तत्थ वि णेरड्याणं जिग्गभण-पस पछि विरोहाभावादो । ___ सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिहीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १९ ॥ एदेसिं दोण्हं गुणट्ठागाणं वहमागकाले सत्याणादिपंचपदवियागं मारणंतियपदट्टियअसंजदसम्मादिट्ठीणं च परूवगाए खेतभंगो । एदेहि चेव अदीदकाले सत्थाणादिपंचपद तीन बटे चौदह ( ३ ) भाग, पांचवीं पृथिवीके नारकियोंने चार वटे चौदह (१४ , भाग और छठी पृथिवीके नारकियोंने पांच बटे चौदह (१) भाग प्रमागक्षेत्र स्पर्श किया है। इन सभी पृथिचियों के नारकियोका देशोन क्षेत्र नारकियोंके अगम्यक्षेत्रसे कम कहना चाहिए। इसी प्रकार से उक्त पृथिवियोंके सर्व पदगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का भी स्पर्शनक्षेत्र कद्दना चाहिए । विशेष बात यह है कि उनके उपपादपद नहीं होता है। शंका- उक्त नारकियोंका अतीतकाल में इतना (सूत्रोक्त) स्पर्शनक्षेत्र क्यों होता है ? समाधान-इतना अधिक स्पर्शनक्षेत्र इसलिए होता है कि उक्त पृथिवियों में निर्गमन और प्रवेशन के प्रति अर्थात् जाने और आने की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीवोंके समान मिथ्या दृष्टि जीवोंका नियम नहीं है। शंका-भोगभूमिकी रचनासे संस्थित असंख्यात द्वीप-समुद्र नारकियोंने कैसे स्पर्श किये हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वहांपर भी नारकियोंका निर्गमन और प्रधेश होने में कोई विरोध नहीं है । अर्थात् मारणान्तिकसमुद्धातकी अपेक्षा नारकी जीवोंका उक्त क्षेत्रमें प्रदेश और निर्गमन बन जाता है। द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके सम्यग्मियादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्श किया है ॥ १९ ॥ सभ्यरिमथ्यादृष्टि और असं यतसम्यग्दृष्टि इन दोनों गुणस्थानोंके स्वस्थानस्वस्थान, विहारवरस्वस्थान, वेदना, कपाय और चैक्रियि कसमुद्धात, इन पांच पदोंपर स्थित नारकी जीवोंकी तथा मारणास्तिकपदस्थित असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी वर्तमानकालमें स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके उक्त गुण ........... १ सम्बङ्मियादृष्टयसं यतसम्यग्दृष्टिमिलोकस्यासंख्येयमागः । स. सि. १,.. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ४, २०. विदेह मारणंतियपदडिद असं जदसम्मादिठ्ठीहि य विदियादि-छट्टिढविविसिहि चदु लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । विदियादि छसु पुढवी असंजदसम्मादिट्ठीवाद पन्थि । सत्तमा पुढवीए रइएस मिच्छादिडीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २० ॥ एदं सुतं वट्टमाणखेत्तपरूवयं, उवरिमसुदेण अदीदाणागदकालविसिखे तपरुवदो । एदस्त परूवणाए खेत्त भंगो । छ चोइस भागा वा देणा ॥ २१ ॥ सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय-वे उच्चियसमुग्वाद गदेहि मिच्छादिट्ठीहि तीदागागद कालेसु चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो | एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । एसो 'वा' सहत्थो । मारणंतिय उववादगदेहि मिच्छादिड्डीहि तीदाणागदकालेसु छ चोदस भागा चिताए जोयणसहस्सेणूण हे डिसचदुहि स्थानवर्ती स्वस्थानादि पांच पदस्थित जीवने और मारणान्तिकदस्थित असंयत सम्यग्दृष्टि जीवने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए । द्वितीयादि छह पृथिवियों में असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद नहीं होता है । सातवीं पृथिवी में नारकियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ २० ॥ यह सूत्र वर्तमानकालिक क्षेत्रकी प्ररूपणा करनेवाला है, क्योंकि, आगेके सूत्रद्वारा अतीत अनागत कालविशिष्ट क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है । इसकी अर्थात् वर्तमानकाल के सनक्षेत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकियोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ २१ ॥ स्वस्थ नस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कपाय और वैविकिसमुद्धतगत मिथ्याहाट नारकी जीवोंने अतीत और अनागत कालमें सामान्यलोक आदि चार लोकका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईइपिसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर भी कारण पूर्वके समान कहना चाहिए । यही 'वा' शब्दका अर्थ है । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत मिथ्या त्रुटि नारकी जीवोंने अतीत और अनागतकालमें चित्रा पृथिवीके एक १ सप्तम्यां पृथिव्या मिध्यादृष्टिभिलोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १,८. ३ प्रतिषु परुवेयं ' इति पाठः । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २२.] फोसणाणुगमे णेरड्यफोसणपरूवणं [१९१ सहस्सेहि ऊणा फोसिदा । ण केवलं हेडिल्लजोयणेहि चेत्र ऊणा, किंतु अण्णो वि देसो लोगणालीए अब्भतरे णेरइएहि अच्छुत्तो अस्थि । तं कथं णव्यदे ? 'विदियाए पुढवीए एगो चोद्दसभागो देसूणो' इदि सुत्तवयणादो । अण्णहा एदस्स देमूणतं पिंडिदूण सं पुण्णो एगो चोद्दसभागो होज्ज, चित्ताए जोयणसहस्सपवेसादों। एत्थ पुगो केण खेत्तेणूणो एगो चोद्दसभागो त्ति वुत्ते वुच्चदे-गिरयगइपाओग्गाणुपुद्धि-पंचिंदियतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुबीहि पडिबद्धखेत्तं मोत्तूण अण्णवेत्तेणूगो । वादरुद्धसव्यखेत्तेणूगत्तं किण्ण बुच्चदे ? ण, तत्थ वि आणुपुविविवागपाओग्गखेत्ताणं संभवं पडि विरोहाभावादो । सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥२२॥ हजार योजनसे कम और अधस्तन चार पृथिवियोंसम्बन्धी चार हजार योजनोंसे कम छह बटे चौदह () भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर केवल पृथिवियोंके अधस्तन एक एक हत्तार योजनोंसे ही कम क्षेत्र नहीं समझना, किन्तु अन्य भी देश (क्षेत्र ) लोकनालीके भीतर नारकियोंसे अच्छता ( अस्पृष्ट) है। शंका--यह कैसे जाना ? समाधान-'द्वितीय पृथिवीका स्पर्शल देशोन एक वटे चौदह भाग है ' इस सूत्र वचनसे उक्त बात जानी जाती है। यदि ऐसा न माना जाप, तो इस पृथिवीका देशो न क्षेत्र पिंडित अर्थात् एकत्रित होकर सम्पूर्ण एक बटे चौदह (१४) भाग हो जायगा, क्योंकि चित्रा पृथिवीका एक हजार योजन उस एक राजुमें ही प्रविष्ट है। शंका - यहां पर एक बटे चौदह भाग किस क्षेत्रसे कम कहा है ? समाधान-ऐसी आशंका करनेपर उत्तर देते हैं कि नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और पंचेन्द्रियतिर्यग्गतिप्रायोग्य नुपूर्वी, इन दोनोंसे प्रतिबद्ध क्षेत्रको छोड़कर अन्य शेष क्षेत्रसे कम कहा है। शंका-वायुसे रुके हुए सर्वक्षेत्रसे कम उक्त क्षेत्र त्रयों नहीं कहे ? समाधान -नहीं, क्योंकि, वहां पर भी आनुपूर्वीनामकर्मके विपाकके प्रायोग्यक्षेत्रके संभव होने में कोई विरोध नहीं है। सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्या दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥२२॥ १म प्रतौ पवेहदो ' इति पाठः। २ शेषैस्विमिलौकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १,८. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, २३. एदेसि तिहं गुणट्ठाणाणं सत्तमाए पुढवीए मारणंतिय-उववादपदा णस्थि । सेसपंच. पदट्टिएहि तिण्णिगुणट्ठाणजीवेहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कारणं पुवं व वत्तव्वं । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, ओघं ॥२३॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु सव्वलोगो फोसिदो। विहारवदिसत्थाणपरिणदेहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु तिष्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो । असंखेज्जेसु समुद्देसु तसजीवविरहिदेसु कधं विहारवदिसत्थाणपरिणदाणं तिरिक्खाणं संभवो ? ण तत्थ पुबवेरियदेवाणं पयोगदो विहारविरोहाभावादो। अदीदकाले विहरंततिरिक्खेहि छुत्तखेत्तायणविहाणं वुच्चदे-पुबवेरियदेवपयोगादो उवरि जोयणलक्खं इन तीनों ही गुणस्थानवर्ती जीवोंके सातवीं पृथिवीमें मारणान्तिक और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। शेष स्वस्थानादि पांच पदोंपर विद्यमान उक्त तीन गुणस्थानवर्ती प्रतीत अनागत और वर्तमान, इन तीनों कालाम सामान्यलोक आदि चार लोकाका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए। तियंचगतिमें तियंचोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ओषके समान सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ २३॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत मिथ्याष्टि तिर्यंच जीवोंने भूत, भविष्य और वर्तमान, इन तीनों कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थानसे परिणत तिथंच मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीत, अनागत और वर्तमान इन तीनों कालोंमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातव भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। __ शंका- त्रस जीवोंसे विरहित असंख्यात समुद्रों में विहारवत्स्वस्थानसे परिणत हुए तिर्यचोंका अस्तित्व कैसे संभव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे विहार होने में कोई विरोध नहीं है। और इसलिए वहां पर उनका अस्तित्व भी संभव है। ___अब अतीतकालमें विहार करनेवाले तिर्यचोंसे स्पर्श किये गए क्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं-पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे चित्रा पृथिवीसे ऊपर एक लाख योजन १ तिर्यग्गतौ तिरश्च तिर्यग्मिध्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । स. सि. १,८. २ आ प्रतौ' खुत्त ' इति पाठः। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २५.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [१९१ चितमेरु-कुलसेल कुंडल-रुजग-माणसुत्तर-णगिंदवरपबदादिरुद्धखेत्तं मोतूण सव्वं फुसंति त्ति लक्खजोयणबाहलं रज्जुपदरं ठविय उड्डमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेतखेत्तं होदि । वेउव्वियसमुग्धादगदाणं वट्टमाणकाले खेतभंगो । तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणं संखेजदिभागो, दोहि लोगेहिंतो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कारणं, वाउकाइयजीवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता विउठवणक्खमा वट्टमाणकाले होति', ते रज्जुपदरं पंचरज्जुबाहल्लं अदीदकाले फुसंति त्ति । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो॥ २४ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्तम्हि परूविदो । सत्त चोदसभागा वा देसूणा ॥२५॥ एत्थ 'वा' सट्ठो बुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायवेउब्धियसमुग्घादगदसासणसम्मादिट्ठीहिं तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, मेरुप्रमाण, तथा कुलाचल, कुंडलगिरि, रुचकगिरि, मानुषोत्तर और नगेन्द्रवर पर्वतादिकोंसे रुद्ध क्षेत्रको छोड़कर सभी तिर्यच सर्व द्वीप और समुद्रोंका स्पर्श करते हैं। इसलिए एक लाख योजन बाहल्यवाले राजुप्रतरको स्थापन कर ऊपरकी ओरसे उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र हो जाता है। वैकि यिकसमुद्धातगत तिर्यंचोंका स्पर्शन वर्तमानकालमें क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीत अनागतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और तिर्यग्लोक तथा मनुष्यलोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण यह है कि पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र वायुकायिक जीव वर्तमानकालमें विक्रिया करनेमें समर्थ होते हैं, और वे पांच राजु बाहल्यवाले एक राजुप्रतरप्रमाण क्षेत्रको अतीतकालमें स्पर्श करते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पशे किया है ॥ २४ ॥ इस सूत्रका अर्थ क्षेत्रप्ररूपणामें कहा जा चुका है। सासादनसम्यग्दृष्टि तियंचोंने भूत और भविष्यकालकी अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ २५ ॥ इस सूत्र में स्थित 'वा' शब्द का अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और . १ गो. जी. २५८. २ प्रतिषु । फोसिदं ' इति पाठो नास्ति । ३ सासादनसम्यग्दृष्टिमिलोंकस्यासंख्येयभागः सप्त चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स.सि. १,८, Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४१ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, २५० तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो । एत्थ ताव तिरिक्खसासणसत्थाणसत्थाणखेत्ताणयणविधाणं चुच्चदे- लवण-कालोदग-संयभुरमणसमुद्दे मोत्तूण सेससमुद्देसु णत्थि सत्थाणसत्थाणसासणा, तत्थुप्पण्णतसजीवाणमभावादो। सव्वेसु दीवेसु अस्थि सत्थाणसत्थाणसासणा, तत्थ तसजीवाणमुप्पत्तिदंसणादो। सत्थाणसत्थाणसासणेहि सव्वे दीवा तिण्णि समुद्दा तीदकाले पुसिज्जति त्ति तेसिमाणयणट्ठमिमा परूवणा कीरदे । जंबूदीवो खेत्तगुणिदेण सत्त णव सुण्ण पंच य छण्णव चदु एक वंच सुण्णं च । जंबूदीवस्सेदं गणिदफलं होइ णायव्वं ॥४॥ .......................................... अनागतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । अब यहांपर तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं . लवणसमुद्र, कालोदकसमुद्र और स्वयम्भूरमणसमुद्रको छोड़कर शेष समुद्रों में स्वस्थानस्वस्थान पवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं, क्योंकि, वहांपर उत्पन्न होनेवाले त्रस जीवोंका अभाव है। हां, सर्वद्वीपोंमें स्वस्थानस्वस्थान पदवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, क्योंकि, वहांपर त्रसजीवोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। स्वस्थानस्वस्थानपदस्थित सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीवोंने सर्वद्वीप और तीन समुद्र अतीतकालमें स्पर्श किये हैं, इसलिए उनका स्पर्शनक्षेत्र लानेकेलिए यह प्ररूपणा की जाती है । जम्बूद्वीपके क्षेत्रका गणित करनेपर--- सात, नौ, शून्य, पांच, छह, नौ, चार, एक, पांच और शून्य अर्थात् ७९०५६९४१५० बर्गयोजन प्रमाण जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल होता है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ४॥ १ अंबरपंचेकचउणव छ पण सुण्ण णवय सत्तो व । अंककमे जोयणया जंबूदीवस्स खेत्तफलं ॥ ५८ ॥ ७९०५६९४१५०। एक्को कोसो दंडा सहस्समेक्क हुवेदि पंच सया। तेवण्णाए सहिदा किंकू हत्थे ससुण्णाइं ॥ ५९॥ को. १ दंड १५५३1०1०1 एक्को होदि विहत्थी सुण्णं पादम्मि अंगुलं एक । जव छ तिय जूवा लिक्खाउ तिणि भादवा ॥ ६०॥ ०६।३ । कम्मक्खोणीए दुवे वालग्गा अवरभोगभूमीए। सत्त हुवंते मज्झिमभोगखिदीए वि तिणि पुढे ॥ ६१॥ २१७.३ सत्त य सण्णासण्णा ओसण्णासण्णया तहा एक्को । परमाणूण अणंताणता संखा इमा होदि ॥६२॥ १। अडतालसहस्साई पणबण्णुत्तर च उस्सया अंसा । हारो एक लक्खं पंच सहस्साणि चउ सया णवयं ॥ ६३ ॥१८४५५ ति. प. माणुसलोया.। पण्णासमेकदालं णव छप्पणास मुण्ण णव सदरी | साहियकोसं च हवे मंदीवस्स सहुमफलं ॥ ३१३ ॥ त्रि. सा. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २५.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [१९५ एदस्स एया सलागा होदि १ । एदेण पमाणेण लवणसमुद्दे कीरमाणे सो जंबूदीवादो खेत्तगुणिदेण चउवीसगुणो होदि । वुत्तं च बाहिरसूईवग्गो अब्भंतरसूइवग्गपरिहीणो। जंबूदीवपमाणा खंडा ते होंति चउवीसा ॥५॥ एदीए गाहाए सव्वेसि दीव-समुद्दाणं पुध पुध खेत्तफलसलागाओ आणेदवाओ । तत्थ अट्ठण्हं खेत्तफलसलागाओ एदाओ।१।२४ | १९४ ६७२ २८८० | ११९०४ | ४८३८४ १९५०७२ | लवणसमुदखेत्तफलवुप्पण्णो पमाणेण एगं होदि। लवणसमुद्दपमाणेण धादइसंडम्हि कीरमाणे छग्गुणो होदि । कालोदयसमुद्दो अट्ठावीसगुणो होदि । पोक्खरदीवो वीसुत्तरसदगुणो होदि । पोक्खरसमुद्दो चदुसदछण्णउदिगुणो होदि । एवं लवणसमुद्दजंबूदीव इसकी अर्थात् जम्बूद्वीपके उक्त क्षेत्रफलको एक शलाका (१) होती है। इस प्रमाणसे लवणसमुद्रका माप करनेपर वह जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलसे चौबीस गुणा होता है। कहा भी है लवणसमुद्रकी बाह्यसूचीके वर्गको उसीकी आभ्यन्तर सूचीके वर्गके प्रमाणसे कम करनेपर जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलप्रमाण उसके चौबीस खंड होते हैं ॥५॥ इस गाथाके अनुसार समस्त द्वीप और समुद्रोंकी पृथक् पृथक् क्षेत्रफल शलाकाएं ले आना चाहिए। उनमेंसे आठ द्वीप-समुद्रोंकी क्षेत्रफल शलाकाएं इस प्रकार होती हैं१, २४, १४४, ६७२, २८८०, ११९०४, ४८३८४, १९५०७२. . उदाहरण-(१) लवणसमुद्र-बाह्यसूची ५ लाख , आभ्यन्तरसूची १ लाख योजना ५-१% २५-१% २४. (२) धातकीखंडद्वीप-बाह्यसूची १३ लाख, आभ्यन्तरसूची ५ लाख योजन. १३.-५ - १६९-२५ = १४४. (३) कालोदधि-बाह्यसूची २९ लास्त्र, आभ्यन्तरसूची १३ लाख योजन. २९' - १३ = ८४१ - १६९ % ६७२ । इत्यादि । । लवणसमुद्रका उत्पन्न हुआ क्षेत्रफल अपने प्रमाणकी अपेक्षा एक होता है। लवणसमुद्र के प्रमाणसे धातकीखंडका प्रमाण करने पर धातकीखंड छह गुणा होता है। कालोदधिसमुद्र अठाईसगुणा है । पुष्करवरद्वीप एक सौ बीसगुणा है। पुष्करवरसमुद्र चारसौ छ्यानवे गुणा है। इस प्रकारसे लषणसमुद्रकी जम्बूद्वीपप्रमाणशलाकाओंसे द्वीप और सागरोसम्बन्धी - १ बाहिरसूईवग्गो अभंतरसूइवगपरिहीणो। लक्खस्स कदिम्मि हिदे इग्छियदीवद्विखंडपमाणं ॥ ति.प. ५, १६. बाहिरसूईवग्गं अभंतरसूरवग्गपरिहीणं । जंबूवास विमते तत्तियमेनाणि खंडाणि । त्रि. सा. ३१६ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, २५. सलागाहि दीव- सायरजंबूदीवसलागाऔ ओवट्टिय गुणगारा उप्पादेदव्त्रा १।६।२८। १२०|४९६।२०१६।८१२८ । एवं ठविदगुणगारसलागाहि लवणसमुद्दजंबूदीवस लागाओ गुणिय जंबूदीवजोयणपदराणि गुणिदे इच्छिददीव - सायराणं खेत्तफलं होदि । संपहि समुद्दाणं श्वेव खेत्तफलमाणेदुमिच्छामो त्ति अप्पणो इच्छिद - इच्छिदसमुद्दाणं लवणसमुद्दगुणगारसलागाणयणविधाणं बुच्चदे - लवणोदयसमुद्दादो कालोदयसमुद्दो खेत्तफलेण अट्ठावीस गुणो । तहि उप्पाइज्जमाणे दो रूवे ठविय पढमस्स वड्डी णत्थि त्ति एगरूवमवणिय सेसेगरूवं विरलिय सोलस दादूण अण्णोष्ण मासे कदे सोलस होंति । ते दुगुणिय चत्तारि अवणिदे कालोदयसमुद्दस्स अट्ठावीस गुणगारसलागा उप्पज्जेति । तेहिं लवणोदयसमुद्दस्स जम्बूद्वीपप्रमाण शलाकाएं अपवर्तितकर गुणकार उत्पन्न करना चाहिए जो इस प्रकार आते हैं- १, ६, २८, १२०, ४९६, २०१६, ८१७८ । उदाहरण - (१) लवणसमुद्रकी जम्बूद्वीपशलाकाएं २४ । ल. स. की द्वीप सा. सम्बन्धी शलाकाएं २४ | ३४ = १ लवणसमुद्रकी गुणकारशलाका । (२) धातकी खंडद्वीपकी प्रमाणशलाका १४४ । ४= ६ गुणकारशलाकाएं । (३) कालोदकसमुद्रकी प्रमाणशलाका ६७२ । ६२ = २८ गुणकारशलाका । इत्यादि । इस प्रकार स्थापन की गई गुणकारशलाकाओंसे लवणसमुद्रकी जम्बूद्वीपप्रमाण शलाकाओंको गुणित करनेपर पुनः उसे जम्बूद्वीपके प्रतरात्मक योजनोंसे गुणा करनेपर इच्छित द्वीप और सागरोंका क्षेत्रफल आता है । उदाहरण -- (१) घातकी द्वीप - गुणकारशलाका ६। ६ × २४ × ७९०५६९४१५० घातकीद्वीपका क्षेत्रफल । (२) कालोदधि - गुणकारशलाका २८ २८ × २४ x ७९०५६९४१५० कालोदधिका क्षेत्रफल | (३) पुष्करद्वीप - गुणकारशलाका १२० १ १२० × २४ x ७९०५६९४१५० पुष्कर द्वीपका क्षेत्रफल । इत्यादि । अब केवल समुद्रों का ही क्षेत्रफल निकालना चाहते हैं, इसलिए अपने अपने इष्ट समुद्रोंकी लवणसमुद्रप्रमाण गुणकारशलाकाओंके निकालने का विधान कहते हैं लवणोदकसमुद्र से कालोदकसमुद्र क्षेत्रफलकी अपेक्षा अट्ठाईस गुणा है । उसे उत्पन्न करने के लिए दो रूपको स्थापनकर प्रथमसमुद्रकी वृद्धि नहीं है, इसलिए एक रूप कमकर शेष एक रूपको विरलन कर उसके ऊपर सोलह देकर परस्पर में गुणित करनेपर सोलह ही होते हैं । उन्हें दूना कर उनमेंसे चार कम कर देने पर कालोदकसमुद्रकी अट्ठाईस गुणकारशलाकाएं उत्पन्न होती है । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २५.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [१९७ खेत्तफले गुणिदे कालोदयसमुदस्स खेतफलं होदि । लवणसमुद्दादो पोक्खरसमुहो खेत्तगुणिदेण चत्तारिसदछण्णउदिमेत्तगुणो होदि । तम्हि गुणगारे आणिज्जमाणे तिणि समुद्दा त्ति कट्ट रूवूणं करिय विरलिय रूवं पडि सोलस दाद्ग अण्णोण्णम्भासे कदे वेसदछप्पण्णा हॉति । ते दुगुणिय पुध दुविय पुणो पुबिल्लविरलगमेव विरलिय रूवं पडि चत्तारि दादूग अण्णोण्णगुणं करिय उप्पण्णरासिं दुगुणरासीदो अवणिदे पोक्खरसमुदस्स गुणगारसलागा होति । तेहि लवणसमुदखेत्तफले गुणिदे पोक्खरसमुद्दस्प्त खेत्तफलं होदि । पुणो चउत्थसमुद्दो लवणसमुदं दट्टणट्ठावीससदाहिय अट्ठसहस्सगुणो होदि । एदस्स गुणगारस्स उप्पत्ती वुच्चदे- चत्तारि रूवणे करिय विर. लिय रूवं पडि सोलस दादण अण्णोण्णगुणे कदे छण्णउदिरूवाहियचत्तारिसहस्साणि होति । ते दुगुणिय पुध दृविय पुबिल्लविरलणरासि विरलिय रूवं पडि चत्तारि दादण अण्णोण १६ उदाहरण-कालोदधि लवणसमुद्रसे दूसरा समुद्र है, अतः क्रमशलाका २. २-१ = १, १-१६, १६४२-४ = २८. कालोदकसमुद्रकी गुणकारशलाका. कालोदकसमुद्रकी गुणकारशलाकाओं द्वारा लवणसमुद्रके क्षेत्रफलको गुणा करने पर कालोदकसमुद्रका क्षेत्रफल हो जाता है । लवणसमुदकी अपेक्षा पुष्करसमुद्र क्षेत्रफलकी अपेक्षा चारसौ छयानवे गुणा है। उसका गुणकार निकालने के लिए पुष्करसमुद्र तीसरा है, इसलिए तीनमेंसे एक कम करके शेष बचे दोका विरलनकर एक एक रूपके प्रति सोलह देकर परस्परमें गुणा करने पर दो सौ छप्पन होते हैं । उन्हें दुगुणा करके पृथक् स्थापित कर पुनः पहिलेके विरलनको ही विरलित कर प्रत्येक रूपके प्रति चार देकर और परस्परमें गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसे उसीकी दूनी राशिमेले घटाने पर पुष्करसमुद्रकी गुणकारशलाकाएं होती है। उदाहरण-पुष्करसमुद्रकी क्रमशलाका ३. १६४१६ ३-१-२, १% २५६, २५६४२=५१२. ४४४ घिरलनराशि २, १ १ १६, ५१२ - १६% ४९६ पुष्करसमुद्रकी गुणकारशलाका. इन गुणकारशलाकाओंसे लवणसमुद्र के क्षेत्रफलको गुणा करने पर पुष्करसमुद्रका क्षेत्रफल हो जाता है । पुनः चौथा समुद्र लवणसमुद्रको देखते हुए आठ हजार एक सौ अट्ठाईस गुणा है । इस गुणकारकी उत्पत्ति कहते हैं ___ चारमेले एक कम करके शेषको विरलनकर और प्रत्येक रूपके प्रति सोलह देकर परस्पर गुणा करनेपर चार हजार छयानवै होते हैं। उन्हें दुगुणाकर पृथक् स्थापनकर पहलेकी विरळनराशिको विरलित कर सपके प्रति चार देकर परस्पर गुणा करनेपर Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, २५. गुणे कदे चउसट्ठी उप्पज्जदि । पुणो पुचिल्लदुगुणिदरासिम्हि एदमवणिदे चउत्थसमुदस्स गुणगारसलागा होति । एदाहि लवणसमुदखेत्तफले गुगिदे चउत्थसमुदखेत्तफलं होदि । एवमणेण बीजपदेण सव्वसमुदाणं खेत्तफलमाणेदव्यं । तत्थ सवपच्छिमस्स सयंभुरमणसमुदस्स खेत्तफलागयणं भण्णदे- दीव-सागररूवाणि अद्धिदे समुद्दसंखा होदि । ताओ समुदसलागाओ रूवूणाओं करिय विरलिय रूवं पडि सोलस दादूण अण्णोण्णभत्थे कदे जोयणलक्खवग्गेण छत्तीससदरूवाहियतिसहस्सपदुप्पण्णेण जगपदरम्हि भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । पुणो एवं दुगुणिय पुध दृविय पुघिल्लविरलणं विरलिय रूवं पडि चत्तारि दादूण अण्णोण्णभत्थे कदे छप्पण्णजोयणलक्खाए सेटिं खंडेदूग एगवंडमागच्छदि । तं पुघिल्लदुगुणिदरासिम्हि अवणिदे सयंभूरमणसमुस्सद्द गुणगारसलागा हाँति । एदाहि लवणसमुदखेत्तफले गुणिदे चौंसठ संख्या उत्पन्न होती है। पुनः पहले की दुगुणित राशि से इस राशिको कमा देनेपर चौथे समुद्रकी गुणकारशलाकाएं हो जाती हैं। उदाहरण-चतुर्थसमुद्रकी मशलाका ४; ४ - १ = ३, १६४ १६४ १६ = ४०९६, ४०९६ ४२ = ८६९२६ sxsxs = ६४, ८१९२-- ६४ = ८१२८ चतुर्थ समुद्रकी गुणकारशलाका. इन गुणकारशलाकाओंसे लवणसमुद्र के क्षेत्रफलको गुणा करनेपर चौथे समुद्रका क्षेत्रफल हो जाता है। इस प्रकार इस उक्त बीजपदसे सभी समुद्रोंका क्षेत्रफल निकालना चाहिए। उनमें सबसे अन्तिम जो स्वयम्भूरमण समुद्र है, उसके क्षेत्रफलको निकालने का विधान कहते हैं-सर्वद्वीप और समुदाँकी जितनी संख्या है, उसे आधा करने पर सर्व समुद्रों की संख्या हो जाती है । उन सपुद्रशलाकाओं को एक कम करके विरलनकर और प्रत्येक रूपके प्रति सोलह देकर आपसमें गुणा करने पर तीन हजार एक सौ छत्तीससे. गुणित एक लाख योजनके वर्गले जगप्रतरमें भाग देने पर एक भाग आता है । पुनः इसे दूना करके पृथक् स्थापित कर पहलेके विरलनको विरलितकर प्रत्येक रूपके प्रति चार देकर आपसमें गुणा करने पर छप्पन लाख योजनके प्रमाणसे जगश्रेणीको खंडित करनेपर एक खंड आ जाता है। उसे पहले दूनी की गई राशिमेंसे घटा देनेपर स्वयंभूरमण समुद्रकी गुणकारशलाकाएं हो जाती हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २५.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं सयंभुरमणसमुदस्स खेत्तफलं जगपदरस्स वासीदिभागो सादिरेगो होदि । एत्थ करणगाहा सोलह सोलसहिं गुणे रूवूणोवहिसलागसंखा त्ति । दुगुणम्हि तम्हि सोहे चउक्कपहदं चउक्कं तु ॥ ६ ॥ संपदि सव्वसमुद्दाणं खेत्तफलसंकलणा वुच्चदे-लवणसमुदस्स एगा गुणगारसलागा, कालोदयसमुद्दस्स अट्ठावीस । एदेसि संकलणमाणिज्जमाणे 'रूपोनमादिसंगुणमेकोनगुणोन्मथितमिच्छा' एदेण अज्जाखंडेण आणेदव्वं । एगमादि कादूण सोलसगुणकमेण गदा त्ति इन शलाकाओंसे लवणसमुद्र के क्षेत्रफलको गुणित करनेपर स्वयम्भूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल जगप्रतरका साधिक व्यासीवां भाग आता है। इस विषयमें करणगाथा इसप्रकार है विवक्षित समुद्रकी क्रमशलाकाकी संख्या से एक कम करके शेष संख्याके प्रमाण सोलहको सोलहसे गुणाकर उपलब्ध राशिको दूना कर दे और विरलन राशिप्रमाण चारको चारसे गुणाकर लब्धको उस द्विगुणित राशिमेसे घटा देने पर विवक्षित समुद्रकी गुणकारशलाकाएं आ जाती हैं ॥६॥ उदाहरण- सर्वद्वीप-समुद्रोंकी संख्या = २अ; सर्वसमुद्रोंकी संख्या = अ - १ = र७२ (जगप्रतर) - = ब; ब४२-२ब १०००००°४३१३६ ४ - १. र७ • - - - = स; २ब-स = स्वयंभूरमणसमुद्र की गुणकारशलाका (२व - स) x ल. का क्षेत्रफल = स्वयंभूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल = र ८२ अब सर्व समुद्रोंके क्षेत्रफलका संकलन कहते हैं-लवणसमुद्रकी गुणकारशलाका एक है, कालोदकसमुद्रकी गुणकारशलाकाएं अट्ठाईस है । इनका संकलन लानेके लिए उक्त प्रकारसे प्राप्त शलाकाओंमेले 'एक कम करके शेषको आदिसे गुणा करे और पुनः एक कम गुणकारशलाकाका भाग देनेसे इच्छित राशि उत्पन्न हो जाती है। इस आर्याखंडसे इच्छित संकलन ले आना चाहिए। चूंकि एकको आदि लेकर सोलह गुणितक्रमसे राशि बढ़ी है, इसलिए दो - १ सयंभुरमणसमुद्दस्स खेत्तफलं जगसेढीए वगं णवरूवेहि गुणिय सत्तसदचउसीदिरूवेहिं भजिदमेतं पुणो एक्कलक्ख बारससहस्सपंचसयजोयणेहिं गुणिदरज्जूए अमहियं होदि । ति. प. पत्र १७१. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, २५. क दो रूवे ठविय' अद्धिय पुध ठविय उवरि एगरूवं दादव्वं । पुणो तं सोलसे हि गुणिय 'रूपेषु गुणमर्थेषु वर्गणं' एदेण अज्जाखंडेण लद्धविसदछप्पण्णेसु रूवूणेसु आदि - संगुणेसु रूवूणगुणगारेण भजिदेसु जं लद्धं तं दुगुणिय पंच अवणिदे पक्खे सलागसंकलणा होदि । कधं पंच समुप्पण्णा ९ पुव्त्रपक्खित्तएगादिचदुगुणकमेण गदासि मेलाविदे अवणयणरासी आगच्छदि । एदाहि पुच्वुत्त संकलण सलागाहि लवणसमुद्दखेत्तफलं गुणिदे लवण- कालोदयसमुद्दाणं खेत्तफलं होदि । तिन्हं समुद्दाणं खेत्तफलसंकलणा बुच्चदे - तिसु रूवे एगरूवमवणिय पुध दुविय सेसमद्धिय रुवस्सुवरि वग्गणं ठविय तस्सुवरि रूवं ठविय हेट्ठिम उवरिमरुवाणि सोलसेहि गुणिय 'रूपेषु गुणमर्थेषु वर्गणं' एदेण अज्जा रूपोंको स्थापितकर आधा करके पृथक् स्थापितकर ऊपर एक रूप दे देना चाहिए । पुनः उसे सोलह से गुणितकर 'रूपोंमें गुणा और अर्थों में वर्गणा' इस आर्याखंड से प्राप्त दोसौ छप्पन रूपों में से एक कम कर आदिले संगुणित करनेपर तथा एक कम गुणकारसे भाग देने पर जो राशि लब्ध हो उसे दुगुनाकर उसमेंसे पांच घटा देनेपर एक पक्षमें अर्थात् केवल समुद्रसम्बन्धी शलाकाओं की संकलना हो जाती है। उदाहरण -- लवणोदक और कालोदककी गुणकारशलाका ओंका संकलन - कालोदककी शलाका २३ १ x १६, १x १६; १६ x १६ = २५६६ / २५६ - = १७; १७ x २ = ३४; ३४ - ५ = २९ 2) - १ २५५ १५ शंका-यांपर पांच कैसे उत्पन्न हुए ? समाधान - पू एकको आदि लेकर चतुर्गुणितक्रमसे वृद्धिंगत राशिको मिला देने पर अपनयनराशि आ जाती है । उदाहरण - पांचकी उत्पत्ति - १+४ =५ अपनयनराशि ( दो समुद्रों की अपनयनशलाका, 1 इन पूर्वोक्त संकलनशलाकाओं से लवणसमुद्रसम्बन्धी क्षेत्रफलको गुणित करने पर लवणसमुद्र और कालोदकसमुद्र, इन दोनोंका क्षेत्रफल हो जाता है । उदाहरण - लवणसमुद्रका क्षेत्रफल - ७९०५६९४१५० × २४; लवणोदक और कालोदककी संकलित गुणकारशलाका २९; ७९०५६९४१५० × २४ X २९ लवणोदक और कालोदकका संकलित क्षेत्रफल. अब तीन समुद्रोंके क्षेत्रफलका संकलन कहते हैं- तीन रूपों में से एक रूपको घटाकर उसे पृथक् स्थापित करे । पुनः शेषको आधा कर रूपके ऊपर वर्गणराशिको स्थापितकर और उसके ऊपर रूपको स्थापितकर अधस्तन और उपरिम रूपोंको सोलह से गुणाकर १ प्रतिषु ' विय' इति पाठः । २ प्रतिषु सुष्णं ' इति पाठः । • Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २५ ] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [२०१ खंडेण लद्धा चारि सहस्सा छण्णउदी। रूपोनमादिसंगुणमेकोनगुणोन्मथितमिच्छा' एदेण अज्जाखंडेण लद्धाणि वे सदाणि तेहत्तराणि, एदाणि दुगुणिय एक्कावीसमवणिदे गुणगारसलागासंकलणा होदि । कथमेकवी लस्स उप्पत्ती ? एणरूवं विरलिय चत्तारि दादण अण्णोण्णब्भत्थं करिय पंचहि गुणिय एगादिचदुग्गुणसंकलणं पक्खित्ते अवणयणसलागपमाणं एक्कावीस होदि । एत्थ करणगाहा -- इट्ठसलागाखुत्तो चत्तारि परोप्परेण संगुणिय । पंचगुणे खित्तव्वा एगादिचदुगुणा संकलणा ॥ ७ ॥ एत्थ सव्वत्थ दुरूवूणगच्छं विरलेदव्यं ५।२१। ८५।३४१ । १३६५ । ५४६१ । एदाओ अवणयणधुवरासीओ अणंतरहेट्ठिमं चदुहि गुणिय रूवं पक्खित्ते उप्पज्जंति जाव 'रूपों में गुणा और अर्थों में वर्गणा' इस आर्याखंडसे चार हजार छयानवै (४०९६) संख्या प्राप्त होती है । पुनः उक्त प्रकारसे प्राप्त शलाकाओंमेंसे 'एक कम करके शेषको आदिसे गुणा करे, पुनः एक कम गुणकारशलाकाका भाग दे, तो इष्टराशि उत्पन्न हो जाती है' इस आर्याखंडके अनुसार दो सौ तेहत्तर (२७३) संख्या प्राप्त होती है। इस संख्याको हुनाकर उसमेंसे इक्कीस घटा देनेपर गुण कारशलाकाओंका संकलन हो जाता है । उदाहरण-प्रथम तीन समुद्रोंका संकलन- शलाका ३; १६४१६४१६ = ४०९६; ४०९६ - १.४०९५ -- २७३; २७३४२%५४६: ५४६-२१ % ५२५ तीन समुद्रोंकी संकलित गुणकारशलाका।। शंका-यहांपर घटाई जानेवाली इक्कीस संख्याको उत्पत्ति कैसे हुई ? समाधान- एकरूपको विरलित कर उसके ऊपर चारको देयरूपसे देकर अन्योन्या भ्यास करके उसे पांचसे गुणाकर एक आदि चतुर्गुणसंकलनको प्रक्षेप करने पर अपनयनशलाकाका प्रमाण इक्कीस हो जाता है। उदाहरण–२१ की उत्पत्ति-३ - २ = १, १ - ४, ४४५ - २०; २० + १ = २१ तीन समुद्रोंकी अपनयनशलाका. इस विषय में यह करणगाथा है इष्ट शलाकाराशिका जो प्रमाण हो उतने वार चारको रखकर परस्परमें गुणा करे, पुनः उसे पांचसे गुणा करे और फिर एक आदि चतुर्गुणसंकलनराशिको प्रक्षेप करना चाहिए। ऐसा करनेपर अपनयनराशिका प्रमाण आ जाता है ॥ ७ ॥ - यहांपर सर्वत्र दो रूप कम गच्छराशिका विरलन करना चाहिए । ५, २१, ८५, ३४१, १३६५, ५४६१, ये घटाई जाने वाली ध्रुवराशियां अनन्तर अधस्तन राशिको चारसे गुणाकर Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.२] - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं । [१, १, २५. संयंभुरमणसमुद्दो त्ति । संपदि सयंभुरमणसमुद्दविरहिदसव्वसमुद्दखेतफलाणयणविधाणं बुच्चदे- दीव-सायररूवाणं अद्धं रूवूणं विरलिय रूवं पडि वेण्णि दादण अण्णोण्गम्भासे कदे चोदसगुणिदजोयणलक्खमूलेण खंडिदसेढीए वग्गमूलस्स अद्धमागच्छदि । अध पुत्वविरलणाए रूवं पडि जदि चत्तारि रुवाणि दादूग अण्णोण्णब्भासो कीरदे, तो चोद्दसगुणजोयणलक्खेण खंडिदे सेढीए चदुभागो आगच्छदि । अध रूवं पडि सोलस दादण अण्णोण्णम्भासो कीरदि, तो जोयणलक्खवग्गेण तिसहस्सछत्तीससदरूवगुणिदेण जगपदरम्हि भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । पुणो तं रूवूणं करिय एगेण आदिणा गुणिय पण्णारस और उनमें एक प्रक्षेप करनेपर उत्पन्न होती हैं, और इसी क्रमसे स्वयम्भूरमणसमुद्र तक उत्पन्न होती हुई चली जाती हैं। ४४४ = १६, १६४५+५= ८५ चार स. उदाहरण-(१) ४ - २ = २; १ १ ४४४४४ ६४, ६४४५+ २१ = ३४१ पांच स. xexxx४-२५६, २५६४५+८५=१३६५ छह स. (३) ६-२ - ४; ११ ११ ___४xxxxxxx४=१०२४; १०२४४५+३४१=५४६१ सात स. (४) ७-२=५१ १ १ १ १ इत्यादि. अब स्वयम्भूरमणसमुद्रको छोड़कर शेष सर्व समुद्रोंके क्षेत्रफल निकालनेका विधान कहते हैं-द्वीप और समुद्रोंकी जितनी संख्या है उसे आधाकर उसमेंसे एक घटावे । पुनः शेष राशिका विरलनकर प्रत्येक रूपके प्रति देयरूपसे दो को देकर परस्पर गुणा करनेपर चतुर्दश-गुणित लक्ष योजनके वर्गमूलसे खंडित जगश्रेणीके वर्गमूलका आधा प्रमाण आता है। अब यदि पूर्व विरलनराशिमें प्रत्येक रूपके प्रति चार रूपोंको देयरूपसे देकर परस्पर गुणा किया जाता है, तो चतुर्दश गुणित लक्ष योजनसे खंडित जगश्रेणीका चौथा भाग आता है। और यदि उसी विरलनराशिमें प्रत्येक रूपके प्रति सोलहको देयरूपसे देकर परस्पर गुणा किया जाता है तो तीन हजार एक सौ छत्तीस (३१३६) रूपोंसे गुणित लक्ष योजनके वर्गसे भाजित जगप्रतरका एक भाग आता है। उदाहरण-(१) २१ = अ, २१-१ = /१४००००० यो. (२) अ-१ - १४००००.यो. (३) १६-१ १०००००१ ४ ३१३६ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २५.1 फोसणाणुगमे तिरिक्खफासणपरूवणं (२०३ स्वेहि भागे हिदे जोयणलक्खवग्गेण चालीसाहियसत्तेतालसहस्सरूवगुणिदेण जगपदरम्हि भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । एदं दुगुणिय सेढिअसंखेज्जदिभागमेत्तमवणयणरासि पुबिल्लकरणगाहाए आणिदमवणिय लवणसमुदखेत्तफलेण गुणिदे सयंभूरमणविरहिद. समुद्दाणं खेत्तफलं होदि । तं केत्तियमिदि भणिदे एगूणचालीसाहियवारससदरूवेहि जगपदरम्हि भागे हिदे एगभागपमाणं होदि । तत्थ मूलिल्लदोसमुदखेत्तफलं संखेज्जजोयणपदरमेत्तमवणिय रज्जुपदरम्हि अवणिदे एकवंचासरूवेहि सादिरेगेहि जगपदरम्हि खंडिदे एगखंडो आगच्छदि । तं संखेज्जसूचिअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदि पुनः उसे, अर्थात् १६ के गुणितक्रमसे उपलब्ध राशिको, एक कम करके आदि स्थानवर्ती एकसे गुणितकर, पन्द्रह रूपोंसे भाग देनेपर चालीस अधिक सैंतालीस हजार अर्थात् सैंतालीस हजार चालीस (४७०४०) रूपोंसे गुणित लक्ष योजनके वर्गसे भाजित जगप्रतरका एक भाग आता है। उदाहरण-१ ( २७ ०००००.४३१३ १०००००x४७०३० इस प्रमाणको दुगुणाकर उसमें से पूर्वोक्त करणगाथासे निकाली हुई जगश्रेणीके भसंख्यातवें भागप्रमाण अपनयनराशिको घटाकर लवणसमुद्रके क्षेत्रफलसे गुणा करनेपर स्वयम्भूरमणसमुद्रसे रहित शेष समस्त समुद्रोंका क्षेत्रफल हो जाता है। यह क्षेत्रफल कितना होता है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि वह उनतालीस अधिक बारह सौ अर्थात् बारहसौ उनतालीस (१२३९) रूपोंसे भाजित जगप्रतरका एक भाग प्रमाण होता है। उदाहरण- २ (0.... ४.)- } x ल - २२३९ स्वयम्भूरमणको छोड़ शेष समुद्राका क्षेत्रफल. (इसी प्रमाणको उत्पन्न करने की प्रक्रियाके विस्तारके लिये देखो गोम्मटसार जीवकांड सं. टीका व हिन्दी अनुवाद गाथा ५४७, पृ. ९६४ आदि.) स्वयम्भूरमणसमुद्रसे रहित शेष समुद्रोंके उक्त क्षेत्रफलमेसे मूल अर्थात् आदिके लवणोदधि और कालोदधि इन दो समुद्रोंके प्रतरात्मक संख्यात योजनप्रमाण क्षेत्रफलको घटाकर पुनः शेष राशिको प्रतरात्मक राजुके प्रमाणसे घटा देनेपर साधिक इकावन रूपोंसे जगप्रतरके खंडित करनेपर एक खंड आ जाता है। उदाहरण-र'-(२७ - २९ ल)- अधिक तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग तिर्यंच सासादन जीवोंका स्वस्थानक्षेत्र. www.jainelibrary Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, २५. भागमेतं तिरिक्खसासणसत्थाणखेत्तं होदि । सेसपदसासणसम्मादिट्ठीहि सव्वे दीव-समुद्दा पुचवेरियदेवसंबंधेण पुसिज्जति त्ति कट्ट जोयणलक्खबाहल्लं तप्पाओग्गवाहल्लं वा रज्जुपदरमुड्ढमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण दृइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि। 'वा' सदस्स अत्थो गदो । __ मारणंतियसमुग्धादगदेहि सत्त चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । तिरिक्खसासणा मेरुमूलादो हेट्ठा किण्ण मारणतियं करेंति त्ति वुत्ते णेरइएसु किण्ण उप्पज्जंति ? सभावदो। जदि एवं, तो हेट्ठा सभावदो चेत्र मारणंतियं ण मेलंति त्ति किण्ण घेप्पदे ? जदि सासणसम्मादिद्विणो हेट्ठा ण मारणंतियं मेलंति, तो तेसिं भवणवासियदेवेसु मेरुतलादो हेट्ठा विदेसु उप्पत्ती ण पावदि त्ति वुत्ते ण एस दोसो, मेरुतलादो हेट्ठा सासणसम्मादिट्ठीणं मारणंतियं णत्थि त्ति एवं सामण्णवयणं । विसेसदो पुण भण्णमाणे णेरइएसु हेट्ठिम उक्त एक खंडको तियंचोंके अवगाहनासम्बन्धी संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है। चूंकि, विहारवत्स्वस्थानादि शेष पदस्थित तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टियोंके द्वारा समस्त द्वीप और समुद्र पूर्वभवके वैरी देवोंके सम्बन्धसे स्पर्श किये गये हैं, इसलिए लक्ष योजन बाहल्यवाले अथवा तत्प्रायोग्य बाहल्यवाले राजुप्रतरके ऊपर की ओरसे उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग हो जाता है । इसप्रकारसे यह सूत्रपठित 'वा' शब्द का अर्थ हुआ। मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टियोंने कुछ कम सात बरे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं। शंका-तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सुमेरुपर्वतके मूलभागसे नीचे मारणान्तिकसमुद्धात क्यों नहीं करते हैं ? प्रतिशंका-यदि ऐसी शंका करते हैं, तो आप ही बताइए कि तियंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नारकियों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-वे नारकियों में स्वभावसे ही उत्पन्न नहीं होते हैं। प्रतिसमाधान- यदि ऐसा है तो सुमेरुपर्वतके मूलभागसे नीचे भी वे स्वभावसे मारणान्तिकसमुद्धात नहीं करते हैं, ऐसा क्यों नहीं स्वीकार कर लेते हैं ? शंका-यदि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मेरुतलसे नीचे मारणान्तिकसमुद्धात नहीं करते हैं तो मेरुतलसे नीचे स्थित भवनवासी देवोंमें उनकी उत्पत्ति भी नहीं प्राप्त होती है ? समाधान-उक्त शंकापर धवलाकार उत्तर देते हैं कि, यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, 'मेरुतलसे नीचे सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका मारणान्तिकसमुद्धात नहीं होता है। मह सामान्य अर्थात् द्रव्यार्थिकनयका वचन है। किन्तु विशेष अर्थात् पर्यायार्थिकनयकी Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २५. ] फोसणाणुगमे तिरिक्खको सण परूवणं [२०५ एदिए वाण मारणंतियं मेलति त्ति एस परमत्थो । कधमेत्थ देसूणतं ? ण ताव हेट्ठिमजोयणसहस्सेण ऊणा सत्त चोहसभागा, तिरिक्खसासणेहि भवणवासिएस मारणंतियं मेलमाणेहि तस्स विछुवणसंभवोवलंभादो । मेरुमूलादो हेट्ठा देसूणजोयणलक्खं फुसंताणं सासादणाणं सत्त- चोदस भागेहि सादिरेगेहि होदव्यमिदि । ण एस दोसो, छमग्गं पयदेहि पडिणिय उपपत्तिट्ठाणेहि तसजीवेहि निरंतरं ण सत्त रज्जू फुसिज्जति, तथा संभवासंभवा । सो वि कथं वदे ? देसूणवयणण्णहाणुववत्तदो । उववादस्स एक्कारह चोदसभागा पोसिदा त्ति वत्तव्यं । सुते अउत्तं कधमेदं णव्वदे ? कम्मइयकाय जोगिसासणाणमेक्कारह-चोद्दस विवक्षासे कथन करने पर तो वे नारकियों में अथवा मेरुतलसे अधोभ. गवर्ती एकेन्द्रियजीवों में मारणान्तिकसमुद्धात नहीं करते हैं, यही परमार्थ है । शंका-यांपर अर्थात् मारणान्तिकसमुद्ध/तगत सासादन सम्यग्दृष्टियों के क्षेत्रमें देशोनता अर्थात् कुछ कम सात बटे चौदह भागका कथन कैसे किया, क्योंकि, मेदतलके अधोभागवर्ती एक हजार योजनसे कम सात बटे चौदह ( ४ ) भाग तो माने नहीं जा सकते । इसका कारण यह है कि भवनवासियों में मारणान्तिकसमुद्धातको करनेवाले तिच सासादनसम्यग्दृष्टियों के द्वारा उसके भी छुए जानेकी संभावना पाई जाती है । इसलिए मेरुतलसे नीचे कुछ कम एक लक्ष योजन प्रमाण क्षेत्रको स्पर्श करनेवाले तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियों का मारणान्तिक स्पर्शनक्षेत्र साधिक सात बढे चौदह ( ) भाग होना चाहिए, न कि देशोन सात बटे चौदह भाग १ समाधान - यह कोई दोष नहीं । इसका कारण यह है कि छद्दों मार्गोंको प्रवृत्त, अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोदिशा सम्बन्धी छहों मार्गों से जानेवाले, एवं प्रतिनियत उत्पत्ति स्थानवाले सजीवोंके द्वारा निरन्तर सात राजु स्पर्श नहीं किये जाते हैं, क्योंकि, उस प्रकारकी संभावनाका अभाव है । शंका- यह भी कैसे जाना ? समाधान - ' देशोन' वचनकी अन्यथा अनुपपत्तिसे । अर्थात् यदि मारणान्तिकसमुद्रात करनेवाले सजीवोंके द्वारा निरन्तर सात राजु प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया जाता, तो सूत्र' देशोन' यह वचन नहीं दिया जाता । इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले त्रसजीवोंके द्वारा सात राजुके स्पर्श किये जानेकी निरन्तर संभावना नहीं है । उपपदपदको प्राप्त तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियोंने ग्यारह बटे चौदह ( १ ) भाग स्पर्श किये हैं, ऐसा कहना चाहिए । शंका-सूत्र में नहीं कही गई यह बात कैसे जानी जाती है ? Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, २६. भागपोसगपरूवयसुत्तादो', खुद्दाबंधम्मि उववादपरिणयसासणाणमेक्कारह-चोइसभागपोसणपरूवयसुत्तादो च णबदे । एत्थ महंते उववादपोसणखेत्ते संते मारणंतियफोसणमेव किमg परूविदं ? ण', एत्थ उववादविवक्खाए अभावादो । तदविवक्खा किणिबंधणा', सासणाणमेइंदिएसु अणुप्पज्जमाणाणं तत्थ मारणंतियविहाणणिबंधणा । तेण उववादस्स एक्कारह चोद्दसभागा फोसणमुवलब्भदे । ___ सम्मामिच्छादिडीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखे. ज्जदिभागों ॥२६॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणकाले सव्यपदपरूवणाए खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाणविहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धियपदहिदसम्मामिच्छादिट्ठीहि तीदाणागदकालेसु तिण्हं समाधान-कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके ग्यारह वटे चौदह (११) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके प्ररूपक आगे कहे जानेवाले इसी स्पर्शनप्ररूपणाके सूत्रसे, तथा खुदाबंधमें कहे गये उपपादपरिणत सासादनसम्यग्दृष्टियोंके ग्यारह बटे चौदह (११) भागप्रमाण स्पर्शन करनेकी प्ररूपणा करनेवाले सूत्रले जाना जाता है कि उपपादपदको प्राप्त तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियाने ग्यारह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं। शंका-उक्त प्रकारसे इतना अधिक उपपादपदका स्पर्शनक्षेत्र होते हुए भी यहां पर मारणान्तिक स्पर्शनक्षेत्र ही किसलिये प्ररूपण किया? समाधान-नहीं, क्योंकि यहां पर उपपादपदकी विवक्षाका अभाव है। शंका-उपपादपदकी विवक्षा न होनेका क्या कारण है ? समाधान-उपपादपदकी विवक्षा न होने का कारण एकेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होने चाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका उनमें मारणान्तिकसमुद्धातका विधान है। अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं, फिर भी वे उनमें मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं। इसलिए यहां पर उपपादकी विवक्षा नहीं की गई, और इसीलिए उपपादपदका ग्यारह बटे चौदह (११) भाग प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र प्राप्त हो जाता है। सम्यग्मिथ्यावृष्टि तियंचोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥२६॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालमें स्वस्थानादि सर्व पदसम्बन्धी सर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररू. पणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कयाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पांच पदोंवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंने भूत और भविष्य इन दोनों कालों में सामान्यलोक मादि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे १ कम्मइयकायजोगीसुxx सासणसम्मादिद्यहि xx एकारह चोदसमागा देसूणा । जी. फो. ९६.९८. २ म प्रती ' ण 'इति पाठो नास्ति । ३ प्रतिषु ' किण्णबंधणा' इति पाठः। ४सम्बग्मिण्याडष्टिमिलोंकस्यासंख्येयभागः। स.सि. १, ' Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २८. ] फोसणागमे तिरिक्खफोसण परूवणं | २०७ लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाहज्जादो असंखेज्जगुणो । एत्थ पज्जवट्ठियपरूवणा सासणपरूवणाए तुल्ला । असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २७ ॥ तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु त्ति महाधिकारो अणुवट्टदे । एदं सुतं वट्टमाणकालविसिड असजद सम्मादिट्ठि-संजदासंजदखेत्तं जदो परुवेदि, तदो एदस्स परूवणाए खेत मंगो । छ चोइसभागा वा देणा ॥ २८ ॥ असजद सम्मादिट्ठीहि सत्थाणपदे वट्टमाणेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो अदीदकाले पोसिदो । एदे असंजदसम्मादिट्टिणो सत्थाणपदे सव्वदीवेसु होंति, लवण-कालोदय-सयंभूरमणसमुद्देसु च । तम्हा सेससमुद्दखे तू गरज्जुपदरं एत्थ सत्थाणखेतं होदि । एदस्साणायणविधाणं पुत्रं व कादव्यं । विहार-वेदण-कसाय - वेउच्त्रियपदेसु वर्द्धता अदीदकाले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदि असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर पर्यायार्थिकनयकी स्पर्शनप्ररूपणा सासादनगुणस्थानकी स्पर्शनप्ररूपणा के तुल्य जानना चाहिए । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंचोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। २७ ।। 'तिर्यंचगतिमें तिर्यचोंमें' इस महाधिकार की यहांपर अनुवृत्ति होती है । चूंकि यह सूत्र वर्तमानकालविशिष्ट असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यचों के स्पर्शन क्षेत्रका प्ररूपण करता है, इसलिए इसकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान ही है । उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं || २८ ॥ स्वस्थानपदपर वर्तमान असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यचोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है । ये असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यच स्वस्थानस्वस्थानपदपर सर्व द्वीपों में होते हैं, तथा लवणसमुद्र, कालोदकसमुद्र और स्वयम्भूरमणसमुद्र में भी होते हैं । इसलिए शेष समुद्रोंके क्षेत्रसे हीन राजुप्रतर यहांपर स्वस्थानक्षेत्र होता है । इसके निकालने का विधान पूर्वके समान ही करना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रयिकसमुद्धात, इन पदोंपर वर्तमान जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन १ असंयत सम्यग्दृष्टिभिः संयतासंयतैर्लोकस्या संख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १,७. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, २८. भागं, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागं, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं फुसंति। कुदो ? पुव्ववेरियदेवपयोगदो जोयणलक्खबाहल्लं संखेज्जजोयणबाहल्लं वा रज्जुपदरं सयमदीदकाले फुसंति त्ति । मारणंतियपदे वट्टमाणेहि छ चोदसभागा देसूणा पोसिदा । कुदो ? अच्चुदकप्पादो उवरि तेसिमुप्पत्तीए अभावादो तत्थ गमणाभावा । ण च उप्पत्तिखेत्तमुल्लंघिय गमणं संभवदि, अइप्पसंगा। उवरि णवगेवज्जेसु मिच्छादिद्विणो जदि उप्पज्जंति, तो असंजदसम्मादिट्ठीणं संजदासंजदाणं च उप्पत्ती किमिदि ण होज्ज ? मिच्छादिट्टिणो दव्यलिंगेण उप्पज्जति चे, एदे वि दयलिंगेण चेव उप्पज्जंतु, ण कोवि दोसो। उप्पज्जंतु चे, ण, खेत्तस्स देसूणसत्त-चोदसभागत्तप्पसंगादो ? ण एस दोसो, जदि वि णवगेवज्जेसु दव्यलिंगिणो असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा च उप्पज्जति', तो वि सत्त चोदसभागा ण होति, माणुसखेत्तादो चेव तत्थुप्पत्तीदो। उववादगदेहि अदीदकाले तिण्हं लोगाणम लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे एक लाख योजन बाहल्यवाला अथवा संख्यात योजन बाहल्यवाला राजुप्रतररूप सर्वक्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमद्धातपदपर वर्तमान जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह भाग (६) स्पर्श किये हैं, क्योंकि, अच्युतकल्पसे ऊपर उनकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे वहांपर गमनका अभाव है । और, उत्पत्तिक्षेत्रको उल्लंघन करके गमन संभव नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायगा। शंका- अच्युतकल्पसे ऊपर यदि नवनवेयकोंमें मिथ्यादृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं, तो असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंकी उत्पत्ति क्यों नहीं होना चाहिए? यदि कहा जाय कि मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्यालिंगसे उत्पन्न होते हैं, तो ये भी द्रव्यलिंगसे ही उत्पन्न होवें, इसमें कोई दोष नहीं है। यदि कहा जाय कि वे नवौवेयकोंमें उत्पन्न होवें, सो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, फिर स्पर्शनक्षेत्रके देशोन सात बटे चौदह ( ट ) भाग प्रमाण होने का प्रसंग प्राप्त होगा ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यद्यपि नवौवेयकों में द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव उत्पन्न होते हैं, तो भी सात बटे चौदह (४) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, उन नवग्रैवेयकोंमें मनुष्यक्षेत्रसे ही उत्पत्ति होती है। अर्थात् उनमें मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं, तिर्यंच नहीं। उपपादगत असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवोंने अततिकालमें सामान्य १ प्रतिषु ' तस्स ' इति पाठः। २ णरतिरिय देस-अयदा उक्कस्सेणच्चुदो ति णिम्गंथा। णर अयद-देस-मिच्छा गेवेज्जतो ति गच्छति ॥ त्रि. सा. ५४५. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, २८.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफासणपरूवणं संखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । तं जहा-तिरिक्खेसु तिरिक्ख-देव-णेरइयसम्मादिट्ठिणो ण उप्पज्जति ति। कुदो? सहावादो। मणुसखइयसम्मादिट्टिणो चेव उप्पज्जति, पुव्वं मिच्छत्तसंसिदेहि बद्धतिरिक्खाउअत्तादो । ते वि भोगभूमीसु चेव उप्पज्जति, दाणादिसयलदसधम्मे विज्जमाणाणुमोदादो। तेण सयंपहपव्वदोवरिमभागो सव्वो चेव उववादपरिणदसम्मादिट्ठीहि पुसज्जदि त्ति तस्साणयणविधाण वुच्चदे- सयंपहपव्वदादो परभागो दोहि वि पासेहि रज्जुपंचट्ठभागो रज्जूए तप्पाओग्गा संखेज्जा भागा वा होति । तेसु रज्जुविक्खंभम्हि फेडिदेसु अवसेसा तिण्णि अट्ठभागा रज्जूए संखेज्जदिभागो वा होदि । एदेण विक्खंभायामेण हिदसम्मादिट्ठिउववादखेत्तं विक्खंभवग्गदसगुणकरणी वट्टस्स परिट्ठओ होदि । विक्खंभचउब्भागो परिठयगुणिदो हवे गणिदं ॥ ८॥ एदीए गाहाए पदरागारेण कदे जगपदरं अट्ठसत्तावण्णभागब्भहियचालीसोत्तरचदुहि सदेहि खंडिद-एयभागो सादिरेगो आगच्छदि, तप्पाओग्गसंखेज्जरूवेहि छिण्णेग लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। वह इस प्रकारसे है-तिर्यंचों में तिर्यंच, देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव ही है। केवल क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, उन्होंने पूर्व में मिथ्यात्वसे संसिक्त परिणामोंके द्वारा तिर्यच आयुको बांध लिया है। सो वे भी जीव भोगभूमिके तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोंकी दान आदि समस्त दश धर्मों में अनुमोदना विद्यमान रहती ही है। इसलिए स्वयंप्रभ पर्वतका उपरिम सर्व भाग उपपादपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यच जीवोंके द्वारा स्पर्श किया गया है, अतः उसके निकालनेके विधानको कहते हैं स्वयंप्रभ पर्वतसे परभागवर्ती क्षेत्र दोनों ही पाश्चोंसे राजुके पांच बटे आठ (४) भाग अथवा राजुके तत्प्रायोग्य संख्यात बहुभाग प्रमाण होता है । उन भागोंको राजुके विष्कम्भमेसे घटा देने पर तीन बटे आठ (1) भाग अवशेष क्षेत्र अथवा राजुका संख्यातयां भागप्रमाण होता है । इस विष्कम्भ और आयामसे स्थित सम्यग्दृष्टिके उपपादक्षेत्रको विष्कम्भका वर्गकर उसे दशसे गुणा करके उसका वर्गमूल निकाले, वही वृत्त अर्थात् गोलाकृति क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण हो जाता है। पुनः विष्कम्भके चतुर्भागसे परिधिको गुणा करने पर क्षेत्रफल हो जाता है ॥ ८॥ इस गाथासूत्रके अनुसार प्रतराकारसे करनेपर आठ बटे सत्तावन भागसे अधिक चार सौ चालीस (४४०५) भागोंसे खंडित सातिरेक एक भागप्रमाण जगप्रतर होता है। १ त्रि. सा. ९३. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, २८. भागो वा । तं उस्सेधसंखेज्जंगुलेहि गुणिदे तिरिक्खसम्मादिट्ठिउववादखेत्तं होदि । संजदासंजदेहि सत्थाणपदट्ठिएहि तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरिय लोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादा असंखेज्जगुणो । एत्थ सत्थाणखेत्तमाणिज्जमाणे तिरिक्षसम्मादिहिउववादपदरखेच मुस्सेधगुणगारवज्जिदं रज्जुपदरम्हि अवणिदे जगपदरं सादिरेय पंच पंचासरूहि भजिएगभागो आगच्छदि । तं संखेज्जुस्सेधंगुलेहि गुणिदं संजदासंजदसत्थाणखेतं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं होदि । विहारवादसत्थाण- वेदण-कसाय वेडव्वियपरिणदेहि संजदासंजदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइ उदाहरण– विष्कम्भ है। = १९ ३ १ ५७ X X = १६ ३२ ४९ - २५०८८ ४४० N ३ ३ १० ३ १ N९० ३ १ ८ ८ १ ३२४९ x X X x X X ६४ ३२ ४९ 3x12x12 तिर्यच सम्यग्दृष्टियों के ४४० उपपादका क्षेत्रफल. विशेषार्थ - यहां उपलब्ध भागप्रमाणको सातिरेक कहनेका अभिप्राय यह है कि जो ६ का वर्गमूल १६ ले लिया गया है वह यथार्थ वर्गमूलसे कुछ अधिक हो गया है जिससे भागद्दार कुछ बढ़ गया है । पहले इसी विष्कम्भको लेकर परिधिके भिन्न प्रमाण द्वारा भिन्न क्षेत्रफल निकाला गया है । (देखो पृ. १६९. ) अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंसे भाजित जगप्रतरका एक भाग आता है । उसे संख्यात उत्सेधांगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्येच सम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपादक्षेत्र हो जाता है । स्वस्थानस्वस्थानपद स्थित संयतासंयत तिर्थचोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यहां स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रको निकालनेपर उत्सेधगुणकार से रहित तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टियों के उपपाद प्रतरक्षेत्रको राजुप्रतर में से घटा देनेपर साधिक पचपन रूपसे भाजित एक भाग जगप्रतर आता है । उदाहरण - तिर्यच सम्यग्दृष्टियोंका उपपादप्रतरक्षेत्र : 1 र७ ८ ५७ = र७२ ५७x४९ २५०८८ ८ ५७ ६ १ = ५७x४९ ४५५ २५०८८ = उसे संख्यात उत्सेधांगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्येच संयतासंयतोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है, जो कि तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र होता है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत तिर्यच संयतासंयत जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका ५१२ ५५६५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ३०. ] फौसणाणुगमे तिरिक्खफोसण परूवणं [२११ जादो असंखेज्जगुणो अदीदकाले फोसिदो । कुदो ? संजदासंजदाणं वेरियदेवसंबंधेण जोयणलक्खबाल्लं तिरियपदरस्स अदीदकाले पोसो अस्थि ति । मारणंतियसमुग्धादगदेहि संजदासंजदेहि छ चोदसभागा देसूणा फोसिदा, तिरिक्ख संजदासंजदाणमच्चदकप्पो चि मारणंतिएण गमणसंभवादो । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त जोणिणीसु मिच्छादिहीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २९ ॥ एदं सुतं वट्टमाणकाल संबंधि त्ति एदस्स परूवणाए खेत्त भंगो । सव्वलोगो वा ॥ ३० ॥ 4 परिसेसादो एदं सुतं तीदाणागदकालसंबंधी । एत्थ ताव वा ' सद्दट्ठो उच्चदेति-विसेसणविसिसत्थाणतिरिक्खमिच्छादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एदं खेत्तमाणिज्जमा असंखेज्जे समुद्देसु भोगभूमिपडि भागदीवाण मंतरेषु द्विदेसु सत्थाणपदद्विदतिविहा तिरिक्खा संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है, क्योंकि, संयतासंयत तिर्यचोंका वैरी देवोंके हरणसम्बन्धसे एक लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यक्प्रतरका अतीतकाल में स्पर्श किया गया है। मारणान्तिकसमुद्धातगत तिर्यच संयतासंयतोंने कुछ कम छह बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, तिर्यच संयतासंयतों का अच्युतकल्प तक मारणान्तिकसमुद्धात से गमन संभव है । पंचेन्द्रियतिर्यच, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतियंच योनिमतियों में मिध्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। २९ ।। यह सूत्र वर्तमानकालसम्बन्धी है, इसलिए इसकी स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान जानना चाहिए । उक्त तीनों प्रकारके सियंच जीवोंने अतीत और अनागत कालमें सर्वलोक स्पर्श किया है ।। ३० ।। " पारिशेषन्याय से यह सूत्र भूत और भविष्यकालसम्बन्धी है। यहांपर पहले 'वा'' शब्दका अर्थ कहते है-पंचेन्द्रियतिर्यच, पंचेद्रियतिर्यचपर्याप्त और योनिमती इन तीन विशे. क्षणों से विशिष्ट स्वस्थानपदस्थित तिर्येच मिथ्यादृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातषां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इस क्षेत्रको निकालने पर असंख्यात समुद्रों में और भोगभूमिके प्रतिभागरूप द्वीपोंके अन्तरालों में स्थित क्षेत्रों में स्वस्थानपद स्थित उक्त तीन प्रकारके तिर्यच नहीं हैं, इसलिए इस Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२.1 छक्खडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ३०. णत्थि त्ति एदं खेत्तं पुव्वविधाणेणाणिय रज्जुपदरम्हि अवणिय संखेज्जसूचिअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं पंचिंदियतिरिक्खतिगमिच्छादिद्विसत्थाणखेत्तं होदि । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्बियपदपरिणदतिविहमिच्छादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागो अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। कुदो ? मितामित्तदेववसेण सव्वदीव-सागरेसु संचरणं पडि विरोहाभावादो । तेणेत्थ संखेजगुलवाहल्लं तिरियपदरमुड्डमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे पंचिंदियतिरिक्खतिगमिच्छादिट्टिविहारवदिसत्थाणादिखेतं तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेत्तं होदि। 'वा' सट्टो गदो। मारणंतिय-उववादगदपंचिंदियतिरिक्खतिगमिच्छादिट्ठीहि सबलोगो पोसिदो । लोगणालीए बाहिं तसकाइयाणमसंभवादो सव्वलोगो त्ति वयणं कधं घडदे ? ण एस दोसो, मारणंतिय-उववादविदतसजीवे मोत्तूण सेसतसाणं बाहिरे अत्थित्तप्पडिसेहादो। क्षेत्रको पूर्वविधानसे लाकर और राजुप्रतरमेसे घटाकर संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवें भागप्रमाण पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्त और योनिमती इन तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है । विहारवतस्वस्थान, वेदना कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत उक्त तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्याल वां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, पूर्वभवके मित्र या शत्रुरूप देवों के घशसे सर्व द्वीप और सर्व समुद्रोंमें संचार (विहार) करने के प्रति कोई विरोध नहीं है। इसलिए यहांपर संख्यात अंगुल बाहल्यवाले तिर्यक्प्रतरको ऊपरसे उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यच जीवोसम्बन्धी विहारवत्स्वस्थान आदिका क्षेत्र हो जाता है, जो कि तिर्यग्लोकका संख्यातका भागमात्र होता है । इस प्रकारसे 'वा' शब्दका अर्थ हुआ। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदगन पंचेन्द्रिय तिर्यच आदि तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंच जीवाने सर्वलोक स्पर्श किया है। है शंका- लोकनालीके बाहिर त्रसकायिक जीवोंके असंभव होनेसे सर्वलोक स्पर्श किया है ' यह वचन कैसे घटित होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपक्षस्थित सजीवों को छोड़कर शेष सजीवोंका सनाली बाहिर अस्तित्वका प्रतिषेध किया गया है। १ उववाद-मारणंतियपरिणदतसमुझिउण सेस तसा । तसणालि बाहिरम्हि य णस्थि विजिणेहिं णिदिई ।। गो. जी. १९९. For Private & Personal use only www.jainelibrary Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ३२.] फोसणाणुगमे तिारक्खफोसणपरूवणं [२१३ सेसाणं तिरिक्खगदीणं भंगो ॥ ३१ ॥ सेसाणमिदि उत्ते सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिद्वि-संजदासंजदा घेत्तव्वा, अण्णेसिमसंभवादो । एक्किस्से तिरिक्खगदीए तिरिक्खगदीणमिदि बहुत्तणिद्देसो कधं घडदे ? ण एस दोसो, एकिस्से वि तिरिक्खगदीए गुणट्ठाणादिभेएण बहुत्तविरोहाभावादो। एदेसि चदुण्हं गुणहाणाणं परूवणा वट्टमाणकाले खेत्तसमाणा । अदीदकाले एदेसि तिरिक्खोघपरूवणाए तुल्ला। णवरि जोणिणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उववादो णत्थि, एत्तिओ चेव विसेसो । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ३२॥ वट्टमाणकाले सत्थाण-वेदण-कसायपदे वट्टमाणपंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । मारणतियउववादपदेहि तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो । शेष तियंचगतिके जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ ३१ ।। 'शेष' ऐसा पद कहने पर सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य तिर्यचोंका ग्रहण करना असंभव है। शंका---एक ही तिर्यंचगतिके होने पर 'तिरिक्खगदीणं' यह बहुवचनका निर्देश कैसे घटित होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, एक तिर्यंचगतिसामान्यके होने पर भी गुणस्थान भादिके भेदसे बहुत्वके होने में कोई विरोध नहीं है। इन उक्त चारों गुणस्थानोंकी स्पर्शनप्ररूपणा वर्तमानकालमें क्षेत्रके समान है और इन्हीं चार गुणस्थानवर्ती तिर्यचौकी अतीतकालिक स्पर्शनप्ररूपणा तिर्यंचोंकी ओष स्पर्शनप्ररूपणाके तुल्य है। किन्तु योनिमतियों में भसंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद नहीं होता है, इतनी मात्र ही विशेषता है। पंचेन्द्रियातियंच लब्ध्यपर्याप्त जीवोंने कितनाक्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असं. ख्यातवा भाग स्पर्श किया है ॥ ३२ ॥ वर्तमानकाल में स्वस्थान स्वस्थाम, घेदमा, और कषायसमुद्धात, इन पदोंपर वर्तमान पंचोद्रियतिथंच अपर्यातकोंने सामान्यलोक आदि बार लोकोंका असंख्यातवां भाग और भढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदवाले पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंचोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका मसंख्यातयां भाग और मनुष्यलोक तथा तियरलोक, इन दोनों लोकोसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ३३. सव्वलोगो वा ॥ ३३॥ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेत्ति अणुवट्टदे । एत्थ ताव 'वा' सहवो उच्चदेसत्थाण-वेदण-कसायपदगदेहि पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? अड्डाइज्जदीव-समुद्देसु कम्मभूमिपडिभागे सयंपहपव्यदपरभागे च तेसिं संभवादो । अदीदकाले सयंपहपधदपरभागं सव्वं ते पुसंति त्ति तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेत खेतं होदि । तस्साणयणविधाणं वुच्चदे--सयंपहपव्यदभंतरखेत्तं जगपदरस्त संखेजदिभागं रज्जुपदराम्हि अवणिदे सेसं जगपदरस्स संखेज्जदिभागो होदि । तं संखेजसूचिअंगुलेहि गुणिदे' तिरियलोगस्स संखेजदिभागो होदि । अपज्जत्ताणमंगुलासंखेज्जदिभागोगाहणाणं कधं संखेज्जंगुलुस्सेधो लब्भदे ? ण, मुअपंचिंदियादितसकलेवरेसु अंगुलस्स संखेजदिभागमादि कादण जाव संखेज्जजोयणाणि त्ति कमवड्डीए हिदेसु उप्पञ्जमाणाणमयञ्जत्ताणं संखेज्जंगुलुस्सेधं पडि विरोहाभावादो। अधवा सव्वेसु दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्ख पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ३३ ॥ इस सूत्रमें 'पंचेन्द्रियतिर्यचअपर्याप्त' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। अब यहांपर 'घा' शब्दका अर्थ कहते हैं- स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात, इन पदोंको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातघां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, भढाईद्वीप और दो समुद्रोंमें, तथा कर्मभूमिके प्रतिभागवाले रवयंप्रभपर्वतके परभागमें पंचे. न्द्रियतिथंच लमध्यपर्याप्त जीवोंका होना सम्भव है। अतीतकालमें स्वयंप्रभपवर्तके सम्पूर्ण परभागको घे जीव स्पर्श करते हैं, इसलिए वह क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र होता है। अब उस क्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं- स्वयंप्रभपवर्तका आभ्यन्तर क्षेत्र जगप्रतरके संख्यातवें भागप्रमाण है। उसे राजुप्रतरमेंसे घटा देनेपर शेष क्षेत्र जगप्रतरका संख्यातमा भाग होता है। उसे संख्यात सूव्यंगुलोले गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका संण्यातवां भाग हो जाता है। - शंका- अंगुलके असंख्यातवे मागमात्र अवगाहनवाले लध्यपर्याप्तक जीवोंके संस्थात भंगुलप्रमाण उत्सेध कैसे पाया जा सकता है? समाधान -नहीं, क्योंकि, मृत पंचेन्द्रियादि सजीयोंके अंगुप्लके संख्यासवे भागको आदि करके संस्पात योजनों तक क्रमवृद्धिसे स्थित शरीरों में उत्पन्न होनेवाले लयपर्याप्त मीवोंके संख्यात अंगुल उत्सेधके प्रति कोई विरोध नहीं है। अथवा, सभी द्वीप और समुद्रोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच लध्यपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि १ प्रतिषु ' गणिदेहि ' इति पाठः । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ३३.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [२१५ अपज्जत्ता अस्थि । कुदो, पुव्ववेरियदेवसंबंधेण एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढकम्मभूमिपडिभागुप्पण्णओरालियदेहमच्छादीणं सबदीव-समुद्देसु संभवोवलंभादो । महामच्छोगाहणम्हि एगबंधणबद्धछज्जीवणिकायाणमत्थित्तं कधं णव्वदे ? वग्गणम्हि उत्त. अप्पाबहुगादो । तं जहा- 'सव्वत्थोवा महामच्छसरीरे पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तसकाइयजीवा । तेउकाइया जीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। पुढविकाइया जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जलोगमेत्तो । तेसिं पडिभागो वि असंखेज्जलागमेत्तो । एवं आउकाइया विसेसाहिया । वाउकाइया विसेसाहिया । वणप्फइकाइया अणंतगुणा त्ति' । ण च सव्वे ते पज्जत्ता चेव, तसअपज्जत्ताणं पि' तेउ. काइयाणं च संभवादो। ण च मुदसरीरे चेव पंचिंदियअपज्जत्ताणं संभवो ति वोत्तुं जुत्तं, तस्स विधाययसुत्ताभावा । महामच्छादिदेहे तेसिमत्थित्तस्स सूचगं पुण इदमप्पाबहुगसुत्तं होदि । तसपज्जत्तरासीदो तसअपज्जत्तरासी असंखेज्जगुणो । तेण जत्थ तसजीवाणं पूर्वभवके वैरी देवोंके सम्बन्धले एक बंधन में बद्ध षट्कायिक जीवोंके समूहसे व्याप्त और कर्मभूमिके प्रतिभागमें उत्पन्न हुए औदारिकदेहवाले महामच्छादिकोंकी सर्वद्वीप और समुद्रों में संभावना पाई जाती है। शंका-महामच्छकी अवगाहनामें एक बन्धनसे बद्ध षट्कायिक जीवोंका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान-वर्गणाखंडमें कहे गये अल्पबहुत्वानुयोगद्वारसे जाना जाता है । वह इस प्रकार है- 'महामत्स्यके शरीरमें सबसे कम जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र त्रसकायिक जीव होते हैं । उन लकायिक जीवोंसे तेजस्कायिक जीव असंख्यातगुणे होते हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। तेजस्कायिक जीवोंसे पृथिवीकायिक जीव विशेष अधिक होते हैं। कितने प्रमाण विशेषले अधिक होते हैं ? असंख्यात लोकमात्र विशेषसे अधिक होते हैं। उनका प्रतिभाग भी असंख्यात लोकमात्र होता है। इसी प्रकारसे पृथिवीकारिक जीवोंसे अप्कायिक जीव विशेष अधिक होते हैं । अप्कयिक जीवोसे वायुकायिक जीव विशेष अधिक होते हैं और वायुकाायक जीवोंसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे होते हैं।' ___ महामच्छके शरीरमें ऊपर कहे गये ये सब जीव केवल पर्याप्त ही नहीं होते हैं, किन्तु उसके शरीरमें त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीव और तेजस्कायिक जीवोंका भी होना संभव है। तथा मृत शरीर में ही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीव संभव हैं ऐसा भी कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, इस बातके विधायक सूत्रका अभाव है। किन्तु महामच्छादिके देहमें उनके अस्तित्वका सूचक यही उक्त अल्पबहुत्वसूत्र है। त्रसपर्याप्तराशिसे त्रसअपर्याप्तराशि असंख्यातगुणी होती है, इसलिए जहां पर त्रसजीवोंकी १ प्रतिषु वी हि ' इति पाठः। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ३४ संभवो होदि, तत्थ सव्वत्थ वि पज्जत्तेहिंतो अपज्जत्ता असंखज्जगुणा होति । तम्हा संखेज्जंगुलबाहल्लं तिरियपदरमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेतं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तसत्थाण-वेदण-कसायखेत्तं होदि । 'वा' सट्ठो गदो । मारणंतिय-उववादगदेहि सबलोगो पोसिदो, सव्वत्थ गमणागमण पडि विरोहाभावा । मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठीहि केव डियं खेत्त पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ३४ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्ताणिओगद्दारे परूविदो त्ति णेह परूविज्जदे । सव्वलोगो वा ॥३५॥ एत्थ ताव 'वा' सद्दट्ठो उच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायवेउव्यियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो, तीदाणागदकालेसु वेरियदेवसंबंधेण वि माणुसोत्तरसेलादो परदो गमणाभावा । माणुसखेत्तस्स पुण संखेज्जदिभागो संभावना होती है वहां पर सर्वत्र ही पर्याप्त जीवोंसे अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे होते हैं। अतएव संख्यात अंगुल बाइल्यवाले तिर्यकप्रतरके उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करने पर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीवोंका स्वस्थान वेदना और कषायसमुद्धातगत क्षेत्र होता है। इस प्रकारसे 'वा' शब्दका अर्थ समाप्त हुआ। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, उनके सर्व लोकमें गमनागमनके प्रति विरोधका अभाव है। मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ३४ ॥ इस सूत्रका अर्थ क्षेत्रानुयोगद्वारमें प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यहांपर पुनः प्ररूपण नहीं किया जाता है। मिथ्यादृष्टि मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ३५ ॥ अब यहांपर पहिले 'वा' शब्दका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातसे परिणत उपर्युक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकों का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है, क्योंकि, अतीत और अनागतकालमें वैरी देवोंके सम्बन्धसे भी मानुषोत्तर शैलसे परे मनुष्यों के गमनका अभाव है। किन्तु मनुष्यक्षेत्रका १ मनुष्यगतौ मनुष्यर्मियादृष्टिमिर्लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा स्पृष्टः। स. सि. १,८. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ३७ ] फोसणाणुगमे मणुस्सफोसणपरूवणं __ . [ २१७ मिच्छादिट्ठीणं आगासगमणादिविसत्तिविरहिदाणं जोयणलक्षवाहल्लेण फासाभावादो.। अधवा सव्वपदेहि माणुसलोगो देसूणो पोसिदो, पुव्ववेरियदेवसंबंधेण उड्डूं देसूणजोयणलक्खुप्पायणसंभवादो । एसो 'वा' सद्दट्ठो। मारणंतिय-उववादगदेहि सव्वलोगो पोसिदो, सबलोगे गमणागमणे विरोहाभावादो। ___सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं,लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥३६॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं परूविदो।। सत्त चोदसभागा वा देसूणा ॥ ३७ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण वेदण-कसाय-उब्बियसमुग्घादगदेहि सासणसम्मादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो। माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । अधवा विहारादि-उवरिमपदेहि माणुसखेत्तं देसूर्ण पोसिदं । केण ऊणं ? चित्त ....... संख्यातवां भाग स्पर्श किया है, क्योंकि, आकाशगमनादि विशिष्ट शक्तिसे विरहित मिथ्यादृष्टि जीवोंके एक लाख योजनके बाहल्यसे सर्वत्र स्पर्शका अभाव है। अथवा, सर्व पदोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि मनुष्योंने देशोन मनुष्यलोकका स्पर्श किया है, क्योंकि, पूर्वभवके वैरी देवोंके सम्बन्धसे ऊपर कुछ कम एक लाख योजन तक उनका जाना आना संभव है। इस प्रकार यह 'वा' शब्दका अर्थ समाप्त हुआ। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदगत उक्त तीनों प्रकारके मनुष्य मिथ्याष्टि जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, इन दोनों पदोंकी अपेक्षा सर्वलोकके भीतर जाने आने में कोई विरोध नहीं है। मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्पनी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ३६ ॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है। मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ३७॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत सासा' दनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकों का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है, तथा मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। अथवा, विहारवत्स्वस्थानादि ऊपरके पदोंकी अपेक्षा देशोन मनुष्यक्षेत्रको स्पर्श किया है। शंका-यहां देशोन पदसे कितना कम क्षेत्र विवक्षित है ? १ सासादनसम्यग्दृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः सप्त चतुर्दशमागा वा देशोनाः । स. सि. १, ८. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १, ३७. कुलसेल-मेरुपव्वद-जोइसावासादिणा । माणुसेहि अगम्मपदेसस्स तस्स कधं माणुसखेत्तववएसो १ ण, लद्धिसंपण्णमुणीणमगम्मपदेसाभावा । मारणंतियसमुग्धादगदेहि सत्त चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । किं कारणं ? सासणाणं मारणंतिएण भवणवासियलोगादो हेट्ठा गमणाभावादो, उवरि सव्वत्थ मारणंतिएण गमणसंभवादो । उववादगदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो; तिरियलोगस्स संखेजदिभागो पोसिदो । ण ताव णेरइय सासणाणं मणुसेसुप्पज्जमाणाणं पोसणं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि, दुक्खंभदुबाहुखेत्तफलस्स गेरइयअसंजदसम्मादिट्ठिमारणंतियखेत्तफलस्सेव तिरियलोगासंखेज्जदि. भागत्तुवलंभादो । णादीदकाले अट्ठरज्जुमाऊरिय हिददेवसासणाणं मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणमुववादपोसणं तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागो होदि, छकावक्कमणियमबलेण पणदालीस समाधान-चित्रापृथिवी, कुलाचल, मेरुपर्वत और ज्योतिष्क आवास आदिसे हीन प्रदेश विवक्षित है। शंका-मनुष्योंसे अगम्य प्रदेशवाले इस कुलाचल आदिके क्षेत्रको ‘मनुष्यक्षेत्र' यह संज्ञा कैसे प्राप्त है ? . समाधान-नहीं, क्योंकि, लब्धिसम्पन्न मुनियों के लिए (मनुष्यलोकके भीतर) अगश्य प्रदेशका अभाव है। मारणान्तिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि मनुप्योंने कुछ कम सात बटे चौदह (१५) भाग स्पर्श किये हैं। इसका कारण यह है कि सासादनसम्यग्दृष्टियोंका मारणान्तिकसमुद्धातके द्वारा भवनवासियों के निवासलोकसे नीचे गमन नहीं होता है । किन्तु ऊपर सर्वत्र मारणान्तिकसमुद्धातके द्वारा गमन संभव है। उपपादगत उक्त तीनों प्रकारके सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। __ शंका- मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले नारकी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग नहीं होता, क्योंकि, (असंख्यात योजन विस्तृत श्रेणीबद्धादि बिलोंके) अपने दोनों ओरके दंडाकार व भुजाकार क्षेत्रोंका क्षेत्रफल', नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि आन्तिकक्षेत्रफलके समान, तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। और न अतीतकाल में ही आठ राजुप्रमाण क्षेत्रको व्याप्त करके स्थित और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका उपपादसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां १'दुक्खंभदुबाहुखेत्तफलस्स' इस पदका अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं हुआ। प्रायः यही पद पहले भी आ चुका है । (देखो पृ, १८७.) इस पदकी यथाशक्य सार्थकता निकालकर अर्थ कर दिया गया है । संभव है ये उक्त नरकके बड़े से बड़े बिलों के नाम हो । त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें बिलों के नाम इस प्रकारके मिलते हैं, किन्तु ये नाम हमें अभी तक नहीं मिले । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ३७ ] फौसणाणुगमे मणुस्सफोसणपरूवणं जोयणलक्खविक्खंभ-अट्ठरज्जुस्सेहचदुपाणालीसु मणुअलोगमागच्छंताणमुववादखेत्तफलस्स तिरियलोगादो संखेज्जगुणत्तुवलंभादो। ण तिरिक्खेहिंतो मणुस्सेसुप्पज्जमाणसासणाणमुववादखेत्तं पि तिरियलोगस्स संखेजदिभागो होदि, तत्थ वि चदुहि चेव पंथेहि आगमणदंसणादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे-ण ताव णेरइयसासणे अस्सिदूण उत्तदोसो, तण्णिबंधणुववादफोसणबलेण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्ताणभुवगमादो । ण देवसासणे अस्सिदूण उत्तदोसो वि, अट्ठरज्जुस्सेहलोगणालीए समचउरस्साए अंतोहिददेवसासणाणं हेट्ठिम-उवरिमाणं च कंडुज्जुवाए गईए चढणोयरणवावारेण मणुवलोगपणिधिमार्गदूग एग-दोविग्गहं करिय मणुसेसुपज्जमाणाणं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तफोसणस्सुवलंभादो । तिरिच्छं गंतूग विग्गहं करिय देवसासणा मणुसेसु किण्ण उप्पजंति ? मणुसगइविरहियदिसाए सहावदो चेव तेसिं गमणाभावादो। ण च मणुसगइसंमुहमागंतूण विग्गहं करिय मणुस्सेसुप्पण्णाणं खेत्तं बहुअमुवलब्भइ, तक्खेत्तस्स तिरियलोयस्स संखे भाग होता है, क्योंकि, भवान्तरमें संक्रमणके समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे, इसप्रकार छह दिशाओंमें गमनागमनरूप षट् अपक्रम-नियमके बलसे पैंतालीस लाख योजन विष्कम्भवाले व आठ राजु उत्सेधवाले क्षेत्रमें चारों ओरसे मनुष्यलोकको आनेवाले औषोंका उपपादसम्बन्धी क्षेत्रफल, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा पाया जाता है। और न तिर्यंचोंसे मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोका उपपादक्षेत्र भी तिर्यग्लोकका संख्याता भाग होता है, क्योंकि, वहां पर भी चारों ही दिशाओंके मार्गौसे आगमन देखा आता है? समाधान-अब उपर्युक्त आशंकाका परिहार करते है-न तो नारकी सासादन, सम्याधियों को आश्रय करके उक्त दोष प्राप्त होता है, क्योंकि, तनिमित्तक उपपादसम्बन्धी स्पर्शनके बलसे तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग नहीं स्वीकार किया गया है। और न देख सासादनसम्यग्हष्टियोंका आश्रय करके भी उक्त दोष प्राप्त होता है, क्योंकि, आठ राजु उत्सेधवाली समचतुरस्त्र लोकनालीके अन्तःस्थित देव सासादनसम्यग्दृष्टियोंका और अधस्तन तथा उपरिम जीवोंका भी बाणकी तरह सीधी गतिसे चढ़ने और उतरनेरूप व्यापारसे मनुष्यलोककी प्रणिधि (तट) को आकर और एक या दो विग्रह करके मनुष्यामें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र स्पर्शन पाया जाता है। का-तिरछे जाकर पनः विग्रह करके सासादनसम्यग्दृष्टिदेव, मनुष्यों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-मनुष्यगतिसे रहित दिशामें स्वभावसे ही उनका गमन नहीं होता है। -- तथा, मनुष्यगति के सम्मुख आकर और विग्रह करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंका भी क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि, उस क्षेत्रके तिर्यग्लोकके संख्यातवें Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] छक्खडागमे जीवाणं [ १, ४, ३८. ज्जदिभाग पहाणत्तादो । तम्हा एवंविहणियमवसेण तलफोसणमेत्तस्सेव संगहो कायन्त्रो । सोववादिणो देवसासणा मूलसरीरं पविसिय कालं करेंति त्ति भणताणमभिप्पायेण तिरियलोयस्स संखेज्जदिभागमेत्तमेदं फोसणं समत्थेदव्वं । तिरिक्खसासणेसु मणुस्मे सुपज्ज माणेसु वितिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसणमुवलब्भइ, तिरिक्खसासणसम्माइट्ठी चउग्गईसुप्पज्जमाणाणं तिरिक्ख भवाभिमुहसेस गइजीवाणं च तिरिच्छं गंतूग विग्गहं करिय उत्पत्तिदंसणादो । अतएव च ' तिरोऽञ्चन्तीति तिर्यञ्चः ' । एदेसिमेवंविहा गई अस्थि ति कुदो वदे ? देवसासणोववादस्स पंच- चोइस भागपोसण परूवणष्णहाणुत्रवती दो । तदा ण पुव्वत्तदोसप्पसंगो ति सद्दयव्वं । सम्मामिच्छाइट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ३८ ॥ " सम्मामिच्छाद्वीणं वट्टमाणकाले सगसन्पदेहि खेत्तमंगो । सत्थाणपद ट्ठिएहि चन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । विहारवदि भागकी ही प्रधानता है। इसलिए इसप्रकार के नियमके वशसे मेरुके तलभाग के स्पर्शनमात्रका ही संग्रह करना चाहिए। मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले देव सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मूलशरीर में प्रवेश करके मरण करते हैं, ऐसा कहने वाले आचार्योंके अभिप्राय से तिर्यग्लोकका संख्यात भागमात्र स्पर्शन होता है, ऐसा समर्थन करना चाहिए। तथा तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियों में और मनुष्यों में भी उत्पन्न होने वाले जीवोंमें तिर्यग्लोक संख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है, क्योंकि, चारों गतियों में उत्पन्न होने वाले तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियों के और तिर्यचभव के अभिमुख शेष गतिके जीवोंके तिरछे जाकर और विग्रह करके उत्पत्ति देखी जाती है । और इसीलिए वे ' तिरछे जाते हैं अतएव तिर्यच हैं' ऐसी व्युत्पत्ति की गई है । शंका- इन तिर्यचौकी इस प्रकारकी तिरछी गति होती है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - अन्यथा देव सासनसम्यग्दृष्टियोंके उपपादसम्बन्धी पांच बटे चौदह ( ) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र की प्ररूपणा नहीं हो सकती थी । इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं प्राप्त होता है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए । मनुष्यों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थ न तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ३८ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्यों का वर्तमानकालमें स्पर्शनक्षेत्र अपने सर्व पदोंकी अपेक्षा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । स्वस्थानस्वस्थान पदस्थित उक्त गुणस्थानवर्ती मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श १. सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यादीनामयोग केवल्यन्ताना क्षेत्रवत्स्पर्शनम् । स. सि. १,८० Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ३८. ] फोसणागमे मणुस्फोसणपरूवर्ण [ २२१ सत्था-वेद कसाय - उब्वियपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेनस्स संखेज्जदिभाग पोसिदो । अदीदाणागदवद्यमाणकालेसु मणुस असंजदसम्मादिडीणं मणुससमामिच्छादिभिंगो । वरि मारणंतिय समुग्धादगदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदि भागो पोसिदो । तं कथं । मणुससम्मादिट्ठिदेवेसु मारणंतियं करेंता संखेज्जपंथ-संखेज्जविमाणेसु चेव मारणंतियं करेंति, वाणवेंतर- जोदिसिएस सिमुप्पत्तीए अभावाद । तत्थ एकेकिस्से वहाए जदिवि असंखेज्जजोयणलक्खबाहल्लं होदि, तो वि तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं चैव खेत्तं फोसिदं होज । तेणेदमप्पधाणं । मणुमा पुत्रं तिरिक्खे बद्धायुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण तिरिक्खेसु उप्पजंति, एदं खेत्तं पधाणं । कघमेदमाणिञ्जदे ? सयंपहपव्वदादो उवरिमखेत्तविक्खभं ठविय -- व्यासं षोडशगुणितं षोडशसहितं त्रिरूपरूपहृतं । व्यासत्रिगुणितसहितं सूक्ष्मादपि तद्भवेत्सूक्ष्मम् ॥ ९॥ किया है | विद्वारवत्स्वस्थान, वेदना, काय और वैक्रियिकसमुद्वात, इन पदोंकी अपेक्षा मनुष्याने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकको संख्यात भाग स्पर्श किया है। अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों कालों में मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंकी स्पर्शनप्ररूपणा मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके समान है । विशेष बात यह है कि मारणान्तिकसमुद्वातगत अलंयत मनुष्योंने सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भ ग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । शंका- मारणान्तिकसमुद्धतिगत असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्योंने तिर्यग्लोकका संस्थातवां भाग कैसे स्पर्श क्रिया १ समाधान - देवों में मारणान्तिकसमुद्धात करने वाले सम्यग्दृष्टि मनुष्य संख्यात मार्ग वाले संख्यात विमानोंमें ही मारणान्तिकसमुद्धात करते है, क्योंकि, उनकी वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में उत्पत्ति नहीं होती है। उनमें एक एक मारणान्तिकलमुखातके मार्गका यद्यपि असंख्यात लाख योजन बाहल्य होता है, तो भी वह क्षेत्र ( सब मिलकर ) तिर्य ग्लोक असंख्यातवें भागमात्र ही स्पर्श किया गया होगा। इसलिए यह क्षेत्र यहां पर अप्रधान है। पहले तिर्योंमें जिन्होंने आयु बांध ली है ऐसे मनुष्य पीछे सम्यक्त्वको ग्रहण करके तिर्यों में उत्पन्न होते हैं, यह क्षेत्र यहां पर प्रधान है । शंका- बद्धायुष्क मनुष्योंका यह उपपादक्षेत्र कैसे निकाला जाता है ? समाधान - स्वयंप्रभ पर्वतले उपरिम क्षेत्रके विष्कम्भको स्थापित करके -- व्यासको सोलह से गुणा करे, पुनः सोलह जोड़े, पुनः तीन, एक और एक अर्थात् एकसौ तेरह (११३ ) का भाग देवे । पुनः व्यासका तिगुना जोड़ देवे, तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परिधिका प्रमाण आ जाता है ॥ ९ ॥ १ भा.क पत्यो भागो संखेजमागो वा' इति प । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ३८. rate गाहाए परिधिनाणीय विक्खभच उन्भागेग गुणिय संखेज्जंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो मारणंतियखेत्तं होदि । अड्डाहज्जादो असंखेज्जगुणं । उववाद देहि असंजद सम्मादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेदिमागी । तं जहा - जदि वि अट्ठरज्जुखेत्तं रज्जुविक्खंभमददिकाले चउत्रिहा देवा आऊरिय विदा असंजदसम्मादिट्टिणो मणुसेसु उप्पज्जंति, तो वि तिरियलोयस्स संखेजदिभागो पोसणं, देवसासणाणं व तत्थतण असंजदसम्मादिट्ठीणं मणुसे सुप्पजमाणाणमागमणियमोवलं भादो । एसो अत्थो अण्णत्थ वि वत्तव्यो । अड्डा इजादो असंखेजगुणो पोसिदो | संजदासंजदाणं वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाणेण अदीदकाले संजदासंजदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागा, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । विहारवदि सत्याण- वेदण-कसाय वे उच्चिय समुग्वादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज दिभागो, इस गाथा के अनुसार परिधिको निकालकर और विष्कम्भके चतुर्भागले गुणाकर पुनः संख्यात अंगुलोंसे गुणा करने पर तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागप्रमाण मारणान्तिकक्षेत्र हो जाता है । वह क्षेत्र अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा होता है । उदाहरण - स्वयंप्रभ पर्वत से उपरिम भाग अर्थात् भीतरी क्षेत्रका विष्कम्भ - ५ ३ ३ १६१६ X + ८ १ १ ९ ३ ३५७९ x ११३ ३२ २९०५६ १ - B राजु प्रसर, यह मारणान्तिकसमुद्धातगत असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका क्षेत्र है जो राजुप्रतर के अमांशसे कुछ अधिक होनेके कारण तिर्यग्लोक अर्थात् ७ x १ राजुका संख्यातवां भाग तथा पैतालीस लाख योजन विष्कम्भ वाले अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा बड़ा है । घ उपपादपदगत असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका अनंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । वह इसप्रकार है - यद्यपि अतीतकाल में आठ राजु आयत और एक राजु विस्तृत क्षेत्रको व्याप्त करके स्थित चारों प्रकारके असंयतसम्यग्दृष्टि देव, मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं तो भी वह स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग ही होता है, क्योंकि, सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंके समान वहांके मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले असंयतसम्यग्दृष्टियों के आगमनका नियम पाया जाता है । यह अर्थ अन्यत्र भी कहना चाहिए। उन्हीं जीवोंने अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । संयतासंयत मनुष्योंकी वर्तमानकालिक स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्र के समान है । स्वस्थानस्वस्थानपदकी अपेक्षा संयतासंयत मनुष्योंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत मनुष्य संयतासंयतोंने सामान्य Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४०. ] फोसणाणुगमे मणुस्फोसणपरूवणं | २२३ माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो, संखेजा भागा वा पोसिदा । मारणंतिय समुग्वादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । कारणं चिंतिय वत्तव्यं । पभत्तसंजद पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति ओघं । सजोगिकेवली हि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जा वा भागा, सव्वलोगो वा ॥ ३९ ॥ I । एदस्य सुत्तस्स अत्थो पुव्वं उत्तोति संपदि ण उच्चदे । एवं पज्जत्तमणुस - मणुसिणीसु । वरि मणुसिणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उनवादी गत्थि । पमत्ते ते जाहारं णत्थि मणुसअपज्जतेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ४० ॥ सत्थाण- वेदण-कसायसमुग्वादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणूसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । मारणंतिय उववाद्गदेहिं तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, दोलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो पोसिदो । लोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग अथवा संख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धातगत संयतासंयत मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण विचार कर कहना चाहिए । प्रमत्तसंगत गुणस्थान से लगाकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानव मनुष्योंका स्पर्शनक्षेत्र ओघप्ररूपणा के समान लोकका असंख्यातवां भाग है । सयोगिकेवली जिनोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ३९ ॥ इस सूत्र का अर्थ पहले कह आये हैं, इसलिए अब नहीं कहते हैं । इसी प्रकार से पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनियोंका स्पर्शनक्षेत्र जनाना चाहिए। विशेष बात यह है कि मनुष्यनियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद नहीं होता है, और प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस एवं आहारकसमुद्धात नहीं होते हैं । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ४० ॥ स्वस्थान स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्वातगत लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्वात और उपपादपदगत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्य तथा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२.४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ४१. सव्वलोगो वा ॥४१॥ सत्थाण वेदण-कसायसमुग्धादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणुसखे तस्स संखेजदिभागो, संखेन्जा भागा वा अदीदकाले पोसिदा । मारणंतिय-उपवादगदेहि सबलोगो पोसिदो, सव्वत्थ गमणागमणे विरोहाभावा । देवगदीए देवेसु मिच्छादिदि-सासणसम्मादिधीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ४२ ॥ ___ एत्थ ताव मिच्छादिट्ठीणं उच्चदे- सत्थाणसत्थाणपरिणदेहिं तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एवं विहारवदिसत्थाण-वेदण कसाय-वेउबियपदाणं पि वत्तव्यं । मारणंतिय-उववादगदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो पोसिदो । सासणसम्मादिहिस्स सस्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउव्वियपदाणं खेतोघं । मारणंतिय लम्ध्यपर्याप्त मनुष्योंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥४१॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातगत लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग अथवा संख्यात बहुभाग अतीतकालमें स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत मनुष्योंने सर्वलोक स्पर्श किया है क्योंकि, उनके सर्वत्र गमनानागमन में कोई विरोध नहीं। देवगतिमें देवोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ४२॥ यहांपर पहले मिथ्यादृष्टि देवों का रपर्शनक्षेत्र कहते हैं-स्वस्थानस्वस्थानपदसे परिणत मिध्यादृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसी प्रकारसे विहारव. स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोको प्राप्त देवोंका भी पर्शनक्षेत्र वहना चाहिए । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदव.ले मिथ्यादृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और चैक्रियिकपदवाले सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघश्त्रकी प्ररूपणाके समान है। मारणान्तिक । देवगतौ देवमिण्याराष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि मिलोक स्यासंख्येयमागः अष्टी नव चतुर्दशमागा वा देशोनाः। त. सि. १,८. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४३. ] फोसणा गमे देवकोसण परूवणं [ २२५ उववादगदाणं पि खेतोघमेव होदि । एसा वट्टमाणपमाणपरूवणा । अदीदाणागदपरूवणमाह अट्ठ व चोदसभागा वा देसूणा ॥ ४३ ॥ सत्थाणसत्थाणमिच्छादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एत्थ ओघकारणं वत्तव्यं । सासणसम्मादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जंदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदों । एत्थ वि ओघकारणं वत्तन्त्रं । विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय-वेउच्त्रियपरिणदेहि दोगुणट्ठाणजीवेहि अदीदकाले अड्ड चोहसभागा देणा पोसिदा । केण ऊणा ? तदिय पुढ विहेट्ठिमतलसह स्सजोयणेहि अण्णेहि वि देवाणमगम्मपदेसेहि । मारणंतिय समुग्धादगदेहि मिच्छादिहि- सासणसम्मादिट्ठीहि णव चोहसमागा देसूणा पोसिदा, हेड्डा दो रज्जू, उवरि सत्त रज्जु ति । उववादगदेहि समुद्धात और उपपादपदवाले जीवों का भी स्पर्शनक्षेत्र ओघ क्षेत्रप्ररूपणा के समान ही होता है । इसप्रकार यह वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्र के प्रमाणकी प्ररूपणा समाप्त हुई । अब अतीत और अनागत कालसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र के प्ररूपण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ४३ ॥ स्वस्थानस्वस्थान पदवाले मिथ्यादृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है | यहांपर कारण ओघके समान कहना चाहिए । स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपले असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यहांपर भी कारण ओघके समान ही कहना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदों परिणत मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि, इन दो गुणस्थानत देवोंने अतीतकाल में कुछ कम आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं । शंका- यहां आठ बढे चौदह भाग किस क्षेत्र से कम हैं ? समाधान-तृतीय पृथिवी के अधस्तन तलसम्बन्धी एक हजार योजनोंसे, तथा अन्य भी देवोंके अगम्य प्रदेशोंसे, कम हैं । मारणान्तिकसमुद्धातगत मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंने मंदराचलसे नीचे दो राजु और ऊपर सात राजु, इस प्रकार कुछ कम नौ बढे चौदह (१४) भाग स्पर्श Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ४३. मिच्छादिद्वि-सासणसम्मादिट्ठीहि पंच चोदसभागा देसूणा पोसिदा, सहस्सारकप्पादो उवरिमेदेसिमुववादाभावा । छक्कापक्कमणियमे संते पंचचोद्दसभागफोसणं ण जुजदि त्ति णासंकणिज, चदुण्डं दिसाणं हेढुवरिमदिसाणं च गच्छंतेहि तदा मारणं पडि विरोहाभावादो। का दिसा माम ? सगट्ठाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम । ताओ छच्चेव, अण्णेसिमसंभवादो । का विदिसा णाम ? सगट्ठाणादो कण्णायारेण द्विदखेत्तं विदिसा। जेण सव्वे जीवा कण्णायारेण ण जांति तेण छक्कावक्कमणियमो जुञ्जदे । ण च एगदंडेणेव उप्पत्तिट्ठाणेण उवरि सरिसा होति त्ति णियमो, एगंगुलादिवियप्पेहि तिरिक्खेण आयदं पढमदंडं काऊण तिरिक्ख-मणुसाणं विदियदंडेण सगुप्पत्तिट्ठाणपावणे विरोहाभावादो। भवणवासिएसु उप्पज्जमाणतिरिक्खुववादखेत्ते गहिदे पंच रज्जू सादिरेया किण्ण होति त्ति उत्ते ण होति, किये हैं । उपपादपदगत मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंने कुछ कम पांच बटे चौदह (५) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, सहस्रारकल्पसे ऊपर इन दोनों गुणस्थानवी जीवोंका उपपाद नहीं होता है। शंका-छहों दिशाओं में जाने आनेका नियम होनेपर सासादनगुणस्थानवर्ती देवोंका स्पर्शनक्षेत्र पांच बटे चौदह भागप्रमाण नहीं बनता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, चारों दिशाओंको और ऊपर तथा नीचेकी दिशाओंको गमन करनेवाले जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धातके प्रति कोई विरोध नहीं है। शंका-दिशा किसे कहते हैं ? समाधान- अपने स्थानसे बाणकी तरह सीधे क्षेत्रको दिशा कहते हैं। वे दिशाएं छह ही होती है, क्योंकि, अन्य दिशाओंका होना असंभव है। शंका-विदिशा किसे कहते हैं ? समाधान-अपने स्थानसे कर्णरेखाके आकारसे स्थित क्षेत्रको विदिशा कहते हैं। चूंकि मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत सभी जीव कर्णरेखाके आकारसे अर्थात् तिरछे मार्गसे नहीं जाते हैं, इसलिए छह दिशाओंके अपक्रम अर्थात् गमनागमनका नियम बन जाता है। तथा, एक दंडके द्वारा ही सब जीव ऊपर उत्पत्तिस्थानकी अपेक्षा समतलस्थ हो जाते हैं, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, एक अंगुल आदिके विकल्पसे तिरछे रूपसे आयत प्रथम दंडको करके तिर्यंच और मनुष्योंका द्वितीय दंडके द्वारा अपने उत्पत्तिस्थानको पाने में कोई विरोध नहीं है। शंका-भवनवासियोंमें उत्पन्न होने वाले तिर्यंचोंके उपपादक्षेत्रको ग्रहण करने पर साधिक पांच राजु स्पर्शनक्षेत्र क्यों नहीं होता है ? Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ५५.] फोसणाणुगमे देषफोसणपरूवर्ण [२२७ अहियखेत्तादो ऊगखेत्तस्स बहुत्तुवदेसा। तं कधं णबदे ? हेट्ठा दंडायारेण ओयरिय विग्गहं काऊण भवणवासिएसुप्पण्णाणं पढम-विदियदंडेहि अदीदकाले रुद्धखेत्तादो सहस्सारुववादसेजाए उवरिमभागस्स संखेज्जगुणत्ता । विमाणसिहरमुस्सेहजोयणपमाणं त्ति ण थोवो उवरिमभागो, सहस्सारुखरिमपज्जवसाणस्स लक्खपमाणजोयणेहिंतो बहुअत्तादो। तं कुदो णबदे ? देसूणपंच-चोइसमागफोसणण्णहाणुववत्तीदो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥४४॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्तपरूवणाए उत्तो त्ति इह ण उच्चदे । अट्ट चोदसभागा वा देसूणा ॥४५॥ समाधान-ऐसी शंका करने पर उत्तर देते हैं कि नहीं होता है, क्योंकि, अधिक क्षेत्रकी अपेक्षा कम क्षेत्रकी अधिकताका उपदेश पाया जाता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-नीचे दंडाकार आत्मप्रदेशसे उतरकर और विग्रह करके भवनवासियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवों के प्रथम और द्वितीय दंडोंके द्वारा अतीतकालमें रुद्धक्षेत्रसे सहस्रार कल्पकी उपपादशय्याका उपरिम भाग संख्यातगुणा है, इसलिए जाना जाता है कि नीचेके अधिक क्षेत्रकी अपेक्षा ऊपरका हीन क्षेत्र प्रधानतया विवक्षित है। देवों के विमानोंका माप उत्सेधयोजनके प्रमाणसे है, इसलिए उपपादशय्यासे ऊपरी भाग अर्थात् विमानशिखरसे लेकर उसी कल्पके अन्त तकका क्षेत्र स्तोक अर्थात् अल्प नहीं है, क्योंकि, मेरुतलसे नीचेके एक लाख प्रमाणयोजनोंकी अपेक्षा सहस्रारकल्पके विमानशिखरसे ऊपरी पर्यन्तभागका . प्रमाण बहुत है। शंका-यह कैसे जाना? समाधान - अन्यथा सासावनसम्यग्दृष्टि देवोका देशोन पांच बढे खौवह (३४) भाग स्पर्शनक्षेत्र बन नहीं सकता है, इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि भवनवासी देवोंके क्षेत्रकी अपेक्षा ऊपरके विमानवासी देवोका क्षेत्र यहां पर प्रधानतासे ग्रहण किया गया है। सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥४४॥ इस सूत्रका अर्थ क्षेत्रप्ररूपणामें कहा गया है, इसलिए यहां पर नहीं कहा जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने अतीत और अनागतकालमें कुछ कम आठ घटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ४५ ॥ १ सम्यग्मिध्यादृष्टषसंयतसम्यष्टिभिलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा बेशोमाः। स. सि. १, Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ४, ४६. . सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि सम्मामिच्छादिटि-असंजदसम्मादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एसो 'वा' सद्दट्ठो । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय उव्यिय-मारणंतियसमुग्धादगदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । उववादगदेहि छ चोद्दसभागा पोसिदा, अच्चुदकप्पादो उवरि मणुसवदिरित्ताणमुववादाभावा । एवं सम्मामिच्छदिट्ठीणं पि । णवरि मारणंतिय-उववादगदा णत्थि । भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवेसु मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो ॥ ४६॥ वाणवेंतर-जोदिसियमिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीणं खेत्तभंगो । भवणवासिय. मिच्छादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउव्वियसमुग्धादगदेहि वट्टमाणकाले चदुहं लोगाणमसंखेजदिभागो पोसिदो। अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । उववादपरिणदाणं पि एवं चेव वत्तव्यं । जदि वि एदं वट्टमसंखेज्जसे ढीमेतं, तो वि तिरिय _स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने सामान्यलोक भादि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे भसंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'वा' शब्दका अर्थ है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्धातगत असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने कुछ कम आठ बटे धौदह (8) भाग स्पर्श किये हैं। उपपादपदगत असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने छह बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, अच्युतकल्पसे ऊपर मनुष्योंको छोड़कर अन्य जीवोंके उत्पन्न होनेका अभाव है। इसी प्रकार सम्यग्मिध्यादृष्टि देवोंका भी स्पर्शन जानना चाहिए, विशेष बात यह है कि इनके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। . भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है॥४६॥ . वानप्यन्तर और ज्योतिष्क मिथ्यादृष्टि तथा सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका स्पर्शन क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैकियिकसमुदातगत भवनवासी मिथ्यादृष्टि देवोंने वर्तमानकालमें सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। तथा मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। उपपादपदपरिणत उक्त देवोंका भी इसी प्रकारसे स्पर्शनक्षेत्र कहना चाहिए । यद्यपि यह उपपादक्षेत्रसम्बन्धी मार्ग असंख्यात श्रेणीप्रमाण होता है, तथापि तिर्यग्लोकके असंख्या १ प्रतिषु 'बब्ब-' इति पाठः। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४७. ] फोसणागमे देव फोसण परूवणं [ १२९ लोगस्स असंखेज्जदिभागं चेव उववादेण वट्टमाणकाले फुसदि, तिरियलोग मज्झम्मि तदसंखेज्जदिभागे चैव भवणावासाणमवाणादो, तदवट्ठिददिसं मोत्तूणण्णदिसाए गमणाभावादो, हेट्ठा ओयरिय उप्पज्जमाणाणं सुड्डु थोवत्तादो | मारणंतियसमुग्वादगदेहि तिह लोगाणमसंखेज्जदिभागो, णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो । भवणवासिय सासण सम्मादिट्ठीणं खेत्तमंगो | अट्टावा, अटु णव चोदसभागा वा देसूणा ॥ ४७ ॥ भवणवासियमिच्छादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । विहारख दिसत्थाण- वेदण- कसाय- वेउच्चियपदेहि अद्भुट्ठा वा अट्ठ चोइस भागा वा देखणा । अद्भुट्ठरज्जू सयमेव विहरति । कत्रमाहुडुरज्जू जादा ? मंदरतलादो हेड्डा दोणि, उवरि जाव सोधम्मविमाणसिहरधजदंडोति दिवरज्जू । उवरिमदेवपयोगेण अड्ड रज्जू | मारणंतिय समुग्धादगदेहि णव चोदसभागा तवें भागप्रमाण क्षेत्र ही उपपादके द्वारा वर्तमानकाल में स्पर्श किया जाता है, क्योंकि, तिर्यग्लोक के मध्य भाग में और उसके भी असंख्यातवें भाग में ही भवनवासी देवोंके आवासोंका अवस्थान है । तथा, जिस दिशा में विमान अवस्थित हैं उस दिशाको छोड़कर अन्यदिशा में गमन करने का अभाव है, तथा, नीचे उतरकर उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण बहुत कम है । मारणान्तिकसमुद्घातगत उक्त देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । भवनवाली सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका स्पर्शनक्षेत्र क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा लोकनाली के चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, आठ भाग और नौ भाग स्पर्श किये हैं ॥ ४७ ॥ स्वस्थानस्वस्थानपरिणत भवनवासी मिथ्यादृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैऋियिकसमुद्धातपदवाले उक्त देवोंने चौदह भागों में से देशोन साढ़े तीन भाग, (४) अथवा आठ भाग ( ४ ) प्रमाण क्षेत्र सर्श किया है । भवनबासी देव साढ़े तीन राजु स्वयं ही विहार करते हैं । शंका- साढ़े तीन राजु कैसे हुए ? समाधान - मंदराचलके तलभागसे नीचे तीसरी पृथिवी तक दो राजु और ऊपर सौधर्मकल्प के विमान के शिखर पर स्थित ध्वजादंड तक डेढ़ राजु, इस प्रकार मिलाकर साढ़े तीन राजु हुए। उपरि अर्थात् परके आरण-अच्युत कल्पवासी देवोंके प्रयोगसे आढ राजुप्रमाण Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० छक्खंडागमै जीवट्ठाणं [१, ४, ४७. देसूणा पोसिदा । उवरि सत्त, हेट्ठा दोण्णि, एवं णव रज्जू । उववादपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । जोयणलक्खबाहल्लं तिरियपदरमदीदकाले किण्ण पुसिजदि ? ण, तिरिच्छेण भवणहिदपदेसं गंतूण हेट्ठा मुक्कमारणंतियाणमुववादेण हेदुवरिमासेसखेत्तफुसणाभावादो। पुणो कधं तिरियलोगस्त संखेजदिभागतं जुज्जदे ? सगावहिदपदेसादो हेट्ठा गंतूग तिरिच्छेण पल्लट्टिय सगभवणेसुप्पण्णाणं तिरियलोगस्स संखेजदिभागो उववादफोसणं होदि। अण्णहा किण्ण होदि ? भवणवासियपाओग्गाणुपुब्धिपडिबद्धागासपदेसाणमवट्ठाणवसेण मारणतियसंभवादो । भवणवासियसासणसम्मादिहिसव्वपदाणं भवणवासियमिच्छादिभिंगो। वाणवेंतरमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स विहार करते हैं। मारणान्तिकसमुद्धातगत उन्हीं भवनवासी देवोंने नौ बटे चौदह (२४) भाग स्पर्श किये हैं। मंदराचलसे ऊपर लोकके अन्त तक सात राजु और नीचे तीसरी पृथिवी तक दो राजु, इस प्रकार नौ राजु होते हैं । उपपादपरिणत उक्त देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका-भवनवासी मिथ्यादृष्टि देवोंने अतीतकालमें एक लाख योजन बाहल्यवाला तिर्यक्प्रतरप्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं स्पर्श किया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तिर्यग्रूपसे भवनस्थित प्रदेशको जाकर नीचे मारणान्तिकसमुद्धातको करनेवाले जीवोंके उपपादपदकी अपेक्षा नीचे और ऊपरके समस्त क्षेत्रको स्पर्शन करनेका अभाव है। शंका-तो फिर भवनवासी देबोंके उपपादपदकी अपेक्षा तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्शनक्षेत्र कैसे बन सकता है? समाधान- अपने रहनेके स्थानसे नीचे जाकर पुनः तिरछे रूपसे पलट करके अपने भवनों में उत्पन्न होने वाले जीवोंका तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण उपपादपदसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र हो जाता है। · शंका-यह स्पर्शनक्षेत्र अन्य प्रकारसे क्यों नहीं होता है ? समाधान-क्योंकि, भवनवासी देषों के योग्य आनुपूर्वीनामकर्मले प्रतिबद्ध भाकाश. प्रदेशों के अवस्थानके वशसे मारणान्तिकसमुदात होता है, इसलिए उक्त स्पर्शनक्षेत्र अन्य प्रकारसे नहीं बन सकता है। भवनवासी सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके स्वस्थानादि सभी पदों का स्पर्शनक्षेत्र भवनवासी मिथ्याहा देवोंके समान है । मिथ्यादृष्टि और सालादनसम्यग्दृष्टि वानव्यन्तर देवोंने स्वस्थामस्वस्थानकी अपेक्षा सामान्यलोक भादि तनि कोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्य. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४७.] फोसणागमे देवकोसणपरूवणं [ २३१ संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । तं जहा - एगं जगपदरं ठविय तप्पा ओग्गसंखेज्जपद रंगुलेहि भागे हिदे वेंतरावासाण पमाणं होदि । तमेगावासो गाहणाए संखेज्जघणंगुलपणाए गुणिदे संखेअंगुलाणि बाहलं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं जगपदरं होदि। असंखेज्जजोयणवित्थडा चैतरावासा अप्पधाणा चिकट्टु इदं भणिदं । अह जह ते चेय पहाणा, जगपदरस्स असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि भागहारं ठविय असंखेज्जघणंगुलेहि गावापणेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । विहारवदिसत्थाणवेद- कसाय- उब्वियपद परिणदमिच्छादिड्डि-सासणसम्मादिट्ठीहि सगपच्चएण आहुडचोदभागा देखणा पोसिदा । परपच्चएण अट्ठ चोदसभागा देणा पोसिदा । मारणंतियसमुग्धादगदेहि णव चोदसभागा पोसिदा । उववादेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । उववादेण तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं खेतं वट्टमाणकाले अवरुंभिय द्विदवेंतरा अदीदकाले कधं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागं पुति त्ति उत्ते ण एस दोसो, खेतं णाम सन्चजीवाण ग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । वह इस प्रकार है- एक जगप्रतरको स्थापित करके तत्प्रायोग्य संख्यात प्रतरांगुलोंसे भाग देने पर संख्यात घनांगुलप्रमाण व्यन्तर देवोंके आवासोंका प्रमाण हो जाता है। उसे संख्यात अंगुलप्रमाण एक आवासकी अवगाहना से गुणा करनेपर संख्यात घनांतुल बाहल्यवाला और तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण जगप्रतर होता है । यद्यपि असंख्यात योजन विस्तारवाले भी व्यन्तरोंके आवास होते हैं, किन्तु वे यहांपर प्रधानरूपसे विवश्चित नहीं हैं, इस अपेक्षासे यह उक्त स्पर्शनक्षेत्र कहा है । और यदि वे ही अर्थात् असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानोंको ही प्रधान माना जाय, तो जगप्रतरका असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण भागहार स्थापित करके एक आवासके क्षेत्रफलको अपेक्षा उत्पन्न होने वाले असंख्यात घनांगुलों से गुणा करने पर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग हो जाता है । । विद्दारवत्स्वस्थान, वेदना, कपाय और वैक्रियिकपदपरिणत मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि भवनवासी देवोंने स्वप्रत्ययसे अर्थात् अपने आप कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । किन्तु परप्रत्ययसे अर्थात् अन्य देवोंके प्रयोगले कुछ कम आठ वटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं । मारणान्तिकसमुद्घातगत उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती व्यन्तर देवोंने नौ बटे चौदह ( २ ) भाग स्पर्श किये हैं । उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । शंका-उपपादकी अपेक्षा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकाल में व्याप्त करके स्थित व्यन्तर देव अतीतकाल में कैसे तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागको स्पर्श करते हैं ? Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ४७. मोगाहणाओ उववाद विसिट्ठाओ एगढे करिय गहिदे होदि । तेण तिरियलोगादा वेंतरमिच्छादिट्टि-उववादखेत्तमसंखेज्जगुणं जादं । पोसणम्हि पुण जीवप्पडिद्विदओगाहणाओ ण घेप्पंति, किंतु तीदकाले उववादपरिणदमिच्छादिहि-सासणसम्मादिहिवेंतरेहि च्छित्तखेत्तमेव घेप्पदि, उतरेसु वि ण देवा जेरइया वा उप्पज्जति, ण च एइंदिया विगलिंदिया, किंतु सण्णि-असण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसा चेत्र । ण च उतराणमावासा सोधम्मादिसु तिरियलोगवाहिरेसु कप्पेसु अत्थि, तधोवदेसाभावा । ण च लक्खजोयणबाहल्लतिरियपदरम्हि सव्वत्थ वेंतरावासा चेव, जोदिसियवासाणं वेलंधरपण्णगादिआवासाणं च अभावप्पसंगा। ण च भूमीए चेव वेंतरावासा होति त्ति णियमो अत्थि, आगासपीदट्ठियाणं पि वेंतरावासाणं संभवादो। ण च तिरियलोगे चेव वेंतरावासाणमत्थित्तणियमो, हेहा पंकबहुलपुढवीए वि भूत-रक्खसावासाणमुवलंभादो । तम्हा किंचूणमजोएदण वेलक्खबाहल्लतिरियपदरं ठविय सत्तकदीए ओवट्टिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागवाहल्लं जगपदरं होदि । एवं चेव जोदिसियाणं पि वत्तव्यं, णवरि उववादखेत्ते समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सर्व जीवोंकी उपपादविशिष्ट अवगाहनाओंको एकट्टा करके ग्रहण करने पर क्षेत्र' यह नाम होता है, इसलिए मिथ्यादृष्टि व्यन्तरदेवोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यात गुणा हो जाता है । पर स्पर्शनमें जीवोंसे प्रतिष्ठित अवगाहनाएं नहीं ग्रहण की जाती हैं, किन्तु अतीतकालमें उपपादपरिणत मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि व्यन्तर देवोंसे स्पर्शित क्षेत्र ही ग्रहण किया जाता है। व्यन्तरोंमें भी न तो देव अथवा नारकी जीव उत्पन्न होते हैं और न एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय जीव ही, वहां केवल संज्ञी व असंही पंचेन्द्रियतिथंच और मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं । तथा तिर्यग्लोकसे बाहिर स्थित सौधर्मादि कल्पों में भी व्यन्तर देवोंके आवास नहीं होते हैं, क्योंकि, उस प्रकारके उपदेशका अभाव है। और न लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यकप्रतर ही सर्वत्र व्यन्तर देवोंके आवास होते हैं, अन्यथा चन्द्र, सूर्यादि ज्योतिष्क देवों के आवासोंका और वेलंधर, पन्नग आदि भवनवासी देवांके आवासोंके अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। तथा भूमि में ही व्यन्तर देवोंके आवास होते हैं, ऐसा भी नियम नहीं है, क्योंकि, आकाश में प्रतिष्ठित व्यन्तरोंके आवास सम्भव हैं। और न तिर्यग्लोकमें ही व्यन्तर देवोंके आवासोंके अस्तित्वका नियम है, क्योंकि, नीचे रत्रप्रभा पृथिवीके पंकबहुल भागमें भी भूत और राक्षस नामके व्यन्तर देवोंके आवास पाये जाते हैं। इसलिए कुछ कम क्षेत्रको नहीं जोड़कर दो लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यक्प्रतरको स्थापित करके सातकी कृति अर्थात् वर्गसे अपवर्तितकर प्रतराकारसे स्थापित करने पर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण बाहल्यवाला जगप्रतर हो जाता है। इसी प्रकारसे ही ज्योतिष्क देवोंका भी स्पर्शनक्षेत्र कहना चाहिए । विशेष बात यह १ रन्जुकदी गुणिदवा णवण उदिसहस्सा अधियलक्खेण । तम्मझे तिवियपा वेंत देवाण होंति पुरा॥ भवणं भवणपुगणिं आवासा इय भवति तिवियप्पा । जिण मुहकमलविणिगदवेंतरपण्णत्तिणामाए ॥ रयणप्पहपुटवीए भवणाणि दीव-उवाहिउवरिम्मि । भवणपुराणिं दहगिरिपहुदीणं उवरि आवासा ॥ ति. प. पत्र १९६. ...................... Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ४९.] फोसणाणुगमे देवफोसणपरूवणं [ २५१ आणिज्जमाणे णवजोयणसदबाहल्लं तिरियपदरं सत्तकदीए खंडिदे पदरागारेण तुइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागवाहल्लं जगपदरं होदि । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ४८ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउन्वियमारणंतियपदपरिणदेहि सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि भवणवासिय-वेंतर-जोदिसिएहि चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिमागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । अद्धट्ठा वा अट्ठ चोदसभागा वा देसूणा ॥ ४९ ॥ सत्थाणसत्थाणभवणवासिय-वाणतर-जोदिसिय-सम्मामिच्छादिद्वि-असंजदसम्मादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । णवरि भवणवासिएसु चदुहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो त्ति वत्तव्यं । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतियपदपरिणदेहि सम्मा है कि उनके उपपादक्षेत्रको लाते समय नौ सौ योजन बाहल्यवाले तिर्यक्प्रतरको सातके वर्गद्वारा खंडितकर प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण बाहल्य. वाला जगप्रतर होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥४८॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, घेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम सादे तीन भाग और कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥४९॥ स्वस्थानस्वस्थानपदवाले भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क सम्यग्मिथ्याष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विशेष बात यह है कि भवनवासियों में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है, ऐसा कहना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणा - १ रज्जुकदी गुणिदव्वं एकसयदसुतरेहिं जोयणए। तस्सि अगम्मदेसं सोधिय सेसम्मि जोदिसिया। ति.प. ७,५. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ५०. मिच्छादिद्वि-असंजदसम्मादिट्ठीहि अद्भुट्ठा चोद्दसभागा देसूणा सगपञ्चएण; परपच्चएण अट्ठ चौर्देसभागा देसूणा पोसिदा । णवरि सम्मामिच्छादिट्ठीणं मारणंतियपदं गस्थि । सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टि त्ति देवोघं ॥ ५० ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउव्यियपदपरिणदेहि मिच्छादिट्ठीहि वट्टमाणकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो पोसिदो। मारणंतिय-उववादपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणो पोसिदो । सेसगुणट्ठाणजीवहि अप्पप्पणो पदेसु वट्टमाणेहि चदुण्डं लोगाणमसंखेअदिभामो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । तीदे काले सोधम्मीसाणकप्पवासियमिच्छादिहि-सासणसम्मादिहीहि सत्थाणसत्थाणपदपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । तं जहा- सव्वे इंदया संखेजजोयणवित्थडा, सेढीबद्धा असंखेज्जजोयणवित्थडा, पइण्णयवा मिस्सा। एत्थ जदि वि सव्व न्तिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंने स्वप्रत्ययसे कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह (२४) भाग स्पर्श किये हैं; तथा परप्रत्ययसे कुछ कम आठ बटे चौदह (1) भाग स्पर्श किये हैं । विशेष बात यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके मारणान्तिकपद नहीं होता है। सौधर्म और ईशान कल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवोंका स्पर्शनक्षेत्र देवोंके ओघस्पर्शनके समान है ॥ ५॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत मिथ्यादृष्टि देवोंने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदसे परिणत सौधर्म-ऐशान देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तथा नरलोक और तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र सर्श किया है। स्वस्थानस्वस्थान आदि अपने अपने पदोंमें वर्तमान सालादनादि शेष गुणस्थानवर्ती देवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वापसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। अतीतकालमें सौधर्म और ईशान कल्पवासी स्वस्थानस्वस्थानपदपारणत मिथ्याष्टि भौर सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। वह इस प्रकार है-सभी इन्द्रकविमान संख्यात योजन विस्तारवाले होते हैं, श्रेणीबद्धविमान असंख्यात योजन विस्तृत और १इंदयसेटीबद्धप्पण्णयाणं कमेण वित्थारा। संखेज्जमसंखेज्जं उभयं च य जोयणाण हवे। त्रि.सा.१६८, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ५..] फोसणाणुगमे देवफासणपरूवर्ण [ २३५ विमाणाणि असंखेज्जजोयणवित्थडाणि ति घेप्पंति, तो वि सम्वविमाणखेत्तफलसमासो तिरियलोगस्स असंखेजदिभागो चेव होदि । तं जहा- एगविमाणायामो असंखेजजोयणमेत्तो त्ति का असंखेज्जजोयणविक्खंभेणायाम गुणिय विमाणुस्सेहसंखेज्जंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेञ्जदिभागो होदि, एक्केक्कविमाणायाम-विक्खंभाणं सेढिपढमवग्गमूलादो असंखेज्जगुणपमाणत्तादो। तं सोधम्मीसाणविमाणसंखाए गुणिदे वि तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो होदि त्ति । एत्थ सबकप्पाणं कमेण विमाणसंखापरूवयगाहाओ वत्तीसं सोहम्मे अट्ठावीसं तहेव ईसाणे ।। वारह सगक्कुमारे अडेव य हेति माहिंदे ॥ १० ॥ बम्हे कप्पे बम्होत्तरे य चत्तारि सयसहस्साई । छसु कप्पेसु य एयं चउरासीदी सयसहस्सा ॥ ११ ॥ पण्णासं तु सहस्सा लंतय-काविट्ठएसु कप्पेसु । मुक्क-महासुक्केसु य चत्तालीसं सहस्साई ॥ १२ ॥ प्रकीर्णकविमान मिश्र अर्थात् संख्यात और असंख्यात योजन विस्तारवाले होते हैं । यहांपर यदि सभी विमान असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं, ऐसा समझकर ग्रहण करते हैं तो भी सभी विमानोंके क्षेत्रफलका जोड़ तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। वह इस प्रकारसे है- एक विमानका आयाम असंख्यात योजनप्रमाण होता है। इसलिए असंख्यात योजन विष्कम्भले आयामको गुणा करके विमानके उत्सेधसम्बन्धी संख्यात अंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग ही होता है, क्योंकि, एक एक विमानका आयाम और विष्कम्भ जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे असंख्यातगुणित (हीन) प्रमाण होता है। उसे सौधर्म ईशामकरुपकी विमानसंख्यासे गुणा करनेपर भी तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग ही रहता है। यहांपर सभी कल्पोंके विमानोंकी क्रमसे संख्याओंकी प्ररूपणा करनेवाली गाथाएं इस प्रकार हैं सौधर्मकल्पमें बत्तीस लाख विमान है, उसी प्रकारसे ईशानकल्पमें अट्ठाईस लाख, सनत्कुमारकल्पमें बारह लाख तथा माहेन्द्रकल्पमें आठ लाख विमान होते हैं । १० ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पमें दोनों कल्पोंके मिलाकर चार लाख विमान हैं। इस प्रकार इन ऊपर बताए गये छह कल्पों में विमानों की संख्या चौरासी लाल होती है ॥ ११॥ जैसे- ३२००००० + २८००००० + १२००००० + ८००००० + ४००००० = ४४००००० सौधर्मादि छह स्वर्गोंकी विमानसंख्या. लान्तत्र और कापि इन दोनों कल्पों में पचास हजार विमान होते हैं। शुक्र और महाशुफ कल्पमें चालीस हजार विमान हैं ॥ १२ ॥ १ . असंखेज्जगुणहीणपमाणतादो' इति पाठः प्रतिभाति । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणे छच्चेव सहस्साइं सयारकप्पे तहा सहस्सारे । सत्तेव विमाणसया आरणकप्पच्चु चेय ॥ १३ ॥ एक्कास तिट्ठमेसु तिसु मज्झमेसु सत्तहियं । एक्काण उदिविमाणातिसु गेवज्जेसुत्ररिमेसु ॥ १४ ॥ गेवज्जावरिमया णव चेव अणुद्दिसा विमाणा ते । तह य अणुत्तरणमा पंचेव हवंति संखाए ॥ १५ ॥ विहार- वेदण-कसाय - वेउब्वियपदेहि अट्ठ चोइसभागा देणा पोसिदा । मारणंतियपरिणदेहि मिच्छादिट्ठि-सासणेहि णव चोहसभागा पोसिदा । उववादपरिणदेहि दिवडचोदस भागा पोसिदा । सोधम्मकप्पो धरणीतलादो दिवडुरज्जुमोस्सरिय विदोत्ति सम्मामिच्छादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय- वेउव्वियपदपरिणदेहि अट्ठ चोदसभागा देणा पोसिदा । एवं असंजदसम्मादिट्ठीणं पि । णवरि मारणंतिएण अड्ड चोद्दसभागा, उववादेण दिवड - चोइसभागा देखणा पोसिदा । जेणेवं देवोघादो सोधम्मकप्पे ण [ १, ४, ५०. शतार और सहस्रार कल्पमें छह हजार विमान होते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, इन चार कल्पों में मिलाकर सातसौ विमान होते हैं ॥ १३ ॥ अधस्तन तीन प्रैवेयकों में एक सौ ग्यारह विमान, मध्यम तीन ग्रैवेयकोंमें एक सौ सात विमान और उपरिम तीन ग्रैवेयकोंमें इक्यानवें विमान होते हैं ॥ १४ ॥ नव ग्रैवेयकोंके ऊपर अनुदिश संज्ञावाले नौ विमान होते हैं। उनके ऊपर अनुतर संज्ञाबाले पांच विमान होते हैं ॥ १५ ॥ विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात इन पदों को प्राप्त सौधर्मईशान कल्पके मिथ्यादृष्टि और सासादनगुणस्थानवर्ती देवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं । मारणान्तिक पदले परिणत उक्त मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंने नौ वटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं । उपपादपदपरिणत उन्हीं जीवोंने डेढ़ बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, सौधर्मकल्प धरणतिलसे डेढ़ राजु ऊपर जाकर स्थित है । स्वस्थान स्वस्थानपदपरिणत सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढाईद्वपिसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत उक्त देवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं । इसी प्रकार से असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका भी स्पर्शनक्षेत्र जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने मारणान्तिकसमुद्धातकी अपेक्षा कुछ कम आठ () भाग और उपपादकी अपेक्षा कुछ कम डेढ़ बढे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ५२. ] फोसणा गमे देवफोसणपरूवणं विसेसो अत्थि तेण देवोघमिदि सुत्नवयणं सुट्टु सुघडमिदि । सण कुमार पहूडि जाव सदार - सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिट्टि पहुड जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ५१ ॥ एदेसिं पंच कप्पाणं चदुगुणट्ठाणजीवेहि जहासंभवं सत्थाणसत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय वेउच्चिय-मारणंतिय उववादपरिणदेहि चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एसा वट्टमाणपरूवणा । अ चोइसभागा वा देसूणा ॥ ५२ ॥ [ २३७ पंचकष्पवासियचदुगुणट्टाणजीवेहि सत्याण सत्थाणपदपरिणदेहि अदीदकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्ढा इजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । विहारव दिसत्थाण- वेदणकसाय-उत्रिय- मारणंतिय-पदपरिणदेहि अट्ठ चोइस भागा देखणा पोसिदा । उववादपरिणदेहि सणक्कुमार- माहिंददेवेहिं तिष्णि चोद्दस भागा देखणा पोसिदा । बम्ह-बम्हुत्तर चूंकि देवोंके ओघस्पर्शन से सौधर्मकल्प में कोई विशेषता नहीं है, इसलिए 'देवोघ' यह सूत्र वचन भले प्रकार सुघटित होता है । सनत्कुमारकल्पसे लेकर शतार सहस्रारकल्प तक के देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ५१ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विद्वारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंसे यथासंभव परिणत उक्त पांचों कल्पोंके चारों गुणस्थानों में रहनेघाले देवोंने सामान्यलोक आदि बार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यह वर्तमानकालिक स्पर्शनके क्षेत्रकी प्ररूपणा है । सनत्कुमारकल्पसे लेकर सहस्रारकल्प तकके मिध्यादृष्टि आदि चारों गुणस्थानवर्ती देवोंने अतीत और अनागत कालमें कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। ५२ ।। सनत्कुमारादि पांच कल्पोंके चारों गुणस्थानघर्ती स्वस्थानस्वस्थान पदपरिणत देवोंने भतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, बैौक्रयिक और मार णान्तिकसमुद्रात, इन पदोंसे पारणत उक्त देवोंने कुछ कम आठ बढे चौदह (१) भाग स्पर्श किये हैं । उपपादपरिणत सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देवोंने कुछ कम तीन बढे दह () भाग स्पर्श किये हैं । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पवासी देवोंने कुछ कम साढ़े Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] ' छक्खंडागमे जीवडाणं [१, १, ५३. कप्पवासियदेवेहि आहुट्ठ-चोदसभागा देसूणा पोसिदा। लंतय-काविट्ठदेवेहि चत्तारि चोहसभागा देसूणा पोसिदा । सुक्क महासुकदेवेहि अद्धपंचम-चोदसभागा देसूणा पोसिदा । सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवेहि पंच चोहसभागा देखूणा पोसिदा । णवरि सम्मामिच्छाइट्ठीणं मारणंतिय-उववादा णत्थि । __ आणद जाव आरणच्चुदकप्पवासियदेवेसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ५३॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणखेत्तपरूवयस्स अत्थो पुब्वं परूविदो त्ति पुणो ण उच्चदे। छ चोदसभागा वा देसूणा पोसिदा ॥ ५४॥ मिच्छादिद्वि-सासणसम्मादिवि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाणपदपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। एसो 'वा' सद्दट्ठो। विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-उब्बिय-मारणंतियपरिणदेहि छ चोद्दस तीन बटे चौदह (२४) भाग स्पर्श किये हैं। लान्तव और कापिष्ठ कल्पवासी देवोंने कुछ कम चार बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं। शुक्र और महाशुक्र कल्पवासी देवोंने कुछ कम साढ़े चार बटे चौदह (३) भाग स्पर्श किये हैं। शतार और सहस्रार कस्पवासी देवोंने कुछ कम पांच बटे चौदह (३५) भाग स्पर्श किये हैं। विशेष बात यह है कि सम्य. मिथ्यारष्टि देवोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। - आनतकल्पसे लेकर आरण-अच्युत तक कल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ५३ ॥ वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्रके प्ररूपक इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है, इसलिए पुन: नहीं कहा जाता है। - चारों गुणस्थानवर्ती आनतादि चार कल्पवासी देवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं। ५४ ।। स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याहाट और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातयां भाग और मनुष्य लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'धा' शब्दका अर्थ हुआ । विहारवत्स्वस्थान, बेपना, कपाय, वैकियिक और मारणान्तिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत उक्त जीवोंने कुछ कम Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ५५.] फोसणाणुगमे देवफोसणपरूवणं [२३९ भागा देसूणा पोसिदा, चित्ताए उवरिमतलादो हेट्ठा एदेसि गमणाभावादो। मिच्छादिहिसासणसम्मादिट्ठीणं उववादो चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज. गुणो । कुदो ? एगपणदालीसजोयणलक्खविक्खंभ संखेज्जरज्जुआयदमुववादखेत्तं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागं ण पावेदि त्ति । सम्मामिच्छाइट्ठीणं मारणंतिय-उववादपदं णस्थि । असंजदेसम्माइट्ठीहि उववादपरिणदेहि अद्धछक्क चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । आरणच्चुदकप्पे छ चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । किं कारणं ? तिरिक्खअसंजदसम्मादिदि-संजदासंजदाणं वेरियदेवसंबंधेण सम्बदीव-सायरेसु द्विदाणं तत्थुववादोवलंभादो। ___णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं,लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥५५॥ ___ एदस्स सुत्तस्स वद्दमाणपरूवणा खेत्तभंगो । अदीदपरूवगा वि खेत्तभंगो चेय । कुदो ? चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागत्तेण, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणत्तेण च समाणत्तुवलंभादो । छह बटे चौदह () भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे नीचे इनके गमनका अभाव है। उक्त मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका उपपादकी अपेक्षा स्पर्शनक्षेत्र सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, पैंतालीस लाख योजन विष्कम्भवाला और संख्यात राजुप्रमाण भायत उक्त देवोंका उपपादक्षेत्र भी तिर्यग्लोकके संग गतवें भागको नहीं प्राप्त होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपद नहीं होते हैं। आनत-प्राणत कल्पके उपपादपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने कुछ कम साढ़े पांच बटे चौदह (१) भाग स्पर्श किये हैं। आरण और अच्युतकल्पमें उक्त पदपरिणत जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । इसका कारण यह है कि वैरी देवोंके सम्बन्धसे सर्व द्वीप और सागरों में विद्यमान तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंका आरण-अच्युतकल्पमें उपपाद पाया जाता है। नवौवेयक विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक विमानके गुणस्थानवर्ती देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ५५ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान जानना चाहिए। तथा अतीतकालिक स्पर्शनप्ररूपणा भी क्षेत्रप्ररूपणाके समान ही है, क्योंकि, सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागसे तथा मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणित क्षेत्रकी अपेक्षा समानता पाई जाती है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्टागं [ १, ४, ५६. अणुद्दिस जाव सव्वसिद्धिविमाणवासिय देवेसु असंजदसम्मादीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ५६ ॥ एदेसु दिअसंजदसम्मादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाण-विहार व दिसत्थाण- वेदण-कसायवेउच्चिय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखे तादो असंखेञ्जगुणो, णवगेवज्जादिउवरिमदेवाणं तिरिक्खेसु चयणोववादाभावादो । वरि पंचपदपरिणदेहि सव्यसिद्धिदेवेहि माणुसलोगस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । एवं गदिमग्गणा समत्ता । २४० ] इंदियावादे एइंदिय-वादर-सु हुम-पज्जत्तापज्जत्त एहि केवडियं खेत्तं फोसिदं सव्वलोगों ॥ ५७ ॥ " एइंदिएहि सत्थाणसत्थाण- वेदण-कसाय-मारणंतिय उववादपरिणदेहि तीद- वट्टमाणकालेसु सव्वलोगो फोसिदो । वेउब्वियपरिणदेहि वट्टमाणकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेज दि नव अनुदिश विमानोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक विमानवासी देवों में असंयतसम्यदृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ५६ ॥ इन नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानों में रहने वाले स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्त्रस्थान, वेदना, कपाय, वैक्रियिक, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, नवमैत्रेयकादि उपरिम कल्पवासी देवोंका च्यवन होकर तिर्यचों में उपपाद होने का अभाव है । विशेष बात यह है कि स्वस्थानादि पांच पदों परिणत सर्वार्थसिद्धिके देवाने मनुष्यलोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई । इन्द्रियमाणा के अनुवाद से एकेन्द्रिय, एकेन्द्रियपर्याप्त, एकेन्द्रियअपर्याप्त; बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म केन्द्रियपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रियअपर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्श किया है ।। ५७ ।। स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंसे परिणत एकेन्द्रिय जीवोंने अतीत और वर्तमानकाल में सर्वलोक स्पर्श किया है । वैकियिकपदपरिणत एकेन्द्रिय जीवने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियैः सर्वलोकः स्पृष्टः । स. सि. १, ८. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ५७.] फोसणाणुगमे एइंदियफोसणपरूवणं [२४१ भागो पोसिदो । माणुसखेत्तं ण णव्वदे । अदीदकाले तिहं लोगाणमसंखेञ्जदिभागो, परतिरियलोगेहितो असंखेजगुणो पोसिदो । अदीदकाले पंचरज्जुबाहल्लं तिरियपदरं विउव्वमाणा वाउकाइया फुसंति त्ति । बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तेहि सत्थाण-वेदण-कसाय' परिणदेहि वट्टमाणकाले तिण्हं लोगाणं संखेजदिभागो, दोलोगेहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । किं कारणं ? जेण पंचरज्जुवाहल्लं रज्जुपदरं वाउकाइयजीवावूरिदं बादरएइंदियजीवावूरिदअट्ठपुढवीओ च, तेसिं पुढवीणं हेट्ठा द्विदवीसावीसजोयणसहस्सबाहल्लं तिण्णि तिण्णि वादवलए लोगंतट्ठिदवाउकाइयखेत्तं च एगह कदे लोगस्त संखेज्जदिमागो होदि चि । एदेहि अदीदकाले वि एत्तियं चेव खेत्तं पोसिदं, विवक्खिदपदपरिणदाणमेदेसि सव्वद्धमण्णत्थच्छणाभावादो । वेउव्वियपदपरिणदेहि वट्टमाणकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणुसखेत्तादो अमुणिदविसेसो फोसिदो । तीदे काले तिण्डं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो फोसिदो। मारणंतिय-उववादपरिणदेहि तीद-वट्टमाणकालेसु भाग स्पर्श किया है। इस विषयमें मनुष्यक्षेत्रका प्रमाण ज्ञात नहीं है। उन्हीं जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, अतीतकाल में पांच राजु बाहल्यप्रमाण तिर्यप्रतरको विक्रिया करनेवाले वायुकायिक जीव निरन्तर स्पर्श करते हैं। स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवोंने वर्तमानकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका-चादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवोंका सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके संख्यातवें भाग स्पर्शनक्षेत्र होनेका क्या कारण है ? समाधान-इसका कारण यह है कि पांच राजु बाहल्यवाला राजुप्रतरप्रमाण क्षेत्र वायुकायिक जीवोंसे परिपूर्ण है और बादर एकेन्द्रिय जीवोंसे आठों पृथिवियां व्याप्त हैं। उन पृथिवियोंके नीचे स्थित बीस बीस हजार योजन बाहल्यवाले तीन दीन वातयलयोंको और लोकान्तमें स्थित वायुकायिक जीवोंके क्षेत्रको एकत्रित करनेपर सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग हो जाता है। इन्हीं उक्त जीवोंने अतीतकाल में भी इतना ही क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, विवक्षित पदपरिणत इन उक्त जीवोंके सभी कालों में अन्यत्र रहनेका अभाव है। वैक्रियिकसमुद्धातसे परिणत बादरएकेन्द्रिय और बादरएकेन्द्रियपर्याप्त जीवोंने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रसे अज्ञातविशेष प्रमाणक्षेत्र स्पर्श किया है । अतीतकालमें उन्हीं जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मरलोक तथा तिर्थग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवें ने अतीत और वर्तमानकालमें Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ४, ५०. सव्वलोगो पोसिदो | एवं बादरेइंदियअपज्जत्ताणं पि वृत्तव्वं । वरि वेउव्वियं णत्थि । मुहुमेइंदिय- सुहुमे इंदियपज्जत्तापज्जत्तएहि सत्थाणसत्थाण- वेदण- कसाय मारणंतिय उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सच्चलोगो पोसिदो, 'सुहुमा जल-थलागासे सव्वत्थ होंति ति वयणादो । 7 बीइंदिय· तीइंदिय- चउरिंदिय-तस्सेव पज्जत्त-अपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ५८ ॥ एदस्सत्थो - वेइंदिय-तेइंदिय - चउरिदिएहि तेसिं पब्जतेहि य सत्थाणसत्याणविहारवदिसत्थाण- वेदण - कसाय परिणदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो | मारणंतिय उववादपरिणदेहि तिह लोगाणमसंखेज्जदिभागो, दोलोगे हिंतो असंखेज्जगुणो पोसिदो । तेसिं चेव अपजत्तेहि: संस्थाणसत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो सर्वलोक स्पर्श किया है। इसी प्रकारले बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका भी स्पर्शनक्षेत्र कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि उनके वैक्रियिकसमुद्धात नहीं होता है । स्वस्थान स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपरिणत सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रियअपर्याप्त जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, 'सूक्ष्मकायिकजीव जल, स्थल और आकाश में सर्वत्र होते हैं' ऐसा आगमका वचन है । द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियपर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रियपर्याप्त, श्रीन्द्रियअपर्याप्त; चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रियपर्याप्त और चतुरिन्द्रियअपर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ५८ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - स्वस्थानस्वस्थान, विहारपत्स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात से परिणत द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने 'सामान्यलोक आदि तीन लोकोका असंख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातपरिणत उन्हीं द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यह १ विकलेन्द्रियैर्लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा । स. सि. १, ८. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ५९. ] • फोसणानुगमे विगलिंदियफोसण परूवणं असंखे गुणो फोसिदो । ऐसा वापरूवणा पुव्युत्तर संभालणणिमित्तं कदा | रावलोगो वा ॥ ५९ ॥ एत्थ चाव 6 वा ' सद्दट्टो उच्चदे- चीइंदिय-तीइंदिय- चउरिदिएहि तेसिं चेव पञ्जतेहि य सत् धाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय परिणदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरि फ्लोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो अदीदकाले पोसिदो । विगलिंदि यरूत्थापत्था सयं पह पव्त्रदस्स परभागे चेत्र होंति त्ति तो परभागे पुव्त्रं व पदरागारेण हड़्दै विगलिंदियसत्थाणसत्थाणखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागमेत्तं होदि | सेसपदेहि वइरि प्रबंधे विगलिंदियां मन्यत्थ तिरियपदररूभंतरे होंति त्ति पदरागारेण इदे एवं विखेत्तं विरियलोगस्स संखेज्ज" दिभागमेत्तं चैव हेोदि । मारणंतियजतेहि सत्थाण- वेदण-कसायउववादपरिणदेहि सव्वलोगों पासिदो । तेसिं चेत्र अप दिभागो, अड्डाइज्जादो परिणदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्ज. असंखेज्जगुणो पोसिदो | मारणंतिथ उववाद परिणदेहिं सव्वलोगो पोस । पंचिदिय [ २४३ वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्रकी प्ररूपणा पूर्व और उत्तर अर्थके अर्थात् अतीत और अति कालसम्बन्धी स्पर्शनश्लेत्र के संभालने के लिए की गई है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ५९ ॥ यहां पर पहले 'वा' शब्दका अर्थ कहते हैं -- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्रातपरिणत द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके ही पर्याप्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यात्तगुणा क्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है । स्वस्थानस्वस्थानस्थ विकलेन्द्रिय जीव स्वयम्प्रभपर्वतके परभागमें ही होते हैं, इसलिए परभागवर्ती क्षेत्रको पूर्वके समान प्रतराकारसे स्थापित करनेपर विकलेन्द्रिय जीवोंका स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र होता है। शेष पदोंकी अपेक्षा वैरी जीवोंके सम्बन्धसे विकलेन्द्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक्प्रतर के भीतर ही होते हैं, इसलिए प्रतराकार से स्थापित करनेपर यह क्षेत्र भी तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागमात्र ही होता है । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपरिणत उक्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है। उन्हीं जीवों में से स्वस्थान स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातपरिणत अपर्याप्त जीवोंने सामान्य लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग तथा अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात तथा उपपादपदपरिणत विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है। पंचेन्द्रियतिर्यच अपर्याप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ४, ५०. तिरिक्खअपज्जत्ताणं जधा कारण उत्तं, तधा एत्थ वि पुध पुध विगलिंदियअपज्जत्ताणं वत्तव्यं । ___पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसुमिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों॥६०॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तपंचिंदियदुगपरूवणाए तुल्ला, उभयत्थ वट्टमाणकालावलंबणं पडि साधम्मादो। अट्ठ चोदसभागा देसूणा, सबलोगो वा ॥ ६१ ॥ .. दुविधपंचिंदियमिच्छादिट्ठीहि सत्थाणपरिणदेहि तिण्डं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो। एत्थ पुव्वं व जोदिसियबेंतरावासरुद्धखेत्तं अदीदकाले पंचिंदियतिरिक्खेहि सत्थाणीकयखेत्तं च घेत्तूण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो दरिसेदव्यो । एसो 'वा' सद्दसूचिदत्थो । विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउवियपरिणदेहि अट्ट चोदसभागा पोसिदा, मेरुमूलादो उवरि छ, हेट्ठा दो रज्जु बतलाते समय जिस प्रकार ( उक्त क्षेत्र होने का जो) कारण कहा है, उसी प्रकारसे यहांपर भी पृथक् पृथक् द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका क्षेत्र बतलाते हुए उसी कारणको कहना चाहिए । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तों में मिध्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ६० ॥ इस सूत्रकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त, इन दोनोंकी क्षेत्रप्ररूपणाके समान है, क्योंकि, दोनों ही स्थानोंपर वर्तमानकालके अवलम्बनके प्रति समानता है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ६१ ॥ ., स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त, इन दोनों ही प्रकारके पंचेन्द्रिय मिथ्यावष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहांपर पूर्वके समान ही ज्योतिष्क और व्यन्तर देवोंके आवासेंसे रुद्व क्षेत्रको तथा अतीतकाल में पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके द्वारा स्वस्थानीकृत अर्थात् स्वस्थानस्वस्थानरूपसे परिणत क्षेत्रको लेकर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग दिखाना चाहिए। यह 'वा' शब्दसे सूचित अर्थ है। बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातपरिणत उक्त दोनों प्रकारके पंचेन्द्रिय जीवोंने आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, मेरुपर्वतके मूलभागसे ऊपर छह राजु और नीचे दो राजु, इस प्रकार आठ राजु क्षेत्रके भीतर सर्वत्र पूर्वपदपरिणत १५न्द्रियेषु मिथ्या मिलोफरयासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा या देशोम।। सर्वलोको वा। स.सि.१॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ६३. ] फोसणाणुगमे पंचिदियौ सण परूवणं [ २४५ खेत्त मंतरे सव्वत्थ पुव्वपदपरिणद दुविह पंचिंदियाणमुवलंभा । मारणंतिय उववादपरिणदेहि सबलोगो पोसिदो, विवक्खिदादीद कालत्तादो । सासणसम्मादिट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ ६२ ॥ एदेसिं गुणट्ठाणाणं वट्टमाणकालविसिखेत्तपरूवणा एदेसिं चेव खेत्ताणिओगद्दारोघम्हि उत्तपरूवणाए तुल्ला । कुद्रो ? सासणप्पहुडि जाव संजदासंजदो त्ति सव्वपदाणं चदुन्हं लोगाणमसंखेज दिमागत्तेण, माणुसखेत्तादो असंखेजगुणत्तेण च एदेसिं चेव खेत्ताणिओगद्दारउत्तपदेहि साधम्मुवलंभादो । सगुणड्डाणाणं पि सव्वपदेहि सरिसत्तदंस णादो च । अदीदकालमस्सिदूण परूवणं कीरमाणे वि णत्थि भेदो, पंचिदियवदिरित्तगुणपडिवण्णाणमभावा । सजोगि केवल ओघं ॥ ६३ ॥ एत्थ वितिविधं कालमस्सिदूण ओघपरूवणा चैत्र कादव्या, उभयत्थ पंचिदियत्तं पडि भेदाभावा । दोनों प्रकारके पंचेन्द्रिय जीव पाये जाते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त दोनों प्रकारके जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, अतीतकालकी यहां पर विवक्षा की गई है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंका स्पर्शऩक्षेत्र ओघ के समान है ॥ ६२ ॥ इन गुणस्थानोंकी वर्तमानकालविशिष्ट स्पर्शन की प्ररूपणा, इन्हीं जीवोंके क्षेत्रानुयोगद्वारके ओघ में कही गई क्षेत्रप्ररूपणा तुल्य है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक सर्व पदका स्पर्शन सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागसे और मानुषक्षेत्रले असंख्यातगुणे क्षेत्रले इन्हीं पूर्वोक्त जीवोंके क्षेत्रानुयोगद्वार में कहे गये पदों के साथ साधर्म्य पाया जाता है; तथा प्रमत्तसंयतादि शेष गुणस्थानवर्ती जीवों के भी सर्वपदोंके साथ सदृशता देखी जाती है । अतीतकालका आश्रय लेकरके स्पर्शनप्ररूपणा के करने पर भी कोई भेद नहीं है, क्योंकि, पंचेन्द्रिय जीवोंको छोड़कर गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवोंका अभाव है । सयोगिकेवली जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघ के समान है ॥ ६३ ॥ यहां पर भी तीनों कालोंको आश्रय लेकर ओघ स्पर्शनप्ररूपणा ही करना चाहिए, क्योंकि, दोनों ही स्थानों पर पंचेन्द्रियता के प्रति भेदका अभाव है । १ शेषाणा सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ छक्खडागमे जीवाण [१, ४, ६४. पचिंदियअपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो ॥ ६१॥ एदस्स सुत्तस्स परूबणा खेत्तभंगा। उत्तमेव किमिदि पुणो वि उच्चदे, फलाभावा ? ण, मंदबुद्धिभवियजणसंभालणदुवारेण फलोवलंभादो। सव्वलोगो वा ॥६५॥ सत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एत्थ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं व तिरियलोगस्स संखेजदिभागत्तं दरिसेदव्यं । एसो 'वा' सद्दसूचिदत्थो । मारणंतिय उववादपरिणदेहि सबलोगो फोसिदो, सबलोगम्हि एदेहि पदेहि सह सव्यअपज्जत्ताणं गमणागमणपडिसेहाभाषा । एवमिंदियमग्गणा समत्ता। लन्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंने कितना क्षेत्र पर्श किया है ? लोकका असं. ख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ६४ ॥ इस सूत्रको स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। शंका-कही गई बात ही पुनः क्यों कही जाती है, क्योंकि, कहे हुएके पुनः कहने में कोई फल नहीं है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, मंदबुद्धि भव्यजनोंके संभालनेकी अपेक्षा पुनः कथन करने का फल पाया जाता है।। लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥६५॥ स्वस्थानस्वस्थान, येदना और कषायसमुद्धातपरिणत उक्त लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातयां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यहां पर लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोंके समान ही तिर्यग्लोकका संख्शतवां भाग दिखाना चाहिए । यह सूत्रोक्त 'या' शब्दसे सूचित अर्थ है । पारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपरिणत लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंने सर्घलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, सम्पूर्ण लोकमें इन दोनों पदोंके साथ सभी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके गमन और आगमनके प्रतिषेधका अभाव है। इसमझार इन्द्रियमाणा समाप्त हुई। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ६६. फोसणाणुगमे थावरकाइयफोसणपरूवर्ण [२४७ सायावादेण पुरविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय वाउकाइयबादरपुढविकाइथ -बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-वादरवाउकाइयबादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर-तस्सेवअपज्जत्त-सुहुमपुढविकाइय-सुहुमआउकाइय-सुहुमतेउकाइय-सुहमवाउकाइय तस्सेवपज्जत्त--अपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, सबलोगो ॥६६॥ पुढविकाइय-आउकाइय तेसिं चेत्र सञ्चसुहुमेहि सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसायमारणंतिय-उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो पोसिदो। बादरपुढविकाइयबादरआउकाइय-तेसिं चेव अपज्जत बादरतेउकाइय-तस्सेव अपज्जत्तवणफदिकाइयपत्तेयसरीरबादरणिगादपदिट्ठिद-तेसिं चेव अपज्जत्तएहि य सत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, माणुसखेतादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। तिरियलोगादो संखेज्जगुणतं कधं णबदे ? ___ कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक जीव तथा बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अनिकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीव तथा इन्हीं पांचोंके बादर कायसम्बन्धी अपर्याप्त जीव; सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और इन्हीं सूक्ष्म जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्म किया है ।। ६६ ॥ ___ स्वस्थान स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत पृथिवीकायिक और जलकायिक जीव और उन्हीके सर्व सूक्ष्मकायिक जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है। स्वस्थान, वेदना और कषायपदपरिगत बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंने, बादर अग्निकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंने, वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर बादानिमोदप्रतिष्ठित और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंने अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों कालोंमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा तथा मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका - उक्त जीवोंने तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, यह कैसे जाना ? १ कायानुवादेन स्थावरकायिकैः सर्वलोकः स्पृष्टः । स, सि. १, ८. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ६६. उच्चदे - एदे पुढवीओ चेव अस्सिदूग अच्छंति । सञ्चपुढवीओ च सत्तरज्जुआयदाओ, पढमपुढची सादिरेग एगरज्जुरुंदा | १|| विदिय पुढवी छहि सत्तभागेहि समहिय एगरज्जुरुंद | १|| दिढवी पंच सत्तभागाहिय वे रज्जुरुंदा | २ | | चउत्थपुढवी चत्तारि - सत्त भागाहिय- तिण्णिरज्जुरुंदा ३ | | पंचमपुढवी तिष्णिसत्त भागाहिय चत्तारिरज्जुरुंदा ४ । छट्ठपुढवी वे सत्तभागाहिय पंच रज्जुरुंदा | ५|| सत्तमपुढवी एग-सत्त भागाहियछरज्जुदा | ६ | | अट्ठमपुढवी सादिरेयएगरज्जुरुंदा । पढमपुढविवाहलं असीदिसहस्साहियजोयणलक्खमाणं होदि १८०००० । विदियपुढवी वत्तीसजोयणसहस्सचा हल्ला ३२००० | तदियपुढवी अट्ठावीसजोयणसहस्सचाहल्ला २८००० । चउत्थपुढवी चउवीसजोयणसहस्सबाहल्ला २४००० | पंचमढवी वीसजोयणसहस्सबाहल्ला २०००० । छपुढवी सोलसजोयणसहस्सबाहल्ला १६००० | सत्तमपुढवी अट्ठजोयणसहस्सबाहल्ला ८००० | अट्टमढवी अट्ठजोयणबाहल्ला ८ । एदाओ अट्ठपुढवीओ पदरागारेण ठइदे तिरियलोग बाहल्लादो संखेजगुणबाहल्लं जगपदरं होदि । मारणंतिय उववादपरिणदेहि समाधान - ये बादर पृथिवीकायिक आदि जीव पृथिवियों का ही आश्रय लेकरके रहते हैं । और सभी पृथिवियां सात राजुप्रमाण आयत हैं । प्रथम पृथिवी साधिक एक राजु चौड़ी है (१) । द्वितीय पृथिवी छड़ बटे सात भागों से अधिक एक राजु चौड़ी है ( १ ) । तृतीय पृथिवी पांच बटे सात भागसे अधिक दो राजु चौड़ी है (२३) । चौथी पृथिवी चार बटे सात भागों से अधिक तीन राजु चौड़ी है ( ३ ) । पांचवी पृथिवी तीन बटे सात भागों से अधिक चार राजु चौड़ी है (४) । छठी पृथिवी दो बटे सात भागोंले अधिक पांच राजु चौड़ी है ( ५3 ) । सातवीं पृथिवी एक बटे सात भागसे अधिक छह राजु चौड़ी है ( ६ )। आठवीं पृथिवी कुछ अधिक एक राजु चौड़ी है (१) । प्रथम पृथिवीकी मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण है । १८०००० ) । द्वितीय पृथिवी बत्तीस हजार योजन मोटी है (३२०००) । तृतीय पृथिवी अट्ठाईस हजार योजन मोटी है (२८०००) । चौथी पृथिवी चौबीस - हजार योजन मोटी है (२४००० ) । पांचवीं पृथिवी बीस हजार योजन मोटी है (२००००)। छठीं पृथिवी सोलह हजार योजन मोटी है ( १६००० ) । सातवीं पृथिवी आठ हजार योजन मोटी है ( ८००० ) । आठवीं पृथिवी आठ योजन मोटी है ( ८ ) । इन आठों पृथिवियोंको प्रतराकार से स्थापित करनेएर तिर्यग्लोकके बाहल्यसे संख्यातगुणा बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है (देखो पृ. ९१ ) । इसलिए उक्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोक से संख्यातगुणा है, यह जाना जाता है । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने भूत, भविष्य और वर्तमान Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ६६. ] फोसणा मे थारकाइयफोसणपरूवणं [ २४९ तीदाणा गवट्टमाणकालेसु सव्वलोगो पोसिदो । कुदो ? तस्सहावत्तादो । तेऊणं पुढविभंगो वरि उब्विय परिणदेहि वट्टमाणकाले पंचन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तीदे तिहूं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो । तं जधा - तेउक्काइया पज्जत्ता चेव वेव्वियसरीरं उट्ठावेंति, अपजत्तेसु तदभावा । ते च पञ्जता कम्मभूमीसु चैव होति त्ति । सयंपहपव्त्रदपरभागखेत्तं जगपदरे बद्धे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदिति । अधवा बादर ते उकाइयपत्ता कम्मभूमी उप्पण्णा वाउसंबंधेण संखेज्जजोयणबाहल्लं तिरियपदरं अदीदकाले सव्वमावृरिय विउव्वंति चि गहिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो चेव होदि । बादरतेकाइया बादरपुढविभंगो, बादरपुढविकाइया इव बादरतेउकाइया वि सव्वपुढवीसु अच्छंति त्ति । वरि वेउव्वियपदस्स तेउकाइयवेउच्वियपदभंगो । वाउकाइयाणं तीदाणागदकाले उकाइयाणं भंगो । णवरि वेउव्वियस्स वट्टमाणकाले माणुसखेत्तगदविसेसो ण जाजिद | अदीकाले वेउब्वियपरिणदेहि वाउक्काइएहि तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोलोगेर्हितो असंखेज्जगुणो पोसिदो । सत्थाण- वेदण-कसाय परिणदेहि बादरवाउकाइए हि इन तीनों कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, उनका यह स्पर्शनक्षेत्र स्वभाव से ही है । अग्निकायिक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र पृथिवीकायिक जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि वैकिसमुद्धातपदपरिणत अग्निकायिक जीवोंने वर्तमानकालमें पांचों प्रकार के लोकोंका असंख्यातवां भाग तथा भूतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । वह इस प्रकार से है तेजस्कायिक पर्याप्त जीव ही वैक्रियिकशरीरको उत्पन्न करते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त जीवों में वैक्रियिकशरीर के उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव है । और वे पर्याप्त जीव कर्मभूमिमें ही होते हैं, इसलिए स्वयम्प्रभपर्वतके परभागवर्ती क्षेत्रको जगप्रतररूपसे करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है । अथवा कर्मभूमि में उत्पन्न हुए बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव वायु के सम्बन्ध से अतीतकाल में संख्यात योजन बाहल्यवाले सर्व तिर्यक्-प्रतरको व्याप्त करके विक्रिया करते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग ही होता है । बादर तेजस्कायिक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र बादर पृथिवीकायिक जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रके समान है, क्योंकि, बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान बादर तेजस्कायिक जीव भी सभी पृथिवियों में रहते हैं । विशेष बात यह है कि वैक्रियिकपदका स्पर्शन तेजस्कायिक जीवोंके वैक्रियिकपदके समान जानना चाहिए । वायुकायिक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र अतीत और अनागतकालमें तेजस्कायिक जीवोंके समान है। विशेष बात यह है कि वर्तमानकालमें वैक्रियिकपदकी मनुष्यक्षेत्रगत विशेषता नहीं जानी जाती है । अतीतकाल में वैक्रियिकपदपरिणत वायुकायिक जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। स्वस्थान• स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्वासपरिणत बादरवायुकायिक जीवोंने अतीत, अनागत और - Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १, ६७. तीदाणागदवट्टमाणकालेसु तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो दोलोगेहितो असंखेज्जगुणो फोसिदो । वेउवियपदस्स वट्टमाणकाले खेत्तभंगो। तीदे काले वेउवियपदस्स वाउकाइयवेउव्यियभंगो । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि बादरवाउक्काइएहि सव्वलोगो पोसिदो। एवं बादरवाउक्काइयअपज्जत्ताणं । णवरि वेउव्वियपदं णत्थि । सुहुमतेउक्काइय सुहुमवाउक्काइया तेसिं पज्जत्त-अपज्जत्तएहि य सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि तीदाणागदवट्ठमाणकालेसु सबलोगो पोसिदो। बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणफदि. काइयपत्तेयसरीरपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखे. ज्जदिभागो ॥ ६७ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो जधा खेत्ताणिओगद्दारे उत्तो तधा वत्तव्यो। सव्वलोगो वा ॥ ६८॥ एत्थ ताव 'वा' सद्दट्ठो बुच्चदे-बादरपुढविकाइयपज्जत्त-बादरआउकाइयपजत्तबादरणिगोदपदिहिदपज्जत्तएहि य सत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखे वर्तमान, इन तीनों कालोंमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । वैक्रियिकसमुद्धातपदका स्पर्शनक्षेत्र वर्तमानकालमें क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीतकालमें वैक्रियिकसमु. द्वातपदका स्पर्शनक्षेत्र वायुकायिक जीवोंके वैक्रियिकपदके स्पर्शनके समान है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत बादरवायुकायिक जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है । इसी प्रकारसे बादरवायुकायिक अपर्याप्त जीवोंका स्पर्शन जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि इनके वक्रियिकसमुद्धातपद नहीं होता है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंने अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है। बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक और बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ६७॥ इस सूत्रका अर्थ जैसा क्षेत्रानुयोगद्वारमें कहा गया है, उसी प्रकारसे कहना चाहिए। उक्त जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है॥६८॥ यहांपर 'वा' शब्दका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातपरिणत बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादरनिगोदप्रतिष्ठित Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४. १८.] फोसणाणुगमे थावरकाइयफोसणपरूवणं [ २५१ अदिभागो, तिरियलोगादो संखेजगुणो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। मारणंतियउववादपरिणदेहि सबलोगो पोसिदो । बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपजत्तएहि य सत्थाणवेदण-कसायपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो। किं कारणं ? सव्वपुढवीसु बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता णत्थि, 'चित्ताए उवरिमभागे चेव अत्थि' त्ति आइरियवयणादो । अधवा, पत्तेयसरीरपज्जत्ता तिरियलोगादो संखेज्जगुणं खेत्तं पुसंति । कुदो ? बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्ताणं तिरियलोगादो संखेज्जगुणपोसणखेत्तभुवगमादो। ण च पत्तेयसरीरपज्जत्तवदिरित्तबादरणिगोदपदिट्टिदपज्जत्ता अस्थि । बादरणिगोदपदिविदा सव्वे पत्तेयसरीरा चेवेत्ति कधं णयदे ? __ बीजे जोणीभूदे जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा । जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए॥१६॥ इदि सुत्तवयणादो णव्यदे। पर्याप्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत जीवोंने सर्व लोक स्पर्श किया है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदना और कषाय मुद्धातपदपरिणत बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। शंका-बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र स्पर्शनक्षेत्र होनेका क्या कारण है ? समाधान-सर्व पृथिवियों में बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव नहीं होते हैं, क्योंकि, 'चित्रापृथिवीके उपरिम भागमें ही बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव होते है' इस प्रकार आचार्योका वचन है। अथवाप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे क्षेत्रको स्पर्श करते हैं, क्योंकि, बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा स्पर्शनक्षेत्र स्वीकार किया गया है। तथा प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंको छोड़कर वादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त नामके कोई अन्य जीव नहीं होते हैं। इसलिए उनका स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा बन जाता है। शंका-बादरनिगोदप्रतिष्ठित जीव सभी प्रत्येक शरीरी ही होते हैं, यह कैसे जाना ? समाधान-'योनीभूत बीजमें वही पूर्व पर्यायवाला जीव अथवा अन्य दूसरा भी जीव चंक्रमण करता है। और जो बीज मूलादिक बादानिगोदप्रतिष्ठित वनस्पतिकायिक भी वे सब प्रथम अवस्थामें प्रत्येकशरीर ही होते हैं॥१६॥ - इस सूत्रवचनसे जाना जाता है कि बादरनिगोदप्रतिष्ठित जीव सभी प्रत्येक शरीरी ही होते हैं। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ४, ६९. बादरणिगोदपदिद्विदपजत्ता सव्वासु पुढवीसु अस्थि ति कधं णबदे ? सव्वपुढवीसु विज्जमाण पुढविकाइयपज्जत्तपोसणेण सह एगत्तेणुवदिट्ठअसंखेज्जाणि तिरियपदराणि त्ति वक्खाणवयणादो णव्वदे। तम्हा पत्तेयसरीरपज्जत्तेहि पोसिदखेत्तेण तिरियलोगादो संखेजगुणेण होदव्वमिदि । जधा पत्तेयसरीरवणप्फदिकाइयपज्जत्ता सव्वासु पुढवीसु होंति, तधा बादरआउकाइयपज्जत्तेहि वि सव्वासु पुढवीसु होदव्यं । अधवा बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्तपत्तेगसरीरा चेव सव्वपुढवीसु होति । बादरणिगोदाणमजोणीभूदपत्तेयसरीर• पज्जत्ता चित्ताए उवरिमभागे चेव होंति ति कट्ट बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपञ्जत्ते पादरणिगोदाणमजोणीभूदे चेव घेत्तूण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो त्ति घेत्तव्यं । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि सव्वलोगो पोसिदो। एवं बादरतेउकाइयपज्जत्ताणं पि वत्तव्यं । णवरि वेउव्वियस्स तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो वत्तव्यो। . बादरवाउपजत्तएहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स संखेज्जदिभागो॥ ६९ ॥ ii...... शंका-बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीव सर्व पृथिवियों में होते हैं, यह कैसे जाना ? समाधान-'सर्व पृथिवियों में विद्यमान पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके स्पर्शनके साथ एकत्वसे उपदिष्ट असंख्यात तिर्यक् प्रतरप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र होता है। इस प्रकारके व्याख्यानवचनले जाना जाता है कि बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीव सर्व पृथिवियों में होते हैं। इसलिए प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोसे स्पृष्ट क्षेत्र तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा होना चाहिए। जिस प्रकारसे प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सभी पृथिवियों में होते हैं, उसी प्रकारसे बादर जलकायिक पर्याप्त जीव भी सभी पृथिवियों में होना चाहिए । अथवा, बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त प्रत्येकशरीरवाले जीव ही सर्व पृथिवियों में होते हैं। बादरनिगोदके अयोनीभूत प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीव चित्रा पृथिवीके उपरिम भागमें ही होते हैं, इसलिए बादर निगोदोंके अयोनीभूत बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीव ही ग्रहण करके अर्थात् उनकी अपेक्षा 'तिर्थग्लोकका संख्यातवां भाग होता है। ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत जीवोंने सर्व लोक स्पर्श किया है। इसी प्रकारसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका भी स्पर्शनक्षेत्र कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि तेजस्कायिक जीवोंके वैक्रियिकसमुद्धात पदका स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है, ऐसा कहना चाहिए। बादरवायुकायिक पर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है।॥ ६९॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ७१. ] फोसणानुगमै थारकाइयफा सण परूवणं [२५३ एदस्त सुत्तस्स अत्थो जधा खेत्ताणिओगद्दारे उत्तो तथा वत्तच्चो, वट्टमाणकाल - मणि द्विदत्तादो | सव्वलोगो वा ॥ ७० ॥ सत्थाणसत्थाण- वेदण-कसाय - वेउव्त्रियपरिणदेहि तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोलोगेर्हितो असंखेज्जगुणो पोसिदो । मारणंतिय-उववादपदपरिणदेहि सव्वलोगो फोसिदो । वणदिकाइयणिगोदजीव बादर सुहुम-पज्जत - अपज्जत्तएहि केव डियं खेत्तं पोसिदं सव्वलोगो ॥ ७१ ॥ वणफदिकाइयणि गोदजीवसु हुमपजत्त - अपजत्तएहि सत्थाण- वेदण- कसाय-मारणंतिय उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो पोसिदो । बादरवणफदिकाइयबादरणिगोद-तेसिं पञ्जत्त - अपजत्तएहिं सत्थाण- वेदण-कसायपरिणदेहि तिसु वि कालेसु इस सूत्र का अर्थ जैसा क्षेत्रानुयोगद्वार में कहा है, उसी प्रकार से यहां पर कहना चाहिए, क्योंकि, वर्तमानकालको आश्रय करके यह सूत्र स्थित है अर्थात् कहा गया है । बाद वायुकायिक पर्याप्त जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ७० ॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात परिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवने सर्वलोक स्पर्श किया है । वनस्पतिकायिक जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकायिक बादर जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है १ सर्वलोक स्पर्श किया है ।। ७१ ।। स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंसे परिणत वनस्पतिकायिक निगोद जीव और उनके सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है । स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातपदपरिणत बादर बनस्पतिकायिक, बादर निगोद उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंने तीनों ही कालोंमें सामान्य Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ७२. तिण्हं लोगाणमसंखेञ्जदिभागो, तिरियलोगादो संखेजगुणो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो पोसिदो। तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघ ॥ ७२ ॥ वट्टमाणकालमदीदकालं च अस्सिदूण जधा ओघम्हि सासणादिगुणाणं परूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादव्वा । णवरि मिच्छाइट्ठीणं पंचिंदियमिच्छादिट्ठिभंगो, मारणंतियउववादपदं मोत्तूण अण्णत्थ सव्वलोगत्ताभावा । तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्ताणं भंगो ॥ ७३ ॥ वट्टमाणकालमस्सिदूण जधा पंचिंदियअपज्जत्ताणं परूवणा कदा, तधा एत्थ वि वमाणकालमस्सिदण परूवणा कादव्वा । जधा अदीदकालमस्सिदण सत्थाण-वेदणकसायपदेहि तिहं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने तीनों ही कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है। त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान धर्तमानकाल और अतीतकालको आश्रय करके जैसी ओघ स्पर्शनप्ररूपणामें सासादन आदि गुणस्थानोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहांपर भी करना चाहिए । विशेष बात यह है कि उसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा पंचेन्द्रियमिथ्यादृष्टि जीवोंके समान जानना चाहिए, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदको छोड़कर अन्यत्र अर्थात् शेष पदोंमें सर्वलोकप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रका अभाव है। त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवोंके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥७३॥ । वर्तमानकालका आश्रय करके जिस प्रकारसे पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहांपर भी वर्तमानकालका आश्रय करके स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिए। तथा जैसे अतीतकालका आश्रय करके स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात. परिणत जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्याता - त्रसकायिकाना पंचेन्द्रियवत्स्पर्शनम् । स. सि. १, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ७५.] फोसणाणुगमे जोगमग्गणाफोसणपरूवणं [२५५ असंखेज्जगुणो, मारणंतिय-उववादपदेहि सबलोगो पोसिदो त्ति पंचिंदियअपज्जत्ताणं परूवणा कदा, तधा एत्थ वि कायव्वा । एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ७४ ॥ एवं सुत्तं वट्टमाणकालमस्सिदूण द्विदमिदि एदस्स परूवणं कीरमाणे जधा खेचाणिओगद्दारे पंचमण-वचिजोगिमिच्छादिट्ठीणं परूवणा कदा, तथा एत्थ वि मंदबुद्धिसिस्ससंभालणटुं परूवणा कादया । अह चोदसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा ॥ ७५॥ पंचमण-पंचवचिजोगिमिच्छादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एत्थ सत्थाणखेत्ताणयणविधाणं जाणिय कादव्यं । एसो ' वा ' सद्दसूचिदत्थो । विहार भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, तथा मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, इसप्रकारसे जैसी पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहांपर भी स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिए। इसप्रकार कायमागेणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥७॥ यह सूत्र वर्तमानकालका आश्रय करके स्थित है, इसलिए इसकी प्ररूपणा करनेपर जैसी क्षेत्रानुयोगद्वारमें पांवों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी मंदबुद्धि शिष्योंके संभालने के लिए स्पर्शनप्ररूपण करना चाहिए। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ७५ ॥ स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्याष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्रके निकालनेका विधान जान करके करना चाहिए । यह 'चा' शब्दसे सूचित अर्थ है । विहार - १ योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिमिमियादृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा । स. सि. १,८. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ७६. वेदण-कसाय-वेउव्वियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । घणलोगमट्ठभागूणतेदालीसरूवेहि छिण्णेगभागो, अधोलोगं साद्धचउव्वीसरूवेहि छिण्णेगभागो, उड्डलोगमट्ठभागूणसाट्ठारस रूवेहि छिण्णेगभागो, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणो पोसिदो त्ति जं उत्तं होदि । मारणंतियपदेण सबलोगो पोसिदो । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ओघं ॥ ७६ ॥ वट्टमाणकालमस्सिदूण जधा खेत्ताणिओगद्दारस्स ओघम्हि एदेसिं चदुण्डं गुणट्ठाणाणं खेत्तपरूवणा कदा, तधा एत्थ वि सिस्ससंभालणटुं परूवणा कादव्या; णत्थि कोइ विसेसो । अदीदकालमस्सिदूण जधा पोसणाणिओगद्दारस्स ओघम्हि तीदाणागदकालेसु वत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैफ्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह ( ४ ) भाग स्पर्श किये हैं, जो कि घनाकार लोकको आठवें भागसे कम तेतालीस (४२४) रूपोंसे विभक्त करने पर एक भाग, अथवा अधोलोकको साढ़े चौवीस (२४३) रूपोसे विभक्त करने पर एक भाग, अथवा ऊर्ध्वलोकको आठवें भागसे कम साढ़े अठारह (१८१) रूपोंसे विभक्त करने पर एक भाग प्रमाण होता है। अर्थात् उक्त तीनों ही पद्धतियोंसे क्षेत्र निकालने पर वही देशोन आठ राजु प्रमाण आ जाता है।। उदाहरण-(१) घनलोक-३४३ : ३४३ = ८ राजु. (२) अधोलोक- १९६६ ४९ = ८ राजु. (३) ऊर्ध्वलोक-१४७ १४७ = ८ राजु. इसप्रकार सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकपदपरिणत जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवती पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान ___ वर्तमानकालका आश्रय करके जैसी क्षेत्रानुयोगद्वारके ओघमें इन चारों गुणस्थानोंकी क्षेत्रप्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी शिष्योंके संभालनेके लिए स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिए । इसके अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता नहीं है। अतीतकालका आश्रय करके जैसी स्पर्शनानुयोगद्वारके ओघमें अतीत और अनागत कालों की अपेक्षा इन चार गुणस्थान १सासादनसम्यग्दृष्टयादीनां क्षणिकषायान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ७७.] फोसणाणुगमे मण-वचिजोगिफोसणपरूवणं [२५० एदेहि चदुगुणट्ठाणजीवेहि छुत्तखेत्तपरूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादवा, विसेसाभावा। णवरि सासणसम्मादिट्ठि--असंजदसम्मादिट्ठासु उववादो पत्थि, उवादेण पंचमग-वचि. जोगाणं सहअगवट्ठाणलक्खणविराहा। पमतसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ७७॥ एदेसिमट्ठण्हं गुणट्ठाणाणं जधा पोसणाणिओगद्दारस्स ओघम्हि तिण्णि काले अस्सिदूण परूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादया । जदि एवं, तो सुत्ते ओघमिदि किण्ण परूविदं ? ण, तधा परूवणाए कायजोगाविणाभाविसजोगिचउबिहसमुग्धादखेत्तपडिसेहफलत्तादो । वर्ती जीवोरे, स्पर्शित क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करना चाहिए, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। विशेष बात यह है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियों में उपपादपद नहीं होता है, क्योंकि, उपपादके साथ पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंका सहानवस्थानलक्षण विरोध है, अर्थात् उपपादमें उक्त योग संभव नहीं हैं। प्रमनसंयत गुणस्थानसे लेकर सोनिकाली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उक्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ७७ ॥ इन आठों गुणस्थानोंकी स्पर्शनानुयोगद्वारके ओघमें तीनों कालोका आश्रय करके जैसी स्पर्शनप्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है, तो सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उस प्रकारकी प्ररूपणा काययोगके अविनाभावी सयोगिकेवलोके चारों प्रकारके समुद्धातक्षेत्रके प्रतिषेध करनेके लिए है। विशेषार्थ-यदि सूत्रमें 'असंखेज्जदिभागो' पदके स्थान पर 'ओघं' ऐसा पद दिया जाता तो केवल मनोयोगी और वचनयोगियोंका स्पर्शनक्षेत्र बताते समय, जो केवल काययोगके निमित्तसे ही केवलोके समुद्धात होता है जिसका कि स्पर्शनक्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक है, उसका प्रतिषेध नहीं हो पाता, अर्थात् अनिष्ट प्रसंग उपस्थित हो जाता। उसी अनिष्टापत्तिके प्रतिषेधके लिए सूत्रमें 'ओघं' पद न देकर ' असंखेज्जदिभागो' पद दिया है। १ सयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, ८. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] छक्खंडागमे जीवाणं कायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ७८ ॥ सत्थाणसत्थाण--वेदण-कसाय - वेउव्त्रिय-मारणंतिय उववादपरिणदकायजोगिमिच्छादिट्ठीणं तिसु वि कालेसु सव्वलोगत्तुवलंमादो, विहारवदिसत्थाण - वेउब्वियपदेहि वट्टमाणकाले तिन्हं लोगाणमसंखे आदिभागत्तेण, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तेण, माणुसखेत्तादो असंखेज्जदिगुणत्तेण; अदीदकाले अड्ड- चोहसभागत्तेण च तुल्लत्तुवलंभादो, सुत्तेण ओघमिदि उत्तं । सासणसम्मादिट्ठिपहुडि जाव [ १, ४, ७८. खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ ७९ ॥ एदेसिमेक्कारसहं गुणङ्काणाण तिविहं कालमस्सिदूग सत्थाणादिपदाणं परूवणा कीरमाणे पोसणाणिओगद्दारोघम्हि जधा तिविहकालमस्सिदूण एक्कारसहं गुणट्ठाणाणं संस्थाणादिपरूवणा कदा, तथा कादव्वा णत्थि एत्थ कोवि विसेसो । सजोगिकेवली ओषं ॥ ८० ॥ काययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक है ||७८ || स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र तीनों ही कालों में सर्वलोक पाया जाता है । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागसे, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागसे, और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्रकी अपेक्षा, तथा अतीतकालमें आठ बटे चौदह ( ) भागप्रमाण स्पर्शन से तुल्यता पाई जाती है, इसलिए सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा है । सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती काययोगी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ ७९ ॥ इन ग्यारह गुणस्थानों की तीनों कालोंको आश्रय करके स्वस्थानादि पर्दों की प्ररूपणा करने पर स्पर्शनानुयोगद्वारके ओघमें जिस प्रकारसे तीनों कालोंका आश्रय लेकर ग्यारह गुणस्थानोंकी स्वस्थानादि पदसम्बन्धी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करना चाहिए, क्योंकि, यहां पर कोई विशेषता नहीं है । काययोगी सयोगिकेवलीका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक है ॥ ८० ॥ १ काययोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादीनां सयोग केवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८, Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ८१. 1 फौसणांणुगमे कायजोगिफोसणपरूवणं [२५९ एदस्स सुत्तस्स पुधारंभो किंफलो ? ण, सजोगिकेवलि - चत्तारिसमुग्धादा कायजोगविणाभाविणोति मंदमेहाविजणावबोहणफलत्तादो । एगजोगं काढूण ओघमिदि उत्ते वि ओघत्तण्णहाणुववत्तीदो कायजोगी वि चदुण्हं समुग्धादाणमत्थित्तं परिच्छिज्जदे चे, ण एस दोसो, ओघमिदि उत्ते इमाणि पदाणि अत्थि, इमाणि च णत्थि त्ति (ण) गव्वदे । जाणि संभवंति पदाणि तेसिं परूवणाओ ओघपरूवणाए तुल्ला ति एत्तियमेत्तं चेव णव्वदे । तेण पुध सुत्तारंभो कायजेोगिम्हि चउव्विहसमुग्धादाणमत्थित्तपदुप्पायणफलो त्ति । ओरालियका यजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८१ ॥ दव्वट्ठियपरूवणाए ओघत्तं जुज्जदे । पज्जवट्ठियपरूवणाए पुण ओघत्तं णत्थि, ओरालियजोगे णिरुद्धे विहार - वेउच्वियपदाणमट्ठ- चोद्दस भागत्ताणुवलंभादो । तदो एत्थ भेदपरूवणा करदे - सत्थाणसत्थाण- वेदण-कसाय मारणंतिय परिणदेहि तिसु वि कालेस सव्वलोगो पोसिदो । उववादो णत्थि, दोन्हं सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहा । वट्टमाणकाले शंका- इस सूत्र के पृथक् आरम्भ करनेका क्या फल है ? समाधान - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि, सयोगिकेवलीमें दंड, कपाटादि चारों समु दात काययोगके अविनाभाषी होते हैं, इस बातका मंदमेधावी जनोंको ज्ञान करानेके लिए इस सूत्र का पृथक् निर्माण किया गया है, और यही सूत्रके पृथक् निर्माणका फल है। शंका- पूर्वसूत्र और इस सूत्रका एक योग अर्थात् एक समास करके ' ओघ ' ऐसा कहने पर भी ओघत्व - अन्यथानुपपत्तिसे काययोगी सयोगिकेवली में दंड-कपाटादि चारों समुद्धार्तोका अस्तित्व जाना जाता है, फिर पृथक् सूत्र-निर्माणकी क्या उपयोगिता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, 'ओघ' ऐसा कहनेपर भी ये अमुक विवक्षित पद होते हैं, और ये अमुक पद नहीं होते हैं, ऐसा विशेष नहीं जाना जाता है। किन्तु जो पद संभव हैं उनकी प्ररूपणाएं ओघप्ररूपणा के साथ समान होती है, इतनामात्र ही जाना जाता है । इसलिए पृथक सूत्रका आरंभ काययोगी सयोगिकेवलीमें चारों प्रकार के समुद्धातोंका अस्तित्व प्रतिपादन करनेरूप फलके लिए है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियों का स्पर्शनक्षेत्र ओघ के समान सर्व लोक है ।। ८१ ॥ द्रव्यार्थिकनकी प्ररूपणा में तो ओघपना घटित होता है, किन्तु पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणा ओघपना घटित नहीं होता है, क्योंकि, भारिककाययोगके निरुद्ध करनेपर विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिक पके स्पर्शनका क्षेत्र आठ बटे चौदह ( ) भाग नहीं पाया जाता है । इससे यहांपर भेदप्ररूपणा की जाती है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और मारणान्तिकपदपरिणत औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है। यहांपर उपपादपद नहीं है, क्योंकि, औदारिककाययोग और उपपादपद, इन दोनोंका सहानवस्थानलक्षण विरोध है । वर्तमानकाल में वैक्रियिकपदपरिणत Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ८२. २६० ] वेउव्वयपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । तीदाणागदेसु तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो, वाउक्काइयdoफोसणस पाघण्णविवक्खाए । विहारपरिणदेहि ओरालियकाय जोगिमिच्छादि । हि बट्टमाणकाले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । तीदाणागदकालेसु तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदा । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८२ ॥ एदस्स वट्टमाणकाल संबंधिसुत्तस्स खेत्ताणिओगद्दारे ओरालियकायजोगिस सणसुत्तस्सेव परूवणा कादव्वा । सत्त चोइसभागा वा देसूणा ॥ ८३ ॥ सत्थाणसत्याण-विहारख दिसत्थाण - वेदण-कसाय- वेउच्त्रियपरिणदेहि सासणसम्मा रक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । अतीत और अनागत, इन दोनों कालों में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग, और नरलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकों से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, यहां पर वायुकायिक जीवोंके वैक्रियिकपदसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्रकी प्रधानतासे विवक्षा की गई है । विहारवत्स्वस्थानपद से परिणत औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अदाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। उन्हीं जीवोंने अतीतकार और अनागतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ८२ ॥ इस वर्तमानकालसम्बन्धी सूत्रकी क्षेत्रानुयोगद्वार में कहे गये औदारिककाययोगी सासादन्यग्दृष्टियोंकी क्षेत्रप्ररूपणा करनेवाले सूत्रके समान स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिए । उक्त जीवोंने अति और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ८३ ॥ स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रिमिकपदपरिणत Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६९ १, ४, ८५.] फोसणाणुगमे कायजोगिफोसणपरूवणं दिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । उववादो णत्थि । मारणंतियपरिणदेहि सत्त चोदसमागा देरणा पोसिदा । केण ऊणा ? इसिपब्भारपुढवीए उवरिमबाहल्लेण । सम्मामिच्छादिट्टीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं,लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८४॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्ताणिओगद्दारोरालियकायजोगसम्मामिच्छादिट्ठिसुत्तपरूवणाए तुल्ला । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउबियपरिणदेहि ओरालियसम्मामिच्छादिट्ठीहि तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । मारणंतिय-उववादा णत्थि । __ असंजदसम्मादिट्ठीहि संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८५॥ -........................... सासादनसम्यग्दृष्टियोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इन जीवोंके उपपादपद नहीं होता है। मारणान्तिकपदयरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह () भाग स्पर्श किये हैं। शंका-यहांपर कुछ कमसे कितना कम क्षेत्र समझना चाहिए ? समाधान-ईषत्प्राग्भार पृथिवीके उपरिम भागके बाहल्यप्रमाणसे कुछ कम क्षेत्र समझना चाहिए। औदारिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ८४ ॥ इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रानुयोगद्वारमें वर्णित औदारिककाययोगी सम्यग्मिथ्याधियोके क्षेत्रका वर्णन करनेवाले सूत्रकी प्ररूपणाके तुल्य है। स्वस्थानस्वस्थान,विहारवत्स्वस्थान, घेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत औदारिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंने भतीत और अनागतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वापसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। औदारिककाययोगी सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों के मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। __ औदारिककाययोगी, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ८५ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ८६. सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउन्धिय-मारणंतियपरिणदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि संजदासंजदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेजगुणो वट्टमाणद्धाए फोसिदो। ... छ चोदसभागा वा देसूणा ॥८६॥ ___ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्बियपरिणदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि संजदासंजदेहि तिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो। एसो 'वा' सद्दसूचिदत्थो । मारणंतिय (-उववाद-) परिणदेहि छ चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा, अच्चुदकप्पादो उवरि असंजदसम्मादिद्विसंजदासंजदाणमुववादाभावादो । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८७॥ एदेसिमट्टण्हं गुणट्ठाणाणं तिण्णि वि काले अस्सिद्ग परूवणं कीरमाणे खेत्त स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्रातपदपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकालमें स्पर्श किया है। औदारिककाययोगी उक्त दोनों गुणस्थानवी जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह पटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ८६ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यह 'वा' शब्दसे सूचित अर्थ है । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह (8) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, अच्युतकल्पसे ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंका उपपाद नहीं होता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी बौदारिककाययोगी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां माग स्पर्श किया है ॥ ८७॥ इन आठों गुणस्थानोंकी तीनों ही कालोंका आश्रय करके स्पर्शनप्ररूपणा करनेपर Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ८८.] फोसणाणुगमे कायजोगिफोसणपखवणं पोसणाणं मूलोघपमत्तादिपरूवणाए समाणा परूवणा कादवा । णवरि सजोगिकेवलिम्हि कवाड-पदर-लोगपूरणाणि णस्थि' । तं कधं णव्वदे ? सजोगिकेवलीहि लोगस्स असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा फोसिदो त्ति सुत्तेण अणिद्दिद्वत्तादो । ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८८ ॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि ओरालियमिस्सकायजोगिमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेमु जेण सव्वलोगो फोसिदो, तेण ओघत्तमेदेसि ण विरुज्झदे । विहारवदिसत्थाण-वेउवियपदाणमेत्थाभावा णोधत्तं जुज्जदे ? होदु णाम क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वारके मूलोघ प्रमत्तादि गुणस्थानोंकी प्ररूपणाके समान प्ररूपणा करना चाहिए। विशेष बात यह है कि सयोगिकेवली गुणस्थानमें कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धात नहीं होते हैं, (क्योंकि, औदारिककाययोगकी अवस्थामें केवल एक दंडसमुद्धात ही होता है।) शंका-यह कैसे जानते हैं कि औदारिककाययोगी सयोगिकेवलीके कपाट आदि तीन समुद्धात नहीं होते हैं ? समाधान-'यह बात सयोगिकेवलियोंने लोकका असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है। इस सूत्रसे निर्दिष्ट नहीं की गई है। ( अतः हम जानते हैं कि औदारिककाययोगी सयोगिजिनमें कपाटादि तीन समुद्धात नहीं होते हैं।) विशेषार्थ-औदारिककाययोगकी अवस्थामें केवल एक दंडसमुद्धात ही होता है। कपाटसमुद्धात आदि नहीं । इसका कारण यह है कि कपाटसमुद्धातमें औदारिकमिश्रकाययोग, और प्रतर तथा लोकपूरणसमुद्धातमें कार्मणकाययोग होता है, ऐसा नियम है। इसलिए यहां, औदारिककाययोगकी प्ररूपणा करते समय सयोगिकेवलीमें कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धात नहीं होते हैं, ऐसा कहा है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान सर्वलोक है ॥ ८८॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें चूंकि सर्वलोक स्पर्श किया है, इसलिए ओघपना इन पदोवाले जीवोंसे विरोधको प्राप्त नहीं होता है। शंका-औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुदात,इन दो पदोका अभाव होनेसे ओघपना नहीं बनता है, इसलिए सूत्र में ओघ' पद नहीं देना चाहिए? समाधान-औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके विहारवत्वस्थान और वैक्रियिकसमु व १ ओरालं दंडदुगे कवाडजुगले य तस्स मिस्सं तु । पदरे य लोगपूरे कम्मेव य होदि णायव्यो । मो.क. ५८७. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ८९. एदेसि दोण्हं पि पदाणमभावो, तधावि पदसंखाविवक्खाभावा विज्जमाणपदाणं फोसणस्स ओघपदफोसणेण तुल्लत्तमत्थि त्ति ओघत्तं ण विरुज्झदे ।। ___ सासणसम्माइटि-असंजदसम्माइट्ठि-सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८९ ।। एदेसिं तिण्हं गुणट्ठाणाणं वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाण-वेदण कसायउववादपरिणदओरालियोमस्ससासणसम्मादिट्ठीहि अदीदकाले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो। कधं तिरियलोगस्त सखेज्जदिमागत्तं ? देव-णेरइयमणुस्स-तिरिक्खसासणसम्मादिट्ठीहि तिरिक्खमणुस्सेसुप्पन्जिय सरीरं घेत्तूण ओरालियमिस्सकायजोगेण सह सासणगुणमुव्यहंतेहि अदीदकाले संखेजंगुलपाहल्लरज्जुपदरं मज्झिल्लसमुद्दवज्ज सव्वं जेण फुसिजदि तेण तिरियलोगस्स सखेज्जदिभागो त्ति वयणं जुञ्जदे । एत्थ विहार-चेउब्धिय-मारणंतिय-पदाणि णत्थि, एदेसिमोरालिय. मिस्सकायजोगेण सहअवट्ठाणविरोहा । उबवादो पुण अत्थि, सासणगुणेण सह अक्कमेण खात, इन दो पदोंका अभाव भले ही रहा आवे, तथापि पदोंकी संख्याकी विवक्षा न करनेसे उनमें विद्यमान पदोंके स्पर्शनकी ओघपदके स्पर्शनके साथ तुल्यता है ही, इसलिए ओघपना विरोधको प्राप्त नहीं होता है। __ औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है॥ ८९॥ इन तीनों ही गुणस्थानोंके स्पर्शनकी वर्तमानकालिक प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषायसमुद्धात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका-तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग कैसे कहा ? समाधान-चूंकि देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने (यथासंभव ) तिर्यंच और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर शरीरको ग्रहण करके औदारिकमिश्रकाययोगके साथ सासादनगुणस्थानको धारण करते हुए अतीतकालमें बीचके समुद्र को छोड़कर संख्यात अंगुल बाहल्यवाले सम्पूर्ण राजुप्रतररूप क्षेत्रका स्पर्श किया है, इसलिए 'तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग' यह वचन युक्तियुक्त है। यहां पर विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिक पद नहीं होते हैं, क्योंकि, इन पदोंका औदारिकमिश्रकाययोगके साथ अवस्थानका विरोध है । किन्तु उपपादपद होता है, क्योंकि, सासादनगुणस्थानके साथ अक्रमसे (युगपत्) उपात्त भवशरीरके प्रथम समयमें Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ८९. ] फोसणाणुगमे कायजोगि फोसणपरूवणं [ २६५ उवात्तमवसरीरपढमसमए उववादोवलंभा । मिच्छादिट्ठीणं पुण मारणंतिय-उववादपदाणि लब्भंति, अणंतो ओरालिय मिस्से इंदियअपज्जत्तरासी सट्टाणे परट्ठाणे च वकमणोवकमणं करेमाणो लब्भदिति । सत्थाणसत्थाण- वेदण-कसाय-उववादपरिणदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि ओरालि मिस्स काय जोगीहि तीदे काले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कथं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तं ? ण, पुव्त्रं तिरिक्ख- मणुस्सेसु आउअं बंधिय पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहणीयं खविय बाउवसेण भोगभूमिसंठाणअसंखेज्जदीवेसु उप्पण्णेहि भवसरीरग्गहणपढमसमए वट्टमाहि ओरालिय मिस्सकायजोगअसंजदसम्मादिट्ठीहि अदीदकाले पोसिदतिरिय लोगस्स संखेज्जदिभागवलंभा | कवाडगदेहि सजोगिकेवलीहि ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; अदीदेण तिरियलोगादो संखेज्जगुणो पोसिदो । एत्थ कवाडखेत्तादो जगपदरुप्पा, विधाणं जाणिय वत्तव्वं । उपपाद पाया जाता है। मिथ्यादृष्टि जीवों के भी मारणान्तिक और उपपादपद पाये जाते हैं, क्योंकि, अनन्तसंख्यक औदारिकमिश्रकाययोगी एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि, स्वस्थान और परस्थान में अपक्रमण और उपक्रमण करती हुई, अर्थात् जाती आती, पाई जाती है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषायसमुद्धात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । शंका - औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों के उपपादक्षेत्रको तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग कैसे कहा ? समाधान - नहीं, क्योंकि, पूर्वमें तिर्यच और मनुष्यों में आयुको बांधकर पीछे सम्यक्तको ग्रहण कर, और दर्शनमोहनीयका क्षय करके बांधी हुई आयुके वशसे भोगभूमिकी रचनावाले असंख्यात द्वीपोंमें उत्पन्न हुए, तथा, भव-शरीर के ग्रहण करनेके प्रथम समय में वर्तमान, ऐसे औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके द्वारा अतीतकालमें स्पर्श किया गया क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग पाया जाता है । कपाटसमुद्धातको प्राप्त, औदारिकमिश्रकाययोगमें वर्तमान सयोगिकेवलियोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । अतीतकालकी अपेक्षासे तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर कपाटसमुद्घातगत क्षेत्रकी अपेक्षासे स्पर्शनक्षेत्रसम्बन्धी जगप्रतरके उत्पादनका विधान जान करके कहना चाहिए । ( इसके लिए देखो क्षेत्रप्ररूपणा पृ. ४९ आदि ) । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ४, ९०. - वेउव्वियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९० ॥ एवं सुत्तं जेण वट्टमाणकाले पडिबद्धं तेणेदस्त वक्खाणे कीरमाणे जधा खेत्ताणिओगद्दारे वेउव्वियकायजोगिमिच्छाइटिप्पहुडि-बद्धसुत्तस्स वक्खाणं कदं, तधा एत्थ वि कायव्वं । अट्ठ तेरह चोदसभागा वा देसूणा ।। ९१ ॥ ___ सत्थाणसत्थाणपरिणद-वेउव्वियमिच्छादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउवियपरिणदेहि अट्ट चोद्दसभागा फोसिदा । उववादो णत्थि । मारणतिय. परिणदेहि तेरह चोदसभागा फोसिदा, हेट्ठा छ, उवरि सत्त रज्जू । घणलोगमेगरूवस्स अट्ठतेरसभागूण-सत्तावीसरूवेहि खंडिदएगखंडं फोसति त्ति वुत्तं होइ । . वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥९० ॥ . चूंकि यह सूत्र वर्तमानकालसे सम्बद्ध है, इसलिए इसका व्याख्यान करने पर जिस प्रकारसे क्षेत्रानुयोगद्वारमें वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि आदिक जीवोंसे प्रतिबद्ध सूत्रका व्याख्यान किया है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करना चाहिए। ... वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों कालोंकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह, और कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग स्पर्श किये है ॥ ९१ ॥ स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, और वैक्रियिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (2) भाग स्पर्श किये हैं। यहां पर उपपादपद नहीं होता है, (क्योंकि, मिश्रयोग और कार्मणकाययोगके सिवाय अन्य योगोंके साथ उपपादपदका सहानवस्थानलक्षण विरोध है)। मारणान्तिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने (कुछ कम) तेरह बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं, जो कि मेरुतलसे नीचे छह राजु और ऊपर सात राजु जानना चाहिए । घनाकारलोकको एक रूपके आठ बटे तेरह (ई) भागसे कम सत्ताइस (२६५) रूपोंसे खंडित (विभक्त) करने पर एक खंड प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श करते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए। . . Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ९३.] फोसणाणुगमे कायजोगिफोसणपरूवणं [२६७ सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ ९२॥ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाणपरिणदवेउव्वियकायजोगिसासणसम्मादिट्ठीहि तिण्डं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । एत्थ तिरियलोयस्स संखेज्जदिभागपरूवणं पुव्वं व वत्तव्यं । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-बेउव्वियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा फोसिदा । उववादो णत्थि । मारणंतियपरिणदेहि बारह चोदसभागा फोसिदा । तेणोघमिदि जुञ्जदे । सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥ ९३ ॥ जेणेदेसिं वद्दमाणपरूवणा खेत्तोघपरूवणाए तुल्ला, तेणोघं होदि । अदीदपरूवणा वि फोसणोघेण तुल्ला । तं जहा- सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि तिहं लोगाणमसंखेज्जदिमागो, तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । असंजद वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघस्पर्शनके समान है ॥ ९२॥ इस सूत्रकी वर्तमान स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । स्वस्थानस्वस्थान. पदपरिणत वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागकी प्ररूपणा पूर्वके समान ही करना चाहिए। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत वैक्रियिककाययोगी जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं। इनके उपपादपद नहीं होता है । मारणान्तिकसमुद्धातपदसे परिणत उक्त जीवोंने बारह बटे चौदह (१३) भाग स्पर्श किये हैं। इसलिए सूत्रमें दिया गया 'ओघ ' यह पद युक्तिसंगत है। वैक्रियिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है ॥ ९३ ॥ चूंकि इन दोनों गुणस्थानवी जीवोंकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रसम्बन्धी ओघप्ररूपणाके तुल्य है, इसलिए उनकी स्पर्शनप्ररूपणा ओघके तुल्य होती है। अतीत. कालिक स्पर्शनप्ररूपणा भी ओघस्पर्शनप्ररूपणाके समान है। वह इस प्रकारसे है-स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत बैक्रियिककाययोगी सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवाने सामान्यलोक लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ९४. सम्मादिस्सि उववादो णत्थि । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स मारणंतिय उववादो णत्थि । तेणेत्थ वि ओघत्तमेदेर्सि जुञ्जदे । वेडव्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टि सासणसम्मादिट्टि असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९४ ॥ " एदस्य सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाण- वेदण-कसाय उववादपरिणदवेउच्चियमिस्सकायजोगिमिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । विहारव दिसत्थाणवे उव्विय-मारणंतिय पदाणि णत्थि । सासणसम्मादिट्ठिस्स वि एवं चैव वत्तव्यं, वाणवेंतरजोदिसि यदेवाणमसंखेज्जावासेसु तिरियलोगस्स संखेज्जदिभाग मोट्ठहिय ट्ठिदे सासणाणमुपपत्तिदंसणादो | असंजदसम्माइट्ठीहि सत्थाणसत्थाण वेदण-कसाय-उववाद परिणदेहि चउन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, वाणवेंतर- जोदि सिय वैक्रियिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके उपपादपद नहीं होता है । वैक्रियिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। इसलिए यहां पर भी ओघपना बन जाता है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ९४ ॥ इस सूत्र की वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है । स्वस्थानस्वस्थान, बेदना, कषाय और उपपादपदपरिणत वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकालमें सामान्य लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्धात, ये पद नहीं होते हैं। सासादनसम्यदृष्टि गुणस्थानकी भी स्पर्शनप्ररूपणा इसी प्रकार से कहना चाहिए । तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागको व्याप्त करके स्थित वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंके असंख्यात आवासोंमें सासावनसम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति देखी जाती है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपादपदपरिणत वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ९६.] फोसणाणुगमे कायजोगिफोसणपरूवणं [२६९ भवणवासिएसु एदेसिमुववादाभावा; सम्मादिहिउववादपाओग्गसोधम्मादिउवरिमविमाणाणं तिरियलोगस्स असंखेनदिभागे चेव अवट्ठाणादो । आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९५॥ ___एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेदण-कसायपरिणदेहि आहारकायजोगिपमत्तसंजदेहि तीदे काले चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो फोसिदो । उववाद वेउधियं णस्थि । मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणुसखेतादो असंखेज्जगुणो। आहारमिस्सकायजोगिपमत्तसंजदेहि सत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो फोसिदो। कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९६ ॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-उववादपरिणदेहि मिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु पानव्यन्तर, ज्योतिष्क और भवनवासी देवों में इनका, अर्थात् वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका, उपपाद नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि जीवोंके उपपादके प्रायोग्य सौधर्मादि उपरिम विमानोंका तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमें ही अवस्थान देखा जाता है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रमत्तसंयतोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ९५ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातपरिणत आहारककाययोगी प्रमत्तसंयत जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और मनुष्य क्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। आहारककाययोगियोंके उपपाद और वैक्रियिकपद नहीं होते हैं । मारणान्तिकपदपरिणत आहारककाययोगी जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्ससंयतोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ओधके समान स्वस्थानस्वस्थान, वेदमा, कषाय और उपपादपदपरिणत कार्मणकाययोगी मिथ्या. रवि जीवोंने तीनोंही कालोंमें चूंकि सर्पलोग स्पर्श किया है, इसलिए सूत्रमें 'भो ऐसा Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ९७. जेण सव्वलोगो फोसिदो, तेण सुत्ते ओघमिदि वृत्तं । एत्थ विहारवदि सत्थाण-वेउब्वियमारणंतियपदाणि णत्थि । सासणसम्मादिडीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेजदि. भागो ॥ ९७ ॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । एक्कारह चोइसभागा देणा ॥ ९८ ॥ एत्थ उववादवदिरित्त सेसपदाणि णत्थि, कम्मइयकायजोगविवक्खादो । उववादे वट्टमाणा सासणा हेट्ठा पंच, उवरि छ रज्जूओ फुसति ति एक्कारह चोदसभागा फोसिदखेत्तं होदि । असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९९ ॥ एदस्स परूवणा खेत्तभंगो, वट्टमाणकालपडिबद्धतादो | छ चोसभागा देणा ॥ १०० ॥ पद कहा है। यहां, अर्थात् कार्मणकाथयोगी मिथ्यादृष्टियोंके, विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्वात, इतने पद नहीं होते हैं। कार्मण काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ९७ । इस सूत्र की वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है । कार्मण काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने तीनों कालोंकी अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। १८ ।। siपर उपपादपदको छोड़कर शेष पद नहीं हैं, क्योंकि, कार्मणकाययोगकी विवक्षा की गई है । उपपादपद में वर्तमान सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मेरुके मूलभागसे नीचे पांच राजु और ऊपर अच्युतकल्पतक छह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं, इसलिए ग्यारह बटे चौदह (१४) भाग प्रमाण स्पर्श किया हुआ क्षेत्र हो जाता है । कार्मणका योगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ९९ ॥ वर्तमान कालसे प्रति संबद्ध होनेसे इस सूत्र की स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने तीनों कालोंकी अपेक्षासे कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। १०० । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १०२.] फोसणाणुगमे वेदमगग्णाफोसणपरूवणं [ २७१ एत्थ वि उववादपदमेक्कं चेव । तिरिक्खासंजदसम्माइविणो जेणुवरि छ रज्जूओ गंतूणुप्पज्जति, तेण फोसणखत्तपरूवणं छ-चोद्दसभागमेत्तं होदि । हेट्ठा फोसणं पंचरज्जुपमाणं ण लब्भदे, णेरइयासंजदसम्मादिट्ठीणं तिरिक्खेसुववादाभावा । सजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा ॥ १०१ ॥ पदरगदकेवलीहि लोगस्स असंखेज्जा भागा फोसिदा, लोगपेरंतट्ठिदवादवलएसु अपविट्ठजीवपदेसत्तादो। लोगपूरणे सव्वलोगो फोसिदो, वादवलएसु वि पविट्ठजीवपदेसत्तादो। एवं जोगमग्गणा समत्ता । वेदाणुवादेण इथिवेद-पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १०२॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगो, वट्टमाणकालपडिबद्धत्तादो । ............ यहां पर भी केवल उपपादपदही होता है। तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीव चूंकि मेरुतलसे ऊपर छह राजु जाकरके उत्पन्न होते हैं, इसलिए स्पर्शनक्षेत्रकी प्ररूपणा छह बटे चौदह ६ भाग प्रमाण होती है । मेरूतलसे नीचे पांच राजु प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र नहीं पाया जाता है, क्योंकि, नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका तिर्यंचों में उपपाद नहीं होता है। कार्मणकाययोगी सयोगिकेवलियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १०१॥ __ प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलियोंने लोकके असंख्यात बहुभाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, लोकपर्यंत स्थित वातवलयोंमें केवली भगवान्के आत्मप्रदेश प्रतरसमुद्धातमें प्रवेश नहीं करते हैं। लोकपूरणसमुद्धातमें सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, लोकके चारों ओर व्याप्त वातवलयोंमें भी केवली भगवानके आत्मप्रदेश प्रविष्ट हो जाते हैं। इसप्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १०२॥ . वर्तमानकालसे सम्बद्ध होनेके कारण इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। . १ वेदानुवादेन-स्त्रीपुंवेदैभिध्यादृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा । स. सि. १,८. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १०३. अट्टचोदसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा ॥ १०३ ॥ -- सत्थाणत्थेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एत्थ वाणवेंतर-जोदिसियावासे सखेजजोयणबाहल्लं रज्जुपदरं च घेत्तूण तिरियलोगस्स संखेजदिभागो साहेदव्वो। विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउव्वियपरिणदेहि अट्ठ चोदसभागा फोसिदा, अट्ठरज्जु. बाहल्ल-रज्जुपदरपरिभमणसत्तिजुत्तदेवित्थि-पुरिसवेदमिच्छादिट्ठीणमुवलंभादो। मारणंतियउववाद-परिणदेहि सव्वलोगो फोसिदो, दुपदपरिणदमिच्छादिट्ठीणमगम्मपदेसाभावादो। - सासणसम्मादिहीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागों ॥ १०४॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगो, वट्टमाणकालपडिबद्धत्तादो। अट्ठ णव चोदसभागा देसूणा ॥ १०५॥ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १०३ ॥ स्वस्थानस्थ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंके आवासोंको, तथा संख्यात योजन प्रमाण बाहल्यवाले राजुप्रतरको ग्रहण करके तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग साधलेना चाहिए। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातपरिणत उक्त जीवोंने आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, आठ राजु बाहल्यवाले राजुप्रतरप्रमाण क्षेत्रमें परिभ्रमणकी शक्तिसे युक्त देव स्त्री और पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीव पाये जाते हैं। मारणोन्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, मारणान्तिक और उपपाद, इन दोनों पदोंसे परिणत स्त्री और पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अयम्यप्रदेशका अभाव है। स्त्री और पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १०४॥ धर्तमानकालसे सम्बद्ध होने के कारण इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्त्री और पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह तथा नौ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १०५॥ १सासादनसम्यग्दृष्टिमिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोनाः। स. सि. १,८. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १०५. ] फोसणाणुगमे इत्थि - पुरिसवेदय फोसणपरूवणं [ २७३ , सत्थाणत्थेहि सासणसम्मादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, अदीदकालविवक्खादो | एत्थ वि पुव्वं व तिणि खेत्ताणि घेत्तूण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो दरिसेदव्वो । एसो 'वा सद्दट्ठो । विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसायपरिणदेहि अट्ठ चोहसभागा देसूणा फोसिदा, अट्ठरज्जुबाहल्लरज्जुपदरब्भंतरे देवित्थि - पुरिससासणाणं गमणागमणं पडि पडिसेहाभावा । मारणंतियपरिणदेहि णव चोदसभागा देसूणा फोसिदा । हेट्ठा पंच रज्जू फोसणं किण्ण लब्भदे ! ण, रइएहिंतो इत्थि - पुरिसवेदे सासणाणं तिरिक्ख-मणुस्सेसु मारणंतियमेल्लमाणाणमभावादो, तिरिरक्खित्थि - पुरिसवेदसासणाणं णिरयगदिं मारणंतियं मेल्लमाणाणमभावादो च । उववादपरिणदेहि एक्कारह चोहसभागा देखणा फोसिदा । सुत्ते उववादफोसणं किण्ण वृत्तं ? ण, फोसणसुत्ते उववादविवक्खाभावा । णिरयादो आगच्छंतेहि पंच उक्त दोनों वेदवाले स्वस्थानस्थ सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है; क्योंकि, यहांपर अतीतकालकी विवक्षा है। यहांपर भी पूर्वके समान तीनों क्षेत्रोंको ग्रहण करके तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग दर्शाना चाहिए । यही सूत्रपठित 'वा' शब्दका अर्थ है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं; क्योंकि, आड राजु बाहल्वाले राजुप्रतर के भीतर देव स्त्री और पुरुषवेदी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके गमनागमनके प्रति प्रतिषेधका अभाव है । मारणान्तिकसमुद्धात परिणत उक्त जीवोंने कुछ कम नौ बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । शंका - मेरुतलसे नीचे पांच राजुप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नारकियोंसे स्त्री और पुरुषवेदी तिर्यचों और मनुष्यों में मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका अभाव है; तथा नरकगतिके प्रति मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले स्त्री और पुरुषवेदी तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका भी अभाव है । उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह (१) भाग स्पर्श किये हैं । शंका – सूत्र में उपपादपदसम्बन्धी स्पर्शनका प्रमाण क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, स्पर्शनानुगम सम्बन्धी सूत्रमें उपपादपदकी विवक्षाका अभाव है। नरकगति से आनेवाले जीवोंकी अपेक्षा पांच राजु, और देवगतिसे आनेवाले जीवोंकी Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] क्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, १०६. रज्जू, देवेहिंतो आगच्छंतेहि छ रज्जू फोसिदा ति एक्कारह चोदसभागा फोसणखेत्तं होदि । सम्मामिच्छादिट्टि असंजदसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १०६ ॥ एदस्य सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगो, वट्टमाणकालविवक्खादो । अट्ट चोहसभागा वा देखणा फोसिदा ॥ १०७ ॥ - सत्थाणत्थेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, तीदकालविवक्खादो । विहारवदि सत्थाण वेदणकसाय - देउच्चिय-मारणंतिय परिणदेहि अट्ठ चोहसभागा देणा फोसिदा । गवरि सम्मा मिच्छाइट्ठीणं मारणंतियं णत्थि । उववादपरिणदेहि छ चोदसभागा देणा फोसिदा । णवरि सम्मामिच्छादिट्ठीणं उववादो णत्थि । इत्थिवेदेसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उववादो णत्थि । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १०८ ॥ अपक्षा छह राजु स्पर्श किये गये हैं । इस प्रकार ग्यारह बटे चौदह ( ११ ) भाग उपपादका स्पर्शनक्षेत्र है । वेद और पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है || १०६॥ वर्तमानकालकी विवक्षा होनेसे इस सूत्र की प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान जानना चाहिए । उक्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १०७ ॥ स्वस्थानस्थ स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी तृतीय व चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है; क्योंकि, यहां पर अतीतकालकी विवक्षा की गई है । विद्वारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह ( ४ ) भाग स्पर्श किये हैं । विशेष बात यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धातपद नहीं होता है । उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । विशेषता यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके उपपादपद नहीं होता है | स्त्रीवेदी जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपपाद नहीं होता है । । वेद और पुरुषवेदी संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १०८ ॥ १ असंयत सम्यग्दृष्टिभिः संयतासंयतेलों कस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि, १, ८. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ११०.] फोसणाणुगमे इत्थि-पुरिसवेदयफोसणपरूवर्ण .[२७५ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगो, विवक्खिदवट्टमाणकालत्तादो । छ चोदसभागा देसूणा ॥ १०९॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-बेउब्धियपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो, विवक्खिदातीदकालत्तादो। मारणंतियपरिणदेहि छ चोदसभागा देसूणा फोसिदा, अच्चुदकप्पादो उवरि तिरिक्खसंजदासंजदाणमुववादाभावा । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टिउवसामग-खवएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११० ॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा। अदीदकाले एदेहि सत्थाण-विहारवेदण-कसाय-वेउधियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो। पमत्तसंजदे तेजाहारपदाणं वि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि इस्थिवेदे तेजाहार वर्तमानकालकी विवक्षा होनेसे इस सूत्रकी स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान जानना चाहिए। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी संयतासंयत जीवोंने अतीत और अनागतक लकी विवक्षासे कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥१.९॥ ___ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैकियिकपदपरिणत स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी संयतासंयत जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है क्योंकि, यहांपर अतीतकालकी विवक्षा की गई है। मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह (1) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, अच्युतकल्पसे ऊपर तिर्यंच संयतासंयत जीवोंका उपपाद नहीं होता है। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशामक और क्षपक गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ११०॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीतकाल में स्वस्थानस्वस्थान. विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और क्रियिकसमुद्धातपरिणत इन्हीं उक्त जीवाने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात, इन दोनों ही पदोंमें इसी प्रकारसे स्पर्शनक्षेत्र कहना चाहिए । विशेष बात यह है.कि-स्त्रीवेदमें १ प्रमत्तायनिवृत्तिवावरान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.५ छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, १, १११. णत्थि । मारणंतिय-परिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। . णउंसयवेदएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १११ ॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदणqसयवेदमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु जेण सव्वलोगो फोसिदो; विहारपरिणदेहि तिसु वि कालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो ति; तेण ओघत्तं जुज्जदे । किंतु वेउब्धियपदस्स ओघभंगो ण होदि, तत्थ वेउब्बियपदं वट्टमाणकाले तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेत्तमदीदकाले उभयत्थ वि अह पंच चोहसभागा ति? ण, पदविसेसविवक्खामावेण ओघणिद्देसस्स विरोहाभावा ।। सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ ११२ ॥ तेजस और आहारकसमुद्धात, ये दोनों पद नहीं होते हैं। मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। नपुंसकवेदी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान सर्वलोक है॥१११॥ शंका-स्वस्थानखस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक और उपपाद, इन पदोंसे परिणत नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें चूंकि सर्वलोक स्पर्श किया है। तथा विहारवत्स्वस्थानपदपरिणत उक्त जीवोंने तीनों ही कालोंमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका भसंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसलिए सूत्रमें कहा गया ओघपना घटित हो जाता है। किन्तु वैक्रियिकपदका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान घटित नहीं होता है, क्योंकि, वहां पर, अर्थात् ओघप्ररूपणामें (देखो पृ. १४८), वैक्रियिकपदका वर्तमानकालमें तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र, और भंतीतकालमें दोनों ही स्थलोपर, अर्थात् ओघप्ररूपणामें और आदेशप्ररूपणाके अन्तर्गत, वेदप्ररूपणामें माठ बटे चौदह (४) तथा पांच बटे चौदह (१५) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहा है? समाधान नहीं, क्योंकि, पदविशेषकी विवक्षाका अभाव होनेसे सूत्रमें ओघपदका निर्देश विरोधको प्राप्त नहीं होता है। नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ११२ ॥ १ नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टीना सासादनसम्यग्दृष्टीना व सामान्योक्त स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ११४.] फोसणाणुगमे णसयवेदयकोसणपरूवणं (३७७ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तमंगो। बारह चोदसभागा वा देसूणा ॥ ११३॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्बियपरिणदेहि णqसयसासणेहि तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो, पहाणीकदतिरिक्खसासणरासित्तादो। उववादपरिणदेहि एक्का. रह चोदसभागा देसूणा फोसिदा, णqसगवेदतिरिक्खसासणेसुप्पज्जमाणदेव-णेरइयाणं छ-पंचरज्जुबाहल्लतिरियपदरफोसणोवलंभादो। मारणंतिय-परिणदेहि बारह चोहसभागा फोसिदा, णेरइय-तिरिक्खाणं पंच-सत्तरज्जुवाहल्लरज्जुपदरफोसणोवलंभादो। ___ सम्मामिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११४ ।। ____एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउब्बियपरिणदेहि णqसयवेदसम्मामिच्छादिट्ठीहि तीदे काले तिण्हं लोगाणम इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ११३ ॥ __ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत नपुं. सकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातयां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, यहां पर तिर्यंच सासादन जीवराशिकी प्रधानता है। उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं। क्योंकि, नपुंसकवेदी तिर्यय सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में उत्पन्न होनेवाले देवोंकी अपेक्षा छह राजु, और नारकियोंकी अपेक्षा पांच राजु, इसप्रकार मिलकर ग्यारह राजु बाहल्यवाले तिर्यप्रतरप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने बारह बटे चौदह (१३) भाग स्पर्श किये हैं। क्योंकि, नारकियोंके पांच राजु और तिर्यचोंके सात राजु, इसप्रकार बारह राजु बाहल्यवाला राजुप्रतरप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। . नपुंसकवेदी सभ्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ११४ ॥ इस सत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत नपुंसकवेदी सम्यग्मिध्याहृष्टि जीबोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका १ सम्यग्मिभ्यारष्टिमिलोकस्पासंख्येयभागः स्पृष्टः । स. सि. १, 6. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] छक्खंडगिमे जीवट्ठाणं संखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो, तिरियरासिस्स पाधण्णादो । मारणंतिय-उववादा णस्थि । असंजदसम्मादिहि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स . असंखेज्जदिभागो ॥ ११५॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । छ चोदसभागा देसूणा ॥ ११६ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउबियपरिणदेहि णqसगवेद-असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । एसो 'वा' सद्दवो । मारणंतियपरिणदेहि छ चोदसभागा देसूणा फोसिदा, अच्चुदकप्पादो उवरि तिरिक्खासंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदाणं गमणाभावा । उववादपदं णत्थि। णवरि असंजदसम्मादिट्ठीहि उववादपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो।। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ ११७ ॥ संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। क्योंकि, यहांपर तिर्यच. राशिकी प्रधानता है । यहांपर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ११५ ।। इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। उक्त जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥११६ ॥ . ... स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संण्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'पा' शब्दका अर्थ है । मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह (१) भाग स्पर्श किये हैं; क्योंकि, अच्युतकल्पसे ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंके गमनका अभाव है। यहांपर उपपादपद नहीं होता है । विशेष बात यह है कि उपपादपदपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातयां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। ___ उक्त नपुंसकवेदी जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥ ११७॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, ११९.] फोसणाणुगमे णQसयवेदयफोसणपरूवणं [२७९ पमत्ते तेजाहाराभावादो ओघत्तं ण जुज्जदे ? ण, सुत्ते पदविवक्खाए विणा साम• ण्णणिदेसादो । सेसं चिंतिय वत्तव्यं । ___ अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ११८ ॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणादीदकालपरूवणा ओघादो ण भिज्जदि ति सुत्ते ओघमिदि भणिदं । सजोगिकेवली ओघं ॥ ११९ ॥ एगजोगो किण्ण कदो ? ण, पुव्यखेत्तेण सजोगिखेत्तस्स अदीद-वट्टमाणकालेसु तुल्लत्ताभावादो एगजोगत्ताणुववत्तीए । एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो सुगमो ति ण किंचि बुच्चदे। एवं वेदमग्गणा समत्ता । शंका-प्रमत्त गुणस्थानमें नपुंसकवेदी जीवोंके तैजस और आहारकसमुद्धातका अभाव होनेसे सूत्रोक्त ओघपना नहीं घटित होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, सूत्रमें उक्त दोनों पदविशेषोंकी विवक्षाके विना सामान्य निर्देश किया गया है। शेष पदोंका स्पर्शनक्षेत्र विचार करके कहना चाहिए। अपगतवेदी जीवोंमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ ११८ ॥ ___ इस सूत्रकी वर्तमान और अतीतकालसम्बन्धी स्पर्शनप्ररूपणा ओघस्पर्शनप्ररूपणासे भिन्न नहीं है, इसलिए सूत्र में 'ओघ' यह पद कहा है। अपगतवेदी सयोगकेवली जिनोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ ११९॥ शंका-ऊपरके सूत्रका और इस सूत्रका, अर्थात् दोनों सूत्रोंका, एक योग (समास) क्यों नहीं किया ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, प्रमत्तसंयतादिके क्षेत्रसे सयोगिकेवलोके क्षेत्रके अतीत और वर्तमानकालमें समानताका अभाव होनेसे एकयोगपना नहीं बन सकता है। .. इस सूत्रका भी अर्थ सुगम है, इसलिए विशेष कुछ भी नहीं कहा जाता है। .. इसप्रकारसे वेदमार्गणा समाप्त हुई। १ अपगतवेदानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०) ' छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १२०. . कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अणियट्टि ति ओघं ॥ १२० ॥ . एदस्स सुत्तस्स अदीद-वट्टमाणकाले अस्सिदूण परूवणे कीरमाणे फोसणमूलोघादो ण केण वि असेण भिज्जदि ति ओघमिदि सुत्तवयणं सुट्ठ संबद्धं । तदो मूलोघपरूवणं सुड्ड संभालिय एत्थ सिस्साणं पडिबोहो कायव्यो । लोहगयविसेसाववोहणट्ठमुत्तरसुत्तं भण्णदेणवरि लोभकसाईसु सुहुमसांपराइयउवसमा खवा ओघं ॥१२१॥ कुदो ? ओघसुहुमसांपराइयउवसम-खवगेहिंतो एदेसिं विसेसाभावा । सो च विसेसाभावो सिस्साणं सण्णिदरिसेयव्यो। अकसाईसु चदुट्ठाणमोघं ॥ १२२ ॥ कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोमकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १२०॥ __इस सूत्रकी अतीत और वर्तमानकालको आश्रय करके प्ररूपणा करनेपर स्पर्शनानुयोगद्वारकी मूल ओघप्ररूपणाले किसी भी अंशसे भेद नहीं है, इसलिए 'ओघ' ऐसा सूत्रवचन सुसम्बद्ध है। अतएव मूल ओघप्ररूपणाको भलेप्रकार संभाल करके यहांपर शिष्योंको प्रतिबोधित करना चाहिए। अब लोभकषायगत विशेषताके अवबोधनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं विशेष बात यह है कि लोमकषायी जीवोंमें सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवती उप. शमक और क्षपक जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ १२१ ॥ क्योंकि, ओघनिरूपित सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवी उपशमक और क्षपकोंसे कषायमार्गणाकी दृष्टिसे प्ररूपित इन जीवोंके कोई विशेषता नहीं है। वह विशेषताका अभाव शिष्यों के लिए भलीभांति दिखाना चाहिए। अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानवालोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १२२ ॥ १ कषायानुबादेन चतुष्कषायाणां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८. २ अकषायाणां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १२१.] फोसणाणुगमे मदि-सुदअण्णाणिफोसणपरूवणं [२८१ णामेगदेसग्गहणे वि णामिल्लसंपच्चओ होदि त्ति चदुट्ठाणसहेण वीदरागाणं चदुण्हं गुणट्ठाणाणं गहणं होदि । तेसिं परूवणा सुगमा, ओघसमाणत्तादो। __ एवं कसायमग्गणा समत्ता।। णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १२३॥ जेण सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदमदि-सुदअण्णाणिमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु सबलोगो, विहार-वेउब्बियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा फोसिदा, तेण ओघमिदि जुज्जदे । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ १२४ ॥ ओघो जेण अणेयपयारो मिच्छादिडिओघादिभेदेण, तेण कस्सोधस्स एत्थ गहणं होदि ति ण णव्वदे १ जेणोघेण सासणसम्मादिट्ठीणं पगरिसेण पञ्चासत्ती अत्थि, तस्सेव "किसी भी नामके एक देशके ग्रहण करनेपर भी नामवालोंका सम्प्रत्यय हो जाता है' इस न्यायके अनुसार 'चतुःस्थान' शब्दसे उपशान्तकषाय आदि वीतरागी चारों गुणस्थानोंका ग्रहण हो जाता है । उनके स्पर्शनकी प्ररूपणा ओघके समान होनेसे सुगम है। इसप्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १२३ ॥ चूंकि स्वस्थानखस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत मत्यशानी तथा श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है, तथा विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातपदपरिणत जीवोंने आठ बटे चौदह (ट) भाग स्पर्श किये हैं, इसलिए सूत्रोक्त 'ओघ' यह वचन घटित हो जाता है।। ___उक्त दोनों प्रकारके अज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओधके समान है ॥ १२४ ॥ शंका-चूंकि, मिथ्यादृष्टि-ओघ, सासादनसम्यग्दृष्टि-ओघ, आदिके भेदसे मोघ अनेक प्रकारका है, इसलिए यहांपर किस ओघका ग्रहण किया जा रहा है, यह नहीं जाना जाता है ? समाधान -जिस ओघके साथ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्रकर्षतासे प्रत्यासत्ति है, उसका ही ग्रहण यहांपर किया जा रहा है। १ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिना मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीना सामान्योक्तं स्पर्शनम्। स.सि. १,५. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२) छक्खंडागमे जीवहाणं [१, ४, १२५. गहणं । केण सह एत्थ पुण पगरिसेण पञ्चासत्ती विज्जदे ? सासणसम्मादिद्विस्स ओघेण । वट्टमाणकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो सगसव्वपदखेतुवलंभादो । तीदे काले वि सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागस्स, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागस्स, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणस्स; विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउवियपदेसु अट्ठ चोदसभागमेत्तस्स, मारणंतिय-उववादपदेसु वारसेक्कारस-चोद्दसभागखेत्तस्सुवलंभादो । एदमत्थपदं सव्वत्थ वत्तव्यं । .. विभंगणाणीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १२५॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगा, वट्टमाणकालसंबंधित्तादो। अट्ट चोदसभागा देसूणा सव्वलोगो वा ॥ १२६ ॥ - सत्थाणपरिणदेहि विभंगणाणमिच्छादिट्ठीहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो 'वा' . शंका-तो यहांपर किस ओघके साथ प्रकर्षतासे प्रत्यासत्ति है ? ' समाधान-सासादनगुणस्थानके ओघके साथ प्रकर्षतासे प्रत्यासत्ति है, क्योंकि, घर्तमानकालमें सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा अपने सर्वपदोंका स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। अतीतकालमें भी स्वस्थानपदकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा, तथा विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदों में आठ बटे चौदह (४) भागमात्र; तथा मारणान्तिक और उपपाद, इन दो पदों में क्रमशः बारह बटे चौदह (१३) और ग्यारह बटे चौदह (१४) भागप्रमाण स्पर्शनका क्षेत्र पाया जाता है । यह अर्थपद सर्वत्र कहना चाहिए। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १२५ ॥ वर्तमानकालसे सम्बन्ध होने के कारण इस सूत्रकी स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। विभंगज्ञानी जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १२६॥ स्वस्थानस्वस्थानपदसे परिणत विभंगवानी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'वा' शब्दका अर्थ है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, १ विभंगज्ञानिना मिथ्यादृष्टीना लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः, सर्वलोको वा । स. सि. १,. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १२८.] फोसणाणुगमे मदि-सुद-औषिणाणिफोसणपरूवणे (२८३ सद्दट्ठो । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देखणा; मारणतियपरिणदेहि सव्वलोगो फोसिदो । सेसं सुगमं । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ १२७ ॥ कुदो ? वट्टमाणकाले सगसव्वपदाणं चदुण्हं लोगाणमसखेजदिभागत्तेण, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणत्तेण; तोदे काले सत्थाणस्स तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागत्तेण, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तेण, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणत्तेण; विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउव्वियपदाणं देसूण-अट्ठ-चोद्दसभागत्तेण मारणंतियस्स देसूण-वारह-चोदसभागत्तेण, ओघसासणसम्मादिट्ठिखेत्तेण सरिसत्तुवलंभादो। कधं सारिच्छे एगत्तं ? ण, दयट्ठियणयणिबंधणववहाराणं सरिसे वि एगत्तालंबणाणमुवलंभा ।। आभिणिवोहिय-सुद-औधिणाणीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ १२८ ॥ कषाय, और वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (4) भाग स्पर्श किये हैं। मारणान्तिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है । शेष अर्थ सुगम है। विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १२७॥ विभंगशानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान होनेका कारण यह है कि वर्तमानकालमें स्वकीय सर्वपदोंके स्पर्शनक्षेत्रकी सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असं. ख्यातवें भागसे, तथा अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणितक्षेत्रले अतीतकालमें स्वस्थानस्वस्थानपदका सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागसे, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागसे, तथा अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणित क्षेत्रसे, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोंका कुछ कम आठ बटे चौदह (४) भागसे, और मारणान्तिकसमुद्धातका कुछ कम बारह बटे चौदह (११) भागकी अपेक्षा, ओघप्ररूपित सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके स्पर्शनक्षेत्रके साथ सदृशता पाई जाती है। शंका-सादृश्यमात्र होनेपर सूत्रोंमें 'ओघ' पद द्वारा एकत्व कैसे कहा जा समाधान-नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयनियन्धनक व्यवहारोंकी सदृशता होनेपर भी एकत्वावलम्बी व्यवहार पाये जाते हैं। आमिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें असंयतसभ्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछ पस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओधके समान है ॥ १२८॥ १ सासादनसम्यग्दृष्टीना सामान्योक्त स्पर्शनम् । स, सि. १,८. १ आमिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानिना सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, .. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १२९. .. एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो, मूलोघम्हि वित्थरेण परूविदत्तादो । तत्थ णाणविसेसणेण विणा सामण्णेण परूविदमिदि चे ण, सामण्णेण परूविदे वि सा मदि-सुदणाणपरूवणा चेय, मदि-सुदणाणवदिरित्तछदुमत्थसम्मादिट्ठीणमणुवलंभा । ओधिणाणविरहिदसम्मादिट्ठीणमुवलंभा ओधिणाणस्स ओघतं ण जुञ्जदे चे ण, एत्थ दव्यपमाणेण अहियाराभावा । ओघअसंजदसम्मादिद्विआदिफोसणेहि ओधिणाणअसंजदसम्मादिद्विआदिफोसणाणं सरिसत्तुवलंभादो ओधिणाणस्स ओघत्तं जुजदे चेय ।। मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ १२९ ॥ अदीद-वट्टमाणकाले सव्यपदाणमोघसव्वपदेहि सरिसत्तुवलंभादो एत्थ वि ओघतं जुज्जदे। केवलणाणीसु सजोगिकेवली ओघं ॥ १३०॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, मूलोघमें विस्तारसे प्ररूपण किया जा चुका है। शंका-उस मूलोध स्पर्शनप्ररूपणामें तो शानमार्गणारूप विशेषणके विना सामाम्यसे ही कथन किया गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सामान्यसे प्ररूपित होने पर भी वह मतिज्ञान और श्रुतभानकी ही प्ररूपणा है, क्योंकि, मतिज्ञान और श्रुतझानसे रहित छमस्थ सम्यग्दृष्टि जीव नहीं पाये जाते हैं। शंका-अवधिज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव तो पाये जाते हैं, इसलिए अवधिज्ञानके भोघपना नहीं घटित होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यहां पर द्रव्यप्रमाणके अधिकार या प्रकरणका अभाव है। ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रके साथ अवधिज्ञानी असंयतसम्य. ग्दृष्टि आदिकोंके स्पर्शनसम्बन्धी क्षेत्रोंकी सदृशता पाये जानेसे अवधिज्ञानके ओघपना घटित हो ही जाता है। ___ मनःपर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयतगुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछप्रस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान है ॥ १२९ ॥ अतीत और वर्तमानकालमें मनःपर्ययज्ञानियों में संभवित सर्वपदोंके स्पर्शनकी ओघ. धर्णित सर्वपदोंके स्पर्शनके साथ सदृशता पाई जानेसे यहां पर भी ओघपना युक्तिसंगत है। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली जिनोंका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान है॥१३०॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १३३. फोसणाणुगमे संजदफोसणपरूवणं [२८५ एदस्स अत्थो सुगमो, ओघम्हि परूविदत्तादो, केवलणाणवदिरित्तसजोगिकेवलीणमभावा ओघसजोगिपरूवणाणं पडि सामण्णा । अजोगिकेवली ओघं ॥ १३१ ॥ एदस्स वि अत्थो सुगमो, ओघम्हि परूविदत्तादो । पुध सुत्तारंभो किमहो ? ण, सजोगि-अजोगिकेवलीणं वट्टमाणादीदकालेण पच्चासतीए अभावादो एगजोगत्ताणुववचीए । एवं णाणमग्गणा समत्ता । संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १३२ ।। एत्थ ओघपरूवणादो ण को वि' भेदो अस्थि, विवक्खिदसंजमसामण्णादो । ण च संजमसामण्णविरहिदा संजदा अस्थि, तेसिमसंजदत्तप्पसंगादो । सजोगिकेवली ओघं ॥ १३३ ॥ __ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, ओघमें प्ररूपण किया जा चुका है। दूसरी बात यह भी है कि केवल मानसे रहित सयोगिकेवलियोंके अभाव होनेसे ओघवर्णित सयोगिजिनोंकी प्ररूपणाओं के प्रति समानता है। केवलज्ञानियों में अयोगिकेवली जिनोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३१॥ ओघमें प्ररूपित होनेसे इस सूत्रका भी अर्थ सुगम है। शंका-तो फिर पृथक् सूत्रका आरंभ किसलिए किया गया है? समाधान-नहीं, क्योंकि, सयोगी और अयोगिकेवलियोंके वर्तमान और अतीत. कालके साथ प्रत्यासत्तिका अभाव होनेसे एक योगपना बन नहीं सकता था, अतः पृथक् सूत्रारंभ किया गया है। इसप्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है॥१३२॥ यहांपर ओघप्ररूपणासे कोई भी भेद नहीं है, क्योंकि, संयमसामान्यकी विवक्षा है। भौर संयमसामान्यसे रहित संयत होते नहीं हैं। यदि संयमके विना भी संयमी होने लगे; तो फिर असंयतपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। संयतोंमें सयोगिकेवलीका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान है ॥ १३३ ।। १ संयमानुवादेन संयताना सर्वेष x x सामान्योक्त स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. प्रतिषु · को स्थि' म प्रतौ को छि' इति पाठः। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १३४. - पुध सुत्तारंभो किमट्ठो ? ण, पुबिल्लेहि सह फोसणेण पच्चासत्तिअभावप्पदंसणफलत्तादो । सेसं सुगमं । सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ १३४ ॥ एदं पि सुत्तं सुगममिदि ण एत्थ किंचि वत्तव्यमस्थि । - परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अपमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो ॥ १३५॥ . एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउब्बियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो; मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो तीदे काले फोसिदो । पमत्ते तेजाहारं णत्थि, लद्धीए उवरि लद्धीणमभावा । शंका-तो फिर पृथक् सूत्रका आरंभ किसलिए किया गया है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, पूर्वोक्त जीवोंके स्पर्शनके साथ सयोगिकेवलीके स्पर्शनसे प्रत्यासत्तिके अभावका प्रदर्शन करना ही पृथक् सूत्रका फल है। शेष अर्थ सुगम है। - सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥१३४॥ ___ यह सूत्र भी सुगम है, इसलिए यहांपर कुछ भी वक्तव्य नहीं है। . परिहारविशुद्धिसंयतोंमें अमन और अप्रमत्तसंयतोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्श किया है ॥ १३५॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, घेदना, कषाय और वैक्रियिकपद परिणत उक्त जीधोंने सामान्यलोक आदि धार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग तथा मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि बार लोकोंका असंण्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है। विशेष बात यह है कि प्रमत्तगुणस्थानमें तैजससमुद्धात और आहारकसमुदात, ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि, लब्धिके ऊपर दूसरी कब्धियां नहीं होती हैं। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १३८.] फोसणाणुगमे संजद-संजदासजदफोसणपरूवणं [२८७ सुहुमसांपराइयमुद्धिसंजदेसु मुहुमसांपराइय उवसमा खवा ओघं ॥ १३६ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, ओघम्हि परूविदत्तादो । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुट्टाणी ओघं ॥ १३७॥ चदुण्डं टाणाणं समाहारो चदुट्ठाणी; सा ओघं भवदि, जहाक्खादसंजदचदुगुणट्ठाणाणं परूवणा ओघसरिसा ति जं वुत्तं होदि । संजदासंजदा ओघं ॥ १३८ ॥ ___ संजमाणुवादेण संजमासंजम-असंजमाणं कधं गहणं होदि ? एसो संजमाणुवादो ण संजममेव परूवेदि, किंतु संजमं संजमासंजममसंजमं च । तेणेदेसि पि गहणं होदि । जदि एवं, तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवादववदेसो ण, जुजदे ? ण, अंब-णिबवणं व पाधण्णपदमासेज संजमाणुवादववदेसजुत्तीए । सेसं सुगमं । सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक और क्षपक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३६ ॥ __ ओघमें प्ररूपित होनेसे इस सूत्रका अर्थ सुगम है। यथाख्यातविहारविशुद्धिसंयतोंमें अन्तिम चार गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ।। १३७॥ चार स्थानोंके समाहारको चतुःस्थानी कहते हैं। उन चारों गुणस्थानोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ओघके समान होती है । अर्थात्, यथाख्यातसंयमवाले अन्तिम चार गुणस्थानोंकी प्ररूपणा ओघके सदृश होती है, ऐसा कहा गया समझना चाहिए। संयतासंयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३८ ॥ शंका-संयममार्गणाके अनुवादसे संयमासंयम और असंयम, इन दोनोंका ग्रहण कैसे होता है? समाधान-संयममार्गणाके अनुवादसे न केवल संयमका ही ग्रहण होता है, किन्तु संयम, संयमासंयम और असंयमका भी ग्रहण होता है। शंका-यदि ऐसा है तो इस मार्गणाको संयमानुवादका नाम देना युक्त नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि, 'आम्रवन' वा 'निम्बवन' के समान प्राधान्यपदका आश्रय लेकर 'संयमानुवादसे ' यह व्यपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम ही है। १xx संयतासंयताना xx सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८, .......... Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] छक्खंडागमे जीवाणं असंजदेसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव ओघं ॥ १३९ ॥ एदं पि सुतं सुगमं, ओघ हि मिच्छादिडिआदिच दुगुणद्वाणपरूत्रणाण परुविदत्तादो । एवं संजममग्गणा समत्ता । [ १, ४, १३९. असंजदसम्मादिट्टित्ति दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १४० ॥ एदं सुतं सुगमं खेत्ताणिओगद्दारे उत्तट्ठादो | अ चोदभागा देणा सव्वलोगो वा ॥ १४१ ॥ सत्थाणत्थेहि चक्खुदंसणिमिच्छादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय- वेउन्त्रिय - परिणदेहि देसूण चोदसभागा; मारणंतिय उववादपरिणदेहि सव्वलोगो पोसिदो । असंयत जीवों में मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती असंयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३९ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, ओघ में मिध्यादृष्टि आदि चारगुणस्थानों की प्ररूपणाओंका निरूपण किया गया है । इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई । दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १४० ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रानुयोगद्वार में इसका अर्थ कहा जा चुका है । चक्षु दर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १४१ ॥ स्वस्थानस्थ चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है | विद्दारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है । १ xx असंयतानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. २ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्टया दिक्षीणकषायान्तानां पंचेन्द्रियवत् । स सि. १, ८, Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १४४.] फोसणाणुगमे चक्खु-अचक्खु-ओधिदंसणिफासणपरूवणं [२८९ . सासणसम्मादिडिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ १४२॥ ___ ओघसासणसम्मादिद्विआदिसयलगुणष्ट्ठाणेहिंतो चक्खुदंसणिसासणसम्मादिद्विआदि- . गुणट्ठाणाणं ण कोवि भेदो, चक्खुदंसणवदिरित्तसासणादिगुणट्ठाणाणमभावादो। तेण ओघमिदि सुटु जुज्जदे। अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ओघ ।। १४३॥ एवं पि सुत्तं सुगम, ओघम्हि वित्थरेण परूविदत्तादो । ण च ओघपरूविदमिच्छादिद्विआदिखीणकसायपजंतगुणट्ठाणाणि अचक्खुदंसणविरहिदाणि अत्थि, तधाणुवलंभादो । तेणेदेसि सव्वेसि पि ओघत्तं जुज्जदे । ओधिदसणी ओधिणाणिभंगो ॥ १४४ ॥ सुगममेदं सुत्तं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकपायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती चक्षुदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ।। १४२॥ ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि आदि सकल गुणस्थानोंले चक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि समस्त गुणस्थानोंके स्पर्शनसम्बन्धी क्षेत्रोंका कोई भेद नहीं है, क्योंकि, चक्षु: दर्शनसे रहित सासादनादि गुणस्थानोंका अभाव है । इसलिए 'ओघ' यह पद भली भांति घटित हो जाता है। अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती अचक्षुदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, ओघप्ररूपणामें विस्तारसे प्ररूपण किया जा चुका है । और ओघप्ररूपित मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यंत गुणस्थान अचक्षुदर्शनसे विरहित हैं नहीं; क्योंकि, ऐसा देखने में नहीं आता । इसलिए इन सभी गुणस्थानोंके ओघपना युक्तिसंगत है। अवधिदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ १४४ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ प्रतिषु 'कोत्थ ' इति पाठः। - २ अचक्षुर्दशनिना मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तानtxx सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८. ३ अवधि-केवलदर्श निनौ च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८... Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १४५. केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १४५॥ एदं पि सुगमं । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सियमिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १४६॥ जेण सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि किण्हणील-काउलेस्सियमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो, विहारपरिणदेहि अदीद-वट्टमाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो; वट्टमाणकाले वेउब्बियपरिणदेहि ( तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, ) तिरियलोयस्स संखेज दिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; अदीदे पंच चोदसभागा पोसिदा; तेण ओघत्तं जुञ्जदे । विहार-वेउब्बियपदेसु देसूणट्ठ-चोदसभागपोसणखेत्ताभावा ओघत्तं ण घडदे इदि पच्चवट्ठाणं ण कायव्वं, सुत्ते पदविसेसाभावा । सबलोगत्तमेत्तेण सरिसत्तमालोविय ओघत्तुववत्तीए । केवलदर्शनी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र केवलज्ञानियों के समान है ॥ १४५ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। ___ इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १४६ ॥ चूंकि स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्व लोक स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थानपदपरिणत उक्त जीवोंने अतीत और वर्तमानकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असं. ख्यातराणा क्षेत्र स्पर्श किया है, तथा वर्तमानकालमें वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने (सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, ) तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है तथा अतीतकालमें उक्त जीवोंने पांच बटे चौदह (५) भाग स्पर्श किये हैं; इसलिए ओघपना बन जाता है। शंका-विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धात, इन दो पदोंमें देशोन आठ बटे चौदह (१४) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके अभाव होनेसे ओघपना घटित नहीं होता है ? समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सूत्र में पदविशेषकी विवक्षाका अभाव है। सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रकी सदृशताको देखते हुए ओघपना बन जाता है । १ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यैर्मिध्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । स. सि. १, ८, फासं सवं लोयं तिहाणे असुइलेस्साणं । गो. जी. ५४५. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १४८.] फोसणाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सियफोसणपरूवणं [२९१ ...सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो॥ १४७ ॥ एदस्त सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगो, अल्लीणवट्टमाणत्तादो । पंच चत्तारि वे चोदसभागा वा देसूणा ॥ १४८॥ सत्थाणसत्थाण-विहार-वेदण-कसाय-वेउबियपरिणदेहि किण्ह-णील-काउलेस्सियसासणेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । देवे मोत्तूण णेरइय-अपज्जत्तभवणवासिय-वाण-तर-जोदिसिय-तिरियतिरिक्खसु चेव एदस्स खत्तस्सुवलंभादो तिरियलोगस्स संखेजदिभागत्तमुववणं । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि किण्ह-णील-काउलेस्सियसासणेहि जहाकमेण देसूणा पंच चत्तारि वे चोद्दसभागा पोसिदा । णेरइएहितो तिरिक्खेसु उप्पज्जमाणसासणे पेक्खिदूण एसा फोसणपरूवणा कदा । देवेहिंतो एइंदिएसु मारणंतियं मेल्लमाणसासणखेत्ते गहिदे उक्त तीनों अशुभलेश्याओंवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १४७॥ वर्तमानकालको व्याप्त करनेसे इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । तीनों अशुभलेश्याओंवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह, चार बटे चौदह और दो बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १४८॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यासवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात. गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । कल्पवासी देवोंको छोड़कर नारकी, अपर्याप्त भवनवासी, वानव्यंतर और ज्योतिष्कदेव तथा तिर्यग्लोकवर्ती तिर्यंचों में ही यह उक्त क्षेत्र पाया जानेसे तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका कथन युक्तिसंगत है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत छठी पृथिवीके नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि कृष्णलेश्यावाले जीवोंने कुछ -कम पांच बटे चौदह (२४) भाग, नीललेश्यावाले पांचवीं पृथिवीके नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम चार बटे चौदह (११) भाग, और कापोतलेश्यावाले तीसरी पृथिवीके नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम दो बटे चौदह (३) भाग स्पर्श किये हैं। नारकियोसे तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंको देखकर अर्थात् उनकी अपेक्षासे यह स्पर्शनप्ररूपणा की गई है। - १ सातादनसम्यग्दृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः पंच चत्वारो द्वौ चतुर्दशभागा का देशोनाः । स. सि, 1, ८ १ क प्रतौ । तिरिय ' इति पाठो नास्ति । . Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १४८. पुचिल्लखेतेण सह जहाकमेण वारस-एक्कारस-णव-चौदसभागमेत्तखेत्तं किण्ण लब्भदि त्ति उत्ते ण लब्भदि, देवाणमप्पणो आउवचरिमसमओ ति पुबिल्लतेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणं विणासाभावा । किण्ह-णील-काउलेस्सियतिरिक्ख-मणुससासणाणमेइंदिएसु मारणंतियं मेल्लमाणाणं सत्त चोद्दसभागा उवरि लम्भंति त्ति हेडिल्लखेत्तेहि सह वारसेक्कारस-णव-चोदसभागमेत्तखेत्तं किण्ण लब्भदे ? ण, तिरिक्ख-मणुसउवसमसम्माइट्ठीणं उवसमसम्मत्तकालभंतरे सुट्ट संकिलिट्ठाणं पि संजदासंजदाणं व किण्ह-णील-काउलेस्साओ ण होति ति गुरूवदेसंतरजाणावणहूँ तहाणुवदेसादो । देवेसु तिरिक्खगईए उबवण्णेसु उववादस्त एकारस-दसअट्ट-चोद्दसभागमेत्तखेत्तं किण्ण लब्भदे ? ण, किण्ह-णील-काउलेस्साहि सह अच्छिऊण पच्छा ताहि सह उववादाभावादो । ण च लेस्सा उववादसमाणकालभाविणी मग्गणा होइ, शंका-देवोंसे एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले जीवोंके सासादन गुणस्थानसम्बन्धी क्षेत्रके ग्रहण करनेपर पूर्वोक्त क्षेत्रके साथ यथाक्रमसे बारह बटे चौदह (१४) भाग, ग्यारह बटे चौदह (१) भाग, और नौ बटे चौदह (२४) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-ऐसी शंका पर उत्तर देते हैं कि नहीं पाया जाता है, क्योंकि, देवोंके अपनी आयुके अन्तिम समय पर्यन्त अपनी पूर्ववर्ती तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओंका विनाश नहीं होता है, इसलिए उक्त प्रकारका क्षेत्र नहीं कहा गया। __शंका-कृष्ण, नील और कापोत लेझ्यावाले तथा एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्योंके सात बटे चौदह (४) भाग तो ऊपर स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है, इसलिए उसे अधस्तन उक्त क्षेत्रोंके साथ ग्रहण करने पर बारह बटे चौदह (१३) भाग, ग्यारह बटे चौदह (१४) भाग और नौ बटे चौदह (१४) भागप्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वकालके भीतर अत्यन्त संक्लेशको प्राप्त हुए भी तिर्यंच और मनुष्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके संयतासंयतोंके समान कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं नहीं होती हैं, इस प्रकारका एक दूसरा गुरुका उपदेश है, यह बात बतलाने के लिए वैसा उपदेश नहीं दिया है। शंका-तिर्यंचगतिमें उत्पन्न होने वाले देवों में उपपादपदका ग्यारह बटे चौदह, दश बटे चौदह और आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंके साथ रहकर पीछे उन्हींके साथ उपपाद नहीं पाया जाता है। विशेषार्थ-देवों में तीनों अशुभलेश्याएं अपर्याप्तकाल में ही होती हैं। पीछे नियमसे Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १४९.] फोसणाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सियफोसणपरूवणं [२९३ आधेयपुव्वुत्तरकालेसु असतीए आहारत्तविरोहादो। तम्हा सुत्तुत्तमेव होदु, गिरवजत्तादो। सम्मामिच्छादिद्वि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १४९॥ एदस्स वदृमाणपरूवणा खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण कसाय शुभलेश्या हो जाती है । अतएव कृष्ण, नील और कापोतलेझ्याके साथ रहनेवाले देवोंके उपपाद का अभाव बतलाया, क्योंकि, देवोंका मरण न तो अपर्याप्तकाल में ही होता है और न पूरी आयुके समाप्त हुए विना ही। अतः यह कहना युक्तिसंगत ही है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंके साथ रहकर पीछे उपपाद नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि लेश्यामार्गणा उपपाद-समान-कालभाविनी नहीं है, क्योंकि, आधेयरूप पूर्व और उत्तर कालों में अविद्यमान लेश्याके आधारपनेका विरोध है। इसलिए सूत्रोक्त ही स्पर्शनक्षेत्रका प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि, वही प्रमाण निर्दोष पाया जाता है। विशेषार्थ- यहांपर लेश्यामार्गणा उपपाद-समानकाल-भाविनी नहीं है, ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकारसे विवक्षित जीवके पूर्व भवको छोड़नेके पश्चात् उत्तर भवको ग्रहण करने के साथ ही गति, योग, आहार आदि यथासंभव कितनी ही मार्गणाएं परिवर्तित हो जाती हैं, उस प्रकार लेश्यामार्गणा परिवर्तित नहीं होती है । इसका कारण यह है कि जीव जिस लेश्यासे मरण करता है उसी लेश्यासे ही उत्पन्न होता है, ऐसा एकान्त नियम है। और इसी नियमके कारण भवनत्रिक देवोंके अपर्याप्तकालमें तीन अशुभ लेश्याओंका अस्तित्व माना गया है। इसी बातको सिद्ध करने के लिए जो हेतु दिया गया है, उसका भी अभिप्राय यही है कि यदि उपपाद होने के साथ ही लेश्याके परिवर्तनका नियम अवश्यंभावी होता, तो मरण करने के पूर्वकालमें और उत्तरकाल में विवक्षित लेश्याके परिवर्तित हो जानेसे आधार-आधेयपना बन जाता, अर्थात् , मरणकाल और उपपादकालरूप पूर्वोत्तरकाल आधेय बन जाते और उनमें होनेवाली लेश्या आधार बन जाती । किन्तु भवपरिवर्तनके हो जाने पर भी लेश्यापरिवर्तन होता नहीं है, इसलिए कहा गया है कि आधेयरूप पूर्व और उत्तर कालोंमें विवक्षित लेझ्याका परिवर्तन न होनेसे आधारपना नहीं बन सकता है। उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १४९ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत तीनों अशुभलेश्यावाले १ सम्यमिण्यादृष्टयसंयतसम्यग्दष्टि मिलोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, 6. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ४, १५०. वेउब्बियपरिणदेहि तिलेस्सियसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, ( तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, ) अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो। कुदो ? पहाणीकयतिरिक्खरासित्तादो । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि किण्ह-णीललेस्सियअसंजदसम्मादिट्ठीहि चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो, छट्ट-पंचमपुढवीहितो माणुसेसु आगच्छमाणअसंजदसम्मादिट्ठीणं पणदालीसजायणलक्खविक्खंभपंच-चत्तारिरज्जुआयदखेचवलंभादो । मारणंतिय-उववादपरिणदकाउलेस्सियअसंजदसम्मादिट्टीहिं तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो, काउलेस्साए सह असंखेजेसु दीवेसु पढमपुढवीए च उप्पज्जमाणखइयसम्मादिहिछुत्तखेत्तरगहणादो। ___ तेउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १५० ।। एदस्स परूवणा खेत्तभंगा, अल्लीणवदृमाणत्तादो । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, (तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग,) और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, यहांपर तिर्यंच राशिकी प्रधानता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद. पदपरिणत कृष्ण और नीललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपले असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, छठी और पांचवीं पृथिवीसे मनुष्यों में आनेवाले क्रमशः कृष्ण और नील लेश्याके धारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पैंतालीस लाख योजनप्रमाण विष्कम्भवाला, छठी पृथिवीकी अपेक्षा पांच राजु और पांचवीं पृथिवीकी अपेक्षा चार राजु आयत (लम्बा) स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण यह है कि यहांपर कापोतलेश्याके साथ असंख्यात द्वीपोंमें और प्रथम पृथिवीमें उत्पन्न होने वाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंसे स्पर्शित क्षेत्रका ग्रहण किया गया है। तेजोलेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५०॥ वर्तमानकालको ग्रहण करनेसे इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। १ म प्रतीणील-काउ' इति पाठः। तेजोलेश्यैर्मिध्यादृष्टिसासाचनसम्यग्दृष्टिभिलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोना। स. सि. १, ८. www.jainelibrary.on Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १५३.] फोसणाणुगमे तेउलेस्सियफोसणपरूवणं [२९५ अट्ट णव चोदसभागा वा देसूणा ॥ १५१ ॥ सत्थाणपदपरिणदेहि तेउलेस्सियमिच्छादिद्वि-सासणसम्मादिट्ठीहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। एसो 'वा' सद्दट्ठो। विहार-वेदण-कसाय--वेउब्बियपरिणदेहि अट्ठ-चोदसभागा, मारणंतिय-उववादपरिणदेहि णव दिवङ्क-चौदसभागा पोसिदा । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १५२ ॥ एदस्स परूवणा खेत्तभंगा। अट्ठ चोदसभागा वा देसूणा ॥ १५३ ॥ सत्थाणपरिणदेहि दोगुणट्ठाणजीवेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरिय तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १५१ ॥ स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'वा' शब्दका अर्थ है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदसे परिणत जीवोंने आठ बटे चौदह (४) भाग, मारणान्तिकसमुद्धातपरिणत उक्त जीवोंने नौ बटे चौदह (२४) भाग और उपपादपदपरिणत उन्हीं जीवोंने डेढ़ बटे चौदह (३४) भाग स्पर्श किये हैं। तेजोलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५२ ॥ इस सूत्रकी प्ररूपण। क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। उक्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १५३ ॥ स्वस्थानपदपरिणत सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इन दोनों गुणस्थानवर्ती तेजोलेश्यावाले जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका ................... १ ते उस्स य सट्ठाणे लोगस्स असंखभागमेतं तु । अडचोदसभागा वा देसूणा होति णियमेण ॥ गो. जी. ५४६ . २ एवं तु समुग्घादे णव चोद्दसभागयं च किंचूर्ण । उववादे पढमपदं दिवडचोद्दस य किंचूर्ण ॥ गो. जी. ५४७. ३ सम्यग्मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १, ८. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [१, ४, १५४० लोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । विहार वेदण-कसाय-उब्धियमारणंतियपरिणदेहि देसूण-अट्ठचोद्दस भागा। उववादपरिणदेदि दिवड्ड-चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । णवरि सम्मामिच्छादिहिस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि। सणक्कुमार-माहिंदे तेउलेस्सा अत्थि त्ति उववादस्स देसूण-तिण्णि-चौदसभागा किण्ण होति ? ण, सोधम्मीसाणादो संखेज्जाणि चेव जोयणाणि गंतूग सणक्कुमार-माहिंदकप्पपारंभो होदूण दिवड्डरज्जुम्हि परिसमत्तीदो। तस्सुपरिमपेरते तेउलेस्सिया किण्ण होंति ? ण, तस्स हेडिमविमाणे चेव तेउलेस्सासंभवोवदेसा । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥१५॥ एदस्स परूवणा खेत्तभंगा, वट्टमाणकालसंबंधादो । दिवड्ड चोदसभागा वा देसूणा ॥ १५५॥ संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (6) भाग स्पर्श किये हैं। उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं। विशेष बात यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। __ शंका-सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्पमें तेजोलेश्या होती है, इसलिए उपपादका देशोन तीन बटे चौदह ( भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, सौधर्म और ईशानकल्पसे संख्यात योजन ही ऊपर जाकर सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्प प्रारम्भ होकर डेढ़ राजुपर समाप्त हो जाता है। शंका-सानत्कुमार-माहेन्द्रकल्पके उपरिम विमानके अन्ततक तेजोलेश्यावाले जीव क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उस कल्पके अधस्तन विमानोंमें ही तेजोलेश्याके होनेका उपदेश पाया जाता है। तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५४ ॥ वर्तमानकालसे सम्बद्ध होनेसे इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १५५ ॥ १ संयतासंयतैलोकस्यासंख्येयमागः अध्यर्धचतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १, ८. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........................." १, ४, १५८.] फोसणाणुगमे पम्मलेस्सियफोसणपरूवणं [२९७ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउबियपरिणदतेउलेस्सियसंजदासंजदेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। मारणंतियपरिणदेहि दिवड्ड-चोदसभागा पोसिदा। उववादो णत्थि । पमत्त-अप्पमत्तसंजदा ओघं ॥ १५६ ॥ एवं सुत्तं सुगम, ओघम्हि परूविदत्तादो । पम्मलेस्सिएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागों ॥ १५७ ॥ सुगममेदं सुत्तं, खेत्तम्हि उत्तत्थादो । अट्ट चोदसभागा वा देसूणा ॥ १५८ ॥ सत्थाणपरिणदपम्मलेस्सियमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असं स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने (कुछ कम) डेढ़ बटे चौदह (३४) भाग स्पर्श किये हैं । इन जीवोंके उपपादपद नहीं होता है। तेजोलेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १५६ ॥ ओघमें प्ररूपित होनेसे यह सूत्र सुगम है । पद्मलेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५७॥ क्षेत्रप्ररूपणामें कहे जानेके कारण यह सूत्र सुगम है। पद्मलेश्यावाले उक्त गुणस्थानवी जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पशे किये हैं ॥ १५८ ॥ स्वस्थानपदपरिणत पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, १ प्रमत्ताप्रमत्तैलोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, ८. - २ पद्मलेश्यैमिथ्यादृष्ट याद्यसंयतसम्यग्दृष्टयन्तैर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः स. सि. १,८. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १५९. खेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतियपरिणदेहि देसूण? चोद्दसभागा पोसिदा। उववादपरिणदेहि देसूणपंच चोदसभागा पोसिदा। णवरि सम्मामिच्छादिहिस्स मारणंतियउववादा णत्थि । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ १५९ ॥ - एदं पि सुत्तं सुगम. खेत्ताणिओगद्दारे उत्तत्थादो। उत्तमेव किमिदि पुणो उच्चदे ? ण, मंदबुद्धिसिस्सस्स संभालणटुं तप्परूवणादो। पंच चोदसभागा वा देसूणा ॥ १६०॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउव्वियपरिणदेहि पम्मलेस्सियसंजदासंजदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अढाइज्जादो असंखेज्जगुणो; मारणंतियपरिणदेहि देसूणा पंच चोदसभागा पोसिदा । तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत पद्मलेश्यावाले उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं। उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम पांच बटे चौदह (५४) भाग स्पर्श किये हैं। विशेष बात यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। पालेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १५१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रानुयोगद्वारमें इसका अर्थ कहा जा चुका है। शंका- पहले कही गई बात ही पुनः क्यों कही जाती है ! समाधान नहीं, क्योंकि, मंदबुद्धि शिष्योंके संभालने के लिए पुनः उसका प्ररूपण किया गया है। पालेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १६॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत पन. लेश्यावाले संयतासंयतोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम पांच बटे चौदह (५४) भाग स्पर्श किये हैं। १ पम्मस्स य सट्ठाणसमुग्घाददुगेसु होदि पदमपदं । अडचोदसभागा वा देसूणा होति णियमेण ॥ गो. जी. ५४८. २ उववादे पढमपदं पण चोद्दस भागयं च देसूर्ण । गो. जी. ५४९. ३ संयतासंयतैलॊकस्यासंख्येयभागः पंच चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १, ८. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १६३. ] फोसणागमे सुक्कलेस्सिय फोसणपरूवणं पमत्त - अप्पमत्तसजदा ओघं ॥ १६९ ॥ सुगममेदं सुतं । सुकले स्सिए खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १६२ ॥ एदं सुत्तं सुगमं, खेत्ताणिओगद्दारे उत्तत्थादो । [ २९९ मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदेहि केवडियं छ चोद्द सभागा वा देणा ॥ १६३ ॥ सत्थाणपरिणद सुक्कलेस्सियमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेञ्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय- वेउच्चिय-मारणंतिय परिणदेहि छ चोदभागा देणा पोसिदा । उववादपरिणदसुक्कले स्सियमिच्छादिट्ठीहि सासणसम्मादिट्ठीहि य चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डा इजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो; तिरिक्खमिच्छादिड्डि-सासण पद्मावाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओके समान है ॥ १६१ ॥ यह सूत्र सुगम है । शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १६२ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रानुयोगद्वार में इसका अर्थ कह दिया गया है । शुक्ललेश्यावाले उक्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। १६३ ॥ स्वस्थानपदपरिणत शुक्ललेश्यावाले मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । उपपादपदपरिणत शुकुलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण यह है कि तिर्यच मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका शुक्ललेश्या के साथ देवों में उपपाद नहीं होता है । पैंतालीस १ प्रमत्ताप्रमत्तैर्लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १,८. १ शुक्ललेश्यैर्मिथ्यादृष्ट्यादिसंयत । संयतान्तैर्लोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा व देशानाः । स. सि. १,८० ३ सुकरस य तिकाणे पदमो छोदसा हीणा ॥ गो. जी. ५४९.. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १६४. सम्मादिट्ठीणं सुक्कलेस्साए सह देवेसु उववादभावा । पणदालीसलक्खजोयणविक्खंभेण पंचरज्जुआयामेण द्विदखेत्तमाऊरिय सुक्कलेस्सियमिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठिमणुसाणं चेव सुक्कलेस्सियदेवेसुववादुवलंभा । ते तत्थ ण उप्पज्जति त्ति कधं णव्वदे ? पंच चोदसभागुवदेसाभावादो । उववादपरिणदअसंजदसम्मादिट्ठीहि छ चोदसभागा फोसिदा, तिरिक्खअसंजदसम्मादिट्ठीणं सुक्कलेस्साए सह देवेसुववादुवलंभा । सत्थाण-विहार-वेदण-कसायवेउब्बियपरिणदसुक्कलेस्सियसंजदासंजदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; मारणंतियपरिणदेहि छ चोदसभागा फोसिदा, तिरिक्खसंजदासंजदाणं सुक्कलेस्साए सह अच्चुदकप्पे उववादुवलंभा । सम्मामिच्छादिद्विस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १६४ ॥ लाख योजन विष्कम्भसे और पांच राजु आयामसे स्थित क्षेत्रको व्याप्त करके शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका ही शुक्ललेश्यावाले देवों में उपपाद पाया जाता है। शंका-शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच, शुक्ललेश्यावाले देवों में नहीं उत्पन्न होते हैं, यह कैसे आना? समाधान-चूंकि, पांच बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके उपदेशका अभाव है, इससे जाना जाता है कि शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच जीव मरकर शुक्ललेश्यावाले देवों में नहीं उत्पन्न होते है। उपपादपदपरिणत शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह भाग (४) स्पर्श किये हैं, क्योंकि, तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका शुक्ललेश्याके साथ देवों में उपपाद पाया जाता है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत शुक्ललेश्यावाले संयतासंयतोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने छह बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, तिर्यच संयतासंयतोंका शकलेश्याके साथ अच्यतकल्पमें उपपाद पाया जाता है। सम्यग्मिथ्याडष्टि शुक्ललेश्यावालोंके मारणान्तिक और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १६४ ॥ १ णवरि समुग्धादम्मि य संखातीदा हवंति भागा वा । सबो वा खलु लोगो फासो होदि ति णिदिवो ॥ गो.मी. ५५०॥ २ प्रमत्तादिसयोगकेवल्यन्तानी अलेश्यानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, , Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १६६. फोसणाणुगमे भविय-अभवियफोसणपरूवणं [ ३०१ एवं सुत्तं सुगम, तदो ण किंचि वत्तव्यमस्थि । __एवं लेस्सामग्गणा समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएस मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १६५॥ एदं सुत्तं सुगमं, वट्टमाणादीदकाले अस्सिदूण ओघम्हि परूविदत्तादो । अभवसिद्धिएहिं केवडियं खेत्तं पोसिदं, सव्वलोगों ॥ १६६॥ सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सबलोगो पोसिदो । विहार वेउव्यियपरिणदेहि वट्टमाणकाले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो; असंखेज्जरासीसु तेसिमसंखेज्जदिभागमेत्तो तत्थ तत्थ अभव्वरासि त्ति उवदेसादो । अदीदेण अट्ट चोदसभागा पोसिदा । एवं भवियमग्गणा समत्ता। यह सूत्र सुगम है, इसलिए कुछ भी अन्य वक्तव्य नहीं है। इसप्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धिक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, वर्तमान और अतीतकालको आश्रय करके ओघमें इसका प्ररूपण हो चुका है। अमव्यसिद्धिक जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्श किया स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत अभव्यसिद्धिक जीवोंने तीनों ही कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकपदपरिणत अभव्यसिद्धिक जीवोंने वर्तमानकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। क्योंकि, असंख्यात प्रमाणवाली पंचेन्द्रियादि राशिओंमें उन उनके असंख्यातवें भागप्रमाण वहां यहां पर अर्थात् उन उन विवक्षित राशिओंमें अभव्यराशि होती है, इस प्रकार आचार्योंका उपदेश पाया जाता है। उक्त जीवोंने अतीतकालमें आठ बटे चौदह (ई) भाग स्पर्श किये हैं। ___ इसप्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। १ भष्यानुवादेन भन्यानो मिप्यादृष्टयाधयोगकेवल्यन्तान सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि.१, २ अमन्यैः सर्वलोकः स्पृष्टः । स. सि. १, 6. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१) छैक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १६७. सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १६७॥ एदं सुत्वं सुगम, ओघम्हि तिणि वि काले अस्सिदूण परूविदत्तादो । खड्यसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥ १६८ ॥ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा। सत्थाणपरिणदेहि खइयअसंजदसम्मादिट्ठीहि तिहं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोयस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतियपरिणदेहि अट्ट चोद्दसभागा फोसिदा । उववादपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो, तिरियलोगस्स संखेजदिमागो। तं कधं लब्भदे ? बद्धाउअमणुसखइयसम्माहिदीसु तिरिक्खेसुप्पज्जमाणेसु असंखेजदीवेसु अच्छिय सोधम्मीसाणकप्पेसु उप्पज्जमाणखइयसम्मादिद्विछत्तखेत्तं सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १६७ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, तीनों ही कालोंका आश्रय करके ओघमें प्ररूपण किया जा चुका है। ___ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १६८॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्याता भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारबत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने आठ बटे चौदह (1) भाग स्पर्श किये हैं। उपपादपदपरिणत असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंने सामान्य. लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। शंका-उपपादगत असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कैसे पाया जाता है ? समाधान-तिर्यों में उत्पन्न होनेवाले बद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के भसंख्यात द्वीपोंमें रह करके पुनः मरणकर सौधर्म और ईशानकल्पोंमें उत्पन्न होनेवाले १ सम्यक्स्वानुवादेन क्षायिकसम्यष्टीमामसंयतसम्यष्टयाघयोगकेवल्यन्तामा सामान्योक्तम् । किन्तु संयता. संबसाना लोकस्यासंख्येषमागः । स. सि. १. ८. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १६९.] फोसणा गमे खइयसम्मादिविफोसणपरूवणं [ ३०३ मणुस्सेसुप्पज्जमाणखइयसम्मादिडिपोसिदखेत्तं च घेण लब्भदे । एदम्मि खेते आणिमाणे देणजोयलक्खचाहल्लं रज्जुपदरं उड्डुं सत्तवग्गेण छिंदिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स बाहल्लादो संखेज्जदिभागबाहल्लं जगपदरं होदि । एवं संजादे ओघत्तं कथं जुज्जदे ? ण, उववादविरहिद से सपद खेत्ते हि तुल्लत्तमावेक्खिय ओघत्ववत्तीए । संजदासंजद पहुडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६९ ॥ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा। सत्थाण-विहार- वेदण-कसाय-वेउब्विय परिणदेहि खइयसम्मादिट्ठिसंजदासंजदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो, संखेजा भागा वा, पोसिदा; खइयसम्मादिट्ठिसंजदासंजदाणं तिरिक्खेसु असंभवादो । मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो तीदे काले पोसिदो, पणदालीसजोयणलक्खविक्खंभेण संखेजरज्जुआयदपोसणखेतुवलं भादो । क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंसे स्पर्शित क्षेत्रको, तथा वहांसे चयकर मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से स्पर्शित क्षेत्रको ग्रहण करके तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है । इस उक्त क्षेत्रके निकालनेपर कुछ कम एक लाख योजन बाहल्यवाले राजुप्रतरको ऊपर से सात वर्ग (४९) द्वारा छेदकर प्रतराकार से स्थापित करने पर तिर्यग्लोक के बाहल्यसे संख्यातवें भाग बाहल्यवाला जगप्रतर होता है । शंका- ऐसा होने पर सूत्रोक्त ओघपना कैसे घटित होगा ? समाधान - नहीं, क्योंकि, उपपादपदको छोड़ शेष पदोंके क्षेत्रोंके साथ समानता देखकर ओघपना बन जाना है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १६९ ॥ इस सूत्र की वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग, अथवा संख्यात बहुभाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंका तिर्यचों में होना असंभव है। मारणान्तिकपदपरिणत क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है, क्योंकि, पैंतालीस लाख योजन विष्कम्भके साथ संख्यात राजुप्रमाण आयत स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है । प्रमत्तादि गुणस्थानोंकी स्पर्शन Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १७०. पमत्तादिगुणट्ठाणाणं ओघभंगो, विसेसाभावा ।। सजोगिकेवली ओघं ॥ १७० ॥ एदं सुत्तं सुगम, ओघम्हि परूविदत्तादो । वेदगसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति ओघं ॥ १७१ ॥ एदस्स सुत्तस्स जेण अदीद-वट्टमाणपरूवणा मूलोघम्हि उत्तचदुगुणट्ठाण-अदीदवदृमाणपरूवणाए तुल्ला, तेण ओघत्तं जुञ्जदे । उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ।। १७२ ॥ वट्टमाणपरूवणाए सव्वपदाणं ओघत्तं होदु णाम, विसेसाभावा । अदीद-परूवणाए वि सत्थाणस्स तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेत्तखेत्तुवलंभादो। विहार-वेदण-कसाय-उब्धियपदाणं य देसूण टु-चोद्दसभागमेत्तखेत्तुवलंभादो ओघत्तं जुज्जदे । किंतु मारणंतिय-उववाद प्ररूपणा ओघके समान है, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। सयोगिकेवली जिनोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७० ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, ओघमें इसका प्ररूपण किया जा चुका है। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७१॥ चूंकि, इस सूत्रकी अतीत और वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा मूलोघमें कही गई उक्त चारों गुणस्थानोंकी अतीत और वर्तमानकालिक प्ररूपणाके समान है, इसलिए ओघपना बन जाता है। औपशमिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ।। १७२ ॥ शंका-वर्तमानकालिक स्पर्शनकी प्ररूपणामें सर्व पदोंके ओघपना भले ही रहा भावे क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। अतीतकालिक प्ररूपणामें भी सर्व पदोंके ओघपना रहा भावे; क्योंकि, अतीतप्ररूपणामें भी स्वस्थानपदका स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र पाया जाता है । तथा, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, और वैक्रियिकपदोंका स्पर्शनक्षेत्र कुछ कम आठ बटे चौदह () भागप्रमाण पाये जानेसे ओघपना बन जाता है। १ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीना सामान्योक्तम् । स. सि. १, ८. २ औपशमिकसम्यक्त्वानामसंयतसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तम् । स, सि. १, ८. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १७३.] फोसणाणुगमे उवसमसम्मादिट्टिफोसणपरूवणं [३०५ परिणदाणमोघत्तं णत्थि, ओघम्हि उत्तं अट्ठ-चोद्दसभागखेत्तं मोतूण चदुण्हं लोणाणमसंखेजदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणमेत्तपोसणखेत्तुवलंभा। कुदो ? मणुसगदि मोत्तूण अण्णत्थ उवसमसम्मत्तेण सह मरणाणुवलंभा ? ण एस दोसो, मारणंतिय-उववादे मोत्तूण सेसपदेहि सरिसत्तमत्थि त्ति ओघत्तुववत्तीदो । संजदासंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १७३ ॥ एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपत्रणा खेत्तभंगा। सत्थाण-विहार-वेदण-कसाय-वेउब्वियपरिणदउवसमसम्मादिहि-संजदासंजदेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो, मणुसगदीए चेव मारणंतियदसणादो । सेससव्वगुणट्ठाणाणमोघभंगो । किन्तु मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत जीवोंके ओघपना नहीं बनता है, क्योंकि, ओघमें कहा गया आठ बटे चौदह (1) भागप्रमाण क्षेत्र छोड़कर सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणे प्रमाणवाला स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। और इसका कारण यह है कि मनुष्यगतिको छोड़कर अन्यत्र उपशमसम्यक्त्वके साथ मरण नहीं पाया जाता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दोनों पदोंको छोड़कर शेष पदों के साथ सदृशता है, इसलिए ओघपना बन जाता है। संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषायवीतरागछयस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७३ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्खस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण यह है कि मनुष्यगतिमें ही उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात देखा जाता है। शेष सर्व गुणस्थानोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है। १ शेषाणां लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १,८. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १७४. सासणसम्मादिट्ठी ओघं॥ १७४ ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १७५॥ मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १७६ ॥ एदाणि तिणि वि सुत्ताणि अगदत्याणि, ओघम्हि परूविदत्तादो । तद। एदेसि परूवणा ण कीरदे । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता। सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १७७ ॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगा, समल्लीणवट्टमाणकालत्तादो । अट्ठ चोदसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा ॥ १७८ ॥ सत्थाणपरिणदेहि सणिमिच्छादिट्ठीहि तीदे काले तिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७४ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७५ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७६ ॥ ये उक्त तीनों ही सूत्र ओघमें प्ररूपित होनेसे अवगतार्थ है, अर्थात् इनका अर्थ जाना हुआ है । इसलिए इनकी प्ररूपणा नहीं की जाती है। इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७७ ॥ वर्तमानकालको आश्रय करनेसे इस सूत्रकी स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। संज्ञी जीवोंने अतीत और वर्तमानकालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १७ ॥ स्वस्थानस्वस्थानपरिणत संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यात १ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टिमिथ्यादृष्टीना सामान्योक्तम् । स. सि. १,८. २ संज्ञानुवादेन संझिना चक्षुर्दर्शनिवत् । स. सि. १, ८. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १८०.] फोसणाणुगमे सण्णि-असण्णिफोसणपरूवणे [ ३०७ तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । विहार-वेदण-कसायवेउवियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा, मारणंतिय-उववादपरिणदेहि सव्वलोगो पोसिदो । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ १७९॥ एदेसिमोघादो ण को वि' भेदो अत्थि, सण्णिरहिदसासणादीणमभावा । असण्णाहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, सव्वलोगों ॥ १८० ॥ सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि असण्णीहि तिसु वि अद्धासु सबलोगो पोसिदो । विहारपरिणदेहि तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो तिसु वि कालेसु पोसिदो। वेउब्बियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो वट्टमाणे पोसिदो । तीदे पंच चोदसभागा त्ति वत्तव्यं । एवं सणिमग्गणा समत्ता । गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, और चैक्रियिकपदपरिणत संशी मिथ्याडष्टि जीवोंने आठ बटे चौदह (8) भाग स्पर्श किये हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत संशी जीवाने सर्वलोक स्पर्श किया है। संज्ञी जीवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७९ ।। इन गुणस्थानोंकी स्पर्शनप्ररूपणाका ओघस्पर्शनप्ररूपणासे कोई भेद नहीं है, क्योंकि, संक्षित्वसे रहित सासादनादि गुणस्थानोंका अभाव है। असंही जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्श किया है ॥१८॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक और उपपादपदपरिणत असंही जीवोंने तीनों ही कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थानपदपरिणत जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र तीनों ही कालों में स्पर्श किया है। वैक्रियिकपदपरिणत असंही जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे भसंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकालमें स्पर्श किया है। अतीतकालमें पांच बटे चौदह (२४) भाग स्पर्श किये हैं. ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार संझीमार्गणा समाप्त हुई। १ प्रतिषु · कोरिथ' इति पाठः, म प्रतौ को छि' इति पाठः। ५ असंक्षिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । स. सि. १,८. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं. १, ४, १८१. आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १८१ ॥ - उववादस्स रज्जुआयामो आहारणिरुद्ध ण लब्भदि, तेण सबलोगो पोसणाभावा णोत्तं जुज्जदे ? ण, सरीरगहिदपढमसमए वट्टमाणजीवेहि आऊरिदसव्वलोगुवलंभादो । सेसं सुगमं । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ओघं ॥ १८२ ॥ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । तीदकालपरूवणं भण्णमाणे पोसणोघम्हि चदुण्हं गुणट्ठाणाणं जहा उत्तं तधा वत्तव्यं । णवरि सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि उववादपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पासिदो। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १८३ ॥ आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १८१॥ शंका-आहारमार्गणाकी अपेक्षा कथन करनेपर उपपादपदका राजुप्रमाण आयाम नहीं पाया जाता है, इसलिए सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रके स्पर्शनका अभाव होनेसे ओघपना नहीं बनता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयमें वर्तमान जीघोंसे व्यात सर्वलोकके पाये जानेसे ओघपना बन जाता है । शेष अर्थ सुगम ही है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती आहारक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १८२ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। अतीतकालकी प्ररूपणा कहनेपर स्पर्शनके ओघमें जैसा कि इन चारों गुणस्थानोंका स्पर्शनक्षेत्र कहा है, उसी प्रकारसे कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि उपपादपरिणत सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । ... आहारक जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १८३ ॥ १ आहारानुवादेन आहारकाणां मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तान सामान्योक्तम् । स.सि. १,८. २ सयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः | स. सि. १, ८. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ४, १८५. ] फौसणानुगमे अणादारिफोसणपरूवणं [ ३०९ एदस्त सुत्तस्स परूवणा अदीद- वट्टमाणेहि ओघतुल्ला । णवरि सजोगकेवली पदर- लोग पूरणपदा णत्थि । आहारएस कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ १८४ ॥ कुदो ? कम्मइयकायजोगीसु सव्त्रेसु अणाहारिनुवलंभादो । अजोगिअणाहारिपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि वरिविसेसा, अजेोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १८५ ॥ एदं सुतं सुगमं । ( एवं आहारमग्गणा समत्ता ) एवं फोसणाणुगमो त्ति सम्मत्तमणिओगद्दारं । इस सूत्र की प्ररूपणा अतीत और वर्तमान इन दोनों कालों की अपेक्षा ओघप्ररूपणा के समान है । विशेष बात यह है कि सयोगिकेवलीके प्रतर और लोकपूरणसमुद्वास, ये दो पद नहीं होते हैं । अनाहारक जीवोंमें संभवित गुणस्थानवर्ती जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र कार्मणकाययोगियोंके क्षेत्र के समान है ।। १८४ ॥ इसका कारण यह है कि सभी कार्मणकाययोगियोंके अनाहारकपना पाया जाता है । अनाहारी अयोगिजिनके स्पर्शनक्षेत्र के प्ररूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैंविशेष बात यह है कि अयोगिकेवलियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १८५ ॥ यह सूत्र सुगम है | ( इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई । ) इस प्रकार स्पर्शनानुगम नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । १ अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यग्दृष्टि मिर्लोकस्यासंख्येयभागः एकादश चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सयोगिकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा । स. सि. १, ८. २ अयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, ८. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालाणुगमो Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूदवलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पढमखंडे जीवट्ठाणे कालाणुगमो कम्मकलंकुत्तिण्णं' विबुद्धसव्वत्थमुत्तवत्थमणं । णमिऊण उसहसेणं कालणिओगं भणिस्सामो ॥ कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य ॥१॥ णामकालो ठवणकालो वकालो भावकालो चेदि कालो चउव्विहो । तत्थ णामकालो णाम कालसहो । कधं सद्दो अप्पाणं पडिवज्जादि चे, ण एस दोसो; स-परप्पयासमयपमाण ........ .................... कर्मरूप कलंकसे उत्तीर्ण, सर्व अर्थोके जाननेवाले, और अस्त रहित अर्थात् सदा उदित, ऐसे वृषभसेन गणधरको नमस्कार करके अब कालानुयोगद्वारको कहते हैं। कालानुगमसे दो प्रकारका निर्देश है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, और भावकाल, इस प्रकारसे काल चार प्रकारका है। उनमेंसे 'काल' इस प्रकारका शब्द नामकाल कहलाता है। शंका-शब्द कैसे अपने आपको प्रतिपादित करता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, शब्दके स्व-परप्रकाशात्मक प्रमाणके - १ अ-आ-क-प्रतिषु तम्मकुलंकुढणं ' इति पाठः । २ म स प्रत्योः ' मुत्थ '; अ-आप्रत्योः ' मुद्ध'; क प्रतौ · मद्ध' इति पाठः। • ३ काल: प्रस्तूयते । स द्विविधः सामान्येन विशेषेण च । स. सि. १, ८. ४ प्रतिषु सहस्स स-पर ' इति पाठः । म प्रतौ तु ' सदस्स ' इति पाठो नोपलभ्यते । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, १. पडिवादीर्णमुवलंभा । सो एसो इदि अण्णम्हि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम । सा दुविहा, सब्भावासम्भावभेदेण । अणुहरंतर अणुहरंतस्स अण्णस्स बुद्धीए समारोवा सम्भाववणा । तव्वदिरित्ता असम्भावडवणा । तत्थ सम्भावढवणा कालो णाम' पल्लवियंकुरिय-कुलिद-करलिद-फुलिद-मबुलिद-कलकोइल पुण्णालाववणसं डुज्जोइयचित्तालि हिय व संतो । असम्भाववणकालो णाम मणिभेद' - गेरुअ-मट्टी- ठिक्करादिसु वसंतो त्ति बुद्धिबले ठविदो | दव्वकालो दुविहो, आगमदो णोआगमदो य । आगमदो कालपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो । आगमदो दव्वकालो जाणुगसरीर भविय - तव्वदिरित्तभेदेण तिविहो । तत्थ जाणुगसरीरआगमदव्वकालो भविय वट्टमाण समुज्झादभेदेण तिविहो । सो वि बहुसो पुत्रं परुविदो चि णेह वुच्चदे । भवियणोआगमदव्वकालो भविस्सकाले कालपाहुडजाणओ जीवो । ववगददोगंध- पंचरस ट्ठपास-पंचवण्णो कुंभारचक्क हेट्ठिमसिलव्व वत्तणालक्खणो लोगागासपमाणो प्रतिपादक शब्द पाये जाते हैं । 'वह यही है' इसप्रकार से अन्य वस्तुमें बुद्धिके द्वारा अन्यका आरोपण करना स्थापना है । वह स्थापना सद्भाव और असद्भावके भेदसे दो प्रकारकी है । अनुकरण करनेवाली वस्तुमें अनुकरण करनेवाले अन्य पदार्थका बुद्धिके द्वारा समारोप करना सद्भावस्थापना है | उससे भिन्न या विपरीत असद्भावस्थापना होती है । उनमेंसे पल्लवित, अंकुरित, कुलित, करलित, पुष्पित, मुकुलित, तथा कोयलके कलकल आलापसे परिपूर्ण वनखंडसे उद्योतित, चित्रलिखित वसन्तकालको सद्भावस्थापनाकालनिक्षेप कहते हैं । मणिविशेष, गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादिकमें 'यह वसंत है' इसप्रकार बुद्धिके बलसे स्थापना करनेको असद्भावस्थापनाकाल कहते हैं । आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यकाल दो प्रकारका है । कालविषयक प्राभृतका शायक किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यकाल है। शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे नोआगमद्रव्यकाल तीन प्रकार है । उनमें ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकाल भावी, वर्तमान और व्यक्तके भेदसे तीन प्रकारका है। वह भी पहले बहुत वार प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यहांपर पुनः नहीं कहते हैं । भविष्यकालमें जो जीव कालप्राभृतका ज्ञायक होगा, उसे भावीनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं । जो दो प्रकारके गंध, पांच प्रकारके रस, आठ प्रकारके स्पर्श और पांच प्रकारके वर्णसे रहित है, कुम्भकारके चक्रकी अधस्तन शिला या कीलके समान है, वर्तना ही जिसका १ भा प्रतौ ' पईडिवादीण ; क प्रतौ 'पवादीण ' इति पाठः । २ अ-क प्रत्योः ' सन्भावटुवणा वर्णसंस्थानादिनानुकुर्वतः चित्रादावारोपितं कालो णाम' इति पाठः । अत्र संस्कृतवाक्यांशः केवलं सद्भावस्थापनायाः स्वरूपबोधकं टिप्पणकं प्रतिभाति, न तु मूलग्रंथांशः । क प्रतौ सन्माद - शब्दे टिप्पणसूचकं = इति चिन्हमुपलभ्यते । तेन अस्यैवानुमानस्य पुष्टिर्जायते । आ प्रतौ स संस्कृतवाक्यांशो नोपलभ्यते । ३ प्रतिषु ' मणिभेदः गेरुअ- ' इति पाठः । म प्रतौ ' मणिभेदः ' इति पाठो नोपलभ्यते । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १.] कालाणुगमे णिसपरूवण अत्यो तबदिरित्तणोआगमदव्वकालो' णाम । वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे कालो त्ति य ववएसो सब्भावपरूवओ हवइ णिच्चो। उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरहाई ॥ १ ॥ कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूओ । दोण्हं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो' ॥ २ ॥ ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं । विविहपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ संयं कालो ॥ ३ ॥ लोयायासपदेसे एक्कक्के जे ट्ठिया दु एक्केक्का । रयणाणं रासी इव ते कालाण मुणेयव्वा ॥ ४ ॥ जीवसमासाए वि उत्तं छप्पंचणवविहाणं अत्याणं जिणवरोषइट्ठाणं । आणाए अहिगमेण य सदहणं होइ सम्मत्तं ॥ ५॥ लक्षण है, और जो लोकाकाशप्रमाण है, ऐसे पदार्थको तद्व्यतिरिक्कनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। पंचास्तिकायप्राभृतमें कहा भी है 'काल' इस प्रकारका यह नाम सत्तारूप निश्चयकालका प्ररूपक है, और यह निश्चयकालद्रव्य अविनाशी होता है। दूसरा व्यवहारकाल उत्पन्न और प्रध्वंस होनेवाला है। तथा आवली, पल्य, सागर आदिके रूपसे दीर्घकाल तक स्थायी है ॥१॥ व्यवहारकाल पुद्गलोंके परिणमनसे उत्पन्न होता है, और पुद्गलादिका परिणमन द्रव्यकालके द्वारा होता है। दोनोंका ऐसा स्वभाव है। यह व्यवहारकाल क्षणभंगुर है, परन्तु निश्चयकाल नियत अर्थात् अविनाशी है ॥ २॥ वह कालनामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्यको अन्यरूपसे परिणमाता है। किन्तु स्वतः नाना प्रकारके परिणामोंको प्राप्त होनेवाले पदार्थोंका काल स्वयं सुहेतु होता है॥३॥ - लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिके समान जो एक एक रूपसे स्थित हैं, वे कालाणु जानना चाहिए ॥४॥ जीवसमासमें भी कहा है जिनवरके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, अथवा पंच अस्तिकाय, अथवा नव पदाका आवासे और अधिगमसे श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥५॥ १ बगदपणवण्णरसो क्वगददोगंध अहफासो य । अगुरुलहुगो अमुचो वट्टणलक्खो य कालो ति ॥ पंचास्ति. गा. १४. २ पंचास्ति. गा. १०८. ३ पंचास्ति. गा.१.७. ४ गो. जी. ५०८. ५ गो. नी. ५६०, Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, १. तह आयारंगे वि वुत्तं पंचत्थिया य छज्जीवणिकायकालदव्यमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ॥ ६ ॥ तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि 'वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य । इदि दव्वकालो परूविदो । जीवट्ठाणादिसु दव्वकालो ण वुत्तो ति तस्साभावो ण वोत्तुं सकिज्जदे, एत्थ छदव्यपदुप्पायणे अहियाराभावा । तम्हा दव्यकालो अत्थि त्ति घेत्तव्यो । जीवाजीवादिअभंगदव्यं वा णोआगमदव्यकालो । भावकालो दुविहो, आगमणोआगमभेदा । कालपाहुडजाणओ उवजुत्तो जीवो आगमभावकालो । दव्वकालजणिदपरिणामो णोआगमभावकालो भण्णदि । पोग्गलादिपरिणामस्स कधं कालववएसो? ण एस उसी प्रकारसे आचारांगमें भी कहा है पंच अस्तिकाय, षट्जीवनिकाय, कालद्रव्य तथा अन्य जो पदार्थ केवल आज्ञा अर्थात् जिनेन्द्र के उपदेशसे ही ग्राह्य हैं, उन्हें यह सम्यक्त्वी जीव आज्ञाविचय धर्मध्यानसे संचय करता है, अर्थात् श्रद्धान करता है ॥६॥ तथा गृद्धपिच्छाचार्यद्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्रमें भी ‘वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व, ये काल द्रव्यके उपकार हैं' इस प्रकारसे द्रव्यकाल प्ररूपित है। जीवस्थान आदि ग्रंथोंमें द्रव्यकाल नहीं कहा गया है, इसलिए उसका अभाव नहीं कह सकते हैं, क्योंकि, यहां जीवस्थानमें छह द्रव्योंके प्रतिपादनका अधिकार नहीं है। इसलिए 'द्रव्यकाल है' ऐसा स्वीकार करना चाहिए। . अथवा, जीव और अजीव आदिके योगसे बने हुए आठ भंगरूप द्रव्यको नोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। विशेषार्थ-जीव और अजीवद्रव्यके संयोगसे कालके आठ भंग इस प्रकार होते हैं-१ एक जीवकाल, २ एक अजीवकाल, ३ अनेक जीवकाल, ४ अनेक अजीवकाल, ५ एक जीव एक अजीवकाल, ६ अनेक जीव एक अजीवकाल, ७ एक जीव अनेक अजीवकाल ८ और अनेक जीव अनेक अजीवकाल । (देखो मंगलसम्बन्धी आठ आधार, सत्प्र. १, पृ. १९) कालके निमित्तसे होनेवाले एक जीवसम्बन्धी परिवर्तनको एक जीवकाल कहते हैं । कालके निमित्तसे होनेवाले एक अजीवसम्बन्धी कालको एक अजीवकाल कहते हैं। इस प्रकारसे भाठों भंगोंका स्वरूप जान लेना चाहिए। __ आगम और नोआगमके भेदसे भावकाल दो प्रकारका है। काल-विषयक प्राभृतका शायक और वर्तमानमें उपयुक्त जीव आगम भावकाल है। द्रव्यकालसे जनित परिणाम या परिणमन नोआगमभावकाल कहा जाता है। १ मूलाचा. ३९९. २ तत्वा . सू. ५, २२, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १.] कालाणुगमे णिदेसपरूवणं [ ३१७ दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो । वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे ववहारकालस्स अत्थित्तं । ते जहा सब्भावसहावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च । परियट्टणसंभूओ कालो णियमेण पण्णत्तो ॥ ७ ॥ समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती । मास उडु अयण संवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ॥ ८॥ णस्थि चिरं वा खिप्पं वुत्तारहिदं तु सा वि खलु वुत्ता। पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्च भवो ॥ ९॥ इदि । एत्थ केण कालेण पयदं ? णोआगमदो भावकालेण । तस्स समय-आवलिय-खणलव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मास-उडु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्य-पलिदोवम-सागरोवमादिरूवत्तादो । कधमेदस्स कालववएसो ? ण, कल्यन्ते संख्यायन्ते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽ शंका-पुद्गल आदि द्रव्योंके परिणामके 'काल' यह संशा कैसे संभव है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, कार्य में कारणके उपचारके निबंधनसे पुद्गलादि द्रव्योंके परिणामके भी 'काल' संज्ञाका व्यवहार हो सकता है। पंचास्तिकायप्राभृतमें व्यवहारकालका अस्तित्व कहा भी गया है सत्तास्वरूप स्वभाववाले जीवोंके, तथैव पुद्गलोंके और 'च' शब्दसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्यके परिवर्तन में जो निमित्तकारण हो, वह नियमसे कालद्रव्य कहा गया है ॥ ७॥ समय निमिष, काटा, कला, नाली, तथा दिन और रात्रि, मास, ऋतु, अयन और संवत्सर, इत्यादि काल परायत्त है; अर्थात् जीव, पुद्गल एवं धर्मादिक द्रव्योंके परिवर्तनाधीन वर्तनारहित चिर अथवा क्षिप्रकी, अर्थात् परत्व और अपरत्वकी, कोई सत्ता नहीं है । वह वर्तना भी पुद्गलद्रव्यके बिना नहीं होती है, इसलिए कालद्रव्य पुद्गलके निमित्तसे हुआ कहा जाता है ॥ ९॥ शंका-ऊपर वर्णित अनेक प्रकारके कालों से यहांपर किस कालसे प्रयोजन है? समाधान-नोआगमभावकालसे प्रयोजन है । वह काल-समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संषत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है। शंका-तो फिर इसके 'काल' ऐसा व्यपदेश कैसे हुआ ? . १ पंचास्ति. गा. २३. ३ प्रतिषु ' उत्ता' इति पाठः। २पंचास्ति. गा. २५. ४ पंचास्ति० गा.२६. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, १. नेनेति कालशब्दव्युत्पत्तेः । कालः समय अद्धा इत्येकोऽर्थः । समयादीणमत्थो बुच्चदेअणोरण्वंतरव्यतिक्रमकालः समयः । चोइसरज्जुआगास पदे सक्रमणमेत्तकालेण जो चोहसरज्जुकमणक्खमो परमाणू तस्स एगपरमाणुक्कमणकालो समओ णाम । असंखेज्जसम घेतू या आवलिया होदि । तप्पाओग्गसंखेज्जावलियाहि एगो उस्सासणिस्सासो होदि । सत्तहि उस्सा सेहि एगो थोवसण्णिदो कालो होदि । सतहि थोवेहि लवो णाम कालो होदि। साद्ध-अट्ठत्तीसलवेहि णाली णाम कालो होदि । वेहि गालियाहि मुहुत्तो होदि । उच्छ्वासानां सहस्राणि त्रीणि सप्त शतानि च । त्रिसप्ततिः पुनस्तेषां मुहूर्तो ह्येक इष्यते ( ३७७३) ॥ १० ॥ निमेषाणां सहस्राणि पंच भूयः शतं तथा । दश चैव निमेषाः स्युर्मुहूर्ते गणिताः बुधैः (५११० ) ॥ ११ ॥ त्रिंशन्मुहूर्ती दिवसः । मुहूर्तानां नामानि - रौद्रः श्वेतश्च मैत्रश्च ततः सारभटोऽपि च । दैत्यो वैरोचनश्चान्यो वैश्वदेवोऽभिजित्तथा ॥ १२ ॥ रोहणो बलनामा च विजयो नैऋतोऽपि च। वारुणश्चार्यमा च स्युर्भाग्यः पंचदशो दिने ( १५ ) ॥ १३ ॥ समाधान- नहीं, क्योंकि, 'जिसके द्वारा कर्म, भव, काय और आयुकी स्थितियां कल्पित या संख्यात की जाती हैं, अर्थात् कही जाती हैं, उसे काल कहते हैं ' इस प्रकार की काल शब्दकी व्युत्पत्ति है । काल, समय और अद्धा, ये सब एकार्थवाची नाम है । समय आदिका अर्थ कहते हैं । एक परमाणुका दूसरे परमाणुके व्यतिक्रम करनेमें जितना काल लगता है, उसे समय कहते हैं । अर्थात्, चौदह राजु आकाशप्रदेशोंके अतिक्रमणमात्र कालसे जो चौदह राजु अतिक्रमण करनेमें समर्थ परमाणु है, उसके एक परमाणु अतिक्रमण करनेके कालका नाम समय है । असंख्यात समयोंको ग्रहण करके एक आवली होती है । तत्प्रायोग्य संख्यात आवलियोंसे एक उश्वास-निःश्वास निष्पन्न होता है । सात उश्वासोंसे एक स्तोकसंशिक काल निष्पन्न होता है । सात स्तोकोंसे एक लव नामका काल निष्पन्न होता है । साढ़े अड़तीस लवोंसे एक नाली नामका काल निष्पन्न होता है । दो नालिकाओंसे एक मुहूर्त होता है। उन तीन हजार सात सौ तेहत्तर (३७७३) उच्छ्रासौका एक मुहूर्त कहा जाता है ॥ १० ॥ विद्वानोंने एक मुहूर्त में पांच हजार एक सौ दश (५११०) निमेष गिने हैं ॥ ११ ॥ तीस मुहूर्तीका एक दिन अर्थात् अहोरात्र होता है । मुहूर्तोंके नाम इस प्रकार हैं १ रौद्र, २ श्वेत, ३ मैत्र ४ सारभट, ५ दैत्य, ६ वैरोचन, ७ वैश्वदेव, ८ अभिजित्, Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १.] कालाणुगमे णिदेसपरूवणं [३१९. सावित्रो धुर्यसंज्ञश्च दात्रको यम एव च । वायु ताशनो भानुजयन्तोऽष्टमो निशि ॥१४॥ सिद्धार्थः सिद्धसेनश्च विक्षोभो योग्य एव च । पुष्पदन्तः सुगन्धर्वो मुहूर्तोऽन्योऽरुणो मतः ( १५)॥ १५ ॥ समयो रात्रिदिनयोर्मुहूर्त्ताश्च समा स्मृताः । षण्मुहूर्त्ता दिनं यान्ति कदाचिच्च पुनर्निशा ॥ १६ ॥ पंचदश दिवसाः पक्षः। दिवसानां नामानि नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा च तिथयः क्रमात् । देवताश्चन्द्रसूर्येन्द्रा आकाशो धर्म एव च ॥ १७ ॥ ९ रोहण, १० बल, ११ विजय, १२ नैऋत्य, १३ वारुण, १४ अर्यमन् और १५ भाग्य । ये पंद्रह मुहूर्त दिनमें होते हैं । १२-१३॥ १ सावित्र, २ धुर्य, ३ दात्रक, ४ यम, ५ वायु, ६ हुताशन, ७ भानु, ८ वैजयन्त, ९ सिद्धार्थ, १० सिद्धसेन, ११ विक्षोभ, १२ योग्य, १३ पुष्पदन्त, १४ सुगन्धर्व और १५ अरुण । ये पन्द्रह मुहूर्त रात्रिमें होते हैं, ऐसा माना गया है ॥ १४-१५ ॥ रात्रि और दिनका समय तथा मुहूर्त समान कहे गये हैं। हां, कभी दिनको छह मुहूर्त जाते हैं, और कभी रात्रिको छह मुहूर्त जाते हैं ॥ १६ ॥ विशेषार्थ-समान दिन और रात्रिकी अपेक्षा तो पन्द्रह मुहूर्तका दिन और इतने ही मुहूतौकी एक रात्रि होती है । किन्तु सूर्यके उत्तरायणकालमें अठारह मुहूर्तका दिन और बारह मुहूर्तकी रात्रि हो जाती है। तथा सूर्यके दक्षिणायनकालमें बारह मुहूर्तका दिन और अठारह मुहूर्तकी रात्रि हो जाती है। इसलिए श्लोकमें कहा है कि छह मुहूर्त कभी दिनको और कभी रात्रिको प्राप्त होते हैं। अर्थात् दिनके तीन और रात्रिके तीन, इस प्रकार छह मुहूर्त कभी दिनसे रात्रिमें और कभी रात्रिसे दिनकी गिनती में आते जाते रहते हैं। पन्द्रह दिनोंका एक पक्ष होता है । दिनोंके नाम इस प्रकार हैं नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा, इस प्रकार क्रमसे पांच तिथियां होती हैं । इनके देवता क्रमसे चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, आकाश और धर्म होते हैं ॥ १७ ॥ विशेषार्थ-नन्दा आदि तिथियोंके नाम प्रतिपदासे प्रारंभ करना चाहिए, अर्थात् प्रतिपदाका नाम नन्दातिथि है । द्वितीयाका नाम भद्रातिथि है। तृतीयाका नाम जयातिथि है। चतुर्थीका नाम रिक्तातिथि है। पंचमीका नाम पूर्णातिथि है। पुनः षष्ठीका नाम नन्दातिथि है, इत्यादि । इस प्रकारसे प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशीका नाम नन्दातिथि है। द्वितीया सप्तमी और द्वादशीका नाम भद्रातिथि है। तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशीका नाम जयातिथि है। चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशीका नाम रिक्तातिथि है। पंचमी, दशमी तथा पूर्णिमाका नाम पूर्णातिथि है। इसी क्रमसे इनके देवता भी समझ लेना चाहिए । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, १. द्वौ पक्षौ मासः । ते च श्रावणादयः प्रसिद्धाः । द्वादशमासं वर्षम् । पंचभिर्वषैर्युगः । एवमुवरि वित्तव्यं जाव कप्पो त्ति । एसो कालो णाम । कस्स इमो कालो ? जीव- पोग्गलाणं । कुदो? तप्परिणामत्तादो। अधवा इमो राजमंडलस्स परियदृणलक्खणस्स, तदुदयत्थमणेहिंतो दिवसादीणमुप्पत्तीए । केण कालो कीरदि ? परमकाले । कत्थ कालो ? माणुसखेत्ते कसुज्जमंडले तियालगोयराणंतपज्जाएहि आवृरिदे' । जदि माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडले कालो द्विदो होदि, कथं तेग सव्यपोग्गलाणमणंतगुणेण पदीवो व् सपरप्पयासकारणेण जवरासि व्व समयभावेणावट्ठिदेण छद्दव्व परिणामा पयासिज्जते ? ण एस दोस्रो, मिणिज्जमाणदव्वेहिंतो पुधभूदेण मागहपत्थेणेव मवणविरोहाभावा । ण चाणवत्था, पईवेण विउच्चारा | देवलोगे कालाभावे तत्थ कथं कालववहारो ! ण, इहत्थेणेच दो पक्षोंका एक मास होता है । वे मास श्रावण आदिक के नामसे प्रसिद्ध हैं । बारह मास का एक वर्ष होता है। पांच वर्षोंका एक युग होता है। इस प्रकार ऊपर ऊपर भी कल्प उत्पन्न होने तक कहते जाना चाहिए। यह सब काल कहलाता है । शंका- यह काल किसका है, अर्थात् कालका स्वामी कौन है ? समाधान - -जीव और पुद्गलोंका, अर्थात् ये दोनों कालके स्वामी हैं; क्योंकि, काल तत्परिणामात्मक है । अथवा, परिवर्तन या प्रदक्षिणा लक्षणवाले इस सूर्यमंडल के उदय और अस्त होने से दिन और रात्रि आदिकी उत्पत्ति होती है । शंका - काल किससे किया जाता है, अर्थात् कालका साधन क्या है ? समाधान - परमार्थकालसे काल, अर्थात् व्यवहारकाल, निष्पन्न होता है । शंका- - काल कहां पर है, अर्थात् कालका अधिकरण क्या है ? समाधान — त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे परिपूरित एकमात्र मानुषक्षेत्रसम्बन्धी सूर्यमंडल में ही काल है; अर्थात् कालका आधार मनुष्यक्षेत्रसम्बन्धी सूर्यमंडल है । शंका - यदि एकमात्र मनुष्यक्षेत्र के सूर्यमंडल में ही काल अवस्थित है, तो सर्व पुद्गलोंसे अनन्तगुणे तथा प्रदीपके समान स्व पर प्रकाशनके कारणरूप, और यवराशिके समान समयरूपसे अवस्थित उस कालके द्वारा छह द्रव्योंके परिणाम कैसे प्रकाशित किये जाते हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मापे जानेवाले द्रव्योंसे पृथग्भूत मागध (देशीय) प्रस्थ के समान मापने में कोई विरोध नहीं है । न इसमें कोई अनवस्था दोष ही आता है, क्योंकि, प्रदीप के साथ व्यभिचार आता है । अर्थात् जैसे दीपक, घट, पट आदि अन्य पदार्थोंका प्रकाशक होनेपर भी स्वयं अपने आपका प्रकाशक होता है, उसे प्रकाशित १ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके । तत्कृतः कालविभागः । तत्त्वा. सू. ४, १३-१४. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १. ] काला गमे णिद्देसपरूवणं [ ३२१ काले तेसिं ववहारादो । जदि जीव- पोग्गलपरिणामो कालो होदि, तो सव्धेसु जीव- पोग्गलेसु संठिएण कालेन होदव्त्रं तदो माणुसखेत्ते कसुज्जमंडलट्ठिदो कालो चि ण घडदे ? ण एस दोसो, णिरवत्तादो । किंतु ण तहा लोगे समए वा संववहारो अस्थि; अणाइणिहणरूवेण सुज्जमंडलकिरियापरिणामेसु चेव कालसंववहारो पयट्टो । तम्हा एदस्सेव गहणं कायन्त्रं । केवचिरं कालो ? अणादिओ अपज्जवसिदो । कालस्स कालो किं तत्तो पुधभूदो अण्णो वा ? तव पुत्रभूदो अत्थि, अणवट्ठाणप्पसंगा । णाणण्णो वि, कालस्स कालाभावपसंगा । तदो कालस्स काले गिद्देसो ण घडदे ? ण, एस दोसो, ण ताव पुध करनेके लिए अन्य दीपककी आवश्यकता नहीं हुआ करती है, इसी प्रकारसे कालद्रव्य भी अन्य जीव पुद्गल, आदि द्रव्योंके परिवर्तनका निमित्तकारण होता हुआ भी अपने आपका परिवर्तन स्वयं ही करता है, उसके लिए किसी अन्य द्रव्यकी आवश्यकता नहीं पड़ती है । इसीलिए अनवस्था दोष भी नहीं आता है । शंका – देवलोक में तो दिन-रात्रिरूप कालका अभाव है, फिर वहां पर कालका व्यवहार कैसे होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां के कालसे ही देवलोक में कालका व्यवहार होता है । शंका- यदि जीव और पुद्गलोंका परिणाम ही काल है, तो सभी जीव और पुलोंमें कालको संस्थित होना चाहिए । तब ऐसी दशा में ' मनुष्यक्षेत्र के एक सूर्यमंडल में ही काल स्थित है' यह बात घटित नहीं होती है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उक्त कथन निरवद्य ( निर्दोष ) है । किन्तु लोकमें या शास्त्र में उस प्रकार से संव्यवहार नहीं है, पर अनादिनिधनस्वरूपसे सूर्यमंडलकी क्रिया - परिणामोंमें ही कालका संव्यवहार प्रवृत्त है । इसलिए इसका ही ग्रहण करना चाहिए | शंका- - काल कितने समय तक रहता है ? समाधान - काल अनादि और अपर्यवसित है । अर्थात् कालका न आदि है, न अन्त है । शंका-कालका परिणमन करनेवाला काल क्या उससे पृथग्भूत है, अथवा अनन्य ( अपृथग्भूत) १ पृथग्भूत तो कहा नहीं जा सकता है, अन्यथा अनवस्थादोषका प्रसंग प्राप्त होगा । और न अनन्य ( अपृथग्भूत) ही, क्योंकि, कालके कालका अभाव-प्रसंग आता है । इसलिए कालका कालसे निर्देश घटित नहीं होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं । इसका कारण यह है कि पृथक् पक्षमें कहा गया Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १. पक्खुत्तदोसो संभवदि, अणब्भुवगमा । णाणण्ण पक्खदोसो वि, इद्वत्तादो। ण च कालस्स कालेण णिद्देसो णत्थि, सुज्जमंडलंतरट्ठियकालेण तत्तो पुधभूदसुज्जमंडलट्ठियकालणिसादो। अधवा, जधा घडस्स भावो, सिलावुत्तयस्स सरीरमिच्चादिसु एक्कम्हि वि भेदववहारो, तहा एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण' ववहारो जुज्जदे । कदिविधो कालो ? सामण्णेण एयविहो । तीदो अणागदो वदृमाणो त्ति तिविहो । अधवा गुणद्विदिकालो भवद्विदिकालो कम्मट्ठिदिकालो कायट्ठिदिकालो उववादकालो भावट्ठिदिकालोत्ति छव्धिहो । अहवा अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूदकालाभावा, परिणामाणं च आणतिओवलंभा। जहत्थमवबोहो अणुगमो । कालस्स अणुगमो कालाणुगमो, तेण कालाणुगमेण । णिद्देसो कहणं पयासणं अहिव्यत्तिजणणमिदि एयट्ठो । सो च दुविहो, ओघेण आदेसेण चेदि । तत्थ ओघणिद्देसो दव्वद्वियणयपदुप्पायणो, संगहिदत्थादो । आदेसणिदेसो पज्जवट्ठियणयपदुप्पायणो, अत्थभेदा दोष तो संभव है नहीं, क्योंकि, हम कालके कालको कालसे भिन्न मानते ही नहीं है । और न अनन्य या अभिन्न पक्षमें दिया गया दोष ही प्राप्त होता है, क्योंकि, वह तो हमें इष्ट ही है, (और इष्ट वस्तु उसीके लिए दोषदायी नहीं हुआ करती है)। तथा, कालका कालसे निर्देश नहीं होता हो, ऐसी भी बात नहीं है, क्योंकि, अन्य सूर्यमंडल में स्थित कालद्वारा उससे पृथग्भूत सूर्यमंडलमें स्थित कालका निर्देश पाया जाता है । अथवा, जैसे घटका भाव शिलापुत्रकका (पाषाणमूर्तिका) शरीर, इत्यादि लोकोक्तियों में एक या अभिन्न में भी भेद व्यवहार होता है, उसी प्रकारसे यहां पर भी एक या अभिन्न कालमें भी भेदरूपसे व्यवहार बन जाता है। शंका-काल कितने प्रकारका होता है ? समाधान-सामान्यसे एक प्रकारका काल होता है। अतीत, अनागत और वर्तमानकी अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। अथवा, गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कर्मस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और भावस्थितिकाल, इस प्रकार कालके छह भेद हैं। अथवा काल अनेक प्रकारका है, क्योंकि, परिणामोंसे पृथग्भूत कालका अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाते हैं। यथार्थ अवबोधको अनुगम कहते हैं, कालके अनुगमको कालानुगम कहते हैं । उस कालानुगमसे । निर्देश, कथन, प्रकाशन, अभिव्यक्तिजनन, ये सब एकार्थक नाम है। वह निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उक्त दोनों प्रकारके निर्देशों में से ओघनिर्देश द्रव्यार्थिकनयका प्रतिपादन करनेवाला है, क्योंकि, उसमें समस्त अर्थ संगृहीत हैं। आदेशनिर्देश पर्यायार्थिकनयका प्रतिपादन करनेवाला है, क्योंकि, उसमें अर्थभे १ अप्रतौ कालभदेण' इति पाठः। २ गो. जी. ५५७. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २.] कालाणुगमे मिच्छादिट्टिकालपरूवणं [ ३२३ वलंबणादो । किमर्से दुविहो णिद्देसो उसहसेणादिगणहरदेवेहि कीरदे ? ण एस दोसो, उहयणयमवलंबिय ट्ठिदसत्ताणुग्गहढे तधोवदेसादो । __ ओघेण मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो होदि' त्ति जाणावणटुं ओघणिद्देसो कदो। सेसगुणहाणपडिसेहफलो मिच्छाइट्ठिणिद्देसो । कालादो कालेण णिहालिज्जमाणे केवचिरं होति ति पुच्छा जिणपण्णत्तत्थमिदं सुत्तमिदि पदुप्पायणफला । बहुसु णाणाजीवमिदि एगवयणणिदेसो जादिणिबंधणो ति ण दोसयरो । सव्यद्धा इदि कालविसिट्ठबहुजीवणिदेसो। कुदो? सव्या अद्धा कालो जेसिं जीवाणमिदि व-समासवसेण बज्झट्टप्पवुत्तीए । अधवा, सव्वद्धा इदि कालणिद्देलो। कथं ? मिच्छादिट्ठीणं कालत्तणण्णपरिणामिणो परिणामेहिंतो कथंचि अभेदमासेज मिच्छादिट्ठीणं कालत्ताविरोहा । सव्यकालं णाणाजीवे पडुच्च मिच्छादिट्ठीणं वोच्छेदो णत्थि त्ति भणिदं होदि । अवलंबन किया गया है। शंका - वृषभसेनादि गणधरदेवोंने दो प्रकारका निर्देश किसलिए किया है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नयोंको अवलम्बन करके स्थित प्राणियोंके अनुग्रहके लिए दो प्रकारके निर्देशका उपदेश किया है। ओघसे मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २॥ _ जिस प्रकारसे उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश किया जाता है। यह बात जत. लाने के लिए सूत्रमे 'ओघ' पदका निर्देश किया। 'मिथ्यादृष्टि' पदका निर्देश, शेष गुणस्थानोंके प्रतिषेधके लिए है। 'कालसे' अर्थात् कालकी अपेक्षा जीवोंके संभालने पर 'कितने काल तक होते हैं। इस प्रकारकी यह पृच्छा 'यह सूत्र जिनप्रशप्त है' इस बातके बताने के लिए है। जीवोंके बहुत होनेपर भी 'नाना जीव' इस प्रकारका यह एक वचनका निर्देश जातिनिबंधनक है, इसलिए कोई दोषोत्पादक नहीं है । 'सर्वाद्धा' यह पद कालविशिष्ट बहुतले जीवोंका निर्देश करनेवाला है, क्योंकि, सर्व अद्धा अर्थात् काल जिन जीवोंके होता है, इस प्रकारसे 'व' समास अर्थात् बहुव्रीहिसमासके वशसे बाह्य अर्थकी प्रवृत्ति होती है। अथवा 'सर्वाद्धा' इस पदसे कालका निर्देश जानना चाहिए, क्योंकि, मिथ्यादृष्टियोंके कालत्वले अभिन्न णामीके परिणामोंसे कथंचित् अभेदका आश्रय करके मिथ्यादृष्टियों के कालत्वका कोई भेद नहीं है। अर्थात् नाना जीवोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका सर्वकाल व्युच्छेद नहीं होता है, यह कहा गया है। १मिथ्यादृष्टे नानीवारेक्षया सर्वः कालः | स. सि. १.८ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, ३. " एगजीवं पच अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिसो । जहणेण अंत मुहुत्तं ॥ ३ ॥ अभवसिद्धियजीवमिच्छत्तं पडुच्च अणादिअपज्जवसिदमिदि भणिदं, अभव्यमिच्छत्तस्स आदिमज्झताभावाद । भवसिद्धियमिच्छत्तकालो अणादिओ सपज्जवसिदो | जहा बद्धणकुमारस्स मिच्छत्तकालो । अण्णेगो भवसिद्धियमिच्छत्तकालो सादिओ सपज्जसिदो । जहा कण्हादिमिच्छत्तकालो । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो मिच्छत्त कालो, तस्स इमो णिसो । सो दुविहो, जहण्णो उकस्सो चेदि । तत्थ जहण्णकालपरूवणाजाणावङ्कं जहणेणेत्ति वृत्तं । मुहुत्तस्संतो अंतोमुहुत्तं, एसो मिच्छत्तजहण्णकालणिद्देसो । तं जधा - सम्मामिच्छादिट्ठी वा असंजदसम्मादिट्ठी वा संजदासंजदो वा पमत्तसंजदो वा परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो । सव्वजहणमंतोमुहुत्तं अच्छिय पुणरवि सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मतं वा संजमासंजमं वा अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णस्स एक जीवकी अपेक्षा काल तीन प्रकार है, अनादि - अनन्त, अनादि-सान्त और सादि- सान्त । इनमें जो सादि और सान्त काल है, उसका निर्देश इस प्रकार है- एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका सादि-सान्तकाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३ ॥ अभव्यसिद्धिक जीवोंके मिध्यात्वकी अपेक्षा 'काल अनादि-अनन्त है' ऐसा कहा गया है, क्योंकि, अभव्यके मिध्यात्वका आदि, मध्य और अन्त नहीं होता है । भव्यसिद्धिक जीवके मिथ्यात्वका काल एक तो अनादि और सान्त होता जैसा कि वर्द्धनकुमारका मिथ्यात्वकाल | तथा एक और प्रकारका भव्यसिद्धिक जीवोंका मिध्यात्वकाल है, जो कि सादि और सान्त होता है, जैसे कृष्ण आदिका मिथ्यात्वकाल । उनमें से जो सादि और सान्त मिथ्यात्वकाल होता है उसका यह निर्देश है । वह दो प्रकारका है, जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल | उनमें से जघन्यकालकी प्ररूपणा की जाती है, यह बतलाने के लिए 'जघन्यसे ' ऐसा पद कहा | मुहूर्त के भीतर जो काल होता है, उसे अन्तर्मुहूर्तकाल कहते हैं । इस पद से मिथ्यात्वके जघन्यकालका निर्देश कहा गया है, जो कि इस प्रकार है कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव, परिणामोंके निमित्तसे मिध्यात्वको प्राप्त हुआ । सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल रद्द करके, फिर भी सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा असंयमके साथ सम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकार से प्राप्त होनेवाले जीवके १ एकजीवापेक्षया त्रयो मङ्गाः - अनादिरपर्यवसानः अनादिसपर्यवसानः सादिसपर्यवसानचेति । तत्र सादिः सपर्यवसानो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । स. सि. १,८. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिहिकालपरूवणं [ ३२५ सव्वजहण्णो मिच्छत्तकालो होदि । सासणसम्मादिट्ठी मिच्छत्तं किण्ण पडिवजाविदो १ ण, सासणसम्मत्तपच्छायदमिच्छादिहिस्स अइतिव्वसंकिलिट्ठस्स मिच्छत्ततम्हा विणडिअस्स सव्वजहण्णकालेण गुणंतरसंकमणाभावा । उक्कस्सकालपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टे देसूणं ॥४॥ अद्धपोग्गलपरियटृ णाम किं? वुच्चदे- अणाइसंसारे हिंडंताणं जीवाणं दव्वपरियट्टणं खेत्तपरियट्टणं कालपरियट्टणं भवपरियट्टणं भावपरियट्टणमिदि पंच परियट्टणाणि होति । जं तं दव्यपरियट्टणं तं दुविहं, णोकम्मपोग्गलपरियणं कम्मपोग्गलपरियट्टणं चेदि । तत्थ णोकम्मपोग्गलपरियट्ट वत्तइस्सामो । तं जहा- जदि वि पोग्गलाणं गमणागमणं पडि मिथ्यात्वका सर्वजघन्य काल होता है। शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ? अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टिको भी मिथ्यात्व गुणस्थानमें पहुंचाकर उसका जघन्यकाल क्यों नहीं बतलाया? समाधान-नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्वसे पीछे आनेवाले, अतितीव्र संक्लेशवाले मिथ्यात्वरूपी अन्धकारसे विडम्बित मिथ्यादृष्टि जीवके सर्व जघन्यकालसे गुणान्तरसंक्रमणका अभाव है, अर्थात् गुणस्थान-परिवर्तन नहीं हो सकता है। अब मिथ्यात्वके उत्कृष्टकालके बतलाने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं एक जीवकी अपेक्षा सादि-सान्त मिथ्यात्वका उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥ ४॥ शंका-अर्धपुद्गलपरिवर्तन किसे कहते हैं ? __ समाधान-इस अनादि संसारमें भ्रमण करते हुए जीवोंके द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, काल परिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन, इस प्रकार पांच परिवर्तन होते रहते हैं। इसमेंसे जो द्रव्यपरिवर्तन है, वह दो प्रकारका है- नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन और कर्मपुद्गलपरिवर्तन । उनमेंसे पहले नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनको कहते हैं। वह इस प्रकार है यद्यपि पुद्गलोंके गमनागमनके प्रति कोई विरोध नहीं है, तो भी बुद्धिसे (किसी १ प्रतिषु · विणदिअस्स ' इति पाठः। २ उत्कर्षेणार्थपुद्गलपरिवतों देशोनः । स. सि. १, ८. तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीना योग्या ये पुरला एकेन जीवेन एकस्मिन् समये गृहीताः स्निग्धरूक्षवर्णगन्धादिमिरतीवमन्दमध्यममावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेर निजी अगृहीताननन्तवारानतीत्य मिश्रकश्चिानन्तवारानतीय मध्ये गृहीताश्वानन्तवारानतीव्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । स. सि. २, १०. गो. जी, जी. प्र. ५६०, Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, ४. विरोहो णत्थि, तो वि बुद्धीए आदि काढूण णोकम्प्रपोग्गल परियट्टे भण्णमाणे अप्पिदपोग्गल परियदृब्भंतरे सव्वयोग्गलासिम्हि एक्को वि परमाणू ण भुत्तोत्ति सव्यपोग्गलाणमगहिदसण्णा पोग्गल परियट्टपढमसमए कादव्या । अदीदकाले वि सव्वजीवेहि सव्वपोग्गलाणमणंतिम भागो सव्वजीवरासीदो अनंतगुणो, सव्वजीवरासिउवरिमवग्गादो अनंतगुणहीण पोग्गलपुंजो भुतुज्झिदो । कुदो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणेण सिद्धाणमगंतिमभागेण गुणिदादीदकाल मे त्तसव्य जीवरासिसमाण भुत्तु ज्झिदपोग्गल परिमाणोवलंभा । सव्वे विपोग्गला खलु एगे' भुत्तज्झिदा हु जीवण । असई अनंतखुत्तो पोग्गल परियट्टसंसारे ॥ १८ ॥ एदी सुत्त गाहाए सह विरोहो किण्ण होदित्ति भणिदे ण होदि, सव्वेगदे सम्हि गाहत्य सव्वसद्दष्पवृत्ती दो । ण च सव्त्रम्हि पयट्टमाणस्स सदस्य एगदेसपउत्ती असिद्धा, गामो दद्धो, पदो दद्धो, इच्चादिसु गाम-पदाण मे गदेस पय हसवलं भादो । तेण पोग्गल विवक्षित पुगलपरमाणुपुंजको ) आदि करके नोकर्मपुङ्गपरिवर्तन के कहनेपर विवक्षित पुलपरिवर्तन के भीतर सर्वपुद्गलराशिमेंसे एक भी परमाणु नहीं भोगा है, ऐसा समझकर पुलपरिवर्तन के प्रथम समय में सर्व पुगलोंकी अगृहीतसंज्ञा करना चाहिए। अतीतकाल में भी सर्व जीवोंके द्वारा सर्वपुद्गलोंका अनन्तवां भाग, सर्वजीवराशिसे अनन्तगुणा, और सर्वजीवराशिके उपरिम वर्गले अनन्तगुणहीन प्रमाणवाला पुद्गलपुंज भोगकर छोड़ा गया है । इसका कारण यह है कि अभव्यसिद्ध जीवोंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागसे गुणित अतीतकालप्रमाण सर्वजीवराशिके समान भोग करके छोड़े गये पुलोंका परिमाण पाया जाता है । शंका- यदि जीवने आज तक भी समस्त पुद्गल भोगकर नहीं छोड़े हैं, तोइस पुलपरिवर्तनरूप संसार में समस्त पुद्गल इस जीवने एक एक करके पुनः पुनः अनन्तवार भोग करके छोड़े हैं ॥ १८ ॥ इस सूत्रगाथा के साथ विरोध क्यों नहीं होगा ? समाधान – उक्त सूत्रगाथा के साथ विरोध प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, गाथा में स्थित सर्व शब्दकी प्रवृत्ति सर्व के एक भाग में की गई है । तथा, सर्वके अर्थ में प्रवर्तित होनेवाले शब्दकी एकदेशमें प्रवृत्ति होना असिद्ध भी नहीं हैं, क्योंकि, ग्राम जल गया, पद (जनपद) जल गया, इत्यादिक वाक्यों में उक्त शब्द ग्राम और पदोंके एक देशमें प्रवृत्त हुए भी पाये १ प्रतिषु ' एगो ' इति पाठः । २ स. सि. २, १०. गो. जी., जी. प्र. ५६०. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिट्टिकालपरूवणं [३२७ परियट्टादिसमए अगहिदसण्णिदे चेव पोग्गले तिण्हमेक्कदरसरीरणिप्पायणट्ठमभवसिद्धिएहि अणंतगुणे सिद्धाणमणंतिमभागमेत्ते गेण्हदि । ते च गेण्हतो अप्पणो ओगाढखेत्तट्ठिदे चेय गेहदि, णो पुध खेत्तट्ठिदे । वुत्तं च एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहि कम्मणो जोग्गं । बंधइ जहुत्तहेदू सादियमध णादियं चावि ॥ १९॥ विदियसमए वि अप्पिदपोग्गलपरियभंतरे अगहिदे चेव गेहदि । एवमुक्कस्सेण अणंतकालमगहिदे चेव गेण्हदि । जहण्णेण दो-समएसु चेव अगहिदे गेण्हदि, पढमसमयगहिदपोग्गलाणं विदियसमए णिजरिय अकम्मभावं गदाणं पुगो तदियसमए तम्हि चेव जीवे णोकम्मपज्जाएण परिदाणमुवलंभादो । तं कधं णव्वदे ? णोकम्मस्स आवाधाए विणा उदयादिणिसेगुवदेसा । एसो पोग्गलपरियट्टकालो तिविहो होदि, अगहिदगहणद्धा अतएव पुद्गल परिवर्तनके आदि समयमें औदारिक आदि तीन शरीरों से किसी एक शरीरके निष्पादन करने के लिए जीव अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र अगृहीत संज्ञावाले पुद्गलोंको ही ग्रहण करता है। उन पुद्गलोंको ग्रहण करता हुआ भी अपने आश्रित क्षेत्रमें स्थित पुद्गलोको ही ग्रहण करता है, किन्तु पृथक् क्षेत्र में स्थित पुद्गलोंको नहीं ग्रहण करता है । कहा भी है यह जीव एक क्षेत्रमें अवगाढरूपसे स्थित, और कर्मरूप परिणमनके योग्य पुद्गलपरमाणुओंको यथोक्त (आगमोक्त मिथ्यात्व आदि) हेतुओंसे सर्व प्रदेशोंके द्वारा बांधता है। वे पुद्गलपरमाणु सादि भी होते हैं, अनादि भी होते हैं, और उभयरूप भी होते हैं ॥ १९ ॥ द्वितीय समयमें भी विवक्षित पुद्गलपरिवर्तनके भीतर अगृहीत पुद्गलोंको ही ग्रहण करता है। इस प्रकार उत्कृष्टकालकी अपेक्षा अनन्तकाल तक अगृहीत पुद्गलोंको ही ग्रहण करता है। किन्तु जघन्यकालकी अपेक्षा दो समयोंमें ही अगृहीत पुद्गलोंको ग्रहण करता है, क्योंकि, प्रथम समयमें ग्रहण किये गये पुद्गलोंकी द्वितीय समयमें निर्जरा करके अकर्मभाव (कर्मरहित अवस्था) को प्राप्त हुए वे ही पुद्गल पुनः तृतीय समयमें उसी ही जीवमें नोकर्म पर्यायसे परिणत हुए पाये जाते हैं। शंका-प्रथम समयमें गृहीत पुद्गलपुंज द्वितीय समयमें निर्जीर्ण हो, अकर्मरूप अवस्थाको धारण कर, पुनः तृतीय समयमें उसी ही जीवमें नोकर्मपर्यायसे परिणत हो जाता है, यह कैसे जाना? समाधान - क्योंकि, आबाधाकालके विना ही नोकर्मके उदय आदिके निषेकोंका उपदेश पाया जाता है। यह पुद्गल परिवर्तनकाल तीन प्रकारका होता है-अगृहीतग्रहणकाल, गृहीतग्रहणकाल १ प्रतिषु 'गुणो' इति पाठः। २ गो. क. १८५. परं तत्र 'जहुत्तहेदू' इति स्थाने 'सगहेदूहि य इति पाठः। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ) .. छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १. गहिदगहणद्धा मिस्सयगहणद्धा चेदि । अप्पिदपोग्गलपरियदृब्भंतरे जं अगहिदपोग्गलगहणकालो अगहिदगहणद्धा णाम । अप्पिदपोग्गलपरियभंतरे गहिदपोग्गलाणं चेय गहणकालो गहिदगहणद्धा णाम । अप्पिदपोग्गलपरियट्टमंतरे गहिदागहिदपोग्गलाणमक्कमेण गहणकालो मिस्सयगहणद्धा णाम । एवं तीहि पयारहि पोग्गलपरियट्टकालो जीवस्स गच्छदि । एत्थ तिण्हमद्धाणं परियट्टणकमो वुच्चदे । तं जहा-पोग्गलपरियट्टादिसमयप्पहुडि अणंतकालो अगहिदगहणद्धा भवदि, तत्थ सेसदोपयाराभावा । पुणो अगहिदगहणद्धावसाणे सई मिस्सयगहणद्धा होदि । पुणो वि विदियवारे अगहिदगहणद्धाए अणंतकालं गंतूण सई मिस्सयद्धा होदि । एवं तदियवारे वि अगहिदगहणद्धाए अणंतकालं गमिय सइं मिस्सयद्धाए परिणमदि । एदेण पयारेण मिस्सयद्धाओ वि अणंताओ जादाओ। पुणो णंतकालं अगहिदगहणद्धाए गमिय सई गहिदगहणद्धाए परिणमदि। एदेण कमेण अणतो कालो गच्छदि जाव गहिदगहणद्धसलागाओ वि अणंतत्तं पत्ताओ त्ति। पुणो उवरि और मिश्रग्रहणकाल । विवक्षित पुद्गलपरिवर्तनके भीतर जो अगृहीत पुद्गलोंके ग्रहण करनेका काल है उसे अगृहीतग्रहणकाल कहते हैं। विवक्षित पुद्गलपरिवर्तनके भीतर गृहीत पुद्गलोंके ही ग्रहण करनेके कालको गृहीतग्रहणकाल कहते हैं। तथा विवक्षित पुद्गल परिवर्तनके भीतर गृहीत और अगृहीत, इन दोनों प्रकारके पुद्गलोंके अक्रमसे अर्थात् एक साथ ग्रहण करनेके कालको मिश्रग्रहणकाल कहते हैं । इस तरह उक्त तीनों प्रकारोसे जीवका पुद्गलपरिवर्तनकाल व्यतीत होता है। विशेषार्थ-जिन पुद्गलपरमाणुओंके समुदायरूप समयप्रबद्ध में केवल पहले ग्रहण किये हुए परमाणु ही हों, उस पुद्गलपुंजको गृहीत कहते हैं। जिस समयप्रबद्धमें ऐसे परमाणु हो कि जिनका जीवने पहिले कभी ग्रहण नहीं किया हो उस पुद्गलपुंजको अगृहात कहते हैं। जिस समयप्रबद्धमें दोनों प्रकारके परमाणु हों उस पुद्गलपुंजको मिश्र कहते हैं। अब यहांपर उक्त तीनों प्रकारके कालोंके परिवर्तनका क्रम कहते हैं । वह इस प्रकार है-- पुद्गल परिवर्तनके आदि समयसे लेकर अनन्तकाल तक अगृहीतग्रहणका काल होता है, क्योंकि, उसमें शेष दो प्रकारके कालोंका अभाव है । पुनः अगृहीतग्रहणकालके अन्तमें एक वार मिश्रपुद्गलपुंजके ग्रहण करनेका काल आता है। फिर भी द्वितीयवार अगृहीतग्रहणकालके द्वारा अनन्तकाल जाकर एकवार मिश्रपुद्गलपंजके ग्रहण करनेका काल आता है। इसी प्रकार तृतीयवार भी अग्रहीतग्रहणकालके द्वारा अनन्तकाल जाकर एक वार मिश्रग्रहणकालरूपसे परिणमन होता है। इस प्रकारसे मिश्रग्रहणकालकी भी शलाकाएं अनन्त हो जाती हैं । पुनः अनन्तकाल अगृहीतग्रहणकालके द्वारा बिता कर एकवार गृहीतग्रहणकालरूपसे परिणमन होता है। इस क्रमसे अनन्तकाल व्यतीत होता हुआ तब तक चला जाता है जब तक कि गृहीतग्रहणकाल की शलाकाएं भी १ प्रतिषु 'जंगहिद-' इति पाठः । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिहिकालपरूवणं [३२९ अणंतं कालं मिस्सयगहणद्धाए गमेदूर्ग' सई अगहिदगहणद्धा परिणमदि । एवमेदाहि दाहि अद्धाहि अणंतकालं गमिय सई गहिदगहणद्धा भवदि । एवमेदेण पयारेण जीवस्स कालो गच्छदि जाव एत्थतणगहिदगहणद्धासलागाओ अणंततं पत्ताओ त्ति । एवं दो परियदृणवारा गदा । पुणो णतं कालं मिस्सयद्धाए गमिय सई गहिदगहणद्धाए परिणमदि । एदेण पयारेण गहिदगहणद्धासलागाओ अणंतत्तं पत्ताओ। तदो सइमगहिदगहणद्धाए परिणमदि । एदेण वि पयारेण अणंतो कालो गच्छदि जाव एत्थतणअगहिदगहणद्धासलागाओ अणंतत्तं पत्ताओ त्ति । एसो तदियो परियट्टो। संपदि चउत्थपरियट्ट भणिस्सामो । तं जधा- अणंतकालं गहिदगहणद्धाए गमेदूण सई मिस्सयगहणद्धाए परिणमदि। एवमेदाहि दोहि अद्धाहि अणंतकालं गमेदि जाव एत्थतणमिस्सयगहगद्धासलागाओ अणंतत्तं पत्ताओ त्ति । तदो सइमगहिदगहणद्धाए परिणमदि । पुणो उवरि एदेण चेव कमेण कालो गच्छदि जाव पोग्गलपरियट्टचरिमसमओ त्ति' । पोग्गलपरियट्टआदिमसमए जे अनन्तत्वको प्राप्त हो जाती है (इस प्रकार प्रथम परिवर्तनवार व्यतीत हुआ)। पुनः इसके ऊपर अनन्तकाल मिश्रग्रहणकालकी अपेक्षा बिताकर एकवार अगृहीतग्रहणकाल परिणत होता है। इस प्रकार इन दोनों प्रकारके कालोसे अनन्तकाल बिताकर एकवार गृहीतग्रहणकाल होता है । इस तरह उक्त प्रकारसे जीवका काल तब तक व्यतीत होता हुआ चला जाता है जब तक कि यहांकी गृहीतग्रहणकालसम्बन्धी शलाकाएं भी अनन्तताको प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार दो परिवर्तनवार व्यतीत हुए । पुनः अनन्तकाल मिश्रग्रहणकालके द्वारा बिताकर एकवार गृहीतग्रहणकालका परिणमन होता है। इस प्रकारसे गृहीतग्रहणकालकी शलाकाएं अनन्तताको प्राप्त हो जाती हैं। तत्पश्चात् एकवार अगृहीतग्रहणकालरूपसे परिणमन होता है। पुनः इस प्रकारसे भी अनन्तकाल तब तक व्यतीत होता है जब तक कि यहां पर भी अगृहीतग्रहणकालसम्बन्धी शलाकाएं अनन्तताको प्राप्त होती हैं। यह तीसरा परिवर्तन है। अब चतुर्थ परिवर्तनको कहते हैं। वह इस प्रकार है-अनन्तकाल गृहीतग्रहणकालसम्बन्धी बिताकर एकवार मिश्रग्रहणकालका परिवर्तन होता है। इस प्रकार इन दोनों प्रकारके कालोद्वारा अनन्तकाल बिताता है जब तक कि यहांकी मिश्रग्रहणकालसम्बन्धी शलाकाएं अनन्तताको प्राप्त होती हैं। इसके पश्चात् एकवार अगृहीतग्रहणकालरूपसे परिणमित होता है । इसके पश्चात् फिर भी इसके आगे इस ही क्रमसे पुद्गलपरिवर्तनके अन्तिम समय तक काल व्यतीत होता जाता है। (इस चतुर्थ परिवर्तनके समाप्त हो जानेपर) नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनके १ प्रतिषु 'गमेदूण ण सई' इति पाठः । २ अगहिदमिस्सं गहिदं मिस्समगहिदं तहेव गहिदं च । मिस्सं गहिदमगहिदं गहिदं मिस्सं च अगदिदं च॥ गो. जी. जी. प्र.५६०. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१, ५, ४. ३३० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं जीवेण णोकम्मसरूवेण गहिदा पोग्गला ते विदियादिसमएसु अकम्मभावं गंतूण जम्हि काले ते चेव सुद्धा आगच्छंति सो कालो पोग्गलपरियत्ति भण्णदि । आदिम समयमें जीवके द्वारा नोकर्मस्वरूपसे जो पुद्गल ग्रहण किये थे वे ही पुद्गल द्वितीयादि समयोंमें अकर्मभावको प्राप्त होकरके जिस कालमें वे ही शुद्ध पुद्गल आने लगते हैं, वह काल 'पुद्गलपरिवर्तन' इस नामसे कहा जाता है। विशेषार्थ- परिवर्तन पांच प्रकारका है-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन । इनमें से द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद हैं-नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन । यहां नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप बतलाया गया है। उसी स्वरूपके समझानेके लिए मूलमें संदृष्टि दी गई है.। जिसमें अगृहीतसूचक शून्य (०) पुनः मिश्रसूचक हंसपद (+) और गृहीतसूचक एकका अंक (१) दिया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि अनन्तवार अगृहीत परमाणुपुंजके ग्रहण करनेके बाद एक वार मिश्र परमाणुपुंजका ग्रहण होता है । पुनः अनन्तवार उक्त क्रमसे मिश्रग्रहण करनेके बाद एक धार गृहीत परमाणुपुंजका प्रहण होता है। इस प्रकार अनन्तवार गृहीतग्रहण हो जाने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनका प्रथम भेद समाप्त होता है । यह संदृष्टिकी प्रथम कोष्ठक-पंक्तिका अर्थ है। तत्पश्चात् अनन्तवार मिश्रका ग्रहण होने पर एकवार अगृहीतका ग्रहण होता है। और अनन्तवार अगृहीतका प्रहण हो जाने पर एकवार गृहीतका ग्रहण होता है। इस प्रकारसे अनन्तवार गृहीतका ग्रहण हो जाने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनका दूसरा भेद समाप्त होता है। यही दूसरी कोष्ठक पंक्तिका अभिप्राय है । पुनः अनन्तवार मिश्रका ग्रहण हो जाने पर एकवार गृहीतका, और अनन्तवार गृहीतका ग्रहण हो जाने पर एकवार अगृहीतका ग्रहण होता है । इस प्रकार अनन्तधार अगृहीतग्रहण होने पर नोकर्मपुद्गलका तीसरा भेद समाप्त होता है। यही तीसरी कोष्ठक-पंक्तिका अर्थ है। पुनः अनन्तवार गृहीतका ग्रहण होनेके पश्चात् एकवार मिश्रका और अनन्तवार मिश्रका ग्रहण होने पर एकवार अगृहीतका ब्रहण होता है। इस प्रकारसे अनन्तवार अगृहीतका ग्रहण हो जाने पर नोकर्म पुद्गलपरिवर्तनका चौथा भेद समाप्त होता है। इस सबके समुदायको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं। तथा इसमें जितना समय लगता है उसको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका काल कहते हैं। १ प्रतिषु +१ । १ + + इति पाठः। +|. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४. ] कालानुगमे मिच्छादिकाल परूवणं [ ३३१ एत्थ अप्पा बहुगं । सव्वत्थोवा अगहिदगहणद्धा । मिस्सयगहणद्धा अनंतगुणाओ । जहणिया गहिदगहणद्धा अनंतगुणा । जहण्णओ पोरगलपरियो विसेसाहिओ । उक्कस्सिया गहिदगहणद्धा अनंतगुणा । उक्कस्सओ पोग्गलपरियद्वो विसेसाहिओ । किं कारणमगहिद गणद्धा थोवा जादा ? बुच्चदे जे णोकम्मपज्जाएण परिणमिय अकम्मभावं गंतूण तेण अकम्मभावेण जे थोवकालमच्छिया ते बहुवारमागच्छंति, अविणटुचउव्विहपाओगादो' । जे पुण अप्पिदपोग्गल परियदृभंतरे ण गहिदा ते चिरेण आगच्छंति, अकम्मभावं गतूण तत्थ चिरकालावट्ठाणेण विणट्टचउच्चिहपाओग्गत्तादो । भणिदं च--- मट्ठदिसंत्तं आसणं कम्मणिरामुक्कं । पारण एदि गहणं दव्त्रमणिद्दिट्टसंठाणं ॥ २० ॥ अब उक्त अगृहीत, मिश्र और गृहीतसंबन्धी तीनों प्रकारके कालोका अल्पबहुत्व कहते हैं - सबसे कम अगृहीतग्रहणका काल है । अगृहीतग्रहणके काल से मिश्रग्रहणका काल अनन्तगुणा है । मिश्रग्रहण के कालसे जघन्य गृहीतग्रहणका काल अनन्तगुणा है । जघन्य गृहीतग्रहण कालसे जघन्य पुद्गलपरिवर्तनका काल विशेष अधिक है । जघन्य पुद्गलपरिवर्तन के काल से उत्कृष्ट गृहीतग्रहणका काल अनन्तगुणा है । और उत्कृष्ट गृहीतग्रहणके कालसे उत्कृष्ट पुलपरिवर्तनका काल विशेष अधिक है । शंका - अगृहीतग्रहणकालके सबसे कम होनेका कारण क्या है ? समाधान - जो पुद्गल नोकर्मपर्याय से परिणमित होकर पुनः अकर्मभाव को प्राप्त हो, उस अकर्मभाव से अल्पकाल तक रहते हैं वे पुगल तो बहुतवार आते हैं; क्योंकि, उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चार प्रकारकी योग्यता नष्ट नहीं होती है। किन्तु जो पुद्गल विवक्षित पुलपरिवर्तन के भीतर नहीं ग्रहण किये गये हैं, वे चिरकालके बाद आते हैं, क्योंकि, अकर्मभावको प्राप्त होकर उस अवस्थामें चिरकाल तक रहने से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप संस्कारका विनाश हो जाता है । कहा भी है जो कर्मपुल पहले बद्धावस्थामें सूक्ष्म अर्थात् अल्प स्थिति से संयुक्त थे, अतएव निर्जरा द्वारा कर्मरूप अवस्था से मुक्त अर्थात् रहित हुए, किन्तु आसन्न अर्थात् जीवके प्रदेशों के साथ जिनका एकक्षेत्रावगाह है, तथा जिनका आकार अनिर्दिष्ट अर्थात् कहा नहीं जा सकता है, इस प्रकारका पुल द्रव्य बहुलतासे ग्रहणको प्राप्त होता है ॥ २० ॥ I १ अत्रगृहीतग्रहणकाल : अनन्तोऽपि सर्वतः स्तोकः । कुतः, विनष्टद्रव्यक्षेत्रकालभावसंस्कारपुद्गलानी बहुवारह्णाघटनात् । अनेन विवक्षितपुद्गलपरिवर्तनमध्ये बहुवारग्रहणं संभवतीत्युक्तं भवति । गो. जी. जी. प्र. ५६०. २ अल्पस्थितिसंयुक्तं जीवप्रदेशेषु स्थितं निर्जरया विमोचितकर्मस्वरूपं पुद्गलद्रव्यं अनिर्दिष्टसंस्थानं विवक्षित परावर्तन प्रथमसमयोक्तस्वरूपरहितं जीवेन प्रचुरत्या स्वीक्रियते । कुतः ? द्रव्यादिचतुर्विधसंस्कार संपन्नत्वात् । गो. जी. जी. प्र. ५६०. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ४. एदेण कारणेण अगहिदगहणद्धा थोवा जादा । एसो णोकम्मपोग्गलपरियट्टो णाम । जधा णोकम्मपोग्गलपरियट्टो वुत्तो, तधा चेव कम्मपोग्गलपरियट्टो' वत्तव्यो । णवरि विसेसो णोकम्मपोग्गला आहारवग्गणादो आगच्छंति । कम्मपोग्गला पुण कम्मइयवग्गणादो । णोकम्मपोग्गलाणं तदियसमए चेव मिस्सयगहणद्धा होदि । कम्मपोग्गलाणं पुण तिसमयाहियावलियाए । कुदो ? बंधावलियादीदाणं समयाहियावलियाए ओकड्डणवसेण पत्तोदयाणं दुसमयाहियावलियाए अकम्मभावं गदाणं कम्मपोग्गलाणं तिसमयाहियावलियाए कम्मपज्जाएण परिणमिय अण्णपोग्गलेहि सह जीवे बंधं गदाणमुवलंभा । णवरि दोसु वि पोग्गलपरियट्टेसु सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तएण पढमसमयतम्भवत्थेण पढमसमयआहारएण जहण्णुववादजोगेण गहिदकम्म-णोकम्मदव्यं घेत्तूण आदी कायव्वा । एत्थ उवउज्जंती गाहा गहणसमयम्हि जीवो उप्पादेदि हु गुणंसपञ्चयदो । जीवेहि अणंतगुणं कम्म पदेसेसु सव्वेसु ॥ २१ ॥ इस सूत्रोक्त कारणसे अगृहीतग्रहणका काल अल्प होता है। इस प्रकार इस सबका नाम नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन है। जिस प्रकारसे नोकर्म पुनलपरिवर्तन कहा है, उसी प्रकारसे कर्म पुद्गलपरिवर्तन भी कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि नोकर्मपुद्गल आहारवर्गणासे आते है । किन्तु कर्मपुद्गल कार्मणवर्गणासे आते हैं। नोकर्मपुद्गलोंके मिश्रग्रहणका काल तृतीय समयमें ही होता है। किन्तु कर्मपुद्गलोंके मिश्रग्रहणका काल तीन समय अधिक आवलीप्रमाण कालके व्यतीत होने पर होता है, क्योंकि, जो बन्धावलीसे अतीत हैं, एक समय अधिक आवलीके द्वारा अपकर्षणके वशसे जो उदयको प्राप्त हुए हैं, और दो समय अधिक आवलीके रहनेपर जो अकर्मभावको प्राप्त हुए हैं, ऐसे कर्म पुद्गलोंका तीन समय अधिक आवलीके द्वारा कर्मपर्यायसे परिणमन होकर अन्य पुद्गलोंके साथ जीवमें बंधको प्राप्त होना पाया जाता है। विशेष बात यह है कि दोनों ही पुद्गलपरिवर्तनों में प्रथम समयमें तद्भवस्थ अर्थात् उत्पन्न हुए, तथा प्रथम समयमें ही आहारक हुए सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीवके द्वारा जघन्य उपपादयोगसे गृहीत कर्म और नोकर्मद्रव्यको ग्रहण करके आदि अर्थात् परिवर्तनका प्रारंभ करना चाहिए। यहां पर उपयुक्त गाथा इस प्रकार है __ कर्मग्रहणके समयमें जीव अपने गुणांश प्रत्ययोंसे, अर्थात् स्वयोग्य बंधकारणोंसे, जीवोंसे अनन्तगुणे कर्मोंको अपने सर्व प्रदेशों में उत्पादन करता है ॥२१॥ १ कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते-एकस्मिन् समये एकेन जीवनाष्टविधकर्मभावम पुद्गला ये गृहीताः समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीणा: पूर्वोत्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यांवतावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । स. सि. २, १०. २ प्रतिषु ' परिय?' इति पाठः । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिविकालपरूवणं [३३३ __ एवं दव्यपोग्गलपरियट्टणं गर्द । खेत-काल-भव-भावयोग्गलपरियडा भाणिवण गहिदव्वा । तेसिं गाहाओ सव्वे वि पोग्गला खलु एगे भुत्तज्झिदा हु जीवेण । असई अणंतखुतो पोग्गलपरियदृसंसारे ॥ २२ ॥ सव्वम्हि लोगखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण ओच्छुण्णं । ओगाहणओ बहुसो हिंडते खेत्तसंसारे ॥ २३ ॥ ओसप्पिण्णि-उस्सप्पिणि-समयावलिया णिरंतरा सव्वा । जादो मुदो य बहुसो हिंडतो कालसंसारे ॥ २४ ॥ "णिरआउआ जहण्णा जाव दु उवरिल्लओ दु गेवज्जो । जीवो मिच्छत्तवसा भवद्विदि हिंडिदो बहुसो ॥ २५ ॥ ___ इस प्रकार द्रव्यपुद्गलपरिवर्तन समाप्त हुआ । क्षेत्र, काल, भव और भावपुलपरिवर्तनोंको कहलाकर ग्रहण करा देना चाहिए । उन परिवर्तनोंकी (संक्षेपसे अर्थ-प्रतिपादक) गाथाएं इस प्रकार हैं इस जीवने इस पुलपरिवर्तनरूप संसारमें एक एक करके पुनः पुनः अनन्तवार सम्पूर्ण पुद्गल भोग करके छोड़े हैं ॥ २२॥ इस समस्त लोकरूप क्षेत्र में एक प्रदेश भी ऐसा नहीं है जिसे कि क्षेत्रपरिवर्तनरूप संसारमें क्रमशः भ्रमण करते हुए बहुतवार नाना अवगाहनाओंसे इस जीवने न छुआ हो ॥२३॥ कालपरिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सर्व समयोंकी आवलियों में निरंतर बहुतवार उत्पन्न हुआ और मरा है ॥ २४ ॥ भवपरिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ यह जीव मिथ्यात्वके वशसे जघन्य नारकायुसे लगाकर (तिर्यंच, मनुष्य और) उपरिम प्रैवेयक तककी भवस्थितिको बहुतवार प्राप्त हो चुका है ॥२५॥ १ स. सि. २, १०. परं तत्र 'एगे' इति स्थाने 'कमसो' इति पाठः । सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकनातोझिताच जीवेन । ह्यसकृस्वनंतकृत्वः पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ गो. जी. जी. प्र. ५६०. २स. सि. २,१०. परं तत्र 'ओच्छण्णं' इति स्थाने ' उप्पणं' इति पाठः । सर्वत्र जगरक्षेत्रे देशोन अस्ति जंतुनाऽक्षुण्णः । अवगाहनानि बहुशो बंभ्रमता क्षेत्रसंसारे ॥ गो. जी. जी. प्र. ५६०. स.सि २.१०. परंतत्र द्वितीय चरणे 'समयावलियासु णिरवसेसामु' इति पाठ।। उत्सर्पणावसर्पणसमयावलिकासु निरवशेषासु । जातो मृतश्च बहुशः परिभ्रमन् कालसंसारे ॥ गो. जी. जी. प्र. ५६०. ४ प्रतिषु गाथेयं २६ तमांकितगाथायाः पश्चादुपलभ्यते । ५ णिस्यादिजहणादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवेज्जा । मिच्छत्तससिदेण हु बहुसो वि भवद्विदी भमिदा ॥ स. सि. १, १०. नरकजघन्यायुष्याशुपरिमवेयकावसाने । मिथ्यात्वसंश्रितेन हि भवस्थितिर्भाविता बहशा॥ गो. बी. जी. प्र. ५६.. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमै जीवट्ठाणं [१, ५, ४. सव्वासिं पगदीणं अणुभाग-पदेसंबंधठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा परिभमिदो भावसंसारे ॥ २६ ॥ परियट्टिदाणि बहुसो पंच वि परियट्टणाणि जीवेण । जिणवयणमलभमाणेण दीदकाले अणंताणि ॥ २७ ॥ जह गेण्हइ परियट्ट पुरिसो अच्छादणस्स विविहस्स । तह पोग्गलपरियट्टे गेण्डइ जीवो सरीराणि ॥ २८ ॥ अदीदकाले एगस्स जीवस्स सव्वत्थोवा भावपरियट्टवारा । भवपरियडवारा अणतगुणा । कालपरियट्टवारा अणंतगुणा । खेत्तपरियट्टवारा अणंतगुणा । पोग्गलपरियड्वारा अणंतगुणा । सव्वत्थोवो पोग्गलपरियट्टकालो । खेत्तपरियट्टकालो अगंतगुणो। कालपरियकालो अणंतगुणो । भवपरियट्टकालो अणंतगुणो। भावपरियट्टकालो अणंतगुणो' । यह जीव मिथ्यात्वके वशीभूत होकर भावपरिवर्तनरूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ सम्पूर्ण प्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंधस्थानोंको अनेकवार प्राप्त हुआ है॥२६॥ जिन-वचनोंको नहीं पा करके इस जीवने अतीतकालमें पांचों ही परिवर्तन पुनः पुनः करके अनन्तवार परिवर्तित किये हैं ॥ २७ ॥ जिस प्रकार कोई पुरुष नाना प्रकारके वस्त्रों के परिवर्तनको ग्रहण करता है, अर्थात् हतारता है और पहनता है, उसी प्रकारसे यह जीव भी पुदलपरिवर्तनकालमें नाना शरीरोंको छोड़ता और ग्रहण करता है ॥ २८ ॥ अतीतकाल में एक जीवके सबसे कम भावपरिवर्तनके वार है। भवपरिवर्तन के वार भावपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। कालपरिवर्तनके वार भवपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। क्षेत्रपरिवर्तनके वार कालपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। पुद्गलपरिवर्तनके वार क्षेत्रपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। पुद्गलपरिवर्तनका काल सबसे कम है। क्षेत्रपरिवर्तनका काल पुद्गलपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है। कालपरिवर्तनका काल क्षेत्रपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है। भवपरिवर्तनका काल कालपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है । भावपरिवर्तनका काल भवपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है। (इन परिवर्तनोंकी विशेष जानकारीके लिये देखो सर्वार्थसिद्धि २, १०, व गोम्मटसार जीवकांड गाथा ५६० टीका)। ............................. १ सव्वा पयडिविदिओ अणुभागपदेसबंधठाणाणि । मिच्छत्तसासवण य ममिदा पुण मावसंसारे । स. सि. १,१०. सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधयोग्यानि । स्थानान्यनुभूतानि भ्रमता भुवि भावसंसारे ॥ गो. जी. जी.प्र.५६०. २पंचविधे संसारे कर्मवशाग्जैनदर्शितं मुक्तेः। मार्गमपश्यन् प्राणी मानादुःखाकुले भ्रमति । गो. जी. ३ गो. जी. जी. प्र. ५६.. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिहिकालपरूवणं [३३५ एदेसु परियडेसु पोग्गलपरियट्टेण पयदं । कम्म-णोकम्मभेदेण दुविहो पोग्गलपरियट्टो, तत्थ केण पयद ? दोहि वि पयदं, दोण्हं कालभेदाभावा । सो वि कुदो अवगम्मदे ? पोग्गलपरियट्टप्पाबहुगे दो वि पोग्गलपरियट्टे एक्कट्ठ कादूण कालप्पाबहुगविधाणादो। एदस्स पोग्गलपरियट्टकालस्स अद्धं देसूर्ण सादि-सणिहणमिच्छत्तस्स कालो होदि । तं कधं? एगो अणादियमिच्छादिट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुधकरणं अणियट्टिकरणमिदि एदाणि तिणि करणाणि कादूग सम्मत्तंगहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण पुचिल्लो अपरित्तो संसारो ओहट्टिद्ण परित्तो पोग्गलपरियदृस्स अद्धमेत्तो होदूग उक्कसेण चिट्ठदि। जहण्णेण अंतोमुहुत्तमेत्तो । एत्थ पुण जहण्णकालेण णत्थि कज्जं, उक्कस्सेण अधियारादो। सम्मत्तंगहिदपढमसमए णट्ठो मिच्छत्तपज्जाओ। कधमुप्पत्ति-विणासाणमेक्को समओ ? .......................................... इन ऊपर बतलाये गये पांचों परिवर्तनों से यहां पर पुद्गलपरिवर्तनसे प्रयोजन है। शंका-कर्म और नोकर्मके भेदसे पुद्गलपरिवर्तन दो प्रकारका है, उनमेंसे यहांपर किससे प्रयोजन है ? समाधान-यहां दोनों ही पुद्गलपरिवर्तनोंसे प्रयोजन है, क्योंकि, दोनोंके काल में भेद नहीं है। शंका- यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-पुद्गलपरिवर्तनकालके अल्पबहुत्य बताते समय दोनों ही पुद्गलपरिवर्तनोंको इकट्ठा करके कालका अल्पबहुत्वविधान किया गया है । इससे जाना जाता है कि दोनों पुद्गलपरिवर्तनोंके काल में भेद नहीं है। इस पुद्गलपरिवर्तनकालका कुछ कम अर्धभाग सादि-सान्त मिथ्यात्वका काल होता है। शंका-सादि-सान्त मिथ्यात्वका काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कैसे होता है ? समाधान-एक अनादि मिथ्यादृष्टि अपरीतसंसारी (जिसका संसार बहुत शेष है ऐसा ) जीव, अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिकरण, इस प्रकार इन तीनों ही करणों को करके सम्यक्त्व ग्रहणके प्रथम समयमें ही सम्यक्त्वगुणके द्वारा पूर्ववर्ती अपरीत संसारीपना हटाकर व परीतसंसारी हो करके अधिकसे अधिक पुद्गलपरिवर्तनके आधे काल प्रमाण ही संसारमें ठहरता है । तथा, सादि-सान्त मिथ्यात्वका काल कम से कम अन्तर्मुहूर्तमात्र है। किन्तु यहां पर जघन्यकालसे प्रयोजन नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट कालका अधिकार है । सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही मिथ्यात्व पर्याय नष्ट हो जाती है। __ शंका-सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और मिथ्यात्वका विनाश इन दोनों विभिन्न कार्योंका एक समय कैसे हो सकता है? Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १. ण, एक्कम्हि समए पिंडागारेण विण?-घडाकारेणुप्पण्ण-मट्टियदव्वस्सुवलंभा। सव्वजहण्णमंतामुहुत्तमुवसमसम्मत्तद्धाए अच्छिदूण मिच्छत्तं गदो। तदो मिच्छत्तेण सादिओ जादो, विणट्ठो सम्मत्तपज्जाएण । तदो मिच्छत्तपज्जाएण उबड्डपोग्गलपरियÉ परियट्टिदण अपच्छिमे भवग्गहणे मणुस्सेसु उववण्णो । पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे तिण्णि वि करणाणि कादूण पढमसम्मत्तं पडिवण्णो (२)। तदो वेदगसम्मादिट्ठी जादो (३)। अंतो. मुहुत्तेण अणंताणुबंधिं विसंजोएदूण (४) तदो दंसणमोहणीयं खवेदूग (५) पुणो अप्पमत्तो जादो (६)। पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (७) खवगसेढिमारुहमाणो अप्पमत्तसंजदट्ठाणे अधापवत्तविसाहीए विसुज्झिदूण (८) अपुधकरणखवगो (९) अणियट्टिखवगो (१०) सुहुमखवगो (११) खीणकसाओ (१२) सजोगी (१३) अजोगी होदण सिद्धो जादो (१४)। एवमेदेहि चोहसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियह सादिसपज्जवसिदमिच्छत्तकालो होदि । मिच्छत्तं णाम पज्जाओ । सो च उप्पाद-विणासलक्खणो, द्विदीए अभावादो। अह जइ तस्स हिदी वि इच्छिज्जदि, तो मिच्छत्तस्स दव्यत्तं पसज्जदे; 'उप्पाद-हिदि-भंगा हंदि समाधान-नहीं, क्योंकि, जैसे एक ही समयमें पिण्डरूप आकारसे विनष्ट हुआ और घटरूप आकारसे उत्पन्न हुआ मृत्तिकारूप द्रव्य पाया जाता है; उसी प्रकार कोई जीव सबसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपशमसम्यक्त्वके कालमें रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस. लिए मिथ्यात्वसे वह आदि सहित उत्पन्न हुआ और सम्यक्त्वपर्यायसे विनष्ट हुआ। तत्पश्चात् मिथ्यात्वपर्यायसे कुछ कम अर्धपुदलपरिवर्तनप्रमाण संसारमें परिभ्रमण कर, अन्तिम भवके ग्रहण करने पर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल संसारके अवशेष रह जाने पर तीनों ही करणोंको करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (२) । पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि हुआ (३)। पुनः अन्तर्मुहूर्तकालद्वारा अनंतानुबंधी कषायका विसंयोजन करके (४), उसके बाद दर्शनमोहनीयका क्षय करके (५), पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ (६) । फिर प्रमत्त और अप्रमत्त, इन दोनों गुणस्थानीसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (७), क्षपकश्रेणीपर चढ़ता हुआ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानमें अधःप्रवृत्तकरणीवशुद्धिसे शुद्ध होकर (८), अपूर्वकरण क्षपक (९), अनिवृत्तिकरण क्षपक (१०), सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक (११), क्षीणकषायवीतरागछन्नस्थ (१२), सयोगिकेवली (१३). और अयोगिकेवली होता हुआ सिद्ध हो गया (१४)। इस प्रकार इन चौदह अन्तर्मुहूतोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण सादि और सान्त मिथ्यात्वका काल होता है। शंका-मिथ्यात्व नाम पर्यायका है। वह पर्याय उत्पाद और विनाश लक्षणवाला है, क्योंकि, उसमें स्थितिका अभाव है। और यदि उसकी स्थिति भी मानते हैं, तो मिथ्यात्वके द्रव्यपना प्राप्त होता है, क्योंकि, 'उत्पाद, स्थिति और भंग, अर्थात् व्यय, ही द्रव्यका लक्षण है' १ देसूणमद्धपोग्गलपरियट्टमुवडपोग्गलपरियमिदि मण्णदे । जयध. ६ । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिट्ठिकालपरूवणं [३३७ दवियलक्खणं'' इच्चारिसादो त्ति ? ण एस दोसो, जमक्कमेण तिलक्खणं तं दव्वं जं पुण कमेण उप्पाद-द्विदि-भंगिल्लं सो पज्जाओ त्ति जिणोवदेसादों । जदि एवं, तो पुढवि-आउतेउ-वाऊणं पि पज्जायत्तं पसज्जदि त्ति वुत्ते, होदु तेसिं पज्जायत्तं, इत्तादो । तेसु दव्वववहारो वि लोए दिस्सदीदि चे ण, तस्स दुणयणिबंधणणेगमणयणिबंधणत्तादो। सुद्धे दव्वट्ठियणए अवलंबिदे छच्चेय दव्वाणि असुद्धे दव्यट्ठियणए अवलंबिदे पुढविआदीणि अणेयाणि दव्वाणि होति त्ति वंजणपज्जायस्स दव्यत्तब्भुवगमादो। सुद्धे पज्जायणए अप्पिदे पज्जायस्स उप्पाद-विणासा दो चेव लक्खणाणि । असुद्धे अस्सिदे कमेण तिण्णि वि लक्खणाणि, उप्पण्णपज्जयस्स वज्जसिलाथंभादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलंभादो । मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ, तम्हा एदस्स उप्पाद-डिदि-भंगा कमेण तिण्णि वि अविरुद्धा त्ति घेत्तव्यं । उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स। दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पण्णमविण ॥ २९ ॥ इस प्रकार आर्ष वचन है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जो अक्रमसे (युगपत् ) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, इन तीनों लक्षणोंवाला होता है, वह द्रव्य है । और जो क्रमसे उत्पाद, स्थिति और व्ययवाला होता है वह पर्याय है। इस प्रकारसे जिनेन्द्रका उपदेश है। शंका-यदि ऐसा है तो पृथिवी, जल, तेज और वायुके पर्यायपना प्रसक्त होता है? समाधान - भले ही उनके पर्यायपना प्राप्त हो जावे, क्योंकि, वह हमें इष्ट है । शंका-किन्तु उन पृथिवी आदिकोंमें तो द्रव्यका व्यवहार लोकमें दिखाई देता है ? समाधान- नहीं, वह व्यवहार शुद्धाशुद्धात्मक संग्रह-व्यवहाररूप नयद्वय निबंधनक नैगमनयके निमित्तसे होता है। शुद्ध द्रव्यार्थिकनयके अवलंबन करने पर छहों ही द्रव्य हैं। और अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बन करने पर पृथिवी, जल आदिक अनेक द्रव्य होते हैं, क्योंकि, व्यंजनपर्यायके द्रव्यपना माना गया है। किन्तु शुद्ध पर्यायार्थिकनयकी विवक्षा करने पर पर्यायके उत्पाद और विनाश, ये दो ही लक्षण होते हैं। अशुद्ध पर्यायार्थिकनयके आश्रय करने पर क्रमसे तीनों ही पर्यायके लक्षण होते हैं, क्योंकि, वज्रशिला, स्तम्भादिमें व्यंजनसंक्षिक उत्पन्न हुई पर्यायका अवस्थान पाया जाता है। मिथ्यात्व भी व्यंजनपर्याय इसलिए इसके उत्पाद, स्थिति और भंग, ये तीनों ही लक्षण क्रमसे अविरुद्ध हैं. ऐसा जानना चाहिए। पर्यायनयके नियमसे पदार्थ उत्पन्न भी होते हैं और व्ययको भी प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्यार्थिकनयके नियमसे सर्व वस्तु सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट है, अर्थात् ध्रौव्यात्मक है ॥२९॥ _ १ दवं पज्जवविउयं दवविउत्ता य पज्जवा णस्थि । उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ स. त. १, १२. - २ उप्पादद्विदिभंगा विज्जंते पज्जएम पज्जाया। दव्वम्हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥ प्रव. सा. २,९. ३ स. त.१, ११. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,५, ४. इदि एसा वि गाहा ण विरुज्झदे, सुद्धदव-पज्जवडियणए अवलंबिय द्विदत्तादो । 'भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा'' इदि वयणादो सव्वेसिं भव्वजीवाणं वोच्छेदेण होदव्यं, अण्णहा तल्लक्खणविरोहादो। ण च सबओ ण णिहादि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, तस्साणंतियादो। सो अणंतो वुच्चदि, जो संखेज्जासंखेज्जरासिब्बए संते अर्णतेण वि कालेण ण णिट्ठदि । वुत्तं च संते वए ण णिहादि कालेणाणतएण वि । जो रासी सो अणतो त्ति विणिहिट्ठो महेसिणा ॥ ३० ॥ जदि एवं, तो अद्धपोग्गलपरियट्टादिरासीणं सव्वयाणमणंतत्तं फिदृदि त्ति वुत्ते फिट्टदु णाम, को दोसो ? तेसु अणंतववहारो सुत्ताइरियवक्खाणपसिद्धो उपलब्भदे चे ण, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो । तं जहा- पच्चक्खेण पमाणेण उवलद्धो जो थंभो सो जहा यह उक्त गाथा भी विरोधको नहीं प्राप्त होती है, क्योंकि, इसमें किया गया व्याख्यान शुद्ध द्रव्यार्थिकनय और शुद्ध पर्यायार्थिकनयको अवलम्बन करके स्थित है। शंका-'जिन जीवोंकी सिद्धि भविष्यकाल में होनेवाली है, वे जीव भव्यसिद्ध कहलाते हैं ', इस वचनके अनुसार सर्व भव्य जीवोंका व्युच्छेद होना चाहिए, अन्यथा भव्यसिद्धोंके लक्षण में विरोध आता है। तथा, जो राशि व्ययसहित होती है, वह कभी नष्ट नहीं होती है, ऐसा माना नहीं जा सकता है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता; अर्थात् सव्यय राशिका अवस्थान देखा नहीं जाता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, भव्यसिद्ध जीवोंका प्रमाण अनन्त है। और अनन्त वही कहलाता है जो संख्यात या असंख्यातप्रमाण राशिके व्यय होने पर भी भनन्तकालसे भी नहीं समाप्त होता है। कहा भी है: व्ययके होते रहने पर भी अनन्तकालके द्वारा भी जो राशि समाप्त नहीं होती है, उसे महर्षियोंने 'अनन्त' इस नामसे विनिर्दिष्ट किया है ॥ ३०॥ शंका-यदि ऐसा है, तो व्ययसहित अर्धपुद्गलपरिवर्तन आदि राशियों का अनन्तत्व नष्ट हो जाता है ? समाधान -- उनका अनन्तपना नष्ट हो जाय, इसमें क्या दोष है ? शंका-किन्तु उन अर्धपुद्गलपरिवर्तन आदिकों में अनन्तका व्यवहार सूत्र तथा आचार्योंके व्याख्यानसे प्रसिद्ध हुआ पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उन पुद्गलपरिवर्तन आदिमें अनन्तत्वका व्यवहार उपचारनिबन्धनक है। अब इसी उपचारनिबन्धनताको स्पष्ट करते हैं- जो पाषाणादिका स्तम्भ १ गो. जी. ५५७. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ५.] कालाणुगमे सासणसम्मादिहिकालपरूवणं उवयारेण पच्चक्खो त्ति लोए बुच्चदे, तहा ओहिणाणविसयमुलंघिय द्विदरासीओ केवलस्स अणंतस्स विसओ त्ति उवयारेण ताओ अणंताओ त्ति वुच्चंति । तम्हा तेसु सुत्ताइरियवक्खाणपसिद्धेण अणंतववहारेण णेदं वक्खाणं विरुज्झदे। अहवा वए संते वि अक्खयो को वि रासी अस्थि, सब्यस्स सपडिवक्खस्सेवुवलंभादो। एसो वि भव्धरासी अणतो, तम्हा संते वि वए अणंतेण वि कालेण ण गिट्ठिस्सइ त्ति सिद्धं । सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ ॥५॥ एदस्स सुत्तस्त अवयवत्थो पुवं परूविदो त्ति णेह वुच्चदे, पुणरुत्तमया । एत्थ एगसमयनिरूवणा कीरदे । तं जथा- दो वा तिणि वा एगुत्तरवड्डीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिविणो उवसमसम्मत्तद्धाए एगो समओ अत्थि ति सासणत्तं पडिवण्णा एगसमयं विट्ठा । विदियसमये सव्ये वि मिच्छत्तं गदा, तिसु वि लोएसु सासणाणमभावो जादो त्ति लद्धो एगसमओ। प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा उपलब्ध है, वह जिस प्रकार उपचारसे 'प्रत्यक्ष है' ऐसा लोकमें कहा जाता है, उसी प्रकारसे अवधिज्ञानके विषयका उल्लंघन करके जो राशियां स्थित हैं, वे सब अनन्त प्रमाणवाले केवलज्ञानके विषय हैं, इसलिए उपचारसे 'अनन्त हैं ' इस प्रकारसे कही जाती हैं। अतएव सूत्र और आचार्योंके व्याख्यानसे प्रसिद्ध अनन्तके व्यवहारसे यह व्याख्यान विरोधको प्राप्त नहीं होता है। अथवा, व्ययके होते रहने पर भी सदा अक्षय रहनेवाली कोई राशि है जो कि क्षय होनेवाली सभी राशियों के प्रतिपक्षके समान पाई जाती है। इसी प्रकार यह भव्यराशि भी अनन्त है, इसलिए व्ययके होते रहनेपर भी अनन्तकालद्वारा भी यह नहीं समाप्त होगी, यह बात सिद्ध हुई। सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय तक होते हैं ॥५॥ इस सूत्रका अवयवार्थ पहले कहा जा चुका है, इसलिए पुनरुक्त दोषके भयसे यहां पर नहीं कहते हैं। अब यहां पर एक समयकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकारसे हैदो अथवा तीन, इस प्रकार एक अधिक वृद्धिसे बढ़ते हुए पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र शमसम्यग्दा जाव उपशमसम्यक्त्वक कालमें एक समयमात्र काल अवशिष्ट रह जाने पर एक साथ सासादन गुणस्थानको प्रात हुए एक समयमें दिखाई दिये। दूसरे समयमें सबके सब मिथ्यात्वको प्राप्त हो गये । उस समय तीनों ही लोकोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अभाव हो गया। इस प्रकार एक समयप्रमाण सासादनगुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा काल प्राप्त हुआ। १ सासादनसम्यग्दष्टे नाजीवापेक्षया जघन्थेनैकः समयः । स. सि. १,८. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] छक्खंडांगमे जीवट्ठाणं ... उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥६॥ दोणि वा तिण्णि वा एवं एगुत्तरवड्डीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिट्ठिणो एगसमयमादि कादूण जावुक्कस्सेण छ आवलियाओ उवसमसम्मत्तद्धाए अत्थि त्ति सासणत्तं पडिवण्णा। जाव ते मिच्छत्तं ण गच्छंति ताव अण्णे वि अण्णे वि उवसमसम्मादिद्विणो सासणतं पडिवज्जति । एवं गिम्हकालरुक्खछाहीव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालं जीवेहि असुण्णं होदूण सासणगुणट्ठाण लब्भदि । केवडिओ सो पुण कालो ? सगरासीदो असंखेज्जगुणो । तं जहा- सासणगुणस्स णिरंतरुवक्कमणकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो । सांतरुवक्कमणवारा पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता । एवं होति त्ति कट्ट सासणुक्कस्सकालुप्पत्तिविहाणं वुच्चदे । तं जधा- एगस्स सासणगुणट्ठाणुवक्कमणवारस्स जदि मज्झिमपडिवत्तीए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो सासणगुणकालो लब्भदि, संखेज्जावलियमेत्तो वा, आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्तो वा, तो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तउवक्कमणवाराणं सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ६ ॥ दो, अथवा तीन, अथवा चार, इस प्रकार एक एक अधिक वृद्धिद्वारा पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समयको आदि करके उत्कर्षसे छह आधलियां उपशमसम्यक्त्वके कालमें अवशिष्ट रहनेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुए । वे जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होते हैं, तबतक अन्य अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थानको प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकारसे ग्रीष्मकाल के वृक्षकी छायाके समान उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालतक जीवोंसे अशून्य (परिपूर्ण ) होकर, सासादनगुणस्थान पाया जाता है। शंका-सो वह काल कितना है ? समाधान-अपनी, अर्थात् सासादनगुणस्थानवी, राशिसे असंख्यातगुणा है। वह इस प्रकार है-- सासादनगुणस्थान के निरन्तर उपक्रमणका काल आवलीके असंख्यातवें भागमात्र है। किन्तु सान्तर उपक्रमणके वार तो पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं। ये वार इस प्रकार होते हैं, ऐसा मानकर सासादनगुणस्थानके उत्कृष्टकालकी उत्पत्तिका विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है ___ एक जीवके सासादनगुणस्थानके उपक्रमणवारका यदि मध्यम प्रतिपत्तिसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र सासादनगुणस्थानका काल पाया जाता है, अथवा, संख्यात आवली मात्र, अथवा आवलीके संख्यातवें भागमात्र काल पाया जाता है; तो पल्योपमके असंख्यातवें १ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । स. सि. १, 4. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ७.] कालाणुगमे सासणसम्मादिहिकालपरूवणं [३४२ केत्तियं कालं लभामो त्ति इच्छागुणिदफलम्हि पमाणेणोवट्टिदे सगरासीदो असंखेज्जगुणो सासणकालो होदि त्ति घेत्तव्यं । जदि वि एत्थ सुत्तं णत्थि, तो वि एदं वक्खाणं सुत्तं व स दहेदव्यं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥७॥ एदस्सत्थो- एक्को उवसमसम्मादिट्ठी उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमओ अत्थि त्ति सासणं गदो । जदि उवसमसम्मत्तद्धा महंती होदि, तो को दोसो ? ण, सासणगुणद्धाए बहुत्तप्पसंगा । जेत्तियाए उवसमसम्मत्तद्धाए सेसाए जीवो सासणं पडिवज्जदि, तेत्तिओ चेव सासणगुणकालो होदि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसा । वुत्तं च - उवसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ता हु होइ अवसिट्टा । पडिवज्जंता साणं तत्तियमेत्ता य तस्सद्धा ॥ ३१ ॥ भागमात्र उपक्रमण वारोंका कितना काल प्राप्त होगा? इस प्रकार इच्छाराशिसे गुणित फलराशिको प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर अपनी राशिसे असंख्यातगुणा सासादनगुणस्थानका काल होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यद्यपि इस विषय में कोई सूत्रप्रमाण उपलब्ध नहीं है, तो भी यह व्याख्यान सूत्रके समान श्रद्धान करने योग्य है। एक जीवकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टिका जघन्यकाल एक समय है ॥ ७॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व कालमें एक समय अवशिष्ट रहनेपर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ। शंका-यदि उपशमसम्यक्त्वका काल अधिक हो, तो क्या दोष है ? समाधान -नहीं, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वका काल अधिक माननेपर सासादनगुणस्थानकालके भी बहुत्वका प्रसंग प्राप्त होता है, अर्थात् सासादनगुणस्थानका काल बहुत मानना पड़ेगा। इसका कारण यह है कि जितने उपशमसम्यक्त्वकालके शेष रहनेपर जीव सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है, उतना ही सासादनगुणस्थानका काल होता है, ऐसा आचार्य-परम्परागत उपदेश है । कहा भी है जितने प्रमाण उपशमसम्यक्त्वका काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासादनथानको प्राप्त होनेवाले जीवोंका भी उतने प्रमाण ही उसका, अर्थात् सासादन गुणस्थानका, काल होता है ॥ ३१॥ १ एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, .. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ८. एगसमयं सासाणगुणेण सह द्विदो, विदियसमए मिच्छत्तं गदो। एवं सासणगुणस्स लद्धो एगसमओ। उक्कस्सेण छ आवलिआओं ॥८॥ ___एदस्स अत्थो वुच्चदे- एक्को उवसमसम्माइट्ठी उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अत्थि त्ति सासणं गदो। तत्थ सासणगुणम्हि छ आवलियाओ अच्छिद्ग मिच्छत्तं गदो । कुदो ? साहियासु छसु आवलियासु सेसासु सासगगुणपडिवज्जणाभावा । वुत्तं च-- उवसमसम्मत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज अवसिट्ठा । तो सासणं पवज्जइ णो हेटक्कटकालेसु॥ ३२ ॥ सम्मामिच्छाइट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥९॥ इस ऊपर बतलाए हुए प्रकारसे उक्त जीव एक समय मात्र सासादन गुणस्थानके साथ, अर्थात् उस गुणस्थानमें, दिखाई दिया, और द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया। इस प्रकार सासादनगुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समयप्रमाण उपलब्ध हुआ। एक जीवकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्टकाल छह आवलीप्रमाण है।॥८॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियोंके शेष रहनेपर सासादनगुणस्थानमें गया। उस सासादनगुणस्थानमें छह आवली रह करके मिथ्यात्वमें गया, क्योंकि, साधिक छह आवलियोंके शेष रहनेपर सासाइनगुणस्थानको प्राप्त होनेका अभाव है। कहा भी है यदि उपशमसम्यक्त्वका काल छह आवलीप्रमाण अवशिष्ट होवे, तो जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है। यदि इससे अधिक काल अवशिष्ट रहे, तो सासादनगुणस्थानको नहीं प्राप्त होता है ॥ ३२॥ (इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा छह आवलीप्रमाण ही सासादनगुणस्थानका उत्कृष्टकाल है।) सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं ॥ ९ ॥ १ उत्कर्षेण षडावलिकाः । स. सि. १,८. २ उवसमसम्मत्तदा छावलिमेत्तो दु समयमेत्तो ति । अवसिढे आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥ कन्धि , १... ३ सम्यग्मिन्यादृष्टे नाजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ९. ] काला गमे सम्मामिच्छादिट्टिकाल परूवणं दस अत्थो - अट्ठावीस संत कम्मियमिच्छादिट्ठी वेदगसम्मत्तसहिदअसंजद-संजदासंजद- पमत्त संजदा सत्तट्ठ जणा वा, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता वा, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदा । तत्थ सव्वलहुमतो मुहुत्तमच्छिदूण मिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा पडिवण्णा । गठ्ठे सम्मामिच्छत्तं । एवं सम्मामिच्छत्तस्स अंतोमुहुत्तकालो सिद्धो । अप्पमत्त संजदो किमिदि सम्मामिच्छत्तं ण दो ? ण, तस्स संकिलेस - विसोही हि सह पमत्तापुव्त्रगुणे मोत्तूण गुणंतरगमणाभावा । मदरस वि असंजदसम्मादिट्ठिवदिरित्तगुणंतरगमगाभावा । पच्छा सम्मामिच्छादिट्ठी संजमं संजमा संजमं वा किण्ण णीदो ? ण, तस्स मिच्छत्त-सम्मत्तस हिदासंजदगुणे मोत्तूण गुणंतरगणाभावा । किं कारणं ? सहावदो चेय । ण हि सहाओ परपज्जणिओगारुहो, विरोहा । इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाले मिथ्यादृष्टि, अथवा वेदकसम्यक्त्वसहित असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले सात आठ जन, अथवा आवलीके असंख्यातवें भागमात्र जीव, अथवा पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जीव, परिणामोंके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त हुए | वहां पर सबसे कम अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण रह करके मिथ्यात्वको, अथवा असंयमके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त हुए । तब सम्यग्मिथ्यात्व नष्ट हो गया। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल सिद्ध हुआ । शंका- यहां पर अप्रमत्तसंयत जीव, सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त कराया ? [ ३४३ समाधान - नहीं, क्योंकि, यदि अप्रमत्तसंयत जीवके संक्लेशकी वृद्धि हो, तो प्रमत्तसंयतगुणस्थानको, और यदि विशुद्धि की वृद्धि हो, तो अपूर्वकरण गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन का अभाव है । यदि अप्रमत्तसंयत जीवका मरण भी हो, तो असंयतसम्यदृष्टि गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानोंमें गमन नहीं होता है । शंका - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपना काल पूरा कर पीछे संयमको अथवा संयमासंयमको क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका मिथ्यात्वसहित मिथ्यादृष्टिगुणस्थानको, अथवा सम्यक्त्वसहित असंयतगुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमनका अभाव है । शंका- - अन्य गुणस्थानों में नहीं जानेका क्या कारण है ? 1 समाधान - ऐसा स्वभाव ही है । और स्वभाव दूसरे के प्रश्नके योग्य नहीं हुआ करता है, क्योंकि, उसमें विरोध आता है । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, १०. ___ उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥१०॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे-पुव्वुत्तजीवा सम्मामिच्छत्तं गंतूण तत्थंतोमुहुत्तमच्छिय जाव ते मिच्छत्तं वा सासंजमसम्मत्तं वा ण पडिवज्जंति, ताव अण्णे वि अण्णे वि पुव्वुत्तजीवा सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जावेदव्या जाव सव्वुक्कस्सो णाणाजीवावेक्खो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालो जादो त्ति । सो पुण सगरासीदो असंखेज्जगुणो । एदस्स वि कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । तदो णियमेण अंतरं होदि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ ११ ॥ ___ एदस्सत्थो वुच्चदे-एक्को मिच्छादिट्टी विसुज्झमाणो सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो । सव्वलहुमंतोमुहुत्तकालमच्छिदण विसुज्झमाणो चेव सासंजमं सम्मत्तं पडिवण्णो । संकिलेसं पूरिय मिच्छत्तं किण्ण गदो ? ण, विसोधिअद्धं संपुण्णमच्छिय संकिलेसं पूरिय मिच्छत्तं गच्छमाणसम्मामिच्छत्तकालस्स बहुत्तप्पसंगा। एक्किस्से विसोहीए कालादो संकिलेस नाना जीवोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ १० ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- पूर्वोक्त गुणस्थानवी जीव सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहांपर अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहकर जबतक वे मिथ्यात्वको अथवा असंयमसहित सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त होते हैं, तबतक अन्य अन्य भी पूर्वोक्त गुणस्थानवी ही जीव सम्य. ग्मिथ्यात्वको प्राप्त कराते जाना चाहिए, जबतक कि सर्वोत्कृष्ट नाना जीवों की अपेक्षा रखनेवाला पल्योपमका असंख्यातवां भागमात्र काल पूरा हो। वह काल अपने गुणस्थान वर्ती जीवराशिसे असंख्यातगुणा होता है। इसका भी कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए । उसके पश्चात् नियमसे अन्तर हो जाता है। एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है ॥११॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-एक मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्ध होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। पुनः सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकाल रह कर विशुद्ध होता हुआ ही असंयमसहित सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। शंका-संक्लेशको पूरित करके, अर्थात् संक्लेशपरिणामी होकर, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त हुआ ? समाधान - नहीं, क्योंकि, विशुद्धिके संपूर्ण काल तक अपने गुणस्थानमें रह करके और संक्लेशको धारण करके मिथ्यात्वको जानेवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वसंबंधी कालके बहुत्वका प्रसंग हो जायगा। इसका कारण यह है कि एक भी विशुद्धिके कालसे संक्लेश १ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्यः उत्कृष्टवान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १३. ] कालानुगमे असंजद सम्मादिट्टिकालपरूवणं [ ३.५५ विसोहीणं दोन्हं पि कालो दोन्हं विच्चाले दिपडिभग्गकालसहिदो णिच्छरण संखेअगुणो ति अहिप्पारण मिच्छत्तं ण णीदो । अथवा वेदगसम्मादिट्ठी संकिलिस्समाणगो सम्मामिच्छत्तं गदो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तकालमच्छिदूण अविणट्ठसंकिलेसो मिच्छत्तं गदो। एत्थ वि कारणं पुत्रं व वतव्वं । एवं दोहि पयारेहि सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णकालपरूवणा गदा । उक्करण अंतोमुत्तं ॥ १२ ॥ तं कथं ? एक्को विसुज्झमाणो मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्तं गदो, सव्वुक्कस्सअंतोमुहुत्तमच्छिदूण संकिलिट्ठो हो दूण मिच्छत्तं गदो । पुव्विल्लजहण्णकालादो एसो उक्करसकालो संखेज्जगुणो, सब्बुक्कस्सतिकालसमूहत्तादो | अधवा वेदगसम्मादिट्ठी संकिलिस्समाणगो सम्मामिच्छत्तं गदो । सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तकालमच्छिदूण असंजदसम्मादिट्ठी जादो। एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । असंजद सम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा' ॥ १३ ॥ और विशुद्धि, इन दोनोंका ही काल, दोनों के अन्तरालमें स्थित प्रतिभाग कालसहित निश्चय से संख्यातगुणा होता है, इस प्रकारके अभिप्रायसे वह वर्धमान विशुद्धिवाला सम्यमिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वको नहीं प्राप्त कराया गया । अथवा, संक्केशको प्राप्त होनेवाला वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ, और वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके अविनष्टसंक्लेशी हुआ ही मिथ्यात्वको चला गया। यहां पर भी कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए। इस तरह दो प्रकारोंसे सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्यकालकी प्ररूपणा समाप्त हुई । एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिध्यादृष्टि जविका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १२॥ वह इस प्रकार है- एक विशुद्धिको प्राप्त होनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रहकर और संक्लेशयुक्त हो करके मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। पहले बतलाये गए इसी गुणस्थानके जघन्य कालसे यह उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है, क्योंकि, वह सर्वोत्कृष्ट त्रिकालके समूहात्मक है । अथवा, संक्लेशको प्राप्त होने वाला वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहांपर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रद्द करके असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। यहां पर भी कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए । असंयत सम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १३ ॥ १ असंयतसम्यग्दष्टेनाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, १४. अदीदाणामद-वट्टमाणकालेसु असंजदसम्मादिडिवोच्छेदो णत्थि। कुदो ? सहावदो। एसो सहाओ असंजदसम्मादिहिरासिस्सत्थि त्ति कधं णव्वदे ? सव्वद्धा-वयणादो। कथं पक्खो चेव साहणत्तं पडिवज्जदे ? ण, उभयपक्खत्तिसटिजुत्तस्स जिणवयणस्स एक्कस्स वि पक्खसाहणत्ते विरोहाभावा। दिवायरो सुओ उदेदि त्ति वयणस्सेव किरियाविसेसणत्तादो सबद्धमिदि पावेदि ? ण, तहा विवक्खाभावा । पुणो कधमत्थतणविवक्खा ? बुच्चदेसन्वा अद्धा जेसिं ते सव्वद्धा, सव्वकालसंबंधिणो त्ति वुत्तं होदि।। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४ ॥ तं कधं ? अट्ठावीससंवकम्मियमिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा संजदासजदो वा पमत्तसंजदो वा पुर्व सासंजमसम्मत्ते बहुवारं परियट्टतो अच्छिदो असंजदो जादो । इसका कारण यह है कि अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों ही कालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका व्युच्छेद नहीं है। शंका-त्रिकालमें भी असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका व्युच्छेद क्यों नहीं होता! समाधान-ऐसा स्वभाव ही है। शंका-असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका ऐसा स्वभाव है, यह कैसे जाना ? समाधान-सूत्र-पठित 'सर्वाद्धा' अर्थात् सर्वकाल रहते हैं, इस वचनले जाना। शंका-विवादस्थ पक्ष ही हेतुपनेको कैसे प्राप्त हो जायगा? समाधान नहीं, क्योंकि, उभय पक्षके अतिशय युक्त अर्थात्, उभयपक्षातीत, एक भी जिनवचनके पक्ष और साधनके होने में कोई विरोध नहीं आता। शंका-'दिवाकर स्वतः उदित होता है। इस वचनके समान क्रियाविशेषण होनेसे 'सव्वद्धं' ऐसा पाठ होना चाहिए ? समाधाम-नहीं, क्योंकि, उस प्रकारकी विवक्षाका अभाव है। शंका-तो यहां पर किस प्रकारकी विवक्षा है ? समाधान-वह विवक्षा इस प्रकारकी है- सर्व काल जिन जीवोंके होता है, वे स_द्धा कहलाते हैं, अर्थात् 'सर्वकालसम्बन्धी जीव' यह 'सर्वाद्धा' पदका अर्थ है। एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१४॥ शंका-यह काल कैसे संभव है ? समाधान-जिसने पहले असंयमसहित सम्यक्त्वमें बहुतवार परिवर्तन किया है, ऐसा कोई एक मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव असंयतसम्यग्दृष्टि हुआ। १ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १५.] कालाणुगमे असंजदसम्मादिहिकालपरूवणं [३४७ सव्वलहुमतोमुहुत्तद्धमच्छिय मिच्छत्तं वा सम्मामिच्छत्तं वा संजमासंजमं वा अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो । उवरिमगुणहाणेहितो संकिलेसेण जे असंजदसम्मत्तं पडिवण्णा, ते अविणद्वेण तेण संकिलेसेण सह मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा णेदव्वा । जे हेट्ठिमगुणट्ठाणेहिंतो विसोहीए सासंजम सम्मत्तं पडिवण्णा, ते ताए चेव विसोहीए अविणद्वाए सह संजमासंजमं अप्पमत्तभावेण संजमं वा णेदव्या, अण्णहा जहण्णकालाणुववत्तीदो । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १५ ॥ तं कधं ? एकको पमत्तो अप्पमत्तो वा चदुण्हमुवसामगाणमेक्कदरो वा समऊणतेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएसु अणुत्तरविमाणवासियदेवेसु उववण्णो । सासंजमसम्मत्तस्स आदी जादो । तदो चुदो पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो। तत्थ असंजदसम्मादिट्ठी होदूण ताव द्विदो जाव अंतोमुहुत्तमेत्ताउअं सेसं ति । तदो अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो (१)। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (२) खवगसेढिपाओग्गविसोहीए विसुद्धो अप्पमत्तो जादो (३)। अपुव्वखवगो (४) अणियट्टिखवगो (५) सुहुमखवगो (६) खीणकसाओ (७) सजोगी (८) अजोगी (९) होदण सिद्धो जादो । फिर वह सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके मिथ्यात्वको, अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। ऊपरके गुणस्थानोंसे संक्लेशके साथ जो असंयतसम्यक्त्वको प्राप्त हुए हैं वे जीव उसी. अधिनष्टसक्लेशके साथ मिथ्यात्व अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त कराना चाहिए। जो अधस्तन गुणस्थानोंसे विशुद्धिके साथ असंयमसहित सम्यक्त्वको प्राप्त हुए हैं, वे जीव उसी अविनष्टविशुद्धिके साथ संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको ले जाना चाहिए, अन्यथा असंयतसम्यक्त्वका जघन्य काल नहीं बन सकता है। असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट काल सातिरेक तेतीस सागरोपम है ॥ १५ ॥ शंका-यह सातिरेक तेतीस सागरोपमकाल कैसे संभव है ? समाधान-एक प्रमत्तसंयत, अथवा अप्रमत्तसंयत, अथवा चारों उपशामकों से कोई एक उपशामक जीव एक समय कम तेतीस सागरोपम आयुकर्मकी स्थितिवाले अनुत्तरविमानवासी देवा में उत्पन्न हुआ, और इस प्रकार असंयमसहित सम्यक्त्वकी आदि हुई। इसके पश्चात् वहां से च्युत होकर पूर्वकोटिवर्षकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहांपर वह अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुके शेष रह जानेतक असंयतसम्यग्दृष्टि होकर रहा। तत्पश्चात् अप्रमत्तभावसे संयमको प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानमें सहस्रों परिवर्तन करके (२), क्षपकश्रेणीक प्रायोग्य विशुद्धिले विशुद्ध हो, अप्रमत्तसंयत हुआ (३)। पुन: अपूर्वकरणक्षपक (४), अनिवृत्तिकरणक्षपक (५), सूक्ष्मसाम्परायक्षपक (६), क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ (७), सयोगिकेवली (८), और अयोगिकेवली (९) होकरके सिद्ध हो गया। १ उत्कर्षेण प्रयास्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि | स. सि. १,८. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] छक्खंडागमे जीवडाणं [१, ५, १६. एदेहि णवहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणपुव्वकोडीए अदिरित्ताणि समऊणतेत्तीससागरोवमाणि असंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्सकालो होदि । किमर्से समऊणतेत्तीससागरोवमाउठिदिएसु देवेसुप्पादिदो ? ण, अण्णहा असंजदद्धाए दीहत्ताणुवलंभा । कुदो ? जदि तेत्तीससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसु उप्पादिज्जदि, तो वासपुधत्तावसेसे आउए णिच्छएण संजमं पडिवज्जदि । जो पुण समऊणतेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएसु देवेसुववन्जिय मणुसेसु उववण्णो, सो अंतोमुहुत्तूणपुव्वकोडिमसंजमेण सह अच्छिय पुणो णिच्छएण संजदो होदि, तेण समऊणतेत्तीससागरोवमाउछिदिएसु देवेसुप्पादिदो । संजदासंजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥१६॥ एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, असंजदसम्मादिविम्हि परूविदत्तादो । इन नौ अन्तर्मुहूतौसे कम पूर्वकोटि कालसे अतिरिक्त तेतीस सागरोपम असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल होता है। शंका-ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका उत्कृष्ट काल बतलाते हुए उक्त जीवको एक समय कम तेतीस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले देवोंमें ही किसलिए उत्पन्न कराया गया है? समाधान-नहीं, अन्यथा, अर्थात् एक समय कम तेतीसं सागरोपमकी स्थितिवाले देवों में यदि उत्पन्न न कराया जाय तो, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके काल में दीर्घता नहीं पाई जा सकती है, क्योंकि, यदि पूरे तेतीस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न कराया जायगा तो, वर्षपृथक्त्वप्रमाण आयुके अवशेष रहने पर निश्चयसे वह संयमको प्राप्त हो जायगा । किन्तु जो एक समय कम तेतीस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर मनुष्यों में उत्पन्न होगा, वह अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाणकाल असंयमके साथ रह कर पुन: निश्चयसे संयत होगा। इसलिए, अर्थात्, असंयतसम्यक्त्वके कालकी दीर्घता बतानेके लिए, एक समय कम तेतीस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले अनुत्तरविमानवासी देवोंमें उत्पन्न कराया गया है। संयतासंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १६॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके कालमें उसका प्ररूपण किया जा चुका है। १संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १.८. ation International Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालानुगमे संजदासंजदकालपरूवणं एगजीवं पडुच्च जहणेणंत मुहुत्तं ॥ १७ ॥ तं कथं ? एक्को अट्ठावीस संतकम्मियमिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी पमत्त संजदो वा पुत्रं पि बहुसो संजमा संजमगुणट्ठाणे परियट्टिदो परिणामपच्चएण संजमा संजमं पडवण्णो । सव्वलहुमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदूण पमत्तसंजदचरो मिच्छत्तं वा सम्मामिच्छत्तं वा असंजदसम्मत्तं वा पडिवण्णो । पच्छाकदमिच्छत्ता सासंजमसम्मत्ता च अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णा । कुदो ? अण्णहा संजदासंजदद्धाए जहण्णत्ताणुववत्तीए । किमहं सम्मामिच्छादिट्ठी संजमा संजमं गुणं ण, णीदो ! ण, तस्स देसविरदिपज्जाएण परिणमणसतीए असंभवा । वृत्तं च १, ५, १७. ] णय मरइ व संजममुत्रेइ तह देससंजमं वावि । सम्मामिच्छादि । ण उ मरणंतं समुग्घाओं ॥ ३३ ॥ एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयतका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १७ ॥ वह काल इस प्रकार संभव है - जिसने पहले भी बहुतवार संयमासंयम गुणस्थान में परिवर्तन किया है ऐसा कोई एक मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा प्रमत्तसंयत जीव पुनः परिणामोंके निमित्तसे संयमासंयम गुणस्थानको प्राप्त हुआ। वहांपर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त काल रद्द करके वह यदि प्रमत्तसंयतचर है, अर्थात् प्रमत्तसंयतगुणस्थान से संयतासंयत गुणस्थानको प्राप्त हुआ है, तो मिथ्यात्वको, अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा असंयतसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । अथवा, यदि मिथ्यात्व या पश्चात्कृत असंयमसम्यक्त्ववाले हैं, अर्थात् संयतासंयत होने के पूर्व मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि रहे हैं, तो अप्रमत्तभाव के साथ संयमको प्राप्त हुए, क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय तो संयतासंयत गुणस्थानका जघन्य काल नहीं बन सकता । शंका - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संयमासंयम गुणस्थानको किसलिए नहीं प्राप्त कराया गया ? [ ३४९ समाधान- नहीं, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके देशविरतिरूप पर्याय से परिमनकी शक्तिका होना असंभव है । कहा भी है सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न तो मरता है, न संयमको प्राप्त होता है, न देशसंयमको भी प्राप्त होता है । तथा उसके मारणान्तिकसमुद्धात भी नहीं होता है ॥ ३३ ॥ १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८, २ सो संजण गिदि देसजमं वा ण बंधदे आउं । सम्म वा मिच्छे वा पडिवज्जिय मरदि नियमेण ॥ सम्मत्तमिच्छ परिणामेसु जहिँ आउगं पुरा बद्धं । तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ण मिस्सम्मि | गो. जी. २३-२४ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] __ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १८. उक्कस्सेण पुरकोडी देसूणा ॥ १८ ॥ तं कधं ? एक्को तिरिक्खो मणुस्सा वा अट्ठावीससंतकम्मिगो मिच्छाइट्ठी सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसमुच्छिमपज्जत्तएसु मच्छ-कच्छव-मंडूकादिसु उववण्णो । सबलहुएण अंतोमुहुत्तकालेण सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो जादो (१)। विस्संतो (२) विसुद्धो (३) होदूण संजमासंजमं पडिवण्णो। पुचकोडिकालं संजमासंजममणुपालिदूण मदो सोधम्मादि-आरणच्चुदंतेसु देवेसु उववण्णो । णट्ठो संजमासंजमो । एवमादिल्लेहि तीहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा पुचकोडी संजमासंजमकालो होदि । पमत्त-अप्पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १९ ॥ जेण तिसु वि कालेसु पमत्तापमत्तसंजदेहि विरहिदो एगो वि समओ णत्थि, तेण सम्बद्धं हवंति । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २० ॥ संयतासंयत जीवका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है ॥ १८ ॥ वह काल इस प्रकार संभव है-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव, संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक, ऐसे संमूर्छन तिर्यंच मच्छ, कच्छप, मेंडकादिकों में उत्पन्न हुआ, सलघु अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा सर्व पर्याप्तियोंसे पर्याप्तपनेको प्राप्त हुआ (१)। पुनः विश्राम लेता हुआ (२), विशुद्ध हो करके (३), संयमासंयमको प्राप्त हुआ। वहां पर पूर्वकोटी काल तक संयमासंयमको पालन करके मरा और सौधर्मकल्पको आदि लेकर आरण अच्युतान्त कल्पोंके देवोंमें उत्पन्न हुआ। तब संयमासंयम नष्ट हो गया। इस प्रकार आदिके तीन अन्तर्मुहूतोंसे कम पूर्वकोटिप्रमाण संयमासंयमका काल होता है। प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ११॥ चूंकि, तीनों ही कालोंमें प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंसे विरहित एक भी समय नहीं है, इसलिए वे सर्वकाल होते हैं। एक जीवकी अपेक्षा प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतका जघन्य काल एक समय है ॥२०॥ १ उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । स. सि. १,८. २ प्रमताप्रमचयोनीनाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १,८. ३ एकजीव प्रति जघन्येनैक: समयः। स. सि. १,८. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २१.] कालाणुगमे पमत्तापमत्तसंजदकालपरूवणं [ ३५१ तं जधा- पमत्तस्स ताव एगसमओ वुच्चदे । एक्को अप्पमत्तो अप्पमत्तद्धाए खीणाए एगसमयं जीविदमत्थि त्ति पमत्तो जादो । पमत्तगुणेण एगसमयं दिट्ठो विदियसमए मदो देवो जादो । णट्ठो पमादविसिट्ठसंजमो। एवं पमत्तस्स एगसमयपरूवणा गदा। अप्पमत्तस्स वुच्चदे- एक्को पमत्तो पमत्तद्धाए खीणाए एगसमयं जीवियमत्थि त्ति अप्पमत्तो जादो । अप्पमत्तगुणेण एगसमयं दिट्ठो विदियसमए मदो देवो जादो। णट्ठमप्पमत्तगुणहाणं । अधवा उवसमसेढीदो ओदरमाणो अपुव्यकरणो एगसमयं जीविदमत्थि त्ति अप्पमत्तो जादो, विदियसमए मदो देवेसुववण्णो । एवं दोहि पयारेहि अप्पमत्तस्स एगसमयपरूवणा कदा। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१ ॥ पमत्तस्स ताव वुच्चदे- एक्को अप्पमत्तो पमत्तपज्जाएण परिणमिय सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गदो । एवं पमत्तस्स उक्कस्सकालपरूवणा गदा । अप्पमत्तस्स वुच्चदे- एक्को पमत्तो अप्पमत्तो होदूण सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिय पमत्तो जादो । एसा अप्पमत्तस्स बुक्कस्सकालपरूवणा । ............ ___ वह इस प्रकार है- पहले प्रमत्तसंयतका एक समय कहते हैं। एक अप्रमत्तसंयत जीव, अप्रमत्तकालके क्षीण हो जाने पर तथा एक समयमात्र जीवित शेष रहनेपर हो गया। प्रमत्तगुणस्थानके साथ एक समय दिखा, और दूसरे समयमें मरकर देव उत्पन्न हो गया। तब प्रमादविशिष्ट संयम नष्ट हो गया। इस प्रकारसे प्रमत्तसंयतके एक समयकी प्ररूपणा हुई । अब अप्रमत्तसंयतके एक समयकी प्ररूपणा करते हैं- एक प्रमत्तसंयत जीव प्रमत्तकालके क्षीण हो जाने पर, तथा एक समयमात्र जीवनके शेष रह जाने पर अप्रमत्तसंयत हो गया। तब अप्रमत्तगुणस्थानके साथ एक समय दिखा, और दूसरे समयमें मरकर देव हो गया। पुनः अप्रमत्तगुणस्थान नष्ट हो गया। अथवा, उपशमश्रेणीसे उतरता हुआ अपूर्वकरणसंयत एक समयमात्र जीवनके शेष रहनेपर अप्रमत्त हुआ, और द्वितीय समयमें मरकर देवों में उत्पन्न हो गया। इस तरह दोनों प्रकारोंसे अप्रमत्तसंयतके एक समयकी प्ररूपणा की गई। प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २१ ॥ पहले प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट काल कहते हैं- एक अप्रमत्तसंयत,प्रमत्तसंयतपर्यायसे परिणत होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण रह करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार प्रमत्तसंयतके उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा हुई। अब अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट काल कहते हैं- एक प्रमत्तसंयतजीव, अप्रमत्तसंयत होकर, वहांपर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह करके प्रमत्तसंयत हो गया। यह अप्रमत्तसंयतके उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा है। १ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. .............. Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २२. चउण्हं उवसमा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २२ ॥ तं कधं ? दो वा तिण्णि वा अणियट्टिउवसामगा सेढीदो ओदरमाणा एगसमयं जीविदमत्थि ति अपुरकरणउवसामगा जादा । एगसमयमपुधकरणेण सह दिट्ठा विदियसमए मदा देवा जादा । एवमपुवकरणस्स एगसमयपरूवणा कदा। अप्पमत्तमपुवकरणं करिय विदियसमए कालं कराविय अपुव्वकरणस्स एगसमयपरूवणा किण्ण कदेत्ति वुत्ते ण, अपुवकरणपढमसमयादो जाव णिद्दा-पयलाणं बंधो ण वोच्छिज्जदि ताव अपुव्वकरणाणं मरणाभावा । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणमेगसमयपरूवणा जाणाजीचे अस्सिदूण कायया । णवरि अणियट्टि-सुहुमउवसामगाणं चढंत-ओदरंतजीवे अस्सिदूण दोहि पयारेहि एगसमयपरूवणा कादबा । उवसंतकसायस्स चढंतजीवे चेय अस्सिदूण एगसमयपरूवणा कादव्वा । उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २३ ॥ चारों उपशामक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ २२॥ वह इस प्रकार है- उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले दो, अथवा तीन अनिवृत्तिकरण उप. शामक जीव एक समयमात्र जीवनके शेष रहनेपर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक हुए। तब एक समयमात्र अपूर्वकरणगुणस्थानके साथ दिखे । पुनः द्वितीय समयमें मरे, और देव हो गये । इस प्रकार अपूर्वकरण उपशामकके एक समयकी प्ररूपणा की। शंका-अप्रमत्तसंयतको अपूर्वकरणगुणस्थानमें ले जा करके और द्वितीय समयमें मरण कराके अपूर्वकरणगुणस्थानके एक समयकी प्ररूपणा क्यों नहीं की ? समाधान-इसलिए नहीं की, कि अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथम समयसे लेकर जब तक निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोंका बंध व्युच्छिन्न नहीं हो जाता है, तब तक अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती संयतोंका मरण नहीं होता है। __इसी प्रकार शेष तीन उपशामकोंके एक समयकी प्ररूपणा नाना जीवोंका आश्रय करके करना चाहिए। विशेष बात यह है कि अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशामक जीवों के एक समयकी प्ररूपणा उपशमश्रेणी चढ़ते हुए और उतरते हुए जीवोंको आश्रय करके दोनों प्रकारोंसे करना चाहिए। किन्तु उपशान्तकषाय उपशामकके एक समयकी प्ररूपणा चढ़ते हुए जीवोंको ही आश्रय करके करना चाहिए। चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३ ॥ १ चतुर्णानुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १. ८. २ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १. ८. Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २१.] कालाणुगमे उवसामगकालपरूवणं तं कधं ? सत्तह वा चउवण्णा वा अप्पमत्ता अपुव्वकरणउवसामगा जादा जाव ते अणियट्ठिाणं ण पावेंति ताव अण्णे वि अण्णे वि अप्पमत्ता अपुव्यकरणगुणट्ठाणं पडिवज्जावेदव्वा । ओयरमाणअणियट्टिणो वि अपुव्यकरणं पडिवज्जावेदव्या । एवं चढंतओयरंतजीवेहि असुण्णं होदण अपुव्यकरणगुणट्ठाणं अच्छदि जाव तपाओग्गउक्कस्संतोमुहुत्तं ति । तदो णिच्छएण विरहो । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणमुक्कस्सकालपरूवणा कादव्वा । णवरि उवसंतकसायस्त उक्कस्सकाले भण्णमाणे एगो उवसंतकसाओ चडिय जाव णोअरदि ताव अण्णे सुहुमसांपराइया उवसंतकसायगुणट्ठाणं चडावेदव्या । एवं पुणो संखेज्जवारं चडाविय उवसंतकालो वड्ढावेदव्यो जाव तप्पाओग्गुक्कस्सअंतोमुहुत्तं पत्तो ति। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २४ ॥ तं कधं ? एक्को अणियट्टिउवसामगो एगसमयं जीविदमत्थि त्ति अपुव्बउवसामगो जादो एगसमयं दिट्ठो विदियसमए मदो लयसत्तमो देवो जादो। एवं तिण्हमुवसामगाणमेगसमयपरूवणा वत्तव्वा । णवरि अणियट्टि-सुहुमउवसामगाणं चढणोयरणविहाणेण वेहि ___ वह इस प्रकार है- सात आठसे लेकर चौपन तक अप्रमत्तसंयत जीव एकसाथ अपूर्वकरणगुणस्थानी उपशामक हुए। जब तक वे अनिवृत्तिकरणगुणस्थानको नहीं प्राप्त होते हैं, तब तक अन्य अन्य भी अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरणगुणस्थानको प्राप्त करना चाहिए । इसी प्रकारसे उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले अनिवृत्तिकरणगुणस्थानी उपशामक भी अपूर्वकरणगुणस्थानको प्राप्त कराना चाहिए। इस प्रकार चढ़ते और उतरते हुए जीवोंसे अशून्य (परिपूर्ण) होकर अपूर्वकरणगुणस्थान उसके योग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल पूरा होने तक रहता है। इसके पश्चात् निश्चयसे विरह (अन्तराल) हो जाता है। इसी प्रकारसे तीनों ही उपशामकोंके उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करना चाहिए। विशेष बात यह है कि उपशान्तकषाय उपशामकके उत्कृष्ट कालको कहनेपर एक उपशान्तकषाय जीव चढ़ करके जब तक नहीं उतरता है, तब तक अन्य अन्य सूक्ष्मसाम्परायिक संयत उपशान्तकषायगुणस्थानको चढ़ाना चाहिए। इस प्रकारसे पुनः संख्यातवार जीवों को चढ़ाकर उपशान्तकाल उसके योग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकोंका जघन्य काल एक समय है ॥ २४ ॥ वह इस प्रकार है-एक अनिवृत्तिकरण उपशामक जीव एक समयमात्र जीवन शेष रहने पर अपूर्वकरण उपशामक हुआ, एक समय दिखा, और द्वितीय समयमें मरणको प्राप्त हुआ, तथा उत्तम जातिका अनुत्तरविमानवासी देव हो गया। इसी प्रकार शेष तीनों उपशामकों के एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। विशेष बात यह है कि अनिवृत्तिकरण १ एकजीवापेक्षया च जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २५. पयारेहि, चढणमस्सिदूण उवसंतकसायस्स एगपयारेण एगसमयपरूवणा कायव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥२५॥ तं जहा- एक्को अप्पमत्तो अपुग्धउवसामगो जादो । तत्थ सव्वुक्कस्समतोमुहुत्तमाच्छय अणियट्टिट्ठाणं पडिवण्णो । एवं तिण्हमुवसामगाणं वत्तव्यं । चदुण्हं खवगा अजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २६ ॥ तं कधं ? सत्तड जणा अट्टत्तरसदं वा अप्पमत्ता अप्पमत्तद्धाए खीणाए अपुव्वकरणखवगा जादा । अंतोमुहुत्तमच्छिय अणियट्टिढाणं गदा । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जाणिदूण भाणिदव्वं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७ ॥ तं जधा- सत्तट्ट जणा वा बहुगा वा अप्पमत्तसंजदा अपुरखवगा जादा। ते तत्थ और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानी उपशामकों के चढ़ने और उतरनेके विधानकी अपेक्षा दोनों प्रकारोंसे तथा आरोहणका आश्रय करके उपशान्तकषाय उपशामककी एक प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२५॥ वह इस प्रकार है- एक अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण गुणस्थानी उपशामक हुआ। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रहकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इसी प्रकारसे तीनों उपशामकोंके एक समयकी प्ररूपणा कहना चाहिए । अपूर्वकरण आदि चारों क्षपक और अयोगिकेवली कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं ॥ २६ ॥ वह इस प्रकार है- सात आठ जन, अथवा अधिकसे अधिक एक सौ आठ, अप्रमत्तसंयत जीव, अप्रमत्तकालके क्षीण हो जाने पर, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती क्षपक हुए । वहां पर अन्तर्मुहूर्त काल रह करके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त हुए । इसी प्रकारसे अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगिकेवली, इन चारों क्षपकोंके जघन्य कालकी प्ररूपणा जान करके कहलाना चाहिए। चारों क्षपकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२७॥ वह इस प्रकार है - सात आठ जन अथवा बहुतसे अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण १ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १,८. २ चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवलिनां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः । स.सि. १,८. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २९.] कालाणुगमे खवग-अजोगिकेवलिकालपरूवणं अंतोमुहुत्तमच्छिय अणियट्टिणो जादा । तम्हि चेव समए अण्णे अप्पमत्ता अपुव्वखवगा जादा । एवं पुणो पुणो संखेज्जवारं चढणकिरियाए कदाए णाणाजीवे अस्सिदण अपुव्वकरणुक्कस्सकालो होदि । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जाणिदूण वत्तव्यं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २८ ॥ तं जहा-एको अप्पमत्तो अपुव्यकरणो जादो अंतोमुहुत्तमच्छिदूण अणियट्टिखवगो जादो । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जहण्णकालपरूवणा कादव्या । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २९ ॥ एको अप्पमत्तो अपुव्वखवगो जादो । तत्थ सव्वुकस्समतोमुहुत्तमच्छिदूण अणियट्विगुणट्ठाणं पडिवण्णो। एगजीवमस्सिदूण अपुरकरणुकस्सकालो जादो । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जाणिदूण वत्तव्यं । एत्थ जहण्णुक्कस्सकाला वे वि सरिसा, अपुव्वादिपरिणामाणमणुकट्टीए अभावादो । गुणस्थानी क्षपक हुए। वे वहां पर अन्तर्मुहूर्त रह करके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानी हो गये। उसी ही समयमें अन्य अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण क्षपक हुए । इस प्रकार पुनः पुनः तवार आरोहणक्रियाके करने पर नाना जीवाका आश्रय करके अपूर्वकरण क्षपकका उत्कृष्ठ काल होता है । इसी प्रकारसे चारों क्षपकों का काल जान करके कहना चाहिए । एक जीवकी अपेक्षा चारों क्षपकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२८॥ वह इस प्रकार है - एक अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण गुणस्थानी क्षपक हुआ और अन्तमहत रह करके अनिवृत्तिकरण क्षपक हुआ । इसी प्रकारसे चारों क्षपकोंके जघन्य कालकी प्ररूपणा करना चाहिए। एक जीवकी अपेक्षा चारों क्षपकोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहते है ॥ २९॥ एक अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण क्षपक हुआ। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह करके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह एक जीवको आश्रय करके अपूर्वकरणका उत्कृष्ट काल हुआ। इसी प्रकारसे चारों क्षपकोंका काल जान करके कहना चाहिए । यहां पर जघन्य और उत्कृष्ट, ये दोनों ही काल सहश हैं, क्योंकि, अपूर्वकरण आदिके परिणामोंकी अनुकृष्टिका अभाव होता है। विशेषार्थ-यहां पर अपूर्वकरण आदिके परिणामों की अनुकृष्टिके अभाव कहनेका १ अंतोमुहुत्तमेत्ते पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । कमउमापुव्वगुणे अणुकही णस्थि णियमेण ॥ गो. जी. ५३, अम्हा उवरिमभावा हेडिमभावेहिं सरिसगा णथि । तम्हा विदियं करणं अपुवकरणं ति णिदिह्र ॥ लब्धि. ५१. तत्र अनुकृष्टि म अधस्तनसमयपरिणामखंडाना उपरितनसमयपरिणामखेडैः सादृश्यं भवति । गो. जी, जी. प्र. ४९. अपूर्वकरणगुणस्थाने नियमेन अवश्यंभावेन अनुकृष्टि स्ति, तत एवं प्रतिसमयपरिणामामा बहुखंडविधानामावः । गो. जी. म.प्र. ५३. • Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] छडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, ३० सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३० ॥ तिसु वि कालेसु जेण एक्को वि समओ सजोगिविरहिदो णत्थि तेण सव्वद्धत्तणं जुज्जदे | एगजीवं पडुच जहण्णेण अंतोमुहुतं ॥ ३१ ॥ तं कथं ? एक्को खीणकसाओ सजोगी होदूण अंत मुहुत्तमच्छिय समुग्धादं करिय पच्छा जोगणिरोहं किच्चा अजोगी जादो । एवं सजोगिस्स जहण्णकालपरूवणा एगजीवमल्लीणा गदा । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देणा ॥ ३२ ॥ अभिप्राय इस प्रकार है- विवक्षित समय में विद्यमान जीवके अधस्तन समयवर्ती जीवोंके परिणामोंके साथ सदृशता होनेको अनुकृष्टि कहते हैं । अधःप्रवृत्तकरण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में सदृशता पाई जाती है, इसलिए वहां पर अनुकृष्टि रचना बतलाई गई है । किन्तु अपूर्वकरण आदिमें उपरितन समयवर्ती जीवों के परिणामोंकी अधस्तन समयवर्ती जीवों के परिणामोंके साथ सदृशता नहीं पाई जाती है, इसलिए अपूर्वकरण आदिमें अनुकृष्टि रचनाका अभाव होता है। इसी कारण अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंके जघन्य काल और उत्कृष्ट काल, सदृश बतलाये गये हैं । सयोगिकेवली जिन कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३० ॥ चूंकि, तीनों ही कालों में एक भी समय सयोगिकेवली भगवान् से विरहित नहीं है, इसलिए सर्व कालपना बन जाता है । एक जीवकी अपेक्षा सयोगिकेवलीका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१ ॥ वह इस प्रकार है एक क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ संयत जीव सयोगकेवली हो, अन्तर्मुहूर्त काल रह, समुद्धात कर, पीछे योगनिरोध करके अयोगिकेवली हुआ । इस प्रकार सयोगिजिनके जघन्य कालकी प्ररूपणा एक जीवका आश्रय करके कही गई । एक जीवकी अपेक्षा सयोगिकेवलीका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटी है ॥ ३२ ॥ १ सयोगकेवलिमा नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, २ एकजीवं प्रति जघन्येमान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना | स. सि. १,८. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३४.] कालाणुगमे णेरइयकालपरूवणं तं जधा- एको खइयसम्माट्ठिी देवो वा णेरइओ वा पुवकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो । सत्त मासे गन्भे अच्छिदूण गब्भपवेसणजम्मेण अट्ठवस्सिओ जादो (८)। अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो (१)। पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूग (२) अप्पमत्तट्ठाणे अधापमत्तकरणं कादूण (३) अपुवकरणो (४) अणियट्टिकरणो (५) सुहुमखवगो (६) खीणकसाओ (७) होदूण सजोगी जादो । अट्ठहि वस्सेहि सत्तहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणपुरकोडिकालं विहरित्ता अजोगी जादो (८)। एवं अट्ठहि वस्सेहि अट्ठहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणपुव्यकोडी सजोगिकेवलिकालो होदि । ( ओघपरूवणा समत्ता)। आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३३ ॥ कुदो ? णिरयगदिम्हि सव्वकालं मिच्छादिडिवोच्छेदाभावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३४ ॥ घह इस प्रकार है - एक क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव अथवा नारकी जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । सात मास गर्भमें रह करके गर्भ में प्रवेश करनेवाले जन्मदिनसे आठ वर्षका हुआ (८)। आठ वर्षका होने पर अप्रमत्तभावसे संयमको प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान सम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (२) अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अधःप्रवृत्तकरणको करके (३) क्रमशः अपूर्वकरण (४) अनिवृत्तिकरण (५) सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक (६), और क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ होकर (७), सयोगिकेवली हआ। पनः वहां पर उक्त आठ वर्ष और सात अन्तमहासे कम पर्वकोटी कालप्रमाण विहार करके अयोगिकेवली हुआ (८)। इस प्रकार आठ वर्ष और आठ अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण सयोगिकेवलीका काल होता है। (इस प्रकार ओघ प्ररूपणा समाप्त हुई)। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥३३॥ क्योंकि, नरकगतिमें सर्वकाल मिथ्यादृष्टियोंके व्युच्छेदका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥३४॥ १ विशेषेण गत्लनुवादेन नरकगतौ नारफेषु सप्तसु पृथिवीषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. १ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स.सि. १८ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ३५. तं जधा- एको सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा पुव्वं पि बहुवारपरिणमिदमिच्छत्तो संकिलेस पूरेदूग मिच्छादिट्ठी जादो । सबजहण्णमंतोमुहुत्तकालमच्छिय विसुद्धो होदूण सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं वा पडिवण्णो। एवं मिच्छादिहिस्स जहण्णकालपरूवणा गदा। उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ।। ३५॥ तं जहा- एको तिरिक्खो मणुसो वा सत्तमाए पुढवीए उक्वण्णो। तत्थ मिच्छत्तेण सह तेत्तीसं सागरोवमाणि अच्छिय उवाट्टिदो । लद्धाणि णेरइयमिच्छादिहिस्स तेत्तीसं सागरोवमाणि । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥३६ ॥ कुदो ? णिरयगदिम्हि एदेसिं दोण्हं गुणट्ठाणाणं गाणेगजीवजहण्णुक्कस्सपरूवणाणं एदेसिं चेव ओघणाणेगजीवजहण्णुकस्सपरूवणाहिंतो भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥३७॥ .............................. यह इस प्रकार है - एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव, जो कि पहले भी बहुत बार मिथ्यात्वको परिणत हो चुका है, संक्लेशको पूरित करके मिथ्या दृष्टि हो गया। वहां पर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, विशुद्ध होकर, सम्यक्त्वको अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे मिथ्यादृष्टिके जघन्य कालकी प्ररूपणा हुई। एक जीवकी अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है ॥३५॥ वह इस प्रकार है - एक तिर्यंच अथवा मनुष्य सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां पर मिथ्यात्वके साथ तेतीस सागरोपम काल रह कर बाहर निकला। इस प्रकार नारकी मिथ्यादृष्टिके तेतीस सागरोपम उपलब्ध हुए। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकी जीवोंका एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है ॥३६॥ क्योंकि, नरकगतिमें इन दोनों गुणस्थानोंके नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी जघन्य काल और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणाओंका इन्हीं दोनों गुणस्थानोंकी ओघगत नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणाओंसे भेद नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ३७ ।। १ सासादनसम्यग्दृष्टे: सम्यग्मिध्यादृष्टेश्व सामान्योक्तः काल । स. सि.,.. २ असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः काकः । स. सि. १, Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३९.] कालाणुगमे णेरइयकालपरूवणं [३५९ कुदो ? णिरयगदिम्हि असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३८ ॥ तं जहा- एगो मिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा सम्मत्ते बहुवारं पुव्वं परियट्टिदूग अच्छिदो विसुद्धो होदूण सम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थ सव्वलहुमंतोमुहुनमच्छिय सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तं वा गदो । एवं णिरयगदिअसंजदसम्मादिहिस्स जहण्णकालपरूवणा गदा । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ३९ ॥ तं जधा-एको तिरिक्खो मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी सत्तमाए पुढवीए उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । पुणो अंतोमुहुत्तावसेसआउद्विदीए मिच्छत्तं गदो (४)। आउगं बंधिदण (५) अंतोमुहुतं विस्समिय (६) उवट्टिदो। एवं छहि अंतोमुहु तेहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि असंजदसम्मादिद्विस्स उक्कस्सकालो । क्योंकि, नरकगतिमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोसे विरहित कालका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि नारकीका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।। ३८ ॥ वह इस प्रकार है- एक मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव, जो कि सम्य. क्त्वमें पहले बहुतवार परिवर्तन कर चुका है, पुनः विशुद्ध हो करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहर्त काल रह करके सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे नरकगतिमें असंयतसम्यग्दृष्टिके जघन्य काल की प्ररूपणा हुई। असंयतसम्यग्दृष्टि नारकीका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥ ३९ ॥ वह इस प्रकार है - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखने वाला एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। पुनः छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१), विश्राम लेता हुआ (२), विशुद्ध होकर (३), वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण आयुकर्मकी स्थितिके अवशेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। वहां आगामी भवकी आयुको बांधकर (५), अन्तर्मुहूर्त काल विश्राम लेकर (६), निकला। इस प्रकार छह अन्तमुहूतास कम तेतीस सागरापम प्रमाण असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल होता है। १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुर्तः । स. सि. १,८. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ४०. पढमाए जाव सत्तमाए पुढवीए गैरइएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ४०॥ कुदो ? मिच्छादिविविरहिदसत्तण्डं पुढवीणं सबद्धा अभावादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ४१ ॥ तं जहा- अप्पप्पणो पुढवीसु द्विदअसंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी वा बहुसो मिच्छत्तचरो परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो । सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुव्विल्लगुणेसु अण्णदरगुणं गदो । एवं सत्तण्हं पुढवीणं मिच्छादिट्ठिपादेकमंतोमुहुत्तपरूवणा कदा । उक्कस्सेण सागरोवमं तिणि सत्त दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥ ४२ ॥ ___ पढमाए पुढवीए एकं सागरोवमं, विदियाए पुढवीए तिणि सागरोवम, तदियाए पुढवाए सत्त सागरोवमाणि, चउत्थीए पुढवीए दस सागरोवमाणि, पंचमीए पुढवाए सत्तारस सागरोवमाणि, छट्ठीए पुढवीए वावीस सागरोवमाणि, सत्तमीए पुढवीए तेत्तीस प्रथम पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥४०॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवोंसे रहित सातों पृथिवियोंके नारकियोंका सर्वकाल अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त पृथिवियोंके नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ११॥ वह इस प्रकार है - अपनी अपनी पृथिवियों में स्थित, तथा जिसने पहले भी बहुतवार मिथ्यात्वको प्राप्त किया है ऐसा कोई असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा सम्याग्मिथ्यादृष्टि जीव, परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । वहां पर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पूर्वोक्त दोनों गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे सातों पृथिवियोंके प्रत्येक मिथ्यादृष्टि जीवके अन्तर्मुहूर्त कालकी प्ररूपणा की गई। उक्त सातों पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः एक सागरोपम, तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपमप्रमाण है ।। ४२॥ प्रथम पृथिवीमें एक सागरोपम, द्वितीय पृथिवीमें तीन सागरोपम, तृतीय पृथिवीमें सात सागरोपम, चौथी पृथिवीमें दश सागरोपम, पांचवीं पृथिवीमें सत्तरह सागरोपम, छठी पृथिवीमें बाईस सागरोपम, और सातवीं पृथिवीमें तेतीस सागरोपम मिथ्यादृष्टि नारकोंका १ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः । तत्त्वार्थसू . ३, ६. उत्कर्षेण यथासंख्यं एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश- द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि । स. सि. १,८. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............ १, ५, ४४.] कालाणुगमे णेरइयकालपरूवणं [३६१ सागरोवमाणि मिच्छादिहिस्स उक्कस्सकालो। कुदो ? एदेहितो अधिगबंधाभावा । तं पि कुदो णव्वदे? एकं तिय' सत्त दस तह सत्तारह दु-तिहदेक्कअधिय दस । उवही उक्कस्सहिदी सत्तण्हं होइ पुढवीणं ॥ ३४ ॥ इदि णिरयाउबंधसुत्तादो। सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ४३ ॥ कुदो ? दोण्हं गुणट्ठाणाणं णाणाजीवे पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण दोण्हं पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छ आवलियाओ अंतोमुहुत्तमेवमादिणा भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ४४ ॥ तं जहा- सत्तण्डं पुढवीणं असंजदसम्मादिद्विविरहिदाणं सबद्धाणुवलंभादो । उत्कृष्ट काल है, क्योंकि, इनसे अधिक आयुबंधका अभाव है। शंका- यह कैसे जाना जाता है कि सूत्रोक्त कालसे अधिक नारकायुके बंधका अभाव है ? समाधान-एक, तीन, सात, दश, तथा सत्तरह सागरोपम, तथा दोसे गुणित एक अधिक दश (२४११=२२) अर्थात् बाईस सागरोपम, तथा तीनसे गुणित ग्यारह ( ३४११=३३) अर्थात् तेतील सागरोपम, इस प्रकार सातों पृथिवियोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है ॥३४॥ इस नारकायुके बंधप्रदर्शक सूत्रसे जाना जाता है कि सूत्रोक्त कालसे अधिक नारकायुके बंधका अभाव है। सातों पृथिवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जवि सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है ॥ ४३ ॥ क्योंकि, उक्त दोनों गुणस्थानोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट काल दोनों गुणस्थानोंका पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। एक जीवकी अपेक्षा दोनों गुणस्थानोंका क्रमशः जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल छह आवलियां और अन्तर्मुहूर्त है । इत्यादि रूपसे कोई भेद नहीं है सातों पृथिवियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥४४॥ वह काल इस प्रकार संभव है -कि सातों पृथिवियां किसी भी कालमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित नहीं पाई जाती हैं। १ आ क प्रत्योः एक विदा' अप्रतौ 'एकट्रिय ' इति पाठः । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] छक्खंडागमे जीवहाणं [१, ५, ४५. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥४५॥ तं जहा-सत्तसु पुढवीसु ट्ठिदबहुसो सम्मत्तचरअट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी वा सम्मत्तं पडिबज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा पडिवण्णो । एसो सत्तसु पुढवीसु असंजदसम्मादिट्ठिजहण्णकालो परूविदो । उक्कस्सं सागरोपमं तिणि सत्त दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ४६॥ तं जधा--एको तिरिक्खो मणुसो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी पढमाए पुढवाए वा एवं जाव सत्तमीए वा उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४)। सम्मत्तेण अप्पप्पणो उक्कस्साउद्विदिमच्छिय णिप्फिडिदूण मणुसेसु उववण्णो। एवं तीहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा अप्पप्पणो उक्कस्साउद्विदी असंजदसम्मादिहिउक्कस्सकालो होदि । णवरि सत्तमाए छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा उक्कस्सहिदि त्ति वत्तव्वं, तत्थ मिच्छत्तगुणेण विणा णिग्गमाभावा । एक जीवकी अपेक्षा सातों पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंका जघन्य काल अन्तमुहूते है ॥ ४५ ॥ वह इस प्रकार है- सातों ही पृथिवियों में स्थित पूर्व में अनेकवार सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हो कर और अन्तर्मुहूर्त काल रह कर पुनः मिथ्यात्वको अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। यह सातों ही पृथिवियों में असंयतसम्यग्दृष्टिका जघन्य काल प्ररूपण किया गया। सातों पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम एक सागरोपम, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम है ॥ ४६॥ वह इस प्रकार है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखने वाला एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव पहली पृथिवीमें, अथवा दूसरी पृथिवीमें, इस प्रकारसे लगा कर सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१), विश्राम लेता हुआ (२), विशुद्ध होकर (३), वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४), सम्यक्त्वके साथ अपनी अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट आयुकर्मकी स्थितिप्रमाण रह करके वहांसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । इस प्रकारसे तीन अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट आयुस्थिति ही उस उस पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल होता है । विशेष बात यह है कि सातवीं पृथिवीमें छह अन्तर्मुहूतोंसे कम उत्कृष्ट स्थिति होती है, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि, वहांसे मिथ्यात्वगुणस्थानके विना निर्गमनका अभाव है, अर्थात् मिथ्यात्वके अतिरिक्त अन्य गुणस्था' Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ४८.] कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं [३६३ असंजदसम्मादिविम्मि आउअं बंधिय विस्संतो होदूण मिच्छत्तं गंतूण सत्तमपुढवीदो णिस्सरिदे सम्मत्तकालो बहुगो लब्भदि त्ति वुत्ते ण, सत्तमपुढविणेरइयाणं मणुसेसुववादाभावा । असंजदसम्मादिट्ठीणं पि णिरयतिरिक्खाउबंधाभावा । जेण गुणेण आउअबंधस्स संभवो अत्थि, तेणेव गुणेण णिग्गमादो च ।। तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥४७॥ कुदो १ मिच्छादिट्ठीहि विणा सव्वद्धा तिरिक्खगदीए अणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥४८॥ तं जहा- एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदो वा बहुसो मिच्छत्तचरो मिच्छत्तं पडिवण्णो । सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुव्वुत्तगुणेसु अण्णदरगुणं नोंसे निकलना नहीं हो सकता है। शंका- असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें आगामी भवकी आयुको बांधकर विश्रान्त होता हुआ मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सातवीं पृथिवीसे निकलने पर सम्यक्रमका काल बहुत प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सातवीं पृथिवीके नारकोका मनुष्यों में उपपाद नहीं होता है । तथा, असंयतसम्यग्दृष्टियोंके भी नारक और तिर्यंच आयुके बंधका अभाव है। दूसरी बात यह भी है कि जिस गुणस्थानसे आयुका बंध संभव है, उस ही गुणस्थानसे उसका निर्गमन भी होता है। तिर्यंचगतिमें, तियंचोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ४७ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवोंके बिना किसी भी काल में तिर्यंचगति नहीं पाई जाती है। एक जीवकी अपेक्षा तिथंच मिथ्यादृष्टि जीवका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥४८॥ ___ वह इस प्रकार है- पहले बहुतवार मिथ्यात्वमें भ्रमण किया हुआ एक सम्य. ग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां पर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालं रह करके पूर्वोक्त गुणस्थानों में से किसी एक गुण • १ तिर्यगतौ तिरश्च मिथ्यादृष्टीना नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ४९. गदो । एवं जहण्णकालपरूवणा गदा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरिय, ॥ ४९ ॥ . एको मणुसो देवो णेरइओ वा अणादियछव्वीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी तिरिक्खेसु उववण्णो । आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि पोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिदूण अण्णगर्दि गदो । असंखेज्जपोग्गलपरियट्टाणि त्ति वयणादो अणंतोवलद्धी होदि त्ति अणंतग्गहणं किण्णावणिज्जदे ? ण, अणंतग्गहणमंतरेण पोग्गलपरियट्टस्स अणंतत्तुवलद्धीए उवायाभावादो । पोग्गलपरियट्टाणि आवलियाए असंखेजदिमागमेत्ताणि चेवेत्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदवक्खाणा तदवगदीए । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥५०॥ कुदो ? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सपरूवणाहि विसेसाभावा । स्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे तिर्यंच मिथ्यादृष्टिके जघन्य कालकी प्ररूपणा हुई। एक जीवकी अपेक्षा तियेच मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट काल अनन्त कालप्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ ४९ ॥ मोहकर्मकी छवीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मनुष्य, देव अथवा मारकी अनादि. मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। वहांपर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिबर्तनोंको परिवर्तित करके अन्य गतिको चला गया। शंका- ' असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन ' इस प्रकारसे वचनसे अनन्तताकी उपलब्धि होती है, इसलिये सूत्रमेसे 'अनन्त' पदका ग्रहण क्यों नहीं निकाल दिया जाय ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनन्तपदके ग्रहण किए बिना पुद्गलपरिवर्तनके अनन्तताकी उपलब्धिका और कोई उपाय नहीं है। शंका- तिर्यंच मिथ्यादृष्टिके बताये गये उक्त पुद्गलपरिवर्तन, 'आवलीके असंख्या. तवें भागमात्र ही होते हैं, ' यह कैसे जाना ? समाधान नहीं, क्योंकि, आचार्य-परम्परागत व्याख्यानसे उक्त बातका ज्ञान होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यचोंका काल ओषके समान है ॥५०॥ क्योंकि, नाना और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणाओंके साथ इन दोनोंकी कालप्ररूपणाओंमें कोई विशेषता नहीं है । १ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः। स. सि. १,.. २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्याहाष्टसंयतासंयताना सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ५३.] कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं [ ३६५ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥५१॥ कुदो ? तीदाणागद-वट्टमाणकालेसु असंजदसम्मादिद्विविरहिदतिरिक्खगदीए अभावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५२ ॥ तं जधा--एक्को मिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा संजदासजदो वा परिणामपच्चएण असंजदसम्मादिट्ठी जादो। सबलहुमंतोमुहुत्तमच्छिय विसोहीए दुक्कओ संजमासंजमं गदो, संकिलेसण ढुक्कओ मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा गदो । एवं जहण्णकालपरूवणा गदा। उकस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि ॥ ५३॥ तं जधा- एक्को मणुस्सो बद्धतिरिक्खाउओ सम्मत्तं घेतूण दंसणमोहणीयं खविय देवुत्तरकुरुतिरिक्खेसु उववण्णो। तिणि पलिदोवमाणि तत्थ सम्मत्तेण सह अच्छिय मदो असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥५१॥ __ क्योंकि, अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों ही कालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित तिर्यंचगति नहीं पाई जाती है। एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि तियंचोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥५२॥ वह इस प्रकार है- एक मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत तिथंच जीव परिणामों के निमित्तसे असंयतसम्यग्दृष्टि हुआ। वहां सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके विशुद्धिसे बढ़ता हुआ संयमासंयमको प्राप्त हो गया। पुनः संक्लेशसे बढ़ता हुआ मिथ्यात्वको अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार जघन्य काल की प्ररूपणा हुई। असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचका उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है ॥ ५३॥ वह इस प्रकार है- बद्धतिर्यगायुष्क एक मनुष्य सम्यक्त्वको ग्रहण करके, और दर्शनमोहनीयका क्षय कर, देवकुरु या उत्तरकुरुके तिर्यचों में उत्पन्न हुआ। यहां पर तीन पल्योपम कालप्रमाण सम्यक्त्वके साथ रह कर मरा, और देव हो गया। इस प्रकारसे १ असंयतसम्यग्दृष्टेनानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १,८. १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रीणि पक्ष्योपमाणि । स. सि. १, ८. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ५४. देवो जादो । एवं तिरिक्खेसु असंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्सकालो परूविदो। संजदासजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ५४॥ कुदो ? तिसु वि कालेसु संजदासजदविरहिदतिरिक्खाभावा ।। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५५ ॥ तं जहा- अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा परिणामपच्चएण संजमासंजमं गदो । सबलहुमंतोमुहुत्तमच्छिय पुव्वुत्ताणमेक्कदरं गदो । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा ॥ ५६ ॥ एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा मिच्छादिट्ठी अट्ठावीससंतकम्मिओ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसंमुच्छिमपज्जत्तमंडूक-कच्छ-मच्छवादीसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) संजमासंजमं पडिवण्णो । एदेहि तीहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणपुवकोडिकालं संजमासंजममणुपालिदूण मदो देवो जादो । तिर्यंचोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कहा । __ संयतासंयत तिथंच कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ५४॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें संयतासंयतोंसे रहित तिर्यंचोंका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयत तियंचका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ५५ ॥ वह इस प्रकार है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, अथवा भसंयतसम्यग्दृष्टि जीव परिणामों के निमित्तसे संयमासंयमको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पूर्वोक्त गुणस्थानोंमेंसे किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हो गया । (इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल सिद्ध हुआ।) ___एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयत तिर्यचका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है ।। ५६ ॥ ____मोहकर्मकी अट्ठाईस कर्मप्रकृतियोंकी सत्तावाला एक तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि, संक्षी पंचेन्द्रिय सम्मूञ्छिम पर्याप्त मंडूक, कच्छप आदि तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोसे पर्याप्त होता हुआ (१), विश्राम लेकर (२), और विशुद्ध होकर (३), संयमासंयमको प्राप्त हुआ। इन तीन अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटि कालप्रमाण संयमासंयमको परिपालन करके मरा और देव हो गया । (इस प्रकार सूत्रोक्त काल सिद्ध हुआ।) Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ५९. ] काला गमे तिरिखकालपरूवणं पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त - पंचिंदियतिरिक्खजोगिणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वदा ॥ ५७ ॥ [ ३६७ कुदो ? ति विकाले पंचिदियतिरिक्खतियमिच्छादिट्ठिविरहिदपंचिदियतिरिक्खतियाणुवलंभा । एगजीवं पडुच जहणेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५८ ॥ एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो वा दिट्ठमग्गो मिच्छत्तं पडिवण्णो । सब्वलहुमंतो मुहुत्तमच्छिय पुव्वुत्ताणमण्णदरं गुणं गदो । तेण अंतोमुहुत्तमिद वृत्तं । उकस्सं तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण अन्भहियाणि ।। ५९ ।। तंजधा- एक्को देवो णेरइओ मणुस्सो वा अप्पिदपंचिंदियतिरिक्खवदिरित्ततिरिक्खो वा अप्पिदपंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो । सण्णि- इत्थि- पुरिस- वुं सगवेदेसु U पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ५७ ॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टियोंसे रहित उक्त तीनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यच नहीं पाये जाते हैं । एक जीवकी अपेक्षा उक्त तीनों प्रकारके तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है || ५८ ॥ जिसने मिथ्यात्वका मार्ग पहले कई बार देखा है ऐसा एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत तिर्यच मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रद्द कर पूर्वोक्त गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस लिए सूत्र में ' अन्तर्मुहूर्तकाल ' ऐसा कहा है । उक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है ॥ ५९ ॥ जैसे, एक देव, नारकी, मनुष्य, अथवा विवक्षित पंचेन्द्रिय तिर्यचसे विभिन्न अन्य तिर्यच जीव, विवक्षित पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर संज्ञी स्त्री, पुरुष और Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ५९. कमेण अपुवकोडीओ हिंडिदण असण्णि-इत्थि-पुरिस-णqसयवेदेसु वि एवं चेव अट्ठपुचकोडीओ परिभमिय तदो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो पंचिंदियतिरिक्खअसण्णिपज्जत्तएसु उववज्जिय तत्थतणइत्थिपुरिस-णqसयवेदएसु पुणो वि अट्ठट्टपुव्यकोडीओ परिभमिय पच्छा सणिपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तइत्थि-णqसगवेदेसु अट्ठट्ठपुचकोडीओ पुरिसवेदेसु सत्त पुवकोडीओ हिंडिदूण तदो देव-उत्तरकुरुतिरिक्खेसु पुधिल्लाउवसेण इत्थित्रेदेसु वा पुरिसवेदेसु वा उववण्णो । तत्थ तिण्णि पलिदोवमाणि जीविदूण मदो देवो जादो । एदाओ पंचाणउदि पुचकोडीओ पुधकोडिवारसपुधत्तसण्णिदाओ त्ति एदासिं पुचकोडि पुधत्तववदेसो सुत्तणिहिट्ठो ण जुज्जदे ? ण एस दोसो, तस्स वइउल्लवाइत्तादो । वारसण्हं पुनकोडि पुधत्ताणं कधमेगत्तं ? ण, जाइमुहेण सहस्साण वि एगत्तविरोहाभावा । णवरि पंचिंदियतिरिक्खपजत्तएसु सत्तेतालीसपुचकोडीओ हिंडाविय पच्छा तिपलिदोवमिएसु तिरिक्खेसु उप्पादेदव्यो । नपुंसक वेदों में क्रमले आठ आठ पूर्वकोटि कालप्रमाण भ्रमण करके, असंही स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों में भी इसी प्रकारसे आठ आठ पूर्वकोटि कालप्रमाण परिभ्रमण करके, इसके पश्चात् पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। वहां पर अन्तर्मुहूर्त रह कर, पुनः पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंझी पर्यातकों में उत्पन्न होकर, उनमेंके स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदी जीवों में फिर भी आठ आठ पूर्वकोटियों तक परिभ्रमण करके, पीछे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तक स्त्री और नपुंसक वेदियों में आठ आठ पूर्वकोटियां, तथा पुरुषवदियों में सात पूर्वकोटियां भ्रमण करके उसके पश्चात् देवकुरु अथवा उत्तरकुरुके तिर्यचों में पूर्वली आयुके यशसे स्त्रीवेदियों में अथवा पुरुषवेदियों में उत्पन्न हुआ। वहां पर तीन पल्योपम तक जीवित रह कर मरा और देव हो गया। शंका-ये ऊपर कही गई पंचानवे पूर्वकोटियां पूर्वकोटिद्वादशपृथक्त्व संज्ञारूप हैं; इसलिए, इनकी सूत्रनिर्दिष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व ऐसी संज्ञा नहीं बनती है ? ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह पृथक्त्व शब्द वैपुल्यवाची है, (इस. लिए कोटिपृथक्त्वसे यथासंभव विवक्षित अनेक कोटियां ग्रहण की जा सकती हैं।) शंका-बारह पूर्वकोटिपृथक्त्वोंमें एकपना कैसे बन सकता है ? . समाधान -नहीं, क्योंकि, जातिके मुखसे, अर्थात् जातिकी अपेक्षा, सहस्रों के भी एकत्व होने में विरोधका अभाव है। विशेष बात यह है कि पंचन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्तकों में संतालीस पूर्वकोटियों तक भ्रमण कराके पीछे तीन पल्योपमवाले तिर्यंचोंमें उत्पन्न कराना चाहिए; क्योंकि, अपर्याप्तकताके १ प्रतिषु · दसपुत्त' इति पाठः । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ६१.] कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं [३६९ कुदो ? अपज्जत्तत्तेण एदेसिमपरिणदाणं पच्छा सेसपुबकोडीओ परिब्भमणे संभवाभावा । अपज्जत्तएसु कधमित्थिवेदस्त संभवो ? ण, अपज्जत्तित्थिवेदाणमण्णोण्णविरोहाभावा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु पण्णारस पुयकोडीओ ममाविय पच्छा देवुत्तरकुरवेसु उप्पादेदव्यो । कुदो ? वेदंतरसंकंतीए अभावादो । णत्थि अण्णो कोइ विसेसो । सासणसम्मादिट्टी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ६०॥ कुदो ? तिसु वि पंचिंदियतिरिक्खेसु विददोगुणहाणाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, अंतोमुहुतं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छावलियाओ अंतोमुहुत्तमिदि एदेहि विसेसाभावा । असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ६१ ॥ ____ कुदो ? तिसु वि पंचिंदियतिरिक्खेसु असंजदसम्मादिविविरहिदकालाभावा । साथ अपरिणत हुए, अर्थात् लब्ध्यपर्याप्तक हुए विना, उक्त जीवोंके पश्चात् शेष पूर्वकोटियां परिभ्रमण करना संभव नहीं है । शंका- लब्ध्यपर्याप्तकों में स्त्रीवेद कैसे संभव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्त और स्त्रीवेद, इन दोनों अवस्थाओंमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। - पंचेन्द्रिय तियच योनिमतियों में पन्द्रह पूर्वकोटियों तक भ्रमण कराके पश्चात् देवकुरु और उत्तरकरु में उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, भोगभूमिमें वेद-परिवर्तनका अभाव है। इसके सिवाय अन्य कोई विशेषता नहीं है। उक्त तीनों प्रकारके तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥६०॥ क्योंकि, तीनों ही पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में स्थित उक्त दोनों गुणस्थानोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और अन्तमहर्त है। तथा उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त, तथा उत्कृष्ट काल छह आवलियां और अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार इन दोनों गुणस्थानोंसे उक्त तीनों पंचेन्द्रिय जीवोंके कालोंमें कोई विशेषता नहीं है। उक्त तीनों प्रकारके तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥ ६१ ॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोसे रहित कालका अभाव है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ६२. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ६२ ॥ कुदो ? मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी संजदासजदो वा विसोहि-संकिलेसवसेण असंजदसम्मादिट्ठी होद्ग सधजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय अविणट्ठसंकिलेस-विसोहीहि पडिवण्णगुणतरस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो।। __उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि, तिण्णि पलिदोवमाणि, तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ६३ ॥ पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ताणं संपुण्णाणि तिण्णि पलिदोवमाणि । कुदो ? मणुस्सस्स बद्धतिरिक्खाउअस्स सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहणीयं खविय देवुत्तरकुरुपंचिंदियतिरिक्खेसुववज्जिय अप्पणो आउहिदिमणुपालिय देवेसुप्पण्णस्स संपुण्णतिण्णिपलिदोवममेत्तसासंजमसम्मत्तकालुवलंभादो । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु देसूणतिण्णिपलिदोवमाणि । कुदो ? तिरिक्खस्स मणुस्सस्स वा अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिहिस्स देवुत्तरकुरुपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु उप्पज्जिय वे मासे गब्भे अच्छि दूण णिक्खंतस्स मुहुत्तपुधत्तेण विसुद्धो होदूण वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वे-मासूणतिण्णि एक जीवकी अपेक्षा उक्त तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६२॥ ___ क्योंकि, कोई मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत तिर्यंच यथाक्रमसे विशुद्धि, अथवा संक्लेशके वशसे असंयतसम्यग्दृष्टि होकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, अविनष्ट संक्लेश और विशुद्धिके साथ यथाक्रमसे दूसरे गुणस्थानको प्राप्त हुआ, ऐसे जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। उक्त तीनों पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल यथाक्रमसे तीन पल्योपम, तीन पल्योपम और कुछ कम तीन पल्योपम है॥ ६३ ॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंका सम्पूर्ण तीन पल्योपम उत्कृष्ट काल है, क्योंकि, बद्धतिर्यगायुष्क मनुष्यके, सम्यक्त्वको ग्रहण करके, दर्शनमोहनीयका क्षपण कर, देवकुरु या उत्तरकुरुके पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें उत्पन्न होकर, अपनी आयुस्थितिको परिपालन कर, देवों में उत्पन्न होनेवाले जीवके तो सम्पूर्ण तीन पल्योपममात्र असंयमसहित सम्यक्त्वका काल पाया जाता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में कुछ कम तीन पल्योपम काल है । क्योंकि, मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवके देवकुरु अथवा उत्तरकुरुके पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में उत्पन्न होकर, और दो मास गर्भमें रहकर, जन्म लेनेवाले, और मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ६६.] कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं [ ३७१ पलिदोवमाणि सम्मत्तमणुपालिय देवेसुववण्णस्स देसूणतिण्णिपलिदोवममेत्तसम्मत्तकालुवलंभादो। संजदासंजदा ओघं ॥ ६४॥ कुदो ? तिसु वि पंचिंदियतिरिक्खेसु णाणाजीव पडुच्च सयद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुधकोडी देसूणा, इच्चाइणा भेदाभावा । णवरि जोणिणीसु वे मासे अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया त्ति वत्तव्यं । ___पंचिंदियतिरिक्खअपजत्ता केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा॥ ६५॥ कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तविरहिदकालाणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ६६ ॥ कुदो ? एइंदिय-वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियपज्जत्त-अपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खपजत्त मणुसपज्जत्तापज्जत्तएसु अण्णदरस्स खुद्दाभवग्गहणावुट्टिदपंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु प्राप्त करके मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मास कम तीन पल्योपम तक सम्यक्त्वको अनुपालन करके देवों में उत्पन्न होने वाले जीवके कुछ कम तीन पल्योपमप्रमाण सम्यक्त्वका काल पाया जाता है। उक्त तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय संयतासंयत तियंचोंका काल ओघके समान है ॥ ६४॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यों में नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त, और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण होता है, इत्यादि रूपसे भेदका अभाव है। विशेष बात यह है कि योनिमतियों में दो मास और कुछ अन्तर्मुहूसे कम, अर्थात् जन्म से लेकर शीघ्रातिशीघ्र संयमासंयमको ग्रहण करने तकके कालसे हीन, ऐसा काल कहना चाहिए। पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ६५ ॥ क्योंकि, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच जीवोंसे रहित कोई भी काल नहीं पाया जाता। एक जीवकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तियचोंका जघन्य काल क्षुद्रभवप्रहणप्रमाण है ॥ ६६ ॥ क्योंकि, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तक, तथा मनुष्य पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंमेंसे किसी एक जीवके क्षुद्रभवग्रहणकी आयुस्थितिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में उत्पन्न होकर, Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ६७. उववज्जिय सव्वजहण्णकालमच्छिय पुव्वुत्ताणमण्णदरं गदस्त खुद्दाभवग्गहणमत्तअपज्जत्तकालुवलंभा। उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।। ६७ ॥ कुदो १ पुव्वुत्ताणमण्णदरस्स पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववज्जिय सण्णिअसण्णि-अपज्जत्तएसु अट्ठट्ठवारमुप्पज्जिय हिस्सरिदूण पुवुत्ताणमण्णदरं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तुक्कस्सकालुवलंभा । मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ६८ ॥ कुदो ? तिविधेसु वि मणुस्सेसु मिच्छादिट्ठि-विरहिदकालाणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ६९ ॥ कुदो ? सम्मामिच्छादिविस्स असंजदसम्मादिट्ठिस्स संजदासंजदस्स वा संकिलेस और वहां पर सर्व जघन्य काल रह कर, पूर्वोक्त एकेन्द्रियादिकों से किसी एक को प्राप्त हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणमात्र अपर्याप्तकाल पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त क्योंकि, पूर्वमें कहे गये एकेन्द्रियादिकों से किसी एकके पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्य. पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर, संक्षी और असंज्ञी लब्ध्यपर्याप्तकोंमें आठ आठ वार उत्पन्न होकर, और उनमेंसे निकलकर, पूर्वोक्त जीवों में से किसी एक जीवकी पर्यायको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट काल पाया जाता है । ___मनुष्यगतिमें, मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ६८॥ ___ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंसे रहित कोई काल नहीं पाया जाता है। ___एक जीवकी अपेक्षा उक्त तीनों प्रकारके मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६९ ॥ क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टिके, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टिके, अथवा संयतासंयतके १ मनुष्यगतौ मनुष्येसु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ७०. .] कालानुगमे मणुस्सकालपरूवणं [ ३७३ वसेण मिच्छत्तं गंतूग सव्वजहणमंतोमुहुत्तमच्छिय पुव्वुत्ताणमण्णदरं गदस्स तिसु वि मणुस्से अंतोमुहुत्तमेतमिच्छत्तकालुवलभा । उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण भहियाणि 11:00 11 कुदो ? अणविदजीवस्स अप्पिदमणुसे सुववज्जिय इत्थि - पुरिस णवुंसयवेदेमु अट्ठट्ठपुव्वकोडीओ परिभमिय अपज्जत्तए सुववज्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो इत्थिणवुंसयवेदेसु अट्टट्ठपुव्यकोडीओ, पुरिसवेदेषु सत्त पुत्रकोडीओ हिंडिय देवुत्तरकुरवे सु तिणि पलिदोवमाणि अच्छिय देवेसुववण्णस्स पुत्रको डिपुत्र त्तन्भहियतिष्णिपलिदोवममुलंभा । णवरि मणुसमिच्छादिट्ठिस्स चेय सत्तेत्तालीसपुत्र कोडीओ अहिया होंति, ण सेसाणं । पज्जत्तमिच्छादिट्ठीगं तेवीसपुत्रको डीओ, मणुसअपज्जत्तएसु तेसिमुप्पत्तीए अभावादो । मणुसिणीमिच्छादिवसि सत्तपुञ्चकोडीओ अहियाओ, वेदंतर संकंतीए अभावादो । संक्लेशके वशसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर, सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, पूर्वोक्त गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके तीनों ही प्रकारके मनुष्यों में अन्तर्मुहूर्त - मात्र मिथ्यात्वा काल पाया जाता है । एक जीवकी अपेक्षा तीनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्ववर्ष से अधिक तीन पल्योपमप्रमाण है ॥ ७० ॥ क्योंकि, अविवक्षित जीवके विवक्षित मनुष्यों में उत्पन्न होकर, स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेदियों में क्रमशः आठ आठ पूर्वकोटियों तक परिभ्रमण करके, लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होकर, वहां पर अन्तर्मुहूर्त काल रह करके, पुनः स्त्री और नपुंसक वेदियों में आठ आठ पूर्वकोटियां तथा पुरुषवेदियों में सात पूर्वकोटियां भ्रमण करके, देवकुरु अथवा उत्तरकुरुमें तीन तीन पल्योपमों तक रह करके, देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवके पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पोप पाये जाते हैं । विशेष बात यह है कि मनुष्य मिथ्यादृष्टिके ही तीन पल्योपमसे अधिक सैंतालीस पूर्वकोटियां होती हैं; शेष मनुष्योंके नहीं । पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्यों के तेईस पूर्वकोटियां अधिक होती है, क्योंकि, मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकों में उनकी उत्पत्ति नहीं. होती है । मनुष्यनी मिथ्यादृष्टियों में सात पूर्तकोटियां अधिक होती है; क्योंकि, उनके वेदपरिवर्तन नहीं होता । १ उत्कर्षेण त्रीणि पश्योपमानि पूर्वकोटी पृथक्त्वैरभ्यधिकानि । स. सि. १, ८, Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ७१. सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं ॥ ७१ ॥ कुदो ? उवसमसम्मादिट्ठीणं सत्तट्ठजणाणं उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमओ अत्थि त्ति सासणगुणं' गदाणं तत्येगसमयमच्छिय मिच्छतं पडिवण्णाणमेगसमओवलंभादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ७२ ॥ कदो ? संखेज्जाणं उवसमसम्मादिट्ठीणमुवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयमादि कादण जावुक्कस्सेण छ आवलियाओ अत्थि ति सासणं पडिवण्णाणं संखेज्जवाराणुसंचिदसासणद्धाणमंतोमुहुत्तत्तुवलंभा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥७३॥ कुदो ? उवसमसम्माइट्ठिस्स उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमओ अत्थि त्ति सासणं पडिवज्जिय विदियसमए चेव मिच्छत्तं पडिवण्णसासणस्स एगसमयदसणादो। उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥७१॥ क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टि सात आठ जनोंके उपशमसम्यक्त्वके काल में एक समय शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुए, तथा वहां पर एक समय रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके एक समयप्रमाण काल पाया जाता है। उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥७२॥ क्योंकि, संख्यात उपशमसम्यग्दृष्टियोंके उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समयको भादि करके उत्कर्षसे छ आवलियां शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुए जीवोंके संख्यात वारोंसे अनुसंचित सासादनगुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । उक्त तीनों प्रकारके सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है ॥ ७३॥ क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्वके काल में एक समय शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर, दूसरे समयमें ही मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त हुए सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके एक समयप्रमाण काल देखा जाता है। १ सासादनसम्यग्दृष्टेन नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ४. २ प्रतिषु 'सासणाणं' इति पाठः। ३ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १,८. ४ एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ७६.] कालाणुगमे मणुस्सकालपरूवणं [ ३७५ उक्कस्सं छ आवलियाओं ॥ ७४ ॥ कुदो ? उवसमसम्मादिहिस्स उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अस्थि त्ति सासणं पडिवज्जिय छ आवलियाओ तत्थ गमिय मिच्छत्तं पडिवण्णस्स छ-आवलिओवलंभा । सम्मामिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥७५॥ पमत्तसंजद-संजदासंजद-अट्ठावीसमोहसंतकम्मियमिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिपच्छायदाणं संखेज्जसम्मामिच्छादिट्ठीणं सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय विसोहि-संकिलेसवसेण सम्मत्त-मिच्छत्ताणि उवगदाणं सव्वजहण्णंतोमुहुत्तुवलंभा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ७६ ॥ सम्मामिच्छादिट्ठीणं सव्वुक्कस्ससम्मामिच्छत्तद्धाणं मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि उक्त तीनों प्रकारके सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल छह आवलीप्रमाण है ॥ ७४ ॥ क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर छह आवलीप्रमाण काल वहां पर बिताकर मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके छह आवलीप्रमाण काल पाया जाता है। उक्त तीनों प्रकारके सम्याग्मथ्यादृष्टि मनुष्य कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं ॥ ७५ ॥ क्योंकि, प्रमत्तसंयत, अथवा संयतासंयत, अथवा मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाले मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे पीछे आये हुए संख्यात सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके विशुद्धि और संक्लेशके वशसे यथाक्रमसे सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवोंके सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। ___उक्त तीनों प्रकारके सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७३ ॥ मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत जीवोंसे संख्यात पारमें १ उत्कर्षेण षडावलिकाः । स. सि. १, ८. २ सम्यग्मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, .. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ७७. संजदासंजद-पमत्तसंजदेहि संखेज्जवारमणुसंचिदद्धाणमंतोमुहुत्तुवलंभा। ... एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ७७ ॥ . सम्मामिच्छादिहिस्स दिट्ठमग्गस्स पुवुत्त चदुगुणट्ठाणेसु एगजीवण्णदरगुणपच्छायदस्स सव्यजहण्णद्धमच्छिद्ग संकिलेस विसोहिवसेण मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्विगुणे पडिवण्णस्स सवजहणंतोमुहुत्तमेत्तकालुबलभा । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ७८ ॥ पुव्वुत्तचदुगुणट्ठाणेसु अदिट्ठमग्गेगजीवण्णदरगुणपच्छायदसम्मामिच्छादिहिस्स दीहद्धमच्छिय देस-सयलसंजमविरहिददोगुणट्ठाणे गदस्स सव्वुकस्संतोमुहुत्तुवलंभा। असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा॥ ७९ ॥ कुदो ? असंजदसम्मादिविविरहिदमणुस्साणं सव्वकालमणुवलंभा । संचित हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके सर्वोत्कृष्ट सम्यग्मिथ्यात्वका काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। उक्त तीनों प्रकारके सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७७॥ क्योंकि, जिसने पूर्वमें मार्ग देखा है, ऐसे पूर्वोक्त चार गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थान से पीछे आये हुए सम्पग्मिथ्यादृष्टिके सर्व जघन्य काल रह कर संक्लेश और विशुद्धिके वशसे मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके सर्व जघन्य अन्तमुहूर्त काल पाया जाता है उक्त तीनों प्रकारके सम्यग्दृष्टि मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७८ ॥ - क्योंकि, पूर्वोक्त चार गुणस्थानों से नहीं देखा है मार्ग को जिसने, ऐसे जीवके किसी एक गुणस्थानसे पीछे आये हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिके दीर्घ काल तक रह करके देशसंयम और सकलसंयमसे रहित दो गुणस्थानोंमें, अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें गये हुए जीवके सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। उक्त तीनों प्रकारके असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ७९ ॥ क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे रहित मनुष्योंका कोई भी काल नहीं पाया जाता। १ असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ८१.] कालाणुगमे मणुस्सकालपरूवणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ८०॥ दिट्ठमग्गमिच्छादिहि-सम्मामिच्छादिहि-संजदासंजद-पमत्तसंजदगुणहाणेहितो आगदस्स सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तद्धमच्छिय जहण्णकालाविरोहेण गुणंतरं गदस्स जहणंतोमुहुत. मेत्तकालुवलंभा । उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि, तिणि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि, तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ८१॥ एत्थ सादिरेयसद्दो दोसु वि तिपलिदोवमेसु संबंधणिज्जो, दोण्हं पच्चासत्तिवसेण एगत्तमुवगयाणं विसेसणरूवेण पयत्तादो । तम्हा मणुस-मणुसपज्जत्तएसु सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोवमाणि, अण्णत्थ देसूणाणि । कुदो ? 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' त्ति णायादो । कधं सादिरेयत्तं ? अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिहिस्स पुवकोडितिहाए सेसे बद्धमणुसाउअस्स तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहणीयं खविय सम्मत्तेण एक जीवकी अपेक्षा तीनों प्रकारके असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥८॥ क्योंकि, देखा है मार्गको जिसने ऐसे, मिथ्याष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानोंसे आये हुए, तथा सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके जघन्य कालके अविरोधसे गुणस्थानान्तरको प्राप्त हुए जीवके जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल पाया जाता है। तीनों प्रकारके असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका यथाक्रमसे उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम, तीन पल्योपम सातिरेक, और देशोन तीन पल्योपम है ।। ८१॥ यहां पर सातिरेक शब्द दोनों ही त्रिपल्योपमों पर संबद्ध करना चाहिए, क्योंकि प्रत्यासत्तिके वशसे एकत्वको प्राप्त हुए दोनों पदोंके विशेषणरूपसे यह शब्द प्रवृत्त हुआ है. इसलिये मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकोंमें तो साधिक तीन पल्योपम उत्कृष्ट काल है। और अन्यत्र अर्थात् मनुष्यनियों में, देशोन तीन पल्योपम उत्कृष्ट काल है। क्योंकि, 'जिस प्रकारसे उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश होता है ' ऐसा न्याय है। शंका- तीन पल्योपमसे सातिरेक अर्थात् अधिक काल कैसे संभव है ? ... समाधान- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाले तथा पूर्वकोटीके त्रिभाग शेष रहने पर बांधी है मनुष्य आयुको जिसने ऐसे मिथ्यादृष्टि मनुष्यके तत्पश्चात् अन्तमुहूर्त जाकर सम्यक्त्वको ग्रहण करके दर्शनमोहनीयका क्षपण कर सम्यक्त्वके साथ देशोन १ एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण वणि पल्योपमानि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ८२. सह देसूणपुव्वकोडितिभागं गमिय तिपलिदोवमाउट्ठिदिदेउत्तरकुरवेसुप्पज्जिय अप्पणो आउद्विदिमणुपालिय देवेसुप्पण्णस्स तिण्णिपलिदोवमाणमुवरि देखणपुव्वकोडितिभागु. वलंभा । मणुसिणीसु देसूणतिण्णि पलिदोवमाणि, अण्णदरअट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिद्विस्स तिपलिदोवमिएसु मणुसेसुववज्जिय णव मासे गन्भे अच्छिदूण णिक्खंतस्स उत्ताणसेज्जाए अंगुलिआहारेण सत्त दिवसे, रंगतो सत्त दिवसे, अथिरगमणेण सत्त दिवसे, थिरगमणेण सत्त दिवसे, कलासु सत्त दिवसे, गुणेसु सत्त दिवसे, अण्णे वि सत्त दिवसे गमिय विसुद्धो होदूण सम्मत्तं पडिवज्जिय अप्पणो आउट्ठिदिं जीविदूण देवेसु उववण्णस्स एगूणवण्णदिवसेहि अहियणवमासूणतिणिपलिदोवमुवलंभा ।। संजदासंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ ८२ ॥ कुदो ? ओघादो भेदाभावा । णवरि संजदासंजदाणं सबलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणुब्भवट्ठवस्सेहि ऊणा पुव्वकोडी संजमासंजमकालो वत्तव्यो, तिरिक्खाणं व मणुस्साणं अंतोमुहुत्तकालेण अणुव्वयगहणाभावा । पूर्वकोटीका त्रिभाग बिताकर तीन पल्योपमप्रमाण आयुकर्मकी स्थितिवाले देवकुरु और उत्तरकुरुओं में उत्पन्न होकर, अपनी आयुस्थितिको अनुपालन करके देवों में उत्पन्न हुए जीवके तीन पल्योपोंके ऊपर देशोन पूर्वकोटीका त्रिभाग अधिक पाया जाता है। मनुष्यनियों में देशोन तीन पल्योपम उत्कृष्ट काल है । वह इस प्रकारसे है-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक मिथ्यादृष्टि मनुष्य तीन पल्योपमकी आयुवाले भोगभूमियां मनुष्योंमें उत्पन्न होकर और नौ मास गर्भमें रह कर निकलता हुआ उत्तानशय्या पर अंगुष्ठ चूसनेरूप आहारसे सात दिन, रेंगते हुए सात दिन, अस्थिर गमनसे सात दिन, स्थिर गमनसे सात दिन, कलाओंमें सात दिन, गुणोंमें सात दिन, तथा अन्य भी सात दिन बिताकर, विशुद्ध होकरके सम्यक्त्वको प्राप्त हो, अपनी आयुस्थिति प्रमाण जीवित रह कर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उनचास दिवसोंसे अधिक नव मासोंसे कम तीन पल्योपम काल पाया जाता है। संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली तक तीनों प्रकारके मनुष्योंका उत्कृष्ट वा जघन्य काल ओघके समान है ॥ ८२॥ ___ क्योंकि, ओघवर्णित कालसे इनमें कोई भेद नहीं है। विशेष बात यह है कि संयतासंयतोंके सर्चलघु योनि-निष्क्रमणरूप जन्मसे उत्पन्न हुए जीवके आठ वर्षांसे कम पूर्वकोटिप्रमाण संयमासंयमका काल कहना चाहिए, क्योंकि, तिर्यंचों के समान मनुष्योंके जन्म लेनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालसे ही अणुव्रतोंके ग्रहण करनेका अभाव है। १ शेषाणां सामान्योक्तः कालः। स.सि. १,८. | Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ८६. ] कालानुगमे मणुस अपज्जत्तकाल परूवणं [ ३७९ मणुस अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ८३ ॥ एइंदियबादर - सुहुम-वि-ति- चउरिंदिय-सण्णि-असण्णिपंचिदियपजत्तापजत्ताणं मणुसपज्जत्ताणं वा मणुसअपज्जत्तएस उववज्जिय खुद्दाभवग्गहणमेचाउद्विदिं गमिय पुजीवेपणाणं तकालुवलंभा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८४ ॥ पुव्युप्पण्ण मणुस अपज्जतएसु गदेसु तक्काले चेव अण्णपणे जीवे मणुसअपज्जत्तेसुपपादि उपादिय अणुसंधिज्जमाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअणुसंधानवारसलागुचलंभादो । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ८५ ॥ पुण्वुत्तजीवेहिंतो आगंतूण मणुसअपज्जसएसु उववण्णस्स खुद्दाभवग्गहणमेचजहण्णा उडिदिकालदंसणादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं || ८६ ॥ लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य से क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण काल तक होते हैं ॥ ८३ ॥ क्योंकि, एकेन्द्रिय, बादर और सूक्ष्म, तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंगी और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंके, अथवा मनुष्यपर्याप्तक जीवोंके, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में उत्पन्न होकर क्षुद्रभवग्रहणमात्र आयुस्थितिको बिताकर पूर्वोक्त जीवों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके उक्त काल, अर्थात् क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण काल पाया जाता है । पर्याप्तक मनुष्योंका उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग 11 28 11 क्योंकि, पूर्वोत्पन्न लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में चले जाने पर उसी कालमें ही अन्य अन्य जीवको लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में उत्पन्न करा कराके अनुसंधान करने पर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र अनुसंधानवारोंकी शलाकाएं पाई जाती हैं । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ ८५ ॥ क्योंकि, पूर्वोक्त एकेन्द्रियादि जीवोंसे आकर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में उत्पन्न होने बाले जीवके क्षुद्रभवग्रहणमात्र जघन्य आयुस्थितिकाल देखा जाता है । उक्त लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८६ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० छक्खंडागमे जीवहाण [ १, ५, ८७. . पुव्वुत्तजीवेहितो आगंतूण मणुसअपज्जत्तएसु उप्पण्णस्स अंतोमुहुत्तादो उर्वरिमकालवियप्पाणमुक्कस्साउहिदिअपज्जत्तस्स वि अणुवलंभा । देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ८७ ॥ देवमिच्छादिट्ठिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ८८ ॥ असंजदसम्मादिहिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स वा संकिलेसेण मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णकालमच्छिय पुव्युत्तदोगुणट्ठाणाणमण्णदरं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभा । उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि ॥ ८९ ॥ मणुसमिच्छादिहिस्स दव्वसंजमबलेण एक्कत्तीससागरोवमाउद्विदिदेवेसुप्पज्जिय मिच्छत्तेण सह अप्पणो आउट्ठिदिमणुपालिय मणुसेसुववण्णस्स एक्कत्तीससागरोवममेत्तदेवमिच्छांदिद्विकालदसणादो। क्योंकि, पूर्वोक्त जीवोंसे आकर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवके अन्तमुहूर्त काल पाया जाता है, तथा अन्तर्मुहूर्तसे उपरिम कालके विकल्प उत्कृष्ट आयुस्थितिवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवके भी नहीं पाये जाते। देवगतिमें, देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ८७॥ क्योंकि, देवों में मिथ्यादृष्टियोंसे रहित कोई काल नहीं पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि देवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८८॥ असंयतसम्यग्दृष्टिके, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवके, संक्लेशसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर, वहां पर सर्व जघन्य काल रह कर पूर्वोक्त दो गुणस्थानों से किसी एकको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है॥८९॥ मिथ्यादृष्टि मनुष्यके द्रव्यसंयमके बलसे इकतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर मिथ्यात्वके साथ अपनी आयुस्थितिको अनुपालन करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवके इकतीस सागरोपमप्रमाण देवों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका काल, देखा जाता है। १देवगतौ देवेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्व काल: । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १. ८. ३ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोवमाणि । स. सि. १,८ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ९३.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं [३८१ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९० ॥ सव्वपयारेण ओघादो भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ९१ ॥ देवेसु असंजदसम्मादिविविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ९२ ॥ मिच्छादिहिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स वा विसोहिवसेण सम्मत्तं पडिवज्जिय सबजहण्णसम्मत्तद्धमच्छिय मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमण्णदरं गदस्स अंतोमुहुत्तकालदसणादो। उक्कस्सं तेत्तीसं सागरोवमाणि ।। ९३ ॥ उक्कस्साउद्विदिदेवेसुप्पण्णसंजदस्स मुंजमाणाउअस्स घादाभावादो अप्पणो उक्कस्सहिदि जीविय मणुसेसु उप्पण्णदेवअसंजदसम्मादिहिस्स तेत्तीसं सागरोवममेतकालुवलद्धीए। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका काल ओघके समान है ॥९॥ क्योंकि, सर्व प्रकारसे, अर्थात् एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा, जघन्य और उत्कृष्ट कालसे ओघप्ररूपणाके साथ कोई भेद नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ९१ ॥ क्योंकि, देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित कालका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१२॥ क्योंकि, मिथ्याइष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवके विशुद्धिके वशसे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर, वहां सर्व जघन्य सम्यक्त्वके कालप्रमाण रह करके, पश्चात् मिथ्यात्व अथवा सम्यग्मिथ्यात्वमेंसे किसी एक गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्त काल देखा जाता है। एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है ॥ ९३ ॥ उत्कृष्ट आयुकी स्थितिधारक देवों में उत्पन्न हुए संयतके भुज्यमान आयुके घातका अभाव होनेसे अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जीवित रह कर, मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि देवके तेतीस सागरोपममात्र काल पाया आता है। १ सासादनसम्यग्दृष्टेः सम्यग्मिध्यादृष्टश्च सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. २ असंयतसम्यग्दृष्टेनानाजीवापेक्षया सर्वः कालः | स. सि. १, ८. ३ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । स. सि. १,८. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] 'छक्खंडागमे जीवट्ठाणं ___ [१, ५, ९४. भवणवासियप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ९४॥ तिहं पि कालाण देवमिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदाणमभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९५ ॥ एदस्स अत्थो जधा देवोधम्हि एदेसिं दोण्हं गुणट्ठाणाणं जहण्णकालपरूवणा वुत्ता, तहा भवणवासियप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पो त्ति मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं जहण्णकालपरूवणा कादव्या । उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं सादिरेयं वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ९६ ॥ एदस्सुदाहरणं- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा मिच्छादिट्ठी भवणवासियदेवेसु उववण्णो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागब्भहियं सागरोवमं जीविदूण मिच्छत्तेणेव उव - भवनवासी देवोंसे लेकर शतार सहस्रार कल्पवासी देवों तक मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ९४ ॥ . क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंसे विरहित तीनों ही कालोंका भभाव है। ___एक जीवकी अपेक्षा उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका जघन्य. काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९५॥ - इस सूत्रका अर्थ, जैसा देवोंके ओघमें इन दोनों गुणस्थानोंकी जघन्य कालप्ररूपणा कही है उसी प्रकारसे भवनवासीको आदि लेकर शतार सहस्रारकल्प तकके मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंकी भी जघन्य कालकी प्ररूपणा करना चाहिए। ___उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल साधिक सागरोपम, साधिक पल्योपम, साधिक दो सागरोपम, साधिक सात सागरोपम, साधिक दश सागरोपम, साधिक चौदह सागरोपम, साधिक सोलह सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है ॥ ९६ ॥ इसका उदाहरण- एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव भवनवासी देवोमै उत्पन्न शुभा। वहां पर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक एक सागरोपमतक जीवित रह कर Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ९६.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं [ ३८३ ट्टिदो । एसो मिच्छादिहिणो बद्धआउअघादं पडुच्च कालो वुत्तो। अधवा, अंतोमुहुत्तूणअद्धसागरोवमेण सादिरेगं सागरोवमं जीविदूण उव्यट्टिदो । एसो सम्मादिविणो बद्धआउअघादं पडुच्च उत्तो । एसो भवणवासियमिच्छादिहि-उक्कस्सकालो । एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेसु आउअं बंधिदूग तमोवट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेसु उववण्णो। छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मत्तं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तूणसागरोवमद्धेण अहियं सागरोवमं तीहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणयं सम्मत्तेण सह जीविदण उव्यट्टिय मणुसो जादो। एसो भवणवासियअसंजदसम्माडिदिस्स उक्कस्सकालो । वाणवेंतर-जोदिसियाणं पि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि अंतोमुहुत्तूणपलिदोवमद्धेण अहियं पलिदोवमं मिच्छत्तुक्कस्सकालो होदि । एसो चेव कालो तीहि अंतो. मुहुत्तेहि ऊणओ असंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्सकालो होदि। सोधम्मीसाणे मिच्छादिहिस्स उक्कस्सकालो वे सागरोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण अन्भहियाणि । एसो मिच्छादिट्ठिणो बद्धाउअस्स घादं पडुच्च कालो वुत्तो । सम्मादिट्ठिणो बद्धदेवाउअघादं पड़च्च अंतोमुहुर्णअद्धसागरोवमेण अब्भहियाणि वे सागरोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्सकालो मिथ्यात्वके साथ ही पर्यायसे च्युत हुआ। यह मिथ्यादृष्टि जीवका बच आयुष्कघातकी अपेक्षा काल कहा। अथवा अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक एक सागरोपम तक जीवित रह कर पर्यायसे च्युत हुआ। यह सम्यग्दृष्टि जीवका बद्धायुष्कघातकी अपेक्षा काल कहा। इस प्रकार यह भवनवासी मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल है। विराधना की है संयमकी जिसने ऐसा कोई संयत मनुष्य वैमानिक देवों में आयुको बांध करके उसे उद्वर्तनाघातसे घात करके भवनवासी देवों में उत्पन्न हुआ। और छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होता हुआ (१). विश्रान्त हो (२), विशुद्ध होकर (३), सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक तथा तीन अन्तर्मुहूसे कम एक सागरोपम काल सम्यक्त्वके साथ जीवित रह कर पर्यायसे च्युत हो मनुष्य हुआ। यह भवनवासी असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल है। वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंका भी इसी प्रकारसे काल कहना चाहिए। विशेषता यह है कि एक अन्तर्मुहूर्तसे कम आधे पल्योपमसे अधिक एक पल्योपम व्यन्तर और ज्योतिषक देवों में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल होता है। यह उपर्यत काल ही तीन अन्तर्महौसे म करने पर असंयतसम्यग्दृष्टि व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंका उत्कृष्ट काल हो जाता है । सौधर्म और ईशानकरूपमें मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो सामरोपम है। यह मिथ्यादृष्टि के बद्धायुके घातकी अपेक्षा काल कहा। सम्यग्दृष्टि जीवके बद्धदेवायुके घातकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक दो सागरोपम मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल होता है। १ उवहिदलं पहद्धं भवणे वितरगे कमेणहियं । सम्मे मिच्छे घादे पल्लासखं तु सव्वत्थ ॥ त्रि. सा. ५४१. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] क्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, ९६. होदि । ' वे सत्त दस' चोदस सोलसङ्कारस य वीस वावीसा' एदीए गाहाए सह एदस्स सुत्तस्स किण्ण विरोहो होदि ? ण होदि विरोहो, भिण्णविसयत्तादो । तं जहा- बुतं सुतं वंध पडिबर्द्ध, कालसुतं पुण संतमपेक्खिय ट्ठिदमिदि' | सणक्कुमार- माहिंदे सत्त सागरोवमाणि सादिरेयाणि । बम्ह-बम्हुत्तरकप्पे दस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । लंतव-काविट्ठकप्पे चोदस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्क- महासुक्केसु सोलस सागरोवमाणि सादिरे - याणि । सदर - सहस्सारकप्पेसु अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । जधा दोहि पयारेहि सोधम्मीसाणे सादिरेयत्तं परूविदं, तथा एत्थ वि वत्तव्वं । सोधम्मादि जाव सहस्सारो ति असजद सम्मादिट्ठिस्स उक्कस्सकालो वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि अंतो मुहुत्तूण अद्धसागरोवमेण सादिरेयाणि होति, एदस्स हेट्ठदो सम्मादिट्टिस्सुववादाभावा । " शंका- -' सौधर्म ईशान कल्पसे लगाकर आरण अच्युत कल्प तक क्रमशः दो, सात, दश, चौदह, सोलह, अठारह, वीस और बाईस सागरोपमकी स्थिति होती है' इस गाथा के साथ, इस उक्त सूत्रका विरोध क्यों नहीं होगा ? समाधान - विरोध नहीं होगा, भिन्न है । वह इस प्रकारसे है कि उक्त विद्यमान आयुकी अपेक्षा स्थित है । क्योंकि, सूत्र और गाथा, इन दोनोंका विषय भिन्न गाथासूत्र तो बंधकी अपेक्षा है, किन्तु कालसूत्र सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पमें कुछ अधिक सात सागरोपम, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर कल्पमें साधिक दश सागरोपम, लान्तव-कापिष्ठ कल्प में साधिक चौदह सागरोपम, शुक्र-महाशुक्र कल्पमें साधिक सोलह सागरोपम, और शतार - सहस्रार कल्पमें साधिक अठारह सागरोपम मिथ्यादृष्टियों का उत्कृष्ट काल है । जिस तरह दोनों प्रकारोंसे सौधर्म और ईशान कल्पमें आयुकी साधिकता प्ररूपण की है, उसी प्रकार यहां पर भी कहना चाहिए । सौधर्म कल्पको आदि लेकर सहस्रार कल्प तक असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः एक अन्तमुहूर्त कम आधे सागरोपमसे अधिक दो सागरोपम, सात सागरोपम, दश सागरोपम, चौदह सागरोपम, सोलह सागरोपम और अठारह सागरोपम प्रमाण होता है, क्योंकि, इस कालके नीचे सम्यग्दृष्टि जीवके उपपादका अभाव है । १ प्रतिषु ' दस ' इति पाठो नास्ति । २ पढमे बिदिए जुगले बम्हादिसु चउसु आणददुगम्मि | आरणदुगे सुदंसणपहुदिसु एक्कारतेसु कमे ॥ दुग सत्त दसं चउदस सोलस अट्ठरस वीस वावीसा । ततो एक्केकजुदा उकस्साऊ समुदउवमाणा ॥ ति. प. ८, ४५८-४५९. ३ बद्धाउं पडि भणिदं उक्कस्तं मज्झिमं जहण्णाणि । घादाउनमा सेज्जं अण्णसरूवं परूवेमो ॥ ति.प. ८, ४९१. ४ सम्मे वादेऊणं सायरदलमहियमा सहस्सारा । जलहिदलमुडुवराऊ पडलं पडि जान हाणिचयं । त्रि. सा. ५३३. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ९९.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९७ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, बहुसो परूविदत्तादो । आणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो हॉति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा ॥९८॥ कुदो ? एदेसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिडिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९९ ॥ विशेषार्थ-यहां पर जो बद्ध-आयुघातकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवोंके दो प्रकारके कालकी प्ररूपणा की है, उसका अभिप्राय यह है कि किसी मनुष्यने अपनी संयम-अवस्थामें देवायुका बंध किया। पीछे उसने संक्लेश परिमाणों के निमित्तसे संयमकी विराधना कर दी और इसीलिए अपवर्तनाघातके द्वारा आयुका घात भी कर दिया। संयमकी विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है, तो मर कर जिस कल्पमें उत्पन्न होगा, वहांकी साधारणतः निश्चित आयसे अन्तर्महर्त कम अर्ध सागरोपमप्रमाण अधिक आयुका धारक होगा। कल्पना कीजिए- किसी मनुष्यने संयत अवस्थामें अच्युतकल्पमें संभव बाईस सागरप्रमाण आयुका बंध किया। पीछे संयमकी विराधना और बांधी हुई मायुकी अपवर्तना कर असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मरण कर यदि सहस्रारकल्पमें उत्पन्न हुआ, तो वहांकी साधारण आयु जो अठारह सागरकी है, उससे घातायुष्क सम्यग्दृष्टि देवकी आयु अन्तर्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक होगी। यदि वही पुरुष संयमकी विरा. धनाके साथ ही सम्यक्त्वकी भी विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है और पीछे मरण कर उसी सहस्रारकल्पमें उत्पन्न होता है, तो उसकी आयु वहां की निश्चित अठारह सागरकी आयुसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक होगी। ऐसे जीवको घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते हैं। _भवनवासीसे लेकर सहस्रारकल्प तकके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका काल ओघके समान है ॥ ९७॥ आनत-प्राणतकल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक विमानवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ९८॥ क्योंकि, इन कल्पोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित कालका अभाव है। . एक जीवकी अपेक्षा उक्त दोनों गुणस्थानवती देवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ९९ ॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] छक्खंडागमे जीवाणं दस्त सुत्तस्स अत्थो सुगमो, बहुसो परुविदत्तादो । उक्कस्सेण वीसं वावीसं तेवीसं चउवीसं पणवीसं छब्वीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं एगूणतीसं तीसं एक्कत्तीसं सागरोवमाणि ॥ १०० ॥ एदेसु एक्कारससु उक्कस्साउअं बंधिय अष्पष्पणो देवेसुप्पज्जिय आउट्ठदिमणुपालिय मणुसे सुप्पण्णमिच्छादिट्ठि असंजदसम्म दिडीणमध्पष्पणो वुत्तुक्कस्सकालुवलंभा । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ १०१ ॥ ओघादो णाणेगजीवं पडुच्च भेदाभावा । अणुद्दिस - अणुत्तरविजय- वइजयंत जयंत अवराजिदविमाणवासिय देवसु असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ।। १०२ ॥ कुद : असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदतेरसहं विमाणाणं सव्वकालमणुवलंभा । एगजीवं पहुच जहणेण एक्कत्तीसं, बत्तीसं सागरोवमाणि सादिरयाणि ॥ १०३ ॥ [ १, ५, १००० इस सूत्र का अर्थ सुगम है, क्योंकि, बहुतवार पहले प्ररूपण किया जा चुका है । उक्त कल्पवासी देवोंका उत्कृष्ट काल यथाक्रमसे बीस, वाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम है ॥ १०० ॥ इन सूत्रोक्त आरण-अच्युतादि ग्यारह कल्पोंमें उत्कृष्ट आयुको बांधकर और देवों में उत्पन्न होकर, अपनी अपनी आयुस्थितिको परिपालन करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपने अपने कल्पका कहा गया उत्कृष्ट काल पाया जाता है । उक्त ग्यारह कल्पों में सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका काल ओके समान है ॥ १०१ ॥ क्योंकि, ओघसे नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा इनके काल में कोई भेद नहीं है । अनुदिश विमानवासी देवोंमें तथा अनुत्तरनामक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥ १०२ ॥ क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे विरहित उक्त तेरह विमान किसी भी कालमें नहीं पाये जाते हैं । नौ अनुदिश विमानोंमें एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल सातिरेक इकतीस सागरोपम और चार अनुत्तर विमानों में साधिक बत्तीस सागरोपम है ॥ १०३ ॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १०६.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं [३८७ कुदो ? गुणंतरं संकंतीए अभावादो । एत्थ सादिरेयपमाणमेगो समओ, हेडिल्लुकिस्सहिदी समयाहिया उवरिल्लाणं जहण्णहिदी होदि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसादो। उकस्सेण वत्तीस, तेत्तीस सागरोवमाणि ॥ १०४॥ __णवसु हेद्विमेसु अणुदिसविमाणेसु वत्ती सागरोवमाणि । चदुसु अणुत्तरविमाणेसु तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि, सुत्ते हि ऊणाहियवयणाभावा । सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १०५ ॥ तिसु वि कालेसु तत्थ असंजदसम्मादिविविरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥१०६॥ पुध सुत्तारंभादो चेव णव्यदे सबट्ठसिद्धिम्हि जहण्णुक्कस्सहिदी सरिसा ति । पुणो जहण्णुक्कस्सगहणं किमहूँ कीरदे ? ण तस्स मंदबुद्धिजणाणुग्गहद्वत्तादो । एवं गदिमग्गणा समत्ता । क्योंकि, इन विमानोंमें अन्य गुणस्थानके संक्रमणका अभाव है। यहां पर सातिरेक (साधिक) का प्रमाण एक समय है, क्योंकि, एक समय अधिक नीचे के विमानकी उत्कृष्ट स्थिति ही ऊपरके विमानकी जघन्य स्थिति होती है, ऐसा आचार्य-परम्परागत उपदेशसे जाना जाता है। उक्त विमानोंमें उत्कृष्ट काल यथाक्रमसे बत्तीस सागरोपम और तेतीस सागरोपम है ॥ १०४॥ अधस्तन नौ अनुदिश विमानों में पूरे बत्तीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट काल है। चारों अनुसरविमानोंमें पूरे तेत्तीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट काल है, क्योंकि, सूत्र में हीन और अधिकताके प्रतिपादक वचनका अभाव है। ___ सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥१०५॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें वहां, अर्थात् सर्वार्थसिद्धि में, असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके विरहका अभाव है। सर्वार्थसिद्धि में एक जीवकी अपेक्षा जघन्य तथा उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है ॥ १०६॥ शंका-पृथक् सूत्रके आरम्भसे ही जाना जाता है कि सर्वार्थसिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति सदृश है। फिर भी सूत्रमें जघन्य और उत्कृष्ट पदका ग्रहण किस लिए किया ? समाधान -नहीं, क्योंकि, उस पदका ग्रहण मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिए किया गया है। इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई । १ अ-कपत्योः मंदबुद्धिजहण्णाणु-' इति पाठः। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १०७. इंदियाणुवादेण एइंदिया केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १०७॥ तिसु वि कालेसु एइंदियाणं विरहाभावादो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०८ ॥ अणेइंदियस्स एइंदिएसुप्पञ्जिय सव्वजहण्णमेइंदियद्धमच्छिय अणेइंदिए उप्पण्णस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तएइंदियकालुवलंभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियढें ॥ १०९ ॥ अणेइंदिओ एइंदिएसुप्पज्जिय अदिबहुअं कालं जीद अच्छदि तो आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि चेव पोग्गलपरियट्टाणि अच्छदि । कुदो ? एदम्हादो उवरि अच्छणसत्तीए अभावा । इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १०७ ॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें एकेन्द्रिय जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है॥ १०८॥ क्योंकि, एकेन्द्रियसे रहित अन्य द्वीन्द्रियादिक जीवका एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर, सर्वजघन्य एकेन्द्रिय जीवकी आयुके कालप्रमाण रह करके, पुनः एकेन्द्रियोंसे भिन्न अन्य ग्रीन्द्रियादि जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण एकेन्द्रिय जीवका काल पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है॥ १०९ ॥ एकेन्द्रियोंसे भिन्न अन्य कोई जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर यदि अत्यधिक काल रहता है, तो आवलीके असंख्यातवें भागमात्र ही पुद्गलपरिवर्तन रहता है, क्योंकि, इस उक्त कालसे ऊपर एकेन्द्रियों में रहनेकी शक्तिका अभाव है। १ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स.सि. १,.. २ एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १, ८, उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येया: पुदलपरिवर्ताः। स. सि. १,८. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ११२. ] कालानुगमे एइंदियकालपरूवणं [ ३८९ बादरएइंदिया केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११० ॥ बादरेइंदियविरहिदकालाभावादो । किमहं तेसिं णत्थि विरहो ? सहावदो । एगजीवं पहुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १११ ॥ इंदियस हुमेदियस्स वा बादरेइंदिएसु सव्वजहण्णाउवएसुप्पज्जिय अणिदियं गदस्त खुद्दाभवग्गहण मेत्तबादरे इंदियभवद्विदीए उवलंभा । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसपिणि उस्सप्पिणीओ ॥ ११२ ॥ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो अणेयवियप्पो ति कट्टु पदरावलियां दिट्ठिमवियपाणं पडिसेहं काढूण उवरिमवियप्पगहणङ्कं असंखेज्जासंखेज्जाणि ति णिद्देसो कदो पदर - पल्लादिउवरिमवियप्पपडिसेहहुं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिणिद्देसो कदो । अणेइंदिओ सुहुमेइंदिओ वा बादरेईदिएंसु उपज्जिय तत्थ जदि सुट्टु महल्लं कालमच्छदि तो असंखेज्जा 1 बादर एकेन्द्रिय जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ११० ॥ क्योंकि, बादर एकेन्द्रिय ओवोंसे रहित कालका अभाव है । शंका- उनका विरह क्यों नहीं होता है ? समाधान - क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभव ग्रहणप्रमाण है ॥ १११ ॥ क्योंकि, किसी अन्य द्वीन्द्रियादि जीवका, अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवका सर्व जघन्य आयुवाले बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पुनः अन्य द्वीन्द्रियादिमें उत्पन्न हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण बादर एकेन्द्रिय जीवोंकी भवस्थिति पाई जाती है । एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्याता संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी प्रमाण है ।। ११२ ॥ अंगुलका असंख्यातवां भाग अनेक विकल्परूप है, इसलिए प्रतरावली आदि अधस्तन विकल्पोंका प्रतिषेध करके उपारम विकल्पोंके ग्रहण करनेके लिए सूत्र में ' असं क्याता संख्यात ' ऐसा निर्देश किया । प्रतर, पल्य आदि उपरिम 'विकल्पों के प्रतिषेध करनेके लिए अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी' इस पदका निर्देश किया है। अन्य द्वीन्द्रियादि अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय कोई जीव बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर वहां पर यदि अति दीर्घकाल १ प्रतिष्ठ 'पदरावलियाओ ' इति पाठः । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ११३. संखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ अच्छदि । पुणो णिच्छएण अण्णत्थ गच्छदि त्ति जं वुत्तं होदि । कम्मद्विदिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरद्विदी जादा ति परियम्मवयणेण सह एवं सुत्तं विरुज्झदि त्ति दस्स ओक्खत्तं, सुत्ताणुसारि परियम्मवयणं ण होदि त्ति तस्सेव ओक्खत्तप्पसंगा। बादरेइंदियपज्जता केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११३ ॥ कुदो ? बादरेइंदियपज्जत्ताणं तिसु वि कालेसु विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ११४ ॥ खुद्दाभवग्गहणं संखेज्जावलियमेतं, एगं मुहुतं छासट्ठिसहस्स-तिसद-छत्तीसरूवमेत्तखंडाणि कादूण एगखंडमेत्तत्तादो । एदं पि कधं णव्यदे ? तिणि सया छत्तीसा छावहि सहस्स चेव मरणाई । अंतोमुहुत्तकाले तावदिया होंति खुद्दभवा ॥ ३५ ॥ तक रहता है, तो असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक रहता है। पुनः निश्चयसे अन्यत्र चला जाता है, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए। शंका-'कर्मस्थितिको आवलीके असंख्यातवें भागले गुणा करने पर बादर स्थिति होती है। इस प्रकारके परिकर्म-वचनके साथ यह सूत्र विरोधको प्राप्त होता है ? समाधान-परिकर्म के साथ विरोध होनेसे इस सूत्रके अवक्षिप्तता (विरुद्धता) नहीं प्राप्त होती है, किन्तु परिकर्मका उक्त वचन सूत्रका अनुसरण करनेवाला नहीं है, इसलिए उसके ही अवक्षितताका प्रसंग आता है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ११३॥ क्योंकि, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंका तीनों ही कालों में विरह नहीं होता है। ___ एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त है ॥ ११४॥ क्षुद्रभवग्रहणका काल संख्यात आवलीप्रमाण होता है, क्योंकि, एक मुहूर्तके छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस रूपप्रमाण खंड करने पर एक खंडप्रमाण क्षुद्रभवका काल होता है। शंका-यह भी कैसे जाना! समाधान- एक अन्तर्मुहूर्त कालमें छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस मरण होते हैं, और इतने ही क्षुद्रभव होते हैं ॥ ३५॥ १ छत्तीसं तिणि सया गवद्विसहस्सवारमरणाणि । अंतो हुतमझे पत्तोसि णिगोयवासम्मि ॥ भावपा. १८. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ११४. ] कालानुगमे एइंदियकालपरूवणं ति गाहासुत्तादो | मुहुस्स एवदियभागो संखेज्जावलियमेत्तो त्ति कथं नव्वदे १ आवलिय अणगारे चक्खिदिय - सोद - घाण - जिह्वाए । मण वयण कायफासे अवाय - ईहासुदुस्सा ॥ ३६॥ केवलदंसण- णाणे कसायसुक्क्कए पुधत्ते य । पडिवादुवसातय खवेंतए संपराए य ॥ ३७ ॥ माणद्धा कोधद्धा मायद्धा तह चेव लोभद्धा । खुदभवग्गणं पुण किट्टीकरणं च बोद्धव्वं ॥ ३८ ॥ इस गाथासूत्र से जाना जाता है कि क्षुद्रभवका काल अन्तर्मुहूर्तका छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीसवां भाग है । [ ३९१ शंका- मुहूर्तका छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीसवां भाग संख्यात आवलीप्रमाण होता है, यह कैसे जाना ? समाधान - अनाकार दर्शनोपयोगका जघन्य काल आगे कहे जानेवाले सभी पदोंकी अपेक्षा सबसे कम है । ( तथापि वह संख्यात आवलीप्रमाण है ।) इससे चक्षुरिन्द्रियसम्बन्धी अवग्रद्दज्ञानका जघन्य काल विशेष अधिक है । इससे, श्रोत्रेन्द्रियजनित अवग्रहशान, इससे घ्राणेन्द्रियजनित अवग्रहज्ञान, इससे जिह्वेन्द्रियजनित अवग्रहज्ञान, इससे मनोयोग, इससे वचनयोग, इससे काययोग, इससे स्पर्शनेन्द्रियजनित अवग्रहज्ञान, इससे अवायज्ञान, इससे ईहाज्ञान, इससे श्रुतज्ञान और इससे उच्छ्वास, इन सबका जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है ॥ ३६ ॥ तद्भवस्थ केवलीके केवलज्ञान और केवलदर्शन, तथा सकषाय जीवके शुक्ललेश्या, इन तीनोंका जघन्य काल ( परस्पर सदृश होते हुए भी) उच्छ्रासके जघन्य काल से विशेष अधिक है। इससे एकत्ववितर्कअवीचारशुक्लध्यान, इससे पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यान, इससे उपशमश्रेणीले गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायसंयत, इससे उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले सूक्ष्मसाम्परायसंयत, और इससे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले सूक्ष्मसाम्परायसंयत, इन सबका जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है ॥ ३७ ॥ क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके जघन्य कालसे मानकषाय, इससे क्रोधकषाय, इससे मायाकषाय, इससे लोभकषाय और इससे लब्ध्यपर्याप्त जीवके क्षुद्रभवग्रहणका जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है । क्षुद्रभवग्रहणके जघन्य कालसे कुष्टीकरणका जघन्य काल विशेष अधिक है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ३८ ॥ १ कसायपाहुडे अद्धापरिमाणाधिकारे १-३. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ११५. इदि गाहासुत्तादो। अंतोमुहुत्तं पि संखेजावलियमेत्तं चेव, तदो एदेसिं दोण्हं विसेसो णत्थि त्ति अंतोमुहुत्तवयणं सुत्तत्थं संदेहमुप्पादेदि त्ति' वुत्ते णत्थि संदेहो, खुद्दाभवग्गहणमभणिय अंतोमुहुत्तमिदि भणिदजिणाणादो ताणं विसेसो अत्थि त्ति अवगम्मदे । घादखुद्दाभवग्गहणादो बादरेइंदियपज्जत्तजहण्णाउअं संखेज्जगुणमिदि भणिदवेअणकालविधाणअप्पाबहुगादो य । बादरेइंदियपज्जत्तवदिरित्तो सधजहण्णाउअवादरेइंदियपज्जत्तएसु उप्पज्जिय अण्णत्थ गदे बादरेइंदियपज्जत्तस्स जहण्णकालो लब्भदि ति भणिदं होदि । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ॥ ११५॥ पुढविकाइएसु वावास वाससहस्साणि उक्कस्साउअं सुप्पसिद्धमत्थि । बादरेइंदियपज्जत्तभवहिदी असंखेज्जवासमेत्ता किण्ण होदि ति धुत्ते ण होदि, तत्थासंखेज्जवार इन गाथासूत्रोंसे जाना जाता है कि क्षुद्रभवका काल भी संख्यात आवलीप्रमाण होता है। शंका-अन्तर्मुहूर्त भी तो संख्यात आवलीप्रमाण ही होता है, इसलिए अन्तर्मुहूर्त भौर क्षुद्रभवग्रहण काल, इन दोनों में कोई भेद नहीं है। अतएव यह अन्तर्मुहूर्तका वचनरूप सूत्रार्थ सन्देहको उत्पन्न करता है? समाधान- इसमें कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि, सूत्र में 'क्षुद्रभवग्रहण' ऐसा पाठ न करके 'अन्तर्मुहूर्त' ऐसा वचन कहनेवाली जिन-आज्ञासे उन दोनों में भेद जाना जाता है। तथा, 'घातक्षुद्रभवग्रहणकालसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवकी जघन्य आयु संख्यातगुणी है' इस प्रकारके कहे गये वेदनाकालविधानसम्बन्धी अल्पबहुत्वद्वारसे भी जाना जाता है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकसे व्यतिरिक्त किसी जीवके सर्व जघन्य आयुवाले बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर, पुनः अन्य पर्यायमें चले जाने पर, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका जघन्य काल पाया जाता है, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए । एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षे है ॥ ११५ ॥ पृथिवीकायिक जीवों में बाईस हजार वर्षकी उत्कृष्ट आयु सुप्रसिद्ध है। शंका-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंकी भवस्थिति असंख्यात वर्षप्रमाण क्यों नहीं होती है ? समाधान नहीं होती है, क्योंकि, उनमें असंख्यातवार एक जीवकी उत्पत्ति १ प्रतिषु 'मुप्पादेत्ति ' इति पाठः। २ प्रतिषु जहण्णाउअ.' इति पाठः। ३ प्रतिषु मुत्तसिद्ध-' इति पाठः। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ११८.] कालाणुगमे एईदियकालपरूवणं [ ३९१ मेगजीवस्स उप्पत्तीए असंभवा । उक्कस्ससंखेन्जमेतं तस्स संखेज्जभागमेत्तं वा वारं जदि उप्पज्जदि तो वि असंखेज्जाणि वस्साणि होति त्ति वुत्ते ण होति, संखेज्जाणि वाससहस्साणि त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीदो तप्पाओग्गसंखेज्जवारुप्पत्तिसिद्धीए । अणप्पिदो बादरेइंदियपज्जत्तएसु संखेज्जाणि वाससहस्साणि उकस्सेण तत्थ परिभमिय पुणो अणपिदेसु णिच्छएण उप्पज्जदि त्ति भणिदं होदि । बादरेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११६ ॥ कुदो ? एदेसि सव्वद्धासु विरहाभावादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११७ ॥ कुदो ? अपज्जत्तएसु जहणियाए आउद्विदीए तत्तियमेत्ताए' उवलंभा। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ११८ ॥ कुदो ? अणप्पिदिदिओ बादरेइंदियअपजत्तएसु उप्पज्जिय जदि वि संखेज्ज असंभव है। शंका-यदि कोई जीव बादर एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण वार, अथवा उसके संख्यातवें भागप्रमाण वार उत्पन्न होता है, तो भी असंख्यात वर्ष तो हो ही जाते हैं ? समाधान नहीं होते हैं, क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय, तो बादर एकेन्द्रिय . जीवोंका उत्कृष्ट काल 'संख्यात हजार वर्षप्रमाण है' यह सूत्र-वचन नहीं बन सकता है। इसलिए तत्प्रायोग्य संख्यातवार ही बादर एकेन्द्रियोंकी उत्पत्ति सिद्ध होती है। अविवक्षित कोई जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यातसहन वर्षप्रमाण अधिकसे अधिक काल तक उनमें परिभ्रमण करके पुनः अविवक्षित जीवोंमें निश्वयसे उत्पन्न होता है, यह अर्थ कहा गया समझना चाहिए । बादर एकेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ११६ ॥ क्योंकि, सभी कालों में इन जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥११७॥ क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें जघन्य आयुकी स्थिति उतनेमात्र अर्थात् क्षुद्रभव. ग्रहणप्रमाण ही पाई जाती है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ११८ ॥ क्योंकि, अविवक्षित इन्द्रियवाला कोई जीव बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें १ प्रतिषु । तत्तियमेसा' इति पाठः। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ११९. सहस्सवारं तत्थैव तत्थेव उप्पज्जदि, तो वि तेसु सम्बेसु अंतोमुहुत्तेमु एगट्ठ कदेसु वि एगमुहुत्तपमाणाभावा । सुहुमएइंदिया केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११९ ॥ कुदो ? सबद्धा सुहुमेइंदियविरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुदाभवग्गहणं ॥ १२० ॥ अणप्पिदिदियस्स सुहुमेइंदियअपजत्तएसु सबजहण्णकालमच्छिय अणप्पिदिदियं गदस्स खुद्दाभवग्गहणुवलंभा। उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ १२१ ॥ तं जहा- अणिदिएहितो आगंतूण सुहुमेइंदिएसुप्पज्जिय असंखेज्जलोगमेत्तं तेसिमुक्कस्सभवहिदि तत्थ गमिय अणिदियं गच्छदि । कुदो ? हे उसरूवजिणवयणोवलंभादो। सुहुमेइंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो हॉति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १२२॥ उत्पन्न होकर यद्यपि संख्यात सहस्रवार उन उनमें ही उत्पन्न होता है, तथापि उन सभी अन्तर्मुहूतौके एकत्रित करने पर भी एक मुहूर्तप्रमाणका अभाव है, अर्थात् फिर भी पूरा एक मुहूर्त नहीं होता है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ११९ ॥ क्योंकि, सभी कालों में सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१२०॥ क्योंकि, अविवक्षित इन्द्रियवाले जीवके सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सर्व जघन्य काल रह करके अविवक्षित इन्द्रियवाले जीवों में गये हुए जीवके श्रुद्रभवग्रहणप्रमाण जघन्य काल पाया जाता है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकके जितने प्रदेश हैं, तत्प्रमाण है ॥ १२१॥ जैसे, अविवक्षित अन्य इन्द्रियवाले जीवोंसे आकर, सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर कोई जीव असंख्यात लोकप्रमाण उनकी उत्कृष्ट भवस्थितिको वहां पर बिताकर अन्य इन्द्रियवाले जीवों में चला जाता है, क्योंकि, इस प्रकारके हेतुस्वरूप जिन-वचन पाये जाते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १२२ ॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १२४.] कालाणुगमे एइंदियकालपरूवणं __[३९५ सव्वद्धासु विरहाभावा । सो वि कधं णबदे ? अण्णहाणुववत्तिहेउलक्खणोवलक्खियजिणवयणादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १२३ ॥ केम्महतं ? तेसिं जहण्णाउट्ठिदिमेत्तं । एत्थ खुद्दाभवग्गहणं किण्ण लब्भदे ? ण, अपज्जत्ते मोत्तूण अण्णत्थ तस्स संभवाभावा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२४ ॥ एगाउद्विदी संखेज्जावलियमेत्ता त्ति कटु संखेज्जवारं वा तत्थेव पुणो पुणो उप्पज्जमाणस्स दिवस-पक्ख-मास-उडु-अयण-संवच्छरादिकालो किण्ण लब्भदे ? ण, तेत्तिय. वारं तत्थुप्पत्तीए असंभवा । सो वि कधं णव्वदे ? अंतोमुहुत्तवयणण्णहाणुववत्तीदो । कथं क्योंकि, सभी कालोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके विरहका अभाव है। शंका- यह भी कैसे जाना ? समाधान- अन्यथानुपपत्तिस्वरूप हेतुके लक्षणसे उपलक्षित जिन-वचनसे जाना जाता है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव सर्वदा रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १२३॥ शंका-यह अन्तर्मुहूर्त काल कितना बड़ा लेना चाहिए ? समाधान-उनकी, अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंकी जघन्य आयुके कालप्रमाण लेना चाहिए। शंका-इस सूत्रमें 'अन्तर्मुहूर्त' के स्थानपर 'क्षुद्रभवग्रहण' इस पदका उपादान क्यों नहीं किया गया? समाधान- नहीं, क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्तक जीवों को छोड़कर अन्यत्र उसका, अर्थात् क्षुद्रभवका होना संभव नहीं है। सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१२४ ॥ शंका-जब कि एक आयुकर्मकी स्थिति संख्यात आवलीप्रमाण है, तब संख्यातपार वहां पर ही पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाले जीवके दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, अथवा संवत्सर आदि प्रमाण स्थितिकाल क्यों नहीं पाया जाता है ? . समाधान नहीं, क्योंकि, उतने वार उस पर्याय में उत्पत्ति होना असंभव है, जितने वारमें कि मास, वर्ष आदि प्रमाण स्थितिकाल पाया जा सके। शका-यह भी कैसे जाना? . समाधान-अन्यथा, सूत्रमें 'अन्तर्मुहूर्त' ऐसा वचन नहीं हो सकता था, इस भन्यथानुपपत्तिले जाना। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ] छक्खंडागमे जीवाण [ १, ५, १२५. सज्झ-साहणाणमेयत्तं ? ण, पमाणेणाणेयंता । किंतु एगजीवजहण्णआउट्ठदिकालादो तस्से बुक्कस्सभवट्टिदिकालो संखेज्जगुणो णाणा आउट्ठिदिसमूहणिष्फण्णत्तादो । सुहुमेइंदिय अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ।। १२५ ॥ सुगममेदं सुत्तं, बहुसो परुविदत्तादो । कधमेग बहुवयणाण मेगमहियरणं ? ण एस दोसो, सव्वत्थ दोण्हमण्णोष्णाविणाभाववलंभा । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १२६ ॥ असंजद सम्मादिट्ठीणमवहारकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो वि होतो अंतोमुहुत्तमिदि सुत्ते णिद्दिट्ठो । एसेो अपज्जत्ताउदी जहणिया संखेज्जावलियमेत्ता अंतमुत्तमदि सुत्ते किण्ण वृत्ता ? ण एस दोसो, पज्जत्ताउआदो अपज्जत्तजहण्णाउअं संखेज्जगुणहीणमिदि पदुप्पायणङ्कं खुद्दाभवग्गहणस्सुवदेसा । शंका - साध्य और साधन, इन दोनोंके एकत्व कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उक्त कथन में प्रमाणसे अनेकान्त है, अर्थात्, प्रमाण स्वयं साध्य होते हुए भी अन्यका साधक होता है । किन्तु यथार्थ बात यह है कि एक जीवकी जघन्य आयुस्थितिके कालसे उसीकी उत्कृष्ट भवस्थितिका काल संख्यातगुणा होता है, क्योंकि, वह नाना आयुस्थितियोंके समूह से निष्पन्न होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १२५ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, पहले बहुतवार प्ररूपण किया गया है । शैका - एकवचन और बहुवचन, इन दोनोंका एक अधिकरण कैसे हो सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सर्वत्र ही एकवचन और बहुवचन, इन दोनोंका अविनाभावसम्बन्ध पाया जाता है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १२६ ॥ शंका- असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें भागमात्र होता हुआ भी ' अन्तर्मुहूर्त है' ऐसा सूत्रमें निर्देश किया गया है । फिर यह लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की जघन्य आयुस्थिति संख्यात आवलीप्रमाण होते हुए भी ' अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है' ऐसा सूत्रमें क्यों नहीं कहा ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, पर्यातक जीवोंकी ( जघन्य ) आयुसे लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंकी जघन्य आयु संख्यातगुणी हीन होती है, यह बतलानेके लिए सूत्र में क्षुद्रभवग्रहणका उपदेश दिया गया है । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १३०. ] काला विगलिदियकालपरूवणं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।। १२७ ॥ सुगममेदं सुतं, बहुसो परुविदत्तादो । बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया बीइंदिय-ती इंदिय - चउरिंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १२८ ॥ उवदेसेण विणा जाणिज्जदि चि सुगममेदं सुत्तं । 4 एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, अंतोमुहुत्तं ॥ १२९ ॥ जहा उद्देमो तहा णिद्देसो ' त्ति णायादो वि-ति- चउरिंदियाणं जहण्णकालो खुद्दाभवग्गहणं, तत्थ अपज्जत्ताणं संभवा । पज्जत्ताणं अंतोमुहुत्तं, तत्थ खुद्दा भवग्गहणस्स संभवाभावा । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्वाणि ॥ १३० ॥ तीइंदियाण मे गूणवण्णदिवसा उक्कस्साउडिदिपमाणं, चउरिंदियाणं छम्मासा, बीइंदि उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।। १२७ ॥ पहले बहुतवार प्ररूपण किये जाने से यह सूत्र सुगम है । द्वन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा द्वीन्द्रियपर्याप्तक, त्रीन्द्रियपर्याप्सिक और चतुरिन्द्रियपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। १२८ ॥ उपदेशके बिना ही जाना जाता है कि यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्रमशः क्षुद्रभवग्रहण और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ।। १२९ ॥ ' जैसा उद्देश होता है, वैसा ही निर्देश होता है' इस व्यायसे सामान्य द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है, क्योंकि, उनमें लब्ध्यपर्याप्त जीवोंकी संभावना है। किन्तु पर्याप्तक जीवोंका काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, उनमें क्षुद्रग्रहणकी संभावना नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है ॥ १३० ॥ श्रीन्द्रिय जीवोंकी उमंचास दिवस उत्कृष्ट आयुस्थितिका प्रमाण है, चतुरिन्द्रिय १ विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीव प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रह्णम् । स. सि. १,८० ३ उत्कर्षेण संख्येयानि वर्षसहस्राणि । स. सि. १,८. [ ३९७ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ] क्खडागमे जीवाणं [ १, ५, १३१. या वारस वासा। जदो एवं, तदो संखेजाणि वाससहस्साणि त्तिण घडदे ? ण एस दोस्रो, दाओ गाउट्ठदीओ । एदाहि ण एत्थ कज्जमत्थि, भवद्विदीए अहियारादो । का भवट्ठिदी णाम ? आउडिदिसमूहो । जदि एवं, तो असंखेज्जाणि वाससहस्साणि भवद्विदी किण्ण होदि ? ण एस दोसो, असंखेज्जवारं संखेज्जवाससहस्सविरोहि संखेज्जवारं वा तत्थुपत्तीए संभवाभावा । अणपिदिदिएहिंतो आगंतूग अप्पिदिदिएसु उपज्जिय संखेज्जाणि चैव हिंडदि, असंखेज्जाणि ण परिभ्रमदित्ति वृत्तं होदि । बीइंदिय - तीइंदिय - चउरिंदिया अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा ॥ १३१ ॥ उवदेसेण विणा एदस्स सुत्तस्स अत्थो णव्वदे | एगजीवं पच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३२ ॥ सुगममेदं सुतं । जीवोंकी छह मास और द्वीन्द्रिय जीवोंकी बारह वर्ष उत्कृष्ट आयुस्थिति होती है । शंका- यदि ऐसा है, तो सूत्र में कही गई संख्यात हजार वर्षों की स्थिति नहीं घटित होती है समाधान- - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, बतलाई गई स्थितियां एक आयुसम्बन्धी हैं, इनसे यहां पर कोई कार्य नहीं है । किन्तु यहां पर भवस्थितिका अधिकार है । शंका - भवस्थिति किसे कहते है ? समाधान - अनेक आयुस्थितियोंके समूहको भवस्थिति कहते हैं । शंका- यदि ऐसा है, तो असंख्यात हजार वर्षप्रमाण भवस्थिति क्यों नहीं होती है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, असंख्यातवार, अथवा संख्यात वर्षसहस्रके विरोधी संख्यातवार भी उनमें उत्पत्ति होनेकी संभावनाका अभाव है । अविवक्षित इन्द्रियवाले जीवोंसे आ करके विवक्षित इन्द्रियवाले जीवों में उत्पन्न होकर, संख्यातसहस्र वर्ष ही भ्रमण करता है, असंख्यातवर्ष भ्रमण नहीं करता है, ऐसा अर्थ कहा हुआ समझना चाहिए । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १३१ ॥ उपदेशके विना ही इस सूत्रका अर्थ ज्ञात है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १३२॥ यह सूत्र सुगम है। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १३५.] कालाणुगमे पंचिंदियकालपरूवणं [३२९ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १३३ ॥ एदं पि सुगम चेव । णवरि वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियअपज्जत्ताणं जहाकमेण अंतरविरहिया असीदि-सद्वि-चालीसअपज्जत्तभवा । जदि वि एत्तियवारमेगो जीवो तत्थतणुक्कस्सहिदीए उप्पज्जदि, तो वि तब्भवद्विदिकालसमासो अंतोमुहुत्तमेत्तो चेव । कधमेदं णव्वदे ? अंतोमुहुन्नुवदेसण्णहाणुववत्तीदो। पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १३४ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १३५॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो जधा मूलोघम्हि मिच्छत्तस्स जहण्णकालपरूवणासुत्तस्स वुत्तो तधा वत्तव्यो । