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________________ १, ३, १८.] खेत्ताणुगमे विगलिंदियखेत्तपरूवणं [८५ ___एदस्स अत्थो वुच्चदे-- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादपरिणदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगणे । णवरि तिण्हमपज्जत्ता चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । मारणंतियउववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे, अड्डाइज्जादो वि असंखेज्जगुणे । एत्थ मारणंतियखेत्तमाणिज्जमाणे बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदिया तेसिं पज्जत्त-अपज्जत्तदव्वं ठविय आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्त-उवक्कमणकालेण खंडिय तस्स असंखेज्जदिभागो वा संखेज्जदिभागो वा मारणंतिएण विणा मरदि त्ति एदस्स असंखेज्जा भागा संखेज्जा भागा' वा घेत्तूण मारणंतिय-उवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे मारणंतियरासी होदि । रज्जुमेत्तायामेण विदरासिमिच्छामो त्ति पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारं ठविय अप्पप्पणो विक्खंभवग्गगुणिदरज्जूए गुणिदे मारणंतियखेत्तं होदि । उववादखेतं ठविज्जमाणे एवं चेव ठविय मारणंतिय-उवक्कमण कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ १८ ॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात, इन पदोसे परिणत हुए उक्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, तिर्यग्लोक संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वपिसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इतनी विशेषता है कि तीनों ही विकलेन्द्रियों के अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। मारणातिकसमुद्ध त और उपपादको प्राप्त हुए तीनों विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें, तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें तथा अढ़ाईद्वीपसे भी असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । यहांपर मारणान्तिकक्षेत्रके लाते समय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा उनकी पर्याप्त और अपर्याप्त जीवराशिको स्थापित कर उसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालसे खंडित करके उसका जो असंख्यातवां ग अथवा संख्यातवां भाग लब्ध आवे, उतनी राशि मारणान्तिकसमुद्घातके विना मरण करती है। इसलिये इस राशिके असंख्यात बहुभाग अथवा संख्यात बहुभागप्रमाण राशिको ग्रहण करके उसे मारणान्तिकसमुद्धातके उपक्रमण कालरूप आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर मारणान्तिक जीवराशि होती है। यहां एक राजुमात्र आयामसे स्थित मारणान्तिक जीवराशि इच्छित है, इसलिये उक्त राशिके नीचे भागहारके स्थानमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र भागहारको स्थापित करके और अपने अपने विष्कभके वर्गसे गुणित राजुसे उक्त राशिके गुणित करने पर मारणान्तिकसमुद्घातगत विकलत्रय और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंका मारणान्तिकक्षेत्र होता है। उपपादक्षेत्रके लाते समय इसी मारणान्तिक जीवराशिको स्थापित करके और उसमेंसे मारणा १ प्रतिषु ' असंखेज्जा भाग संखेज्जा भार्ग' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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