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सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार
( ११ )
अब इन्हीं आशाधरजीके इसी सागारधर्मामृत के प्रथम अध्यायके १० वें श्लोक और उन्हीं के : द्वारा लिखी गई उसकी टीकाको देखिये -
शलाकयेवाप्तगिराप्तसूत्रप्रवेशमार्गो मणिवच्च यः स्यात् । नोऽपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वद् भायादसौ सांव्यवहारिकाणाम् ॥
अर्थात्, जिस प्रकार एक मोती जो कि कांति-रहित है, उसमें भी यदि सलाईके द्वारा छिद्र कर सूत ( डोरा ) पिरोने योग्य मार्ग कर दिया जाय और उसे कांतिवाले मोतियोंकी माला में पिरो दिया जाय तो वह कांति-रहित मोती भी कांतिवाले मोतियोंके साथ वैसा ही, अर्थात् कांतिसहित ही सुशोभित होता है । इसी प्रकार जो पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं है वह भी यदि सद्गुरुके वचनों के द्वारा अरंहतदेव के कहे हुये सूत्रोंमें प्रवेश करनेका मार्ग प्राप्त कर ले, तो वह सम्यक्त्व - रहित होकर भी सम्यग्दृष्टियों में नयोंके जाननेवाले व्यवहारी लोगोंको सम्यग्दृष्टि के समान ही सुशोभित होता । सागारधर्मामृती टीका भी स्वयं आशाधरजीकी बनाई हुई है । उस लोककी टीका सूत्रका अर्थ परमागम और प्रवेशमार्गका अर्थ ' अन्तस्तत्रपरिच्छेदनोपाय ' किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि आशावरजीके ही मतानुसार अविरतसम्यग्दृष्टिकी तो बात क्या, सम्यक्त्वरहित व्यक्तिको भी परमागम के अन्तस्तत्रज्ञान करनेका पूर्ण अधिकार है । और भी सागारधर्मामृत दूसरे अध्यायके २१ वें श्लोकमें आशाधरजी कहते हैं
तस्त्रार्थं प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशवतं तदीक्षाग्रनृता पराजितमहामन्त्रोऽस्तदुर्दैवतः । आंगं पौर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रान्तरः पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन्धन्यो निहन्त्यंहसी ॥
अर्थात्, तीर्थ याने धर्माचार्य व गृहस्थाचार्य के कथनसे जीवादिक पदार्थों को निश्चित करके, एक देशव्रतको धरके, दीक्षा से पूर्व अपराजित महामन्त्रका धारी और मिथ्या देवताओंका त्यागी तथा अंगों (द्वादशांग) व पूत्र ( चौदह पूत्र ) के अर्थसंग्रहका अध्ययन करके अन्य शास्त्रोंका भी अधीता पर्व अन्तमें प्रतिमायोगको धारण करनेवाला पुण्यात्मा जीव पापोंको नष्ट करता है ।
इस पद्यमें आशाधरजीने अजैनसे जैन बनने के आठ संस्कारों, अर्थात् अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढचर्या और उपयोगिताका संक्षेप में निरूपण किया है, जिसमें उन्होंने जैन बनने से पूर्व ही अर्थात् अपनी अजैन अवस्था में ही जैन श्रुतांगों अर्थात् बारह अंग और चौदह पूर्वके 'अर्थसंग्रह ' के अध्ययन कर लेनेका उपदेश दिया है । पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ और चर्या क्रियाओं का स्वरूप स्वयं वीरसेनस्वाम के शिष्य तथा जयधवला के उत्तरभाग के रचयिता जिनसेन स्वामीने महापुराण में भी इस प्रकार बतलाया है
पूजाराध्याख्ययाख्याता क्रियाऽस्य स्यादतः परा । पूजोपवाससम्पत्त्या गृहतोऽङ्गार्थसंग्रहम् ॥ ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी । शृण्वतः पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिणः ॥ तदास्य चर्याख्या क्रिया स्वसमये श्रुतम् । निष्ठाप्य शृण्वतो ग्रंथाम्बायानन्यश्च कश्चन ॥
यहां भी जैन होनेसे पूर्व ही गृहस्थको अंगों के अर्थसंग्रहका तथा पूर्वोकी विद्याओंको सुन छेनेका पूरा अधिकार दिया गया हैं । यद्यपि मेधावीकृत धर्मसंप्रहश्रावकाचार इस समय हमारे सन्मुख नहीं
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