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १३३ ॥ यह सूत्र भी सुगम ही है। विशेष बात यह है कि द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके यथाक्रमसे अन्तररहित होकर अस्सी, साठ और चालीस लब्ध्यपर्याप्तक भव होते हैं । यद्यपि इतने बार एक जीव उनकी उत्कृष्ट स्थिति उत्पन्न, होता है, तो भी उनकी भवस्थितिके कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है। शंका-यह कैसे जानते है ? समाधान- अन्यथा, सूत्रमें अन्तर्मुहूर्तका उपदेश हो नहीं सकता था। इस अन्यथानुपपत्तिसे जानते हैं कि उन भवोंका जोड़ अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १३४॥ ... यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥ १३६ ॥ इस सूत्रका अर्थ जैसा कालप्ररूपणाके मूलोघमें मिथ्यात्वके जघन्य कालकी प्ररूपणा करनेवाले सूत्रका कहा है, वैसा ही यहां कहना चाहिए । १ प्रतिषु 'वीओ' इति पाठः। २ पंचेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, .. Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, १३९. ___ उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, सागरोवमसदपुधतं ॥ १३६ ॥ 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो' त्ति णायादो पंचिंदियाणं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसहस्साणि, पंचिंदियपज्जत्ताणं सागरोवमसदपुधत्तं । एदस्सुदाहरणं-एक्को एईदियादो विगलिंदियादो वा आगंतूण पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु उववञ्जिय सगहिदि. मच्छिय अणिदियं गदो । एकस्सेव सागरोवमसहस्सस्स सुवतन्भूदबहुत्तमवेक्खिय सागरोवमसहस्साणि ति सुत्ते बहुवयणणिद्देसो कदो।। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ ॥१३७॥ कुदो ? ओघादो णाणेगजीवसासणादिकालाणं भेदाभावा । पंचिंदियअपज्जता बीइंदियअपज्जत्तभंगो ॥ १३८ ॥ उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र और सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण है ॥ १३६ ॥ 'जैसा उद्देश होता है, तथैव निर्देश होता है। इस न्यायसे सामान्य पंचेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र है, तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है। अब इन दोनों कालोंका उदाहरण कहते हैं- कोई एक जीव एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रियसे आकर पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होकर, अपनी स्थिति तक रह कर, अन्य इन्द्रियको चला गया। यहां पर एक ही सागरोपमसहस्रके, अपने अन्तर्गत बहुत्वको देखकर 'सागरोपमसहस्र' ऐसा सूत्रमें बहुवचनका निर्देश किया गया है। __सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके जीवोंका काल ओषके समान है ॥ १३७॥ क्योंकि, ओघप्ररूपणासे नाना और एक जीवसम्बन्धी सासादनादि गुणस्थानोंके कालोंमें भेदका अभाव है। पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका काल द्वीन्द्रिय लम्ध्यपर्याप्तक जीवोंके कालके समान है ॥ १३८ ॥ १ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्याधिकम् । स. सि. १, ८. १शेषाण सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०१ १, ५, १५१.] कालाणुगमे थावरकाइयकालपरूवणं णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमिच्चाइणा भेदाभावा । णवरि पंचिंदियअपजत्तएसु णिरंतरुप्पज्जणभववारा चउवीस होति । एवमिंदियमग्गणा समत्ता । __ कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १३९ ॥ कुदो ? सव्वद्धासु एदेसिं संताणस्स विच्छेदाभावा ।। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४० ॥ एदस्सुदाहरणं- एगो अणप्पिदकाइओ जीवो अप्पिदकाइएसु उप्पज्जिय सम्बजहणं कालमच्छिय अणप्पिदकाइयं गदो । लद्धो जहण्णेण खुद्दाभवग्गणकालो। उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ १४१ ॥ नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है, उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इत्यादिक रूपसे कोई भेद नहीं है। विशेष बात यह है कि पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में लगातार निरन्तर उत्पन्न होनेके भववार चौवीस होते हैं । इस प्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई। कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते है ॥ १३९ ॥ क्योंकि, सभी कालोंमें इन पृथिवीकायिकादिकोंकी संतान-परम्पराका विच्छेद नहीं होता है। .. एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१४॥ __इसका उदाहरण-अविवक्षित कायवाला कोई एक जीव विवक्षित कायवाले जीवों में उत्पन्न होकर सर्व जघन्य काल रह कर अविवक्षित कायको प्राप्त हुआ। तब क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण जघन्य काल उपलब्ध हुआ। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है ॥ १४१॥ १ कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकाना नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः। स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि.१, ८. ३ उत्कर्षेणासंख्येयः कालः । स. सि. १,८. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १४२. एदस्सुदाहरणं- एगो अणप्पिदकाइओ अप्पिदकाइएसु उप्पज्जिय सव्वुक्कस्सियं अप्पिदकाइयविदिमसंखेज्जलोगमेत्तं परिभमिय अणप्पिदकायं गदो।। बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवाउकाइया बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १४२ ॥ कुदो ? सव्वकालमणुच्छिण्णसंताणत्तादो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४३॥ एदस्सुदाहरणं- एगो अणप्पिदकाइओ अप्पिदकाइयअपजत्तएसु उववज्जिय सव्वजहण्णमाउद्विदि गमिय अणप्पिदकाइएसु उववण्णो। लद्धो जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणकालो। उक्कस्सेण कम्मट्टिदी ॥ १४४ ॥ कम्मट्ठिदि त्ति वुत्ते किं सव्वेसि कम्माणं द्विदीओ घेप्पंति, आहो एक्कस्स चेय दिदी घेप्पदि त्ति ? सव्वकम्माणं विदीओ ण घेप्पंति, किंतु एक्कस्सेव कम्मद्विदी घेप्पदि । इसका उदाहरण-अविवक्षित कायवाला कोई एक जीव विवक्षित पृथिवीकायिक आदि जीवोंमें उत्पन्न होकर विवक्षित कायकी असंख्यात लोकप्रमाण सर्वोत्कृष्ट स्थिति तक परिभ्रमण करके पुनः अविवक्षित कायको प्राप्त हो गया। बादरपृथिवीकायिक, बादरजलकायिक, बादरतेजस्कायिक, बादरवायुकायिक और बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १४२ ॥ क्योंकि, इन सूत्रोक्त जीवोंकी सर्वकाल अविच्छिन्न संतान पाई जाती है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ।। १४३॥ इसका उदाहरण-अविवक्षित कायवाला कोई एक जीव विवक्षित कायके लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में उत्पन्न होकर वहां की सर्व जघन्य आयुस्थितिको बिताकर पुनः अविवक्षितकायिकोंमें उत्पन्न हो गया, तब क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण जघन्य काल उपलब्ध हुआ। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है ॥ १४४ ॥ शंका-'कर्मस्थिति' इस प्रकार कहने पर क्या सर्व कर्मोंकी स्थितियां ग्रहण की जा रही हैं, अथवा, एक ही कर्मकी स्थिति ग्रहण की जा रही है ? समाधान-सर्व कर्मों की स्थितियां नहीं ग्रहण की जा रही हैं, किन्तु एक मोहकर्मकी ही स्थिति यहां पर 'कर्मस्थिति' शब्दसे ग्रहण की जा रही है, क्योंकि, इस प्रकारका Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १४५. ] काला गमे थावर काइयकालपरूवणं [ ४०३ कुदो १ गुरुवदेसादो । तत्थ वि दंसणमोहणीयस्स चेय उक्कस्सट्ठिदीए सत्तरिसागरोवमकोडा कोडिमेत्ताए गहणं कादव्वं, पाहण्णियादो । कुदो पहाणत्तं ? संगहिदासेसकम्मsir | आइरिया कम्मट्ठिदीदो बादरट्ठिदी परियम्मे उप्पण्णा त्ति कज्जे कारणोवयारमवलंबिय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्टिदिसण्णमिच्छंति, तन्न घटते, 'गौण-मुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय ' इति न्यायात् । ण च बादराणं सामण्णेण वृत्तकालो बादरेगदेसाणं बादरपुढविकाइयाणं पि सो चेव होदि त्ति, विरोहा । सामण्णबादरट्ठिदिमण्णपयारेण परूविय संपि बादरपुढविट्ठिदि भण्णमाणे उवयारावलंबणे पओजणाभावा च । एदस्सुदाहरणं - अणपिबादरकाइओ अप्पिद बादरकाइएस उप्पज्जिय तत्थ सत्तरिसागरोवमकोडा कोडिमेत्तकालमच्छिय अणप्पिदबादरकाइयं गदो । बादरपुढविकाइय- बादर आउकाइय - बादरते उकाइय- बादरवाउकाइय-चादरवण'फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १४५ ॥ गुरुका उपदेश है । उसमें भी केवल दर्शनमोहनीय कर्मकी ही सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही प्रधान है । शंका - दर्शन मोहनीयकर्मकी स्थितिको प्रधानता कैसे है ? समाधान — क्योंकि, उसमें सर्व कर्मों की स्थिति संग्रहीत है । कितने ही आचार्य 'कर्मस्थिति से बादर स्थिति परिकर्ममें उत्पन्न है' इसलिये कार्य में कारणके उपचारका अवलम्बन करके बादरस्थितिकी ही 'कर्मस्थिति' यह संज्ञा मानते हैं, किन्तु वह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, 'गौण और मुख्य में विवाद होने पर मुख्यमें ही संप्रत्यय होता है' ऐसा न्याय है । दूसरी बात यह है कि वादरकायिक जीवोंका सामान्य से कहा हुआ काल, बादरकायिक जीवोंके एकदेशभूत बादर पृथिवीकायिकों का भी वही ही नहीं हो सकता है, क्योंकि, इसमें विरोध आता है । तथा, सामान्य बादरकायिक स्थितिको अन्य प्रकार से प्ररूपण करके अब बादरपृथिवीकायिककी स्थितिको कहने पर उपचारके आलम्बनमें कोई प्रयोजन भी नहीं है । अब उक्त कर्मस्थितिप्रमाण कालका उदाहरण कहते हैं- अविवक्षित बादरकायवाला कोई जीव विवक्षित बादरकायिकों में उत्पन्न होकर वहां पर सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण काल तक रह करके अविवक्षित बादरकायिकमें चला गया । यादरपृथिवीकायिकपर्याप्त, बादरजलकायिकपर्याप्त, बादरतेजस्कायिकपर्याप्त, बादरवायुकायिकपर्याप्त और बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरपर्याप्त जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। १४५ ।। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवाणं [१, ५, १४५. सव्वद्धासु एदेसिं विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहृत्तं ॥ १४६ ॥ एदस्सुदाहरणं-एगो अणप्पिदकाइओ अप्पिदकाइएसु उप्पज्जिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय अणप्पिदकायं गदो। उकस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ॥ १४७॥ सुद्धपुढविजीवाणमाउद्विदिपमाणं वारह वस्ससहस्सा (१२०००), खरपुढविकाइयाणं वावीस वस्ससहस्सा (२२०००), आउकाइयपज्जत्ताणं सत्त वाससहस्सा (७०००), तेउकाइयपज्जत्ताणं तिण्णि दिवसा (३), वाउकाइयपज्जत्ताणं तिणि वाससहस्साणि (३०००), वणप्फइकाइयपज्जत्ताणं दस वाससहस्साणि ( १०००० ) उक्कस्साउहिदिपमाणं होदि । एदासु आउद्विदीसु संखेज्जसहस्तवारमुप्पण्णे संखेज्जाणि वाससहस्साणि होति । उदाहरणं- एगो अणप्पिदकाइयो, अप्पिदकाइयपज्जत्तएसु उववण्णो । पुणो तम्हि चेव संखेजाणि वाससहस्साणि अच्छिय अणप्पिदकाइयं गदो । क्योंकि, सभी कालोंमें इन जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १४६ ॥ इसका उदाहरण-एक अविवक्षितकायिक कोई जीव विवक्षित कायवाले जीवों में उत्पन्न होकर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके अविवक्षित कायको प्राप्त हुआ। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है ॥ १४७ ॥ शुद्धपीथवीकाायक पर्याप्तक जीवोंकी आयुस्थितिका प्रमाण बारह हजार (१२०००) वर्ष है। खरपृथिवीकायिकपर्याप्तक जीवोंकी स्थितिका प्रमाण बाईस हजार (२२०००) वर्ष है। जलकायिकपर्याप्तक जीवोंकी स्थितिका प्रमाण सात हजार (७०००) वर्ष है। तेज. स्कायिकपर्याप्तक जीवोंकी स्थितिका प्रमाण तीन (३) दिवस है। वायुकायिकपर्याप्तक जीवोंकी स्थितिका प्रमाण तीन हजार (३०००) वर्ष है। वनस्पतिकायिकपर्याप्तक जीवोंकी स्थितिका प्रमाण दश हजार (१०००) वर्ष है। इन आयुस्थितियों में संख्यात हजार वार उत्पन्न होनेपर संख्यात सहस्र वर्ष हो जाते हैं। इसका उदाहरण-एक अविवक्षित कायवाला कोई जीव विवक्षित कायवाले पर्यातकों में उत्पन्न हुआ। पुनः उसी ही कायमें संख्यात सहस्र वर्ष रह करके अविवक्षित कायको प्राप्त हो गया। १पृथिवीकायिकाः द्विविधाः शुद्धपृथिवीकायिकाः खरपृथिवीकायिकाचेति । तत्र शुद्धपृथिवीकायिकानी उत्कृष्टा स्थितिदिश वर्षसहस्राणि । खरपृथिवीकायिकाना द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि । वनस्पतिकायिकानां दश वर्षसहस्राणि । अप्कायिकानां सप्तवर्षसहस्राणि । वायुकायिकाना त्रीणि वर्षसहस्राणि । तेजःकायिकानां त्रीणि रात्रिंदिवानि । त. रा. वा. ३, ३९. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १५१. ] कालानुगमे थावरकाइयकाल परूवणं [ ४०५ बादरपुढविकाइय- बादर आउकाइय - चादरते उकाश्य- बादरवाउकाय वादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीर अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा ॥ १४८ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४९ ॥ उदाहरणं - एगो अणपिदकाइओ अप्पिदकाइय अपजत्तएसु उववण्णो । तत्थ खुद्दाभवग्गहणमच्छियूण अणप्पिदं काइयं गदो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १५० ॥ उदाहरणं - एगो अगष्पिदकाइओ अप्पिदकाइएस उपज्जिय सब्बुक्कस्समंतोमुहुत्तकालं तत्थ परिभमिय अण्णकार्य गदो । सहमपुढविकाइया सुहुम आउकाइया सहुमते उकाइया सुहुमवाउकाइया सुहुमवणफदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्तापज्जत्ता सुहुमे इंदियपज्जत्त अपज्जत्ताणं भंगो ॥ १५१ ॥ बादरपृथिवीकायिकलब्ध्यपर्याप्तक, बादरजलकायिकलब्ध्यपर्याप्तक, बादरतेजस्कायिकलब्ध्यपर्याप्तक, बादरवायुकायिकलब्ध्यपर्याप्तक और बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीरलब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवांकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। १४८ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १४९ ॥ उदाहरण - एक अविवक्षित कायवाला कोई जीव विवक्षित कायवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में उत्पन्न हुआ । वहां पर क्षुद्रभवग्रहणकालप्रमाण रद्द करके पुनः अविवक्षित कायको प्राप्त हो गया । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १५० ॥ उदाहरण -- एक अविवक्षित कायिक जीव विवक्षित कायिक जीवोंमें उत्पन्न होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक उनमें परिभ्रमण करके पुनः अन्य कायमें चला गया । सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्मतेजस्कायिक, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, सूक्ष्मनिगोद जीव और उनके ही पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंका काल सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक और अपर्याप्तकोंके कालके समान है ।। १५१ ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १५२. कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। पज्जत्ताणमपज्जत्ताणं च अंतोमुहुत्तमिच्चेदेहि सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तेहि विसेसाभावा । वणप्फदिकाइयाणं एइंदियाणं भंगों ॥ १५२ ।। कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टमिच्चेदेण एइंदिएहिंतो वणप्फदिकाइयाणं भेदाभावा । णिगोदजीवा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १५३ ॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १५४ ॥ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय । उक्कस्सेण अड्डाइजादो पोग्गलपरियढें ॥ १५५ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल, क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त, तथा उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है । पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंका काल अन्तर्मुहूर्त है, इत्यादि रूपसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंके साथ सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिकके कालमें विशेषताका अभाव है। वनस्पतिकायिक जीवोंका काल एकेन्द्रिय जीवोंके कालके समान है ॥ १५२ ॥ । क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवप्रहण और उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है, इस रूपसे एकेन्द्रियोंसे घनस्पतिकायिक जीवोंके कालका कोई भेद नहीं है। निगोद जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १५३॥ यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा निगोद जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है॥ १५४ ॥ यह भी सूत्र सुगम ही है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ १५५ ।। १ वनस्पतिकायिकानामेकेन्द्रियवत् । स. सि. १, ४. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १५८. ] कालानुगमे तसकाइयकालपरूवणं [ ४०७ तं जधा - एगो अण्णकायादो आगंतूण णिगोदेसुववष्णो । तत्थ अड्डाइज्जा पोग्गल परियाणि परियट्टिदूण अण्णकार्य गदो । बादरणिगोदजीवाणं बादरपुढविकाइयाणं भंगो ॥ १५६ ॥ कुदो ? णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण कम्मट्ठिदी इच्चेएण बादरणिगोदाणं बादरपुढविकाइएहिंतो भेदाभावा । तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वा ॥ १५७ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १५८ ॥ तसकाइयाणं तेसिं पत्ताणं च जहण्णकालो अंतोमुहुत्तं । तसकाइयाणमंतोमुडुत्तमिदि अभणिय खुद्दाभवग्गहणं ति किण्ण वृत्तं ? ण, खुद्दाभवग्गहणं पेक्खिदूण जहण्णमिच्छत्तकालस्स थोवत्तादो । सेसं मुगमं । जैसे - कोई एक जीव अन्य कायसे आ करके निगोदिया जीवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके अन्य कायको प्राप्त हो गया । बादरनिगोद जीवोंका काल बादरपृथिवीकायिक जीवोंके समान है ।। १५६ ॥ क्योंकि, नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है, इस रूपसे बादरनिगोदिया जीवोंके कालका बादरपृथिवीकायिक जीवोंके काल से कोई भेद नहीं है । सकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकों में मिध्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। १५७ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १५८ ॥ सकायिक और उनके पर्याप्तकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । शंका- 'सकायिक जीवोंका अन्तर्मुहूर्त काल है, ऐसा न कह कर ग्रहणप्रमाण काल है, ' ऐसा क्यों नहीं कहा ? क्षुद्रभव समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षुद्रभवग्रहणके कालको देखकर अर्थात् उसकी अपेक्षा जघन्य मिथ्यात्वका काल और भी छोटा है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । १ त्रसकायिकेषु मिथ्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८० Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खंडागम जीवाणं ४०८] [१, ५, १५९. उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि ॥ १५९ ॥ तं जधा- दो जीवा थावरकायादो आगंतूण एगो तसकाइएसु, अण्णेगो तसकाइयपजत्तएमु उववण्णो। तत्थ जो सो तसकाइएसु उववण्णो सो पुवकोडिपुधत्तम्भहिय. वे-सागरोवमसहस्साणि तत्थ परिभमिय थावरकायं गदो। इदरो वि वे सागरोवमसहस्सं परिभमिय थावरं गदो, एत्तो उवरि तत्थच्छणसंभवाभावा ।। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥१६०॥ कुदो ? ओघसासणादिसयलगुणहाणाणं णाणेगजीवजहण्णुकस्सकालहितो तसकाइयतसकाइयपज्जत्तसासणादिसयलगुणट्ठाणणाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालाणं भेदाभावादो। तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो ।। १६१ ॥ कुदो १ णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, त्रसकायिक जीवोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम और त्रसकायिक पर्याप्तक जीवोंका उत्कृष्ट काल पूरे दो हजार सागरोपमप्रमाण है ॥ १५९ ॥ जैसे- दो जीव एक साथ स्थावरकायसे आकर एक तो सामान्य त्रसकायिक जीवों में और दूसरा त्रसकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। उनमेंसे जो सामान्य प्रसकायिक जीवोंमें उत्पन्न हुआ, वह जीव पूर्वकोटीपृथक्त्वसे आधिक दो हजार सागरोपम काल उनमें परिभ्रमण करके स्थावरकायको प्राप्त हुआ । तथा दूसरा जीव भी दो हजार सागरोपमप्रमाण उनमें परिभ्रमण करके स्थावरकायमें चला गया, क्योंकि, इसके ऊपर त्रसकायमें रहना संभव नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान तकका काल ओघके समान है ॥ १६०॥ ___ क्योंकि, ओघके सासादनादि सकल गुणस्थानोंके नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालोंसे त्रसकायिक तथा त्रसकायिकपर्याप्तकोंके सासादनादि सकल गुणस्थानोंके नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालोका कोई भेद नहीं है। त्रसकायिकलब्ध्यपयोप्तकोंका काल पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकोंके समान है ॥१६१॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभव१ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. २ शेषाणां पंचेन्द्रियवत् । स. सि. १, ८. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १६३.] कालाणुगमे मण-वचिजोगिकालपरूवणं [१०९ उक्कस्सेण बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियअपज्जत्तएसु जहाकमेण असीदि-सट्टिचालीस-चदुवीस-अणुबद्धभवेसु बहुसदवारपरियट्टणसंभूदअंतोमुहुत्तकालो इच्चेदेहि विसेसाभावा । एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १६२॥ कुदो? मणजोग-वचिजोगेहि परिणमणकालादो तदुवक्कमणकालंतरस्स थोवत्तादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १६३॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थणिच्छयसमुप्पायणहँ मिच्छादिट्ठिआदिगुणट्ठाणाणि अस्सिदण एगसमयपरूवणा कीरदे । एत्थ ताव जोगपरावत्ति-गुणपरावत्ति-मरण-वाघादेहि मिच्छत्तगुणट्ठाणस्स एगसमओ परूविज्जदे । तं जधा- एक्को सासणो सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा मणजोगेण अच्छिदो । एगसमओ मणग्रहण, उत्कृष्ट काल, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें यथाक्रमसे अस्सी, साठ, चालीस और चौबीस क्षुद्रभवों में कई सौ वार परिवर्तनसे उत्पन्न हुआ अन्तर्मुहूर्तकाल होता है, इस प्रकारसे कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई । योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १६२॥ क्योंकि, मनोयोग और वचनयोगके द्वारा होनेवाले परिणमन कालसे उनके उपक्रमणकालका अन्तर अल्प पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १६३ ॥ इस सूत्रके अर्थ-निश्चयके समुत्पादनार्थ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंको आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा की जाती है-उनमेंसे पहले योगपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन मरण और व्याघात, इन चारोंके द्वारा मिथ्यात्वगुणस्थानका एक समय प्ररूपण किया जाता है। वह इस प्रकार है-सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कोई एक जीव मनोयोगके साथ विद्यमान था। १ योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिषु मिथ्यादृष्टयस यतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्सयोगकेवलिना नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १.८. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १६३. जोगद्धाए अस्थि त्ति मिच्छत्तं गदो । एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठ । विदियसमए मिच्छादिट्ठी चेव, किंतु वचिजोगी कायजोगी वा जादो । एवं जोगपरावत्तीए पंचविहा एयसमयपरूवणा कदा । कधं समयभेदो ? सासणादिगुणट्ठाणपच्छाकधत्तेण । गुणपरावत्तीए एगसमओ चुच्चदे । तं जहा- एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो । तस्स वचिजोगद्धासु कायजोगद्धासु खीणासु मणजोगो आगदो। मणजोगेण सह एगसमये मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए वि मणजोगी चेव । किंतु सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजमं वा अपमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो। एवं गुणपरावत्तीए चउव्विहा एगसमयपरूवणा कदा । कधमेत्थ समयभेदो ? पडिवज्जमाणगुणमेएण । पुव्विल्लपंचसु समएसु संपहिलद्धचदुसमए पक्खित्ते णव भंगा होति (९)। एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तेसिं खएण मणजोगो आगदो। एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए मदो । जदि तिरिक्खेसु वा मणु ............................. मनोयोगके कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां पर एक समयमात्र मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया। द्वितीय समयमें भी वह जीव मिथ्यादृष्टि ही रहा, किन्तु मनोयोगीसे वह वचनयोगी अथवा काययोगी हो गया। इस प्रकार योगपरिवर्तनके साथ पांच प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा की गई। शंका-यहां पर समयमें भेद कैसे हुआ? समाधान-सासादनादि गुणस्थानोंको पीछे करनेसे, अर्थात् उनमें पुनः वापिस आनेसे, समय-भेद हो जाता है। __ अब गुणस्थानपरिवर्तनके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा कहते हैं। वह इस प्रकार हैकोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था। उसके वचनयोग अथवा काययोगका काल क्षीण होने पर मनोयोग आगया और मनोयोगके साथ एक समयमें मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ। पश्चात् द्वितीय समयमें भी वह जीव यद्यपि मनोयोगी ही है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा असंयमके साथ सम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे गुणस्थानके परिवर्तनद्वारा चार प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा की गई। शंका-यहां पर समय-भेद कैसे हुआ ? समाधान-आगे प्राप्त होनेवाले गुणस्थानके भेदसे समयमें भेद हुआ। पूर्वोक्त योगपरिवर्तनसम्बन्धी पांच समयों में साम्प्रतिक लब्ध गुणस्थानसम्बन्धी चार समयोंको प्रक्षिप्त करने पर नौ (९) भंग हो जाते हैं। कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव बचनयोगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था। पुनः योगसम्बन्धी कालके क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया। तब एक समय मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया और Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १६३. ] कालानुगमे मण- वचिजोगि काल परूवर्ण [ ४११ सेसु वा उप्पण्णो, तो कम्मइयकायजोगी ओरालिय मिस्सकायजोगी वा । अध देव णेरइएसु जह उबवण्णो तो कम्मइयकायजोगी वेउव्वियमिस्सकायजोगी वा जादो । एवं मरणेण लद्धएगभंगे पुव्विल्लणवभंगेसु पक्खित्ते दस भंगा होंति ( १० ) । वाघादेण एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो । तेसिं वचि कायजोगाणं खएण तस्स जोगो आगो । एगसमयं मणजोगेण मिच्छत्तं दिट्ठे । विदियसमए वाघादिदो कायजोगी जादो । लद्ध एगसमओ । एदं पुव्विल्लदसभंगेसु पक्खित्ते एक्कारस भंगा (११) । एत्थ उववज्जंती' गाहा गुण- जोगपरावती वाघादो मरणमिदि हु चत्तारि । जोगे होंति ण वरं पच्छिल्लद्गुणका जोगे ॥ ३९॥ एदम्हि गुणट्ठाणे दिजीवा इमं गुणट्ठाणं पडिवज्जंति, ण पडिवज्जंति त्ति णादूण गुणपडवण्णा वि इमं गुणद्वाणं गच्छंति, ण गच्छंति त्ति चिंतिय असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजद - पमत्त संजाणं च चउव्विहा एगसमयपरूवणा परूविदव्वा । एवमप्पमत्तंसंजदाणं । णवरि वाघादेण विणा तिविधा एगसमयपरूवणा कादव्वा । किमहं वाघादो दूसरे समय में मरा | सो यदि वह तिर्यचों में या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ तो कार्मणकाययोगी, अथवा औदारिक मिश्रकाययोगी हो गया । अथवा, यदि देव या नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्मणकाययोगी अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हो गया। इस प्रकार मरणसे प्राप्त एक भंगको पूर्वोक्त नौ भंगों में प्रक्षिप्त करने पर दश भंग हो जाते हैं (१०) । अब व्याघात से लब्ध होनेवाले एक भंगकी प्ररूपणा करते हैं- कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोगसे अथवा काययोग से विद्यमान था । सो उन वचनयोग अथवा काययोगके क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया। तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दृष्ट हुआ और द्वितीय समय में वह व्याघातको प्राप्त होता हुआ काययोगी हो गया । इस प्रकारसे एक समय लब्ध हुआ । पूर्वोक्त दश भंगों में इस एक भंगके प्रक्षिप्त करने पर ग्यारह भंग होते हैं (११) । इस विषय में उपयुक्त गाथा इस प्रकार है गुणस्थान परिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण, ये चारों बातें योगों में अर्थात् तीनों योगों के होने पर होती हैं । किन्तु सयोगिकेवली के पिछले दो, अर्थात् मरण और व्याघात, तथा गुणस्थानपरिवर्तन नहीं होते हैं ॥ ३९ ॥ इस विवक्षित गुणस्थानमें विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होते हैं, या नहीं, ऐसा जान करके, गुणस्थानोंको प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थानको जाते हैं, अथवा नहीं, ऐसा चिन्तवन करके असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतोंकी चार प्रकार से एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए । इसी प्रकार से अप्रमत्तसंयतोंकी भी प्ररूपणा होती है, किन्तु विशेष बात यह है कि उनके व्याघात के विना तीन प्रकार से एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए । १ आ-प्रतौ ' उवउज्जेती ' क-प्रतौ ' उववज्र्ज्जती ' इति पाठः । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १६४. णत्थि ? अप्पमाद-वाघादाणं सहअणवट्ठाणलक्खणविरोहा । सजोगिकेवलिस्स एगसमयपरूवणा कीरदे । तं जधा-एक्को खीणकसाओ मणजोगेण अच्छिदो मणजोगद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति सजोगी जादो । एगसमयं मणजोगेण दिवो सजोगिकेवली विदियसमए वचिजोगी वा जादो । एवं चदुसु मणजोगेसु पंचसु वचिजोगेसु पुव्युत्तगुणट्ठाणाणं एगसमयपरूवणा कादव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ १६४ ॥ तं जधा- मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदो पमत्तसंजदो ( अप्पमत्तसंजदो) सजोगिकेवली वा अणप्पिदजोगे द्विदो अद्धाक्खएण अप्पिदजोगं गदो । तत्थ तप्पाओग्गुक्कस्समतोमुहुत्तमच्छिय अणप्पिदजोगं गदो । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ।। १६५ ।। शंका-अप्रमत्तसंयतके व्याघात किस लिए नहीं है ? समाधान-क्योंकि, अप्रमाद और व्याघात, इन दोनोंका सहानवस्थानलक्षण बिरोध है। __ अब सयोगिकेवलीके एक समयकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैएक क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव मनोयोगके साथ विद्यमान था। जब मनोयोगके काल में एक समय अवशिष्ट रहा, तब वह सयोगिकेवली हो गया और एक समय मनोयोगके साथ दृष्टिगोचर हुआ। वह सयोगिकेवली द्वितीय समयमें वचनयोगी हो गया। इस प्रकारसे चारों मनोयोगों में और पांचों वचनयोगों में पूर्वोक्त गुणस्थानोंकी एक समयसम्बन्धी प्ररूपणा करना चाहिए। उक्त पांचों मनोयोगी तथा पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवलीका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १६४॥ जैसे- अविवक्षित योगमें विद्यमान मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, (अप्रमत्तसंयत) और सयोगिकेवली उस योगसम्बन्धी कालके क्षय हो जानेसे विवक्षित योगको प्राप्त हुए। वहां पर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह करके पुनः अविवक्षित योगको चले गये। __ पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका काल ओषके समान है ॥ १६५ ॥ १ उत्कर्षेणान्तर्मुहर्तः । स. सि. १, ८. २ सासादमसम्यग्दृष्टेः सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १६७. ] कालाणुगमे मण-वचिजोगिकालपरूवणं [११३ ___ कुदो ? णाणाजीव पडुच्च जहण्णण एगो समओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ; इच्चेदेहि पंचमण-वचिजोगसासणाणं ओघसासणेहिंतो भेदाभावा । एत्थ वि जोग-गुणपरावत्ति-मरणवाघादेहि समयाविरोहेण एगसमयपरूवणा कायया । सम्मामिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १६६ ॥ उदाहरणं- सतह जणा बहुगा वा मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा पमत्तसंजदा वा अप्पिदमण-वचिजोगेसु द्विदा अप्पिदजोगद्धाए एगसमओ अत्थि त्ति सम्मामिच्छत्तं गदा । एगसमयमप्पिदजोगेण सह दिट्ठा, विदियसमए सव्ये अणप्पिदजोगं गदा । एवं मरणेण विणा जोग-गुणपरावत्ति-वाघादेहि एगसमयपरूवणा चिंतिय वत्तव्या। उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६७॥ कुदो ? अप्पिदजोगेण सहिदसम्मामिच्छादिट्ठीणं पवाहस्स अच्छिण्णरूवस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागायामस्सुवलंभा। क्योंकि, नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवलियां, इस रूपसे पांचो मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंके कालका ओघसम्बन्धी सासादनोंके कालसे कोई भेद नहीं है। यहां पर भी योगपरावर्तन, गुणस्थानपरावर्तन, मरण और व्याघातके द्वारा आगमके अविरोधसे एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा एक समय होते हैं ॥ १६६ ॥ उदाहरण-विवक्षित मनोयोग अथवा वचनयोगमें स्थित सात आठ जन, अथवा बहुतसे मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत जीव उस विवक्षित योगके कालमें एक समय अवशिष्ट रह जाने पर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए और एक समयमात्र विवक्षित योगके साथ दृष्टिगोचर हुए। द्वितीय समयमें सभीके सभी अविवक्षित योगको चले गये। इसी प्रकार मरणके विना शेष योगपरावर्तन, गुणस्थानपरावर्तन और व्याघात, इन तीनोंकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा चिंतन करके करना चाहिए । ___ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥१६॥ क्योंकि, विवक्षित योगसे सहित सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अविच्छिन्नरूप प्रवाह पल्योपमके असंख्यातवें भाग लम्बे काल तक पाया जाता है। १ सम्यग्मिप्यादृष्टे नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, .. २ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । स. सि. १,.. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] छक्खंडागमे जीवहाणं [ १, ५, १६८. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १६८॥ एत्थ वि मरणेण विणा गुण-जोगपरावत्ति-वाघादे अस्सिदूण एगसमयपरूवणा जाणिय वत्तव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ १६९ ॥ उदाहरणं-एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी अणप्पिदजोगे द्विदो अप्पिदजोगं पडिवण्णो । तत्थ तप्पाओग्गुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिय अणप्पिदजोगं गदो । लद्धमंतोमुहुत्तं । चदुण्हमुवसमा चदुण्हं खवगा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १७०॥ उवसामगाणं वाघादेण विणा जोग-गुणपरावत्ति-मरणेहि णाणाजीवे अस्सिद्ग एगसमयपरूवणा कादव्या । खवगाणं मरण-वाघादेहि विणा जोग-गुणपरावत्तीओ दो चेव अस्सिदूण एगसमयपरूवणा परूवेदव्या । एक जीवकी अपेक्षा उक्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १६८॥ यहां पर भी मरणके विना गुणस्थानपरावर्तन, योगपरावर्तन और व्याघात, इन तीनोंका आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा जान करके कहना चाहिए। एक जीवकी अपेक्षा उक्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१६९ ॥ उदाहरण-अविवक्षित योगमें विद्यमान कोई एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव विवक्षित योगको प्राप्त हुआ। वहां पर अपने योगके प्रायोग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह करके अविवक्षित योगको चला गया। इस प्रकारसे एक अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हो गया। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी चारों उपशामक और क्षपक कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ १७०॥ उपशामक जीवोंके व्याघातके विना योगपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन और मरणके द्वारा नाना जीवोंका आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। क्षपक जीवोंकी मरण और व्याघातके विना योगपरिवर्तन और गुणस्थानपरिवर्तन, इन दोनोंका आश्रय लेकर ही एक समयकी प्ररूपणा कहना चाहिए। १ एक जीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । स, सि. १, ८. २ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ चतुर्णामुपशमकानां क्षपकाणां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेश्चया च जघन्येनैकः समयः। स.सि.१, Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १७४.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [११५. उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ १७१ ॥ तं जधा-चत्तारि उवसामगा चत्तारि खवगा च अणप्पिदजोगे द्विदा अद्धाक्ख. एण अप्पिदजोगं गदा। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो वि अणप्पिदजोगं पडिवण्णा । लद्धमंतोमुहुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १७२॥ एत्थ एगसमयपरूवणा खवगुवसामगाणं दोहि तीहि पयारेहि जाणिय वत्तव्या । उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १७३॥ एत्थ अंतोमुहुत्तपरूवणा जाणिय वत्तव्वा । एत्थ एगसमयवियप्पपरूवण8 गाहा एक्कारस छ सत्त य एक्कारस दस य णव य अढे वा । ___ पण पंच पंच तिण्णि य दु दु दु दु एगो य समयगणा ॥ ४१ ॥ ११, ६, ७, ११, १०, ९, ८, ५, ५, ५, ३, २, २, २, २, १। कायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १७४ ॥ उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १७१ ॥ वह इस प्रकार है-अविवक्षित योगमें स्थित चारों उपशामक और क्षपक जीव उस योगके कालक्षयसे विवक्षित योगको प्राप्त हुए। वहां पर अन्तर्मुहूर्त तक रह करके पुनरपि अविवक्षित योगको प्राप्त हो गए । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हो गया। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १७२ ।। यहां पर एक समयकी प्ररूपणा क्षपकोंके योगपरावर्तन और गुणस्थानपरावर्तनकी अपेक्षा दो प्रकारसे और उपशामकोंकी व्याघातके विना शेष तीन प्रकारोंसे जान करके कहना चाहिए। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १७३ ॥ यहां अन्तर्मुहूर्तकी प्ररूपणा जान करके कहना चाहिए। यहां पर एक समयसम्बन्धी विकल्पोंके प्ररूपण करने के लिए यह गाथा है मिथ्यादृष्टयादि गुणस्थानोंमें क्रमशः ग्यारह, छह, सात, ग्यारह, दश, नौ, आठ, पांच, पांच, पांच, तीन, दो, दो, दो, दो और एक, इतने एक समयसम्बन्धी प्ररूपणाके विकल्प होते हैं । ११, ६, ७, ११, १०, ९, ८, ५, ५, ५, ३, २, २, २, २, १॥ ४०॥ काययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १७४ ॥ १ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. २ काययोगिषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १७५. कुदो ? सव्बद्धासु कायजोगिमिच्छादिट्ठीणं विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं ॥ १७५ ॥ तं जधा- एगो सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा कायजोगद्धाए अच्छिदो । तिस्से एगसमयावसेसे मिच्छादिट्ठी जादो । कायजोगेण एगसमयं मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए अण्णजोगं गदो । अधवा मणवचिजोगेसु अच्छिदस्स मिच्छादिहिस्स तेसिमद्धाक्खएण कायजोगो आगदो । एगसमयं कायजोगेण सह मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजमं अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो। लद्धो एगसमओ। एत्थ मरण-वाघादेहि एगसमओं णत्थि । कुदो ? मुदे वाघादिदे वि कायजोगं मोत्तूण अण्णजोगाभावा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरिय, ॥१७६ ॥ तं जधा--एगो मिच्छादिट्ठी मण-वचिजोगेसु अच्छिदो अद्धाखएण कायजोगी क्योंकि, सभी कालोंमें काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १७५ ॥ जैसे-एक सासादनसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव काययोगके कालमें विद्यमान था। उस योगके काल में एक समय अवशेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि हो गया । तब काययोगके साथ एक समय मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ। पुनः द्वितीय समयमें वह अन्य योगको चला गया। अथवा, मनोयोग और वचनयोगमें विद्यमान मिथ्यादृष्टि जीवके उन योगोंके कालक्षयसे काययोग आ गया। तब एक समय काययोगके साथ मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ। पुनः द्वितीय समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा असंयमके साथ सम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकार एक समय लब्ध हो गया। यहां पर मरण अथवा व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं है, क्योंकि, मरण होने पर अथवा व्याघात होने पर भी काययागका छाड़कर अन्य यागका अभाव है। ____एक जीवकी अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ १७६ ॥ जैसे-- मनोयोग अथवा वचनयोगमें विद्यमान एक मिथ्यादृष्टि जीव, उस योगके १ एक जीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु · सगसमओ' इति पाठः। ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स. सि. १, ८. Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १७८.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [४१५ जादो, सव्वुकस्समंतोमुत्तमच्छिदण एइंदिएसु उप्पण्णो । तत्थ अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टू कायजोगेण सह परियट्टिदूण आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तपोग्गलपरियडेसुप्पण्णेसु तसेसु आगंतूण सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिय वचिजोगी जादो । लद्धो कायजोगस्स उक्कस्सकालो। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति मणजोगिभंगो ॥ १७७ ॥ एदं सुत्तं सुगम, मणजोगे णिरुद्धे पवंचेण परूविदत्तादो । णवरि मरण-वाघादा सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं णत्थि । सासणसम्मादिहि-संजदासजद-पमत्तसंजदाणं वाघादेण एगसमओ णत्थि, मरणेण पुण अस्थि । ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १७८ ॥ कुदो ? ओरालियकायजोगिमिच्छादिट्ठिसंताणस्स सव्वद्धासु वोच्छेदाभावा । कालक्षय हो जानेसे काययोगी हो गया। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। वहां पर अनन्तकालप्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन काययोगके साथ परिवर्तन करके आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तनोंके शेष रहने पर प्रसजीवों में आकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रह करके वचनयोगी हो गया। इस प्रकारसे काययोगका उत्कृष्ट काल प्राप्त हुआ। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक काययोगियोंका काल मनोयोगियोंके कालके समान है ॥ १७७॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, मनोयोगके निरुद्ध करनेपर पहले प्रपंचसे (विस्तारसे) । प्ररूपण किया जा चुका है। विशेष बात यह है कि काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके मरण और व्याघात नहीं होते हैं। तथा काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतोंके व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं होता है, किन्तु मरणकी अपेक्षा एक समय होता है। __ औदारिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १७८ ॥ - क्योंकि, औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी परम्पराके सभी कालोंमें विच्छेदका अभाव है। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ५, १७९. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १७९ ॥ एत्थ मरण-गुण-जोगपरावत्तीहि एगसमयो परूवेदव्यो । वाघादेण एगसमओ ण लब्भदि, तस्स कायजोगाविणाभावित्तादो । उक्कस्सेण वावीसं वाससहस्साणि देसूणाणि ॥ १८० ॥ तं जधा- एगो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा वावीससहस्सवासाउद्विदिएसु एइदिएसु उववण्णो। सव्वजहण्णेण अंतोमुहुत्तकालेण पज्जत्तिं गदो। ओरालियअपज्जत्तकालेणूणवावीसवाससहस्साणि ओरालियकायजोगेण अच्छिय अण्णजोगं गदो । एवं देसूणवावीसवाससहस्साणि जादाणि । अधवा देवो ण उप्पादेदव्यो, तस्स जहण्णअपजत्तकालाणुवलंभा। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति मणजोगिभंगो ॥ १८१ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो, पुव्वं परूविदत्तादो । णवरि वाघादेण एत्थ एगसमयपरूवणा परूवेदव्वा । एक जीवकी अपेक्षा औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १७९॥ यहां पर मरण, गुणस्थानपरावर्तन और योगपरावर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करनी चाहिए | किन्तु यहां पर व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वह काययोगका अविनाभावी है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है ॥ १८० ॥ जैसे-एक तिर्यंच, मनुष्य, अथवा देव, बाईस हजार वर्षकी आयुस्थितिवाले एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकालसे पर्याप्तपनेको प्राप्त हुआ। पुनः इस औदारिकशरीरके अपर्याप्तकालसे कम बाईस हजार वर्ष औदारिककाययोगके साथ रह करके पुनः अन्य योगको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष हो जाते हैं। अथवा, यहां पर देव नहीं उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, देवोंसे आकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले जीवके जघन्य अपर्याप्तकाल नहीं पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक औदारिककाययोगियोंका काल मनोयोगियोंके कालके समान है ॥१८१ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, पूर्वमें कहा जा चुका है। विशेष बात यह है कि यहां पर व्याघातकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १८४.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [ ११९ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १८२ ॥ कुदो ? ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठिसंताणवोच्छेदस्स सव्वद्धासु अमावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमजणं ॥१८३॥ तं जहा- एगो एइंदिओ मुहुमवाउकाइएसु अधोलोगते ट्ठिएसु खुद्दाभवग्गहणाउद्विदिएसु तिण्णि विग्गहे काऊण उववण्णो । तत्थ तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमपज्जत्तो होदण जीविय मदो, विग्गहं कादण कम्मइयकायजोगी जादो । एवं तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमोरालियमिस्सजहण्णकालो जादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १८४ ॥ तं जधा- अपञ्जत्तएसु उववज्जिय संखेज्जाणि भवग्गहणाणि तत्थ परियडिय पुणो पजत्तएसु उववज्जिय ओरालियकायजोगी जादो । एदाओ संखेज्जभवग्गहणद्धाओ मिलिदाओ वि मुहुत्तस्संतो चेव होति । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ! नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १८२॥ क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टियोंकी परम्पराके विच्छेदका सर्वकालों में अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १८३ ॥ जैसे- एकेन्द्रिय जीव अधोलोकके अन्तमें स्थित और क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण आयु. स्थितिवाले सूक्ष्मवायुकायिकोंमें तीन विग्रह करके उत्पन्न हुआ। वहां पर तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणकाल तक लब्ध्यपर्याप्त हो, जीवित रह कर मरा । पुनः विग्रह करके कार्मणकाययोगी हो गया। इस प्रकारसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण औदारिकमिश्रकाय. योगका जघन्य काल सिद्ध हुआ। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८४॥ जैसे- कोई एक जीव लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यात भवग्रहणप्रमाण उनमें परिवर्तन करके पुनः पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर औदारिककाययोगी हो गया। इन सब संण्यात भवोंके ग्रहण करनेका काल मिल करके भी मुहूर्तके अन्तर्गत ही रहता है, अधिक महीं होता है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] छैक्खंडागमे जीवहाणं १, ५, १८५. सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १८५ ॥ तं जधा- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सासणा सगद्धाए एगसमओ अत्थि ति ओरा. लियमिस्सकायजोगिणो जादा । एगसमयमच्छिदूण विदियसमए मिच्छत्तं गदा । लद्धो ओरालियमिस्सेण सासणाणमेगसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १८६ ॥ तं जधा- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सासणा ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा । सासणगुणेण अंतोमुहुत्तमच्छिय ते मिच्छत्तं गदा । तस्समए चेय अण्णे सासणा ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक-दो-तिणि आदि कादूण जाव उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तवारं सासणा ओरालियमिस्सकायजोगं पडिवज्जावेदव्वा । तदो णियमा अंतरं होदि । एवमेस कालो मेलाविदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होदि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ १८७ ॥ औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ १८५ ॥ जैसे-सात आठ जन, अथवा बहुतसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव, अपने योगके कालमें एक समय अवशेष रहने पर औदारिकमिश्रकाययोगी हो गये। उसमें एक समय रह करके द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकारसे औदारिकमिश्रकाययोगके साथ सासादनसम्यग्दृष्टियोंका एक समय लब्ध हुआ। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ १८६ ॥ जैसे- सात आठ जन, अथवा बहुतसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगी हुए। सासादनगुणस्थानके साथ अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पीछे वे मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । उसी समय में ही अन्य दूसरे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकारसे एक, दो, तीनको आदि करके उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र वार सासादनसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगको प्राप्त कराना चाहिए । इसके पश्चात् नियमसे अन्तर हो जाता है। इस प्रकारसे यह सब मिलाया गया काल पस्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १८७ ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १९०.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [१२१ तं जधा- एको सासणो सगद्धाए एगसमओ अत्थि त्ति ओरालियमिस्सकायजोगी जादो । विदियसमए मिच्छत्तं गदो । लद्धो एगसमओ । उक्कस्सेण छ आवलियाओ समऊणाओ ॥ १८८ ॥ तं जधा- देवो वा णेरइओ वा उवसमसम्मादिट्ठी उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अत्थि त्ति सासणं गदो । एगसमयमच्छिय कालं करिय तिरिक्ख-मणुस्सेसु उजुगदीए उववज्जिय ओरालियमिस्सकायजोगी जादो । समऊण-छ-आवलियाओ अच्छिय मिच्छत्तं गदो। ___ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १८९ ॥ तं जधा- सत्तट्ट जणा बहुगा वा असंजदसम्मादिद्विणो णेरइया ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा । सव्वलहुं पज्जत्तिं गदा, बहुसागरोवमाणि पुव्वं दुक्खेण सह द्विदत्तादो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९० ॥ ..................... जैसे- एक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव अपने कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर औदारिकमिश्रकाययोगी हो गया और द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार एक समय प्राप्त हो गया। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल एक समय कम छह आवलीप्रमाण है ॥ १८८॥ जैसे- कोई एक देव अथवा नारकी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव, उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली कालके शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ। वहां पर एक समय रह करके मरण कर तिर्यंच और मनुष्योंमें ऋजगतिसे उत्पन्न होकर औदारिकमिश्र पयोगी हो गया। वहां पर एक समय कम छह आवली तक रह करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तमुहूते काल तक होते हैं ॥ १८९॥ जैसे-सात आठ जन. अथवा बहतसे असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव औदारिकमिश्रकाययोगी हुए । और बहुतसे सागरोपम काल तक पहले दुःखोंके साथ रहे हुए होनेसे सर्वलघु कालसे पर्याप्तियों को प्राप्त हुए। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९०॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १९१. - तं जधा- देव-णेरइया मणुस्सा सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सम्मादिट्ठिणो ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा । ते पज्जत्तिं गदा । तस्समए चेव अण्णे असंजदसम्मादिट्टिणो ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक-दो-तिण्णि जावुक्कस्सेण संखेज्जवारा त्ति । एदाहि संखेज्जसलागाहि एगमपज्जत्तद्धं गुणिदे एगमुहुत्तस्स अंतो चेव जेण होदि, तेण अंतोमुहुत्तमिदि वुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९१ ॥ तं जधा-एको सम्मादिट्ठी वावीस सागरोवमाणि दुक्खेक्करसो होदूण जीविदो । छट्ठीदो उव्वट्टिय मणुसेसु उप्पण्णो । विग्गहगदीए तस्स सम्मत्तमाहप्पेण उववजिदपुण्णपोग्गलस्स ओरालियणामकम्मोदएण सुअंध-सुरस-सुवण्ण-सुहपासपरमाणुपोग्गलबहुला आगच्छंति', तस्स जोगबहुत्तदंसणादो। एदस्स जहणिया ओरालियमिस्सकायजोगस्स अद्धा होदि। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९२ ॥ जैसे-देव, नारकी, अथवा मनुष्य सात आठ जन, अथवा बहुतसे सम्यग्दृष्टि जीव, औदारिकमिश्रकाययोगी हुए। वे सब पर्याप्तपनेको प्राप्त हुए। उसी समयमें ही अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकार एक, दो, तीन इत्यादि क्रमसे उत्कृष्ट संख्यातवार तक अन्य अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मिश्रकाययोगी होते गये। इन संख्यात शलाकाओंसे एक अपर्याप्तकालको गुणित करने पर वह सब काल चूंकि एक मुहूर्तके अन्तर्गत ही होता है, इसलिए सूत्रकारने अन्तर्मुहूर्त काल कहा है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९१ ॥ जैसे- छठी पृथिवीका कोई एक सम्यग्दृष्टि नारकी बाईस सागर तक दुखोंसे एक रस अर्थात् अत्यन्त पीड़ित होकर जीता रहा। पुनः छठी पृथिवीसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। विग्रहगतिमें, सम्यक्त्वके माहात्म्यसे उदयमें आये हैं पुण्यप्रकृतिके पुद्गलपरमाणु जिसके ऐसे उस जीवके औदारिकनामकर्मके उदयसे सुगन्धित, सुरस, सुवर्ण और शुभ स्पर्शवाले पुद्गलपरमाणु बहुलतासे आते हैं, क्योंकि, उस समय उसके योगकी बहुलता देखी आती है। ऐसे जीवके औदारिकमिश्रकाययोगका जघन्य काल होता है। एक जीवकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९२ ॥ १ आ प्रतौ 'बहु आगच्छति ' इति पाठ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, १९३.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [१२३ एदं कस्स होदि ? सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवस्स तेत्तीस सागरोवमाणि सुहलालियस्स पमुट्ठदुक्खस्स माणुसगब्भे गृह-मुत्तंत-पित्त-खरिस-वस-सेंभ-लोहि-सुक्कामाट्ठिदे अइदुग्गंधे दूरसे दुव्वण्णे दुप्पासे चमारकुंडोपमे उप्पण्णस्स, तत्थ मंदो जोगो होदि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसा । मंदजोगेण थोवे पोग्गले गेण्हंतस्स ओरालियमिस्सद्धा दीहा होदि त्ति उत्तं होदि । अधवा जोगो एत्थ महल्लो चेव होदु, जोगवसेण बहुआ पोग्गला आगच्छंतु, तो वि एदस्स दीहा अपज्जत्तद्धा होदि, विलिसाए दूसियस्स लहुं पज्जत्तिसमाणणे' असामत्थियादो। सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहपणेण एगसमयं ॥ १९३ ॥ एसो एगसमओ कस्स होदि ? सत्तट्ठजणाणं दंडादो कवाडं गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय रुजगं गदाणं, रुजगादो कवाडं गंतूण एगसमयमच्छिय दंडं गदकेवलीणं वा । शंका-यह उत्कृष्ट काल किस विके होता है ? समाधान-तेतीस सागरोपमकाल तक सुखसे लालित पालित हुए तथा दुःखोंसे रहित सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवके विष्टा, मूत्र, आंतडी, पित्त, खरिस (कफ) चर्वी, नासिकामल, लोहू शुक्र और आमसे व्याप्त, अति दुर्गन्धित, कुत्सितरस, दुर्वर्ण और दुष्ट स्पर्शवाले चमारके कुंडके सदृश मनुष्यके गर्भ में उत्पन्न हुए जीवके औदारिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट काल होता है, क्योंकि, उसके विग्रहगतिमें तथा उसके पश्चात् भी मंदयोग होता है, इस प्रकारका आचार्यपरम्परागत उपदेश है। मंदयोगसे अल्प पुद्गलोंको ग्रहण करनेवाले जीवके औदारिकमिश्रकाययोगका काल दीर्घ होता है, यह अर्थ कहा गया है। अथवा, यहां पर चाहे योगकाल बड़ा ही रहा आवे, और योगके वशसे पुद्गल भी बहुतसे आते रहें, तो भी उक्त प्रकारके जीवके अपर्याप्तकाल बड़ा ही होता है, क्योंकि, विलाससे क्षित जीवके शीघ्रतापूर्वक पर्याप्तियोंके सम्पूर्ण करनेमें असामर्थ्य है। औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ १९३ ॥ शंका-यह एक समय किसके होता है ? समाधान-दंडसमुद्धातसे कपाटसमुद्धातको प्राप्त होकर और वहां एक समय रह कर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त हुए सात आठ केवलियोंके यह एक समय होता है। अथवा, रुचकसमुद्धातसे कपाटसमुद्धातको प्राप्त होकर और एक समय रह करके दंडसमुद्धातको प्राप्त होनेवाले केवलियोंके यह एक समय होता है। १ आ पतौ पज्जत्ति समाणो' इति पाठः। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, १९४. उक्कस्सेण संखेज्जसमयं ॥ १९४ ॥ एदे संखेजसमया कम्हि होंति ? कवाडे चडण-ओयरणकिरियावावददंड-पदरपज्जायपरिणदसंखेज्जकेवलीहि संखेज्जसमयपंतीए द्विदेहि अधिउत्तेहि । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ ॥ १९५ ॥ एसो कम्हि होदि ? कवाडगदकेवलिम्हि चडणोदरणकिरियावावददंड-पदरपज्जयपरिणदकेवलीहितो आगदम्हि । बहुआ समया किण्ण होंति ? ण, कवाडम्हि एगसमयं मोत्तूण बहुसमयमच्छणाभावा । कधमेक्कस्सेव जहण्णुक्कस्सववएसो ? ण एस दोसो, कणिट्ठो वि जेट्ठो वि एसो चेव मम पुत्तो त्ति लोगे ववहारुवलंभा। औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली जिनोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ॥ १९४॥ शंका-ये संख्यात समय किसमें होते हैं ? समाधान-कपाटसमुद्धातकी आरोहण और अवतरणरूप क्रियामें लगे हुए क्रमशः दंडसमुद्धात और प्रतरसमुद्धातरूप पर्यायसे परिणत संख्यात समयोंकी पंक्ति में स्थित, ऐसे संख्यात केवलियोंके द्वारा अधिकृत अवस्थामें उक्त संख्यात समय पाये जाते हैं। एक जीवकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली जिनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ॥ १९५॥ शंका-यह एक समय कहां पर होता है ? समाधान- आरोहण और अवतरणरूप क्रियामें व्यापृत, ऐसे दंडसमुद्धात और प्रतरसमुद्धातरूप पर्यायसे क्रमशः परिणत हो उक्त समुद्धात केवली अवस्थासे आये हुए कपाटसमुद्धातगत केवलीके यह एक समय पाया जाता है। शंका–उक्त प्रकारके जीवोंके बहुत समय क्यों नहीं पाये जाते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि, कपाटसमुद्धातमें एक समयको छोड़कर बहुत समय तक रहनेका अभाव है। शंका-तो फिर एक ही समयके जघन्य और उत्कृष्टका व्यपदेश कैसे किया ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, कनिष्ठ भी और ज्येष्ठ भी 'यही हमारा पुत्र है' इस प्रकारका लोकमें व्यवहार पाया जाता है, इसलिए एकमें भी जघन्य और उत्कृष्टका व्यपदेश हो सकता है। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५ १, ५, १९८.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं वेउब्वियकायजोगीसु मिच्छादिट्टी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १९६ ॥ कुदो ? सव्वद्धासु वेउनियकायजोगिमिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिविसंताणवोच्छेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ १९७ ॥ तं जधा- एगो मिच्छादिट्ठी मण-वचिजोगेसु अच्छिदो अद्धाखएण वेउवियकायजोगी जादो । एगसमयं वेउब्धियकायजोगेण दिट्ठो। विदियसमए मदो अण्णजोगं गदो । मरणेण विणा सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी वा जादो । अधवा सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा वेउब्बियकायजोगद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति मिच्छादिट्ठी जादो । विदियसमए अण्णजोगं गदो। वाघादेण एगसमओ णत्थि, णिरुद्धकायजोगादो । एवमसंजदसम्मादिहिस्स वि एगसमयपरूवणा तीहि पयारेहि कायव्या। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९८ ॥ वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १९६ ॥ क्योंकि, सभी कालोंमें वैक्रियिककाययोगवाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी परम्पराके विच्छेदका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १९७॥ जैसे-- कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव, मनोयोग अथवा वचनयोगमें विद्यमान था। वह उस योगके कालके क्षय हो जानेसे वैक्रियिककाययोगी हो गया। तब वह एक समय वैक्रियिककाययोगके साथ दृष्टिगोचर हुआ! द्वितीय समयमें मरा और अन्य योगको प्राप्त हो गया । अथवा, मरणके विना सम्यग्मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। अथवा, सासादनसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि कोई जीव, वैक्रियिककाययोगके काल में एक समय अवशेष रहने पर, मिथ्या दृष्टि हो गया और द्वितीय समयमें अन्य योगको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे एक समय लब्ध होता है। यहां पर व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि, काययोगकी अपेक्षा कथन हो रहा है। (व्याघात तो मन या वचनयोगमें पाया जाता है।) इसी प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके भी एक समयकी प्ररूपणा तीन प्रकारसे करना चाहिए। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं तं जधा- मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिविणो देवा जेरइया वा मण-वचिजोगेसु द्विदा कायजोगिणो जादा । सव्वुक्कस्समतोमुहुत्तमच्छिय अण्णजोगिणो जादा । लद्धमंतोमुहुत्तं । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ १९९ ॥ णाणाजीवं पड्डुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, इच्चेदेहि ओघसासणादो भेदाभावा । सम्मामिच्छादिट्ठीणं मणजोगिभंगो ॥ २०० ॥ णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एयसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो समओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमिचेएण मणजोगिसम्मामिच्छादिट्ठीहिंतो वेउव्वियकायजोगिसम्मामिच्छादिट्ठीणं विसेसाभावा । वेउन्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥२०१।। जैसे- मनोयोग या वचनयोगमें स्थित मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कोई देव अथवा नारकी जीव वैक्रियिककाययोगी हुए और उसमें सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रह करके अन्य योगवाले हो गये । इस प्रकारसे उत्कृष्ट कालरूप अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो गया। वैक्रियिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है॥१९९॥ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग, तथा एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवली, इस रूपसे ओघवर्णित सासादनगुणस्थानके कालसे इसमें कोई भेद नहीं है। वैक्रियिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल मनोयोगियोंके समान है ॥२० ॥ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय, तथा उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकारसे मनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंसे वैक्रियिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके काल में कोई विशेषता नहीं है। __ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होते हैं ॥२०१॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २०२.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [१२७ एत्थ ताव मिच्छादिहिस्स जहण्णकालो वुच्चदे- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा दव्वलिंगिणो उवरिमगेवज्जेसु उववण्णा सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदा। संपहि सम्मादिट्ठीणं वुच्चदेसंखेज्जा संजदा सबट्ठदेवेसु दो विग्गहं कादूण पज्जत्तिं गदा । किमटुं दो विग्गहे कराविदा ? बहपोग्गलग्गहणटुं । तं पि किमहूँ ? थोवकालेण पज्जत्तिसमाणहूँ। मिच्छादिही दो विग्गहे किण्ण कराविदो ? ण, तत्थ वि पडिसेहाभावा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २०२॥ सत्तट्ठ जणा उक्कस्सेण असंखेज्जसे ढिमेत्ता वा मिच्छादिविणो देव-गैरइएसु उववन्जिय वेउव्वियमिस्सकायजोगिणो जादा, अंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदा । तस्समए चेव अण्णे मिच्छादिविणो वेउब्धियमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक्क-दो-तिण्णि उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ सलागाओं लब्भंति । एदाहि वेउब्धियमिस्सद्धं यहां पर पहले मिथ्याष्टिका जघन्य काल कहते है- सात आठ जन, अथवा बहुतसे द्रव्यलिंगी जीव उपरिम अवेयकोंमें उत्पन्न हुए और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकालसे पर्याप्तकपनेको प्राप्त हुए। अब सम्यग्दृष्टिका जघन्य काल कहते हैं- संख्यात संयत दो विग्रह करके सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों में पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुए। शंका-दो विग्रह किस लिए कराये गये हैं ? समाधान-बहुतसी पुद्गलवर्गणाओं के ग्रहण करनेके लिए दो विग्रह कराये गये हैं ? शंका-बहुतसे पुद्गलोका ग्रहण भी किसलिए कराया गया ? समाधान-अल्पकालके द्वारा पर्याप्तियोंके सम्पन्न करनेके लिए बहुतसे पुगलोका प्रहण आवश्यक है। शंका-मिथ्यादृष्टि जीवके दो विग्रह क्यों नहीं कराये गये? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनमें भी प्रतिषेधका अभाव है, अर्थात् मिथ्याष्टि जीव भी दो विग्रह कर सकते हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल पस्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ २०२॥ ___ सात आठ जन, अथवा उत्कर्षसे असंख्यातश्रेणिमात्र मिथ्यादृष्टि जीव देव, अथवा नारकियोंमें उत्पन्न होकर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुए, और अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुए। उसी समयमें ही अन्य मिथ्यादृष्टि जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकारसे एक, दो, तीनको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र १ अ-आ-क प्रतिषु ' संखेज्जासंखेज्जा संजदा'; म २ प्रतौ तु स्वीकृतः पाठः । २ अ-आ-क प्रतिषु 'सलागाओ' इति पाठो नास्ति । म २ प्रतौ तु अस्ति । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २०३. गुणिदे पलिदोक्मस्स असंखेजदिमागमेत्तो वेउब्धियमिस्सकालो होदि । असंजदसम्मादिहीणं पि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि एदे एगसमएण पलिदोवमस्स असंखेज्जादभागमेत्तो उक्कस्सेण उप्पज्जंति, रासीदो वेउव्वियमिस्सकालो असंखेज्जगुणो। तं कधं णव्वदे? आइरियपरंपरागदुवदेसादो । देवलोए उप्पज्जमाणसम्मादिट्ठीहिंतो देव-णेरइएसु उप्पज्जमाणमिच्छादिट्ठी असंखेज्जसेढिगुणिदमेत्ता होति त्ति कालो वि तावदिगुणो किण्ण होदि त्ति वुत्ते, ण होदि, उहयत्थ वेउब्बियमिस्सद्धासलागाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवदेसा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ २०३॥ तं जधा-एक्को दव्वलिंगी उवरिमगेवेज्जेसु दो विग्गहे कादृण उबवण्णो, सबलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदो । सम्मादिट्ठी एको संजदो सबट्टदेवेसु दो विग्गहे कादूण उववण्णो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पजत्तिं गदो । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंकी शलाकाएं पाई जाती हैं । इनसे वैक्रियिकमिश्रकाययोगके कालको गुणा करने पर पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण वैक्रियिकमिश्रकाययोगका काल होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियोंका भी काल इसी प्रकारसे कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि ये असंयतसम्यग्दृष्टि जीव एक समय में पल्योपमके असंख्यातवें भाग. मात्र उत्कृष्टरूपसे उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस उत्पन्न होनेवाली राशिसे वैक्रियिकामिश्रकाययोगका काल असंख्यातगुणा है। शंका-यह कैसे जाना? समाधान-आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है कि एक समयमें उत्पन्न होनेवाली असंयतसम्यग्दृष्टिराशिसे उक्त काल असंख्यातगुणा है। शंका-देवलोकमें उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टियोंसे देव या नारकियों में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात श्रेणियों से गुणितप्रमाण होते हैं। इसलिए वैक्रियिकमिश्रका काल भी असंख्यात श्रेणिगुणित क्यों नहीं होता है ? । समाधान-ऐसी आशंका पर उत्तर देते है कि नहीं होता है, क्योंकि, दोनों ही स्थानों पर, अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में, वैकि. यिकमिश्रकालकी शलाकाओंके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होने का उपदेश है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।। २०३ ॥ एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम प्रैवेयकों में दो विग्रह करके उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तके द्वारा पर्याप्तपनेको प्राप्त हुआ। एक सम्यग्दृष्टि भावलिंगी संयत सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों में दो विग्रह करके उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकालसे पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुआ। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २०६.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवर्ण [४२९ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।। २०४॥ तं जधा- एको तिरिक्खो मणुस्सो वा मिच्छादिट्ठी सत्तमपुढविणेरइएसु उववण्णो सवचिरेण अंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदो । सम्मादिहिस्स- एक्को बद्धणिरयाउओ सम्मत्तं पडिवज्जिय दंसणमोहणीयं खविय पढमपुढविणेरइएसु उववज्जिय सवचिरेण अंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदो। दोण्हं जहण्णकालेहिंतो उक्कस्सकाला दो वि संखेज्जगुणा । कधमेदं णव्वदे? गुरूबदेसादो। सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २०५॥ तं जधा- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सासणसम्मादिहिगो सगद्धाए एगो समओ अस्थि त्ति देवेसु उपवण्णा । विदियसमर सव्ये मिच्छत्तं' गदा । लद्धो एगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २०६॥ एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२०४ ॥ जैसे-कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ और सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्तकालसे पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुआ। अब असंयतसम्यग्दृष्टिकी कालप्ररूपणा करते हैं-कोई एक बद्धनरकायुष्क जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होकर दर्शनमोहनीयका क्षपण करके और प्रथम पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न होकर सबसे बड़े अन्तर्मुहर्तकालसे पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुआ। दोनोंके जघन्य कालोंसे दोनों ही उत्कृष्ट काल संख्यातगुणे हैं। शंका-यह कैसे जाना? समाधान-गुरुके उपदेशसे जाना कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि एक जीव की अपेक्षा बतलाए गए जघन्य कालोंसे उन्हीं के उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होते हुए भी संख्यातगुणित हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं । २०५॥ जैसे- सात आठ जन, अथवा बहुतसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थानके काल में एक समय अवशेष रहने पर देवोंमें उत्पन्न हुए और द्वितीय समयमें सबके सब मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकार एक समय प्राप्त हो गया। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ २०६॥ १ प्रतिषु ' सम्वमिच्छत्तं ' इति पाठः । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २०७. तं जहा- सत्तट्ठ जणा जावुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा एकवे-तिण्णि समए आदि कादूण जाव उक्कस्सेण समऊण-छ-आवलियाओ सासणद्धा अत्थि त्ति देवेसु उबवण्णा । ते सव्वे कमेण मिच्छतं गदा । तस्समए चेव पुवं व सासणा देवेसुववण्णा । एवं णिरंतरं णाणाजीवे अस्सिदूग सासणद्धा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता सगरासीदो असंखेज्जगुणा जादा त्ति । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २०७॥ तं जधा- एक्को सासणो सगद्धाए एगसमओ अस्थि त्ति देवेसुववण्णो, विदियसमए मिच्छत्तं गदो । लद्धो एगसमओ । उक्कस्सण छ आवलियाओ समऊणाओ ॥ २०८ ॥ तं जधा- एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अत्थि ति आसाणं गंतूण एगसमयमच्छिय उजुगदीए देवेसुववज्जिय समऊण-छ-आव. लियाओ आसाणेणच्छिय मिच्छत्तं गदो । जैसे-सात आठ जन, अथवा उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जीव, एक, दो अथवा तीन समयको आदि करके उत्कर्षसे एक समय कम छह आवलीप्रमाण सासादनकालके अवशेष रहने पर वे सबके सब देवोंमें उत्पन्न हुए। पुनः वे सब क्रमसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुए। उसी समयमें ही पूर्वके समान अन्य सासादनसम्यग्दृष्टि जीव देवों में उत्पन्न हुए । इस प्रकार निरन्तर नाना जीवोंका आश्रय करके सासादनगुणस्थानका काल पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र और अपनी राशिसे असंख्यातगुणा हो जाता है । - एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ २०७ ॥ जैसे-कोई एक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थानके कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर देवोंमें उत्पन्न हुआ और द्वितीय समयमें ही मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया। इस प्रकारसे एक समयप्रमाण काल उपलब्ध हो गया। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल एक समय कम छह आवलीप्रमाण है ॥ २०८॥ _जैसे कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य उपशमसम्यक्त्वके काल में छह आवलियां अवशिष्ट रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होकर और एक समय वहां पर रहकर ऋजुगतिसे देवों में उत्पन्न होकर एक समय कम छैह आवलीप्रमाण काल तक सासादनगुण. स्थानके साथ रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २११.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [१३१ आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २०९ ॥ तं जहा- सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा मणजोगेण वचिजोगेण वा अच्छिदा सगद्धाए खीणाए आहारकायजोगिणो जादा । विदियसमए मुदा, मूलसरीरं वा पविट्ठा। लद्धो एगसमओ । एत्थ वाघाद-गुणपरावत्तीहि एगो समओ ण लन्भदि ।। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१० ॥ तं जहा- आहारसरीरमुट्ठाविदपमत्तसंजदा मण-वचिजोगद्विदा आहारकायजोगिणो जादा । जाधे ते जोगतरं गदा, ताधे चेव अण्णे आहारकायजोगं पडिवण्णा । एवमेगादि एगुत्तरवड्डीए संखेज्जसलागाओ लभंति । एदाहि एगं कायजोगद्धं गुणिदे आहारकायजोगद्ध। उक्कस्सिया अंतोमुहुत्तपमाणा होदि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ २११॥ आहारककाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ २०९॥ ___ जैसे-सात आठ प्रमत्तसंयत मनोयोग अथवा वचनयोगके साथ वर्तमान थे। वे अपने योगकालके क्षीण हो जाने पर आहारककाययोगी हुए । द्वितीय समयमें मरे अथवा मूल औदारिकशरीरमें प्रविष्ट हुए । इस प्रकारसे एक समयका काल उपलब्ध हो गया। यहां पर व्याघात अथवा गुणस्थानपरिवर्तनके द्वारा एक समय नहीं प्राप्त होता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहते है॥ २१० ॥ जैसे- आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाले, मनोयोग अथवा वचनयोगमें विद्यमान प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगी हुर। जब वे किसी दूसरे योगको प्राप्त हुए उसी समयमें ही अन्य प्रमत्तसंयत आहारककाययोगको प्राप्त हुए। इस प्रकार एकको आदि लेकर एकोत्तर वृद्धिसे संख्यात शलाकाएं प्राप्त होती हैं । इन शलाकाओंसे एक काययोगके कालको गुणा करने पर उत्कृष्ट आहारककाययोगका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हो जाता है। एक जीवकी अपेक्षा आहारककाययोगी जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ २११ ॥ १ प्रतिषु 'पविट्ठो' इति पाठः । २ प्रतिषु 'जादे' इति पाठः। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २१२. जधा-एको पमत्तसंजदो मणजोगे वचिजोगे वा अच्छिदो आहारकायजोगं गदो । विदियसमए मदो, मूलसरीरं वा पविट्ठो । उकस्सेण अंतोमहत्तं ॥ २१२ ।। तं जधा-मणजोगे वचिजोगे वा द्विदपमत्तसंजदो आहारकायजोगं गदो', सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमाच्छिय अण्णजोगं गदो । आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१३ ॥ तं जधा- सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा दिट्ठमग्गा आहारमिस्सजोगिणो जादा, सबलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदा । एवं जहण्णकालो परूविदो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१४॥ तं जधा-सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा दिद्वमग्गा अदिट्ठमग्गा वा आहारमिस्सकायजोगिणो जादा, अंतोमुहुतेण पज्जत्तिं गदा। तस्समए चेव अण्णे आहारमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक-दो-तिण्णि जाव संखेज्जसलागा जादा ति कादव्वं । पुणो जैसे-मनोयोग या वचनयोगमें विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगको प्राप्त हुआ और द्वितीय समयमें मरा, अथवा मूल शरीरमें प्रविष्ट होगया । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।। २१२ ॥ जैसे-मनोयोग या वचनयोगमें विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके अन्य योगको प्राप्त हुआ। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयतजीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्तकाल होते हैं ॥ २१३ ॥ जैसे- देखा है मार्गको जिन्होंने ऐसे सात आठ प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तपनेको प्राप्त हुए। इस प्रकार जघन्य काल कहा। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २१४ ॥ जैसे- देखा है मार्गको जिन्होंने ऐसे, अथवा अदृष्टमार्गी सात आठ प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए और अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तियों की पूर्णताको प्राप्त हुए। उसी समयमें ही अन्य भी प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए। इस प्रकारसे एक, दो, तीनको आदि लेकर जब तक संख्यात शलाकाएं पूरी हों, तब तक संख्या बढ़ाते जाना १ अ-आ प्रत्योः अत्र - विदियसमए मदो' इत्यधिकः पाठः; क प्रतौ म-प्रत्योस्तु तत्पाठो नोपलभ्यते । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २१८.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [४३३ एदाहि सलागाहि आहारमिस्सकायजोगद्धं गुणिदे आहारमिस्सकायजोगस्स उकस्सकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो होदि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१५॥ तं जधा- एको पमत्तसंजदो पुव्वमणेगवारमुट्ठाविदआहारसरीरो आहारमिस्सकायजोगी जादो, सव्वल हुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदो । लद्धो जहण्णकालो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१६ ॥ तं जधा- एक्को पमत्तसंजदो अदिट्ठमग्गो आहारमिस्सो जादो । सव्वचिरेण अंतोमुहुत्तेण जहण्णकालादो संखेज्जगुणेण पज्जत्तिं गदो। कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २१७ ॥ कुदो ? विग्गहगदीए वट्टमाणजीवाणं सव्वद्धासु विरहाभावादो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २१८ ॥ चाहिए । पुनः इन शलाकाओंसे आहारकमिश्रकाययोगके कालको गुणा करने पर आहारकमिथकाययोगका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट काल होता है। ___ एक जीवकी अपेक्षा आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २१५॥ जैसे- पूर्वमें जिसने अनेक वार आहारकशरीरको उत्पन्न किया है ऐसा कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुआ और सबसे लघु अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तकपनेको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे जघन्य काल प्राप्त हो गया। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २१६ ॥ जैसे- नहीं देखा है मार्गको जिसने ऐसा कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुआ, और जघन्य कालसे संख्यातगुणे सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्तद्वारा पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुआ। कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २१७॥ क्योंकि, सभी कालों में विग्रहगतिमें विद्यमान जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवक्री अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ।। २१८ ॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २१९. तं जहा- एगो मिच्छादिट्ठी विग्गहगदिणामकम्मवसेण एगविग्गहे मारणतियं गदो । पुणो अंतोमुहुत्तेण छिण्णाउओ होदूण बद्धाउवसेण उप्पण्णपढमसमए कम्मइयकायजोगी जादो । विदियसमए ओरालियमिस्सं वेउब्वियमिस्सं वा गदो । लद्धो एगसमओ । उक्कस्सेण तिणि समया ।। २१९ ॥ तं जधा- एगो सुहुमेइंदियो अहो सुहुमवाउकाइएसु तिण्णि विग्गहं मारणंतियं गदो । अंतोमुहुत्तेण छिण्णाउओ होदूण उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि तिसु विग्गहेसु तिण्णि समय कम्मइयजोगी होदूण चउत्थसमए ओरालियमिस्सं गदो। सुहुमेइंदियाणं सुहुमेइंदिएसु उप्पज्जमाणाणं तिणि विग्गहा होति त्ति णियमो कधं णव्वदे ? णत्थि एत्थ णियमो, किंतु संभवं पडुच्च सुहुमेइंदियग्गहणं कदं । बादरेइंदिया सुहमेइंदिया तसकाया वा सुहुमेइंदिएसु उववज्जमाणा तिण्णि विग्गहे करेंति त्ति एस णियमो घेत्तव्यो, आइरियपरंपरागदत्तादो। तिण्णिविग्गहाकरणदिसा बुच्चदे- बम्हलोगुदेसे वामदिसालोगपेरंतादो जैसे- एक मिथ्यादृष्टि जीव, विग्रहगतिनामकर्मके वशसे एक विग्रहवाले मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्तसे छिन्नायुष्क होकर बांधी हुई आयुके वशसे उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें कार्मणकाययोगी हुआ। पुनः द्वितीय समयमें औदारिकमिश्रकाययोगको, अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोगको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे एक समय उपलब्ध हुआ। एक जीवकी अपेक्षा कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल तीन समय है ॥ २१९॥ जैसे-एक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव अधस्तन सूक्ष्मवायुकायिकोंमें तीन विग्रहवाले मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्तसे छिन्नायुष्क होकर उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लगाकर तीन विग्रहोंमें तीन समय तक कार्मणकाययोगी होकर चौथे समयमें औदारिकमिश्रकाययोगको प्राप्त हो गया। शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके तीन विग्रह होते हैं, यह नियम कैसे जाना ? समाधान- यद्यपि इस विषयमें कोई नियम नहीं है, तो भी संभावनाकी अपेक्षा यहां पर सूक्ष्म एकेन्द्रियोंका ग्रहण किया है। अतएव सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले बादर एकेन्द्रिय या सूक्ष्म एकेन्द्रिय अथवा त्रसकायिक जीव ही तीन विग्रह करते हैं, यह नियम ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, यही उपदेश आचार्यपरम्परासे आया हुआ है। अब तीन विग्रह करनेकी दिशाको कहते हैं- ब्रह्मलोकवर्ती प्रदेशपर वामदिशा Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २२१. ] कालानुगमे कायजोगिकालपरूवणं [ ४३५ तिरिच्छेण दक्खिणं तिण्णि रज्जुमेतं गंतूण तदो साद्धदसरज्जूणि अधो कंडुज्जुवं गंतूण तदो संमुहं चदुरज्जुमेतं आगंतूण कोणदिसाठिदलोग परंतसु हुम वा उकाइएस उपजमाणस्स' तिष्णि विग्गहा होंति । सासणसम्मादिट्टी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २२० ॥ तं जधा - सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी एगविग्गहं कादूणुप्पण्णपढमसमए एगसमओ कम्मइय कायजोगेण लब्भदि । उक्कस्से आवलियाए असंखेज्जदिभागो ॥ २२२ ॥ तं जधासास सम्मादिट्ठि असं जदसम्मादिडिणो दोण्णि विग्गहं काढूण बद्धाउवसेणुपज्जिय दोणि समए अच्छिय ओरालियमिस्सं वेडव्वियमिस्सं वा गदा । तस्समए चैत्र अण् कम्मइयकायजोगिणो जादा । एवमेगं कंडयं काढूण एरिसाणि' आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तं कंडयाणि होंति । एदाणं सलागाहि दोण्णि समए गुणिदे आवलियाए असंखेज्जभागमेत्तो कम्मइयकायजोगस्स उक्कस्सकालो होदि । सम्बन्धी लोकके पर्यन्त भागले तिरछे दक्षिणकी ओर तीन राजुप्रमाण जाकर पुनः साढ़े दश राजु नीचे की ओर वाणके समान सीधी गति से जाकर पश्चात् सामने की ओर चार राजुप्रमाण आकर कोणवर्ती दिशामें स्थित लोकके अन्तवर्ती सूक्ष्म वायुकायिकों में समुत्पन्न होनेवाले जीवके तीन विग्रह होते हैं । कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ २२० ॥ जैसे - कोई सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव एक विग्रह करके उत्पन्न होने के प्रथम समय में एक समय कार्मणकाययोगके साथ पाया जाता है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है || २२१ ॥ जैसे -- पूर्व पर्यायको छोड़नेके पश्चात् कितने ही सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जी बांधी हुई आयुके वशसे उत्पन्न होकर विग्रहगति में दो विग्रह करके, दो समय रद्द कर, पुनः औदारिक मिश्रकाययोगको अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोगको प्राप्त हुए । उसी समय में ही दूसरे भी जीव कार्मणकाययोगी हुए । इस प्रकार इसे एक कांडक करके, इसी प्रकार के अन्य अन्य आवलीके असंख्यातवें भागमात्र कांडक होते हैं । इन कांडकों की शलाकाओं से दोनों समयोंको गुणा करने पर आवलीका असंख्यातवां भागमात्र कार्मणकाययोगका उत्कृष्ट काल होता है । १ अकं प्रत्योः ' कादंयाए समुप्पज्जमाणस्स ; आ प्रतौ काइयाएसं उप्पज्जमाणस्स ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'एरिसाणे ' इति पाठः । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २२२० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २२२ ॥ सुगममेदं सुत्तं । उक्कस्सेण वे समयं ॥ २२३ ॥ कुदो ? एदेसिं सुहुमेइंदिएसु उप्पत्तीए अभावा, वड्डि-हाणिकमेण द्विदलोगंते उप्पत्तीए अभावादो च। सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण तिण्णि समयं ॥ २२४ ॥ ___तं जहा- सत्तट्ठ जणा वा सजोगिणो समगं कवाडं गदा, पदर-लोगपूरणं गंतूण भूओ पदरं गंतूण तिण्णि समयं कम्मइयकायजोगिणो होदूण कवाडं गदा । उकस्सेण संखेज्जसमयं ॥ २२५ ॥ कुदो ? तिण्णि समइयं कंडयं काऊण संखेज्जकंडयाणमुवलंभा। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तिणि समयं ॥ २२६ ॥ एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ २२२ ॥ यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल दो समय है ।। २२३ ॥ क्योंकि, इन सासादन या असंयतगुणस्थानवी जीवोंकी सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पत्तिका अभाव है। तथा वृद्धि और हानिके क्रमसे विद्यमान लोकके अन्तमें भी उनकी उत्पत्तिका अभाव है। कार्मणकाययोगी सयोगिकेवली कितने समय तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय होते हैं ॥ २२४ ॥ जैसे-- सात अथवा आठ सयोगिजिन एक साथ ही कपाटसमुद्धातको प्राप्त हुए, और प्रतर तथा लोकपूरणसमुद्धातको प्राप्त होकर पुनः प्रतरसमुद्धातको प्राप्त हो, तीन समय तक कार्मणकाययोगी रह करके कपाटसमुद्धातको प्राप्त हुए। कार्मणकाययोगी सयोगिजिनोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ॥ २२५॥ क्योंकि, तीन समयवाले कांडकको करके उनके संख्यात कांडक पाये जाते हैं। एक जीवकी अपेक्षा कार्मणकाययोगी सयोगिजिनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल श्रीन समय है ॥ २२६ ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २२९.] कालाणुगमे इत्थिवेदिकालपरूवणं (११७ कुदो ? पदरादो लोगपूरणादो वा कवाडस्स गमणामावा । एवं जोगमग्गणा समत्ता। वेदाणुवादेण इथिवेदेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सब्बद्धा ॥ २२७ ॥ कुदो ? सव्वद्धासु इत्थिवेदमिच्छादिट्ठीणं विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २२८ ॥ तं जधा- एको इथिवेदगो सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदो पमत्तसंजदो वा परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णकालमच्छिय अण्णगुणं गदो। उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ २२९॥ तं जधा- एक्को अणप्पिदवेदो इत्थिवेदेसु उववण्णो । पुणो तत्थ इत्थिवेदेण पलिदोवमसदपुधत्तं परियट्टिय अणप्पिदवेदं गदो । क्योंकि, कार्मणकाययोगी सयोगिजिनका प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातसे लौटकर कपाटसमुद्धातमें जानेका अभाव है। इस प्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २२७ ॥ क्योंकि, सभी कालोंमें स्त्रीवेदवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २२८ ॥ जैसे- कोई एक स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यात्यको प्राप्त होकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण रह करके अन्य गुणस्थानको चला गया। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमशतपृथक्त्व है ॥ २२९ ॥ जैसे-- अविवक्षित वेदवाला कोई एक जीव स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न हुआ। पुनः वहां पर स्त्रीवेदके साथ पल्योपमशतपृथक्त्व काल तक परिवर्तन करके अविवक्षित वेदको चला गया। १ सीवेदेषु मिप्यादृष्ठेर्नानाजीनापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, .. १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १,८. Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ - हक्खंडागमे जीवहाणं [ १, ५, २३०. सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ २३० ॥ णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण रासीदो असंखेज्जगुणो, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्तेण छ आवलियाओ, इच्चेएण ओघादो विसेसाभावा ओघमिदि वुत्तं । सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ २३१ ॥ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सगरासीदो असंखेजगुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो; एगजीवं पडुच्च जहण्णुकस्सेण अंतोमुहत्तं, इच्चेदेण ओघादो भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा॥ २३२ ॥ कुदो ? इत्थिवेदम्हि असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदकालाणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २३३ ॥ स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २३० ॥ माना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे अपनी राशिसे असंख्यातगुणा पल्योपमका असंख्यातवां भाग, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवलीप्रमाण काल है, इस प्रकार ओघके कालसे कोई विशेषता नहीं है, अतएव ओघ यह पद सूत्रमें कहा। स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका काल ओघके समान है ॥ २३१ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त, और उत्कृष्ट काल अपनी राशिसे असंख्यातगुणित पल्योपमके असंख्यातवें भाग है; तथा एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इस प्रकार ओघके कालसे कोई भेद नहीं है। स्त्रीवेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २३२ ॥ .. क्योंकि, स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे विरहित कोई काल नहीं पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३३ ॥ १ सासादनसम्यम्हष्ट पानिवृत्तिबादरान्तानां सामाग्योक्तः कालः | स. सि. १, ८. किंतु असंयतसम्यग्दष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। स. सि. १, ८. १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २३५.] कालाणुगमे इस्थिवेदिकालपरूवणं [४३९ तं जधा- एगो मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा इत्थिवेदगो परिणामपच्चएण असंजदसम्मादिट्ठी होदूण सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय जहण्ण. कालाविरोहेण गुणंतरं गदो । लद्धो जहण्णकालो।। उक्कस्सेण पणवण्णपलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ २३४ ॥ कुदो ? अणप्पिदवेदस्स पणवण्णपलिदोवमाउट्ठिदिदेवीसु उववन्जिय छ पज्जत्तीओ समाणिय अंतोमुहत्तं विस्समिय पुणो अंतोमुहुत्तं विसुद्धो होदण वेदगसम्मत्तं पडिवजिय सम्मत्तेण आउट्ठिदिमणुपालिय कालं कादूग पुरिसवेदं पडिवण्णस्स तीहिं' अंतोमुहुत्तेहि ऊणपणवण्णपलिदोवमुवलंभा। संजदासंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि ति ओघं ॥ २३५॥ कुदो ? ओघं पेक्खिदूण उत्तगुणट्ठाणाणं भेदाभावा । णवरि संजदासजदउक्कस्सकालम्हि अस्थि विसेसो । तं जधा- एको अवीससंतकम्मिओ त्थीवेदेसु कुक्कुड जैसे-- एक मिथ्यादृष्टि, या सम्यग्मिथ्यादृष्टि, या संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत स्त्रीवेदी जीव परिणामोंके निमित्तसे असंयतसम्यग्दृष्टि होकर और सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त रह करके जघन्य कालके अविरोधसे किसी दूसरे गुणस्थानको चला गया। इस प्रकार जघन्य काल लब्ध हुआ। एक जीवकी अपेक्षा स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्योपम है ॥ २३४ ॥ क्योंकि, किसी अविवक्षित अन्य वेदवाले जीवके पचवन पल्योपमकी आयुस्थितिवाली देवियों में उत्पन्न हो, छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर, अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके, पुनः अन्तमुहूर्त में विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर सम्यक्त्वके साथ अपनी आयुस्थितिको परिपालन कर, मरणको करके पुरुषवेदको प्राप्त हुए जीवके तीन अन्तर्मुहूतौसे कम पचवन पल्योपमप्रमाण काल पाया जाता है। संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक स्त्रीवेदी जीवोंका काल आपके समान है ॥ २३५॥ क्योंकि, ओघके कालको देखते हुए सूत्रोक्त गुणस्थानोंके कालोंमें कोई भेद नहीं है। केवल संयतासंयतके उत्कृष्ट कालमें विशेषता है। वह इस प्रकार है-मोहकर्मकी अट्ठाईस १ उत्कर्षेण पंचपंचाशत्पल्योपमानि देशोनानि । स. सि. १. २ क प्रतौ' विहि' इति पाठ । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० छक्खंडागमे जीषट्ठाणं [१, ५, २३६. मकडादिसु उववज्जिय वे मासे गम्भे अच्छिदूण णिप्फिडिय मुहुर्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं घेत्तूण वेमासमुहुत्त पुत्तूणपुव्बकोडिं संजमासंजममणुपालिय मदो देवो जादो ति । ओघम्हि पुण अंतोमुहुत्तूणपुव्वकोडिसंजदासंजदउक्कस्सकालो सण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तमच्छ-कच्छव-मंडूकादिसु लद्धो, एत्थ सो ण लब्भदि, सम्मुच्छिमेसु इत्थिवेदामावा। - पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥२३६ ॥ तिसु वि अद्धासु पुरिसवेदमिच्छादिट्ठीणं विरहासंभवा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं ॥ २३७ ॥ कुदो ? असंजदसम्मादिहिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स संजदासंजदस्स पमत्तसंजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स मिच्छादिट्ठी होण सवजहण्णमच्छिय गुणंतरं पडिवण्णस्स अंतोमुहुत्तुवलंभा । प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव स्त्रीवेदी कुक्कुट, मर्कट आदिमें उत्पन्न होकर, और दो मास गर्भ में रह, निकल करके मुहूर्तपृथक्त्वके ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको युगपत् ग्रहण करके दो मास और मुहूर्तपृथक्त्वसे कम पूर्वकोटीवर्षप्रमाण संयमासंयमको परिपालन करके मरा और देव हो गया। किन्तु ओघकालप्ररूपणामें जो अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटी वर्ष संयतासंयतका उत्कृष्ट काल कहा है वह संशी सम्मूर्च्छिम पर्याप्त मच्छ, कच्छा मंडूकादिकोंमें ही पाया जाता है, वह यहां पर नहीं पाया जाता है। क्योंकि, सम्मूछिम जीवों में स्त्रीवेदका अभाव है। पुरुषवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २३६ ॥ .. क्योंकि, तीनों ही कालोंमें पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंका विरह असंभव है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है॥ २३७ ॥ क्योंकि, देखा है मार्गको जिसने, ऐसे असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयतके, मिथ्यादृष्टि होकर और सर्वजघन्य काल रह करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। १ अ प्रतौ ‘णिफिलिय मुहुत्तं'; आ प्रतौ । णिप्फिडियमंतोमुहुत्तं '; क प्रतौ । णिफिडिलिय मुहुत्तं'; म प्रतौ 'णिप्फलिय मुहुत्त-' इति पाठः। २ प्रतिषु 'दुगदं ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'कच्छमदि-' इति पाठः। ४ पुर्वेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवा क्षपाठःकालः । स. सि. १,८. ५ एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स, सि. १, ८. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २४०.] कालाणुगमे णयुसयवेदिकालपरवणं उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ २३८॥ . एदस्सुदाहरणं-एको स्थी-णQसयवेदेसु बहुवारं परियट्टिदजीवो पुरिसदेसु उन्वण्णो । पुरिसवेदो होदूण सागरोवमसदपुधत्तं परिभमिय अणप्पिदवेदं' गदो। तिसदमादि करिय जाव णवसदं ति एदिस्से संखाए सदपुधत्तमिदि सण्णा । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अणियट्टि ति ओघं ॥२३९॥ कुदो ? एदेसि उत्तगुणट्ठाणाणं णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सकालेहि ओपादो भेदाभावा । णवरि संजदासंजदाणमित्थिवेदभंगो। __णवंसयवेदेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २४० ॥ कुदो ? सव्वद्धासु एदेसिं विरहाभावा ।। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ २३८ ॥ इसका उदाहरण- स्त्री और नपुंसकवेदी जीवोंमें बहुत वार परिभ्रमण किया हुमा कोई एक जीव पुरुषवेदियों में उत्पन्न हुआ। पुरुषवेदी होकर सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करके अविवक्षित वेदको चला गया। तीन सौ को आदि करके नौ सौ तकाकी संख्याकी 'शतपृथक्त्व' यह संशा है। . सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणसानवी पुरुषवेदी जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २३९ ॥ . क्योंकि, इन सूत्रोक्त गुणस्थानोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालके साथ ओघसे कोई भेद नहीं है। विशेष बात यह है कि पुरुषवेदी संयतासंयतोंका काल स्त्रीवेदी संयतासंयतोंके समान है। नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥ २४०॥ क्योंकि, सभी कालोंमें इन जीवोंके विरहका अभाव है। १ उत्कण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. २ अ-आ-क प्रतिषु · अप्पिदवेदं' इति पाठः म प्रतौ तु स्वीकृतपाठः। ३ सासादनसम्यग्दृष्टयाएनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. ४ नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स.सि. १,८. Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ २४९ ॥ कुदो ? सम्मामिच्छादिट्ठिस्स असंजदसम्मादिट्ठिस्स संजदासंजदस्स संजदस्स वा मिच्छतं गंतूण सव्वजहण्णद्धमच्छिय गुणंतरं गदस्स अंतोमुहुत्तुवलंभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियङ्कं ॥ २४२ ॥ एदस्सुदाहरणं - एक्को परिभमिदत्थी - पुरिसवेदट्ठिदिगो वुंसयवेदं पडिवज्जिय तमच्छतो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परिभमिय अण्णवेदं गदो । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ २४३ ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ २४४ ॥ दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि । असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २४५ ॥ ४४२ ] एक जीवकी अपेक्षा नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २४१ ॥ क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, या असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयत, अथवा संयंत जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहां पर सर्व जघन्य काल रह करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्तकाल पाया जाता है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ २४२ ॥ इसका उदाहरण - जिसने पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण किया है, ऐसा कोई एक जीव नपुंसकवेदको प्राप्त होकर, उसे नहीं छोड़ता हुआ आवलीके असंक्यातवें भागमात्र पुगलपरिवर्तनोंतक परिभ्रमण करके अन्य वेदको प्राप्त हुआ । सासादनसम्यग्दृष्टि नपुंसकवेदी जीवोंका काल ओघके समान है || २४३ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि नपुंसकवेदी जीवोंका काल ओघके समान है ।। २४४ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि नपुंसकवेदी जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २४५ ॥ १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स. सि. १, ८. [ १, ५, २४१. ३ सासादनसम्यग्दृष्टयाद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ४ किन्त्वसंयत सम्यग्वष्टेनीनाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २४८.] कालाणुगमे णवंसयवेदिकालपरूवणं सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ २४६ ॥ कुदो ? मिच्छादिहिस्स संजदासंजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स असंजदसम्मत्तं पडिवजिय सव्वजहण्णद्धमच्छिय गुणंतरं गदस्संतोमुहुत्तुवलंभा । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २४७ ॥ कुदो ? अट्ठावीससंतकम्मिगस्स सत्तमपुढवीए' उप्पज्जिय छ पज्जत्तीओ समाणिय विस्समिय विसुद्धो होदूण सम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तावसेसे आउए मिच्छतं गंतूण आउअंबंधिय अंतोमुहुत्तं विस्समिय णिग्गदस्स छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणतेत्तीस. सागरोवलंभा। संजदासंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि चि ओघं ॥२४८ ॥ कुदो ? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि ओघादो विसेसाभावा । यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २४६ ॥ क्योंकि, दृष्टमार्गी मिथ्यादृष्टि या संयतासंयत जीवके असंयतसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सर्वजघन्य काल रह करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होने पर अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥ २४७॥ क्योंकि, मोहकर्मकी अट्ठावीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले किसी जीवके सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होकर, छह पर्याप्तियों को सम्पन्न करके, विश्राम कर और विशुद्ध होकर, तथा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर, आयुके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर, मिथ्यात्वको जाकर, आगामी भवसम्बन्धी आयुको बांधकर, अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके निकलनेवाले जीवके छह अन्तर्मुहूर्तीसे कम तेतीस सागरोपम काल पाया जाता है। संयतासंयतसे लेकर. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक नपुंसकवेदी जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २४८॥ क्योंकि, नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालके साथ मोषसे कोई विशेषता नहीं है। १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण देशोनानि | स. सि. १, ३ प्रतिषु 'सत्पुढवीए' इति पाठः। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २४९. अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ २४९॥ . कुंदो ? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि ओघादो विसेसाभावा । __ एवं वेदमग्गणा समत्ता । कसायाणुवादेण कोहकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति मणजोगिभंगों ॥२५०॥ कुदो ? दव्वट्ठियणयावलंबणेण । पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो। तं वत्तइस्सामो । तं जधा- कोधकसाई मिच्छादिट्ठी एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । एत्थ कसाय-गुणपरावत्ति-मरणेहि एगसमओ वत्तव्यो । वाघादेण एगसमओ ण लब्भदि, कोधस्सेव तत्थुप्पत्तीदो। तं जधा-एको सासणो सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा कोधकसाई एगसमयं कोधकसायद्धा अत्थि त्ति मिच्छत्तं गदो । एगसमयं कोधेण मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए अण्णकसायं गदो । एसा कसायपरावत्ती । अपगतवेदी जीवोंमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अवेदभागसे लेकर अयोगिफेवली गुणस्थान तकके जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २४९ ।।। क्योंकि, नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालके साथ ओघसे कोई विशेषता नहीं है। ___ इस प्रकार घेदमार्गणा समाप्त हुई । __कषायमागणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकरायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत तकका काल मनोयोगियोंके समान है ।। २५०॥ ... क्योंकि, सूत्र में द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन किया गया है। किन्तु पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करने पर विशेषता है। उसे कहते हैं। जैसे- क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है। यहां पर कषायपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन मौर मरणके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा कहना चाहिए । व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि, व्याघातके होने पर तो क्रोधकी ही उत्पत्ति होती है। मैसे-कोई सासादनसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत क्रोधकषायी जीव क्रोधकषायके कालमें एक समय अवशेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। एक समय क्रोधके साथ मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ, मौर द्वितीय समयमें किसी और कषायको प्राप्त हो गया । यह कषायपरिवर्तनसम्बन्धी एक १ अपगतवेदानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. पायानुवादेन चतुष्कषायाणां मिथ्यादृष्टयाचप्रमत्तान्ताना मनोयोगिवत् । स. सि. १,८. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २५०.] कालाणुगमे चदुकसाइकालपरूवणं [४५ एको मिच्छादिट्ठी अण्णकसाएणच्छिदो, तस्स अद्धाक्खएण कोधकसाओ आगदो, एगसमयं कोहेण सह दिट्ठो । विदियसमए सम्मामिच्छत्तं असंजदसम्मत्तं संजमासंजमं अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो । एसा गुणपरावती । एको मिच्छादिट्ठी अण्णकसाएणच्छिदो, तस्सद्धाक्खएण कोहकसाई जादो । एगसमयं कोहेण सह दिहो । विदियसमए मदो अण्णकसाएसु उववण्णो । एसो मरणेण एगसमओ । कोहेण मदो णिरयगदीएण उप्पादेदव्यो, तत्थुप्पण्णजीवाणं पढमं कोधोदयस्सुवलंभा । माणेण मदो मणुसगदीएण उप्पादेदव्यो, तत्थुप्पण्णाणं पढमसमए माणोदयणियमोवदेसा । मायाए मदो तिरिक्खगईएण उप्पादेदयो, तत्थुप्पण्णाणं पढमसमए माओदयणियमोवदेसा । लोभेण मदो देवगदीएण उप्पादेदव्यो, तत्थुप्पण्णाणं पढमं चेय लोहोदओ होदि ति आइरियपरंपरागदुवदेसा' । एवं सेसगुणट्ठाणाणं पि णादण वत्तव्यं । एवं माण-माया लोभाणं वत्तव्यं । णवरि कसाय-गुणपरावत्ति-मरण-वाघादेहि चउहि वि एगसमयपरूवणा वत्तन्वा । समयकी प्ररूपणा है । एक मिथ्यादृष्टि जीव जो कि अन्य कषायमें वर्तमान था, उस कषायके कालक्षयसे क्रोधकषायको प्राप्त हुआ। एक समय वह क्रोधकषायके साथ हाष्टिगोचर हुआ और द्वितीय समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको अथवा असंयतसम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। यह गुणस्थानपरिवर्तन है। एक मिथ्यादृष्टि जीव अन्य कषायमें विद्यमान था। उस कषायके कालक्षयसे वह क्रोधकषायी हो गया। एक समय क्रोधकषायके साथ दृष्टिगोचर हुआ। पुनः द्वितीय समयमें मरा और अन्य कषायोंमें उत्पन्न हुआ । यह मरणकी अपेक्षा एक समय हुआ। क्रोधकषायके साथ मरा हुआ जीव नरकगतिमें उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, नरकों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सर्व प्रथम क्रोधकषायका उदय पाया जाता है। मानकषायसे मरा हुआ जीव मनुष्यगतिमें उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके प्रथम समयमें मानकषायके उदयके नियमका उपदेश देखा जाता है। मायाकषायसे मरा हुआ जीव तिर्यग्गति में उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, तिर्यंचोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मायाकषायके उदयका नियम देखा जाता है । लोभ कषायसे मरा हुआ जीव देवगतिमें उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सर्व प्रथम लोभकषायका उदय होता है। ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है। इसी प्रकारसे शेष गुणस्थानोंका भी काल जान कर कहना चाहिए । इसी प्रकार मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायोंके कालोंकी प्ररूपणा करना चाहिए । विशेष बात यह है कि कषायपरिवर्तन, गुणपरिवर्तन, मरण और व्याघात, इन चारोंके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा कहना चाहिए। १ णारयतिरिक्षणरसुरगईसु उप्पण्णपदमकालम्हि । कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि ॥ गो.गी. २८०. www.jainelibrary Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २५१. दोण्णि तिण्णि उवसमा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २५१ ॥ तिसु वि कसाएसु दोहि उवसामगा, अणियट्टीदो उवरि तिहं कसायाणमभावा । लोभकसाए तिण्णि उवसामगा, उपसंतकसाए लोभोदयाभावा । एदेसिं कसायपरावत्तिगुणपरावत्ति-वाघादेहि एगसमओ णत्थि । कुदो ? तहाविहुवएसाभावा । किंतु अणियट्टिसुहुमसांपराइयाणं चढंत-ओयरत-पढमसमए मदाणं एगसमओ लब्भइ । अपुव्वस्स पुण ओयरंतस्स पढमसमए चेव । कुदो ? चढमाणअपुवस्स पढमसमए मरणाभावा । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥२५२॥ कुदो ? चढंत-ओयरंतपज्जयपरिणदजीवेहि अंतोमुहुत्तकालं एदेसिं गुणट्ठाणाणमसुण्णत्तुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २५३ ॥ क्रोध, मान और माया, इन तीनों कषायोंकी अपेक्षा दो उपशामक अर्थात् आठवें और नवें गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव, और लोभकषायकी अपेक्षा तीन उपशामक अर्थात् आठवें, नवें और दशवें गुणस्थानवर्ती उपशमश्रेण्यारोहक जीव, कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ २५१ ॥ क्रोधादि तीनों ही कषायोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, ये दो गुणस्थानघर्ती उपशामक जीव होते हैं। क्योंकि, अनिवृत्तिकरणसे ऊपर तीनों कषायोंका अभाव है। लोभकषायमें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय, ये तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव होते है, क्योंकि, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें लोभकषायके उदयका अभाव है। इन उपर्युक्त दो और तीन गुणस्थानवर्ती उपशामकोंमें कषायपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन और व्याघात, इन तीनों की अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा नहीं है, क्योंकि, उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। किन्तु, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके चढ़ने या उतरनेके प्रथम समयमें मरे हुए जीवोंके एक समय पाया जाता है। अपूर्वकरण गुणस्थानके उतरनेके प्रथम समयमें ही एक समय पाया जाता है, क्योंकि, उपशमश्रेणी पर चढ़नेवाले अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीवके प्रथम समयमें मरणका अभाव है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५२ ॥ क्योंकि, उपशमश्रेणी पर चढ़ती और उतरती हुई पर्यायसे परिणत जीवोंकी अपेक्षा भन्तर्मुहूर्त काल इन गुणस्थानोंके अशून्य अर्थात् परिपूर्ण रूपसे पाया जाता है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ २५३ ।। द्वयोपशमकयोः xx केवललोभस्य च xx सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४७ १, ५, २५५.] कालाणुगमे चदुकसाइकालपरूवणं कुदो ? तिण्हमुवसामगाणं मरणेण एगसमओवलंभा। ..... उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५४ ॥ कुदो ? कसायाणमुदयस्स अंतोमुहुत्तादो उवरि णिच्छएण विणासो होदि ति गुरुवदेसा । दोण्णि तिण्णि खवा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं ॥२५५॥ एत्थ एगसमओ किण्ण लब्भदे ? उच्चदे- ण ताव कसायपरावत्तीए एगसमओ लब्भदि, खवगुवसामगे सकसायुदयस्स जहण्णकालस्स वि अंतोमुहुत्तपरिमाणुवदेसा । ण गुणपरावत्तीए वि एगसमओ, एगसमइयस्स कसायुदयस्स खवगुवसमसेढीसु अभावा । ण वाघादेण, खवगुवसमसेढीसु वाघादस्स पडिसेधा । ण मरणेण वि, खवगेसु मरणाभावा । तदो जहण्णकालेण णिच्छएण अंतोमुहुत्तेण होदधमिदि । क्योंकि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय, इन तीनों उपशामक जीवोंके मरणके साथ एक समय पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५४ ॥ क्योंकि, कषायोंके उदयका अन्तर्मुहूर्त कालले ऊपर निश्चयसे विनाश होता है, इस प्रकार गुरुका उपदेश है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, ये दो गुणस्थानवर्ती क्षपक तथा अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय, ये तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं ॥ २५५ ॥ . शंका-इन सूत्रोक्त क्षपक जीवोंके एक समयप्रमाण काल क्यों नहीं पाया जाता है? समाधान-उक्त आशंकापर उत्तर कहते हैं कि उक्त दोनों या तीनों गुणस्थानों में न तो कषायपरिवर्तनसे एक समय पाया जाता है, क्योंकि, क्षपक या उपशामकों में अपनी उदयागत कषायके उदयका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होता है, ऐसा आचार्य परम्पराका उपदेश है। और न गुणपरिवर्तनके द्वारा ही एक समयप्रमाण काल पाया जाता है, क्योंकि, एक समयवाले कषायके उदयका क्षपक और उपशम श्रेणियों में अभाव है । न व्याघातके द्वारा ही एक समय पाया जाता है, क्योंकि, क्षपक और उपशमश्रेणियों में व्याघातका प्रतिषेध पाया जाता है। और न मरणके द्वारा ही एक समय पाया जाता है, क्योंकि, क्षपकों में मरणका अभाव है। इसलिए यहां पर कषायोंका जघन्य काल निश्चयसे अन्तर्मुहूर्त ही होना चाहिए। - १xx द्वयोः क्षपकयोः केवललोभस्य च ४ सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, .. . Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, २५.. उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५६ ॥ कमेण अंतोमुहुर्ततरेण खवगसेढिं चडमाणबहुजीवे अस्सिदूण जहण्णकालादो संखेजगुणकालुवलंभा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५७ ॥ एदस्स अत्थो सुगमो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥२५८ ॥ एवं पि सुगमं । अकसाईसु चदुट्ठाणी ओघं ॥२५९ ॥ कुदो ? सवेण वि पयारेण णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालगदविसेसाभावा । ___ एवं कसायमग्गणा समत्ता। णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओथं ॥२६०॥ उक्त जीवोंके उक्त कषायोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५६ ॥ क्योंकि, क्रमशः अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे क्षपकश्रेणी पर चढ़नेवाले बहुत जीवोंकी अपेक्षा जघन्य कालसे उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५७ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५८ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। अकषायी जीवोंमें अन्तिम चतुर्गुणस्थानी जीवोंका काल ओघके समान है ॥२५९॥ क्योंकि, सर्व ही प्रकारसे नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ठ कालयत कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओषके समान है ॥ २६० ॥ xxx अकषायाणां च सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. २मानानुवादेन मयशानिश्रुताज्ञानिषु मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयोः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २६४.] कालाणुगमे विभंगणाणिकालपरूवणं [११९ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणमिच्चेएण ओघादो भेदाभावा । अणादिअणिहण-अणादिसणिणअण्णाणेसु मदि-सुदअण्णाणी वि अत्थि, किंतु तेहि एत्थ अणहियारो । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ २६१ ॥ कुदो ? मदि-सुदअण्णाणविरहिदसासणाणमभावा । विभंगणाणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥२६२ ॥ कुदो ? विभंगणाणिमिच्छादिट्ठीणं तिसु वि कालेसु संताणवोच्छेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ २६३ ॥ कुदो ? असंजदसम्मादिद्विस्स संजदासंजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स मिच्छत्तं पडिवजिय सवजहण्णद्धमच्छिय गुणंतरं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तविभंगणाणकालुवलंमा । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २६४ ॥ ................ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। इस प्रकारसे ओघके कालसे कोई भेद नहीं है। यद्यपि अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त अज्ञानोंमें मत्यज्ञानी और श्रुताशानी भी जीव हैं, किन्तु उनका यहां पर अधिकार नहीं है। मति-श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६१ ॥ क्योंकि, मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानसे रहित सासादनगुणस्थानी जीवोंका अभाव है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २६२॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी परम्पराके व्युच्छेदका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २६३ ॥ क्योंकि, दृष्टमार्गी असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयतके मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर और सर्व जघन्य काल तक वहां रह कर गुणस्थानान्तरको गये हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण विभंगज्ञानका काल पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥ २६४ ॥ र विभंगज्ञानिषु मिथ्यादृष्टेनीनाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, २६५. उदाहरणं - एक्को मिच्छादिट्ठी सत्तमाए पुढवीए उववज्जिय छ पज्जतीओ समानिय विभंगणाणी जादो । अप्पणो आउट्ठिदिमणुपालिय कालं काऊण णिग्गयस्स हूं विभंगणाणं, अपज्जतद्धाए तस्स विरोहा । एवमंतो मुहुत्तूण तेत्तीस सागरोवमाणि विभंगणाणस्स उक्कस्सकालो होदि । सास सम्मादिट्टी ओघं ॥ २६५ ॥ णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण सगरासीदो असंखेज्जगुणो, एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, इच्चेपण ओघादो भेदाभावादो । आभिणिबोहियणाणि-सुदणाणि ओधिणाणी असंजदसम्मादिट्ठपहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ २६६ ॥ कुदो ? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि एदेसि ओघादो विसेसाभावा । णवरि ओधिणाणि संजदासंजदेगजीवुक्कस्सकालम्हि अस्थि विसेसो । तं जहा- एक्को अट्ठावीस उदाहरण - एक मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवी में उत्पन्न होकर और छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न करके विभंगज्ञानी हुआ । अपनी आयुस्थितिको परिपालन कर और मरण करके निकला । तब उसका विभंगज्ञान नष्ट हो गया, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें विभंगज्ञान के होनेका विरोध है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम विभंगज्ञानका उत्कृष्ट काल होता है । विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ।। २६५ ॥ क्योंकि, नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य काल एक समय, उत्कृष्ट काल अपनी राशि से असंख्यातगुणा, तथा एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलिप्रमाण, इस प्रकार ओघ काल से कोई भेद नहीं है । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक जीवोंका काल ओघके समान है ।। २६६ ।। क्योंकि, नाना और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा इन सूत्रोक्त जीवोंके काल में ओघसे कोई विशेषता नहीं है । केवल, अवधिज्ञानी संयतासंयत गुणस्थानसम्बन्धी एक जीवके उत्कृष्ट कालमें विशेषता है । वह इस प्रकार है- मोहकर्म की १ सासादनसम्यग्दृष्टेः सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. २ आमिनि बोधिक श्रुतावधिमनः पर्यय केवलज्ञानिनां सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. ३ प्रतिषु ' अस्थि चि विसेसा ' इति पाठः । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २६९.] कालाणुगमे संजदकालपरूवर्ण [४५१ संतकम्मिओ सण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो संजमासंजम पडिवज्जिय मदि-सुदणाणी जादो । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण ओधिणाणमुप्पादेदि । एत्तिओ चेव विसेसो, णत्थि अणत्थ कत्थ वि ।। मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजद पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ २६७ ॥ कुदो ? पमत्तापमत्तसंजदाणमुवसामगाणं खवगाणं च णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि ओघादो भेदाभावा । केवलणाणीसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली ओघं ॥ २६८ ॥ कुदो ? केवलणाणविरहिदसजोगि-अजोगिकेवलीणमभावा । एवं णाणमग्गणा समत्ता। संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ २६९ ॥ अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव संझी, सम्मूछिम, पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ और छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त हो, विश्राम करता हुआ, विशुद्ध होकर, संयमासंयमको प्राप्त कर, मति श्रुतज्ञानी हो गया। पुनः अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् अवधिज्ञानको उत्पन्न करता है। इतनी मात्र ही विशेषता है और कहीं भी कोई विशेषता नहीं है। मनःपर्ययज्ञानियों में प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६७ ॥ क्योंकि, प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका तथा उपशामक और क्षपकोंका नाना जीव और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालोंके साथ ओघप्ररूपणासे कोई भेद नहीं है। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६ ॥ क्योंकि, केवलज्ञानसे रहित सयोगिकेवली और अयोगिकेवलियोंका अभाव है। इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयतसे लेकर अयोगिकेवली तक जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६९ ॥ . १ प्रतिषु ओधिणाणीमुप्पादेदि' इति पाठः । २ संयमानुवावेन सामायिक च्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यात शुद्धिसंयताना xx मामा. न्योक्तः कालः । स. सि. १,८. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ५, २७०. सामण्णसंजमे अवलंबिदे विसेसाणुवलद्धीदो । सामाइय-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ २७० ॥ कुदो ? पमत्तापमत्ताणं णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो समओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । दोण्हमुवसामगाणं जहण्णेण णाणेगजीवं पडुच्च एगो समओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं, दोण्हं खवगाणं णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमिच्चेएण ओघादो भेदाभावा । परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अप्पमत्तसंजदा ओघं ।। २७१ ।। कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ, अंतोमुहुत्तमिच्चेदेहि विसेसाभावा । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवा ओघं ॥ २७२ ॥ कुदो ? सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणमुभयस्थ संजमभेदाभावा । क्योंकि, संयमसामान्यके अवलंबन करने पर ओघके कालसे कोई भेद नहीं पाया जाता। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण तकके जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २७० ॥ क्योंकि, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आठवें और नवें गुणस्थानवर्ती दोनों उपशामकोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आठवें और नवे गुणस्थानवर्ती दोनों क्षपकोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इस प्रकार ओघके कालसे कोई भेद नहीं है। परिहारविशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका काल ओघके समान है ॥२७१ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त है, इस प्रकार ओघके कालसे कोई विशेषता नहीं है। ___ सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उपशामक और क्षपकोंका काल ओघके समान है ॥ २७२ ॥ फ्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंके दोनों श्रेणियों में संयमके भेदका अभाव है। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २७६.] कालाणुगम चक्खुदंसणिकालपरूवणं [१५३ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुवाणी ओघं ॥ २७३ ॥ कुदो ? ओघादेसेसु चदुण्हं गुणट्ठाणाणं संजमभेदाणुवलंभा। संजदासंजदा ओघं ॥ २७४ ॥ सुगमो एदस्स अत्थो। असंजदेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि ति ओघं ॥ २७५॥ एदस्स वि अत्थो अवधारिओघद्धाणं सुगमो । एवं संजममग्गणा समत्ता । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा ॥ २७६ ॥ कुदो ? चक्खुदंसणिमिच्छादिट्ठिविरहिदकालाभावा । ___ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें अन्तिम चार गुणस्थानवाले जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २७३ ॥ ___क्योंकि, ओघ और आदेशमें चारों गुणस्थानोंके संयमोंमें कोई भेद नहीं पाया जाता है। संयतासंयतोंका काल ओषके समान है ॥ २७४ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। असंयत जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक असंयतोंका काल ओघके समान है ॥ २७५ ॥ जिन्होंने ओघसम्बन्धी कालको भलीभांति अवधारण किया है, ऐसे शिष्यों के लिए इस सूत्रका अर्थ सुगम है। __इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २७६ ॥ क्योंकि, चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंसे रहित कालका अभाव है। १xxx संयतासंयतानtxx सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. २xxx असंयतानां च सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. ३ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दशनिषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। स. सि. १,८ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४] छक्खंडागमे जीवट्टाणं [ १, ५, २७७. एगजीवं पड्डुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७७ ॥ कुदो ? सम्मामिच्छादिहिस्स असंजदसम्मादिहिस्स संजदासंजदस्स संजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णद्धमच्छिय गुणंतरं गदस्स अंतोमुहुत्तकालुवलंभा। उकस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि ॥ २७८ ॥ उदाहरणं- एगो अचक्खुदंसणी मिच्छादिट्ठी चक्खुदंसणीसु उववण्णो। चक्खुदसणी होदूण वे सागरोवमसहस्साणि परिभमिय अचक्खुदंसणं गदो । लद्धिअपज्जत्तेसु चक्खुदंसणं णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं व किण्ण उच्चदे ? ण, तम्हि भवे तत्थ चक्खुदंसणुवजोगाभावा । णिव्यत्तिअपज्जत्ताणं तम्हि भवे णियमेण चक्खुदंसणुव जोगुवलंभा । सासणसम्मादिढिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥२७९॥ कुदो ? चक्खुदसणविरहिदसासणादीणमभावा । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २७७ ॥ क्योंकि, दृष्टमार्गी सम्याग्मिथ्यादृष्टि, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या संयतके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहां पर सर्व जघन्य काल रह करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल दो हजार सागरोपम है ॥ २७८ ॥ उदाहरण- कोई एक अवक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव चक्षुदर्शनियोंमें उत्पन्न हुआ, और चक्षुदर्शनी होकर दो हजार सागरोपम काल तक परिभ्रमण करके अचक्षुदर्शनको प्राप्त हो गया। (इस प्रकार सूत्रोक्त काल सिद्ध हुआ।) शंका-निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके समान लब्ध्य पर्याप्तकोंमें चक्षुदर्शन क्यों नहीं कहा? समाधान- नहीं, क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्तकोंके उसी भवमें चक्षुदर्शनोपयोगका अभाव पाया जाता है। किन्तु निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके तो उसी भवमें नियमसे ही चक्षुदर्शनोपयोग पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछस्थ गुणस्थान तक चक्षुदर्शनी जीवोंका काल ओषके समान है ।। २७१ ।। क्योंकि, चक्षुदर्शनसे रहित सासादनादि गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं । १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स.सि. १,८. २ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहसे । स. सि. १,.. ३ सासादनसम्यग्दृष्टयादीनां क्षीणकषायान्तानी सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २८४.] कालाणुगमे असुह-ति-लेस्सियकालपरूवणं [ ४५५ अचक्खुदसणीसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ओघं ॥२८० ॥ कुदो ? अचक्खुदंसणविरहिदसावरणजीवाणुवलंभा। ओधिदंसणी ओधिणाणिभंगों ॥ २८१ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ २८२ ॥ एदाणि दोवि सुत्ताणि अवहारिदणाणाणुवादाणं सुगमाणि । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २८३ ॥ कुदो ? सव्वकालं तिलेस्सियमिच्छादिट्ठीगं विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥२८४ ॥ अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तकका काल ओघके समान है ॥ २८० ॥ क्योंकि, अचक्षुदर्शनसे रहित सावरण जीव नहीं पाये जाते हैं । अवधिदर्शनी जीवोंका काल अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २८१ ॥ केवलदर्शनी जीवोंका काल केवलज्ञानियोंके समान है ॥ २८२ ॥ ज्ञानमार्गणाके कालानुवादका अवधारण करनेवाले शिष्योंके लिए ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥२३॥ क्योंकि, सर्वकाल ही तीनों अशुभ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा तीनों अशुभ लेश्यावाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२८४॥ १ अचक्षुर्दशनिघु मिथ्यादृष्टयादिक्षीण कषायान्ताना सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. २ अवधि-केवलदर्शनिनोरवाधि-केवलज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. ३ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्याम मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. ४ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २८४. ... किण्हलेस्साए ताव अंतोमुहुत्तपरूवर्ण कीरदे । तं जधा-णीललेस्साए अच्छिदस्स तिस्से अद्धाखएण किण्हलेस्सा जादा । सव्वलहुमंतोमुहुत्तमच्छिदूण णीललेस्सिओ जादो । । काउलेस्सिओ किण्ण होदि ? ण, किण्हलेस्साए परिणदस्स जीवस्स अणंतरमेव काउलेस्सापरिणमणसत्तीए असंभवा ।। ____णीललेस्साए उच्चदे- हीयमाण-वड्डमाणकिण्हलेस्साए काउलेस्साए वा अच्छिदस्स णीललेस्सा आगदा । सव्वजहण्णमंतोमाच्छिय जहण्णकालाविरोहेण काउलेस्सं किण्हलेस्सं वा गदो, अण्णलेस्सागमणासंभवा । के वि आइरिया हीयमाणलेस्साए चेव जहण्णकालो होदि त्ति भणंति । काउलेस्साए वि उच्चदे- हायमाणणीललेस्साए तेउलेस्साए वा अच्छिदस्स काउलेस्सा आगदा। तत्थ सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय जदि तेउलेस्सादो आगदो, तो णीललेस्सं णेदव्यो। अह णीललेस्सादो आगदो तो तेउलेस्साए णेदव्वो, अण्णहा संकिलेस-विसोहीओ आउरंतस्स जहण्णकालाणुववत्तीदो । एत्थ जोगस्सेव एगसमओ जहण्ण पहले कृष्णलेश्याके अन्तर्मुहूर्त कालकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैनीललेश्यामें वर्तमान किसी जीवके उस लेश्याके काल क्षय हो जानेसे कृष्णलेश्या हो गई, और वह उसमें सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके नीललेश्यावाला हो गया। शंका-कृष्णलेश्याके पश्चात् कापोतलेश्यावाला क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, कृष्णलेझ्यासे परिणत जीवके तदनन्तर ही कापोतलेश्यारूप परिणमन शक्तिका होना असंभव है। अब नीललेश्याके अन्तर्मुहूर्त कालकी प्ररूपणा करते हैं- हीयमान कृष्णलेश्यामें अथवा वर्धमान कापोतलेश्यामें विद्यमान किसी जीवके नीललेश्या आगई। तब वह जीव उसमें सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके जघन्य कालके अविरोधसे यथासंभव कापोतलेश्याको अथवा कृष्णलेश्याको प्राप्त हुआ, क्योंकि, इन दोनों लेश्याओंके सिवाय उसके अन्य किसी लेश्याका आगमन असंभव है। कितने ही आचार्य, हीयमान लेश्याम ही जघन्य काल होता है, ऐसा कहते हैं। __अब कापोतलेश्याके जघन्य कालको कहते हैं- हायमान नीललेश्यामें अथवा तेजोलेश्यामें विद्यमान जीवके कापोतलेश्या आगई। वह जीव उस लेश्याम सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके, यदि तेजोलेश्यासे आया है तो नीललेश्यामें ले जाना चाहिए; और यदि नीललेश्यासे आया है तो तेजोलेश्यामें ले जाना चाहिए । अन्यथा संक्लेश और विशुद्धिको आपूरण करनेवाले जीवके जघन्य काल नहीं बन सकता है। शंका-यहां पर योगपरावर्तनके समान एक समयरूप जघन्य काल क्यों नहीं १ म-प्रतौ ' हायमाण ' इत्यपि पाठः। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २८५.] कालाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सियकालपरूवणं कालो किण्ण लब्भदे ? ण, जोग-कसायाणं व लेस्साए तिस्सा परावत्तीए गुणपरावत्तीए मरणेण वाघादेण वा एगसमयकालस्सासंभवा । ण ताव लेस्सापरावत्तीए एगसमओ लब्भदि, अप्पिदलेस्साए परिणमिदविदियसमए तिस्से विणासाभावा, गुणंतरं गदस्स विदियसमए लेस्संतरगमणाभावादो च । ण गुणपरावत्तीए, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए गुणंतरगमणाभावा । ण च वाघादेण, तिस्से वाघादाभावा। ण च मरणेण, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए मरणाभावा । उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोवमाणि सादिरयाणि ॥ २८५॥ एदेसिमुदाहरणाणि । तं जधा- णीललेस्पाए अच्छिदस्स किण्हलेस्सा आगदा । तत्थ सव्वुक्कस्समतोमुहुत्तमच्छिय अधो सत्तमीए पुढवीए उववण्णो । तत्थ तेत्तीसं सागरोवमाणि गमिय उवट्टिदो । पच्छा वि अंतोमुहुत्तकालं भावणवसेण सा चेव लेस्सा होदि । एवं दोहि अंतोमुहुत्तेहि सादिरेयाणि तेत्तीस सागरोवमाणि किण्हलेस्साए उक्कस्सकालो होदि । पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, योग और कषायोंके समान लेश्यामें लेश्याका परिवर्तन, अथवा गुणस्थानका परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघातसे एक समय कालका पाया जाना असंभव है । इसका कारण यह है कि न तो लेश्यापरिवर्तनके द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समयमें उस लेश्याके विनाशका अभाव है। तथा इसी प्रकारसे अन्य गुणस्थानको गये हुए जीवके द्वितीय समयमें अन्य लेश्यामें जानेका भी अभाव है । न गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समय संभव है, क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समयमें अन्य गुणस्थानके गमनका अभाव है । न व्याघातकी अपेक्षा ही एक समय संभव है, क्योंकि, वर्तमानलेश्याके व्याघातका अभाव है। और न मरणकी अपेक्षा ही एक समय संभव है, क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समयमें मरणका अभाव है। उक्त तीनों अशुभ लेश्याओंका उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीस सागरोपम, साधिक सत्तरह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम प्रमाण है ॥ २८५॥ इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-- नीललेश्यामें विद्यमान किसी जीवके कृष्णलेश्या आगई । उसमें वह सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रह करके मरण कर नीचे सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां वह तेतीस सागरोपम काल बिताकर निकला। सो पीछे भी अन्तर्मुहूर्त काल तक भावनाके वशसे वही ही लेश्या होती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोंसे अधिक तेतीस सागरोपम कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल होता है। १ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २८६. ___णीललेस्साए उच्चदे- काउलेस्साए अच्छिदस्स णीललेस्सा आगदा । तत्थ दीहमंतोमुहुत्तमच्छिदूण पंचमीए पुढवीए उववण्णो। तत्थ सत्तारस सागरोवमाणि ताए लेस्साए गमिय उववट्टिदो । उववट्टिदस्स वि अंतोमुहुत्तं सा चेव लेस्सा होदि । एवं दोहि अंतोमुहुत्तेहि सादिरेयाणि सत्तारस सागरोवमाणि णीललेस्साए उक्कस्सकालो होदि ।। ___ काउलेस्साए उच्चदे- तेउलेस्साए अच्छिदस्स सगद्धाए खीणाए काउलेस्ता आगदा । तत्थ दीहमंतोमुहुत्तमच्छिय तदियाए पुढवीए उववण्णो । तीए लेस्साए सत्त सागरोवमाणि तत्थ गमिय उववहिदो। उववट्टिदस्स वि सा चेव लेस्सा अंतोमुहुत्तं होदि । एवं दोहि अंतोमुहुत्तेहि सादिरेयाणि सत्त सागरोवमाणि काउलेस्साए उक्कस्सकालो होदि। सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥२८६ ॥ __ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो समओ, उक्कस्सण रासीदो असंखेज्ज. गुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो समओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, एदेहि तिलेस्सागदसासणाणं तदो भेदाभावा । अब नीललेश्याका काल कहते हैं- कापोतलेश्यामें वर्तमान जीवके नीललेश्या आ गई । उसमें उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रह करके वह जीव पांचवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां पर सत्तरह सागरोपम काल उस लेश्याके साथ बिताकर निकला। निकलने पर भी अन्तर्मुहूर्त तक वही ही लेश्या होती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूतौसे अधिक सत्तरह सागरोपम नीललेश्याका उत्कृष्ट काल होता है। ___ अब कापोतलेश्याका उत्कृष्ट काल कहते हैं- तेजोलेश्यामें विद्यमान किसी जीवके उस लेश्याके कालके क्षीण हो जाने पर कापोतलेश्या आगई। उसमें उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रह कर मरण करके तृतीय पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां पर उसी लेश्याके साथ सात सागरोपम काल बिताकर निकला। निकलने के पश्चात् भी वही लेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोंसे अधिक सात सागरोपम कापोतलेश्याका उत्कृष्ट काल होता है। उक्त तीनों अशुभ लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २८६ ॥ __क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे अपनी राशिसे असंख्यातगुणा पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवलीप्रमाण काल है। इस प्रकारसे तीनों अशुभ लेश्याओंको प्राप्त हुए सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके कालका ओघसे कोई भेद नहीं है। १ सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यग्मिण्यादृष्टयोः सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २८९.] कालाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सियकालपरूवणे [४५९ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥२८७ ॥ कुदो ? णाणाजीव पडुच्च जहण्गेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सगरासीदो असंखेज्जगुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तमिच्चेदेहि तदो भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २८८ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २८९ ॥ तं जहा- एगो असंजदसम्मादिट्ठी वड्डमागणीललेस्साए अच्छिदो किण्हलेसं गदो। तत्थ सधजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो णीललेस्सामागदो। णीललेस्साए उच्चदे- हायमाणकिण्हलेस्सिओ णीललेस्सी जादो। ताए सबजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय काउलेस्सं गदो । काउलेस्साए उच्चदे- एगो सम्मादिट्ठी हायमाणणीललेस्सिओ काललेस्सं गदो । तत्थ उक्त तीनों अशुभ लेश्यावाले सम्यग्मियादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २८७॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट काल अपनी राशिसे असंण्यातगुणा पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इस प्रकार इनका ओघकालसे कोई भेद नहीं है। उक्त तीनों अशुम लेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २८९ ।। जैसे- वर्धमान नीललेश्यामें विद्यमान कोई एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कृष्णलेश्याको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पुनः नीललेश्यामें आगया। अब नीललेश्याका काल कहते हैं- हायमान कृष्णलेश्यावाला कोई एक जीव नीललेश्यावाला होगया। उस लेश्यामें सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर कापोत. लेझ्याको प्राप्त होगया। अब कापोतलेश्याका काल कहते हैं- हायमान नीललेश्यावाला १ असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ५, २९०. सवजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय तेउलेस्सिओ जादो । पुव्वं हायमाण-वड्डमाणतेउ-काउलेस्साहिंतो काउ-णीललेस्साणमागदाण जहण्णकालो उत्तो, सो संपहि एत्थ किण्ण उच्चदे ? ण, पाएण तस्सुवएसाभावा । उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोवमाणि देसूणाणि ॥२९०॥ किण्हलेस्साए देसूणाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि, णीललेस्साए देसूणसत्तारस सागरोबमाणि, काउलेस्सियाए देसूणसत्त सागरोवमाणि । 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो ' त्ति णायादो उदाहरणाणि उद्देसपरिवाडीए णिदिसंते । तं जहा- एको अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी सत्तमाए पुढवीए किण्हलेस्साए सह उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो होदूण सम्मत्तं पडिवण्णो। अंतोमुहुत्तूणतेत्तसिं सागरोवमाणि भवसंबंधेण अवद्विदाए किण्हलेस्साए गमिय अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्तं गंतूण आउअंबंधिय विस्समिय मदो, तिरिक्खो जादो। एवं छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि किण्हलेस्साए उक्कस्सकालो होदि । एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कापोतलेश्याको प्राप्त हुआ। उसमें सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके तेजोलेश्याको प्राप्त हुआ। . शंका-पहले हायमान तेजोलेश्या और वर्धमान कापोतलेश्यासे क्रमशः कापोत और नीललेश्यामें आये हुए जीवोंका जघन्य काल कहा है, सो वह अब यहां पर क्यों नहीं कहते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि, प्रायः आजकल उस प्रकारके उपदेशका अभाव है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम, सत्तरह सागरोपम और सात सागरोपम है ॥ २९० ॥ कृष्णलेश्यामें कुछ कम तेतीस सागरोपम, नीललेश्यामें कुछ कम सत्तरह सागरोपम भौर कापोतलेश्यामें कुछ कम सात सागरोपम काल है। सो जैसा उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश होता है' इस न्यायानुसार इनके उदाहरण भी उद्देशकी परिपाटीसे निर्दिष्ट किये जाते हैं। वे इस प्रकारसे हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीमें कृष्णलेश्याके साथ उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर, विश्राम ले तथा विशुद्ध होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। सम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम भवसम्बन्धसे अवस्थित कृष्णलेश्याके साथ बिताकर, अन्तर्मुहूर्त कालके अवशिष्ट रहने पर मिथ्यात्वको जाकर परभवकी आयु बांधकर, विश्राम लेकर मरा और तिर्यंच हुआ । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूतोंसे कम तेतीस सागरोपम कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल होता है। १ उत्कषण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २९०. ] कालानुगमे किण्ह - नील- काउलेस्सियकालपरूवण [ ४६१ एगो अट्ठावीस संतकम्मिओ नीललेस्साए पंचमपुढवीए हेडिमपत्थडे उकस्साउट्ठिदिओ होण उववण्णो । तत्थ जहणिया किण्हलेस्सा चे ण, सव्धेसिं रइयाणं तत्थतणाणं ती चैव लेस्साए अभावा । एक्कम्हि पत्थडे भिण्णलेस्साणं कथं संभवो १ विरोहाभावा । एसो अत्थो सव्वत्थ जाणिदव्वो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो होदून सम्मत्तं पडिवण्णो । आउट्ठदिमणुपालिय मुदो मणुस्सो जादो । तत्थ वि अंतोमुहुत्तं तीए चेव लेस्साए अच्छिदूण लेस्संतरं गदो । पच्छिल्लमं तो मुहुत्तं पुव्विल्लतिसु अंतोमुहुत्तेसु सोहिय सुद्ध सेसेणं ऊणाणि सत्तारस सागरोवमाणि असंजदसम्मादिट्ठिस्स गीललेस्साए उक्कस्सकालो होदि । एगो मिच्छादिट्ठी तदियाए पुढवीए उक्कस्साउट्टिदिओ काउलेस्साओ होदूण उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्ध होदूग सम्मत्तं पडिवज्जिय आउट्ठिदिमणुपालय मणुसो जादो । पच्छा वि अंतोमुहुतं सा चेव लेस्सा होदि । पच्छिल्लं मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव नीललेश्या के साथ पांचवीं पृथिवीके अधस्तन प्रस्तारके उत्कृष्ट आयुकर्मकी स्थितिवाला हो करके उत्पन्न हुआ । शंका- पांचवीं पृथिवीके अधस्तन प्रस्तार में तो जघन्य कृष्णलेश्या होती है ? - समाधान – नहीं, पांचवीं पृथिवीके अधस्तन प्रस्तार के समस्त नारकियोंके उसी ही लेश्या का अभाव है। शंका - एक ही प्रस्तार में दो भिन्न भिन्न लेश्याओंका होना कैसे संभव है ? समाधान - एक ही प्रस्तार में भिन्न भिन्न जीवोंके भिन्न भिन्न लेश्याओंके होने में कोई विरोध नहीं है । ( अर्थात् कुछ नारकियोंके उत्कृष्ट नीललेश्या ही होती है, और कुछके जघन्य कृष्णलेश्या होती है ।) यही अर्थ सर्वत्र जानना चाहिए । इस प्रकार पांचवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ वह जीव छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त हो, विश्राम लेकर तथा विशुद्ध होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। वहां अपनी आयुस्थितिका परिपालन करके मरा और मनुष्य हुआ। वहां पर भी अन्तर्मुहूर्त तक उसी पूर्वलेश्या के साथ रह कर अन्य लेश्याको प्राप्त हुआ। इस प्रकार पिछले अन्तर्मुहूर्तको पूर्वके तीन अन्तर्मुहूतौसे कम करके बचे हुए अन्तर्मुहूताँसे कम सत्तरह सागरोपम असंयतसम्यग्दृष्टिके नीललेश्या का उत्कृष्ट काल होता है । एक मिथ्यादृष्टि जीव तीसरी पृथिवीमें वहां की उत्कृष्ट आयुकर्म की स्थितिवाला तथा कापोतलेश्यावाला होकरके उत्पन्न हुआ, और छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो, विश्राम ले, विशुद्ध होकर सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अपनी आयुकर्मकी स्थितिको भोग करके मनुष्य हुआ । पीछे भी अन्तर्मुहूर्त तक वही ही लेश्या होती है । इस पिछले अन्तर्मुहूर्तको Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૨] क्खडागमे जीवाणं [ १, ५, २९१. अंतोमुहुत्तं पुव्विल्लतिसु' अंतोमुहुत्तेसु सोहिय सुद्धसेसेण ऊणाणि सत्त सागरोवमाणि काउलेस्साए उक्कस्सकालो होदि । तेउलेस्सिय- पम्मलेस्सिएस मिच्छादिट्टी असंजदसम्मादिडी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २९९ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं ॥ २९२ ॥ तं जधा - हायमाणपम्म लेस्साए अच्छिदस्स सगद्धाखएण तेउलेस्सा आगदा । तत्थ सव्वजहण्णमंते|मुहुत्तमच्छिय काउलेस्सं गदो । एवमसंजदसम्मादिस्सि वि तेउलेस्साए जहण्णकालो वत्तव्त्रो | पम्मलेस्साए उच्चदे- एक्को सुक्कलेस्साए हायमाणाए अच्छिदो मिच्छादिट्ठी तिस्से अद्धाखरण पम्मलेस्सिओ जादो । सव्वजहणमंत मुहुत्तमच्छिदूण तेउलेस्सं गदो | एवं जहणेण अंतोमुहुत्तं मिच्छादिट्ठी पम्मलेस्साए । एवमसंजद सम्मादिडिस्स वि जहणकालो वतव्वो । पहले के तीन अन्तर्मुहूतोंमेंसे घटा कर शेष बचे हुए अन्तर्मुहूतोंसे कम सात सागरोपम कापोतलेश्याका उत्कृष्ट काल होता है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। २९१ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।। २९२ ॥ जैसे- हायमान पद्मलेश्या में विद्यमान किसी मिथ्यादृष्टि जीवके अपनी लेश्याके काल क्षय हो जाने से तेजोलेश्या आगई । उसमें सर्वजधन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके वह कापोतलेश्याको प्राप्त हो गया। इस प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके भी तेजोलेश्याका जघन्य काल कहना चाहिए । अब पद्मश्याका जघन्य काल कहते हैं— कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव हायमान शुक्लेश्या में विद्यमान था । उस लेश्या के कालके क्षय हो जानेसे वह पद्मलेश्यावाला हो गया। वहां सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके तेजोलेश्याको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल तक वह मिध्यादृष्टि जीव पद्मलेश्या में रहा । इसी प्रकार से असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका भी जघन्य काल कहना चाहिए । १ प्रतिषु अंतोषं सा चेव लेस्सा पुव्विलंतिसु ' इति पाठः । २ तेजः पद्मलेश्य योर्मिथ्यादृष्टय संयत सम्यग्दृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १८० ३ एकजीवं प्रति जघम्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २९३.] कालाणुगमे तेउ-पम्मलेस्सियकालपरूवणं [ ४६३ उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ २९३ ॥ तं जधा-एको मिच्छादिट्ठी काउलेस्साए अच्छिदो। तिस्से अद्धाखएण तेउलेस्सिओ जादो। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिद्ग मदो सोहम्मे उववण्णो। वे सागरोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणब्भहियाणि जीविदूण चुदो णट्ठलेस्सिओ जादो । लद्धा सगद्विदी पुचिल्लंतोमुहुत्तेण अब्भधिया। अंतोमुहुत्तूणअड्डाइज्जसागरोवममेत्ता द्विदी किण्ण लब्मदे ? ण, मिच्छादिहि-सम्मादिट्टीहि उवरिमदेवेसु बद्धमाउअमोवट्टणाघादेण धादिय मिच्छादिट्ठी जदि सुट्ठ महंतं करेदि, तो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणब्भधियवेसागरोवमाणि करेदि, सोहम्मे उप्पजमाणमिच्छादिट्ठीणं एदम्हादो अहियाउट्ठवणे सत्तीए अभावा। अड्डाइजसागरोवमद्विदीए उप्पण्णसम्मादिढि मिच्छत्तं णेदूण उक्कस्सकालं भणिस्सामो ? ण, अंतोमुहुलूणड्डाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिहिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावा । तेजोलेश्याका उत्कृष्ट काल सातिरेक दो सागरोपम और पद्मलेश्याका उत्कृष्ट काल सातिरेक अठारह सागरोपम है ॥ २९३ ॥ जैसे-एक मिथ्यादृष्टि जीव कापोतलेश्यामें विद्यमान था। उस लेश्याके कालक्षयसे वह तेजोलेस्यावाला हो गया। उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर मरा और सौधर्मकल्पमें उत्पन्न हुआ। वहां पर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो सागरोपम काल तक जीवित रह कर च्युत हुआ और उसकी तेजोलेश्या नष्ट हो गई। इस प्रकार पूर्वके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक दो सागरोपम सौधर्मकल्पकी मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति तेजोलेश्याको प्राप्त हो गई। शंका-मिथ्यादृष्टि जीवके तेजोलेश्याकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तसे कम अढ़ाई सागरोपमप्रमाण क्यों नहीं पाई जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवोंके द्वारा उपरिम देवों में बांधी हुई आयुको उद्वर्तनाघातसे घात करके मिथ्यादृष्टि जीव यदि अच्छी तरह खूब बड़ी भी स्थिति करे, तो पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अभ्यधिक दो सागरोपम करता है, क्योंकि, सौधर्मकल्पमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके इस उत्कृष्ट स्थितिसे अधिक आयुकी स्थिति स्थापन करनेकी शक्तिका अभाव है। शंका-यदि हम अढ़ाई सागरोपम स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टिको मिथ्यात्वमें ले जाकर तेजोलेश्याका उत्कृष्ट काल कहें तो? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त कम अढ़ाई सागरोपमकी स्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्मनिवासी सम्यग्दृष्टि देवके मिथ्यात्वमें जानेकी संभावनाका अभाव है। १ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८.. . Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २९३. तं पि कधं णबदे ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागब्भाहयवेसागरोवममेत्ता सोहम्मीसाणे मिच्छाइट्ठि-आउट्ठिदी होदि ति आइरियपरंपरागदोवदेसा । अधवा अण्णेणुवएसेण अड्डाइज्जसागरोवमाणि देखणाणि मिच्छादिहिस्स वि संभवंति, भवणादिसहस्सारंतदेवेसु मिच्छाइद्विस्स दुविहाउट्ठिदिपरूवणण्णहाणुववत्तीदो । असंजदसम्मादिहिस्स उच्चदे- एक्को असंजदो सोहम्मीसाणदेवेसु वे सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणं सागरोवमस्स अद्धं च आउवं करिय अंतोमुहुत्तं तेउलेस्सी होदण कमेण कालं करिय सोहम्मे उववण्णो । सगढिदिमच्छिय पुणो मणुसेसुववन्जिय अंतोमुहुत्तं तीए चेव लेस्साए परिणमिय पम्मलेस्सं काउलेस्सं वा गदो । लद्धाणि अंतोमुहुत्तणअड्डाइजसागरोवमाणि संपुण्णाणि । अहियाणि वा किण्ण होति त्ति उत्ते ण, पुवावरकालम्हि लद्धअंतोमुहुत्तादो अद्धसागरोवमम्हि पडिदंतोमुहुत्तस्स बहुत्तुवदेसा। __पम्मलेस्साए उच्चदे- एको मिच्छादिट्ठी वड्डमाणतेउलेस्सिओ सगद्धाए खीणाए शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो सागरोपमप्रमाण सौधर्मईशानकल्पमें मिथ्यादृष्टिकी आयुस्थिति होती है। इस प्रकारका आचार्यपरम्परागत उपदेश है अथवा अन्य उपदेशसे कुछ कम अढ़ाई सागरोपमकाल सौधर्म-ईशानकल्पवासी मिथ्यादृष्टि देवके भी संभव है, अन्यथा, भवनवासियोंसे लगाकर सहस्रारकल्प तकके देवों में मिथ्यादृष्टि जीवके दो प्रकारकी आयुस्थितिकी प्ररूपणा हो नहीं सकती थी। _अब असंयतसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट तेजोलेश्याके कालको कहते हैं- एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म ऐशान देवोंमें दो सागरोपम और अन्तर्मुहूर्त कम सागरोपमके अर्घ भागप्रमाण आयुको बांध करके एक अन्तर्मुहूर्त तेजोलेश्यावाला हो करके और क्रमसे मर कर सौधर्मकल्पमें उत्पन्न हुआ। पुनः अपनी आयुस्थिति तक वहां रह कर और मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त तक उसी ही लेश्यासे परिणत हो, पद्मलेश्या या कापोतलेश्याको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्त कम पूरा अढाई सागरोपमकाल प्राप्त हो गया। शंका-अन्तर्मुहूर्तसे कम अढ़ाई सागरोपमकालसे अधिक काल क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अढ़ाई सागरोपमकालके आदि और अन्तमें लब्ध होनेवाले अन्तर्मुहूर्तसे अर्ध सागरोपम कालमें पतित अन्तर्मुहूर्तके बहुत्यका उपदेश पाया जाता है। अब पद्मलेश्याके उत्कृष्ट कालको कहते हैं-- वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई एक १ प्रतिषु · देवीम् ' इति पाठः । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,५, २९५. ] कालानुगमे तेउ - पम्मलेस्सियकालपरूवणं [ ४६५ पम्मलेस्सिओ जादो । दीहमंतोमुहुत्तमच्छिय सदार- सहस्सारकप्पवासिय देवेसु उववण्णो । तत्थ अट्ठारह सागरोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भहियाणि जीविदूण चुदस्स ट्ठा पम्मलेस्सा | असंजदसम्मादिट्ठिस्स उच्चदे - एको संजदो पम्मलेस्साए अंत मुहुतमच्छिदो सदार-सहरसा देवेसु अट्ठारस सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणमद्धसागरं च आउअं करिय कमेण कालं करिय सहस्सारदेवेसु उववज्जिय सगट्ठिदिमच्छिय चुदो मणुसो जादो । तत्थ वि अंतोमुहुत्तं पम्मलेस्साए अच्छिय सुकलेस्सं तेउलेस्सं वा गदो । लद्धाणि अंतीमुत्तूद्धसागरोवमेण अहियाणि अट्ठारस सागरोवमाणि । सासणसम्मादिट्टी ओघं ॥ २९४ ॥ कुदो ? णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण सगरासीदो असंखेज्जगुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, इच्चेदेहि तेउ - पम्मलेस्सियसासणाणं तत्तो भेदाभावा । सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ २९५ ॥ मिथ्यादृष्टि जीव अपने कालके क्षीण होने पर पद्मलेश्यावाला हो गया । और वहां उस लेश्या में उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह करके शतार - सहस्रारकल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक अठारह सागरोपम काल तक जीवित रह कर च्युत हुआ, तब उसके पद्मलेश्या नष्ट हो गई । अब असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके पद्मलेश्याका उत्कृष्ट काल कहते हैं - एक संयत पद्मश्यामें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा और शतार- सहस्रार देवों में अठारह सागरोपम और अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध सागरोपमकी आयुको बांध कर, क्रमसे मरण कर, सहस्रारकल्प के देवोंमें उत्पन्न होकर और अपनी स्थितिप्रमाण वहां रद्द करके च्युत हो मनुष्य होगया । वहां पर भी अन्तर्मुहूर्त तक पद्मलेश्या में रह करके शुक्ललेश्याको या तेजोलेश्याको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपम कालसे अधिक अठारह सागरोपम प्राप्त हुए । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २९४ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अपनी राशिले असंख्यातगुणा पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से छह आवलिप्रमाण काल है । इस रूपसे तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले: सासादनसम्यग्दृष्टियोंके कालका ओघप्ररूपणा से कोई भेद नहीं है । उक्त दोनों लेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २९५ ॥ १ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोः सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८० Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, २९६. कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुर्त्तमिच्चेएहि तेउ - पम्म लेस्सियसम्मामिच्छादिट्ठीणं तत्तो भेदाभावा । संजदासंजद- पमत्त - अप्पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २९६ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ।। २९७ ॥ तत्थ तात्र संजदासंजदाणमेगसमयपरूत्रणा कीरदे- एकको मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा वड्ढमाणतेउलेस्सिओ एगसमओ तेउलेस्साए अस्थि त्ति संजमा संजम पडिवण्णो । एगसमयं संजमासंजमं तेउलेस्साए सह दिहं । विदियसमए संजदासंजदो पम्मलेस्सं गदो | एसा लेस्सापरावती ( १ ) | अथवा एक्को संजदासंजदो हायमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्सद्धाए खीणाए एगसमयं संजमासंजमगुणो अस्थि ति तेउलेस्सिओ जादो | तेउलेस्साए सह संजमासंजमो एगसमयं दिडो । विदियसमए तीए लेस्साए सह क्योंकि, नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इस प्रकार से तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का ओघप्ररूपणासे कोई भेद नहीं है । उक्त दोनों लेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। २९६ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ।। २९७ ॥ इनमें से पहले संयतासंयतोंके लेश्यासम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा की जाती हैवर्धमान तेजोलेश्यावाला एक मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव तेजोलेश्या के कालमें एक समय अवशेष रह जाने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ । एक समय संयमासंयम तेजोलेश्याके साथ दृष्टिगोचर हुआ। दूसरे समय वह संयतासंयत पद्मलेश्याको प्राप्त हो गया । यह लेश्या परिवर्तनसम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा है (१) । अथवा, हायमान पद्मलेश्यावाला एक संयतासंयत पद्मलेश्याके कालके क्षीण हो जाने पर एक समय संयमासंयम गुणस्थानका अवशेष रहने पर तेजोलेश्यावाला हो गया । तेजोलेश्या के साथ संयमासंयम एक समय दृष्ट २ प्रतिषु मिच्छादिट्ठीणं ' इति पाठः । ३ संयतासंयत प्रमत्ताप्रमत्तानां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. ४ एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. १ प्रतिषु ' अंतोमुहुचो मुहुत-' इति पाठः । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २९७.] कालाणुगमे तेउ-पम्मलेस्सियकालपरूवणं [१६५ असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी वा जादो। एसा गुणपरावत्ती (२)। मरण-वाघादेहि एगसमओ ण लब्भदि । संपदि पम्मलेस्साए उच्चदे । तं जधा- एगो मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी वा वड्डमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्सद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति संजमासंजमं पडिवण्णो । विदियसमए संजमासंजमेण सह सुक्कलेस्सं गदो । एसा लेस्स्सापरावती (३)। अधवा वड्डमाणतेउलेस्सिओ संजदासंजदो तेउलेस्सद्धाए खएण पम्मलेस्सिओ जादो । एगसमयं पम्मलेस्साए सह संजमासंजमं दिटुं, विदियसमए अप्पमत्तो जादो। एसा गुणपरावत्ती। अधवा संजदासजदा हायमाणसुक्कलेस्सिओ सुक्कलेस्सद्धाखएण पम्मलेस्सिओ जादो । विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी वा जादो । एसा गुणपरा. वत्ती (४)। मिच्छादिहि-असंजदसम्मादिद्विगुणट्ठाणेसु तेउ-पम्मलेस्साणं लेस्सा-गुणपरावत्तीओ अस्सिदूण एगसमओ किण्ण उच्चदे ? ण, तत्थ एगसमयसंभवाभावा । वड्डमाणतेउलेस्सादो हुआ। द्वितीय समयमें उसी लेश्याके साथ असंयतसम्यग्दृष्टि, या सम्यग्मिथ्याष्टि, या सासादनसम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थानपरिवर्तनके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा हुई (२)। यहां पर मरण और व्याघातके द्वारा एक समय नहीं पाया आता है। अब पद्मलेश्याके एक समयकी प्ररूपणा कहते हैं। जैसे- वर्धमान पद्मलेश्यावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव, पद्मलेश्याके काल में एक समय अवशेष रहने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। द्वितीय समयमें संयमासंयमके साथ ही शुक्ललेश्याको प्राप्त हुआ। यह लेश्यापरावर्तनसम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा हुई (३) । अथवा, वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई संयतासंयत तेजोलेश्याके कालके क्षय हो जानेसे पद्मलेश्यावाला हो गया । एक समय पनलेश्याके साथ संयमासंयम दृष्टिगोचर हुआ। और वह द्वितीय समयमें अप्रमत्तसंयत हो गया। यह गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई। अथवा, हायमान शुक्ललेश्यावाला कोई संयतासंयत जीव शुक्ललेश्याके कालके पूरे हो जाने पर पद्मलेश्यावाला हो गया। द्वितीय समयमें वह पद्मलेश्यावाला ही है, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा सासादनसम्यग्दृष्टि, अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई (४)। शंका-मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इन दो गुणस्थानोंमें तेज और पन. लेश्यावाले जीवोंकी लेश्या और गुणस्थानसम्बन्धी परिवर्तनोंको आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा क्यों नहीं कही? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें एक समयकी प्ररुपणाका होना संभव नहीं है। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ५, २९७. पम्मलेस्सं गंतूण विदियसमए उवरिमगुणट्ठाणं गच्छंताणं मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं पम्मलेस्साए एगसमओ लब्भदि । हायमाणतेउलेस्साए एगसमओ अत्थि त्ति मिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिद्विगुणट्ठाणे पडिवण्णाणं तेउलेस्साए एगसमओ लब्भदि । एवं काउ-णीललेस्साणं पि एगसमओ लब्भदि त्ति उत्ते ण लब्भदि, जदो मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीण एगसमयं लेस्साए परिणमिय विदियसमए अण्णगुणं लेस्संतरं वा ण गच्छंति । एदाणि गुणट्ठाणाणि पडिवज्जंता वि लेस्साए एगो समओ अत्थि त्ति ण पडिवज्जंति । कुदो ? सभावदो। हेट्ठिमगुणट्ठाणाणि लेस्साए एगो समओ अत्थि त्ति जहा संजमासंजमगुणद्वाणं पडिवज्जंति, पमत्तसंजदो तहा संजमासंजमगुणट्ठाणं किण्ण पडिवज्जदे ? सहावदो । अधवा णत्थि एत्थ पडिसेहो । पमत्तस्स उच्चदे- एक्को पमत्तो हायमाण-पम्मलेस्साए अच्छिदो । तिस्से अद्धाखएण पमत्तद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति तेउलेस्सिओ जादो एगसमओ दिट्ठो। विदिय वर्धमान तेजोलेश्यासे पालेश्याको जाकर द्वितीय समयमें उपरिम गुणस्थानोंको जाने वाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके पद्मलेश्याके साथ एक समय पाया जाता है। इसी प्रकार हायमान तेजोलेश्यामें एक समय अवशेष रहने पर मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवोंके तेजोलेश्याके साथ एक समय पाया जाता है। - शंका-तेज और पद्मलेश्याके समान ही कापोत और नीललेश्याओंका भी एक समय पाया जाता है, (फिर उसे क्यों नहीं कहा ) ? समाधान-कापोत और नीललेश्याके साथ एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव एक समयमें विवक्षित लेश्याके द्वारा परिणत होकर द्वितीय समयमें अन्य गुणस्थानको, अथवा अन्य लेश्याको नहीं जाते हैं। तथा इन गुणस्थानोंको प्राप्त होनेवाले भी जीव विवक्षित धारण की गई लेश्याके कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर उन उन गुणस्थानों को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव ही है। शंका-अपनी लेश्यामें एक समय रहने पर जैसे नीचेके गुणस्थानवाले संयमासंयम गुणस्थानको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकारसे प्रमत्तसंयत भी संयमासंयम गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान-ऐसा स्वभाव ही है । अथवा, इस विषयमें कोई प्रतिषेध नहीं है। अब प्रमत्तसंयतका काल कहते हैं- एक प्रमत्तसंयत हायमान पद्मलेश्यामें विद्यमान था। उस लेश्याके कालक्षयसे तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थानके काल में एक समय अवशेष रहने पर वह तेजोलेश्यावाला होगया। एक समय वह तेजोलेश्याके साथ प्रमत्तसंयतके Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २९७. ] कालानुगमे तेउ-पम्मलेस्सियकालपरूवणं [ ४६९ समए तेउलेस्सा चेव, किंतु संजमासंजमं असंजमेण सह सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं मिच्छत्तं वा गदो । एसा गुणपरावत्ती (१) । अधवा, अप्पमत्तो तेउलेस्साए अच्छिदो । तिस्से अप्पमतद्वा खएण पमत्तो जादो । पमत्तो तेउलेस्साए सह एगसमयं दिट्ठो । विदियसमए मदो देवो जादो | एवं मरणेण (२) । पमत्त संजदो तेउलेस्साए परिणमिय विदियसमए जेण लेस्संतरं ण गच्छदि, पमत्तगुणं पडिवज्जमाणो वि तेउलेस्सद्धार समओ अस्थि त्तिण पडिवज्जदि, तेण लेस्सापरावत्ती णत्थि । अप्पमत्तो हायमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्साए एगो समओ अस्थि त्ति पमत्तो जादो । विदियसमर वि पमत्तो चेव, किंतु तेउलेस्सिओ जाहो । एसा लेस्सापरावती (३) । अधवा पमत्तो तेउलेस्साए अच्छिदो । तिस्से अद्धाक्खरण पम्मलेस्सा आगदा । पम्मलेस्साए सह पमत्तो एगसमयं दि । विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु अप्पमत्तो जादो । एसा गुणपरावती । पम्मलेस्साए अच्छिदो पमत्तो तिस्से अद्धाखएण तेउलेस्साए परिणमिय विदियसमए अप्पमत्त किष्ण कीरदे ? ण, हीयमाणलेस्साए अप्पमत्तगुणग्गहणाभावा । मिच्छत्तादिगुणं रूपमें दृष्टिगोचर हुआ । पश्चात् द्वितीय समय में तेजोलेश्या ही रही, किन्तु वह संयमासंयमको, अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्वको, अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा सासादनगुणस्थानको, अथवा मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होगया । यह एक समयरूप गुणस्थानपरिवर्तन है (१) । अथवा, कोई एक अप्रमत्तसंयत तेजोलेश्या में वर्तमान था। उसी लेश्या में रहते हुए ही अप्रमत्तगुणस्थान के कालक्षयसे वह प्रमत्तसंयत हो गया । वह प्रमत्तसंयत तेजोलेश्या के साथ एक समय दृष्टिगोचर हुआ । द्वितीय समय में मरा और देव होगया । इस प्रकार मरणकी अपेक्षा एक समय उपलब्ध हुआ (२) । प्रमत्तसंयत तेजोलेश्या के साथ परिणमित होकर द्वितीय समयमें चूंकि, दूसरी अन्य लेश्याको नहीं प्राप्त होता है, और प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त होता हुआ भी तेजोलेश्या के काल में एक समय शेष रहता है, इसी लिए वह लेश्यान्तरको नहीं प्राप्त होता है । इस कारण से यहां पर लेश्याका परिवर्तन नहीं है | हायमान पद्मलेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत, पद्मलेश्या के कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर प्रमत्तसंयत हो गया । द्वितीय समय में भी वह प्रमत्तसंयत ही रहा, किन्तु तेजोलेश्यावाला होगया । यह लेश्यासम्बन्धी परिवर्तन है (३) । अथवा, कोई प्रमत्तसंयत तेजोलेश्या में विद्यमान था । उसके उस तेजोलेश्या के कालक्षय से पद्मलेश्या आगई । पद्मलेश्या के साथ वह प्रमत्तसंयत एक समय दृष्टिगोचर हुआ । द्वितीय समय में वह पद्मलेश्यावाला ही रहा, किन्तु असंयत हो गया । यह गुणस्थानपरिवर्तन हुआ । शंका- पद्मलेश्या के कालमें विद्यमान कोई प्रमत्तसंयत उस लेवा के कालक्षय से तेजोलेश्या से परिणमित होकर द्वितीय समय में अप्रमत्तसंयत क्यों नहीं हो जाता ? Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, २९७. किण्ण पडिवज्जदि ? ण, तेउलेस्साए पडिय अंतोमुहुत्तमणच्छिय हेट्ठिमगुणग्गहणाभावा । अधवा अप्पमत्तो पम्मलेस्साए अच्छिदो अप्पमत्तद्धाखएण पमत्तो जादो। विदियसमए मदो देवत्तं गदो। - अप्पमत्तसंजदस्स उच्चदे-मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा वड्डमाणतेउलेस्सिओ तेउलेस्सद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति अप्पमत्तो जादो। तेउलेस्साए सह एगसमयं अप्पमत्तो दिट्ठो । विदियसमए पम्मलेस्सिगो जादो। एसा लेस्सापरावत्ती (१) । अधवा पमत्तो हायमाणपम्मलेस्सिगो एगसमयमप्पमत्तद्धा अत्थि त्ति पम्मलेस्सद्धाए खएण तेउलेस्सिगो जादो। विदियसमए पमत्तगुणं पडिवण्णो । एसा गुणपरावत्ती (२)। अधवा पमत्तो वड्डमाणतेउलेस्सिओ अप्पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो । एवं मरणेण (३)। पमत्तो वड्डमाणपम्मलेस्सिगो पम्मलेस्सद्धाए एगसमओ अस्थि समाधान- नहीं, क्योंकि, हीयमान लेश्याके साथ अप्रमत्तगुणस्थानके ग्रहण करनेका अभाव है। - शंका-तो उक्त प्रकारका जीव मिथ्यात्व आदिक नीचेके गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त हो जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तेजोलेश्यामें गिर करके अन्तर्मुहूर्त रहे विना नीचेके गुणस्थानोंके ग्रहण करनेका अभाव है। अथवा, कोई अप्रमत्तसंयत पद्मलेश्यामें विद्यमान था। वह अप्रमत्तसंयतगुणस्थानके कालक्षयसे प्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ। ___ अब अप्रमत्तसंयतके एक समयसम्बन्धी लेश्यादिपरिवर्तनको कहते हैं- वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव, तेजोलेश्याके कालमें एक समय अवशेष रहने पर अप्रमत्तसंयत हो गया। वह तेजोलेश्याके साथ एक समय अप्रमत्तसंयतरूपसे दृष्टिगोचर हुआ, और द्वितीय समयमें पद्मलेश्यावाला हो गया। यह लेश्यापरिवर्तन है (१)। अथवा, हायमान पद्मलेश्या. वाला कोई प्रमत्तसंयत, एक समय अप्रमत्तसंयत कालके अवशेष रहने पर पद्मलेश्याके काल क्षयसे तेजोलेश्यावाला हो गया, और द्वितीय समयमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह गुणस्थानपरिवर्तन है (२)। अथवा, वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार मरणसे एक समय लब्ध हुआ (३)। कोई वर्धमान पद्मलेश्यावाला प्रमत्तसंयत, पद्मलेश्याके Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, २९९.] कालाणुगमे सुक्कलेस्सियकालपरूवणं [४७१ त्ति अप्पमत्तो जादो । विदियसमए अप्पमत्तो चेव, किंतु सुक्कलेस्सं गदो । एसा लेस्सापरावत्ती (१)। अधवा अप्पमत्तो हायमाणसुक्कलेस्तिगो सुक्कलेस्सद्धाखएण पम्मलेस्सिगो जादो । विदियसमए पम्मलेस्साए सह पमत्तगुणं पडिवण्णो । एसा गुणपरावत्ती (२)। अधवा पमत्तो पम्मलेस्साए अच्छिदो पमत्तद्धाए खीणाए एगसमयं जीविदमत्थि त्ति अप्पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो । एवं मरणेण (३)। उक्कस्समंतोमुत्तं ॥ २९८ ॥ तं जधा-संजदासंजदो पमत्तसंजदो अप्पमत्तसंजदो वा तेउ-पम्मलेस्सासु अप्पिदलेस्साए परिणमिय सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिय अणप्पिदलेस्सं गदो। सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २९९ ॥ कुदो ? तिसु वि कालेसु सुक्कलेस्सियमिच्छादिठीणं विरहाभावा । कालमें एक समय अवशेष रहने पर अप्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें अप्रमत्तसंयत ही रहा, किन्तु शुक्ललेश्याको प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह लेश्यापरिवर्तन हुआ (१)। अथवा, हायमान शुक्ललेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत जीव शुक्ललेश्याके कालक्षयसे पद्मलेश्यावाला हो गया। द्वितीय समयमें पद्मलेश्याके साथ प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह गुणस्थानपरिवर्तनसम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा हुई (२)। ___अथवा, कोई प्रमत्तसंयत पद्मलेश्यामें विद्यमान था। वह प्रमत्तकालके क्षीण हो जाने पर, तथा एक समयप्रमाण जीवनके शेष रहने पर अप्रमत्तसंयत हो गया, दूसरे समय में मरा और देवत्वको प्राप्त हो गया । यह मरणके साथ एक समयकी प्ररूपणा हुई (३)। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २९८ ॥ जैसे-कोई संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत, अथवा अप्रमत्तसंयत जीव तेजोलेश्या और पद्मलेश्याओं से विवक्षित किसी एक लेश्यामें परिणत होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके अविवक्षित लेश्याको प्राप्त हो गया। ___ शुक्ललेश्यामें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥ २९९ ॥ क्योंकि, तीनों ही कालोंमें शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके विरहका अभाव है। १ उत्कर्षेणान्तमुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ शुक्ललेश्यानां मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १,८. Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ३००. - एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३०० ॥ तं जधा- एको मिच्छादिट्ठी वड्डमाणपम्मलेस्सिओ सगद्धाए खएण सुक्कलेस्सिओ जादो । सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पम्मलेस्सं गदो, अण्णलेस्सागमणे संभवाभावा । उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३०१ ॥ तं जधा-एक्को दवलिंगी दव्यसंजममाहप्पेण उपरिमगवजेसु आउअं बंधिय पम्मलेस्साए अच्छिदस्स तिस्से अद्धाखएण सुक्कलस्सा आगदा । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय कालं करिय उवरिमगेवेज्जेसु उववञ्जिय सगहिदि गमिय चुदो तक्खणे चेव णट्ठलेस्सिओ जादो। एवं पढमिल्लंतोमुहुत्तेण सादिरेगएक्कत्तीस सागरोवममेत्तो त्ति मिच्छत्तसहिदसुक्कलस्सुक्कस्सकालो होदि ।। सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥३०२ ॥ सुक्कलस्सेत्ति अणुवट्टदे। कुदो ओघत्तं ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०० ॥ जैसे- वर्धमान पद्मलेश्यावाला कोई मिथ्यादृष्टि जीव अपनी लेश्याका काल समाप्त हो जानेसे शुक्ललेश्यावाला हो गया। वह उसमें सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पद्मलेश्याको प्राप्त हुआ, क्योंकि, उसका पद्मलेश्याके सिवाय अन्य किसी लेश्यामें जाना संभव ही नहीं है। __ शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागरोपम है ॥ ३०१॥ जैसे-एक द्रव्यलिंगी साधु द्रव्यसंयमके माहात्म्यसे उपरिम अवेयकों में आयुको बांधकर पनलेश्यामें विद्यमान था। उसके उस लेश्याके कालक्षयसे शुक्ललेश्या आगई। उसमें अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, कालको करके, उपरिम प्रैवेयकोंमें उत्पन्न होकर, अपनी स्थितिको बिताकर च्युत हुआ और उसी क्षणमें ही नष्टलेश्यावाला होगया। इस प्रकार प्रथम अन्तमुहूर्त के साथ साधिक इकतीस सागरोपमप्रमाण मिथ्यात्वसहित शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट काल होता है। शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३०२॥ यहां पर 'शुक्ललेश्या' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। शंका-सूत्रोक्त ओघपना कैसे संभव है? समाधान-नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय, और उत्कृष्ट काल १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १,८. ३ सासादनसम्यग्दृष्टधादिसयोगकेवल्यन्तानxx सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,५, ३०५. ] कालानुगमे सुकलेस्सियकाल परूवणं [ ४७३ समओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, इच्चेदेहि तदो भेदाभावा । सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ३०३ ॥ कुदो! णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि सह ओघसम्मामिच्छादिट्ठीहिंतो भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्टी ओघं ॥ ३०४ ॥ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि, इच्चेदेहि विसेसाभावा । णवरि पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अत्थि विसेसो एत्थ । कुदो ? पच्छिममणुस सहगद अंतो मुहुत्तेण सादिरेगत्तु वलंभा । ओहि देणपुत्र को डीए सादिरेगत्तदंसणादो | संजदासंजदा पमत्त - अप्पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३०५ ॥ सुगममेदं सुतं । पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय, और उत्कृष्ट काल छह आवलिप्रमाण है । इस प्रकार ओघसे इसके कालमें कोई भेद नहीं होने से ओघपना बन जाता है । शुक्कलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३०३ ॥ क्योंकि, नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालोंके साथ भोघसम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंसे कोई भेद नहीं है । शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है || ३०४॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरोपम है, इस प्रकारसे कोई विशेषता नहीं है । किन्तु केवल पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करने पर यहां विशेषता है । वह इस प्रकार है- पिछले मनुष्यभव में होनेवाली शुक्ललेश्याके एक अन्तर्मुहूर्त के साथ उक्त कालकी सातिरेकता पाई जाती है । किन्तु ओघ में देशोन पूर्वकोटीके साथ उक्त कालकी सातिरेकता देखी जाती है । शुक्लेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ३०५ ॥ यह सूत्र सुगम है । १ x x संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ j छक्खंडागमे जीषट्ठाणं [१, ५, ३०६. . एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३०६ ॥ तं जधा-एको पमत्तसंजदो हायमाणसुक्कलेस्सिगो एगो समओ सुकलेस्साए अस्थि ति संजदासंजदो जादो । विदियसमए संजदासंजदो चेव, किंतु पम्मलेस्सं गदो । एसा लेस्सापरावती (१)। सेसगुणहाणेहिंतो संजमासंजमं पडिवज्जंताणं सुक्कलेस्साए एगसमओ ण लब्भदि । कुदो ? वड्डमाणसुक्कलेस्साए संजमासंजमं पडिवण्णाणं विदियसमए पम्मलेस्साए गमणाभावा । अधवा संजदासजदो वड्डमाणपम्मलेस्सिगो तिस्से अद्धाखएण संजमा संजमद्धाए एगो समओ अस्थि ति सुक्कलेस्सिओ जादो । विदियसमए सुक्कलेस्सिओ चेव, किंतु अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो । एसा गुणपरावती (२)। पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो हायमाणसुक्कलेस्सिगो सुक्कलेस्सद्धाए एगो समओ अस्थि ति पमत्तो जादो। विदियसमए पमत्तो चेव, किंतु लेस्सा परावत्तिदा । एसा लेस्सापरावती (१) । अधवा एक्को पमत्तो वड्डमाणपम्मलेस्सिगो पम्मलेस्सद्धाए खएण सुक्कलेस्सिगो जादो। विदियसमए ( सुक्कलेस्सिगो) चेव, किंतु अप्पमत्तो जादो। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥३०६॥ जैसे- हायमान शुक्ललेश्यावाला एक प्रमत्तसंयत जीव, शुक्ललेश्याके कालमें एक समय शेष रहने पर संयतासंयत हुआ। द्वितीय समयमें वह संयतासंयत ही है, किन्तु पपलेश्याको प्राप्त हो गया। यह लेश्याका एक समयसम्बन्धी परिवर्तन है (१)। शेष गुणस्थानोंसे संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवोंके शुक्ललेश्याका एक समय नहीं पाया जाता है। क्योंकि, वर्धमान शुक्ललेश्याके साथ संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवोंके द्वितीय समयमें पद्मलेश्यामें गमनका अभाव है। अथवा कोई संयतासंयत वर्धमान पनलेश्यावाला है। उस लेश्याके कालक्षयसे और संयमासंयमके कालमें एक समय अवशेष रहने पर वह शुक्ललेश्यावाला हो गया। द्वितीय समयमें वह शुक्ललेश्यावाला ही है, किन्तु अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। यह गुणस्थानपरिवर्तनसम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा है (२)। अब प्रमत्तसंयतके एक समयकी प्ररूपणा करते हैं- हायमान शुक्ललेश्यावाला कोई एक अप्रमत्तसंयत शुक्ललेश्याके कालमें एक समय अवशेष रहने पर प्रमत्तसंयत हो गया । द्वितीय समयमें वह प्रमत्तसंयत ही रहा, किन्तु लेश्या परिवर्तित हो गई । यह लेश्यापरिवर्तनसम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा हुई (१)। अथवा, वर्धमान पनलेश्यावाला कोई एक प्रमत्तसंयत जीव, पालेश्याके कालक्षयसे शुक्ललेश्यावाला हो गया । द्वितीय समयमें वह (शुक्ललेश्यावाला) ही १ एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३०७.] कालाणुगमे सुक्कलेस्सियकालपरूवणे (१५५ एसा गुणपरावती (२)। अधवा अप्पमत्तो हायमाणसुक्कलेस्सिगो सुक्कलेस्सद्धाए सह पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो (३)। अप्पमत्तस्स उच्चदे- एको पमत्तो सुक्कलेस्साए अच्छिदो, सुक्कलेस्साए सह अप्पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो (१)। अधवा अपुव्वकरणो ओदरंतो सुक्कलेस्सिगो अप्पमत्तो होदूण मदो देवो जादो (२)। एत्थ एगसमयमंगपरूवणगाहा ___ दो दो य तिणि तेऊ तिणि तिया होति पम्मलेस्साए । दो तिग दुगं च समया बोद्धव्वा सुक्कलेस्साए ॥ ४१ ॥ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३०७॥ कुदो ? सुक्कलेस्साए परिणमिय उक्कस्समतोमुहुत्तमच्छिय पम्मलेस्सं गदाणमुक्कस्सकालुवलंभा। है, किन्तु अप्रमत्तसंयत हो गया। यह गुणस्थानसम्बन्धी परिवर्तन है (२)। अथवा, हायमान शुक्ललेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत, शुक्ललेश्याके ही कालके साथ प्रमत्तसंयत हो गया। पुन: दूसरे समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ (३)। अब अप्रमत्तसंयतके एक समयकी प्ररूपणा करते हैं-शुक्लले श्याम विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव शुक्ललेश्याके साथ ही अप्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ (१)। अथवा, शुक्ललेश्यावाला श्रेणीसे उतरता हुआ कोई अपूर्वकरणसंयत अप्रमत्तसंयत होकर मरा और देव हो गया (२)। यहां पर एक समयके भंगोंकी प्ररूपणा करनेवाली गाथा इस प्रकार है तेजोलेश्याके दो, दो और तीन समयभंग होते हैं। पनलेश्याके तीन त्रिक अर्थात् तीन, तीन और तीन समयभंग होते हैं। तथा, शुक्ललेश्याके दो, तीन और दो समयभंग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥४१॥ विशेषार्थ-ऊपर जो एकसमयसम्बन्धी अनेक विकल्प बताये गये हैं, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-तेजोलेश्यासम्बन्धी देशसंयतके दो भंग, प्रमत्तसंयतके दो भंग, और अप्रमत्तसंयतके तीन भंग, इस प्रकार कुल (२+२+३७) सात भंग होते हैं। पनलेश्यासम्बन्धी देशसंयतके तीन भंग, प्रमत्तसंयतके तीन भंग और अप्रमत्तसंयतके तीन भंग, इस प्रकार कल (३+३+३ =९)नौ भंग होते हैं। शकलेश्यासम्बन्धी देशसंयतके दोभंग.प्रमत्त. संयतके तीन भंग और अप्रमत्तसंयतके दो भंग, इस प्रकार कुल (२+३+२ = ) सात भंग जानना चाहिए। उक्त तीनों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०७॥ क्योंकि, शुक्ललेश्यासे परिणत होकर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रह कर पालेश्याको प्राप्त हुए जीवोंके उत्कृष्ट काल पाया जाता है। १ उत्कणान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, .. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १,५, ३०८. चदुण्हमुवसमा चदुण्हं खवगा सजोगिकेवली ओघं ॥ ३०८ ॥ कुदो ! एसिमोघे व सुक्कलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावा । एवं लेस्सामग्गणा समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छा दिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पहुच सव्वद्धा ॥ ३०९ ॥ ४७६ ] सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो ॥ ३१० ॥ तं जहा- भवियत्तं दुविहं, अणादिसपज्जवसिदं सादिसपज्जवसिदमिदि । पुव्त्रम - लद्धसम्मत्तस्स अणादिसपज्जवसिदं । सम्मत्तं लहिऊण मिच्छत्तं गदस्स सादिसपज्जवसिदं । अणादित्तादो अकट्टिमस्स ण विणासो चे ण, अण्णाणस्स कम्मबंधस्स य अणादिस्व शुक्कलेश्यात्राले चारों उपशामक, चारों क्षपक और सयोगिकेवलीका काल ओघके समान है || ३०८ ॥ क्योंकि, इन गुणस्थानवालोंके ओघ में भी शुक्ललेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याका अभाव है । इस प्रकार लेइयामार्गणा समाप्त हुई । भव्य मार्गणा के अनुवादसे भव्यसिद्धिक जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३०९ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा अनादि- सान्त और सादि- सान्त काल है ।। ३१० ॥ जैसे - भव्यत्व दो प्रकारका है, अनादि-सान्त और सादि- सान्त । पूर्वमें नहीं प्राप्त हुआ है सम्यक्त्व जिसको, ऐसे जीवके अनादि- सान्त भव्यत्व होता है । सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वको गये हुए जीवके सादि- सान्त भव्यत्व होता है । शंका- जो वस्तु अनादि है, वह अकृत्रिम होती है और उसका विनाश नहीं होता । (इसलिए मिथ्यात्वको अनादि होनेसे अकृत्रिमता सिद्ध है, फिर उसका विनाश नहीं होना चाहिए ? ) समाधान- नहीं, क्योंकि, अज्ञानका और कर्मबन्धका, उनके अनादि होते हुए भी, १ भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. १ एकजीवापेक्षया द्वौ भंगौ, अनादिः सपर्यवसानः, सादिः सपर्यवसानश्च । स. सि. १,८, Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३१०.] कालाणुगमे भवियकालपरूवणं [४७७ विणासुवलंभा । अकारणत्तादो ण तस्स विणासो चे ण, अणादिबंधनबद्धकम्मकारणत्तादो । सिद्धाणं मिच्छत्तासंजमकसायजोगकम्मासवविरहियाणं ण संसारे पदणमत्थि, तदो ण सादि भवियत्तं । ण पडिवण्णसम्मत्तस्स वि सादि भवियत्तं होदि, पुव्वं पि तत्थ भवियत्तुवलंभा ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- ण संसारे णिवदिदसिद्धे अस्सिदूण भवियत्तं सादि उच्चदे । ण च ते संसारे णिवदंति, णट्ठासवत्तादो। किंतु गहिदसम्मत्तजीवस्स भवियत्तं सादि उच्चदे । ण च तं पुवमत्थि, सादिसांतस्सेदस्स पुचिल्लण अणादि-अणंतेण सह एयत्तविरोहा । पुविल्लमवि भवियत्तं सांतं चे ण, सत्तिं पडुच्च तस्स सांतत्तुवएसा । ण वत्तिं पडुच्च सम्मत्तगहणेण विणा अणंतसंसारस्स जीवस्स सांतं भवियत्तं, विरोहा । अणादि-अणंतेण वि भवियत्तेण होदव्वं, अण्णहा भव्यजीववोच्छेदप्पसंगादो । अस्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंकइपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति ॥ ४२ ।। विनाश पाया जाता है। शंका-कारणरहित वस्तुका विनाश नहीं होता है, इसलिए अज्ञान या कर्मबन्धका भी विनाश नहीं होना चाहिए ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अज्ञान या कर्मबन्धका कारण अनादिबन्धनबद्ध कर्म ही है। शंका-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके द्वारा कर्मानवसे विरहित सिद्ध जीवोंका पुनः संसारमें पतन नहीं होता है, इसलिए भव्यत्व सादि-सान्त नहीं है । और न प्रतिपन्नसम्यक्त्वी जीवके भी भव्यत्व सादि होता है, क्योंकि, सम्यक्त्वकी प्राप्तिके पूर्व भी उस जीवमें भव्यत्व पाया जाता है ? समाधान -अब उक्त आशंकाका परिहार कहते हैं- संसारमें पुनः लौटकर आनेवाले सिद्ध जीवोंकी अपेक्षासे भव्यत्वको सादि नहीं कह सकते, क्योंकि, कर्मानवोंके नष्ट हो जानेसे वे संसारमें पुन: लौटकर नहीं आते। किन्तु ग्रहण किया है सम्यक्त्वको जिसने, ऐसे जीवके भन्यत्वको सादि कहते हैं तथा, वह पूर्व में भी नहीं है, क्योंकि, इस सादि-सान्त भव्यत्वके पूर्ववर्ती उस अनादि-अनन्त भव्यत्वके साथ एकत्वका विरोध है। शंका-पहलेके भव्यत्वको भी यदि सान्त मान लिया जाय, तो क्या हानि है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, शक्तिकी अपेक्षासे उसके सान्तताका उपदेश किया गया है। व्यक्तिकी अपेक्षा सम्यक्त्वग्रहणके विना अनन्त संसारी जीवके सान्त भ माना जा सकता, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। अर्थात्, फिर तो भव्यत्वको अनादि-अनन्त भी होना पड़ेगा, अन्यथा, भव्य जीवोंके विच्छेदका प्रसंग प्राप्त होगा। तथा ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं कि जिन्होंने सोंकी पर्याय अभी तक नहीं पाई है, और जो दूषित भावोंकी अति प्रचुरताके कारण कभी भी निगोदके वासको नहीं छोड़ते हैं ॥४२॥ १ गो. जी. १९. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४७८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ३११. एयणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिवा । सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण' ।। ४३ ॥ इच्चादिसुत्तदंसणादो य । ण च मोक्खमगच्छंताणं भवियत्तं णत्थि त्ति वोत्तुं जुत्तं, मोक्खगमणसत्तिसब्मावं पडुच्च तेसिं भवियत्तुवदेसा' (३)। ण च सत्तिमंताणं सव्वेसि पि वत्तीए होदव्वमिदि णियमो अस्थि सव्वस्स वि हेमपासाणस्स हेमपज्जाएण परिणमणप्पसंगा। ण च एवं, अणुवलंभा । णिव्वुई गच्छमाणो वि ण वोच्छिज्जदि भव्वरासि ति कधमेदं णव्वदे ? तस्साणंतियादो । सो रासी अणंतो उच्चइ, जो संते वि वए ण णिहादि, अण्णहा अगंतववएसो अणत्थओ होज्ज । तम्हा तिविहेण भवियत्तेण होदव्वमिदि । ण च सुत्तेण सह विरोहो, सत्तिं पडुच्च सुने अणादिसांतत्तुवएसा । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिदेसों ॥ ३११ ॥ एक निगोदशरीरमें द्रव्यप्रमाणसे जीव सिद्धोंसे तथा समस्त अतीत कालके समयोंसे अनन्तगुणे देखे गये हैं ॥ ४३ ॥ इत्यादि सूत्रोंके देखे जानेसे भी भव्य जीवोंके विच्छेदका अभाव सिद्ध है। तथा, मोक्षको नहीं जानेवाले जीवोंके भव्यपना नहीं होता है, ऐसा भी कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, मोक्षगमनकी शक्तिके सद्भावकी अपेक्षा उनके भव्यत्वके पाये जानेका उपदेश है। तथा यह भी कोई नियम नहीं है कि भव्यत्वकी शक्ति रखनेवाले सभी जीवोंके उसकी व्यक्ति होना ही चाहिए, अन्यथा, सभी स्वर्णपाषाणके स्वर्णपर्यायसे परिणमनका प्रसंग प्राप्त होगा ? किन्तु इस प्रकारसे देखा नहीं जाता है। शंका-निवृति (मोक्ष) को जानेके कारण नित्यव्ययात्मक भव्यराशि विच्छेदको प्राप्त नहीं होगी, यह कैसे जाना ? समाधान-क्योंकि, यह राशि अनन्त है। और यही राशि अनन्त कही जाती है, जो व्ययके होते रहने पर भी समाप्त नहीं होती है। अन्यथा, फिर उस राशिकी अनन्त संशा अनर्थक हो जायगी। इसलिए भव्यत्व तीन प्रकारका ही होना चाहिए । तथा सूत्रके साथ भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, शक्तिकी अपेक्षा सूत्र में भव्यत्वके अनादिसान्तताका उपदेश दिया गया है। उक्त तीन प्रकारों से जो भव्यत्व सादि और सान्त है उसका निर्देश इस प्रकार है ॥ ३११॥ . .गो.जी. १९६. २ अप्रती मवियत्तुवलंमदेसा' इति पाठः। '३ मव्वत्तणस जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा। ण हु मलविगमे णियमा ताणं कणओवलाणमिन। गो. नी. ५५८. ४ तत्र सादिः सपर्यवसानो जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १... Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३१३. ] काला गमे भवियकालपरूवणं [ ૨ तिन्हं भवियाणं मज्झे जो सादिसपज्जवसिदो भविओ तस्स इमो णिद्देसो परूवणा पण्णवणाति उत्तं होदि । अधवा भवियाणं जं मिच्छत्तं तं दुविहं, अणादिसपज्जवसिदं सादिसपज्जवसिदमिदि । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो मिच्छादिट्ठी तस्स इमो गिद्देसो ति वत्तव्वं । पुव्विल्लम्हि पुण अत्थे जो सादिओ सपज्जवसिदो भविओ तस्स मिच्छतस्स इमो णिद्देसो परूवेदव्वो । जहणेण अंतोमुत्तं ॥ ३१२ ॥ तं जधासम्मादिट्ठी दिट्ठमग्गो मिच्छत्तं गतूण सव्वजहणमंत मुहुत्तमच्छिय अणगुणं गदो । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥ ३१३ ॥ तं जहा - एको अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि करिय सम्मतं पडिवण्णो । तेण सम्मत्तेण उप्पज्जमाणेण अणंतो संसारो छिण्णो संतो अद्धपोग्गलपरियमेत्तो कदो । उवसमसम्मत्तेण जहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियसेसाए आसाणं गंतूण मिच्छत्तं णेदव्वो । अहवा उवसमसम्मादिट्ठी चेव मिच्छत्तं गंतूण अद्धपोग्गलपरिय तीन प्रकारके भव्यों के मध्य में जो सादि- सान्त भव्य है, उसका यह निर्देश हैं, अर्थात् उसकी यह प्ररूपणा या प्रज्ञापना की जाती है। अथवा, भव्य जीवोंके जो मिथ्यात्व है, वह दो प्रकारका होता है- (१) अनादि- सान्त, और (२) सादि- सान्त । उनमेंसे जो सादि और सान्त मिध्यादृष्टि है, उसका यह निर्देश है, ऐसा कहना चाहिए। तथा पहले के अर्थ में जो सादि- सान्त भव्य कहा है, उसके मिथ्यात्वका यह निर्देश है, ऐसा प्ररूपण करना चाहिए । सादि-सान्त मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१२ ॥ जैसे- दृष्टमार्गी कोई सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सर्वजघन्य अन्तमुहूर्त काल रह करके अन्य गुणस्थानको चला गया । सादि-सान्त मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन है || ३१३ ॥ जैसे- कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों करणोंको करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ | उत्पन्न होने के साथ ही उस सम्यक्त्व से अनन्त संसार छिन्न होता हुआ अर्धपुङ्गलपरिवर्तन कालमात्र कर दिया गया । उपशमसम्यक्त्व के साथ सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह कर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां शेष रह जाने पर उसी जीवको सासादनगुणस्थानमें ले जाकर मिथ्यात्व में ले जाना चाहिए। अथवा, उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ही मिथ्यात्वको जाकर देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल मिध्यात्वके साथ परिभ्रमण करके १ उत्कर्षेणापुद्गलपवित देशोनः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' कुदो' इति पाठः । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ३१४. देसूणं मिच्छत्तेण परियट्टिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे सम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधी विसंजोइय विस्समिय दंसणमोहं खविय पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं करिय अधापमत्तकरणं काऊण अपुरो अणियट्टी सुहुमो खीणो सजोगी अजोगी होदण सिद्धो जादो। जादं देसूणमद्धपोग्गलपरियढें । सासणसम्मादिद्विप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥३१॥ कुदो ? सासणादीणं भवियत्तं मोत्तूण अण्णस्सासंभवा । अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३१५॥ कुदो ? अव्वयत्तादो । एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदों॥ ३१६॥ कुदो ? मिच्छत्तं मोत्तूण तस्स गुणंतरगमणाभावा । एवं भवियमग्गणा समत्ता। अन्तर्मुहूर्तमात्र संसारके शेष रहने पर सम्यक्त्वको ग्रहण करके, पुनः अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करके, पश्चात् विश्राम ले, दर्शनमोहको क्षपण कर, प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके, अधःप्रवृत्तकरण कर, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी हो करके सिद्ध होगया। इस प्रकारसे देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल सिद्ध हुआ। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली तकका काल ओघके समान है ॥ ३१४॥ क्योंकि, सासादनादि गुणस्थानवी जीवोंके भव्यत्वको छोड़कर अन्यका होना, अर्थात् अभव्यपना, असंभव है। अभव्यसिद्ध जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३१५॥ क्योंकि, अभव्य जीवोंका व्यय ही नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा अभव्योंका अनादि और अनन्त काल है ।। ३१६ ॥ क्योंकि, मिथ्यात्वको छोड़कर अभव्यके अन्य गुणस्थानमें जानेका अभाव है। . इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई । १सासादनसम्यग्दृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्तान सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. २ अभव्यानामनाद्यपर्यवसानः । स. सि. १, ८. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३१८.] कालाणुगमे सम्मादिहिकालपरूवणं [ १८१ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिद्वि-खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ३१७ ॥ कुदो? सव्वगुणट्ठाणाणमप्पणो णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकाले अस्सिदण भेदाभावा। णवरि खइयसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेसु अत्थि भेदो। तं भणिस्सामो । ण चेसो भेदो सुत्तेण अपरूविदो, सगंहिदविसेससामण्णमवलंबिय ओघमिदि णिदेसादो। तं जहा- एगो देवो मेरइओ वा सम्मादिट्ठी मणुसेसुवजिय अंतोमुहुत्तभहियगम्भादिअट्ठवस्से गमिय संजमासंजमं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तं विस्तमिय अंतोमुहुत्तेण दंसणमोहणीयं खविय खइयसम्मादिट्ठी जादो। चदुहि अंतोमुहुत्तेहि अब्भहियअट्ठवस्सेहि ऊणियं पुव्यकोडिसंजमासंजममणुपालिय मदो देवो जादो । एत्थेव विसेसो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि । वेदगसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति ओघं ॥ ३१८ ॥ कुदो? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि सव्वगुणट्ठाणाणं ओघगुणट्ठाणेहितो भेदाभावा। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकका काल ओघके समान है ॥३१७॥ क्योंकि, चौथे गुणस्थानसे लेकर ऊपरके सभी गुणस्थानोंका अपने अपने नाना जीव और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालका आश्रय करके सम्यग्दृष्टि जीवोंके साथ कोई भेद नहीं है। विशेष बात यह है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंके कालमें भेद है, उसे कहते हैं । यह कहा जानेवाला भेद सूत्रके द्वारा न कहा गया हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि, संगृहीत हैं सामान्य और विशेष जिसमें, ऐसे द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करके 'ओघ' ऐसा पद सूत्र में निर्दिष्ट किया गया है। अब उक्त कालका स्पष्टीकरण करते हैं- कोई एक देव, अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यों में उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूर्त अधिक, गर्भको आदि लेकर आठ वर्ष बिताकर, संयमासंयमको प्राप्त होकर और अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके, एक अन्तर्मुहूर्तसे दर्शनमोहनीयका क्षपण कर, क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो गया। इन चार अन्तर्मुहूतौसे अधिक आठ वर्षोंसे कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण संयमासंयमको परिपालन करके मरा और देव हुआ । यहां पर ही इतनी विशेषता है, और कहीं कुछ भी विशेषता नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तकका काल ओघके समान है ॥ ३१८ ॥ __ क्योंकि, नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालोंकी अपेक्षा सूत्रोक्त सर्व गुणस्थानोंके कालका ओघ गुणस्थानोंके कालसे कोई भेद नहीं है। १ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्टयाघयोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्तः कालः । B. सि. १,८. २ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीना चतुर्णा सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] हक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ३१९. .. उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।। ३१९ ॥ तं जहा- सत्तट्ट जणा बहुआ वा मिच्छादिट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियसेसाए सव्वे आसाणं गदा । अंतरं गदं ।। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ।। ३२० ॥ तं जहा- सत्तटु जणा बहुआ वा मिच्छादिट्टिणो उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं मिच्छत्तं वा गदा । एदस्स एगा सलागा णिक्खिविदव्या । तस्समए चेव अण्णे मिच्छादिट्टिणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय चदुण्हं गुणट्ठाणाणमण्णदरं गदा । विदियसलागा लद्धा होदि । एवं तिष्णि चत्तारि आदि गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ सलागाओ लब्भंति । तं कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो। एदाहि सलागाहि उवसमसम्मत्तद्धं गुणिदे सगरासीदो असंखेज्जगुणो अणंतरकालो होदि । ___ उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल होते हैं ॥ ३१९॥ जैसे- सात आठ जन, या बहुत से मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए, और उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलीप्रमाण कालके अवशिष्ट रहने पर सभीके सभी सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो गये और पुन: अन्तरको प्राप्त हुए। उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत और संयतासंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ।। ३२० ॥ जैसे-सात आठ जन, अथवा बहुतसे मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए। उसमें अन्तर्मुहूर्त रह करके वे सव वेदकसम्यक्त्वको, या सम्यग्मिथ्यात्वको, या सासादनसम्यक्त्वको, अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इसकी एक शलाका स्थापित करना चाहिए । उसी समयमें ही अन्य भी मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर, उसमें अन्तर्मुहूर्त रह कर, पूर्वोक्त चार गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुए। यह दूसरी शलाका प्राप्त हुई। इस प्रकारसे तीन चारको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र शलाकाएं प्राप्त होती हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि उपशमसम्यक्त्वकी शलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होती हैं ? समाधान-आचार्यपरम्परागत उपदेशले यह जाना जाता है। इन लब्ध शलाकाओंसे उपशमसम्यक्त्वके कालको गुणा करने पर अपनी राशिसे असंख्यातगुणा अन्तररहित उपशमसम्यक्त्वका काल होता है । १ औपशमिकसम्यक्त्वेषु असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतयो नाजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८ २ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । स. सि. १,८. Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालानुगमे सम्मादिट्टिकालपरूवणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३२९ ॥ तं जहा - एको मिच्छादिट्ठी उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो, अवरो देससंजमेण सह तं चेव पडिवण्णो, सव्वजहण्णमद्धमच्छिय उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए आसाणं गदा । एसो दोहं पि जहण्णकालो । १, ५, ३२३. ] उक्करण अंतोमुहुत्तं ॥ ३२२ ॥ तं जहा- दो मिच्छादिट्टियो । तत्थ एगो उवसमसम्मत्तं, अवरो देससंजम पडिवण्णो । सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिय दोणि वि तिन्हमण्णदरं गदा । [ ४८३ पत्तसंजद पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था त्ति केव चिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३२३॥ तं जहा - पमत्त अप्पमत्ताणं ताव उच्चदे । सत्तट्ठ जणा बहुआ वा उवसमसम्मा दिट्ठिणो. उसम से दी दो ओदरिय पमत्तापमत्ता होतॄण एगसमयमच्छिय कालं करिय देवा जादा । अपुत्रकरणस्स ओदरमाणेहि, अणियट्टि सुहुमसां पराइयाणं चढणोयरणकिक्रियावाव देहि, उवसंतस्स चढतेहि अप्पिदगुणपडिवण्णैविदियसमए मदेहि जीवेहि एगसमओ वत्तव्वो । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है || ३२१ ॥ जैसे - एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। दूसरा देशसंयमके साथ उसी उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । दोनों ही जीव सर्वजघन्य काल अपने अपने गुणस्थानों में रह करके उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जाने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुए । यह दोनों गुणस्थानोंका जघन्य काल है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।। ३२२ ॥ जैसे- दो मिथ्यादृष्टि जीव हैं । उनमेंसे एक उपशमसम्यक्त्व को और दूसरा देशसंयमको प्राप्त हुआ। वहां वे दोनों ही जीव सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके सम्यमिथ्यात्व, मिथ्यात्व, अथवा वेदकसम्यक्त्व, इन तीनों में से किसी एक को प्राप्त हुए । प्रमत्तसंयत से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ।। ३२३|| वह इस प्रकार है- उनमें से पहले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतों की एक समयकी प्ररूपणा करते है- सात आठ जन, अथवा बहुतसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव, उपशमश्रेणी से उतर कर प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत होकर, वहां पर एक समय रह करके, मरण कर, देव हुए | अपूर्वकरण गुणस्थानवालेके उतरते हुए, अतिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानवाल आरोहण और अवतरण, इन दोनों ही क्रियाओं में लगे हुए, तथा उपशान्तकषायके चढ़ते हुए विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होकर द्वितीय समयमें मरे हुए जीवोंके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए । १ एकजीवं प्रति जघन्यश्चोत्कृष्टञ्चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २ प्रमत्ताप्रमत्तयोश्रतुर्णामुपशमकानां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया व जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. ३ प्रतिषु ' अप्पिदगुणपडिवण्णं ' इति पाठः । