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________________ (१०) पखंडागमकी प्रस्तावना अपने श्लोकोंपर स्वयं टीका भी लिख दी है जिससे उनका लोकगत अभिप्राय खूब सुस्पष्ट हो जाय । उन्होंने अपने 'स्यानाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च' का अर्थ किया है 'सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्र. रूपस्य रहस्यस्य च प्रायश्चित्तशास्त्रस्य अध्ययने पाठे श्रावको नाधिकारी स्यादिति संबंधः। अर्थात्, सूत्ररूप परमागमके अध्ययनका अधिकार श्रावकको नहीं है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सूत्ररूप परमागम किसे कहना चाहिये । क्या वीरसेन-जिनसेन रचित धवला जयधवला टीकाएं सूत्ररूप परमागम हैं, या यतिवृषभके चूर्णिसूत्र परमागम हैं, या भगवत् पुष्पदन्त और भूतबलि तथा गुणधर आचार्योंके रचे कर्मप्राभृत और कषायप्राभृतके सूत्र व सूत्र-गायाएं सूत्ररूप परमागम हैं ? या ये सभी सूत्ररूप परमागम हैं ! सूत्रकी सामान्य परिभाषा तो यह है अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् । अस्तोभमनवधं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः॥ इसके अनुसार तो पाणिनिके व्याकरणसूत्र और वात्स्यायनके कामसूत्र भी सूत्र हैं, और पुष्पदन्त-भूतबलिकृत कर्मप्राभूत या षट्खंडागम और उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र आदि ग्रंथ सभी सूत्र कहे जाते हैं । किन्तु यदि जैन आगमानुसार सूत्रका विशेष अर्थ यहां अपेक्षित है तो उसकी एक परिभाषा हमें शिवकोटि आचार्यके भगवती आराधनामें मिलती है जहां कहा गया है किसुत्तं गणहरकहिय तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहिय अभिण्णदसपुविकहियं च ॥ ३४ ॥ इस गाथाकी टीका विजयोदयामें कहा है कि तीर्थंकरोंके कहे हुए अर्थको जो प्रथित करते हैं वे गणधर हैं, जिन्हें विना परोपदेशके स्वयं ज्ञान उत्पन्न हो जाय, वे स्वयंबुद्ध हैं, समस्त श्रुतांगके धारक श्रुतकेवली हैं और जिन्होंने दशपूत्रों का अध्ययन कर लिया है और विधाओंसे चलायमान नहीं होते, वे अभिन्नदशपूर्वी हैं । इनमें से किसीके द्वारा भी प्रथित प्रथको सूत्र कहते हैं । अब यदि हम इस कसोटी पर षटखंडागम सिद्धान्तको या अन्य उपलब्ध ग्रंथोंको कसे तो ये ग्रंथ 'सूत्र' सिद्ध नहीं होते, क्योंकि, न तो इनके रचयिता तीर्थंकर हैं, न प्रत्येकबुद्ध, न श्रुतकेवली और न अभिन्नदशपूर्वी हैं। धरसेनाचार्यको तो केवल अंग-पूर्वोका एकदेश ज्ञान आचार्यपरम्परासे मिला था। वह उन्होंने ग्रंथविच्छेदके भयसे पुष्पदन्त और भूतबलि आचायोंको सिखा दिया और उसके आधार पर कुछ ग्रंथरचना पुष्पदन्तने और कुछ भूतबलिने की, जो षट्खंडागमके नामसे उपलब्ध है और जिस पर विक्रमकी नौवीं शताब्दिमें वीरसेनाचार्यने धवला टीका लिखी । इस प्रकार यदि हम आशाधरजी द्वारा उक्त सूत्रको सामान्य अर्थमें लेते हैं तो षट्खंडागम सूत्रोंके अनुसार तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भी सूत्र हैं, सर्वार्थसिद्धि भी सूत्र ही ठहरता है, क्योंकि, इसमें षटखंडागमके सूत्रोंका संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है, गोम्मटसार भी सूत्र है, क्योंकि, इसमें भी षटखंडागमके प्रमेयांशका संग्रह, अर्थात् सूत्ररूपसे समुद्धार किया गया है, इत्यादि । पर यदि हम सूत्रका अर्थ भगवती आराधनाकी परिभाषानुसार लें, तो ये कोई भी अन्य सूत्र नहीं सिद्ध होते । इस स्थिति से बचनेका कोई उपाय उपलब्ध नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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