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________________ खेत्तागमे पुढविकाइया दिखेत्तपरूवणं [ ९१ १, ३, २२. ] रुंदा अट्ठजोयणबाहल्ला सत्तमभागाहिय एकजोयणबाहल्लं जगपदरं होदि । एदाणि सव्वाणि एगट्ठे कदे तिरियलोग बाहल्लादो संखेज्जगुणबा हल्लं जगपदरं होदि । एत्थ असंखेजा लोगमेत्ता पुढविकाइया चिट्ठति, तेण तिरियलोगादो संखेज्जगुणो त्ति सिद्धं । एदेहि देहि लोगस्स असंखेज्जदिभागे चिट्ठता बादरपुढविकाइया सुत्त्रेण सव्वलेोगे चिट्ठति त्ति वुत्ता, तं कथं घडदे ? ण, मारणंतिय उववादपदे पडुच्च तथोवदेसादो | मारणंतिय उववादगदा सन्चलोगे । एवं बादरआउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च । पुढवीसु सव्वत्थ ण जलमुवलं ७ ४३ ४३ ८००० ३४४००० x = X १ १ १ = ; ३४४००० १ ÷ योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. आठवीं पृथिवी सात राजु लम्बी, एक राजु चौड़ी और आठ घनफलकी अपेक्षा एक योजनके सात भाग करनेपर उनमें से सातवां अधिक एक योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । ४९ १ Jain Education International ३४४००० ४९ उदाहरण -- आठवीं पृथिवी उत्तर से दक्षिण तक सात राजु: पूर्व से पश्चिम तक एक राजु और आठ योजन मोटी है । योजन मोटी है । यह भाग अर्थात् एक भाग १ × ७ = ७; ८ ÷ ७ = योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण. इन सबको एकत्रित करनेपर तिर्यग्लोकके बाहल्यसे संख्यातगुणे बाहल्यरूप जगप्रतर होता है । इन पृथिवियों में असंख्यात लोकप्रमाण पृथिवीकायिक जीव रहते हैं, इसलिये वे तिर्यग्लोक से संख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, यह सिद्ध हुआ । विशेषार्थ – तिर्यग्लोकका प्रमाण घनफलकी अपेक्षा १४२८५७ योजन बाहल्यरूप जगप्रतर है और आठों पृथिवियों का घनफल ६२३४३६४ योजन बाहल्यरूप जगप्रतर है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि तिर्यग्लोक के प्रमाणसे आठों पृथिवियोंका क्षेत्र संख्यातगुणा है । बादर पृथिवीकायिक जीव इन आठों पृथिवियों में सर्वत्र पाये जाते हैं, इसलिये वे तिर्यग्लोकले संख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, यह सिद्ध हो जाता है । For Private & Personal Use Only शंका - उपर्युक्त स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात, इन पदोंकी अपेक्षा बादर पृथिवीकायिक जीव जब कि लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, तो वे ' सर्व लोक में रहते हैं' ऐसा जो सूत्रद्वारा कहा गया है वह कैसे घटित होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादकी अपेक्षा ' पृथिवीकायिक जीव सर्व लोक में रहते हैं, ' इसप्रकारका उपदेश दिया गया है । बादर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए बादर पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं । इसीप्रकार बादर अष्कायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों का भी कथन करना चाहिये । अर्थात् पृथिवीकायिक और अपर्याप्त पृथिवी www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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