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________________ १५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १. (अट्ठासीतिं च गहा अट्ठावीसं तु हुंति नक्खत्ता ।। एगससीपरिवारो इत्तो ताराण वोच्छामि ॥) छावठिं च सहस्सं णवयसदं पंचसत्तरि य होति । एयससीपरिवारो ताराणं कोडिकोडीओ ॥ ३ ॥ एदाहि ताराहि चंदाइच्च गह-णक्खत्तेहि य पंचट्ठाणहिदं परिवाडीए गुणिय मेलाविदे जोदिसियसव्वविमाणाणि होति। तिरियलोगावट्ठिदसयलचंदाणं सपरिवाराणमाणयणविहाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- जंबूदीवादिपंचदीवसमुद्दे मोत्तूण तदियसमुद्दमादि कादूण जाव सयंभूरमणसमुद्दो नि एदासिमाणयणकिरिया ताव उच्चदे- तदियस मुद्दम्मि - (एक चन्द्रके परिवारमें (एक सूर्यके अतिरिक्त) अठासी ग्रह और अट्ठाईस नक्षत्र होते हैं, तथा तारोंका परिमाण आगे कहते हैं ॥) एक चन्द्रके परिवार में छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोडाकोड़ी ६६९७५०००००००००००००० तारे होते हैं ॥३॥ इन ताराओंसे, तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रोंसे पांच स्थानपर अवस्थित उपर्युक्त चन्द्र विमानसंख्याको परिपाटी-क्रमसे गुणितकर मिला देनेपर ज्योतिषी देवोंके सर्व विमान हो जाते हैं। विशेषार्थ-अभी ऊपर जो चन्द्र-बिम्बोंकी संख्या निकाल आए हैं, उसे पांच स्थानोपर स्थापित करना चाहिए । पुनः चूंकि एक चन्द्र के परिवार में एक सूर्य, अठासी ग्रह, अट्ठाईस नक्षत्र और ऊपर बताये गए प्रमाणवाले तारे होते हैं, इसलिए इनसे क्रमशः पांच स्थानोंपर अवस्थित चन्द्र-संख्याको गुणित करनेपर उनका प्रमाण इस प्रकार आ जाता है चन्द्रसंख्या, सूर्यसंख्या, ग्रहसंख्या, नक्षत्रसंख्या, तारासंख्या च x १; च x १६ च ८८; च x २८; च ६६९७५०००००००००००००० ___ अब तिर्यग्लोकमें अवस्थित सपरिवार सकल चन्द्रोंके प्रमाणको निकालने का विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है- जम्बूद्वीपादि तीन द्वीप और लवणसमुद्रादि दो समुद्र, इन पांच द्वीप समुद्रोंको छोड़कर तृतीय समुद्रको आदि करके स्वयम्भूरमणसमुद्र आने तक १ गाथेयं प्रतिषु नोपलभ्यते, किन्तृत्तरगाथया सहास्या अविनामावित्वादत्रोदृता । इयं गाथोत्तरगाथया सह सूर्यप्रसप्तावुपलभ्यते । ( अमि. रा. कोष, चन्द्रशब्दे ) २ अडसीदट्ठावीसा गहरिक्खा तार कोडकोडीणं । छ.वट्टि सहस्साणि य णवस यपण्णत्तििग चंदे ॥ त्रि सा. ३६२. ३ आणिय गुणसंकलिदं किंचूणं पंचठाणसं ठविदं । चंदादिगुणं मिलिदे जोइस बिंबाणि सव्वाणि ॥ त्रि. सा. ३६१ ४ इत आरभ्यातनः संदर्भः अग्रतन-रूपोनमादिस गुणेत्यादि आर्यासूत्रखंडातप्राक् तिलोयपण्णति ज्योतिलोकाधिकारगतेनानेन प्रकरणेन प्रायः शब्दशः समानः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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