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________________ १५४ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ४, ४. करणङ्कं सव्वगच्छेस एगेगरूवपक्खूणो' कायव्वो । एवं काढूण चउसद्विरूवेहिं मज्झिमधाणि ओडियलद्वेण सग-सगगच्छे गुणिय सव्वगच्छाणं चउसट्ठिरुवाणि गुणिज्जमाणत्तणेण वेदव्वाणि । एवं कदे वड्डिदेशसिस्स पमाणं वुच्चदे - एगरूत्रमादि काढूण गच्छं पडि दुगुण- दुगुणकमेण सयंभूरमणसमुद्दो त्ति गच्छरासी वड्ढिदो होदि । संपहि विशेषार्थ — गच्छकी मध्यसंख्यापर जो वृद्धिका प्रमाण आता है, उसे मध्यमधन कहते हैं । यह धन उत्तरोत्तर दुगुणरूपसे बढ़नेवाले गच्छों में दुगुणा होता जाता है। तृतीय समुद्रका गच्छ ३२ है । प्रथम स्थानपर तो चारकी वृद्धि होती नहीं है, अतएव उसे छोड़कर जो शेष ३१ स्थान बचते हैं, उनमें सोलहवां स्थान मध्यम रहता है और उसकी वृद्धिका प्रमाण ६४ होता है । जैसे ४, १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, ८, १२, १६, २०, २४, २८, ३२, ३६, ४०, ४४, ४८, ५२, ५६, ६०, १२४, १२०, ११६, ११२, १०८, १०४, १००, ९६, ९२, ८८, ८४, ८०, ७६, ७२, ६८, ३१, ३०, २९, २८, २७, २६, २५, २४, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १७, इस क्रमले गच्छके मध्यवर्ती सोलहवें स्थानपर वृद्धिका प्रमाण ६४ आता है । इसलिए तृतीय समुद्रसम्बन्धी मध्यमधन ६४ है । इसी प्रकार आगे के द्वीपका गच्छ ६४ होनेसे उसका मध्यमधन १२८ होगा, जो अपने पूर्ववर्ती मध्यमधन ६४ के प्रमाणसे दुगुणा होता है । इस प्रकार आगे आगे द्वीप और समुद्रोंका मध्यमधन दुगुण-प्रमाणसे बढ़ता जाता है । पुनः गच्छोंके समीकरणके लिए सभी गच्छोंमें एक एक रूपकी हानि ( कमी ) करना चाहिए। ऐसा करके चौंसठ रूपोंसे मध्यम धनको अपवर्तित कर लब्धराशिसे अपने अपने गच्छोंको गुणा करके चौंसठ संख्याको सर्व गच्छोंकी गुण्यमान राशिरूपसे स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने पर बढ़ी हुई राशिका प्रमाण कहते हैं- एक रूपको आदि करके, एक एक गच्छपर दुगुण दुगुण-क्रम से स्वयम्भूरमणसमुद्र तक गच्छराशि बढ़ती हुई चली जाती है। उदाहरण - मध्यमधन ६४, (१) ॣ × ३१ × ६४ = १९८४ उत्तरधन, अर्थात् कुल वृद्धिका प्रमाण । इस उत्तरधनको २८८ × ३२ = ९२१६ में मिला देने से तृतीय समुद्रसम्बन्धी समस्त चन्द्रों का प्रमाण हो जाता है११२०० सर्वधन ) ( ९२१६ + १९८४ = १ प्रतिषु ' पक्खेण ' इति पाठः । २ त्रिलोकप्रज्ञप्तौ अत्र अग्रतोऽपि च ' वडिद ' स्थाने ' रिण ' इति पाठः । Jain Education International १६ ६४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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