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________________ ३५६ ] छडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, ३० सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३० ॥ तिसु वि कालेसु जेण एक्को वि समओ सजोगिविरहिदो णत्थि तेण सव्वद्धत्तणं जुज्जदे | एगजीवं पडुच जहण्णेण अंतोमुहुतं ॥ ३१ ॥ तं कथं ? एक्को खीणकसाओ सजोगी होदूण अंत मुहुत्तमच्छिय समुग्धादं करिय पच्छा जोगणिरोहं किच्चा अजोगी जादो । एवं सजोगिस्स जहण्णकालपरूवणा एगजीवमल्लीणा गदा । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देणा ॥ ३२ ॥ अभिप्राय इस प्रकार है- विवक्षित समय में विद्यमान जीवके अधस्तन समयवर्ती जीवोंके परिणामोंके साथ सदृशता होनेको अनुकृष्टि कहते हैं । अधःप्रवृत्तकरण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में सदृशता पाई जाती है, इसलिए वहां पर अनुकृष्टि रचना बतलाई गई है । किन्तु अपूर्वकरण आदिमें उपरितन समयवर्ती जीवों के परिणामोंकी अधस्तन समयवर्ती जीवों के परिणामोंके साथ सदृशता नहीं पाई जाती है, इसलिए अपूर्वकरण आदिमें अनुकृष्टि रचनाका अभाव होता है। इसी कारण अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंके जघन्य काल और उत्कृष्ट काल, सदृश बतलाये गये हैं । सयोगिकेवली जिन कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३० ॥ चूंकि, तीनों ही कालों में एक भी समय सयोगिकेवली भगवान् से विरहित नहीं है, इसलिए सर्व कालपना बन जाता है । एक जीवकी अपेक्षा सयोगिकेवलीका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३१ ॥ वह इस प्रकार है एक क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ संयत जीव सयोगकेवली हो, अन्तर्मुहूर्त काल रह, समुद्धात कर, पीछे योगनिरोध करके अयोगिकेवली हुआ । इस प्रकार सयोगिजिनके जघन्य कालकी प्ररूपणा एक जीवका आश्रय करके कही गई । एक जीवकी अपेक्षा सयोगिकेवलीका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटी है ॥ ३२ ॥ १ सयोगकेवलिमा नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, २ एकजीवं प्रति जघन्येमान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना | स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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