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________________ १, ४, १.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादिहिफोसणपरूवणं [१५३ गच्छो बत्तीस, चउत्थदीवे गच्छो चउसट्ठी, उपरिमसमुद्दे गच्छो अट्ठावीसुत्तरसयं । एवं दुगुणकमेण गच्छा गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुदं ति । संपहि एदेहिं गच्छेहिं पुध गुणिजमाणरासिपरूवणा कीरदे । तदियसमुद्दे वेसदमट्ठासीदं, उवरिमदीवे तत्तो दुगुणं । एवं दुगुण दुगुणकमेण गुणिज्जमाणरासीओ गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुदं पत्ताओ ति । संपहि अट्ठासीदि-विसदेहि सव्वगुणिज्जमाणरासीओ ओवट्टिय लद्धेण सग-सगगच्छे गुणिय अट्ठासीदि-वेसदमेव सव्यगच्छाणं गुणिज्जमाणं कायव्यं । एवं कदे सबगच्छा अण्णोण्णं पक्खिदूण चदुग्गुणकमेण अवडिदा जादा। संपहि चत्तारिमादि कादूण चदुरुत्तरकमेण गदसंकलणाए आणयणे कीरमाणे पुबिल्लगच्छेहितो संपहियगच्छा रूऊणा होति, दुगुणजादट्ठाणे चत्तारिरूवबड्डीए अभावादो । एदेहि गच्छेहि गुणिज्जमाणमज्झिमधणाणि चउसद्विमादि काऊण दुगुण-दुगुणकमेण गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुदं ति । पुणो गच्छसमी इनके विमानोंकी संख्या निकालनेको प्रक्रिया पहले कहते हैं- तृतीय समुद्र में गच्छका प्रमाण बत्तीस, चतुर्थ द्वीपमें गच्छका प्रमाण चौंसठ, इससे आगेके समुद्र में गच्छका प्रमाण एकसौ अट्ठाईस होता है। इस प्रकार दूने दूने क्रमसे गच्छ स्वयम्भूरमणसमुद्र तक बढ़ते हुए चले जाते हैं। अब इन गच्छोंसे पृथक् पृथक् गुण्यमान (गुणा की जानेवाली) राशियोंकी प्ररूपणा करते हैं। तृतीय समुद्र में गुण्यमानराशि दो सौ अठासी है, उससे उपरिम द्वीपमें गुण्यमानराशि इससे दूनी (२८८४ २=५७६) है। इस प्रकार दूने दूने क्रमसे गुण्यमान राशियां स्वयम्भूरमणसमुद् प्राप्त होने तक दूनी होती हुई चली जाती हैं। उदाहरण-२८८, ५७६, ११५२, २३०४, ४६०८, ९२१६, १८४३२ इत्यादि । (गुण्यमानराशियां) अब दो सौ अठासीसे सभी गुण्यमान राशिओंको अपवर्तितकर लब्धराशिसे अपने अपने गच्छोंको गुणित करके दो सौ अठासीको ही सर्व गच्छोंकी गुण्यमानराशि करना चाहिए । ऐसा करनेपर सर्व गच्छ परस्परकी अपेक्षासे चतुर्गुण-क्रमसे अवस्थित हो जाते हैं। उदाहरण-(१) २२८ = १, १४ ३२ = ३२, (२) १७८ = २, २४ ६४ = १२८, इत्यादि । यहांपर प्रथम गच्छ ३२ से द्वितीय गच्छ १२८ चौगुणा हो गया है। अब चारको आदि करके चार चारके उत्तरक्रमसे वृद्धिंगत संकलनके निकालनेपर पहले के गच्छोंसे इस समयके गच्छ एक कम होते हैं, क्योंकि, दुगुणे हुए स्थानपर चार रूपकी वृद्धिका अभाव है। इन गच्छों से गुणा किये जानेवाले मध्यमधन, चौंसठको आदि करके दुगुण दुगुणक्रमसे स्वयम्भूरमणसमुद्र तक बढ़ते हुए चले जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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