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सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार सामने भी सिद्धान्त शास्त्र नहीं पढने चाहिये ।" इसके अनुसार गृहस्थ ही नहीं, किन्तु मंदबुद्धि मुनि
और समस्त अर्जिकाएं भी निषेधके लपेटेमें आगये । इसका उत्तर हम स्वयं सिद्धान्त-ग्रंथकारों के शब्दोंमें ही देना चाहते हैं ।
पाठक सत्प्ररूपणाके सूत्र ५ और उसकी धवला टीकाको देखें । सूत्र है
एदेसिं चेव चोद्दसण्हं जीवसमासाणं परूवणदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णायवाणि भवति ॥५॥
इसकी टीका है
'तत्थ इमाणि अट्ट अणियोगद्दाराणि ' एतदेवालं, शेषस्य नान्तरीयकत्वादिति चेन्नैष दोषः, मन्दबुद्धिसत्त्वानुग्रहार्थस्वात् ।
___अर्थात् , 'तत्थ इामणि अट्ठ अणियोगहाराणि' इतने मात्र सूत्रसे काम चल सकता था, शेष शब्दोंकी सूत्रमें आवश्यकता ही नहीं थी, उनका अर्थ वहीं गर्भित हो सकता था ? इस शंकाका धवलाकार उत्तर देते हैं कि नहीं, यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्रकारका अभिप्राय मन्दबुद्धि जीवोंका उपकार करना रहा है । अर्थात्, जिस प्रकारसे मन्दबुद्धि प्राणिमात्र सूत्रका अर्थ समझ सकें उस प्रकार स्पष्टतासे सूत्र-रचना की गई है। यहां दो बातें ध्यान देने योग्य हैं । धवलाकारके स्पष्ट मतानुसार एक तो सूत्रकारका अभिप्राय अपना ग्रंथ केवल मुनियोंको नहीं, किन्तु सत्त्वमात्र, पुरुष स्त्री, मुनि, गृहस्थ आदि सभीको ग्राह्य बनानेका रहा है, और दूसरे उन्होंने केवल प्रतिभाशाली बुद्धिमानोंका ही नहीं, किन्तु मन्दबुद्धियों, अल्पमेधावियोंका भी पूरा ध्यान रखा है।
ऐसी बात आचार्यजीने केवल यहीं कह दी हो, सो बात भी नहीं है। आगेका नौवां सूत्र देखिये जो इस प्रकार ह 'ओघेण अस्थि मिच्छादिट्ठी।' यहां धवलाकार पुनः कहते हैं कि
यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायात् ओघाभिधानमन्तरेणापि ओघोऽवगम्यते, तस्येहपुनरुचारणमनर्थकमिति न, तस्य दुर्मेधोजनानुग्रहार्थत्वात् । सर्वसत्त्वानुग्रहकारिणो हि जिनाः, नीरागत्वात् ।
___ अर्थात् , जिस प्रकार उद्देश होता है, उसी प्रकार निर्देश किया जाता है, इस नियमके अनुसार तो ' ओघ' शब्दको सूत्रमें न रखकर भी उसका अर्थ समझा जा सकता था, फिर उसका यहां पुनरुच्चारण अनर्थक हुआ ! इस शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं कि नहीं, दुर्भध, अर्थात् अत्यन्त मन्दबुद्धिवाले लोगोंके अनुग्रहके ध्यानसे उसका सूत्रमें पुनरुच्चारण कर दिया गया है । जिनदेव तो नीराग होते हैं, अर्थात् किसीसे भी रागद्वेष नहीं रखते, और इस कारण वे सभी प्राणियोंका उपकार करना चाहते हैं केवल मुनियों या बुद्धिमानोंका ही नहीं। (सत्प्र. १, पृ. १६२)
और आगे चलिये। सत्प्र. सूत्र ३० में कहा गया है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तिर्यच मिश्र होते हैं । इस सूत्रकी टीका करते हुए आचार्य प्रश्न उठाते हैं कि 'गतिमार्गणाकी प्ररूपणा करने पर इस गतिमें इतने गुणस्थान होते हैं, और इतने नहीं' इस प्रकारके निरूपणसे ही यह जाना जाता है कि इस गतिकी इस गतिके साथ गुणस्थानोंकी अपेक्षा
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