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________________ ३५४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २५. पयारेहि, चढणमस्सिदूण उवसंतकसायस्स एगपयारेण एगसमयपरूवणा कायव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥२५॥ तं जहा- एक्को अप्पमत्तो अपुग्धउवसामगो जादो । तत्थ सव्वुक्कस्समतोमुहुत्तमाच्छय अणियट्टिट्ठाणं पडिवण्णो । एवं तिण्हमुवसामगाणं वत्तव्यं । चदुण्हं खवगा अजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २६ ॥ तं कधं ? सत्तड जणा अट्टत्तरसदं वा अप्पमत्ता अप्पमत्तद्धाए खीणाए अपुव्वकरणखवगा जादा । अंतोमुहुत्तमच्छिय अणियट्टिढाणं गदा । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जाणिदूण भाणिदव्वं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७ ॥ तं जधा- सत्तट्ट जणा वा बहुगा वा अप्पमत्तसंजदा अपुरखवगा जादा। ते तत्थ और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानी उपशामकों के चढ़ने और उतरनेके विधानकी अपेक्षा दोनों प्रकारोंसे तथा आरोहणका आश्रय करके उपशान्तकषाय उपशामककी एक प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२५॥ वह इस प्रकार है- एक अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण गुणस्थानी उपशामक हुआ। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रहकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इसी प्रकारसे तीनों उपशामकोंके एक समयकी प्ररूपणा कहना चाहिए । अपूर्वकरण आदि चारों क्षपक और अयोगिकेवली कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं ॥ २६ ॥ वह इस प्रकार है- सात आठ जन, अथवा अधिकसे अधिक एक सौ आठ, अप्रमत्तसंयत जीव, अप्रमत्तकालके क्षीण हो जाने पर, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती क्षपक हुए । वहां पर अन्तर्मुहूर्त काल रह करके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त हुए । इसी प्रकारसे अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगिकेवली, इन चारों क्षपकोंके जघन्य कालकी प्ररूपणा जान करके कहलाना चाहिए। चारों क्षपकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२७॥ वह इस प्रकार है - सात आठ जन अथवा बहुतसे अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण १ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १,८. २ चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवलिनां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः । स.सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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