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१, ५, २९.] कालाणुगमे खवग-अजोगिकेवलिकालपरूवणं अंतोमुहुत्तमच्छिय अणियट्टिणो जादा । तम्हि चेव समए अण्णे अप्पमत्ता अपुव्वखवगा जादा । एवं पुणो पुणो संखेज्जवारं चढणकिरियाए कदाए णाणाजीवे अस्सिदण अपुव्वकरणुक्कस्सकालो होदि । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जाणिदूण वत्तव्यं ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २८ ॥
तं जहा-एको अप्पमत्तो अपुव्यकरणो जादो अंतोमुहुत्तमच्छिदूण अणियट्टिखवगो जादो । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जहण्णकालपरूवणा कादव्या ।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २९ ॥
एको अप्पमत्तो अपुव्वखवगो जादो । तत्थ सव्वुकस्समतोमुहुत्तमच्छिदूण अणियट्विगुणट्ठाणं पडिवण्णो। एगजीवमस्सिदूण अपुरकरणुकस्सकालो जादो । एवं चेव चदुण्हं खवगाणं जाणिदूण वत्तव्यं । एत्थ जहण्णुक्कस्सकाला वे वि सरिसा, अपुव्वादिपरिणामाणमणुकट्टीए अभावादो ।
गुणस्थानी क्षपक हुए। वे वहां पर अन्तर्मुहूर्त रह करके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानी हो गये। उसी ही समयमें अन्य अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण क्षपक हुए । इस प्रकार पुनः पुनः
तवार आरोहणक्रियाके करने पर नाना जीवाका आश्रय करके अपूर्वकरण क्षपकका उत्कृष्ठ काल होता है । इसी प्रकारसे चारों क्षपकों का काल जान करके कहना चाहिए ।
एक जीवकी अपेक्षा चारों क्षपकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२८॥
वह इस प्रकार है - एक अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण गुणस्थानी क्षपक हुआ और अन्तमहत रह करके अनिवृत्तिकरण क्षपक हुआ । इसी प्रकारसे चारों क्षपकोंके जघन्य कालकी प्ररूपणा करना चाहिए।
एक जीवकी अपेक्षा चारों क्षपकोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहते है ॥ २९॥
एक अप्रमत्तसंयत जीव अपूर्वकरण क्षपक हुआ। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह करके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह एक जीवको आश्रय करके अपूर्वकरणका उत्कृष्ट काल हुआ। इसी प्रकारसे चारों क्षपकोंका काल जान करके कहना चाहिए । यहां पर जघन्य और उत्कृष्ट, ये दोनों ही काल सहश हैं, क्योंकि, अपूर्वकरण आदिके परिणामोंकी अनुकृष्टिका अभाव होता है।
विशेषार्थ-यहां पर अपूर्वकरण आदिके परिणामों की अनुकृष्टिके अभाव कहनेका
१ अंतोमुहुत्तमेत्ते पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । कमउमापुव्वगुणे अणुकही णस्थि णियमेण ॥ गो. जी. ५३, अम्हा उवरिमभावा हेडिमभावेहिं सरिसगा णथि । तम्हा विदियं करणं अपुवकरणं ति णिदिह्र ॥ लब्धि. ५१. तत्र अनुकृष्टि म अधस्तनसमयपरिणामखंडाना उपरितनसमयपरिणामखेडैः सादृश्यं भवति । गो. जी, जी. प्र. ४९. अपूर्वकरणगुणस्थाने नियमेन अवश्यंभावेन अनुकृष्टि स्ति, तत एवं प्रतिसमयपरिणामामा बहुखंडविधानामावः । गो. जी. म.प्र. ५३.
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