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________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार इसका उत्तर है कि दोनों नयोंवाले नहीं है, क्योंकि, उक्त दो नयों में है । पुनः पू. ११५ पर कहा है जीवोंके उपकारके लिये । तीसरे प्रकारका कोई निर्देश ही : स्थित जीवोंके अतिरिक्त तीसरे प्रकारके श्रोता होना असंभव एदेण दष्वपज्जघट्ठियणयपज्जायपरिणदजीवाणुग्गहकारिणो जिणा इदि जाणाविदं । अर्थात्, अमुक प्रकार कथनसे यह ज्ञात कराया गया है कि जिन भगवान् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नयवर्ती जीवोंका अनुग्रह करनेवाले होते हैं । पू. १२० पर कहा है- " 'किमङ्कं एदेसु तीसु सुत्तेसु पज्जयणयदेसणा' बहूणं जीवाणमणुग्गहङ्कं । संगहरुद्दजीवोहितो बहूणं वित्थररुइजीवाणमुवलंभादो । अर्थात्, इन तीन सूत्रोंमें पर्यायार्थिकनयसे क्यों उपदेश दिया गया है ? इसका उत्तर है कि जिससे अधिक जीवोंका अनुग्रह हो सके । संक्षेपरुचिवाले जीवोंसे विस्ताररुचिवाले जीव बहुत पाये जाते हैं । पृ. २४६ पर पाया जाता है उत्तमेव किमिदि पुणो वि उच्चदे फलाभावा ? ण, मंदबुद्धिभवियजणसंभालणदुवारेण फलोवलं भादो । अर्थात्, एक बार कही हुई बात यहां पुनः क्यों दुहराई जा रही है, इसका तो कोई फल नहीं है ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं- नहीं, मंदबुद्धि भव्यजनोंके संभालद्वारा उसका फल पाया जाता है । ये थोड़े से अवतरण धवल सिद्धान्तके प्रकाशित अंशोंमेंसें दिये गये हैं । समस्त धवल और जयधवलमेंसे दो चार नहीं, सैकडों अवतरण इस प्रकारके दिये जा सकते हैं जहां स्वयं धवलाके रचयिता वीरसेनस्वामीने यह स्पष्टतः विना किसी भ्रान्तिके प्रकट किया है कि यह सूत्र -रचना और उनकी टीका प्राणिमात्रके उपयोगके लिये, समस्त भव्यजनोंके हित के लिये, मन्द से मन्द बुद्धिवाले और महामेधावी शिष्योंके समाधानके लिये हुई है, और उनमें जो पुनरुक्ति व विस्तार पाया जाता है वह इसी उदार ध्येयकी पूर्ति के लिये है । स्वयं धवलाकार के ऐसे सुस्पष्ट आदेशके प्रकाशमें इन्द्रनन्दि आदि लेखकोंका आर्यिकाओं, गृहस्थों और अल्पमेधावी शिष्यों को सिद्धान्तपुस्तकों के न पढ़नेका आदेश आर्ष या आगमोक्त है, या अन्यथा, यह पाठक स्वयं विचार कर देख सकते हैं । Jain Education International अब हमारे सन्मुख रह जाता है पंडितप्रवर आशाधरजीका वाक्य, जो विक्रमकी १३ हवीं शताब्दिका है । उनका वह निषेधात्मक श्लोक सागारधर्मामृतके सप्तम अध्यायका ५० वां पद्म है । इससे पूर्व के ४९ वें श्लोक में ऐलककी स्वपाणिपात्रादि क्रियाओं का विधानात्मक उल्लेख है । तथा आगे के ५१ वे श्लोक में श्रावकोंको दान, शील, उपवासादिका विधानात्मक उपदेश दिया गया हैं । इन दोनों के बीच केवल वही एक श्लोक निषेधात्मक दिया गया है । सौभाग्यसे आशाधरजीने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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