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________________ १, ५, १८४.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [ ११९ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १८२ ॥ कुदो ? ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठिसंताणवोच्छेदस्स सव्वद्धासु अमावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमजणं ॥१८३॥ तं जहा- एगो एइंदिओ मुहुमवाउकाइएसु अधोलोगते ट्ठिएसु खुद्दाभवग्गहणाउद्विदिएसु तिण्णि विग्गहे काऊण उववण्णो । तत्थ तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमपज्जत्तो होदण जीविय मदो, विग्गहं कादण कम्मइयकायजोगी जादो । एवं तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमोरालियमिस्सजहण्णकालो जादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १८४ ॥ तं जधा- अपञ्जत्तएसु उववज्जिय संखेज्जाणि भवग्गहणाणि तत्थ परियडिय पुणो पजत्तएसु उववज्जिय ओरालियकायजोगी जादो । एदाओ संखेज्जभवग्गहणद्धाओ मिलिदाओ वि मुहुत्तस्संतो चेव होति । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ! नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १८२॥ क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टियोंकी परम्पराके विच्छेदका सर्वकालों में अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १८३ ॥ जैसे- एकेन्द्रिय जीव अधोलोकके अन्तमें स्थित और क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण आयु. स्थितिवाले सूक्ष्मवायुकायिकोंमें तीन विग्रह करके उत्पन्न हुआ। वहां पर तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणकाल तक लब्ध्यपर्याप्त हो, जीवित रह कर मरा । पुनः विग्रह करके कार्मणकाययोगी हो गया। इस प्रकारसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण औदारिकमिश्रकाय. योगका जघन्य काल सिद्ध हुआ। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८४॥ जैसे- कोई एक जीव लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यात भवग्रहणप्रमाण उनमें परिवर्तन करके पुनः पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर औदारिककाययोगी हो गया। इन सब संण्यात भवोंके ग्रहण करनेका काल मिल करके भी मुहूर्तके अन्तर्गत ही रहता है, अधिक महीं होता है। Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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