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( ८ ).
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
समानता है, इसकी इसके साथ नहीं । अतः फिरसे इसका कथन करना निष्फल है । इस प्रश्नका आचार्य समाधान करते हैं कि
' न, तस्य दुर्मेधसामपि स्पष्टीकरणार्थत्वात् । प्रतिपाद्यस्य बुभुत्सितार्थविषयनिर्णयेोत्पादनं वक्तृवचसः फलम् इति न्यायात् ।
अर्थात्, पूर्वोक्त शंका ठीक नहीं, क्योंकि, दुर्मेध लोगोंको उसका भाव स्पष्ट हो जाने, य उसका प्रयोजन है । न्याय यही कहता है कि जिज्ञासित अर्थका निर्णय करा देना ही वक्ता के वचनोंका फल है ।
इसी प्रकार पृ. २७५ पर कहा है कि
— अनवगतस्य विस्मृतस्य वा शिष्यस्य प्रश्नवशादस्य सूत्रस्यावतारात् ' अर्थात् उसे जिस बातका अभी तक ज्ञान नहीं है, अथवा होकर विस्मृत हो गया है, ऐसे शिष्य के प्रश्न वश इस सूत्रका अवतार हुआ है । पृ. ३२२ पर कहा है ' द्रव्यार्थिकनयात् सत्त्वानुग्रहार्थं तत्प्रवृत्तेः । ... बुद्धीनां वैचित्र्यात् । ... अस्यार्षस्य त्रिकाल गोचरानन्तप्राण्यपेक्षया प्रवृत्तत्वात् ।
अर्थात् उक्त निरूपण द्रव्यार्थिक नयानुसार समस्त प्राणियों के अनुग्रह के लिये प्रवृत्त हुआ है । भिन्न भिन्न मनुष्योंकी भिन्न भिन्न प्रकारकी बुद्धि होती है । और इस आर्ष-प्रथकी प्रवृत्ति तो त्रिकालवर्ती अनन्त प्राणियों की अपेक्षासे ही हुई है । पृ. ३२३ पर कहा है कि ' जातारेकस्य
भव्यस्यारेकानिरसनार्थमाह '
अर्थात्, अमुक बात किसी भी भव्य जीवकी शंका के निवारणार्थ कही गई है । पू. ३७० पर कहा है-
निशितबुद्धिजनानुग्रहार्थं द्रव्यार्थिकनया देशना, मन्दधियामनुग्रहार्थं पर्यायार्थिकनय | देशना । अर्थात्, तीक्ष्ण बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये द्रव्यार्थिकनयका उपदेश दिया गया है, और मन्द बुद्धिबालोंके लिये पर्यायार्थिकनयका । तृतीय भाग पृ. २७७ पर कहा है
पुनरुत्तदोसो वि जिणत्रयणे संभवइ, मंदबुद्धिसत्ताणुग्गहट्ठदाए तस्स साफल्लादो ।
अर्थात्, जिन भगवान् के वचनोंमें पुनरुक्त दोषकी संभावना भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि, मंदबुद्धि जीवोंका उससे उपकार होता है, यही उसका साफल्य है । पृ. ४५३ पर कहा हैसुहुमपरूवणमेव किण्ण वुश्चदे ? ण, मेहावि- मंदाइमंदमेहाविजणाणुग्गहकारणेण तहोवएसा |
अर्थात्, अमुक बातका सूक्ष्म प्ररूपणमात्र क्यों नहीं कर दिया, विस्तार क्यों किया ? इसका उत्तर है कि मेधावी, मंदबुद्धि और अत्यंत मंदबुद्धि, इन सभी प्रकार के लोगों का अनुग्रह करने के लिये उस प्रकार उपदेश किया गया है ।
इसी चतुर्थभागके पृ. ९ पर कहा है
किममुभयथा णिद्देसो कीरदे ? न, उभयनयाव स्थित सच्चानुग्रहार्थत्वात् । ण तइओ णिदेसा अस्थि, णयद्दयसंट्ठियजीववदिरित्तसोदाराणं असंभवादो ।
अर्थात्, प्रश्न होता है कि ओघ और आदेश, ऐसा दो प्रकारसे ही क्यों निर्देश किया गया है ?
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