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३२४ ॥ पमत्तापमत्ताणं ताव उच्चदे - सत्तद्रु जणा बहुआ वा दंसणमोहणीयउवसामगा चारित्त मोहणीयउवसामगा वा पमत्तापमत्तगुणे पडिवण्णा । तेसु अंतोमुहुत्तमच्छिय अण्णगुणं गदा । तहि चेव समए अण्णे उवसमसम्मादिट्ठिणो पमत्तापमत्तगुणे पडिवण्णा । एवमेत्थ संखेज्जस लागा लब्धंति । एदाहि पमत्तापमत्तद्धं गुणिदे वि अंतोमुहुत्तं चेव होदि । कुदो ? अंत मुहुत्तमिदि सुत्ते उद्दिट्ठत्तादो। एवं चैव चदुण्हमुवसामगाणं वि वत्तं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ ३२५ ॥ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ३२६ ॥ दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि, णाणाजीवजहण्णुक्कस्सकालपरूवणाए परू ४८४ ] विदत्तादो | सास सम्मादिट्ठी ओघं ॥ ३२७ ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ३२८ ॥ मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ३२९ ॥ उक्त गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३२४ ॥ उनमें से पहले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका काल कहते हैं- सात आठ जीव अथवा बहुतसे जीव, चाहे वे दर्शनमोहनीयकर्मके उपशामक हों, अथवा चाहे चारित्रमोहनीयकर्मके उपशमन करनेवाले हों, प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त हुए | उन दोनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त काल रद्द करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त हुए। उसी ही समय में अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुए । इस प्रकार से यहां पर संख्यात शलाकाएं प्राप्त होती हैं । इन शलाकाओं से प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके कालको गुणा करने पर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है, क्योंकि, सूत्र में ' अन्तर्मुहूर्त ' ऐसा पद कहा गया है। इसी प्रकार से चारों उपशामकोंका भी काल कहना चाहिए । [ १, ५, ३२४. एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ ३२५ ॥ उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है || ३२६ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं, क्योंकि, इनका अर्थ नाना जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा में प्ररूपण किया जा चुका है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३२७ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३२८ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३२९ ॥ १ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टि - मिध्यादृष्टीनी सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८० Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३३३.] कालाणुगमे सण्णिकालपरूवणं [४८५ ओघम्हि उत्तसासणादीणं सम्मत्ताणुवादम्हि उत्तसासणादितिण्हं गुणट्ठाणाणं च भेदाभावा । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता। सणियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा॥ ३३०॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३३१ ॥ एवं पि सुत्तं सुगमं चेय, बहुसो परूविदत्तादो। उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ३३२ ॥ तं जधा- एगो असण्णी सण्णीसु उववण्णो सागरोवमसदपुधत्तं तत्थेव भमिय पुणो असण्णित्तं गदो। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥३३३ ॥ ओघमें कहे गये सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानोंकी कालप्ररूपणाका और सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादमें कहे गये सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानोंकी काल. प्ररूपणाका परस्परमें कोई भेद नहीं है। इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञामार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥३३०॥ यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥३३१॥ यह सूत्र भी सुगम ही है, क्योंकि, पहले बहुत वार प्ररूपण किया जा चुका है। एक जीवकी अपेक्षा संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ ३३२॥ जैसे- कोई एक असंही जीव संशियों में उत्पन्न हुआ और सागरोपमशतपृथक्त्वके भन्त तक वह संशियों में ही भ्रमण करके पुन: असंशित्वको प्राप्त हुआ। . सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक संझियोंकी कालप्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३३३ ॥ १ संज्ञानुवादेन संशिषु मिथ्यादृष्टयाच निवृत्तिबादरान्तानां पुंवेदवत् । स. सि. १,.. . १शेषाणां सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,५, ३३४. सण्णिसासणादीणं ओघसासणादीणं च सणितं पडि भेदाभावा । असण्णी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥३३४॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ३३५॥ तं जहा- एगो सणी असणीसु उप्पज्जिय खुद्दाभवग्गहणमेत्तकालमच्छिय सण्णित्तं गदो। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्ट ॥ ३३६ ॥ तं जधा- एगो सण्णी मिच्छादिट्ठी असण्णी होदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टी तत्थ परियट्टिण सण्णित्तं गदो। एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । आहाराणुवादेण आहारएतु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा ॥ ३३७ ॥ क्योंकि, संशी सासादनादिकोंका और ओघ सासादनादिकोंका संशित्वके प्रति कोई भेद नहीं है। असंज्ञी जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३३४ ॥ ___यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा असंज्ञी जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥३३५॥ जैसे-कोई एक संशी जीव असंशियों में उत्पन्न होकर क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल रह करके संक्षित्वको प्राप्त हो गया। एक जीवकी अपेक्षा असंज्ञियोंका उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ ३३६ ॥ जैसे- कोई एक संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव असंही होकर, आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तनातक उन्हीं में परिभ्रमण करके संज्ञित्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार संज्ञीमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३३७॥ १ असलिना मिष्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, .. २ एकजीवं प्रति जघन्येन शुदभवग्रहणम् | स. सि. १,८, ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स. सि. १,८. ४ आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १,८. Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ३४१.] कालाणुगमे आहारि-अणाहारिकालपरूवणं [ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३३८ ॥ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय, ओघम्हि उत्तत्थादो । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणी ॥ ३३९ ॥ तं जहा- एको मिच्छादिट्ठी विग्गहं कादूण उववण्णो । अंगुलस्स असंखेजदिमाग असंखेज्जासंखेजा ओसप्पिणि-उस्सपिणीपमाणं तत्थ परिभमिय आहारगो जादो । पुणो अवसाणे विग्गहं करिय अणाहारितं गदो । एवमाहारिमिच्छादिहिस्स उक्कस्सकालो सिद्धो होदि । सासणसम्मादिट्टिप्पडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥३४०॥ कुदो? णाणेगजीवजहण्णुकस्सकालेहि आहारिसासणादीणं ओघसासणादीहि भेदाभावा। अणाहारएसु कम्मइयकायजोगिभंगों ॥ ३४१ ॥ यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३३८ ॥ यह सूत्र भी सुगम ही है, क्योंकि, ओघमें इसका अर्थ कह दिया गया है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी है ॥ ३३९ ॥ जैसे- एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके (आहारक मिथ्या दृष्टियों में) उत्पन्न हुआ। अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक उनमें परिभ्रमण करता हुआ आहारक रहा । पुनः अन्तमें विग्रह करके अनाहारकपनेको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल सिद्ध हो जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तकके आहारकोंका काल ओषके समान है ॥ ३४०॥ क्योंकि, नाना और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंका ओघ सासादनादि गुणस्थानोंके कालके साथ कोई भेद नहीं है। अनाहारक जीवोंका काल कार्मणकाययोगियोंके समान है ॥ ३४१॥ .. १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. वि. १, ८. २ उत्कर्षेणीगुलासंख्येयभागा असंख्येयासंख्येया उत्सपिण्यवसर्पिण्यः । स. सि.१, ३ शेषाणां सामान्योक्तः कालः | स. सि. १, ८. ४ अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। एकजीवं प्रति जघन्येनैक: समयः। उत्कबैण त्रयः Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ५, ३४२. कुदो ! मिच्छादिडी णाणाजीवं पडुच्च सव्वर्द्ध होंति, एगजीवं पडुच्च जहणेण एगो समओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया; सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण वे समया; सयोगिकेवलीणं णाणाजीवं पडुच्च जहणेण तिण्णि समया, उक्कस्सेण संखेजसमया, एकजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तिण्णि समया एहि अणाहारमिच्छादिट्ठिआदीणं कम्मइय काय जोगिमिच्छादिट्ठि आदीहिंतो विसेसाभावा । अजोगकेवली ओघं ॥ ३४२ ॥ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं, एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण पंचहरस्सक्खरुच्चारणकालो इच्चेदेहि भेदाभावा । ( एवं आहारमग्गणा समत्ता । ) एवं कालाणिओ गद्दारं सम्मतं । क्योंकि, अनाहारक मिथ्यादृष्टि नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं, और उत्कर्ष से तीन समय होते हैं; अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्ष से आवली के असंख्यातवें भाग, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय तक होते हैं; सयोगिकेवलीका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय और उत्कर्ष से संख्यात समय है, तथा एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय है; इस प्रकारले अनाहारक मिथ्यादृष्टि आदि जीवोंका कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि आदि से विशेषताका अभाव है । अनाहारक अयोगिकेवलीका काल ओघके समान है ॥ ३४२ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल पांच हस्व अक्षरोंके उच्चारण कालके समान है, इस प्रकार ओघप्ररूपणा से कोई भेद नहीं है । ( इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई । ) इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ । समयाः । सासादनसम्यग्दृष्टथ संयत सम्यग्दृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणावलिकाया असंख्येयमागः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण द्वौ समयौ । सयोगकेवलिनो नानाजीवापेक्षया अपन्येन त्रयः समयाः । उत्कर्षेण संख्येयाः समयाः । एकजीवं प्रति जघन्यश्चोत्कृष्टश्च त्रयः समयाः । स. सि. १, ८. १ अयोगकेवलिनी सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. २ कालो वर्णितः । स. सि. १, ८. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ खेत्तपरूवणासुत्ताणि । सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १ खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण १० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता केवडि आदेसेण य । २ खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे । ७३ २ ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेते, ११ मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्तसबलोगे। १० मणुसिणीसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव ३सासणसम्माइट्रिप्पहडि जाव अजोगि- अजोगिकेवली केवडि खेते, लोगस्स केवलि ति केवडि खेत्ते, लोगस्स । असंखेज्जदिभागे। ७३ असंखेज्जदिभाए । ३९१२ सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, ओघं । ७५ ४ सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स १३ मणुसअपजत्ता केवडि खेत्ते, असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेसु वा । लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ७६ भागेसु, सव्वलोगे वा । ४८१४ देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि ५ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइएसु मिच्छाइटिप्पहुडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे । ७७ जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति केवडि१५ एवं भवणवासियप्पहुडि जाव खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ५६ उवरिम--उवरिमगेवज्जविमाण६ एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया । ६५ वासियदेवा त्ति । ७ तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छा- १६ अणुदिसादि जाव सबट्ठसिद्धि दिट्ठी केवडि खेत्ते, सव्वलोए। ६६ विमाणवासियदेवा असंजदसम्मा८ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदा- दिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखे__संजदा ति केवडि खेते, लोगस्स ! ज्जदिमागे । असंखेज्जदिभागे। ६७/१७ इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा ९ पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख- । सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता केवडि पज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु खेते, सव्वलोगे । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदा- १८ वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिया तस्सेव संजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असं- । पज्जता अपज्जत्ता य केवडि खेत्ते, खेज्जदिमागे। ६९ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ८४ ७७ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) परिशिष्ट सूत्र सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १९ पंचिंदिय-पंचिंदियपञ्जत्तएसु मिच्छा- २७ सजोगिकेवली ओघं । इटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति २८ तसकाइयअपज्जत्ता पंचिंदियअपकेवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदि- ज्जत्ताणं भंगो। १०१ भागे। ८६२९ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंच२० संजोंमिकेवली ओघं । ८६ वचिजोगीसु मिच्छादिढिप्पहुडि २१ पंचिंदियअपज्जत्ता केवडि खेत्ते, जाव सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। . ८७, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। १०२ २२ कायाणुवादेण पुढविकाइया आउ- ३० कायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघ । १०३ काइया तेउकाइया वाउकाइया, ३१ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणबादरपुढविकाइया बादरआउकाइया कसायवीदरागछदुमत्था केवडि। बादरतेउकाइया बादरवाउकाइया खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। १०३ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा त- ३२ सजोगिकवली ओघं । १०४ स्सेव अपअत्ता, सुहुमपुढचिकाइया ३३ ओरालियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी सुहुमआउकाइया सुहुमतेउकाइया ओघं। १०४ सुहुमवाउकाइया तस्सेव पज्जत्ता ३४ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपज्जत्ता य केवडि खेत्ते, सव्व- सजोगिकेवली लोगस्स असंखेजदिलोगे। ८७/ भागे। १०५ २३ बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया ३५ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिबादरतेउकाइया बादरवणप्फदि- च्छादिट्ठी ओघं । १०५ काइयपत्तेयसरीरा पज्जत्ता केवडि३६ सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मा खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ९३ दिट्ठी सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, २४ बादश्वाउक्काइयपज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। १०६ __ लोगस्स संखेज्जदिभागे । ९९ ३७ वेउब्धियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठि२५ वणप्फदिकाइयणिगोदजीवा बादरा पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी सुहुमा पज्जत्तापज्जत्ता केवडि केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिखेत्ते, सबलोगे। १०० भागे। १०८ २६ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मि- ३८ वेउव्वियामिस्सकायजोगासु मिच्छा च्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगि- दिट्ठी सासणसम्मादिही असंजदकेवलि ति केवडि खेत्ते, लोगस्स सम्मादिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। १०१ असंखेज्जदिभागे। १०९ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तपरूवणासुत्ताणि (१) सूत्र संख्या सूत्र __ पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ३९ आहारकायजोगीसु आहारमिस्स- ५१ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुद कायजागसुि पमत्तसंजदा केवडि । अण्णाणीसु मिच्छादिट्टी ओघं । ११७ खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे। १०९५२ सासणसम्मादिट्ठी ओघं। ११८ ४० कम्मइयकायजोगीसु मिच्छाइट्टी५३ विभंगण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी सासणओघं । ११० सम्मादिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स ४१ सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मा- असंखेज्जदिमागे। इट्ठी ओघं। ११०५४ आभिणिबोहिय सुद-ओहिणाणीसु ४२ सजोगिकेवली केवडि खेते, लोगस्स असंजदसम्मादिहिप्पहुडि जाव असंखेज्जेसु भागेसु सबलोगे वा। १११ खीणकसायवीदरागछदुमत्था के. ४३ वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेदेसु वडि खेत्ते, लोगस्त असंखेज्जदिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टी भागे । ११९ केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ५५ मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजद १११० ४४ णqसयवेदेसु मिच्छादिद्विप्पहुडि पहुडि जाव खीणकसायवीदराग. जाव अणियट्टि त्ति ओघं । ११२ छदुमत्था लोगस्स असंखेजदि४५ अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि ___ जाव अजोगिकेवली केवडि खेते. ५६ केवलणाणीसु सजोगिकेवली ओघ । १२० लोगस्स असंखेज्जदिभागे। ११३ ५७ अजोगिकेवली ओघं । १२० ४६ सजोगिकेवली ओघं । ११३५८ संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्त४७ कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माण- संजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवली कसाइ-मायकसाइ--लोभकसाईसु । ओघं। १२१ मिच्छादिट्ठी ओघं । ११३/५९ सजोगिकेवली ओघं। १२२ ४८ सासणसम्मादिढिप्पहुडि जाव६० सामाइय-च्छेदोवठ्ठावणसुद्धिसंजदेसु । अणियट्टित्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि असंखेज्जदिभागे। ११४ त्ति औषं । ४९ णवरि विसेसो, लोभकसाईसु६१ परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अप्प सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा उव- मत्तसंजदा केवडि खेते, लोगस्स समा खवा केवडि खेत्ते, लोगस्स ! असंखेज्जदिभागे। असंखेज्जदिभागे । ११६ ६२ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुम५० अकसाईस चदुट्ठाणमोघं । ११६ सांपराइयसुद्धिसंजद उवसमा खबगा भागे। १२३ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) सूत्र संख्या सूत्र har खेत्ते, लोगस्स असंखेजदि भागे । ६३ जहाक्खादविहारमुद्धिसंजदेसु चदु परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या १२३ १२४ ६४ संजदासंजदा केवड खेते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ६५ असंजदेसु मिच्छादिट्ठी ओघं । ६६ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं । ६७ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । १२६ ६८ अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । ६९ सासणसम्मादिट्ठिप्प हुडि जाव खीणक सायवीदरा गछदुमत्था ति ओघं । ७० ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगो । ७१ केवलसणी केवलणाणिभंगो । ७२ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-पीललेस्सिय काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी ओघं । ७३ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं । ७४ तेउलेस्सिय पम्म लेस्सिएसु मिच्छाइपिडि जाव अप्पमत्त संजदा Phas खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । सूत्र | ७५ सुक्कले स्सिएसु मिच्छादिट्ठिप्प हुडि जाव खीण कसायवीदरागछदुमत्था केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । १२७ ७६ सजोगिकेवली ओघं । १२४ १२५ मिच्छादिट्ठी १२४ ७७ भवियाणुवादेण भवसिद्धिएस मिच्छादिट्ठिप्प हुडि जाव अजोगिकेवल ओघं । ७८ अभवसिद्धिएसु has खेत्ते, सव्वलोए । | ७९ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठि खइयसम्मादिट्ठी असंजद सम्मादिट्ठिपहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं । १३३ ८० सजोगिकेवली ओघं । १३४ ८१ वेदगसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टि पहुडि जाव अपमत्त संजदा केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज दि भागे । पृष्ठ १३० १३१ १३१ १३२ १३४ १२७ १२७ १२७ | ८२ उवसमसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टि पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ८३ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । १२८ ८४ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । | ८५ मिच्छादिट्ठी ओघं । १२८ ८६ सणियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । १२९८७ असण्णी केवडि खेत्ते, सव्वलोए । १३६ १३६ १३४ १३५ १३५ १३५ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ फोसणपरूवणासुत्ताणि (५) सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या ८८ आहाराणुवादेण आहारएसुमिच्छा- ९१ सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं । १३७ दिट्ठी अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, ८९ सासणसम्मादिहिप्पहुडि जाव लोगस्स असंखेज्जदिभागे। १३८ सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, ९२ सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। १३७ लोगस्स असंखेज्जेसु वा भागेसु, ९० अणाहारएसु मिच्छादिट्ठी ओधं । १३७/ सव्वलोगे वा । १३८ फोसणपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या । पृष्ठ १ पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, केवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, ओघेण आदेसेण य । १४१ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। १७० २ ओघेण मिच्छादिहीहि केवडियं १० सजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं खेत्तं पोसिदं, सबलोगो। १४५ पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो, ३ सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं असंखेजा वा भागा,सबलोगो वा। १७२ फोसिदं, लोगस्त असंखेज्जदि- ११ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयभागो। १४८ गदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठीहि ४ अहवारह चोदसभागा वा देसूणा। १४९, केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स ५ सम्मामिच्छाइदि-असंजदसम्मा- असंखेज्जदिभागो। १७३ इट्ठीहि केवडियं खेतं पोसिदं, १२ छ चोदसभागा वा देसूणा। १७३ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। १६६ १३ सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं ६ अट्ठ चोद्दसभागा वा देसूणा । १६६ पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदि७ संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं भागो। . फोसिदं, लोगस्त असंखेन्जदि- १४ पंच चौदसभागा वा देसूणा। १७७ भागो। १६७ १५ सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मा.८ छ चोद्दसभागा वा देसूणा। १६८ दिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिद, ९ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगि- लोगस्स असंखेज्जदिभागो। १७८ १७७ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) सूत्र संख्या सूत्र १६ पढमाए पुढवीणेरइएस मिच्छाइट्टि पहुड जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १७ विदियादि जाव छट्ठीए पुढवीए रइएस मिच्छादिट्ठि सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १८ एग वेतिणि चत्तारि पंच चोदसभागा वा देखणा । १९ सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं पोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २० सत्तमा पुढवीए रइएस मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २१ छ चोदसभागा वा देखूणा । २२ सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छा दिsि - असंजद सम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २३ तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, ओघं । २४ सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २५ सत्त चोहसभागा वा देखणा । २६ सम्मामिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेतं परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या १८२ १८८ १८८ १८९ १९० १९० १९१ सूत्र फोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २७ असंजदसम्मादिट्ठि - संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २८ छ चोदसभागा वा देखणा । २९ पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरि क्खपज्जत्त- जोणिणीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । | ३० सव्वलोगो वा । ३१ सेसाणं तिरिक्खगदीणं भंगे। | | ३२ पंचिदियतिरिक्खअपजत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ३३ सव्वलोगो वा । ३४ मणुसगदीए मणुस मणुसपञ्जत्तमसिणीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २०६ २०७ २०७ २११ २११ २१३ २१३ २१४ २१६ २१६ | ३५ सव्वलोगो वा । १९२ ३६ सासणसम्मादिड्डीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ३७ सत्त चे|इसभागा वा देसूणा । १९३ | ३८ सम्मामिच्छाइट्टि पहुडि जाव १९३ अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो । २२० २१७ २१७ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ फोसणपरूवणासुत्ताणि (७) सूत्र संख्या सूत्र __ पृष्ठ सूत्र संख्या ३९ सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं ५० सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवेसु मि फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदि- च्छादिट्टिप्पहुडि जाव असंजदभागो, असंखेजा वा भागा, सब- सम्मादिट्टि त्ति देवो । २३४ लोगो वा। २२३ ५१ सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदार४० मणुसअपज्जत्तेहि केवडियं खेतं सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छापोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदि दिट्टिप्पहुडि जाव असंजदसम्माभागो। दिट्ठीहि केवडियं खेतं पोसिद, ४१ सव्वलोगो वा। २२४ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। २३७ ४२ देवगदीए देवेसु मिच्छादिहि- |५२ अट्ठ चोदसभागा वा देसूणा। २३७ सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत ५३ आणद जाव आरणच्चुदकप्पपोसिदं, लोगस्प्त असंखेज्जदि- वासियदेवेसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि भागो। २२४| जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केव४३ अट्ठ णव चौद्दसभागा वा देगा। २२५ डियं खेतं पोसिदं, लोगस्स ४४ सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मा- असंखेज्जदिमागो। २३८ दिट्ठीहि केवडियं खेतं पोसिदं, ५४ छ चोदसभागा वा देसूणा पोसिदा। २३८ लोगस्स असंखेज्जदिभागो। २२७५५ णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मि४२ अट्ठ चोद्दसभागा वा देसूणा। २२७ च्छादिटिप्पहुडि जाव असंजद४६ भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसिय सम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं देवेसु मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मा पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदि भागो। दिट्ठीहि केवडियं खेतं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो। २२८ ५६ अणुदिस जाव सबसिद्धिविमाण । वासियदेवेमु असंजदसम्मादिट्ठीहि ४७ अद्भुट्ठा वा, अट्ठ णव चोदसभागा केवडियं खेतं पोसिदं, लोगस्स वा देसूणा । २२९ असंखेज्जदिभागो।। २४० ४८ सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मा- ५७ इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादरदिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, | मुहुम-पज्जत्तापज्जत्तएहिं केवलोगस्स असंखेज्जदिभागो। २३३ डियं खेत्तं फोसिदं, सबलोगो। २४० ४९. अद्धट्ठा वा अह चोद्दसभागा५८ बीइंदिय--तीइंदिय--चउरिदियदेसूणा। २३३ तस्सेव पज्जत्त-अपज्जत्तएहि Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिअसंखेज्जदिभागो। २४२ भागो। २५० ५९ सव्वलोगो वा। २४३ ६८ सव्वलोगो वा। २५० ६० पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएमु मि- ६९ बादरवाउपज्जत्तएहि केवडियं च्छादिहीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, खेतं पोसिदं, लोगस्स संखेजदिलोगस्स असंखेज्जदिभागो। २४४| भागो। २५२ ६१ अढ चोदसभागा देसूणा, सब- ७० सव्वलोगो वा । २५३ लोगो वा। २४४७१ वणफदिकाइयणिगोदजीववादर-- ६२ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्तएहि केव अजोगिकेवलि त्ति ओघं । २४५, डियं खेत्तं पोसिदं, सबलोगो। २५३ ६३ सजोगिकेवली ओघं । २४५/७२ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु ६४ पंचिंदियअपज्जत्तएहि केवडियं । मिच्छादिहिप्पहुडि जाव अजोगिखेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखे। केवलि त्ति ओघं। २५४ ज्जदिभागो। २४६७३ तसकाइयअपज्जताणं पंचिंदिय६५ सव्वलोगो वा । २४६ अपज्जत्ताणं भंगो । २५४ ६६ कायाणुवादेण पुढविकाइय- ७४ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंच आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय- वचिजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवबादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय डियं खेतं पोसिदं, लोगस्स बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइय असंखेज्जदिभागो। २५५ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरतस्सेव अपजत्त-मुहुमपुढविकाइय. ७५ अट्ठ चोदसभागा देसूणा, सव्व__ लोगो वा। २५५ सुहुमआउकाइय-महुमतेउकाइयसुहुमवाउकाइय-तस्सेव पज्जत्त ७६ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं संजदासजदा ओघं । २५६ पोसिद, सव्वलोगो। २४७७७ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगि६७ बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय- केवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिका- लोगस्स असंखेज्जदिभागो। २५७ इयपत्तेयसरीरपज्जत्तएहि केवडियं ७८ कायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । २५८ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोसणपरूवणासुत्ताणि पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र संख्या सूत्र ७९ सास सम्मादिट्ठिप्प हुडि जाव खीणकसायवीदरा गछदुमत्था ओघं । २५८ ८० सजोगिकेवली ओघं । ८१ ओरालियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं । ८२ सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ८३ सत्त चोहसभागा वा देसूणा । ८४ सम्मामिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । " २५९ २६० 77 २६१ संजदा ८५ असंजदसम्मादिट्ठीहि संजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ८६ छ चो६सभागा वा देगा | ८७ पमत्त संजद पहुडि जाव सजोगिकेवल हि केवडियं खेत पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदि भागो । ८८ ओरालियमस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघ । ८९ सासणसम्माइट्ठि असंजदसम्माइट्ठिीसजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं फोसिद, लोगस्स असंखेजदिभागो। २६४ ९० व्यायजोगी मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ९१ अट्ठ तेरह चोदसभागा वा देखणा । ९२ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । 17 २६२ "" २६३ २६६ 27 २६७ सूत्र केवडियं खेत्तं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ९८ एक्कारह चोहसभागा देसूणा । ९९ असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिद, लोगस्स असंखेदिभागो । १०० छ चोद्दस भागा देखणा । १०१ सजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जा भागा, सव्वलोगो वा । १०२ वेदानुवादेण इत्थि वेद - पुरिसवेदसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ९४ ९३ सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं । वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टि - सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो । ९५ आहारकाय जोगि आहार मिस्सकाय जोगीसु पमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । ९६ कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । ९७ सास सम्मादिट्ठीहि १०३ अट्ठ चोदसभागा देखणा, सव्वलोगो वा । (९) पृष्ठ २६७ २६८ २६९ ܂ܐ २७० 19 "" 17 २७१ "" २७२ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०) परिशिष्ट संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या १०४ सासणसम्मादिडीहि केवडिय ११७ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणिः खेतं फोसिदं, लोमस्स असंखे- यहि ति ओघं। २७८ अदिभागो। २७२/११८ अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि १०५ अडणव चौसभागा देरणा । , जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं। २७९ १०६ सम्मामिगदिहि-असंजदसम्मा- ११९ सजोगिकेवली ओघ । २८० दिडीहि केवडियं खेतं फोसिदं. १२० कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माण लोगस्स असंखेज्जदिमागो। २७४ कसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु १०७ अङ्क चोदसभागा वा देसूणा मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव अणिफोसिदा। यट्टि त्ति ओघं। १.८ संजदासजदेहि केवडि खेतं “ १२१ णवरि लोभकसाईसु सुहमफोसिदं, लोगस्स असंखेजदि सांपराइयउवसमा खवा ओघं। " भागों। १२२ अकसाईसु चदुट्ठाणमोघं । , १०९. छ. चौदसभागा देसूणा। २७५/ .१२३ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुद अण्णाणीसुमिच्छादिट्ठी ओघं। २८१ ११० पमतसंजदप्पहुडि जान अणि. (१२४ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । यविउवसामग-खवएहि केवडियं १२५ विभंगणाणीसु मिच्छादिट्ठीहि खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखे केवाडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स ज्नदिभागो। असंखेज्जदिभागो। २८२ १११ णउसयवेदएसु मिच्छादिट्टी ओघ । २७६ १२६ अट्ट चोदसभागा देसूणा, सव्व११२ सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं । लोगो वा। खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखे- १२७ सासणसम्मादिट्ठी ओघं। २८३ ज्जदिमागो। " १२८ आमिणिबोहिय-सुद-ओधि११३ मारह चोइसभामा का देसूणा । २७७ णाणीसु असंजदसम्मादिद्विप्पहुडि १२४ सम्मामिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेतं । जाव खीणकसायवीदरागछदुफोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदि मत्था त्ति ओघं । मागो। " १२९ मणपजवणाणीसु पमत्तसंजद११५ असंजदसम्मादिहि-संजदासंजदेहि पहुडि जाव खीणकसायवीदकेवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स रागछदुमत्था ति ओघं । २८४ असंखेज्जदिभामो । २७८१३० केवलणाणीसु सजोगिकेवली ११६ छ चोदसभागा देखणा। ओघं। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोसणपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या १३१ अजोगिकेवली ओघ । २८५,१४४ ओधिदंसणी ओधिणामिंगो। १८९ १३२ संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्त- १४५ केवलदसणी केवलणाणिभंगो। २९. संजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि १.४६ लेस्साणुकादेण किण्ड्लेस्सियत्ति ओघं। थीललेस्सिय-काउलेस्सिमिया- . . १३३ सजोगिकेवली ओघं । दिट्टी ओघं। १३४ सामाइयच्छेदोक्ट्ठावणसुद्धिसंज- १४७ सासणसम्मादिट्ठीहि केवडिय देसु पमससंजदुप्पहुडि जाव खेतं पोसिदं, लोगस असंखेअणियट्टि ति ओघं । २८६ ज्जदिमागो। १३५ परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अप्प- १४८ पंच चत्तारि वे चोइसभामा मत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिद, वा देसूणा। लोगस्स असंखेज्जदिभागो। , " १४९ सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मा१३६ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहु दिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिद, ___ मसांपराइय-उवसमा खवा ओघ । २८७ १३७ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसुच- लोगस्स असंखेज्जदिभागो। २९१ १५० तेउलेस्सिएसु मिच्छादिहिदुट्ठाणी ओघं। १३८ संजदासजदा ओघ । सासणसम्मादिट्टीहि केवडियं १३९ असंजदेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेअसंजदसम्मादिहि त्ति ओघं। २८८ .. ज्जदिभागो। २९४ १४० दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु१५१ अट्ठ णव चोइसभागावा देवणा। २९५ मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेतं । १५२ सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मापोसिदं, लोगस्स असंखेजदि- दिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिद, भागो। लोगस्स असंखेजदिभागो। " १४१ अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा सब- १५३ अह चोइसभागाचा देखणा। , लोगो वा। १५४ संजदासजदेहि केवडियं खेतं १४२ सासणसम्मादिहिप्पहुडिहि जाय। पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिखीणकसायवीदरागछदुमत्था ति भागो। २९६ ओघं । २८९/१५५ दिवड चोड़सभामा वा देरणा । " १४३ अचवदंगणीसु मिच्छादिहि- १५६ पमत्त-अपमत्तसंजदा ओघं। २९७ पहुडि जाव खीणकसाय- १५७ पम्मलेस्सिएसु मिच्छाइविप्पहाडि वीदरागछदुमत्था ति ओघं । जाव असंजदसम्मादिडीहि केव Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) सूत्र संख्या सूत्र डियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १५८ अट्ठ चोहसभागा वा देखणा । १५९ संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १६० पंच चोदसभागा वा देसूणा । १६१ पमच अपमत्तसंजदा ओघं । १६२ सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठि - हुडि जाव संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १६३ छ चोदसभागा वा देखणा । १६४ मत्तसंजद पहुडि जाव सजोगिकेवल ति ओघं । १६५ मवियाणुवादेण भवसिद्धिएस मिच्छादिट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवल ओघं । १६६ अभवसिद्धिएहिं केवडिय खेत्तं पोसिदं सव्वलोगो । परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र | १७१ वेदगसम्मादिट्ठीस असंजद सम्मा दिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्त संजदा त्ति ओघं । १७२ उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी ओघं । १७३ संजदासंजद पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थेहि केवडियं खेतं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । २९७ " २९८ "" २९९ +9 17 ३०० 19 | १७४ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । १७९ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । १७६ मिच्छादिट्ठी ओघं । | १७८ अट्ठ चोदसभागा देखणा, सव्वलोगो वा । ३०१ १७९ सासणसम्मादिट्टिप्पाहुडि जाव खीण कसायवीदरागछदुमत्था ओघं । ३०३ ३०४ १७७ सणियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छा दिहीहि केवडियं खेतं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १८० असण्णीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, सव्वलोगो । | १८३ पृष्ठ ३०४ 17 ३०५ ३०६ 99 १६७ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टि पहुडि जाव ३०८ "" १६९ संजदासंजद पहुडि जाव अजोगि अजोगिकेवलि त्ति ओवं । - ३०२ १८१ आहाराणुवादेण आहारएसु मि१६८ खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदच्छादिट्ठी ओवं । सम्मादिट्ठी ओघं । | १८२ सासणसम्मादिट्ठिप्प हुडि जाव संजदासजदा ओघं । पमत्तसंजद पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । केवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । १७० सजोगिकेवली ओघं । 71 77 97 ३०७ "" "" " Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र कालपरूवणासुत्ताणि (१३) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या पृष्ठ १८४ अणाहारएसु कम्मइयकायजोगि- केवडियं खेत्तं पोसिदं. लोगस्स भंगो। १८५ णवरिविसेसा, अजोगिकेवलीहि-२५ असंखेज्जदिभागो।" MY कालपरूवणासुत्ताणि । सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र . पृष्ठ १ कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो, होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण. ओघेण आदेसेण य । ३१३ अंतोमुहुत्तं । २ ओघेण मिच्छादिट्ठी केवचिरं १० उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेकालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च | जदिभागो। सव्वद्धा। __३२३ ११ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतो३ एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्ज मुहुत्तं । वसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, १२ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । . ३४५ सादिओ सपज्जवसिदो । जो सो १३ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो . सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। , णिदेसो । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३२४|१४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- - ४ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियÉ मुहुत्तं । ३४६ देसूणं । ३२५ १५ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ५ सासणसम्माहिदी केवचिरं कालादो सादिरेयाणि ।। ३४७ होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण १६ संजदासंजदा केवचिरं कालादो एगसमओ। ३३९ होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । ३४८ ६ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे- १७ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोज्जदिभागो। ३४० मुहुत्तं । ३४१ ७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग- १८ उक्कस्सेण पुषकोडी देसूणा । ३५० ३४१ १९ पमत्त-अप्पमत्तसंजदा केवचिरं । ८ उक्कस्सेण छ आवलियाओ। ३४२ कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च ९ सम्मामिच्छाइट्ठी केवचिरं कालादो । सम्बद्धा । समओ। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) परिशिष्ट सूल संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र २० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग- ३६ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छासमयं । ३५० दिट्ठी ओघं ।। ३५८८ २१ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३५१ ३७ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं २२ चउण्डं उवसमा केवचिरं कालादो कालादो होति, णाणाजीव पडुच्च होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण सव्वद्धा । एगसमय । ३५२ ३८ एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतो२३ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । .. मुहुत्तं । २४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग- ३९ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि समयं । ३५३ देरणाणि । २५ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । ३५४/४० पढमाए जाव सत्तमाए पुढवीए २६ चदुण्डं खवगा अजोगिकेवली केव- रइएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं चिरं कालादो होति, णाणाजीवं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । सव्वद्धा। ३६० , २७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । " ४१ एगजी पडुच्च जहण्णेण अंतो२८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो .....४२ उक्कस्सेण सागरोवमं तिणि सत्त मुहुत्तं । ३५५ दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं सागरो२९ उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । । वमाणि । ३० सजोगिकेवली केवचिरं कालादो ४३ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छाहोति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। ३५६ दिट्ठी ओघं। ३६१ ३१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- ४४ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो मुहुत्तं । " होति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा।" ३२ उक्कस्सेण पुषकोडी देसूणा। , ४५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो३३ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयरिय- मुहुत्तं । __ ३६२ गदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठी केव ४६ उक्कस्सं सागरोवमं तिणि सत्त चिरं कालादो हॉति, णाणाजीवं दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं पडुच्च सव्वद्धा । ३५७ सागरोवमाणि देसूणाणि । " ३४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- ४७ तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छामुहुत्तं । ___" दिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, ३५ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । ३५८ णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । ३६३ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या कालपरूवणासुत्ताणि पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ४८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- ६२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ३७० ३६३ ६३ उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि, ४९ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा | तिणि पलिदोवमाणि, तिण्णिा पोग्गलपरिय। ३६४ पलिदोवमाणि देसूणाणि । " ५० सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छा- ६४ संजदासजदा ओघ । ३७१ दिट्ठी ओघं। , ६५ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता केव५१ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो चिरं कालादो होति, णाणाजीवं होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । ३६५ पडुच्च सव्वद्धा। ५२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंती- ६६ एमजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभव · मुहुतं । . " ग्गहणं । ५३ उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि। ,६७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३७२ ५४ संजदासंजदा केवचिरं कालादो ६८ मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्तहोति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा । ३६६ मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं ५५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो ___ कालादो होंति, णाणाजीव पडुच्च मुहुतं । ५६ उक्कस्सेण पुन्चकोडी देसूणा। , ५७ पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदिय - ६९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्ख । मुहुर्त । जोणिणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं ७० उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च पुरकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । ३७३ सव्वद्धा। ३६७/७१ सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो ५८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण मुहुत्तं । | एगसमय । ३७९ ५९ उक्कस्सं तिणि पलिदोवमाणि ७२ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । पुधकोडिपुधत्तेण अब्भहियाणि। , ७३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग६० सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छा- | समयं । दिट्ठी ओघं। ३६९/७४ उक्कस्स छ आवलियाओ। ३७५ ६१ असंजदसम्मादिही केवचिरं ७५ सम्मामिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो कालादो हॉति, णाणाजीवं पडुच्च | होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण सव्वद्धा। ___ अंतोमुहुत्तं । सव्वद्धा। नोमहत्तं । " Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ विमाणि. (१६) परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ ७६ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३७५/ ९१ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं .. ७७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो कालादो होति, णाणाजी पडुच्च मुहुत्तं । सबद्धा। ३८१ ७८ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । । ९२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो७९ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो मुहुत्तं । होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। ,, | ९.३ उक्कस्सं तेत्तीसं सागरोवमाणि। , ८० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो ९४ भवणवासियप्पहुडि जाव सदारमुहुत्तं । सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छा. ८१ उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि, दिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि, कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च तिणि पलिदोवमाणि देसूणाणि । , सम्बद्धा । ३८२ ८२ संजदासंजदप्पहुडि जाव अजोगि- ९५ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोकेवलि त्ति ओघं । ३७८ मुहुत्तं । ८३ मणुसअपज्जत्ता केवचिरं कालादो ९६ उक्कस्सण सागरोवमं पलिदोवम हाँति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण सादिरेयं वे सत्त चौदस सोलस खुद्दाभवग्गहणं । अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरे८४ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे याणि । ज्जदिभागो। ८५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा ९७ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छा दिट्ठी ओघं। भवग्गहणं । ९८ आणद जाव णवगेवज्जविमाण८६ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । वासियदेवेसु मिच्छादिट्ठी असं. ८७ देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठी केव जदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो चिरं कालादो होंति, णाणाजीवं होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। " पदुच्च सव्वद्धा। २८०/ ९९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो८८ एगजी पडुच्च जहण्णेण अंतो- । __ मुहुत्तं । " १०० उक्कस्सेण वीसं वावीसं तेवीसं ८९ उक्कस्सेण एकत्तीसं सागरोवमाण। ३८० चउवासं पणवीसं छव्वीसं सत्ता९० सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छा वीसं अट्ठावीसं एगूणतीसं तसं ५ दिट्ठी ओघं। एक्कत्तीस सागरोवमाणि । ३८६ ३७९/ ३८५ मुहुत्तं । ३८१ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) 4. कालपरूवणासुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १०१ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छा- ११२ उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिदिट्ठी ओघं । भागो असंखेज्जासंखेज्जाओ १०२ अणुद्दिस--अणुत्तरविजय-वइ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। ३८९ जयंत-जयंत-अवराजिदविमाण- ११३ बादरेइंदियपज्जत्ता केवचिरं वासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठी कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च केवचिरं कालादो होंति, णाणा सव्वद्धा । जीवं पडुच्च सव्वद्धा । , ११४ एगजी पडुच्च जहण्णण अंतो१०३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एक मुहुत्तं । त्तीसं, वत्तीसं सागरोवमाणि ११५ उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहसादिरेयाणि । स्साणि । १०४ उक्कस्सेण बत्तीस, तेत्तीस ११६ बादरेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं सागरोवमाणि । कालादो हति, णाणाजीव पडुच्च १०५ सव्वदृसिद्धिविमाणवासियदेवेसु सव्वद्धा। ३९३ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं ११७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाकालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च भवग्गहणं । सव्वद्धा। |११८ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १०६ एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण ११९ राहुमएइंदिया केवचिरं कालादो तेत्तीसं सागरोवमाणि । होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । ३९४ " १२० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा१०७ इंदियाणुवादेण एइंदिया केवचिरं भवग्गहणं । कालादो होंति, णाणाजीवं ...१२१ उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। , पडुच्च सयद्धा । ३८८, १०८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा १२२ सुहुमेइंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च भवग्गहणं । सव्वद्धा । १०९ उक्कस्सेग अणंतकालमसंखेज्ज- १२३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो__पोग्गलपरियट्ट । " मुहुत्तं । ११० बादरएइंदिया केवचिरं कालादो १२४ उक्कस्सेण अंतोमुहुतं ।। होंति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा । ३८९ १२५ सुहमेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं १११ एगजीवं पहुच्च जहणणेण खुद्दा- कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च भवरगहणं । सव्वद्धा। ३९६ भा Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पृष्ठ (१८) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या १२६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण ग्वुद्दा- १३९ कायाणुवादेण पुढविकाइया आउभवग्गहणं। ३९६ काइया तेउकाइया वाउकाइया १२७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३९७/ केवचिरं कालादो हॉति, णाणा१२८ बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया, जीवं पडुच्च सव्वद्धा । ४०१ बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-- १४० एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुदापज्जत्ता केवचिरं कालादो होति, भवग्गहणं ।। णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। , १४१ उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। , १२९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा- १४२ बादरपुढविकाइया बादरआउभवग्गहणं, अंतोमुहुत्तं । काइया बादरतेउकाइया बादर१३० उक्कस्सेण संखेन्जाणि वाससह वाउकाइया बादरवणप्फदिकाइयस्साणि। पत्तेयसरीरा केवचिरं कालादो १३१ वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिया अ होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। ४०२ पज्जत्ता केवचिरं कालादो होति, १४३ एगजीवं पटुच्च जहण्णेण खुद्दा___णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। ३९८ भवग्गहणं ।। १३२ एगजीवं पडुच्च जहण्णण खुद्दा- १४४ उक्कस्सेण कम्मद्विदी। भवग्गहणं। , १४५ वादरपुढविकाइय-बादरआउ१३३ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । ३९१ काइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउ१३४ पंचिंदिय-पंचिंदियपजत्तएसु मि. काइय-बादरवणप्फदिकाइयच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो पतेयसरीरपज्जत्ता केवचिरं होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्यद्धा। , कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च १३५ एगजीवं पडुच्च जपणेण अंतो सबद्धा । मुहुत्तं । ,, १४६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो१३६ उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि । मुहुत्तं । पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, १४७ उक्कस्सेण संखज्जाणि वास सागरोवमसदपुधत्तं । ४०० सहस्साणि । १३७ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव १४८ बादरपुढविकाइर-बादरआउअजोगिकेवलि त्ति ओघं । काइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउ१३८ पंचिंदियअपज्जत्ता बीइंदिय काइय-बादरवणष्फदिकाइय-- अपज्जत्तमंगो। पत्तेयसरीरअपज्जत्ता केवचिरं ४०४ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडच्च सव्वद्भा। कालपरूवणासुत्ताणि (१९) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या कालादो होंति, णाणाजीवं १६० सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाद ४०५/ अजोगिकेवलि त्ति ओघं। ४०८ १४९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा- १६१ तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियभवग्गहणं अपज्जत्तभंगो। १५० उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । , १६२ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंच१५१ सुहुमपुढविकाइया सुहुमआउ. वचिजोगीसुमिच्छादिट्ठी असंजदकाइया सुहुमतेउकाइया सुहुम सम्मादिट्ठी संजदासजदा पमत्तवाउकाइया सुहुमवणप्फदिकाइया संजदा अप्पमत्तसंजदा सजोगिसुहुमणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता केवली केवचिरं कालादो होंति, पज्जत्ता सुहुमेइंदियपज्जत्त-अप- __णाणाजीव पडुच्च सम्बद्धा । ४०९ ज्जत्ताणं भंगो। १६३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग१५२ वणप्फदिकाइयाणं एइंदियाणं | समयं । भंगो। ४०६/१६४ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४१२ १५३ णिगोदजीवा केवचिरं कालादो १६५ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। ,, १६६ सम्मामिच्छादिट्ठी केवचिरं १५४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च भवग्गहणं । जहण्णेण एगसमयं । ४१३ १५५ उक्कस्सेण अड्डाइजादो पोग्गल- १६७ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे. परियढें। जदिभागो। बादरनिगोदजीवाणं बादरपदवि- १६८ एगजी पडुच्च जहण्णेण एगकाइयाणं भंगो। ४०७ समयं । १५७ तसकाइय --तसकाइयपज्जत्तएसु १६९ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो १७० चदुण्हमुवसमा चदुहं खवगा होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। , केवचिरं कालादो होति, णाणा१५८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो जीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं। " मुहुत्तं । ,, १७१ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४१५ १५९ उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि १७२ एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगपुवकोडिपुत्तेणब्भहियाणि, वे समयं । सागरोवमसहस्साणि। ४०८.१७३ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४१४ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १७४ कायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केव- १८७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगचिरं कालादो होति, णाणाजीवं समओ। ४२० पडुच्च सव्वद्धा । __४१५ १८८ उक्कस्सेण छ आवलियाओ सम१७५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग ऊणाओ। ४२१ समयं । ४१६ १८९ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं १७६ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा कालादो होंति, णाणाजीव पडुच्च पोग्गलपरियटैं। जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । " १७७ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव १९० उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । , सजोगिकेवलि त्ति मणजोगि १९१ एगजीयं पडुच्च जहण्णेण अंतोभंगो। ४१७ मुहुत्तं । १७८ ओरालियकायजोगीसु मिच्छा ४२२ दिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, १९२ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। १९३ सजोगिकेवली केवचिरं कालादो ' १७९ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग होति, णाणाजीवं पडुच्च जह ण्णेण एगसमयं । ४२३ समयं । १८० उक्कस्सेण वावीसं वाससहस्साणि १९४ उक्कस्सेण संखेज्जसमयं । ४२४ देसूणाणि । १९५ एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण १८१ सासणसम्मादिट्टिप्पहडि जाव एगसमओ। सजोगिकेवलि त्ति मणजोगिभंगो। , १९६ वेउब्धियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी १८२ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मि असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं च्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च माना 80 णाणाजीव पडुच्च सम्बद्धा। ४१९/ सव्वद्धा। ४२५ १८३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दा- १९७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग. भवग्गहणं तिसमऊगं। , समओ। १८४ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । १९८ उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । ,, १८५ सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं १९९ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । ४२६ कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च २०० सम्मामिच्छादिट्ठीणं मगजोगि. जहण्णेण एगसमयं । ४२० भंगो। १८६ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे- २०१ वेउवियमिस्सकायजोगीसु मिज्जदिभागो। है च्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ४१८॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ मुहुत्तं । कालपरूवणासुत्ताणि (२१) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या केवचिरं कालादो होति, णाणा- २१६ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४३३ जीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । ४२६ २१७ कम्मइयकायजोगीसु मिच्छा२०२ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे- दिट्ठी केवचिरं कालादो होति, ज्जदिभागो। णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। " २०३ एगजी पडुच्च जहण्णेण अंतो- २१८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग ४२८ समयं । २०४ उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । ४२९२१९ उक्कस्सेण तिष्णि समया। ४३४ २०५ सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं | २२० सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माकालादो हाँति, णाणाजीवं पडुच्च दिट्ठी केवचिरं कालादो हति, जहण्णेण एगसमयं । णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एग२०६ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे समयं । ४३५ ज्जदिमागो। " २२१ उक्कस्सेण आवलियाए असंखे. २०७ एगनी पडुच्च जहण्णेण एग ज्जदिभागो। ४३० समयं २०८ उक्कस्सेण छ आवलियाओ सम २२२ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग ४३६ समयं । ऊणाओ। २०९ आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा " २२३ उक्कस्सेण वे समयं । केवचिरं कालादो होति, णाणा २२४ सजोगिकेवली केवचिरं कालादो जीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । ४३१ होति, णाणाजीवं पडुच्च जह२१० उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ण्णेण तिणि समयं । , २११ एगजीवं पइच्च जहणेण अंतो- २२५ उक्कस्सेण संखेज्जसमयं । , मुहुत्तं । २२३ एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण २१२ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४३२ . तिणि समयं ।। २१३ आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्त- २२७ वेदाणुवादेण इत्थिवेदएसु मिच्छा.... संजदा केवचिरं कालादो होति, दिही केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो. णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा। ४३७ मुहुत्तं । , २२८ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो२१४ उक्कस्सेण अंतोमुहुन् । मुहुत्तं । २१५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो- २२९ उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं। , ४३३ २३० सासणसम्मादिट्ठी ओघ । मुहुत्तं । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) सूत्र संख्या सूत्र २३१ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । २३२ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीचं पडुच सव्वद्धा । २३३ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । २३४ उक्कस्सेण पणवण्णपलिदो माणि देणाणि । २३५ संजदासंजद पहुडि जाव अणियत्ति ओघं । २३६ पुरिसवेदसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पटुच्च सव्वद्धा । २३७ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । पोग्गलपरियङ्कं । २४३ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । २४४ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । २४५ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सच्चद्धा । परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ४३८ | २४६ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतो मुहुत्तं । | २४७ उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि देणाणि । | २४८ संजदासंजद पहुडि जाव अणियदि ति ओधं । २४९ अपगदवेदसु अणियविप्पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति ओघं । ४४४ २५० कसायाणुवादेण कोधक साइमाणसा-मायकसाइ-लोभकसाईसुमिच्छादिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्त संजदा त्ति मणजोगिभंगो । | २५१ दोणि तिष्णि उवसमा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं । | २५२ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । | २५३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । २५४ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । | २५५ दोणि तिणि खवा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पहुच जहणेण अंतमुत्तं । " 17 ४३९ " 77 २३८ उक्कस्सेण सागरोवमसदपुत्तं । ४४१ २३९ सास सम्मादिट्ठिप्प हुडि जाव अणियट्टित्ति ओघं । २४० णवुंसयवेदेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । २४१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं । २४२ उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज ४४० 17 99 ४४२ | २५७ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतो " मुहुत्तं । " 99 | २५३ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । 19 | २५८ उक्करण अंतोमुहुत्तं । | २५९ अकसाईसु चदुट्टाणी ओघं । | २६० णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुद अण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । पृष्ठ ४४३ 19 11 "" ४४६ " "" ४४७ ४४८ 17 "" 17 12 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ कालपरूवणासुत्ताणि (२३) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र २६१ सासणसम्मादिट्ठी ओघं। ४४९ २७३ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु २६२ विभंगणाणीसु मिच्छादिही केव- चदुट्टाणी ओघं । ४५३ चिरं कालादो होतिगाणाजीव २७४ संजदासंजदा ओघं। __ पडुच्च सव्वद्धा। २७५ असंजदेसु मिच्छादिटिप्पहुडि २६३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो जाव असंजदसम्मादिहि त्ति मुहुत्तं । ओघं। २६४ उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि २७६ दसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु देसूणाणि । मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो २६५ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । ४५० होति, णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा। ,, २६६ आभिणिबोहियणाणि-सुदणाणि २७७ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोओधिणाणीसु असंजदसम्मादिहि। मुहुतं । ४५४ प्पहुडि जाव खीणकसायवीदराग २७८ उकस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि। ,, छदुमत्था ति ओघं । २७९ सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव २६७ मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजद खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति पहुडि जाव खीणकसायवीदराग ओघं। छदुमत्था त्ति ओघं । ४५१ २८० अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिहि२६८ केवलणाणीसु सजोगिकेवली पहुडि जाव खीणकसायवीदअजोगिकेवली ओघं। " रागछदुमत्था त्ति ओघं । ४५५ ३६९ संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्त " २८१ ओधिदसणी ओधिणाणिभंगो। , संजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि २८२ केवलदंसणी केवलणाणिभंगो। , ति ओघं । , २८३ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय२७. सामाइय च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंज णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव च्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, अणियट्टि त्ति ओघं । ४५२ णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। , २७१ परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अप्प- २८४ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमत्तसंजदा ओघं । , मुहुत्तं । २७२ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुह- २८५ उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त मसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ४५७ खवा ओघं। ,, २८६ सासणसम्मादिट्ठी ओघं। ४५८ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) सूत्र संख्या सूत्र २८७ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । २८८ असंजदसम्मादिट्ठी केव चिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । २८९ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । २९० उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोमाणि देणाणि । २९१ तेउलेस्सिय-पम्मले स्सिएस मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । २९२ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । २९३ उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । २९४ सास सम्मादिट्ठी ओघं । २९५ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । २९६ संजदासंजद - पमत्त - अप्पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । २९७ एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । २९८ उक्कस्समंतोमुहुत्तं । २९९ सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । ३०० एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । ३०? उक्कस्सेण एक्कत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ४५९ | ३०२ सासणसम्मादिट्ठी ओघं । | ३०३ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । | ३०४ असंजदसम्मादिट्ठी ओघं । " " ४६० | ३०६ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । | ३०७ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ४६२ ३०८ चदुण्हमुत्रसमा चदुहं खवगा सजोगिकेवली ओघं । "" ४६३ ४६५ | 77 ४६६ 19 ४७१ "" ४७२ 77 | ३०५ संजदासंजदा पमत्त अप्पमत्त संजदा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । ३०९ भवियाणुवादेण भवसिद्धिएस मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीचं पडुच्च सव्वद्धा । ३१० एगजीवं पडुच्च अगादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो | ३११ जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो तस्स इमो गिद्देसो | ३१२ जहणेण अंतोमुहुत्तं । ३१३ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियडुं देणं । | ३१४ सासणसम्मादिट्ठिप्प हुडि जाव अजोगिकेवलित्ति ओघं । | ३१५ अभवसिद्धया केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । | ३१६ एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो । पृष्ठ ४७२ ४७३ " " ४७४ ४७५ ४७६ 17 " ४७८ ४७९ " 860 " 27 Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालपरूवणासुत्ताणि (२५) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या ३१७ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी ३३० सणियाणुवादेण सणासुमिच्छा खइयसम्मादिट्ठीसु असंजद- दिट्ठी केवचिरं कालादो होति, सम्मादिटिप्पडि जाव अजोगि- ___णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। ४८५ केवलि त्ति ओघं । ४८१ ३३१ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतो३१८ वेदगसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मा मुहुत्तं । दिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा ३३२ उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं , त्ति ओघं। ३३३ सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव ३१९ उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजद खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति सम्मादिट्ठी संजदासजदा केव ओघं। चिरं कालादो होंति, णाणाजीवं। |३३४ असण्णी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। ४८६ पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ००१ ३३५ एगजी पडुच्च जहण्णेण खुद्दा ४८२ ३२० उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे भवग्गहणं । ज्जदिभागो। "३३६ उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्ज३२१ एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतो पोग्गलपरियढें । मुहुत्तं । ००२ ३३७ आहाराणुवादेण आहारएसु ३२२ उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो ३२३ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव उवसंत होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। , कसायवीदरागछदुमत्था त्ति केव ३३८ एगजीव पडुच्च जहणेण अंतोनिरं कालादो होंति, णाणाजीवं मुहुत्तं । ४८७ पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । ३३९. उक्कस्सेण अंगुलस्त असंखे३२४ उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । ४८४ जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ३२५ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग ओसप्पिणि-उस्सप्पिणी। समयं । ,, ३४० सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव ३२६ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । | सजोमिकेवलि त्ति ओघं । , ३२७ सासणसम्मादिट्ठी ओघं। , ३४१ अणाहारएसु कम्मइयकायजोगि३२८ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं । भंगो। ३२९ मिच्छादिट्ठी ओघं । ३४२ अजोगिकेवली ओघं । ४८८ पापी। " Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अवतरण-गाथा-सूची क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ट अन्यत्र कहां ४२ अस्थि अणंता जीवा ४७७ गो. जी. १९७ ३ छावद्धिं च सहस्सं णव- १५२ अभिधा. रा. १ अपगयणिवारणटुं २ चन्द्रशब्दे ४ आगासं सपदेसं तु ७ अभिधा. रा. २८ जह गेण्हइ परियह पुरि- ३३५ उदधृत. ९ णस्थि चिरं वा खिप्पं ३१७ पंचा. गा.२६. ३६ आवलिय अणागारे ३९१ कसायपाहडे ३ ण य परिणमइ सयं सो ३१५ गो. जी. ५७० अद्धाप. ३३ ण य मरइ व संजम-३४९ ७ इट्टसलागाखुत्तो चत्तारि २०१ २णामं ठवणा दवियं ति ३ स. त. १, ६. १० उच्छासानां सहस्राणि ३१८ २५ णिरआउआ जहण्णा ३३३ स. सि. १, २९ उप्पज्जंति वियंति य भावा ३३७ स.त. १,११. १०. गो. जी. टीका. ५६. ३१ उवसमसम्मत्तद्धा २४१ ३५ तिणि सथा छत्तीसा ३९० गो. जी. १२३. ३२ उवसमसम्मत्तद्धा जइ ३४२ ४१ दो दो य तिणि तेऊ ४७५ १९ एयक्खेत्तोगाढं सव्व. ३२७ गो क. १८५.१७ नन्दा भद्रा जया रिक्ता ३१९ ४० एक्कारस छ सत्त य ४१५ ११ निमेषाणां सहस्राणि ३१८ १४ एक्कारसयं तिसु हेटिमेस २३६ १८ पणुवीसं अनुराणं ७९ त्रि. सा. २४९. ३४ एकं तिय सत्त दस तह ३६१ १२ पण्णासं तु सहस्सा २३५ ४३ एयणिगोदसरीरे जीवा ४७८ गो. जी. १९६.२७ परियट्टिदाणि बहुसो ३३४ गो. जी. जी.प्र. २४ ओसप्पिणि-उस्सपिणी३३३स सि, २.१० ५६०(संस्कृतगो.जी.५६०. च्छाया) का ५ पल्लो सायर सूई पदरो य १० ति. प. १,९३. १ कालो त्ति य ववएसो ३१५ पचा. गा. २४. त्रि, सा.९२. पंचशिया य छजीव- ३१६ मूलाचा. ३९९ २ कालो परिणामभवो ३१५पंचा. गा. १०८ ११ वम्हे कपणे बम्होत्तरे य २३५ ३७ केवलदसण-णाणे कसा-३९१ कसायपाहुडे "अाप. ५ बाहिरसूईवग्गो अब्भं १९५ ति. प. ५,३६. ३ खेत्तं खलु आगास ७ त्रि. सा. ३१६. २१ गहणसमयम्हि जीवो ३३२ (अर्धसमता) १६ बीजे जोणीभूदे जीवो २५१ गो. जी. १९०. ३९ गुणजोगपरावत्ती वाघा-४११ १५ गेवजाणुवरिमया णव- २३६ |३८ माणद्धा कोधद्धा मायद्धा ३९.१ कसायपाहुडे अद्धाप. २ चंदाइच्च-गहेहिं चेवं १५१ ९ मुह-तलसमास-अद्धं २० ति.प.१,१६५ १३ छच्चेव सहस्साई सयार-२३६ जं.प.११,१०८ ५छप्पंचणवविहाणं अत्था-३१५ गो. जी. ५६०. १६ , Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायोक्तियां (२७) क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां १७ मुह-भूमिविसेसम्हि दु ५७ २३ सम्हि लोगखेत्ते ३३३ स.सि.२,१०. १ मुहसहिदमूलमद्धं १४६ गो. जी. ५६० १० मूलं मझेण गुणं २१ जं.प.११,११०. टीका. २६ सवासिं पगदीण अणु-३३४ ,, १३ रोहणो बलनामा च ३१८ १८ सव्वे वि पोग्गला खलु ३२६ , १२ रौद्रः श्वेतश्च मैत्रश्च ३१८ २२ , ३३३ , ७ लोगो अकट्टिमो खलु ११ त्रि. सा. ४. १४ सावित्रो धुर्यसंक्षश्च ३१९ ८ लोयस्स य विक्खंभो ११ जंबू, प. ११, १५ सिद्धार्थः सिद्धसेनश्च ,, १०७. २० सुहमट्ठिदिसंजुत्तं आस- ३३१ गो. जी. ५६०. ४ लोयायासपदेसे एकेके ३१५ गो. जी. ५८८." टीका. १० बत्तीसं सोहम्मे अट्ठा- २३५ | ६ सोलह सोलसहि गुणे १९९ ८ विक्खंभवग्गदसगुण- २०९त्रि सा. ९३. १२ संखो दुण बारह जोय- ३३ ११ वेदण-कसाय-बेउव्विय- २९. गो. जी. ६६७.३० संते वए ण णिट्टादि ३३८ १३ व्यासं तावत्कृत्वा वदन- ३५ ६ हेट्टा मज्झे उरिं वेत्ता- ११ जंवू. प. ११, ९ व्यासं षोडशगुणितं ४२ , २२१ ४ सत्त णव सुण्ण च य १९४ गाथा-खंड ७ सम्भावसहावाणं जीवा-३१७ पंचा. गा.२३. रूपेषु गुणमर्थेषु वर्गणं २०० ८ समओ णिमिसो कट्ठा ३१७ पंचा. गा.२५, रूपोनमादिसंगुण- १५९, १९९, २०१ १६ समयो रात्रिदिनयो- ३१९ व्यासार्धकृतित्रिकं १६९ ३ न्यायोक्तियां क्रम संख्या पृष्ट क्रम संख्या पृष्ठ १ अवयवेषु प्रवृत्ताः शब्दाः समुदायेष्वपि वर्तन्ते इति न्यायात् । २ खीरकुम्भस्स मधुकुम्भो व्य । ३ गिम्द्वकालरुक्खछाहीव ४ गौण-मुख्ययोर्मुख्य सम्प्रत्ययः इति न्यायात् । ४०३ २४ ५ जहा उद्देसोतहाणिद्देसो। १०,१४५, ३२३, ३४० ३७७, ४००. Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अप्पा बहुगसुत १. तसरासिमस्सिदृण वृत्तबंधप्पाबहुगसुत्तादो णज्जदे | ४ ग्रन्थोलेख २ करणाणिओगसुत १. ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्तविरुद्धं, तस्स तत्थ बिधिप्पाड - सेधाभावादो । ३ कालसुत्त १. सत्त दस चोद्दस सोलसारस य वीस बावीसा' एदीए गाहाए सह एदस्य सुत्तस्स किण्ण विरोहो होदि ? ण होदि विरोद्दो, भिण्णविसयत्तादो । तं जहा- वृत्तं सुत्तं बंधप्पडिबद्धं । कालसुत्तं पुण संतमवेक्खिय ट्टिट्ठदमिदि । ४ खुद्द बंधसुत्त १. कदजुम्मेहि पंचिदियतिरिक्ख-पज्जत्त जोणिणि जोदिसिय वैतरदेव अवहारकालेहि खुद्द बंधसुत्तसिद्धेहि अकदजुम्मजगपदरे भागे हिदे पदाओ रासीओ सछेदाओ होज्ज ? ण च एवं, जीवाणं छेदाभावा । २. खुद्द बंधम्म उववादपरिणय सासणाणमेक्का रद्द चोइस भागपोसण परूवयसुत्तादो चणव्वदे | ५ खेत्ताणिओगद्दार १. पदेसिं चेव खेत्ताणि ओगद्दारोघम्हि उत्तपरूवणाए तुल्ला | ६ गाहासुत (कसायपाहुड ) १. ' आवलिय अणागारे ... (३६-३८) इदि गाहा सुत्तादो ( कसायपाहुड) ७ जीवाण १. जीवट्टाणादिसु दव्वकालो ण वृत्तो त्ति तस्साभावो ण वोत्तुं सक्किज्जदे, पस्थ छदव्वपदुपायणे अधियाराभावा । ८ जीवसमास १ जीवसमासाए वि उत्तं- ' छप्पंचणवविहाणं..... १. ' एकं तिय सत्त दस " ९. णिरयाउबंधसुत्त .. इदि णिरयाउबंधसुत्तादो । पृष्ठ १३२ २८४ १८४ २०६ २४५ ३९१ ३१६ ३१५ ३६२ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथोल्लेख पृष्ठ १० तच्चत्थसुत्त (तत्त्वार्थसूत्र) १. तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि' वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' इदि दव्वकालो परूविदो । ११ तिलोयपण्णत्ती १. एसा तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाहियजंबूदीवछेदणयसहिददीवसायररूवमेत्त. रज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिओवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारिजोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयसुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाहणटमम्हहि परूविदा, प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भवलविजृम्भितगुणप्रतिपन्नप्रतिबद्धासंख्येयावलिकाबहार कालोपदेशवत् आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा। १५७ १२ दव्याणिओगद्दार १. किं च दवाणियोगद्दारवक्खाणम्हि वुत्तदेट्ठिम-उवरिमवियप्पा अभावमुवढुक्कते, अवग्गसमुट्ठिदलोगत्तादो। २. दव्वाणिओगद्दारे वि तत्थ एगगुणटाणवस्ल पमाणपरूवणादो च। १६२-६३ १३ परियम्म १. जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च रूवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुछेदणाणि त्ति परियम्मेण पदं वक्खाणं किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदि, किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झदि । तेणेदस्स वक्खाणस्स गहणं कायव्वं, ण परियम्मस्स; तस्ल सुत्तविरुद्धत्तादो । ण सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होदि, अइप्पसंगादो। २. रज्जू सत्तगुणिदा जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेढीए गुणिदजगपदरं घणलोगो होदि त्ति परियम्मसुत्तेण सव्वाइरियसम्मदेण विरोहप्पसंगादो। ३. के वि आइरिया कम्मट्टिदीदो बादरहिदी परियम्मे उप्पण्णा त्ति कज्जे कारणावयारमवलंबिय बादरहिदीए चेय कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छंति, तन्न घटते। ४०३ ४. कम्मटिदिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बावरट्टिदी जादा त्ति परियम्मवयणेण सह एवं सुत्तं विरुज्झदित्ति णेदस्स ओक्खत्तं, सुत्ताणुसारि परियम्मवयणं ण होदि प्ति तस्सेय ओक्खत्तप्पसंगा। १४ पंचत्थिपाहुड १. धुतं च पंचत्थिपाहुडे-'कालो त्ति य ववएत्तो' इत्यादि १.४ गाथा. ३१५ २. वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे घवहारकालस्स अस्थित्तं-सब्भावसहावाणं...... ७.९ गाथा. ३१७ १८४ ता ३९० Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) १५ वग्गणसुत्त १. अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबा हल्लतिरियपदरम्हि सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तओगाद्दणवियपेहि गुणिदे तत्थ जत्तिओ रासी तत्तियमेत्ताओ णिरयगद्दपाsrorysale पयडीओत्ति वग्गणसुत्तादो । २. महामच्छोगाद्दणम्हि एगबंधणबद्ध छज्जीवणिकायाणमत्थित्तं कथं णव्वदे ? वग्गणम्हि उत्तअप्पा बहुगाद। । १६ वेदणाखेत्तविधाण १. ' एगजीवस्त जहण्णोगाहणा वि अंगुलरूल असंखेज्जदिभागमेत्ता ' सि वेदात्तविधाणे परुविदत्तादो । २. पत्तेयसरीरपज्जत्तजद्दण्णो गाहणादो बीइंदियपज्जन्त जहण्णोगाहणा असंखेज्जगुणा त्ति कुदो णव्वदे ? वेदणाखेत्तविहाणम्हि वृत्तवोग हणदंडयादो । १७ संताणिओगद्दार १. जदि सासणा पइंदिपसु उप्पज्जंति, तो तत्थ दो गुणट्टाणाणि होंति । ण च एवं संताणिओगद्दारे तत्थ एक्कमिच्छादिट्टिगुणप्पदुष्पायणादो । २. एदं पि वक्खाणं संत दव्वसुत्तविरुद्धं ति ण घेत्तध्वं । ५ पारिभाषिक शब्दसूची शब्द अकर्मभाव अकृतयुग्मजगप्रतर अकृत्रिम अक्षयराशि अगृहीतग्रहणाद्धा अचित्तद्रव्यस्पर्शन अच्युतकल्प परिशिष्ट अ सूचना - यहां शब्दों के केवल उन्हीं पृष्ठों का उल्लेख किया गया है जहां उनके विषयमें कुछ विशेष कहा गया पाया जाता है । पृष्ठ १६५, शब्द अज्ञान ३२७ अणुव्रत १८५ अतिप्रसंग ११, ४७६ अतीतकालविशेषितक्षेत्र ३३९ अतीतानागतवर्तमान- कालविशिष्ट क्षेत्र ३२७, ३२९ १४३ अतीन्द्रिय १७०, २३६ अर्थ २६२, २०८ | अर्थपद पृष्ठ १७५-१७६ २१५ ९४ १५६ पृष्ठ ४७६ ३७८ २३, २०८ १४५ १४८ १५८ २०० १८७ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दसूची (३१) शब्द पृष्ठ २०१ २०० पृष्ठ शब्द ३१८ अपनयनधुवराशि ३७, १६९ अपनयनराशि २१४ अपर्याप्त ९, २५६ अपराजित १६ अपरीतसंसार ३२, ४१, ५० अपवर्तना ३३५, ३५७/ अपवर्तनाघात १८५, ३८,४१,४३,४७,१०३, १२६, १३० ४६३ ३९३, ३९८ ३३५, ३५७ अर्पित १७९ अपूर्वकरण ३२३,३८० अपूर्वकरणक्षपक ३५३ ३१८ ३२२ अद्धा अर्धतृतीयक्षेत्र अर्धतृतीयद्वीपसमुद्र अधोलोक अधोलोकक्षेत्रफल अधोलोकप्रमाण अधःप्रवृत्तकरण अधःप्रवृत्तविशोधि अधस्तनविकल्प अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त अनन्त अनन्तकाल अनन्तव्यपदेश अनन्तानुबन्धी अनर्पित अनवस्था अनवस्थाप्रसंग अनाकारोपयोग अनादि अनादिमिथ्यादृष्टि अनाहारक अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिक्षपक अनुकृष्टि अनुगम अनुत्तरविमान अनुदिशविमान अनुसंचिताद्धा अन्योन्याभ्यस्त अपकर्षण अपक्रमणोपक्रमण अपक्रमषटनियम ३३८ अपूर्वकरणगुणस्थान ३२८ अप्रशस्ततैजसशरीर ४७८ अभिजित् ३३६ अभिव्यक्तिजनन ३९३, ३९८ अभेद ३२० अमूर्त १६३ अयन ३९१ अयोगी ४३६ अर्यमन् ३३५ अरुण ४८७ अलोकाकाश ३३५, ३५७ अल्पबहुत्व ३३६ अवक्षिप्तप्रसंग ३५५ अवर्गसमुत्थितलोक ९, ३२२ अवगाहनलक्षण २३६, ३८६ अवगाहना ८१, २३६, २४०, ३८६ अवगाहनागुणकार ३७६ अवगाहनाविकल्प १५९, १९६, २०२ अवगाहमान ३३२ अवधिक्षेत्र २६५ अवबोध १७९ अवहारकाल १४४ १४४ ३१७, ३९५ ३३६ ३१८ ३१९ ९, २२ २५ ३९० १८५ २५,३०, ४५ ४४, ९८ १७६ २३ ३८, ७९ ३२२ १५७,१८५ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) परिशिष्ट १३ इन्द्र पृष्ठ शब्द अवसन्नासन्न २३ आयतचतुरस्रक्षेत्र अवसर्पिणी ३८९ आयतचतुरस्रलोकसंस्थान १५७ अविभागप्रतिच्छेद आयाम १३, १६५, १८१ अविसंवाद १५८ आरण १६५, १७०, २३६ अष्टमपृथिवी ९०, १६४ आवलिका अष्टाविंशतिसत्कर्मिक-३४९,३५९,३६२, ३६६, आवली ३१७, ३४०, ३९१ मिथ्यादृष्टि ३७०,३७१, ३७७,४३९ आवास ४४३, ४६१ आहारकसमुद्धात असद्धावस्थापनाकाल ३१४ आहारवर्गणा असंयम ४७७ आहारशरीर असंयमबहुलता २८ असंयतसम्यग्दृष्टि ३५८ असंख्येयराशि ३३८ इच्छाराशि ५७, ७१, १९९, ३४१ आ ३१९ आकाश ८, ३१९ इन्द्रक १७४, २३४ आकाशप्रदेश १७६ आगमद्रव्यकाल ३१४ ईशान २३५ आगमद्रव्यक्षेत्र ५ ईषत्प्राग्भारपृथिवी १६२ आगमद्रव्यस्पर्शन आगमभावकाल आगमभावक्षेत्र ७ उच्छ्रेणी आगमभावस्पर्शन १४४ उत्तानशय्या आज्ञाकनिष्ठता २८ उत्पत्तिक्षेत्र १७९ आदित्य १५० उत्पत्तिक्षेत्रसमानक्षेत्रान्तर आदेश १०, १४४, ३२२ उत्पाद ३३६ आदेशनिर्देश १४५, ३२२ उत्तरकुरु ३६५ आधार ८ उत्तराभिमुखकेवली ५० आधेय ८उत्सर्पिणी ३८९ आनुपूर्वीनामकर्म १३, २०, ५७, १८१ आनुपूर्वीप्रायोग्यक्षेत्र १९१ उत्सेधकृति आनुपूर्वीविपाकाप्रायोग्यक्षेत्र १७७ उत्सेधकृतिगुणित आवाधा ३२७ उत्सेधगुणकार २१० आयत ११, १७२ उत्सेधयोजन २ ३७८ ३० उत्सेध Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द उत्सेधांगुल उत्सेधांगुलप्रमाण उदयादिनिषेक उद्वर्तन उद्वेध उपक्रमणकाल उपक्रमणकालगुणकार उपपाद उपचार उपपादकाल उपपादक्षेत्र उपपाद क्षेत्र प्रमाण उपपादक्षेत्रायाम उपपादभवनसम्मुखवृत्तक्षेत्र उपपादयोग उपपादराशि उपपादस्पर्शन उपमालोक उपरिमउपरिमयैवेयक उपरिमविकल्प उपशमश्रेणी उपशमसम्यक्त्वगुण उपशमसम्यक्त्वाद्धा उपशान्तकाल उपशामक उपार्ध पुद्गल परिवर्तन उश्वास ऊ ऊर्ध्व कपाटच्छेदनकनिष्पन्न ऊर्ध्वलोक ऊर्ध्वलोक क्षेत्रफल ऊर्ध्वलोकप्रमाण ऊर्ध्ववृत्त ऋजुगति पारिभाषिक शब्दसूची पृष्ठ शब्द २४, १६०, १८५ ऋजुवलन ४० ऋतु 雅 ३२७ ३८३ एक क्षेत्रावगाढ १७ एकत्ववितर्कअवीचारशुक्लध्यान ७१, १२९ एकदंड ८५ २६, १६६, २०५ २०४, ३३९ ३२२ ऐरावत ८५ १६५ ४४, ३३९, ३४१, ३४२, ३७४, ४८३ | एकनारकावासविष्कम्भ ७९ / ओघ १७२ ओघनिर्देश ३३२ ओघप्ररूपणा ३१ औ १६५ औदारिकशरीर १८५ औपचारिकनो कर्मद्रव्यक्षेत्र ८० अं १८५ ३५१, ४४७ अंगुल ४४ अंगुलगणना ३५३ कथन ३५२, ४४६ कपाटगत केवली ३३६ कपाटसमुद्धात ३९१ करण करणगाथा १७६ कर्ण ९, २५६ कर्णक्षेत्र १६ कर्णाकार ३२, ४९, ५१ कर्म १७२ कर्मद्रव्य क्षेत्र | कर्मबन्ध ए २६, २९, ८० कर्मभूमि क (३३) पृष्ठ १८० ३१७, ३९५ ३२७ ३९१ २२६ १८०. ४५ ९, १४४, ३२२ १४५, ३२२ २५९ २४ ७ ५७ ४० १४४, ३२२ ४९ २८, ४३६ ३३५ २०३ १४ १५ ७८ २३ ६ ४७६ १४, १६९ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ कर्मभूमिप्रतिभाग कर्मपुद्गल कर्मपुद्गलपरिवर्तन कर्मानव कर्मस्थिति कर्मस्थितिकाल कल्प कल्पवासिदेव कषाय कषायसमुद्धात कापिष्ठ कार्मणवर्गणा कार्मणशरीर काययोग कायस्थितिकाल कायोत्सर्ग काल कालपरिवर्तन कालपरिवर्तनकाल कालपरिवर्तनवार कालसंसार कालस्पर्शन कालाणु कालानुगम कालोदकसमुद्र काष्ठा कुलशैल कृतयुग्म २१४ क्रोधाद्धा ३९१ ३३२ कांडक ४३५ ३२२, ३२५ कांड गति ७८,२१९ ४७७/कुंडलपर्वत १९३ ३९०, ४०२, ४०७ क्षण ३१७ ३२२ क्षपक ३५४,४४७ ३२० क्षपकश्रेणी ३३५, ४४७ २३८ क्षपकश्रेणीप्रायोग्यविशोधि ३४७ क्षायिकसम्यग्दृष्टि ३५७ १६६ क्षीणकषाय ३३६, ३५६ २३५ क्षुद्रभव ३९० क्षुद्रभवग्रहण ३७१,३७९,३८८,३९१, ४०१, ४०६ ३९१ क्षेत्र ६, २३१ क्षेत्रपरिवर्तन ३२५ क्षेत्रपरिवर्तनकाल ३३४ ३१८, ३२१ क्षेत्रपरिवर्तनवार क्षेत्रफल क्षेत्रफलशलाका ३३४ क्षेत्रफलसंकलना २०० ३३२ २४, १६५ السلم السلع ३३३ क्षेत्रसंसार १४१ क्षेत्रस्पर्शन ३१५ क्षेत्रानुगम १४१ ३१३, ३२२ १५०, १९४, १९५ ३१७ खातफल १९३, २१८ १२, १८१, १८६ कृति १५३, २०१ कृष्टीकरण कृष्णादिमिथ्यात्वकाल केवलज्ञान केवलदर्शन केवलिसमुद्धात कोटाकोटी कोटी क्रोधकषायाद्धा २३२ गगन ३९१ गच्छ ३२४ गच्छराशि ३९१ गच्छसमीकरण ३९१ गणित २८ गोपक्रान्त १५२ गुण १४ गुणकार ४४४ गुणकारशलाका १५३ ३५, २०९ २०० Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द गुणकारशला का संकलना गुणपरावृत्ति गुणस्थितिकाल गुणान्तरसंक्रमण गुद्यकाचरित गृहीतग्रहणाद्धा गृहीतग्रहणाद्धाशलाका गोमूत्रकगति गोहिक्षेत्र - गौणभाव ग्रह ग्रैवेयक घनफल घनरज्जु घनलोक लोकप्रमाण घनांगुल घनांगुल गुणकार गुणप्रमाण घनांगुलभागहार घातक्षुद्रभवग्रहण घ्राणेन्द्रिय चतुरस्र चन्द्र चक्षुरिन्द्रिय चतुर्थ पृथिवी चतुर्थसमुद्रक्षेत्र 'चतुर्दशगुणस्थाननिबद्ध चन्द्रबिम्बशलाका चित्रा चित्रापरिमतल घ पारिभाषिक शब्दसूची पृष्ठ २०१ ४०९, ४७०, ४७१ छिन्नायुष्ककाल ३२२ ३२५ ८ शब्द जगप्रतर ३२८ ३२९ जगश्रेणी २९ जघन्यावगाहना ३४ जम्बूद्वीप १४५ जम्बूद्वीपक्षेत्र १५१ जम्बूद्वीपच्छेदनक २३६ जम्बूद्वीपशलाका जयन्त जया २० जाति १४६ जिह्वेन्द्रिय १८, १८४, २५६ जीवसमास ५० ज्योतिष्कजीवराशि १०, ४३, ४४, ४५, १७८ ज्योतिष्कस्वस्थानक्षेत्र 33 ९८ ३३ ज्योतिष्कसासादनसम्यग्दृष्टि ३९२ ३९१ झल्लरीसंस्थान छ १७८ | तारा १५०, ३१९ तालप्रमाण ज १८, ५२, १५०, १५१, १५५, १६९, १८०, १८४, १९९, २०९, २०२, २३३ १०, १८, १८४ २२, ३३ १५० १९४ १५५ १९६ ३८६ ३१९ स्वस्थानक्षेत्र झ ३९१ तद्भवसामान्य ८९ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य १५९ तालवृक्षसंस्थान २१७ तिथि २३९ | तिर्यक्क्षेत्र १९८ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यस्पर्शन १४८ तलबाद्दल्य 3 (३५) पृष्ठ १६३ १६३ ३९१ ३१ १५५ १६० १५० ११, २१ ३ ३१५ ૨૪૨ १३ १५१ ४० ११, २१ ३१९ ३६ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) शब्द तिर्यक्लोक तिर्यक्लोकप्रमाण तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी तिर्यम्प्रतर तिर्यग्स्वस्थान स्वस्थानक्षेत्र तिर्यच तृतीय पृथिवी तृतीय पृथिवी अधस्तनतल तैजसशरीर तैजसशरीरसमुद्धात तोरण त्र्यंश त्रिकोणक्षेत्र त्रिसमयाधिकावली त्रैराशिकक्रम दर्शन मोहनीय दात्रक दान्त दिवस दिशा द्वितीयदंडस्थित द्वितीय पृथिवी द्विसमयाधिकावली दुक्खम्भदुबाहुक्षेत्रफल दृष्टान्त देवकुरु देवक्षेत्र देवता देवपथ देशामर्शक देशोनलोक दैत्य दंड परिशिष्ट पृष्ठ शब्द ३७, १६९, १८३ | दंडक्षेत्र ४१, १५० दंडगत केवली १७६ | दंडसमुद्धात २११ द्रव्य १९४, २०४ द्रव्यकाल २२० | द्रव्यक्षेत्र ८९ द्रव्यत्व २२५ द्रव्यपरिवर्तन २४ द्रव्यलिंग २७ | द्रव्यलिंगी १६५ द्रव्यस्पर्शन १७८ द्रव्यार्थिक १३ द्रव्यार्थिकनय ३३२ ४८ | द्रव्यार्थिकप्ररूपणा ३३५ / धन ३१९ | धनुष २१ ३१७, ३९५ धरणीतल धर्म धातकी खंड २२६ धुर्य ७२ ८९ ३३२ २१८ नक्षत्र २२ नन्दा ३६५ नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ३६ | नवग्रैवेयकविमान ध्रुवत्व ३१९ नामकाल ८ नामक्षेत्र ५७ नामस्पर्शन ५६ नारक ३१८ नारकसर्वावास ३० नारकावास ध पृष्ठ न ४८ "" २८ ३३१, ३३७ ३१३ ३ ३३६ ३२५ २०८ ४२७, ४२८. १४१ 35 ३, १४५, १७०, ३२२, ३३७, ४४४ २५९ १५९. ४५, ५७ २३६ ३१९. १५०, १९५ ३२९ १४१ १५१ ३१९ १७५, १९१ ३८५ ३१३. ३ १४१ ५७ १७९. १७७ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द नाली निक्षेप निगोदजीव निगोदशरीर निचितक्रम निमिष निर्देश निःसूचीक्षेत्र निस्सरणात्मकतैजसशरीर नैऋत नोआगमद्रव्यकाल नोआगमद्रव्यस्पर्शन नोआगमभावकाल नोआगमभावक्षेत्र नोआगमभावस्पर्शन नोकर्मद्रव्य नोकर्मपर्याय नोकर्मपुद्गल नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन पारिभाषिक शब्दसूची (३७) पृष्ठ शब्द पृष्ठ ३१८/पर्यायार्थिकप्ररूपणा १४९, १७२, १८६, २, १४१ २०७, २५९ ४०६ पर्व ३१७ ४७८ पल्य ७६ पल्योपम ९,७७, १८५, ३१७, ३१७ ३४०, ३७९ ९, १४४, ३२२ पल्योपमशतपृथक्त्व ४३७ १२/पल्यंकासन २७ पश्चात्कृतमिथ्यात्व ३४९ ३१८ पाणिमुक्तागति २९ ३१४ पारमार्थिकनोकर्मद्रव्यक्षेत्र १४२ पिंड १४४ ३१६ पुद्गलपरिवर्तन ३६४,३८८,४०६ ७ पुद्गलपरिवर्तनकाल ३२७,३३४ १४४ पुद्गलपरिवर्तनवार ३३४ ६ पुद्गलपरिवर्तनसंसार ३३३ ३२७ पुष्करद्वीप ३३२ पुष्करद्वीपार्थ ३२५ पुष्करसमुद्र पुष्पदन्त ३१९ प्रवे ३१७, ३९५ पूर्वकोटी २३४ पथिवी पक्ष पन्नग परप्रत्यय परमाणु परमार्थकाल परिधि परिधिविष्कम्भ परिमंडलाकार पर्यन्त पर्याप्त पर्याप्ति पर्याय पर्यायनय पर्यायार्थिकजन पर्यायार्थिकनय ३४७,३५०,३५६,३६६, पृथक्त्व ३६८,३७३, ४००, ४०८ पूर्वाभिमुखकेवली ३६० २३ पृथक्त्ववितर्कवीचार३२० शुक्लध्यान १२,४३,४५, २०९, २२२ पंकबहुलपृथिवी २३२ ३४ पंचद्रव्याधारलोक १८५ १७८ पंचमपृथिवी १९ पंचांश ८६, ३६२ पंचेन्द्रियतिर्यग्गति३६२ प्रायोग्यानुपूर्वी १९१ ३३७/प्रकाशन ३२२ प्रकीर्णक १७४, २३४ १४९ प्रकृतिविकल्प १७६ ३, १४५, १७०, ३२२, प्रतरगतकेवली ४४४ प्रतरगतकेवलिक्षेत्र Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट शब्द २३५ प्रतरसमुद्धात प्रतराकार प्रतरावली प्रतरांगुल पृष्ठ शब्द २९, ४३६ ब्रह्मोत्तर २०४ ३८९ १०, ४३,४४, १५१. भद्रा ३१९ १६०, १७२/भरत १६४ १६२ ३३४ . hu hoidudukitmake a lie प्रतरांगुलभागहार प्रतिभाग प्रत्यक्ष प्रथमपृथिवी प्रथमपृथिवीस्वस्थानक्षेत्र प्रत्यवस्थान प्रत्यासत्ति प्रत्यासन्नविपाकानुपूर्वीफल प्रधानभाव प्रभापटल प्रमत्ताप्रमत्तपरावर्तसहस्त्र प्रमाण प्रमाणघनांगुल प्रमाणलोक प्रमाणराशि प्रमाणवाक्य प्रमाणांगुल प्रमेयत्व प्रवेध प्रशस्ततैजसशरीर प्रस्तार भवनवासिउपपादक्षेत्र ८२/भवनवासिक्षेत्र ३३९ भवनवासिजगप्रणधि ८८ भवनवासिजगमूल १८२ भवनवासिप्रायोग्यानुपूर्वी , भवनवासी ३७७ भवनविमान १७५ भवपरिवर्तन १४५ भवपरिवर्तनकाल ८० भवपरिवर्तनवार ३४७ भवस्थिति ३९६ भवस्थितिकाल भव्यत्व भव्यद्रव्यस्पर्शन भव्यनोआगमद्रव्यकाल ३३३, ३९८ ३२२,३९९ ४८० १४२ ३१४ ३३९ ७१, ३४१ मा ४८, १६०, २४ भव्यराशि WM wr फलराशि भागहार भानु भार्ग्य भावकाल भावक्षेत्र भावक्षेत्रागम ५७, ७१, ३४१ भावपरिवर्तन भावपरिवर्तनकाल २७. भावपरिवर्तनवार ३८३ भावसंसार २५१ भावस्थितिकाल ३१८ ६ बल बद्धायुष्कघात बद्धायुष्कमनुष्यसम्यग्दृष्टि बादरनिगोदप्रतिष्ठित बादरस्थिति बाहल्य बाह्यपंक्ति बंधावली ब्रह्म ३९०, ४० भावस्पर्शन १२, ३५, १७२ भुज ३२२ १४१ १४ २३२ ३३२ भूमि २३५ भेद १४४ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दसूची (३९) पृष्ठ १७५,२३० ४८ ३१७,३९० १४६ मेरु १७१ मेरुपर्वत ११, १२ १९३ २०४ २१८ २०५ ३१८ ८३ ० शब्द पृष्ठ शब्द भेदप्ररूपणा २५९ मिश्रद्रव्यस्पर्शन भोगभूमि २०९ मुक्तमारणान्तिक भोगभूमिप्रतिभाग १६८ मुक्तमारणान्तिकराशि भोगभूमिप्रतिभागद्वीप २११ मुख भोगभूमिसंस्थानसंस्थित १८९ मुखप्रतरांगुल भंग ३३६,४११ मुखविस्तार भंगप्ररूपणा ४७५ मुहूते भ्रमरक्षेत्र ३३ मूल मूलाग्रसमास मध्यमक्षेत्रफल १३ मृदंगक्षेत्र मध्यमगुणकार ४१ मृदंगमुखरुंदप्रमाण मध्यमप्रतिपत्ति ३४० मृदंगसंस्थान मध्यमविस्तार मृदंगाकार मध्यलोक मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी २७ मेरुतल मनुष्यलोकप्रमाण मनोयोग मेरुमूल मरण महामत्स्यक्षेत्र महामत्स्यक्षेत्रस्थान महाशुक्र २३५ यम मागधप्रस्थ ३२० यादृच्छिकप्रसंग मानाद्धा ३९१ युग मानुषक्षेत्र १७० योग मानुषक्षेत्रव्यपदेशान्यथानुपपत्ति १७१ योगनिरोध मानुषोत्तरपर्वत १९३ योगपरावृत्ति मानुषोत्तरशैल मायाद्धा मारणान्तिककाल ४३ रज्जु मारणान्तिकक्षेत्रायाम ६६ रज्जुच्छेदनक मारणान्तिकराशि ८५ रज्जुप्रतर मारणान्तिकसमुद्धात २६, १६६ रत्नि मास ३१७,३९५ राक्षस माहेन्द्र २३५ रिक्ता मिथ्यात्व ३३६, ३५८, ४७७ रुचकपर्वत मिथ्यात्वादिकारण २४ रूप मिश्रग्रहणाद्धा २२९, ३२८ रूपप्रक्षेप or ~ मैत्र ४०२.४७०,४७मंदरमल ह ३१७ ४७७ ३५६ ४०९ १५०, २१६ योग्य ११, १३, १६५, १६७ १५०, १६४ २३२ ३१९ १९३ २०० १५० Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) परिशिष्ट ३ ४५ schon lukita hanke weilandia ३९० शब्द पृष्ठ शब्द रूपोनावलिका ४३ विक्षोभ ३१९ रोहण ३१८ विगूर्वणादिऋद्धिप्राप्त १७० रौद्र विगूर्वमानएकेन्द्रियराशि विग्रह ६४, १७५ विग्रहगति २६, ३०,४३, ८० लब्धिसम्पन्नमुनिवरं विग्रहगतिनामकर्म ४३४ लयसत्तम विजय ३१८, ३८६ विदिशा २२६ लवणसमुद्र १५०, १९४ विदेह लघणसमुद्रक्षेत्रफल १९५, १९८ विदेहसंयतराशि लान्तव विनाश लांगलिकगति विन्यासक्रम ७६ लेश्यापरावृत्ति ४७०, ४७१ विमान लोक ९,१० विमानतल १६५ लोकनाली २०, ८३, १४८, १६४ विमानशिखर २२७ १७०, १९१ विरलन २०१ लोकपूरणसमुद्धात २९, ४३६ विरह लोकप्रतर १० विशेष १४५ लोकप्रमाण १४६, १४७ विष्कम्भ ११, ४५, १४७ लोकाकाश ९ विष्कम्भचतुर्भाग लोकालोकविभाग २२ विष्कम्भवर्गगुणितरज्जु लोभाद्धा ३९१ विष्कम्भवर्गदशगुणकरणी विष्कम्भसूचीगुणितश्रेणी धर्ग २०, १४६/विष्कम्भाधं वर्गण विसंयोजन वर्गमूल २०२ विस्तार १६५ वचनयोग विस्नसोपचय वर्तमानविशिष्टक्षेत्र १४५ विहायोगतिनामकर्म वधेनकुमारमिथ्यात्वकाल ३२४ विहारवत्स्वस्थान २६, ३२, १६६ वर्धितराशि १५४ वृत्त २०९ वर्ष ३२० वृद्धि १९, २८ वर्षपृथक्त्व ३४८ वेत्रासन ११, २१ वर्षसहस्त्र ४१८ वेत्रासनसंस्थित २० घाच्यवाचकशक्ति २ वेदनासमुद्धात २६, ७९, ८७, १८६ वातवलय ५१ वेदान्तरसंक्रान्ति ३६९, ३७३ वायु ३१९ वेध बारुण ३१८ वेलंधर २३२ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द वैक्रियिकसमुद्धात वैजयन्त वैरोचन वैश्वदेव व्यन्तरदेव व्यन्तरदेव राशि व्यन्तरदेवसासादन सम्यदृष्टि स्वस्थानक्षेत्र व्यन्तरावास व्यभिचार व्यवहारकाल व्याख्यान व्याघात व्यापक व्यास व्यंजन पर्याय शत शतसहस्र शतार शलाका शलाका संकलना शशिपरिवार शालभंजिका शुक्र शंखक्षेत्र श्रेणी श्रेणीबद्ध श्वेत श्रोत्रेन्द्रिय षडंश तापक्रमनियम षष्ठपृथिवी सचित्तद्रव्यस्पर्शन श पारिभाषिक शब्दसूची स पृष्ठ २६, १६६ | सत्त्व ३१९, ३८६ सदुक्खभ दुबाह ३१८ सद्भावस्थापनाकाल शब्द | सप्तमपृथिवी 39 १६१ | सप्तमपृथिवीनारक 93 ७९, १४४, १६५, ३३१ 39 समय १६१, २३१ |समानजातीय ४६, ३२० समीकरण ३१७ समीकृत समचतुरस्र | समपरिमंडल संस्थित समुद्धात ८ ४०९ समुद्धात केवलिजीवप्रदेश समुद्राभ्यन्तरप्रथमपंक्ति २२१ सम्प्रदायविरोधाशंका ३३७ सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व २३५ सम्यग्मिथ्यादृष्टि सयोगिकाल २३६ सयोगी 39 ४३९, ४८४ सर्वलोकप्रमाण २०० | सर्वाकाश १५२ सर्वार्थसिद्धि १६५ सर्वार्थसिद्धिविमान २६५ | सर्वाद्धा १७८ २१८, २२६ ९० ३५ /सहस्र ७६, ८० सहस्रार १७४, २३४ सहानवस्थानलक्षणविरोध ३६८ | सागर ३९१ | सागरोपम | सागरोपमशतपृथक्त्व सान्तरोपक्रमणवार साहशसामान्य साध्य साधन १४३ | सानत्कुमार (४१) पृष्ठ १४४ १८७ ३१४ ९० १६३ ८३ १७२ ३१७, ३१८ १६३ १७८ ५१ २६ ४५ १५१ १५८ ३५८ 99 33 ३५७ ३३६ ४२ १८ २४०, ३८७ ८१ ३६३ २३५ २३६ २५९, ४१२ १०, १८५ १०, १८५, ३१७, ३६०, ३८०, ३८७ ४००, ४४१, ४८५ ૨૪૦ ३ ३९६ " २३५ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) परिशिष्ट ३० १७६ २३४ १६२ ३१३ १४१ ३३६ २३२, १४४,१४१ १४४ ३९१ शब्द पृष्ठ शब्द साम्परायिक ३९१ संस्थाननामकर्म सारभट ३१८ संस्थानविपाकी सावित्र ३१९ स्वकप्रत्यय सासादनकाल ३५१ स्तूपतल सासादनमारणान्तिकक्षेत्रायाम १६२ स्थापना सासादनसम्यक्त्वपृष्ठायत ३२५ स्थापनाकाल सिद्ध ४७७, ३३६ स्थापनाक्षेत्र सिद्धसेन ३१९ स्थापनास्पर्शन सिद्धार्थ स्थिति सुगन्धर्व " বহন सूक्ष्मक्षपक ३३६ स्पर्शनानुगम सूचीक्षेत्रफल १६ स्पर्शनेन्द्रिय सूच्यंगुल १०, २०३, २१२ स्वयंप्रभपर्वत सूर्पक्षेत्र १३ स्वयंप्रभपर्वतपरभाग सूर्य ३१९, १५० स्वयंप्रभपर्वतपरभागक्षेत्र सौधर्म २३५ स्वयंप्रभपर्वतोपरिमभाग सौधर्मविमानशिखरध्वजदंड २२९ स्वयंभूरमणसमुद्र स्वयंभूरमणक्षेत्रफल सौधर्मादि १६२ स्वयंभूरमणसमुद्रविष्कम्भ संकलन १४४, स्वस्थान संकलना स्वस्थानक्षेत्रमेलापनविधान संख्येयराशि स्वस्थानस्वस्थान संयतराशि स्वस्थानस्वस्थानराशि संयतासंयतउत्सेध संयतासंयतस्वस्थानक्षेत्र संयम ३४३ हस्त संयमासंयम ३४३, ३५० हानि संयोग संवत्सर ३१७, ३९५ हेतुवाद संवर्ग १७ हेमपाषाण २२४ २०९ १९४, १५१ १६८ २६, ९२, १२१ १६७ १४४ हुताशन ३१९ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन हेत्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रंथमालाओंमें प्रो. हीरालाल जैन द्वारा आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रंथ प्रत्येक ग्रंथ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण व अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। १पखंडागम-(धवलसिद्धान्त ) हिन्दी अनुवाद सहित भाग 1, सत्प्ररूपणा, पुस्तकाकार 10), शास्त्राकार ( अप्राप्य ) भाग 2, सत्प्ररूपणालाप, , 10), , 12 भाग 3, द्रव्यप्रमाणानुगम, 10) , 12) भाग 4, क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगम, 10), 12J यह भगवान् महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा संबन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ है। श्रुतपंचमीकी पूजा इसी ग्रंथकी रचनाके उपलक्ष्यमें प्रचलित हुई। 2 यशोधरचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... इसमें यशोधर महाराजका अत्यंत रोचक वर्णन सुन्दर कान्यके रूपमें किया गया है। इसका सम्पादन डा. पी. एल. वैद्य द्वारा हुआ है। 3 नागकुमारचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... .. इसमें नागकुमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रुतपंचमी विधानकी महिमा बतलाई गई है / यह काव्य अत्यंत उत्कृष्ट और रोचक है। करकंडुचरित-मुनि कनकामरकृत अपभ्रंश काव्य... ... ....... ... ) इसमें करकंडु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिनपूजाका माहात्म्य प्रगट होता है / इससे धाराशिवकी जैन-गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राज वंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। ५भावकधर्मदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... ... // इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलोंका बड़ा ही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छंदमें हुई है। प्रत्येक दोहा काव्यकला-पूर्ण और मनन करने योग्य है। पाइडदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... ... ... 2 // इसमें दोहा छंदोद्वारा अध्यात्मरसकी अनुपम गंगा बहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य। ETIODB